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OF
THE INSCRIPTIONS IMPERIAL PARAMĀRAS
L. D. SERIES 73
GENERAL EDITORS DALSUKH MALVANIA NAGIN J. SHAH
EDITED BY DR. A. C. MITTAL PROFESSOR OF HISTORY GOVT. P. G. COLLEGE MANDSAUR (M.P.)
(3) L.). SITUTE OF INDOLOEY SUMEDAD 300
L.D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD 3800
CO
OMBIA
Jan Edition
Forvetes
use on
www.jattelibrary.org
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THE INSCRIPTIONS OF IMPERIAL
PARAMĀRAS
( 800 A. D. to 1320 A. D. )
L. D. SERIES 73 GENERAL EDITORS DALSUKH MALVANIA NAGIN J. SHAH
EDITED BY Dr. A. C. MITTAL Professor of History Govt. P. G. College, MANDSAUR (M. P.)
L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY, AHMEDABAD-9.
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Printed by Narendra Tiwari, Nai Dunia Press, Kesharbagh Road, INDORE - 452 002.
and Published by Nagin J. Shah Director L. D. Institute of Indology AHMEDABAD-380009.
FIRST EDITION June 1979.
"The publication of the research work was financially supported by the Indian Council of Historical Research". "The responsibility for the facts stated, opinions expressed or conclusions reached is entirely that of the author and the Indian Council of Historical Research accepts no responsibility for them".
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परमार अभिलेख
ਨਾਨ
भारतीय
नीच संस्कृति
• विधामादर
सम्पादक
डा० अमरचन्द मित्तल
प्रकाशक
लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर अहमदाबाद - ९
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प्रधान संपादकीय
'परमार अभिलेख' नामक ग्रन्थ प्रकाशित करके ला. द. विद्यामंदिर को अत्यन्त हर्ष हो रहा है। इसमें डॉ. मित्तल ने कुल ८५ अभिलेखों का संकलन किया है। साथ ही प्रत्येक अभिलेख पर महत्त्वपूर्ण टीका तथा कष्टसाध्य हिन्दी अनुवाद दिया है । एपिग्राफिका इंडिका, इंडियन ऐंटीक्वेरी, इंडियन हिस्टारिकल' क्वार्टरली आदि अनेक रिसर्च जर्नलों-रिपोर्टों आदि में बिखरे हुए परमार राजवंशीय अभिलेखों का प्रस्तुत ग्रन्थ में संग्रह होने से इस विषय के अनुसंधानकर्ताओं तथा विद्वानों को बहुत सुविधा होगी । जो अभिलेख इससे पूर्व जहाँ भी प्रकाशित हुए हैं वे अंग्रेजी भाषा में हुए हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ से हिन्दी भाषा भाषी विद्वानों तथा विद्यार्थियों को सुविधा होगी तथा यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। डॉ. मित्तल ने अभिलेखों को समझने के लिये पूर्व में विस्तृत भूमिका दी है। इसमें परमार साम्राज्य की भौगोलिक एवं भौतिक स्थिति, परमारों की उत्पत्ति, अभिलेखों का महत्त्व, परमार साम्राज्य की राजनीतिक व्यवस्था, मंत्री परिषद्, प्रशासनिक विभाग, राजस्व एवं कर विभाग, नागरिक व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, सामाजिक स्थिति एवं आर्थिक व्यवस्था के समान महत्त्वपूर्ण विषयों का समुचित विवेचन किया है । अनेक ताम्रपत्रों व अभिलेखों के चित्र भी दिये हैं । इससे ग्रन्थ और अधिक उपयोगी हो गया है। हमारा विश्वास है कि यह ग्रन्थ विद्वानों का यथेष्ट आदर पात्र होगा। डा. मित्तल ने ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ राष्ट्रभाषा में तैयार किया इसके लिये हम उनको बधाई देते हैं । इंडियन कौंसिल ऑफ हिस्टॉरिकल रिसर्च, नई देहली ने इस ग्रन्थ के प्रकाशनार्थ रु. ५००० का अनुदान दिया जिसके लिये हम उनके प्रति अत्यन्त आभारी हैं।
ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद-३८०००९ १५ जून, १९७९
मगीन शाह (अध्यक्ष)
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दो शब्द
विगत वर्षों में स्नातकोत्तर महाविद्यालय, धार में स्थानान्तरण होने पर मेरा ध्यान परमार राजवंश की ओर आकर्षित हुआ। वहाँ स्थित भोजशाला में कतिपय प्राकृत अभिलेखों की-प्राप्ति का समाचार मिला । स्थानीय विद्वानों से सम्पर्क करने पर कुछ अन्य अभिलेखों के सम्बन्ध में भी सूचना मिली खोजबीन करने पर ज्ञात हआ कि परमारों के सम्बन्ध में कोई विशेष कार्य नहीं हआ है। लगभग ५० वर्ष पूर्व डी. सी. गांगुली ने तथा प्रायः १५ वर्ष पूर्व प्रतिपाल भाटिया ने इनके सम्बन्ध में लिखा था। तिस पर भी राजवंशीय अभिलेखों का कार्य पूर्णतः अछूता रहा । अतएव मैंने अभिलेखों के संकलन एवं समालोचनात्मक अध्ययन का कार्य हाथ में लिया।
अभी तक ८५ अभिलेख संस्कृत में प्राप्त हो चुके हैं । इनमें से कुछ अभिलेख उन्नीसवीं शताब्दी म मिले थे, कुछ विगत वर्षों में खोजे गये परन्तु कुछ वर्तमान में मिले । उनकी प्रतिलिपियां प्राप्त कर मूलपाठ तैयार किये एवं शब्दशः हिन्दी अनुवाद किया। अभिलेखों के विवरण का क्रम निम्न प्रकार है:- प्राप्ति का विवरण, पूर्व उल्लेख, ताम्रपत्रों की संख्या अथवा प्रस्तरखण्ड की स्थिति, आकार, ताम्रपत्रों का वजन, अभिलेख की दशा, अक्षरों का आकार, अक्षरों की दशा, भाषा, लिपि, वर्णविन्यास ध्येय, दान प्राप्तकर्ता, दान का विवरण, तिथि एवं उसका समीकरण, वंशवक्ष, अभिलेख का विवरण, ऐतिहासिक महत्व, भौगोलिक नाम तथा उनका तादात्म्य ।
प्रस्तुत संकलन में प्राकृत अभिलेखों को छोड़ दिया गया है। वे अत्यन्त क्षतिग्रस्त हैं । साथ ही उनसे प्राप्त ऐतिहासिक सूचना अत्यन्त न्यून है।
अभिलेखों के समीक्षात्मक अध्ययन से अनेक नवीन तथ्य सामने आते हैं। भोज महान के उत्तराधिकार की समस्या में जयसिंह प्रथम एवं उदयादित्य का संघर्ष तथा उदयादित्य के भोज के साथ सम्बन्ध अब अधिक स्पष्ट हो गये हैं । उदयादित्य के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र लक्ष्मदेव उसका उत्तराधिकारी माना जाता था। परन्तु नवीन अभिलेखों की प्राप्ति से यह निश्चित होता है कि लक्ष्मदेव की मृत्यु अपने पिता के शासनकाल में ही हो गई थी। अतः उसके शासन करने का प्रश्न ही नहीं उठता। उसका दूसरा पुत्र नरवर्मन उदयादित्य का उत्तराधिकारी हुआ। तीसरे पुत्र जगदेव के दो अभिलेख बरार क्षेत्र से प्राप्त होते हैं । वह क्षेत्र परमार साम्राज्य से बाहर था । संभव है कि जगद्देव दक्षिण के चालुक्यों, जो उसके सम्बन्धी थे, का प्रान्तपति रहा हो । अब परमार महाकुमारों के उत्तराधिकार एवं क्रम को निर्धारित करने में सुविधा हो गई है। इसी प्रकार राजवंशीय नरेशों का शासनकाल निश्चित करना भी सरल हो गया है । अभिलेखों के प्राप्त स्थलों के आधार पर परमारों के साम्राज्य का विस्तार ठीक-ठीक ज्ञात हो सकता है।
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परमार नरेशों ने प्रायः ८०० ई. से १३२० ई. तक शासन किया था । तत्कालीन मालवा की राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक स्थितियों के ज्ञान के लिये अभिलेखों का महत्व सर्वथा उजागर है। इस प्रकार प्रस्तुत संकलन एवं समीक्षा द्वारा परमारों के सम्बन्ध में हमारे ज्ञान में पर्याप्त वृद्धि होती है।
इस ग्रन्थ के तैयार करने में मैंने पूर्वकालीन विभिन्न रिसर्च जर्नलों एवं ग्रन्थों का मुक्तहस्त , उपयोग किया है । मैं यह दावा नहीं करता कि इसमें पूर्ण मौलिकता है। यद्यपि यह सही है कि विश्लेषणात्मक रूप से इसमें समाविष्ट अनेक विचार एवं तर्कादि मेरे स्वयं के हैं।
भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नई देहली ने इस ग्रन्थ को छापने हेतु आर्थिक सहायता प्रदान कर मुझे अनुग्रहीत किया है। साथ ही लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद ने इस ग्रन्थ को छापकर अनुसंधान के कार्य को प्रगति प्रदान की । मैं इसके लिये इनका आभार मानता हूँ।
__अमरचन्य मित्तल
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अनुक्रमणिका अभिलेखों की सूचि
चित्र सूचि
सूचि
परमार राजवंश का वंशवृक्ष
परिचय
परमार साम्राज्य की भौगोलिक एवं भौतिक स्थिति
परमारों की उत्पत्ति
(अ) अग्निकुल उत्पत्ति (आ) गुर्जर उत्पत्ति (इ) राष्ट्रकूट उत्पत्ति (ई) ब्रह्मक्षत्र उत्पत्ति
परमार अभिलेखों का महत्त्व
अभिलेखों का वर्गीकरण
लिखने का आधार वंशवृक्ष निर्माण
नरेशों का शासनकाल निर्धारण दापक, लेखक एवं लिखने की विधि उत्कीर्णकर्ता
अनुक्रमणिका
परमार साम्राज्य की राजनीतिक व्यवस्था
केन्द्रीय व्यवस्था - राजतंत्रात्मक स्वरूप
नरेश सर्वशक्ति सम्पन्न उत्तराधिकार
मंत्री परिषद्
महाप्रधान महासंधिविग्रहिक
महादण्डनायक
महाप्रतिहार
राजगुरू महापुरोहित अथवा पुरोहित
पृष्ठ
१
४
is
९
१०
११
११
१२
१४
१५
१९
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(२)
२१
प्रशासनिक विभाग
मण्डल विषय-भोग
पथक प्रतिजागरणक ग्रामसमूह नगर
ग्राम माण्डलिक (प्रान्तपाल) सैन्य व्यवस्था न्याय व्यवस्था पुलिस व्यवस्था
राजस्व एवं कर विभाग
भाग
भोग
उपरिकर हिरण्य शुल्क मार्गादाय
गृहकर
नागरिक व्यवस्था
महत्तम या महत्तर मण्डपिका संघ निर्माण
प्राम व्यवस्था
तलार या तलाराध्यक्ष दण्डपाशिक चौरिक शौकिक
गोकुलिक पट्टकिल राज्याध्यक्ष
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( ३)
धार्मिक व्यवस्था
देवीदेवता शक्ति पूजा सरस्वती पूजा सूर्य पूजा तीर्थ स्नान जैन धर्म
सामाजिक स्थिति
ब्राह्मण क्षत्रिय
वैश्य
कायस्थ स्त्रियों की स्थिति विद्यापीठ
आर्थिक व्यवस्था
सुदृढ़ आर्थिक स्थिति सिंचाई व्यवस्था शिल्प, व्यापार एवं संघ तोल व माप सिक्के
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(४)
अभिलेखों को सूचि
क्रमांक
१. हरसोल का सीयक द्वितीय का ताम्रपत्र 'अ' (संवत् १००५=९४९ ई.) २. हरसोल का सीयक द्वितीय का ताम्रपत्र 'ब' (संवत् १००५ =९४९ ई.) ३. अहमदाबाद का सीयक द्वितीय का ताम्रपत्र (संवत् १०२६-९६९ ई.) ४. धरमपुरी का वाक्पतिराज द्वितीय का ताम्रपत्र (संवत् १०३१= ९७४ ई.) ५. उज्जैन का वाक्पतिराज द्वितीय का ताम्रपत्र (संवत् १०३६=९७९ ई.) ६. गाऊनरी का वाक्पतिराज द्वितीय का ताम्रपत्र (संवत् १०३८=९८१ ई.) ७. गाऊनरी का वाक्पतिराज द्वितीय का ताम्रपत्र (संवत् १०४३=९८६ ई.). ८. मोडासा का भोजदेव कालीन ताम्रपत्र (संवत् १०६७=१०११ ई.) ९. महुडी का भोजदेव का ताम्रपत्र (संवत् १०७४=१०१८ ई.) १०. बांसवाड़ा का भोजदेव का ताम्रपत्र (संवत् १०७६=१०२० ई.) .. ११. बेटमा का भोजदेव का ताम्रपत्र (संवत् १०७६=१०२० ई.) १२. उज्जैन का भोजदेव का ताम्रपत्र (संवत् १०७८=१०२१ ई.) १३. देपालपुर का भोजदेव का ताम्रपत्र (संवत् १०७९=१०२३ ई.)
शेरगढ़ का भोजदेवकालीन सोमनाथ मन्दिर प्रस्तर अभिलेख (संवत् १०८४%१०२८ ई.) १५. भोज देव निर्मित वाग्देवी प्रस्तर मूर्ति अभिलेख (संवत् १०९१== १०३४ ई.)
तिलकवाड़ा का भोजदेवकालीन ताम्रपत्र अभिलेख (संवत् ११०३=१०४६ ई.) १७. भोजपुर का भोजदेवकालीन जिन प्रस्तर प्रतिमा अभिलेख (तिथि रहित) १८. कालवन का भोजदेवकालीन यशोवर्मन् का ताम्रपत्र (तिथि रहित)
मान्धाता का जयसिंह प्रथम का ताम्रपत्र (संवत् १११२=१०५६ ई.) २०. पाणाहेड़ा का जयसिंहदेव प्रथम कालीन मण्डलीक का प्रस्तर खण्ड अभिलेख
(विक्रम संवत् १११६=१०५९ ई.) २१. उदयपुर का ज्ञातपुत्र उदयादित्य का नीलकण्ठेश्वर मन्दिर प्रस्तर खण्ड अभिलेख १०३
(विक्रम सं. १११६, शक संवत् ९८१=१०५९ ई.)
७१
१९.
95
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२२. उदयपुर का उदयादित्यदेव कालीन नीलकण्ठेश्वर मन्दिर प्रस्तर खण्ड अभिलेख ११३
अथवा उदयपुर प्रशस्ति (पूर्वार्द्ध एवं तिथि रहित) २३. उदयपुर का उदयादित्यदेव कालीन नीलकण्ठेश्वर मन्दिर प्रस्तर खण्ड अभिलेख १२५
(उत्तरार्द्ध एवं तिथि रहित) २४. उदयपुर का उदयादित्य का उदयेश्वर मन्दिर प्रस्तर खण्ड अभिलेख
१२६ (संवत् ११३७ = १०८० ई.) २५. धार से प्राप्त देवी प्रतिमा अभिलेख (संवत् ११३८१०८१ ई.)
१२७ २६. उदयपुर का उदयादित्य कालीन मन्दिर प्रस्तर स्तम्भ अभिलेख (तिथि रहित) १२९ २७. कामेद से प्राप्त उदयादित्य कालीन प्रस्तर स्तम्भ अभिलेख (संवत् ११४०=१०८३ ई.) २८. झालरापाटन का उदयादित्य कालीन प्रस्तर खण्ड अभिलेख (संवत् ११४३१०८६ ई.) १३३ २९. शेरगढ़ का उदयादित्य का प्रस्तर खण्ड अभिलेख (तिथि रहित) ३०. उज्जैन का उदयादित्य कालीन महाकाल मन्दिर नागबंध प्रस्तर खण्ड अभिलेख १३९
(तिथि रहित) ३१. धार का नरवर्मन् कालीन भोजशाला नागबंध प्रस्तर स्तम्भ अभिलेख (तिथि रहित) १४४ ३२. ऊन का नरवर्मन् कालीन चौबारा डेरा मन्दिर नागबंध प्रस्तर खण्ड अभिलेख १४६
(तिथि रहित) ३३. अमेरा का नरवर्मन् कालीन प्रस्तरखण्ड अभिलेख (संवत् ११५१-१०९४ ई.) १४७ ३४. देवास का नरवर्मन् का ताम्रपत्र अभिलेख (संवत् ११५२= १०९५ ई.)
१५१ ३५. भोजपुर का नरवर्मन् कालीन जिनप्रतिमा अभिलेख (संवत् ११५७=११०० ई.) १५४ ३६. नागपुर का नरवर्मन् का संग्रहालय प्रस्तर खण्ड अभिलेख अथवा नागपुर प्रशस्ति १५५
(संवत ११६१-११०४ ई.) ३७. मधुकरगढ़ का नरवर्मन् कालीन प्रस्तर खण्ड अभिलेख (संवत् ११६४=११०७ ई.) १७१ ३८. कदम्बपद्रक का नरवर्मदेव का ताम्रपत्र अभिलेख (संवत् ११६७ = १११० ई.)
१७२ ३९. डभोक का नरवर्मन् कालीन प्रस्तर खण्ड अभिलेख (तिथि रहित)
१७७ ४०. भिलसा का नरवर्मन् का विजामन्दिर प्रस्तर स्तम्भ अभिलेख (तिथि रहित) १७८ ४१. उज्जैन का निर्वाणनारायण-नरवर्मन् का महाकाल मन्दिर प्रस्तर खण्ड अभिलेख १७९
(तिथि रहित) ४२. डोंगरगाँव का जगद्देव कालीन प्रस्तर खण्ड अभिलेख (शक संवत् १०३४=१११२ ई.) १८१ ४३. जैनड़ का जगद्देव का प्रस्तर खण्ड अभिलेख (तिथि रहित)
. १८५
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२०२
२००
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२२३
४४. उज्जैन का महाराजाधिराज यशोवर्मन् व महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् का ताम्रपत्र अभिलेख १९२
(सं. ११९१ व १२००=११३४ व ११४३ ई.) । शेरगढ़ का जिन प्रतिमा पादपीठ अभिलेख (संवत् ११९१=११३४ ई.) ४६. उज्जैन का यशोवर्मन् का ताम्रपत्र अभिलेख (अपूर्ण) (संवत् ११९२= ११३५ ई.) १९९ ४७. झालरापाटन का यशोवर्मन् का प्रस्तर खण्ड अभिलेख (संवत् ११९९=११४२ ई.) २०२
भोपाल का महाकुमार लक्ष्मीवर्मदेव कालीन प्रस्तर स्तम्भ अभिलेख (तिथि रहित) ४९. उज्जैन का जयवर्मदेव का ताम्रपत्र अभिलेख (अपूर्ण व तिथि रहित)
२०४ ग्यारसपुर का महाकुमार त्रैलोक्यवर्मदेव का प्रस्तर स्तम्भ अभिलेख
२०७ (खण्डित एवं तिथि रहित) ५१. भोपाल का महाकुमार हरिचन्ददेव का ताम्रपत्र अभिलेख
(विक्रम संवत् १२१४=११५७ ई.) ५२. विदिशा का त्रैलोक्यवर्मन् का प्रस्तर खण्ड अभिलेख (संवत् १२१६=११५९ ई.) २१५ ५३. पिपलियानगर का महाकुमार हरिश्चन्द्रदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
(विक्रम संवत् १२३५=११७८ ई.) ५४. होशंगाबाद का महाकुमार हरिश्चन्द्र कालीन प्रस्तर स्तम्भ अभिलेख
(संवत् १२४३=११८६ ई.) ५५-५६. भोपाल से प्राप्त उदयादित्य (?) के दो अभिलेख (संवत् १२४१=११८४ ई.
एवं शक संवत् ११०८=११८६ ई.) ५७. भोपाल का महाकुमार उदयवर्मदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
(विक्रम संवत् १२५६=११९९ ई.) ५८. मांडू से प्राप्त विन्ध्यवर्मन् कालीन प्रस्तर खण्ड अभिलेख
२३१ (विल्हण विरचित् विष्णु प्रशस्ति) । पिपलियानगर का अर्जुनवर्मन् प्रथम का ताम्रपत्र अभिलेख (संवत् १२६७== १२१० ई.) २३४ ६०. सीहोर का अर्जुनवर्मन् का ताम्रपत्र अभिलेख (संवत् १२७० - १२१३ ई.) । २३९ ६१. सीहोर का अर्जुनवर्मन् का ताम्रपत्र अभिलेख (संवत् १२७२ =१२१५ ई.) २४३ ६२. धरमपुरी का अर्जुनवर्मन् कालीन भवानीमाता मन्दिर अभिलेख
२४७ (संवत् १२७३ व शक ११३८=१२१६ ई.) ६३. हरसूद का देवपालदेव कालीन प्रस्तर खण्ड अभिलेख (संवत् १२७५ == १२१८ ई.) २४८ ६४. कर्णावद का देवपालदेव का मन्दिर स्तम्भ अभिलेख (संवत् १२७५=१२१८ ई.) २५२ ६५. मांधाता का देवपालदेव का ताम्रपत्र अभिलेख (संवत् १२८२=१२२५ ई.)
२५२ ६६. उदयपुर का देवपालदेव कालीन मन्दिर स्तम्भ अभिलेख (संवत् १२८६=१२२९ ई.) २६७
२२५
२२५
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२७१
६७. उदयपुर का देवपालदेव का मन्दिर स्तम्भ अभिलेख (संवत् १२८९१२३२ ई.) २६९ ६८. उदयपुर का जयसिंह द्वितीय का उदयेश्वर मन्दिर अभिलेख (अपूर्ण)
(संवत् १३११= १२५५ ई.) ६९. राहतगढ़ का जयसिंह-जयवर्मदेव द्वितीय का प्रस्तर खण्ड अभिलेख
२७१ (संवत् १३१२= १२५६ ई.) ७०. अत्रु का जयसिंहदेव द्वितीय का प्रस्तर स्तम्भ अभिलेख (संवत् १३१४=१२५७ ई.) २७२ ७१. मोड़ी का जयवर्मदेव द्वितीय का प्रस्तर खण्ड अभिलेख (अपूर्ण)
२७४ (संवत् १३१४=१२५८ ई.) ७२. मांधाता का जयवर्मदेव द्वितीय का ताम्रपत्र अभिलेख (संवत् १३१७=१२६० ई.) २७९ ७३. भिलसा का जयसिंहदेव द्वितीय का प्रस्तर स्तम्भ अभिलेख (संवत् १३२० = १२६३ ई.) २८७ ७४. वलीपुर (अमझेरा) का जयसिंहदेव द्वितीय का प्रस्तर स्तम्भ अभिलेख
(संवत् १३२४=१२६७ ई.) ७५. पठारी का जयसिंहदेव द्वितीय का प्रस्तर खण्ड अभिलेख (संवत् १३२६=१२६९ ई.) २८९ ७६. मांधाता का जयसिंह-जयवर्मन द्वितीय का ताम्रपत्र अभिलेख
(संवत् १३३१=१२७४ ई.) ७७. उदयपुर का जयसिंहदेव तृतीय कालीन मन्दिर स्तम्भ अभिलेख
३१५ (संवत् १३६६=१३१० ई.)
२८९
२९१
अन्य अभिलेख
७८. मांडू से प्राप्त सरस्वती स्तुति प्रस्तर खण्ड अभिलेख
३१६ ७९. भिलसा से प्राप्त छित्तप विरचित् सूर्य प्रशस्ति प्रस्तर खण्ड अभिलेख
३१८ ८०. मांधाता का अमरेश्वर मन्दिर प्रस्तर खण्ड अभिलेख (हलायुध विरचित् शिव स्तुति) ३२२
(संवत् ११२० = १०६३ ई.) ८१. धरमपुरी से प्राप्त प्रस्तर खण्ड अभिचख (तिथि रहित व खण्डित) ८२. इन्दौर संग्रहालय का परमार नरेश श्री हर्ष का प्रस्तर खण्ड अभिलेख (अपूर्ण) ३४१ ८३. इन्दौर संग्रहालय का प्रस्तर खण्ड अभिलेख-परमार नरेशों की स्तुति (अपूर्ण) ३४१ ८४. भावनगर संग्रहालय का हरिराज (?) का प्रस्तर खण्ड अभिलेख (अपूर्ण)
३४१ ८५. उदयपुर से प्राप्त हरिराजदेव (?) का प्रस्तर खण्ड अभिलेख (अपूर्ण)
३४२ (संवत् १३६०=१३०३ ई.)
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१.
मानचित्र, परमार साम्राज्य (अभिलेखों के प्राप्ति स्थान )
वाक्पतिराजदेव द्वितीय का धरमपुरी ताम्रपत्र, संवत् १०३१ ( क्र. ४) - गरुड़ राजचिन्ह
भोजराजदेव का बांसवाड़ा ताम्रपत्र, संवत् १०७६ ( क्र. १० ) - गरुड़ राजचिन्ह
भोजराजदेव का देपालपुर ताम्रपत्र, संवत् १०७९ ( क्र. १३) गरुड़ राजचिन्ह ५. जयसिंह प्रथम का मांधाता ताम्रपत्र, संवत् १११२ ( क्र. १९ ) - गरुड राजचिन्ह ६.
महाकुमार हरिश्चन्द्रदेव का भोपाल ताम्रपत्र, संवत् १२१४ ( क्र. ५१ ) - गरुड राजचिन्ह
२.
३.
४.
७.
महाकुमार उदयवर्मदेव का भोपाल ताम्रपत्र, संवत् १२५६ ( क्र. ५७ ) - गरुड़ राजचिन्ह
भोजराजदेव का बांसवाड़ा ताम्रपत्र, संवत् १०७६ ( क्र. १० ) - पूर्ण अभिलेख
ज्ञातपुत्त्र उदयादित्यदेव का उदयपुर प्रस्तर अभिलेख, संवत् १११६ ( क्र. २१ ) - पूर्ण अभिलेख
उदयादित्य - नरवर्मन का उज्जैन का सर्पबंध अभिलेख ( क्र. ३०)
११.
उदयादित्य नरवर्मन का धार का सर्पबंध अभिलेख (क्र. ३१) १२. नरवर्मन् का देवास ताम्रपत्र अभिलेख, संवत् ११५२ ( क्र. ३४ )
८.
९.
१०.
(८)
चित्र सूचि
१३.
निर्वाणनारायण अपरनाम नरवर्मन् का उज्जैन प्रस्तरखण्ड अभिलेख ( ४१ )
पृष्ठ ११
पृष्ट १२
27
"
पृष्ठ ४७
पृष्ठ १०३
पृष्ठ १३९
11
पृष्ठ १५१
पृष्ठ १७९
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(९) संकेत सूचि
आ. स. रि.--आकियालाजिकल सर्वे रिपोर्ट स इं. ए.--इंडियन एन्टीक्वेरी इं. ग. इं.-इम्पीरियल गजेटीयर ऑफ इंडिया इं. ग. सें. इं.--इम्पीरियल गजेटीयर ऑफ सेंट्रल इंडिया इं. हि. क्वा.--इंडियन हिस्टारिकल क्वार्टरली ए. रि. अ. स. मै.--एनुअल रिपोर्ट, आकियालाजिकल सर्वे ऑफ मैसूर स्टेट एपि. इं.--एपिग्राफिया इंडिका ए. भ. ओ. रि. इं.--एन्नल्स ऑफ भण्डारकर आरियंटल रिसर्च इन्स्टीट्यूट एपि. क.-एपिग्राफिया कर्नाटिका ए. रि. आ. डि. ग.--एन्नुअल रिपोर्ट ऑफ दी आर्कियालाजिकल डिपार्टमेंट इन ग्वालियर स्टेट ए. रि. आ. डि. नि.--एन्नुअल रिपोर्ट ऑफ दी आकियालाजिकल डिपार्टमेंट ऑफ निजाम डोमिनियन्स ए. रि. ई. ए.--एन्नुअल रिपोर्ट ऑफ इंडियन एपिग्राफी ए. रि. रा. म्यू.--एन्नुअल रिपोर्ट ऑफ दी राजस्थान म्यूज़ियम, अजमेर ए.रि. वा. म्यू.--एन्नुअल रिपोर्ट ऑफ वाटसन म्यूजियम, राजकोट का. ई. ई.--कार्पस इंस्क्रिप्शनम् इंडिकेरम् ग. रा. अभि. द्वि.---वालियर राज्य के अभिलेख, १९४७, संपादन--हरिहर निवास द्विवेदी ज. अमे. ओ.सो.--जर्नल ऑफ अमेरिकन आरियंटल सोसाईटी ज. ए.सो.बं.--जर्नल ऑफ दी एशियाटिक सोसाईटी ऑफ बंगाल ज. गं. रि. इं.--जर्नल ऑफ गंगानाथ झा रिसर्च इन्स्टीट्यूट ज. न्यू. सो. ई.---जर्नल ऑफ न्यूमेस्मेटिक सोसाईटी ऑफ इंडिया ज. ब. ब्रा. रा. ए. सो.--जर्नल ऑफ दी बाम्बे ब्रांच ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाईटी ट्रा. रा. ए. सो. ग्रे. वि. आ.--ट्रांजेक्शन्स ऑफ दी रॉयल एशियाटिक सोसाईटी ऑफ ग्रेटब्रिटेन
एण्ड आयरलैण्ड प. रा. इ. गां.--परमार राजवंश का इतिहास--डी. सी. गांगुली प्रो. ई. हि. कां.--प्रोसीडिंग्ज़ ऑफ इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस प्रो. आ. ई.ओ. कां.--प्रोसीडिंग्ज ऑफ दी आल इंडिया ओरियंटल कांफ्रेंस प्रो. रि. आ. स. वे. स.--प्रोग्रेस रिपोर्ट, आकियालाजिकल सर्वे, वेस्टर्न सर्कल ब. ग.-बाम्बे गजेटीयर लि. इं. सी. पी. ब. ही.--लिस्ट ऑफ इंस्क्रिप्शन्स इन सी. पी. एण्ड बरार--हीरालाल स्ट. इं. मि.--स्टडीज़ इन इंडोलॉजी--मिराशी से. इं. स.--सेलेक्ट इंस्क्रिप्शन्स. भाग १--डी. सी. सरकार सो. ऐं. क. हि.--सोर्सेज़ ऑफ ऐन्शंट कर्नाटक हिस्ट्री
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(१०)
परमार राजवंश का बंशवृक्ष १. उपेन्द्र (७९१-८१८ ई.)
- डम्बरसिंह (बागड शाखा)
२. वैरिसिंह प्रथम (८१८-८४३) ३. सीयक प्रथम (८४३-८६८) ४. अज्ञात नरेश (८६८-८९३?) ५. कृष्णराज (वावपति प्रथम) (८९३-९१८) ६. वैरिसिंह द्वितीय (वज्रटस्वामी) (९१९-९४५) ७. सीयक द्वितीय (हर्ष) (९४५-९७३)
८. वाक्पति द्वितीय (मुंज) (९७४-९९५)
९. सिंधुराज (नवसाहसांक) (९९५-१०११)
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अर्णोराज
चन्दन १०. भोजदेव प्रथम दूसल १२. उदयादित्य (जालौर शाखा) (१०११-१०५५) (किराडू शाखा) (१०७०-१०९४)
(आबू शाखा)
११. जयसिंह प्रथम (१०५५-१०७०)
" लक्ष्मदेव १३. नरवर्मन् जगद्देव (मृत्यु १०८६) (१०९४-११३३) (१०९४-११३०)
(कुन्तल राज्य) १४. यशोवर्मन् (११३३-११४२)
अजयवर्मन् प्रथम (?)
१५. जयवर्मन् प्रथम (११४२-११४३)
म. कु. लक्ष्मीवर्मन् म. कु. त्रैलोक्यवर्मन् (११४४) (भोपाल क्षेत्र)
१६. विन्ध्यवर्मन् (११७५-११९४)
म. कु. हरिश्चन्द्र (११५७-११७८)
१७. सुभटवर्मन् (११९४-१२०९)
१८. अजुनवर्मन् (१२१०-१२१८)
म. कु. उदयवर्मन् (११९९) १९. देवपालदेव
(१२१८-१२३९) २०. जैतुगीदेव (१२३९-१२५५) २१. जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय (१२५५-१२७५)
२३. भोज द्वितीय (१२९० ? )
२२. अर्जुनवर्मन् द्वितीय (१२७६-१३००१) २४. महलकदेव (१३०५) २५. जयसिंह तृतीय (१३०९)
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(११)
परिचय भारतीय इतिहास की संरचना में अभिलेखिक साक्ष्यों के महत्त्व के विषय में सर्वविदित है। विविध क्षेत्रों में, विशेषतः साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्राप्त विशिष्ट उपलब्धियों के कारण परमार राजवंश का पूर्वमध्ययुगीन भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में उसी परमार राजवंश से संबंधित मूल अभिलेखों का संकलन किया गया है। आठवीं-नवीं शताब्दियों में कन्नौज (कान्यकुब्ज) पर आधिपत्य स्थापना हेतु मालवा के प्रतिहारों एवं बंगाल के पालों में दीर्घकालीन संघर्ष हए । इसी बीच प्रतिहारों को दक्खिन के राष्टकटों के निरन्तर दबाव का सामना करना पड़ा। फलस्वरूप वे मालव क्षेत्र छोड़ कर उत्तर की ओर बढ़ गये । इस प्रकार रिक्त मालवा में उपेन्द्र का वर्चस्व स्थापित हो गया जिसने परमार वंश की नींव डाली।
प्रतिहारों के उत्तर की ओर चले जाने पर पालों को भी परिस्थितियों से बाध्य होकर मध्यदेश से पीछे हटना पड़ा। अन्ततः कन्नौज पर प्रतिहारों का अधिकार हो गया। इसके उपरान्त उन्होंने अपने साम्राज्य में बहुत वृद्धि कर ली। परन्तु दसवीं शताब्दी के मध्य तक जब उनका राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा तो उनके खण्डहरों पर अनेक स्वतंत्र राजवंशों का उत्थान हो गया। मालवक्षेत्र में परमारों ने अपनी सत्ता दृढ़ कर ली। बुन्देलखण्ड में चन्देल, जबलपुर क्षेत्र में कल्चुरी, गुजरात में चौलुक्य, मारवाड़ में चाहमान तथा मेवाड़ में गुहिल राजवंशों की सत्ता स्थापित हो गई। म सलमानों द्वारा १३वीं शताब्दी में पराजित होने से पूर्व तक इन राजवंशों की सत्ता प्रायः पूर्णतः बनी रही। इन राजवंशों में परमारों का अपना विशिष्ट स्थान है।
परमार साम्राज्य की भौगोलिक एवं भौतिक स्थिति परमार साम्राज्य की भौगोलिक एवं भौतिक स्थिति उनके अभिलेखों से उजागर होती है। अपने पाँच शताब्दियों के राजनीतिक अस्तित्व में परमार नरेशों ने विस्तृत भूप्रदेश पर राज्य किया था। मालव प्रदेश के अतिरिक्त पूर्व में भोपाल क्षेत्र में विदिशा व उदयपुर तक'; पश्चिम में अहमदाबाद क्षेत्र जिसमें हरसोल, मोडासा, महुडी आदि सम्मिलित थे; दक्षिण में नर्मदा तक होशंगाबाद क्षेत्र; एवं उत्तर में कोटा क्षेत्र तक के भूभाग परमार नरेशों के अधीन थे। उनकी कुछ शाखाएँ तो राजस्थान में अर्बुद मण्डल, मरु मण्डल, जालोर एवं बागड तक में अपनी राजसत्ता स्थापित करने में सफल हो गई थीं।
मालव प्रदेश समुद्रतल से प्रायः ५५० मीटर तक ऊँचा विस्तृत भूभाग है जो लगभग २०० मील लम्बा व १०० मील चौड़ा है। यह प्रदेश अनेक नदियों एवं उनकी सहायक नदीनालों द्वारा सिंचित है । इस भूभाग में वर्षा भी पर्याप्त होती है जो वर्ष में प्रायः ८०-९० सें. मी. है। इस कारण यह भूभाग अत्यन्त उपजार है। यहाँ की प्रमुख नदियों में चम्बल, कालीसिंध, क्षिप्रा, पार्वती, बेतवा, माही एवं नर्मदा हैं। इस क्षेत्र का जलवाय न अधिक गरम है, न अधिक ठंडा है अपितु सुहावना है। यहाँ अनेक छोटी बड़ी पहाड़ियाँ हैं जो सदा हरी भरी रहती हैं एवं वन सम्पदा से भरपूर हैं। नदियों के किनारों पर अनेक अत्यन्त प्राचीन नगर बसे हैं । इनमें भगवान महाकाल की नगरी उज्जयिनी, परमारों की कुल-राजधानी धारा नगरी, भगवान भैल्लस्वामी की नगरी भिलसा, राजा भोज की नगरी भोजपुर, उदयादित्य का देवालयों का नगर उदयपुर, परमारों की आनन्दमयी क्रीड़ा नगरी मांडु, नरेश देवपालदेव की नगरी देपालपुर आदि परमार राज्य की श्रेष्ठता को उजागर करते हुए आज भी विद्यमान हैं।
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(१२)
मालव प्रदेश सदा ही धन-धान्य से भरपूर रहा है। हमारे काल में इस प्रदेश में कभी भी अकाल पड़ने अथवा अभाव होने का उल्लेख नहीं मिलता । मालव प्रदेश सदा ही दक्खिन व पश्चिमी समुद्रतट से उत्तरी भारत को जोड़नेवाली कड़ी के रूप में स्थित रहा है । यहीं से होकर सुविधाजनक श्रेष्ठ मार्ग जाते थे । शांतिकाल में व्यापार वाणिज्य एवं युद्धकाल में सैनिक अभियानों हेतु मालवदेश से हो कर जाने वाले मार्ग अत्याधिक विख्यात थे। पश्चिमी समुद्र तट पर खम्भात की खाड़ी से भड़ौच -सूरत होते हुए उज्जयिनी - विदिशा से हो कर जाने वाला आगरादेहली - कनौज एवं बंगाल तक सीधा व निश्चित मार्ग अत्यन्त महत्वपूर्ण था । इसी प्रकार उज्जयिनी से दक्खिन की ओर जाने के लिए भी सरल व सुविधाजनक मार्ग था। भारतीय समय-निर्धारण हेतु उज्जयिनी की गणना मानक- केन्द्र के रूप में होती थी। यही कारण है कि अपनी भौतिक समृद्धि तथा सुगम मार्गों के कारण मालवदेश विभिन्न राजवंशों में सदा ही संघर्ष का कारण बना रहा।
परमारों की उत्पत्ति
परमारों की उत्पत्ति का प्रश्न अत्यन्त जटिल है। वास्तव में परमार राजवंश के प्रारम्भिक अभिलेख इस विषय में कतई मौन हैं। केवल उत्तरकालीन अभिलेख ही इस संबंध में कुछ सहायक हैं, परन्तु उनसे प्राप्त विवरण विवादयुक्त है।
अग्निकुल उत्पत्ति
भोपाल के पास उदयपुर से प्राप्त उदयादित्य कालीन तिथिरहित उदयपुर प्रशस्ति ( अभि. क्र. २२) के श्लोक ५-६ में लिखा है कि पश्चिम दिशा में हिमगिरिपुत्र अर्बुद नामक एक बड़ा पर्वत है जो सिद्ध दम्पत्तियों का सिद्धस्थल है एवं ज्ञानियों को वांछित फल प्रदान करता है । वहाँ विश्वामित्र ने वसिष्ठ की धेनु का बलात् हरण किया। तब वसिष्ठ के प्रभाव से अग्निकुण्ड में से एक वीर उत्पन्न हुआ जिसने अकेले ही शत्रु सैन्य का नाश किया, एवं धेनु को वापस ले आया । तब मुनि ने ( आशीर्वाद रूप में) कहा – तुम परमार ( शत्रुहंता ) नाम से राजा होगे । वसिष्ठ द्वारा अर्बुद पर्वत पर तपस्या करने का उल्लेख महाभारत, वनपर्व, अध्याय ८२, तथा पद्मपुराण, अध्याय २ में भी प्राप्त होते हैं। परन्तु वहाँ किसी वीर की उत्पत्ति का उल्लेख नहीं है !
उपरोक्त से मिलता जुलता विवरण समकालीन साहित्य में भी मिलता है । वाक्पति द्वितीय व सिंधुराज के राजकवि परिमल पद्मगुप्त कृत नवसाहसांक चरित् सर्ग ११, श्लोक ६४-७६ में प्राप्त होता है। इसी प्रकार के विवरण कुछ अभिलेखों, जैसे - पाणाहेडा अभिलेख ( क्र. २०), नागपुर प्रशस्ति (क्र. ३६), डोंगरगांव अभिलेख ( क्र. ४२ ), जैनड अभिलेख (क्र. ४३), मांधाता अभिलेख ( क्र. ७६) आदि में भी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार परमार राजवंशीय अभिलेखों में उनकी अग्निकुल उत्पत्ति से संबंधित उल्लेख मिलते हैं । इसी प्रकार के उल्लेख राजस्थान की असंख्य चारण कथाओं में प्राप्त होते हैं । इनके विवरण टाड महोदय ने अपने विख्यात ग्रन्थ " एन्नल्स एण्ड एंटीक्वीटीज़ ऑफ राजस्थान' में दिये हैं। इतना ही नहीं, पृथ्वीराज रासो के समान ग्रन्थ तो एक कदम और आगे बढ़ गये हैं । इन समकालीन ग्रन्थों में केवल परमारों के लिए ही नहीं अपितु प्रतिहारों, चौलुक्यों एवं चाहमानों के लिए भी अग्निकुण्ड उत्पत्ति का उल्लेख हैं। बाद में आईने अकबरी में अबुलफजल ने भी इसका उल्लेख किया है ।
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(१३)
गुर्जर उत्पत्ति
कतिपय पश्चिमी विद्वानों के साथ डी. आर. भण्डारकर ने मत प्रकट किया है कि परमार हूणों की एक शाखा थे, जो गुप्त वंश के राज्यकाल में प्रायः ५वीं-६ठी शताब्दियों में मध्य एशिया से भारत में घुस आये थे। इस संबंध में उनके द्वारा प्रस्तुत कुछ तर्क इस प्रकार हैं:--- १. अग्निकुलीय चार वंशों में से प्रतिहार नरेश अपने अभिलेखों में स्वयं को गुर्जर घोषित
करते हैं। इस आधार पर भण्डारकर महोदय ने निष्कर्ष निकाला कि ये सभी गुर्जर
रहे होंगे (इं. में., भाग ४०, पृष्ठ ३०)। २. चाप वंशीय नरेश, जो गर्जर थे, स्वयं को परमारों की एक शाखा घोषित करते हैं।
इस आधार पर परमार भी गुर्जर थे (इं. ऐ., भाग ४, पृष्ठ १४५)। ३. गुर्जर ओसवाल स्वयं को परमार वंशीय बतलाते हैं। अतएव परमार गुर्जर थे (बम्बई
गजेटीयर, भाग ९, उपभाग १, पृष्ठ १८५) ।
उपरोक्त सभी तर्क अत्यन्त सामान्य हैं। प्रथमतः, यह कहना ही गलत है कि चूंकि प्रतिहार वंशीय नरेश स्वयं को गर्जर घोषित करते हैं, इस कारण शेष तीनों राजवंश, अर्थात् परमार, चौलक्य एवं चाहमान भी गर्जर होने चाहिये। साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्य इसके विपरीत हैं। पृथ्वीराज रासो का आधार भी गलत सिद्ध होता है (ई. हि. क्वा. भाग १६, पष्ट ७३८-७४९; दशरथ शर्मा, अर्ली चौहान डायनेस्टीज, अध्याय १)। परमारों के प्रारम्भिक अभिलेख एवं परमार साहित्य इस संबंध में मौन है।
द्वितीय, प्रस्तुत संदर्भ में गुर्जर शब्द किसी जाति विशेष को नहीं अपितु प्रदेश को इंगित करता है। गुर्जर देश के सभी निवामो उसके अन्तर्गत आ जाते हैं। भले ही जाति अथवा धर्म कुछ भी रहे हों। चाप वंशीय नरेश कबीले के रूप में गर्जरों से भिन्न थे। यह तथ्य लाट नरेश पुलकेशिन् अवनिजनाश्रय के ७३८-७३९ ईस्त्री के नौसारी अभिलेख से ज्ञात होता है (नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग १, पष्ट २११, पादटिप्पणी २; बम्बई गजेटीयर, भाग १. उपभाग १, पृष्ट १०९, पादटिपणी)। राष्ट्रकूट उत्पत्ति
डी. सी. गांगुली ने सीयक द्वितीय के हरसोल ताम्रपत्रों (क्र. १ व २) के आधार पर यह प्रतिपादित किया कि परमार नरेश मान्यखेट के राष्ट्रकूटों की संतान थे। परन्तु अभिलेखों के विश्लेषण से उनके द्वारा प्रस्तुत तर्क निर्मूल सिद्ध हो गए हैं। प्रथमतः, यदि परमार नरेश राष्ट्रकूटों की संतान होते तो वे अपने अभिलेखों का प्रारम्भ राष्ट्रकूट वंशीय प्रारम्भिक नरेशों से करते। केवल स्वयं व अपने पिता के समकालीन राष्ट्रकूट नरेशों का ही उल्लेख न किये होते। द्वितीय, संभव है कि सीयक द्वितीय ने अपने विजय अभियान में राष्ट्रकूटों के उक्त अधूरे ताम्रपत्र लूट में प्राप्त किये हों एवं उन पर उत्कीर्ण लेख को मिटाये बगैर ही आगे अपना अभिलेख खुदवा दिया हो। इसी प्रकार गाऊनरी अभिलेख (क्र. ६-७) पर यद्यपि मूलतः राष्ट्रकूट अभिलेख उत्कीर्ण था, परन्तु वाक्पति द्वितीय ने उस को पूर्ण रूप से मिटाये बगैर ही उस पर अपना अभिलेख उत्कीर्ण करवा दिया। तृतीय, वाक्पति द्वितीय ने राष्ट्रकूटों की राजकीय उपाधियां इस कारण धारण की थी कि वह स्वयं को उनकी राजलक्ष्मी का विजेता मानता था । इस प्रकार गांगूली महोदय के मत का पूर्णतः खण्डन हो जाता है।
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ब्रह्मक्षत्र उत्पत्ति
वाक्पति द्वितीय के राजकवि हलायुध ने अपने आश्रयदाता नरेश को ब्रह्मक्षत्र निरूपित किया है। अपने ग्रन्थ पिंगलसूत्रवृत्ति में वह लिखता है:--
ब्रह्मक्षत्र कुलीनः समस्त सामन्त चक्रनुत चर्णः । सकल सुकृतक पुजः श्रीमान् मुजश्चिरं जयाति ।।
(अध्याय ४, पृष्ठ ४९, ४/१९) इससे ऐसा आभास होता है कि मुज ऐसे वंश में उत्पन्न हुआ था जिसमें ब्राह्मण एवं क्षत्रिय, दोनों जातियों की विशिष्टताएं, अर्थात् ब्राह्मणों की विद्वत्ता एवं क्षत्रियों का शौर्य विद्यमान थे । शुंग, सातवाहन, कदम्ब आदि वंशों के समान परमार नरेश एक ऐसे विशिष्ट व्यक्ति की संतान थे जो यद्यपि ब्राह्मण था परन्तु शवोपजीवि होने के नाते वह क्षत्रियतुल्य माना जाने लगा। परमारों के संबंध में यह तथ्य विशेषरूप से महत्वपूर्ण है। अतएव यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि यद्यपि वे मूलतः वसिष्ठ गोत्री ब्राह्मण थे, परन्तु क्षात्रधर्म स्वीकार कर लेने के कारण ब्रह्मक्षत्रिय कहलाने लगे। यह भी संभव है कि परमार राजवंश के संस्थापक ने किसी क्षत्रिय राजकुमारी से विवाह कर लिया हो। इस कारण इस वंश के नरेश स्वयं को क्षत्रिय कहने लगे।
परमार अभिलेखों का महत्व
परमार अभिलेखों के आधार पर तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्थितियों का ज्ञान प्राप्त होता है। विभिन्न क्षेत्रों की सूचनाओं का संकलन कर परमारकाल का महत्व दर्शाया जा सकता है। अभिलेखों के माध्यम से परमार नरेशों की उत्पत्ति, उनकी वंशावली, राजनीतिक सत्ता का क्षेत्र तथा उनके शासनकाल की तिथियों को प्रायः ठीक ठीक निर्धारित किया जा सकता है। वस्तुतः परमार वंशावली का निर्धारण उनके विभिन्न अभिलेखों एवं तत्कालीन साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर ही संभव है। प्रतीत होता है कि परमार नरेशों ने अपने नामों से कोई मुद्रा प्रचलित नहीं की। आज तक उनका कोई सिक्का उपलब्ध नहीं हुआ है। गांगुली महोदय ने अपने ग्रंथ में नरेश उदयादित्य के एक सिक्के का विवरण दिया है। परन्तु वह सिक्का परमारवंशीय नरेश उदयादित्य का स्वीकार करने में घोर आपत्ति है। इस प्रकार सिक्कों के अभाव में परमार अभिलेखों का महत्व अत्यधिक बढ़ गया है।
परमार अभिलेखों के माध्यम से उस वंश के शासकों की साहित्यिक गतिविधियों पर प्रकाश पड़ता है। वे लोग सरस्वती के महान उपासक थे। उनके राजदरबार महान साहित्यिक गतिविधियों के केन्द्र थे। अभिलेखों से यह एक महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता है कि देश के विभिन्न भूभागों से विद्वान ब्राह्मण बहुत बड़ी संख्या में परमार नरेशों से संरक्षण प्राप्त कर मालव राज्य में आकर बस गये। परमार नरेश स्वयं महान साहित्यकार थे। यह तथ्य भी उनके विभिन्न अभिलेखों तथा समकालीन साहित्यिक साक्ष्यों से उजागर होता है । अभिलेखों का वर्गीकरण
___ परमार कालीन अभिलेखों को मोटे रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है। प्रथम, वे राजकीय अभिलेख हैं जो नरेशों द्वारा विभिन्न अवसरों पर उत्कीर्ण करवाये गये थे। दूसरे, वे निजी अभिलेख
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हैं जो व्यक्ति विशेष द्वारा प्रायः नरेश की अनुमति से निस्सृत करवाये गये थे । याज्ञवल्क्य स्मृति में उल्लेख है कि दान देकर नरेश को स्थायी रूप से अभिलेख लिखवा देना चाहिये:
दत्वा भूमि निबंधं या कृत्वा लेख्यां तु कारयेत् । पट्टे वा ताम्रपट्टे वा स्वमुद्रोपरि चिन्हितम् ॥
इसी कारण नरेश इस तथ्य को ध्यान में रखकर प्रस्तर खण्ड अथवा ताम्रपत्र पर अभिलेख खुदवाते थे । प्राप्त परमार अभिलेखों का निम्नरूप से वर्गीकरण किया जा सकता है
( १ ) ताम्रपत्र क्रमांक १ से १३, १६.१८. १९३४ ३८. ४४. ४६. ४९. ५१. ५३.५७. ५९. ६०. ६१. ६५. ७२. ७६.
( २ ) प्रस्तरखण्ड - - १४. २० से २४. २७ से ३३. ३६ ३७ ३९.४१ से ४३. ४७. ५२. ५५. ५६. ५८. ६२, ६३. ६८ ६९ ७१.७३. ७५. ७८ से ८५.
(३) प्रतिमा लेख --- १५. १७. २५. ३५. ४५.
( ४ )
स्तम्भ लेख - २६. ४०. ४८. ५०. ५४. ६४. ६६.६७. ७० ७४. তর
( ५ )
(६) स्तुतियां - ७८.७९.८०.
नागबंध लेख -- ३०. ३१. ३२.
अभिलेख लिखने का आधार
गुप्तवंशीय 'युग में विद्वान ब्राह्मणों एवं देवालयों के लिए भूदान देने की प्रथा चालू हो गईं थी जो उत्तरकालीन युग में उसी प्रकार चालू रही। भूदान प्रदान कर उसका विवरण ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करवा कर दानप्राप्तकर्ता को प्रदान करने को 'शासनं' कहते थे । ताम्रपत्र अभिलेखों में प्रायः दानकर्ता नरेश के आराध्यदेव का मंगलाचरण, राजकीय उपाधियों समेत नरेश की वंशावली, संक्षिप्त प्रशंसा, विजयें आदि, दान का अवसर, तिथि, दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण की वंशावली, विद्वता, गोत, प्रवर, शाखा, मूल निवास स्थान, अग्रहार भूमि, ग्राम का नाम, सीमा, क्षेत्र, प्राप्त करों की सूचि, राज्य के स्थानीय कर्मचारी जिनको दानभूमि की सूचना दी जाती थी, दापक तथा नरेश के हस्ताक्षर आदि लिखे मिलते हैं । विद्वान ब्राह्मणों को अग्रहार देने के अतिरिक्त धार्मिक संस्थाओं को भी भूदान प्रदान करने की परिपाटी प्रारम्भ हो गई । कुछ अभिलेखों में देवालयों के निर्माण तथा पुनरुद्धार के विवरण भी मिलते हैं । एक अभिलेख में विधवा रानी द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार करवा कर पुण्य प्राप्ति का विवरण है। वास्तव में १०वीं शताब्दी के पश्चात् तो देवालयों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार अत्यन्त महत्वपूर्ण पुण्यकार्य माना जाने लगा । विधर्मियों द्वारा देवालयों के क्षतिग्रस्त किये जाने के कारण लोगों का ध्यान देवालय संस्कार की ओर अधिक आकृष्ट हुआ । अपनी विजय यात्राओं में सफल होने पर शासकवर्ग भूदान प्रदान कर 'शासनं' निस्सृत करते थे। इनके माध्यम से नरेशों की विजयों का विवरण उनके उत्तराधिकारियों तथा भावी पीढ़ियों को ज्ञात होता था। ऐसे अवसरों पर नरेश की कीर्ति को चिरस्थाई करने की भावना अधिक बलवती होती थी । इसी कारण अभिलेखों में अत्युक्ति की पुट देखने में आती है ।
कुछ सामाजिक अवसरों पर ताम्रपत्र उत्कीर्ण करवाकर प्रदान करने की परिपाटी भी चालू हो गई थी । विभिन्न सामाजिक त्यौहारों, धार्मिक अवसरों, संक्रांति, अक्षय तृतीया, राम नवमी, एकादशी, अधिक मास, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, मातापिता के श्राद्धपर्व आदि के अवसरों पर परमार राजवंशीय नरेशों ने भूदान प्रदान कर ताम्रपत्र निस्सृत करवाये। एक अभिलेख में स्त्री
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के सती होने का उल्लेख है । जयस्कंधावार सैनिक शिविर में भी ताम्रपत्र लिखवा कर निस्सृत करवाने के उल्लेख मिलते हैं। यह विजय प्राप्ति के उपलक्ष्य में किया गया था। कतिपय स्थान-विशेष अपने सांस्कृतिक व धार्मिक महत्व के कारण नरेश से विभिन्न दान प्राप्त कर शासनं' ताम्रपत्र प्राप्त करते थे । इस प्रकार राज्य की सीमा, राजधानी, जयस्कंधावार, तीर्थस्थल, सांस्कृतिक केन्द्रों आदि से भी अभिलेख निस्सृत करवाये जाते थे।
कतिपय अभिलेख प्रशस्तियाँ मात्र हैं। उनमें नरेशों की प्रशंसा के अतिरिक्त प्रायः अन्य कुछ नहीं होता। ऐसी प्रशस्तियाँ विद्वान ब्राह्मणों द्वारा अपने आश्रयदाता नरेश को प्रसन्न करने के उद्देश्य से लिखी जाती थीं। इस कारण इनमें अतिशयोक्ति की पुट रहती है।
प्रत्येक दानपत्र में मंगलमय, दान प्रशंसा तथा दानभंग करने की स्थिति में शापयुक्त श्लोक रहते थे, जिससे प्रभावित होकर अन्य शासक दान करने हेतु अग्रसर हों तथा दिये गये दान का अपहरण न करें। अनुमानतः दानभंग पर्याप्त मात्रा में होता होगा। इसी कारण प्रत्येक दानपत्र में दान महिमा दर्शाने वाले एवं दानभंग करने की स्थिति में शापयुक्त श्लोक अनिवार्य रूप से मिलते हैं । नरेशों का वंशवृक्ष
परमार राजवंशीय अभिलेखों में दानकर्ता नरेश के तीन अथवा चार पूर्वजों के उल्लेख मिलते हैं। इनके आधार पर राजवंश एवं उपवंशों की शृंखलाएँ तैयार करने में अत्यधिक सहायता मिलती है। अभिलेखों की सहायता से जो वंशवृक्ष तैयार किया गया है वह पूर्ण है। इसकी पुष्टि साहित्यिक आधार पर की जा सकती है।
___ हमें भोजदेव प्रथम के उत्तराधिकारी जयसिंह प्रथम के अभिलेख प्राप्त होते हैं। जयसिंह प्रथम की मृत्यु के उपरान्त उदयादित्य राज्याधिकारी बना। भोजदेव की मृत्यु के समय वह राज्य प्राप्ति हेतु जयसिंह प्रथम का प्रतिद्वंदी था। अतः वह स्वयं को जयसिंह प्रथम का उत्तराधिकारी घोषित करना पसंद नहीं करता। इसके विपरीत वह स्वयं को भोजदेव का भाई एवं उत्तराधिकारी घोषित करता है। इस प्रकार जो नवीन वंशावली बनाई गई, वही उसके उत्तराधिकारियों ने भी चाल रखी। वंशावली से जयसिंह प्रथम का नाम लुप्त कर दिया गया। इसी प्रकार बाद में परमारों की एक महाकुमारीय शाखा अस्तित्व में आ गई । उसका शासन भोपाल-होशंगाबाद-निमाड़ क्षेत्र में स्थापित हो गया । बाद में नरेश देवपालदेव के शासन काल में कुछ ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो गईं जिनके कारण मुख्य राजवंश एवं महाकुमारीय शाखा दोनों मिल कर एक हो गईं। ये सभी तथ्य अभिलेखों में इतने स्पष्ट रूप से सामने आते हैं कि वंशावली के निर्धारण में प्रायः किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती।
नरेशों का शासनकाल निर्धारण
परमार राजवंशीय अभिलेखों में तिथियों का प्रायः पूर्ण विवरण सहित उल्लेख किया जाता था। कुछ अभिलेखों में तो भूदान देने एवं शासनपत्र लिखवाकर प्रदान करने की अलग अलग तिथियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं । इस प्रकार की स्थिति कतिपय विशिष्ट परिस्थितिवश ही बनती थी । भूदान देने के तुरन्त बाद दानकर्ता नरेश किसी शत्रु से निबटने अथवा राजनीतिक कारण से तुरन्त ताम्रपत्र लिखवाने में असमर्थ हो गया हो। इन तिथियों के आधार पर नरेशों के शासनकाल प्रायः ठीक ठीक निर्धारित किये जा सकते हैं।
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परमार अभिलेखों में उल्लिखित तिथियाँ सामान्यत: विक्रम संवत से संबद्ध हैं। मालव प्रदेश में विक्रम संवत का प्रारम्भ कार्तिक मास में दीपावली के उपरान्त चन्द्रदर्शन से होता है। यह विक्रम संवत् वही है जो ५७ ईसापूर्व में कृत, मालव एवं बाद में विक्रम संवत् के नाम से चाल हुआ था। परन्तु देश के कतिपय प्रदेशों में विक्रम संवत् को चैत्र मास से प्रारम्भ करने की परिपाटी है। नर्मदा नदी के दक्षिण से प्राप्त अभिलेखों में अंकित तिथियाँ शक संवत् से संबद्ध हैं। परन्तु परमार राजवंशीय अभिलेखों में इनकी संख्या नगण्य ही है।
__ परमार राजवंशीय अभिलेखों में कुछ स्थलों पर तिथि के साथ विक्रमादित्य का नाम जोड़ दिया गया है। परन्तु सामान्यतः कोई नामोल्लेख न हो कर केवल 'संवत्' ही लिखा मिलता है। दापक, लेखक एवं लिखने की विधि
परमार राजवंशीय ताम्रपत्र अभिलेखों में दापक, लेखक, उत्कीर्णकर्ता एवं राज्य अधिकारी, जिसकी अनुमति से अभिलेख लिखा गया था, के उल्लेख प्राप्त होते हैं। अभिलेख के अन्त में दानकर्ता नरेश के हस्ताक्षर हैं। नरेश भोजदेव के अभिलेखों में तो अभिलेख के प्रत्येक ताम्रपत्र के अन्त में नरेश के हस्ताक्षर हैं। ये हस्ताक्षर अभिलेख की मूल प्रति में होते थे एवं ताम्रपत्र पर उसका उल्लेखमात्र कर दिया जाता था।
प्रतीत होता है कि परमार प्रशासन में एक राजकीय कार्यालय होता था जहाँ राजाज्ञाओं का पंजीयन किया जाता था। यह विभाग किसी विशिष्ट अधिकारी के अधीन होता था जो प्रायः महासंधिविग्रहिक के समान उच्च अधिकारी होता था। इस अधिकारी को अभिलेखों में दापक अथवा दूतक कहा गया है। उसी के माध्यम से भदान की घोषणा राज्य के स्थानीय
अधिकारियों एवं जनसामान्य तक पहुँचाई जाती थी। परन्तु नरेश भोजदेव के अभिलेखों में ऐसे किसी अधिकारी का उल्लेख न हो कर केवल 'स्वयमाज्ञा' लिखा मिलता है। इससे विदित होता है कि नरेश भोजदेव ने अपनी आज्ञाएँ स्वयं ही निस्सृत करवाई थीं, किसी दापक या दूतक के माध्यम से यह कार्य नहीं करवाया था।
अभिलेखों में निम्नलिखित दापकों के उल्लेख प्राप्त होते हैं:--ठक्कुर श्री विष्णु (अभि. क्र. १.२), श्री कण्हपैक (क्र. ३. ४), श्री रूद्रादित्य (क्र. ५. ६), श्री जासट (क्र.९), ठक्कुर श्री केशव (क्र.३८), पुरोहित ठक्कुर श्री वामनस्वामी (क्र.४६), टक्कुर श्री पुरुषोत्तम (क्र. ४६), महाप्रधान राजपुत्र श्री देवधर (क्र. ४६), मुख्यादेश (क्र. ५१), श्री मण्डलीक क्षेमराज (क्र. ५७), श्री मु ३ (क्र. ६१. ६५), महाप्रधान राजश्री अजयदेव (क्र. ७२) आदि ।
- प्रतीत होता है कि कतिपय श्रीमन्तों एवं विशिष्ट व्यक्तियों को भी दान दे कर अभिलेख निस्सृत करवाने की विशेष अनुमति प्रदान की जाती थी। ऐसे मामलों में दानकर्ताओं द्वारा दान की सूचना राजकीय कार्यालय में दी जाती होगी। इस प्रकार के निजी दानपत्र निस्सृत करते समय शासनकर्ता नरेश का नाम देना होता था। परन्तु अशांति के समय, जब शासनकर्ता नरेश के संबंध में निश्चित सूचना प्राप्त नहीं हो सकती थी, कभी कभी नरेश का नाम सर्वथा छोड़ दिया गया। ऐसे कुछ उदाहरण प्राप्त हैं।
परमार राजवंशीय कतिपय अभिलेखों में लेखक के नाम लिखे मिलते हैं। परन्तु यह नितान्त शंकास्पद है कि भूदान दर्शाने वाले ताम्रपत्र अभिलेखों में लेखक को कुछ विशेष लिखने को होता था। वस्तुत: गुप्तकाल से लेकर परमारयुग के ताम्रपत्र अभिलेखों की भाषा, सामान्य
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विवरण एवं अन्य तथ्य प्रायः एक समान ही हैं। उनमें उल्लिखित दान महिमा दर्शाने वाले श्लोक एवं दानभंग करने की स्थिति में शापयुक्त श्लोक प्रायः एक समान ही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ताम्रपत्र दान अभिलेखों के सामान्य प्रारूप तैयार ही रहते थे। उनमें केवल शासनकर्ता नरेश की उपाधियुक्त वंशावली, दान का विवरण, दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण का पूर्ण विवरण प्राप्त कर भर दिया जाता था। ऐसी स्थिति में लेखक के लिए कुछ भी लिखने के लिए शेष नहीं रहता था। केवल राजकीय प्रशस्तियों में ही उसको अपना पांडित्य दर्शाने का अवसर मिलता था। इसी कारण प्रशस्तियों में अतिशयोक्ति होने की संभावना बहुत प्रबल होती थी।
हमारे संकलन में सूर्य, सरस्वती, शिव आदि की कुछ प्रशस्तियाँ सम्मिलित हैं। इनमें धार्मिक के साथ साथ साहित्यिक पुट भी है। ये प्रशस्तियाँ तत्कालीन साहित्यिक चिन्तन का प्रतिनिधित्व करती हैं।
... अभिलेखों में लेखकों को कायस्थ (क्र. १.२.१६) तथा कायस्थ पंडित (क्र.७१) निरूपित किया गया है। उत्कीर्णकर्ता
कतिपय अभिलेखों में उनके उत्कीर्णकर्ता के नाम लिखे मिलते हैं। यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि राजाज्ञाओं के पंजीयन के साथ साथ इनको ताम्रपत्रों अथवा प्रस्तर खण्डों पर उत्कीर्ण करवाने का दायित्व भी उसी राजकीय कार्यालय का रहता था। इस प्रकार राज्य में कतिपय विशिष्ट अधिकारी रहे होंगे जिनकी देखरेख में अभिलेख उत्कीर्ण करने का कार्य सम्पन्न होता था। वस्तुतः अभिलेख उत्कीर्ण करने का कार्य सरल नहीं था। प्राप्त अभिलेखों में अक्षरों की बनावट की भिन्नता एवं उनमें प्राप्त अशुद्धियों से यह निश्चित तथ्य सामने आता है कि इस कार्य में अत्यन्त लगन एवं धैर्य की आवश्यकता थी। कुछ अभिलेखों का उत्कीर्ण कार्य अत्यन्त भद्दा एवं अशुद्ध है। खोदे गये अक्षर गहरे व साफ नहीं हैं। उनके पाठ में त्रुटियों की भरमार है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि ये अभिलेख अकुशल व्यक्तियों के द्वारा उत्कीर्ण किये गये होंगे। वास्तव में अभिलेखों को उत्कीर्ण करने का कार्य एक कला है जिसमें सभी व्यक्ति प्रवीण नहीं हो सकते हैं।
परमार साम्राज्य की राजनीतिक व्यवस्था
केन्द्रीय व्यवस्था-राजतंत्रात्मक स्वरूप
परमार कालीन राजनीतिक व्यवस्था के संबंध में परमारों के अभिलेखों से अनेक महत्वपूर्ण तथ्य उजागर होते हैं। परमार साम्राज्य पूर्णरूप से राजतंत्रात्मक प्रशासन पर आधारित था। प्रारम्भिक परमार नरेश नृप, भूप, महाराज अथवा महाराजाधिराज की उपाधि धारण करते थे। परन्तु वाक्पति द्वितीय के समय से पूर्ण राजतंत्रात्मक उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर प्रयुक्त होने लगीं। तत्कालीन नरेशों ने इनके अतिरिक्त कुछ अन्य उपाधियां भी ग्रहण की। स्वयं वाक्पति द्वितीय ने श्रीवल्लभ पृथ्वीवल्लभ अमोधवर्ष उपाधियां धारण की। वह 'कविबांधव' नाम से विख्यात था। सिंधुराज ने नवसाहसांक की उपाधि ग्रहण की। भोज महान
को सार्वभौम चक्रवर्तिन् कहा गया है। उसकी अनेक सांस्कृतिक उपाधियां हैं, जैसे त्रिभुवननारायण, शिष्ट शिरोमणि, सरस्वती कंठाभरण आदि । नरवर्मन् स्वयं को निर्भय नारायण, निर्वाण
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नारायण तथा त्रिविधवीर चूड़ामणि निरूपित करता है। इसी प्रकार राजकुमार जगद्देव ने भी अपने को त्रिविधवीर चूड़ामणि की उपाधि से अलंकृत किया था। नरेश सर्वशक्ति सम्पन्न
परमार नरेश स्वयं को सर्वोच्च शक्ति सम्पन्न मानते थे । नरेश ही राज्य की समस्त शक्ति का स्रोत था । राज्य के समस्त अधिकारियों की नियुक्ति, स्थानांतरण एवं पदमुक्ति उसी के अधिकार में होती थी। वह साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। वह सेना का सर्वोच्च सेनापति था एवं युद्ध में सेना का नेतृत्व करता था। साथ ही वह धर्मशास्त्रों के अनुरूप अपनी समस्त प्रजाओं का पालक भी था। उत्तराधिकार
परमार साम्राज्य में नरेश का पद वंशानुक्रम से चलता था। सामान्यतः नरेश का बड़ा पुत्र उसका उत्तराधिकारी होता था। परन्तु पुत्र न होने पर राजसिंहासन के लिए संघर्ष हो जाते थे । भोज महान की निस्संतान मृत्यु हो जाने पर उसके दो संबंधियों, जयसिंह प्रथम एवं उदयादित्य के मध्य राजसिंहासन के लिए संघर्ष हुआ। इसमें कल्याणो के चालुक्यों की सहायता से जयसिंह प्रथम सफल हुआ तथा वह परमार राजसिंहासन पर आरूढ़ हो गया। परन्तु उदयादित्य ने उससे संघर्ष चालू रखा। अन्ततः कुछ समय उपरान्त एक युद्ध में जयसिंह प्रथम की मृत्यु हो जाने पर उदयादित्य सिंहासन प्राप्त कर सका। संभवतः कौटुम्बिक ईर्ष्या के कारण ही उदयादित्य एवं उसके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों में जयसिंह प्रथम का नाम वंशावली से पूर्णतः निकाल दिया गया।
मन्त्री परिषद् प्रशासनिक कार्यों में नरेश ने अपनी सहायता के लिए एक मंत्री परिषद् की स्थापना की थी। परमार अभिलेखों में इस संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं होता। १०वीं शताब्दी में सोमदेवकृत नीतिवाक्यामृत ग्रन्थ में लिखा मिलता है "नरेश को मंत्रणा हेतु तीन, पांच या सात मंत्रियों की परिषद् बनाना चाहिए" (अध्याय १८, श्लोक ६) । मनुस्मृति के अनुसार नरेश को सात या आठ मंत्री नियुक्त करना चाहिये (अध्याय ७, श्लोक ५४-५६)। इसी प्रकार मानसोल्लास में सोमदेव ने भी लिखा है कि नरेश को सात या आठ मंत्रियों की मंत्री परिषद् बनानी चाहिये (भाग १, अध्याय २, श्लोक ५७) । हमें यह ज्ञात नहीं है कि परमार नरेशों ने मंत्रि परिषद् की स्थापना की थी या नहीं जो राजकार्यों में उनकी सहायता करते थे। मंत्री दो प्रकार के होते थे--मति सचिव एवं कर्म सचिव । मति सचिव अथवा बुद्धि सचिव ऐसे मंत्री होते थे जो साम्राज्य एवं प्रशासन संबंधी सभी समस्याओं के संबंध में परामर्श देते थे। कर्म सचिव वे मंत्री होते थे जो नरेश की आज्ञाओं को सुचारू रूप से कार्यान्वित करवाते थे।
परमार राजवंशीय अभिलेखों में हमें निम्नांकित मंत्रियों एवं विशिष्ट अधिकारियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं:---- महाप्रधान
महाप्रधान का स्थान नरेश के पश्चात् राज्य के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में प्राप्त होता है। वह राजमुद्रा का उपयोग करता था। वह राज्य के समस्त प्रशासन को नियंत्रित रखता था। राजस्व विभाग पर उसकी दृष्टि विशेष रूप से रहती थी। वह राजाज्ञाओं को तैयार करवाता था तथा संबंधित प्रदेश में निस्सृत करवाता था। अभिलेखों में हमें कुछ महाप्रधानों के नाम प्राप्त होते हैं--नरेश वाक्पति द्वितीय का महाप्रधान रुद्रादित्य (क्र. ५, ६), यशोवर्मन् का महाप्रधान
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पुरुषोत्तम तथा महाप्रधानपुत्र श्री देवधर (क्र. ४६), जयवर्मन् द्वितीय का महाप्रधान राजा अजयदेव (क्र. ७२) । कुछ अभिलेखों में महाप्रधान राजपुत्र (क्र. ७१), महाराजपुत्र (क्र. ४८) एवं राजपुत्र (क्र. ४६, ७१) आदि के उल्लेख मिलते हैं । महासंधिविग्रहिक
महासंधिविग्रहिक नामक मंत्री साम्राज्य के युद्ध व संधि विभाग का मुख्य अधिकारों होता था। वह एक विशिष्ट कूटनीति विशारद तथा श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ होता था । वह समय समय पर मित्रराज्यों के राजदूतों से मंत्रणा करता था। राजदूतों को नरेश के सन्मुख उपस्थित करता था। शत्रु नरेशों के दूतों के साथ यथायोग्य व्यवहार करता था। राजाज्ञाओं को निस्सृत करवाता था। महासंधिविग्रहिक के पद पर विशिष्ट विद्वान ही नियुक्त होते थे। नरेश अर्जुनवर्मन् के समय में विल्हण इस पद पर नियुक्त था। बाद में राजा सल्लखण उसके स्थान पर नियुक्त हुआ (क्र. ६०, ६१)।
परमार नरेशों के अधीन उनके माण्डलिक भी अपनी राजसभा में संधिविग्रहिक नियुक्त करते थे। नरेश भोजदेव के माण्डलिक यशोवर्मन् की राजसभा में योगेश्वर इस पद पर नियुक्त था (क्र. १८) । इसी प्रकार वागड शाखा के विजयराज की सभा में श्रीवामन इस पद पर नियुक्त था (एपि. इं., भाग २१, पृष्ठ ५४, श्लोक २९)। महासंधिविग्रहिक के उल्लेख अभिलेख क्र.१८, ५८, ६०, ६१, ६५ एवं ७० में भी प्राप्त होते हैं। महादण्डनायक
समकालीन विशिष्ट लेखक धनपाल कृत तिलकमञ्जरी में महादण्डनायक नामक अधिकारी के लिए विभिन्न नाम मिलते हैं, यथा दण्डनायक, महादण्डाधिपति, वाहिनीपति, सैन्यपति, सेनाधिप आदि। इससे विदित होता है कि प्रधानतः वह सेनाध्यक्ष होता था, परन्तु आवश्यकता पड़ने पर उसको आन्तरिक शांति स्थापना एवं व्यवस्था बनाए रखने का कार्य भी सौंपा जाता था । एक अभिलेख (क्र. ७९) में दण्डनायक का उल्लेख प्राप्त होता है। तिलकमञ्जरी से ज्ञात होता है कि भोजदेव के समय में साम्राज्य में उत्तरापथ एवं दक्षिणापथ नामक दो भाग थे। इन दोनों भागों के लिए अलग अलग दो दण्डनायक नियुक्त थे। इस प्रकार भोजदेव के शासनकाल में प्रशासनिक व्यवस्था को सक्रिय बनाए रखने के लिए प्रशासन को विभागों में विभक्त किया गया था तथा प्रत्येक क्षेत्र में विभागीय अधिकारी नियुक्त किए गए थे। महाप्रतिहार
तिलकमञ्जरी में इस अधिकारी को दौवारिक भी कहा गया है (पृष्ठ ५८, पंक्ति १०)। परमार राजसभा में महाप्रतिहार नामक अधिकारी का उच्च स्थान था। वह सदा नरेश की सेवा में रहता था। इस कारण वह नरेश पर काफी प्रभाव रखता था। तिलकमञ्जरी में उसके विभिन्न कर्तव्यों के उल्लेख मिलते हैं। वह वाचाल व्यक्तियों को प्रतिबंधित रखता था तथा सभी राजकर्मचारियों पर निरंतर दृष्टि रखता था । वह अवांछित तत्वों को राज्य के बाहर निकाल देता था । वह राजदरबार में उपस्थित विशिष्ट व्यक्तियों के प्रति योग्य शिष्टाचार प्रदर्शित करता था। साथ ही वह राजकीय उत्सवों के लिए समुचित आयोजन करता था। इस प्रकार महाप्रतिहार के पद पर कार्यरत व्यक्ति के लिये प्रतिभा सम्पन्न, युक्ति निपुण, आकर्षक व्यक्तित्व युक्त एवं विनीत होना अनिवार्य था । अभिलेख क्र. ७२ में प्रतिहार का उल्लेख प्राप्त होता है।
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राजगुरु अपने प्रतिष्ठित पद के अनुरूप राजसभा में अत्यन्त सम्मानित एवं प्रभावशाली व्यक्ति होता था। वह आवश्यकता पड़ने पर नरेश को मंत्रणा देता था। इसके साथ राजगुरु नरेश एवं राज्य की समृद्धि के लिए सदा प्रयत्नशील रहता था। अभिलेख क्र. ५९, ६० व ६५ में राजगुरु के उल्लेख प्राप्त होते हैं। महापुरोहित अथवा पुरोहित
महापूरोहित साम्राज्य में धार्मिक कर्तव्यों के लिये नरेश का प्रमुख परामर्शदाता होता था। महापुरोहित वेदों एवं धर्मशास्त्रों का ज्ञाता होता था। साम्राज्य में आपत्तियों के निवारण हेतु वह मंत्र तंत्र यज्ञ हवन आदि का आयोजन करता था। वह संभवत: शिक्षा केन्द्रों का संचालन भी करता था। अभिलेख क्र. ४६ में पुरोहित का उल्लेख प्राप्त होता है ।
प्रशासनिक विभाग
परमार साम्राज्य में केन्द्रीय प्रशासन को सदा सक्रिय बनाए रखने के लिए सारे साम्राज्य को मण्डल, विषय, भोग, पयक, प्रतिजागरणक, ग्राम समूहों तथा ग्रामों में विभाजित किया गया था। इन सभी भागों में योग्य अधिकारी नियुक्त थे। अनेक अधिकारियों के उल्लेख अभिलेखों में प्राप्त होते हैं। मण्डल
परमारों के राज्य को मालवदेश कहते थे । प्रशासन की सुविधा हेतु इसको विभिन्न मण्डलों में विभाजित किया गया था। ये प्रान्तों के समान होते थे। इनके सर्वोच्च अधिकारी को महामाण्डलिक अथवा माण्डलिक कहते थे। महामाण्डलिक के उल्लेख अभिलेख क्रमांक १, २, ३८ तथा माण्डलिक के अभिलेख क्रमांक ५७ में प्राप्त होते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य अधिकारियों के नाम भी प्राप्त होते हैं जो प्रान्तीय प्रशासन से संबद्ध प्रतीत होते हैं। इनमें अधिपति (क्र. १), अमात्य (क्र. ४३), अमात्यपुत्र (ऋ. १६), देशलिक (क्र. १८), प्रातिराज्यिक (क्र. १८), भोक्ता (क्र. १८), भोत्कार महाराजपुत्र (क्र. ८), महत्तम (क्र. १८), राजपुत्र (क्र. ४६, ७१), साधनिक (क्र. ७६) के उल्लेख प्राप्त होते हैं। ये सभी अधिकारी किसी न किसी रूप में प्रशासनिक विभागों से संबद्ध थे।
___ अभिलेखों में निम्नलिखित मण्डलों के उल्लेख प्राप्त होते हैं--अवन्ति मण्डल (क्र. ७), उपरिहाड़ा मण्डल (क्र. ६९), उपेन्द्रपुर मण्डल (क्र. ३८), खेटक मण्डल (क्र. १, २), नीलगिरि मण्डल (क्र. ५३), पूर्णपथक मण्डल (क्र. १९), मोहडवासक अर्धाष्टम मण्डल (क्र. ८), मौडी मण्डल (क्र.७१), महाद्वादशक मण्डल (क्र. ४४, ५१), व्यापुर मण्डल (क्र. ३६), विध्य मण्डल (क्र. ५७), स्थली मण्डल (क्र. १०), संगमखेट मण्डल (क्र. १६), हूण मण्डल (क्र. ६)। माण्डलिक दो प्रकार के होते थे। प्रथम, नरेश के अधीनस्थ सामन्त तथा द्वितीय, सामान्य रूप से नियुक्त माण्डलिक थे। प्रथम श्रेणी के माण्डलिक शासनकर्ता नरेश के अधीन होते हुए भी कतिपय विशेष अधिकारों का उपभोग करते थे। विषय-भोग
. . मण्डलों को विषयों एवं भोगों में विभाजित किया गया था जो संभवत: जिलों के समान होते थे। परन्तु विषय एवं भोग में क्या अन्तर था सो कहना सरल नहीं है। संभवत: विषय भोग से
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बड़ा होता था। अभिलेखों में इनके अधिकारियों के उल्लेख प्राप्त नहीं होते। परन्तु ये अधिकारी विषयपति एवं भोगपति रहे होंगे। कुछ अभिलेखों में 'विषयक' का उल्लेख है (क्र. ४४. ५१. ५३. ५७)।
अभिलेखों में निम्नलिखित विषयों के नामों का उल्लेख है--औद्रहादि विषय (क्र. १८), उज्जयनी विषय (क्र.७), मोहडवासक विषय (क्र. १. २)। इसी प्रकार निम्नलिखित भोगों के उल्लेख मिलते हैं--आवरक भोग (क्र. ५), इंगुलीपद्र-सार्द्धसप्तशत भोग (क्र. ३४), गर्दभपानीय भोग (क्र. ४), घाघ्रदोर भोग (क्र. १०), राजशयन भोग (क्र. ४९) । उपरोक्त के अतिरिक्त मद्धक भुक्ति (क्र. ७), पंवीठ प्रतिपत्ति (क्र. ७०) तथा बडोव्य पत्तन (क्र. ७५) के उल्लेख भी मिलते हैं।
पथक
विषयों एवं भोगों को पथकों में विभाजित किया हुआ था। ये परगने के समान होते थे। अभिलेखों में निम्नलिखित पथकों के उल्लेख मिलते हैं-उज्जयनी पश्चिमी पथक (क्र. १३), नागद्रह पश्चिमी पथक (क्र. १२), पूर्व पथक (क्र. ७), महुअड़ पथक (क्र. ७२) । प्रतिजागरणक
प्रशासन की इससे छोटी इकाई प्रतिजागरणक होती थी। ये संभवतः छोटे परगने के समान होते थे। प्रतीत होता है कि यह मालव साम्राज्य की एक महत्वपूर्ण इकाई थी क्योंकि अभिलेखों में अनेक प्रतिजागरणकों के उल्लेख मिलते हैं--अमडापद्र प्रतिजागरणक (क्र. ५३), नर्मदापुर प्रतिजागरणक (क्र. ५७), नागद्रह प्रतिजागरणक (क्र. ७६), पगारा प्रतिजागरणक (क्र. ६१), महुअड़ प्रतिजागरणक (क्र. ६५), भगवत्पुर प्रतिजागरणक (क्र. ३४), भण्डारक प्रतिजागरणक (क्र. ३८), वर्द्धनापुर प्रतिजागरणक (७६), शकपुर प्रतिजागरणक (क्र. ५९), सप्तशिति प्रतिजागरणक (क्र.७६)। ग्राम-समूह
संभवतः प्रत्येक प्रतिजागरणक' अनेक ग्रामसमूहों में विभाजित होता था । ग्रामसमूह का नामकरण उसमें स्थित प्रमुख ग्राम के नाम पर होता था । सामान्यत: नाम के साथ समूह में सम्मिलित ग्राम संख्या का उल्लेख भी उसमें होता था । प्रशासन की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण इकाई होती थी। अभिलेखों में निम्नलिखित ग्राम-समूहों के नाम लिखे मिलते हैं--उत्तरापट्टक (क्र. ५२), तिणिपद्र द्वादशक (क्र. ५), न्यायपद्र सप्तादशक (क्र. १७), पंचमुख पत्तन (ऋ. ६६. ६७), वोडसिरस्तक अष्टचत्वारिंश (क्र. ५७), वटखेटक षट्त्रिंशत् (क्र. ४९), भृगारी चतुःषष्टि (क्र. ६७), भूमिगृह पश्चिम द्विपंचाशत्क (क्र. ९), भल्लस्वामि महाद्वादशक (क्र. ७३), मक्तुलाग्राम द्विचत्वारिंश (क्र. १९), मुक्तापली चतुराशीति (क्र. १८), ... रद्रह द्वादशक (क्र. २९), सावइरि सोलह (क्र. ६०), सुरासणी (क्र. ४४), सुवर्ण प्रासादिका (क्र. ४४), विखिलपद्र द्वादशक (क्र. ५१) । नगर
परमार अभिलेखों में अनेक नगरों के उल्लेख प्राप्त होते हैं-उज्जयनी (क्र. ४. २७), उदयपुर (क्र. २३. ७७), कान्यकुब्ज (क्र. १६), कोशवर्द्धन (क्र. ४५), खलघाट (क्र. २०), गर्दभपानीय (क्र. ४), गुर्जर नगर (क्र. ५९. ६०. ६१. ६५. ७२), देपालपुर (क्र. ७६), दोरसमुद्र (क्र. ४३), धारा नगरी (क्र. ९. १२. १३. १८. १९. २२. ३८. ४४. ५९. ६०. ६१. ६३. ६५. ६९. ७२. ७६), भोजपुर (क्र. ८०), भल्लस्वामिदेवपुर (क्र. ७३), भृगुकच्छ (क्र. ६०), महाकालपुर (क्र. ६०), माहिष्मती (क्र. ६५), मंडपदुर्ग (क्र. ७२. ७६), मांधातृ (क्र. ७६), मांधाता ब्रह्मपुरी
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(क्र.७६), सूर्याश्रम (क्र. ४५), सेल्लक नगर (ऋ. १८), संगम नगर (क्र. १८), शाकपुर (क्र. ७६), हर्षपुर (क्र. ५०), त्रिपुरी (क्र. २२) ।
प्राम
परमार राजवंशीय अभिलेखों में तत्कालीन अनेक ग्रामों के उल्लेख हैं जो आज भी उसी अथवा मिलते जुलते नामों से विद्यमान हैं--अगारवाहला (क्र. ४), उत्तरायण (क्र. ६०), उथवणक (क्र. ४४), उन्दपुर (क्र. ६३), कडाहिच्छत्र (क्र. ७), कर्पासिका (क्र. २९), कदम्बपद्रक (क्र. ३८), किन्कैिक (क्र. १२), कुम्भदाउद (क्र. ७६), कुम्भारोटक (क्र. १), गुणपुर (क्र. ५. ५३), गुणौरा (क्र. ५७), गुवासा (क्र. ७१), घंटापल्ली (क्र. १६), घरटौड (क्र.७१), चरमटिका (क्र. ३४), चिखिल्लिका (क्र. ४), चिरिहिल्लतक (क्र. २८), ठिक्करिका (क्र. ४६), डोंगरगाम (क्र. ४२), दादरपद्र (क्र. ५), दुगाई (क्र. ९), देवलपाटक (क्र. २०. ४६), धवली (क्र. २७), नट्टापाटक (क्र. २०), नाटिया (क्र. ७६), नालतडाग (क्र. ११), पलसवाडा (क्र ५३), पिडिविडि (क्र. ५९), पिप्परिका तडार (क्र. ४), पांशुलाखेटक (क्र. २०), पानाछ्य (क्र. २०), पुमानी (क्र. ७३), भगवत्पुर (क्र. ५), भीमग्राम (क्र. १९), भोग्यपुर (क्र. २०), महिषबुद्धिका (क्र. १८), म्हैसडा (क्र. ७०), मंडपिका (क्र. १४), मंडलग्रह (क्र. २०), मालापुरक (क्र. ३४), मायमोडक (क्र. ४९), महुडला (क्र. १८), मुक्तापली (क्र. १८), मोखलपाटक (क्र. ३६), राउता (क्र. ७१), राडघटिता (ऋ. २७) वडौड (द) (क्र. ४४. ७२), लघुवैगनपद्र (क्र. ४६), वटपद्रक (क्र, १०), वघाडि (क्र. ७६), वणिका (क्र.६), विलापद्रक (क्र. २९), वर्द्धमानपुर (क्र. ४९). विलुहज (क्र. १६),
क (क्र. १२), वालोद (क्र.७६), साहिका (क्र.२), सम्मति (क्र. ५३), सवाडा (क्र. ५३), सताजुणा (क्र. ६५), सेम्बलपुर (क्र. ५), सुवाडाघाट (क्र. ५७), हर्षपुर (क्र. ६३), हथावाद (क्र. १८), हथिकपावा (क्र. ७७), हथिणावर (क्र. ६१) ।
उपरोक्त के अतिरिक्त कुछ ग्राम अधिकारियों के नाम भी प्राप्त होते हैं जैसे ग्रामटक (क्र. १८), गोकुलिकमहत्तं (क्र. १८), चौरिक (क्र. १८)। पट्टकिल अथवा पटेल का उल्लेख तो प्रायः सभी अभिलेखों में प्राप्त होता है। ब्राह्मणों को दान में दिए गए ग्राम को अग्रहार कहते थे। जिस ग्राम में केवल ब्राह्मण निवास करते थे अथवा नगर के जिस भाग में केवल ब्राह्मण रहते थे उसको ब्रह्मस्थान अथवा ब्रह्मपुरी कहते थे । माण्डलिक (प्रान्तपाल)
- ऊपर बतलाया जा चुका है कि परमार साम्राज्य सुविधा की दृष्टि से मण्डलों अथवा प्रान्तों में विभाजित था। इनका शासन प्रबन्ध माण्डलिकों अथवा प्रान्तपालों के अधिकार में था । प्रान्तपालों को प्रायः माण्डलिक कहा जाता था, यद्यपि इनके लिए कुछ अन्य उपाधियां भी प्रयुक्त होती थीं, जैसेमहामण्डलेश्वर, मण्डलेश्वर, नरेन्द्र, नृप, महाकुमार, अधिपति, महासामन्त, सामन्त, राजपुत्र अथवा ठक्कुर । परमार नरेशों की राजसभाएं प्रायः उनके माण्डलिकों से भरी रहती थी। अभिलेखों में नरेशों के लिए 'प्रणत-सकल-सामन्त-शिरोमणि-मरीचिरंजित-चरणयुगलः” (क्र. १. २), "महामाण्डलिक चूडामणि" (क्र. १. २) , “वृहद्राजावलीपूर्व...." (क्र. ८), "भूपाल-चूडामणिच्छायाडम्बर-चूम्बितंह्रि कमलः” (क्र. ३६, श्लोक २९), “समस्त परिक्रिया विराजमान" (क्र. ४८. ५०) आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है।
माण्डलिक विभिन्न श्रेणियों के होते थे। वे राजसभा में अपनी अपनी श्रेणी के अनुसार स्थान ग्रहण करते थे। परमार अभिलेखों एवं समकालीन साहित्य के आधार पर हमें निम्न चार प्रकार के
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भाण्डलिकों के बारे में ज्ञात होता है:- प्रथम, वे माण्डलिक थे जिनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर नरेश किसी प्रदेश का प्रान्तपाल नियुक्त कर देता था । उदाहरणार्थ, नरेश जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय के अधीन चाहमानवंशीय साधनिक अनयसिंह को जागीर प्रदान की गई थी। साधनिक वस्तुतः अश्वशा का प्रमख अधिकारी होता था। अनेक बार श्रेष्ठ अश्वों के कारण युद्ध का निर्णय स्वतः के हो जाता था । प्रतीत होता है कि अनयसिंह के पूर्वज भी परमार नरेशों की सेवा में थे एवं उपभोग करते थे। परमार राज्य में सामान्य नियम यह था कि कतिपय प्रमुख अधिकारियों को, उनकी विशिष्ट सेवाओं के बदले, नकद धन न देकर उपहार स्वरूप जागीर दे दी जाती थी अपने क्षेत्र से राजस्व उगहा कर उसका निर्धारित अंश अपने पास रख कर शेष धन राजकोष में जमा करवाता था।
_ द्वितीय, वे माण्डलिक होते थे जो यद्यपि राजघराने के राजकुमार थे परन्तु उन लोगों ने राज्यसीमा के बाहर अपने बाहुबल से स्वयं के लिए कुछ प्रदेश विजित कर अपने अधीन कर लिए। ये राज्य प्रायः छोटे व निर्बल होते थे। अतएव राजवंशीय नरेश की अधीनता में ये राजकुमार नवीन प्रदेश का शासन संभालते थे। ऐसे माण्डलिकों में बागड, किराडू एवं जालोर के परमार घराने आते थे । तीसरी प्रकार के वे माण्डलिक थे जिन्होंने परमार राजवंश के आन्तरिक झगड़ों के कारण समय का लाभ उठाकर अपने लिए जागीरें बना लीं। इस श्रेणी में परमार महाकुमारों को रखा जा सकता है। ये लोग महाकुमार एवं पंचमहाशब्दालंकार की कनिष्ठ उपाधियों का उपयोग करते थे। अनेक बार ये राजवंशीय नरेश का नाम तक अपने अभिलेखों में नहीं लिखते थे। इससे इनकी शक्ति का अनुमान होता है। ये कनिष्ठ नरेश परमार राजवंश के पतन के वर्षों में विशेष रूप से उभरे। चौथी प्रकार के वे माण्डलिक थे जिनको परमार नरेशों ने युद्ध में परास्त कर अपनी अधीनता स्वीकार करने पर बाध्य किया था। परन्तु इस श्रेणी के माण्डलिक सदा समय अनुकल होने पर स्वतंत्र होने का प्रयत्न करते थे। इस कारण उनको अपने अधीन रखने हेतु शक्ति का निरन्तर प्रदर्शन करते रहना आवश्यक होता था। ऐसे उदाहरणों में वाक्पति द्वितीय के शासन काल में मेवाड़ के गुहिलवंशीय राजकुमार थे जो युद्ध में पराजित होने पर उसके अधीन हो गए थे परन्तु भोज प्रथम की मत्यु हो जाने पर समय अनुकूल देख पुनः स्वतंत्र हो गए।
उपरोक्त सभी प्रकार के माण्डलिक सामान्यतः परमार नरेशों की अधीनता स्वीकार कर समय समय पर उपहार प्रदान करते थे, त्यौहारों तथा विशिष्ट अवसरों पर भेंट देते थे, वाषिक कर अदा करते थे, युद्ध के समय धन-धान्य व सेना से नरेश की सहायता करते थे तथा स्वयं राजदरबार में उपस्थित होते थे। केन्द्रीय शक्ति के प्रबल होने पर उपरोक्त सभी बातें स्वयमेव पूरी होती रहती थीं। माण्डलिक अपने प्रभु नरेशों का नाम भी अपने अभिलेखों व अन्य दानपत्रों में अंकित करते थे। परन्तु केन्द्रीय शक्ति के दुर्बल होते ही सभी बातों में ढील हो जाती थी। केवल इतना ही नहीं, कतिपय माण्डलिक तो अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा तक कर देते थे।
कुछ सामन्त अपने क्षेत्र में एक कनिष्ट राजा के समान शासन करते, अपना दरबार लगाते, अपने अधीन कुछ जागीरदार रखते तथा उनसे कर व भेंटें स्वीकार करते थे। परन्तु वे सामन्त इस प्रकार का व्यवहार प्रभु नरेश की अनुमति से ही करते थे। ऐसे सामन्तों के लिए राजदरबार में विशेष स्थान होता था। स्वयं नरेश भी उनको समय समय पर अपने हाथों सम्मानित करते थे। सैन्य व्यवस्था
परमार नरेशों की सेना में प्रायः दो प्रकार के सैनिक होते थे-मौल एवं भृत्य । प्रतीत होता है कि मौल सैनिक नरेश द्वारा प्रदान की गई भूमि पर निर्भर रहते थे। इस कारण मौल सैनिक स्थायी
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सेना के अंग कहे जा सकते हैं। इसके विपरीत भृत्य भाड़े के सैनिक होते थे जो किसी एक अभियान में भाग लेने हेतु विशेष रूप से भरती किए जाते थे । उदयपुर अभिलेख ( क्र. २२) में उल्लेख है कि किस प्रकार नरेश भोजदेव के भृत्यों ने युद्ध में शत्रुसैन्य को भगा दिया था । परन्तु भृत्य सैनिकों पर बहुत विश्वास नहीं किया जा सकता था । ऐसे सैनिक शत्रुपक्ष द्वारा अधिक धन का लालच दिए जाने पर विपक्ष की ओर से लड़ने को उद्यत हो जाते थे ।
शत्रु का आक्रमण होने अथवा विजय अभियान करने के अवसरों पर अधीन माण्डलिकों एवं सामन्तों की सेनाएं नरेश की सहायता हेतु आती थीं। इसके अतिरिक्त मित्र बल भी सम्मिलित हो जाता था, विशेषतः जब मित्र नरेशों का शत्रु समान हो । परमार अभिलेखों में इस प्रकार fa नरेशों द्वारा संघ निर्माण के अनेक उदाहरण मिलते हैं ।
परमार सेना में प्रधानतः तीन विभाग होते थे-भट या पैदल सेना, अश्व सेना एवं हस्ति सेना (अर्जुनवर्मन् के अभिलेख क्र. ५९-६१ ) । नरेश भोजदेव कृत युक्तिकल्पतरु ग्रन्थ में पदाति सेना का महत्व दर्शाया गया है। इसी प्रकार अश्वों की श्रेष्ठ एवं निकृष्ट श्रेणियों का विवरण है। इसमें कहा गया है कि कज़ाकिस्तान एवं तुषार देशों के अश्व श्रेष्ठ होते हैं, परन्तु सिंध के निकृष्ट होते हैं । इसी प्रकार अनेक स्थलों पर हस्ती सेना की प्रशंसा भी मिलती है । कल्याणी के चालुक्यों के विरुद्ध युद्ध में वाक्पति मुंज ने १४७६ हाथी गंवाए थे ( प्रभावक चरित्, पृष्ठ २३) । त्रिपुरी पर सफल अभियान के पश्चात्, लक्ष्मदेव की सेना ने नर्मदा नदी के किनारे पड़ाव डाला था जहां उसके हाथियों ने नदी में स्नान कर युद्ध की थकान दूर की थी ( अभिलेख क्र. ३६, श्लोक ४०-४२ ) । नरेश अर्जुनवर्मन् ने अपने राजकीय हाथी पर सवार होकर चौलुक्य नरेश जयसिंह पर विजय प्राप् त की थी (विजयश्री नाटिका, एपि. इं., ऋष्ठ १०२ ) । एक होयसल अभिलेख में मालव नरेश को 'गजपति' कहा गया है एपि. क., भाग ६, क्र. १५६) ।
समुद्र से दूर मालव प्रदेश में स्थित परमार नरेशों ने नौसेना के गठन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया । परन्तु साम्राज्य के भीतर विद्यमान बहुसंख्यक नदी नालों को पार करने हेतु निश्चित ही उन्होंने विभिन्न प्रकार की नावों का प्रबन्ध अवश्य कर रखा होगा |
परमार नरेशों ने अपने साम्राज्य में स्थित दुर्गों का समुचित प्रबंध किया हुआ था । नगरों एवं विशिष्ट ग्रामों के चारों ओर परकोटे बने थे । तत्कालीन प्रमुख दुर्गों में मंडप दुर्ग, कोषवर्द्धन दुर्ग (शेरगढ़), धार, जालोर, राहतगढ़, भिलसा, उज्जैन, गुणपुर आदि थे। इनमें सैनिक एवं युद्ध के शस्त्रास्त्र पर्याप्त मात्रा में रखे जाते थे। इसी कारण शत्रुसैन्यों को अनेक बार उपरोक्त दुर्गों को भेदने कठिनाइयों का सामना होने के विवरण मिलते हैं। गुजरात नरेश जयसिंह सिद्धराज को परमार नरेश नरवर्मन् एवं यशोवर्मन् के विरुद्ध बारह वर्ष तक युद्ध चालू रखना पड़ा । अन्ततः एक भेदी की सहायता से ही वह धारा नगरी के मुख्य द्वार को भेद सका था ( कुमारपाल भूपाल प्रबंध, अध्याय १) |
परमार नरेशों की युद्धकला परम्परागत सिद्धान्तों पर आधारित थी । वे प्रायः धर्मयुद्ध में विश्वास करते थे । संभवत: इसी कारण जब भी किसी पड़ौसी शक्ति से उनका सामना हुआ तो वे प्रायः सफल रहे । परन्तु जैसे ही द्रुतगामी तुर्की अश्वारोहियों से उनका मुकाबला हुआ, वे बुरी तरह असफल हुए ।
सैनिक अधिकारियों में दण्डनायक का पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। अन्य अधिकारियों में बलाधिकृत, महासाधनिकः (अभि. क्र. ५) एवं महामात्र के उल्लेख भी किए जा सकते हैं। इनमें से बलाधिकृत कनिष्ट सेनापति होता था । कभी कभी वह नगरों का अधिकारी भी बनाया जाता था ।
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महासाधनिक अश्वसेना का मुखिया होता था। वह महत्वपूर्ण दुर्गों में भी नियुक्त होता था । महामात्र हस्ति सेना का मुखिया होता था। न्याय व्यवस्था
परमार कालीन न्याय व्यवस्था के संबंध में हमारी जानकारी बहुत अधिक नहीं है। समकालीन साहित्यिक ग्रन्थों के आधार पर मोटे रूप से कहा जा सकता है कि परमार नरेश साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था तथा उसके निर्णय अंतिम होते थे। नरेश की सहायता के लिए धर्मशास्त्रों में पारंगत विद्वान ब्राह्मण होते थे। न्याय विभाग के कतिपय अधिकारी इस बात का ध्यान रखने के लिए नियुक्त होते थे कि किसी के साथ ज्यादती अथवा अन्याय न हो। ऐसे अधिकारी को धर्मस्थेय' कहा जाता था। वैसे अनेक विवाद स्थानीय पंचायतों द्वारा ही निबटा दिए जाते थे । नगरवासियों में उठने वाले आपसी विवाद वहां के पंचकुल के सामने लाए जाते थे। अपराध प्रमाणित हो जाने पर काणिक नामक अधिकारी नरेश के सम्मुख रिपोर्ट प्रस्तुत करता था। इस रिपोर्ट को तैयार करवाने में नगरज्येष्टों का योगदान भी कुछ कम महत्व का न था। साम्राज्य में दण्डव्यवस्था प्रायः कठोर थी जिसके भय के कारण अपराधों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी। पुलिस व्यवस्था
साम्राज्य की पूलिस व्यवस्था में केन्द्रीय प्रशासन का दखल प्रायः नाममात्र का था। यह कार्य मुख्यरूप से सामन्तों, माण्डलिकों तथा ग्राम पंचायतों का था । सर्वत्र स्थानीय अधिकारी अपने अपने क्षेत्रों में आन्तरिक सुरक्षा तथा शांति स्थापना के लिए उत्तरदायी होते थे। साम्राज्य के बड़े छोटे सभी नगरों में तलार एवं दण्डपाशिक नामक अधिकारी नियुक्त होते थे जिनका मुख्य कार्य जनसुरक्षा होता था। ये अधिकारी नगरों में दुराचारियों एवं नवागन्तुकों पर कड़ी नजर रखते थे। वे अपराधी को खोजते थे, अपराध प्रमाणित करवाते थे तथा अपराधी को दण्डित करवाने हेतु न्यायालय में प्रस्तुत करते थे।
राजस्व एवं कर विभाग परमार नरेशों को प्रशासनिक व्यवस्था में भारी मात्रा में धन की आवश्यकता होती थी। इस कारण उन्होंने अपने साम्राज्य में राजस्व एवं कर विभाग को सदा सुव्यवस्थित रखा। प्रायः सभी परमार दानपत्र अभिलेखों में भूदान का उल्लेख करते समय उसके साथ “हिरण्य-भागभोग-उपरिकर-सर्वादाय समेत" अथवा "भाग-भोग-कर" अथवा "कर-हिरण्य-भाग-भोग" आदि का भी अनिवार्य रूप से उल्लेख मिलता है। इससे प्रमाणित होता है कि भाग भोग हिरण्य एवं उपरिकर उस समय अत्यन्त महत्वपूर्ण कर थे।
भाग--यह उपज का परम्परागत राज्य का भाग होता था। यह सामान्यतः उपज का छठा भाग होता था, परन्तु आवश्यकता पड़ने पर इसमें परिवर्तन भी हो सकता था।
भोग--यह फल, फूल, दूध, दही अथवा ईंधन आदि के रूप में दिया जाने वाला कर था जो समय समय पर नरेश अथवा उसके प्रतिनिधि को दिया जाता था।
उपरिकर--यह अलग से दिया जाने वाला कर था जो कारीगरों एवं व्यापारियों आदि के द्वारा वस्तु के रूप में दिया जाता था।
हिरण्य--हिरण्य का सामान्य अर्थ सुवर्ण या बहुमूल्य वस्तु होता है। परन्तु यहां यह उपज की ऐसी वस्तुओं से संबंधित है जो अधिक समय तक रखी नहीं जा सकती थी। ऐसी वस्तुओं पर लगा कर धन के रूप में देय होता था।
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शुल्क--यह बाजार की वस्तुओं पर दी जाने वाली चुंगी होती थी, जिसकी दर वस्तु के मान से अलग अलग होती थी। शुल्क दो प्रकार का होता था। प्रथम, मण्डपिका जो सडकों व मार्गों से मण्डी को ले जाई जाने वाली व्यापारिक वस्तुओं पर लिया जाता था। द्वितीय, घट्टादाय जो नावों द्वारा नदियों से ले जाई जाने वाली बिक्री की वस्तुओं पर देय होता था। घट्टादाय का उल्लेख अर्जुनवर्मन् के अभिलेखों (क्र. ६०-६१) में प्राप्त होता है। इस शुल्क को उगाहने वाले अधिकारी को संभवतः घट्टपति कहते थे।
__ मार्गादाय--सड़कों एवं मार्गों पर लगाए जाने वाले कर को मार्गादाय कहते थे। परमार अभिलेखों में इस प्रकार के कर लगाए जाने के उल्लेख मिलते हैं। नरेश जयसिंह प्रथम के पाणाहेड़ा अभिलेख (क्र. २०) में उल्लेख है कि वहां के मार्ग से व्यापारिक माल ढोकर ले जाने वाले प्रत्येक बैल पर एक विंशोपक कर लगाया गया था जो स्थानीय देवालय को दान में दे दिया गया था। इसी प्रकार शेरगढ़ अभिलेख (क्र. २९) में उल्लेख है कि मार्गादाय कौप्तिक (अधिकारी) वरंग ने मार्गादाय से प्राप्त होने वाले धन से पांच वृषभ (सिक्के) भगवान सोमनाथ के मंदिर के लिए दान में दिए थे।
गृह-कर--प्रतीत होता है कि उस समय आज के समान घरों पर भी कर लगाया जाता था। अर्जुनवर्मन् के सीहोर दानपत्र अभिलेखों (क्र. ६०-६१) में आवासगृहों पर कर लगाए जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस प्रकार प्राप्त धन को स्थानीय देवालय के लाभ हेतु दान में दे दिया गया था।
उपरोक्त करों के अतिरिक्त अधीन सामन्तों एवं माण्डलिकों से प्राप्त भेटें भी राज्य की आय के प्रमुख साधनों में सम्मिलित थीं। इसके साथ ही अपराधियों पर लगाया जाने वाला अर्थदण्ड तथा उत्तराधिकारी के अभाव में किसी मृत व्यक्ति का धन राज्य की सम्पत्ति होता था। नरेश अपनी राज्य की सारी भूमि, वन, वनोपज, खानों, भूमि में गड़े व छिपे धन आदि का स्वामी होता था। वह समय समय पर ग्रामवासियों से बेगार करवा सकता था। इस प्रकार नरेश की आय के पर्याप्त साधन थे। इसी कारण परमार राजवंशीय नरेशों ने अपने साम्राज्य एवं उससे बाहर सांस्कृतिक, धार्मिक तथा शिक्षा संबंधी कार्यों में मुक्तहस्त धन व्यय करके चहुं ओर यश अर्जित किया।
नागरिक व्यवस्था साम्राज्य में बड़े-छोटे सभी नगरों तथा महत्वपूर्ण ग्रामों की व्यवस्था स्थानीय अधिकारियों तथा निवासियों के हाथों में थी। नगरों में स्थानीय अधिकारियों में महत्तम, बलाधिकृत तथा साधनिक होते थे। इनकी सहायता के लिये पंचकुल एवं अन्य जनप्रतिनिधि होते थे। ये प्रतिनिधि स्थानीय प्रशासन में बारी बारी से विभिन्न समितियों के माध्यम से कार्य करते थे। जनसमितियों में पंचकुल अर्थात् चुने हुए पांच विशिष्ट व्यक्तियों की समिति सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी। परमारों के आबू एवं बागड़ शाखाओं के अभिलेखों में पंचकुल के बार बार उल्लेख प्राप्त होते हैं। पंचकुल का एक अध्यक्ष होता था जो नगर का अत्यन्त विशिष्ट व्यक्ति होता था। यह पंचकुल राजकीय व अन्य भूदानों का पंजीकरण करते थे । ये स्थानीय अनेक झगड़ों का निबटारा भी करते थे । गुजरात से प्राप्त अभिलेखों में पंचकुल को अनेक महत्वपूर्ण राजकीय कार्यों से सम्बद्ध किया गया है। महत्तम अथवा महत्तर
नगरों एवं महत्वपूर्ण ग्रामों में यह एक स्थानीय अधिकारी होता था जो नागरिक जीवन में पर्याप्त दखल रखता था। चाहमान अभिलेखों में महत्तम के स्थान पर महाजन शब्द का प्रयोग किया गया मिलता है। यह अधिकारी स्थानीय प्रशासन के लिये पूर्णतः उत्तरादायी होता था।
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मण्डपिका
नगरों में मण्डियों की देखरेख एवं व्यापारिक वस्तुओं पर चुंगी उगाहने वाले कार्यालय को मण्डपिका कहते थे। मण्डपिका का मुख्य अधिकारी शौकिक कहलाता था। उसकी सहायता के लिये कछ अन्य शासकीय कर्मचारी तथा जनप्रतिनिधि समिति के सदस्य होते थे। शेरगढ़
भलेख (क्र. २९) में सोमनाथ मंदिर में भट्टारक नग्नक के लिये तीन व्यापारियों द्वारा मण्ड पिकाकर से कुछ भाग दान करने का उल्लेख प्राप्त होता है। निश्चित ही ये व्यापारी ऐसी ज नसमिति के सदस्य रहे होंगे । इसी कारण वे प्राप्त कर में से कुछ भाग दान में दे सके थे। संघ निर्माण
परमार अभिलेखों में श्रेष्ठिन्, स्थपति, नाग बनिया, लार बनिया, सुनार, तेली आदि के उल्लेख बहुवचन में प्राप्त होते हैं। इस आधार पर अनुमान होता है कि परमार राज्य में विभिन्न समाजों के संघ रहे होंगे। संघ का अध्यक्ष नगर के प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता होगा। वह अपनी समाज की ओर से आवश्यकता के अनुसार दान आदि कर सकता होगा । शेरगढ़ अभिलेख (क्र.२९) में तैलिकराज ठक्कर देवस्वामिन् ने सोमनाथ मंदिर के श्रेय हेतु विभिन्न दान दिये थे। निश्चित ही ये दान उसने अपनी समाज की ओर से संघ के अध्यक्ष होने के नाते दिये होंगे। भोजदेव प्रथम के मोडासा अभिलेख (क्र. ८) में देई नामक एक ब्राह्मण दानकर्ता को चातुर्जातकीय उपाधि से विभूषित किया गया है। डी. सी. सरकार के अनुसार वह चार श्रेष्ठ व्यक्तियों की समिति का सदस्य रहा होगा। अन्य सुझाव इसमें जातक शब्द को ज्योतिष मान कर इसको ज्योतिर्विद सभा का सदस्य स्वीकार करने की ओर है।
ग्राम व्यवस्था ग्रामों में ग्रामवासी अपने यहां की दैनिक व्यवस्था में अधिक संलग्न रहते थे। ग्राम के मुखिया को ग्रामकूट अथवा ग्रामटक (एपि.ई., भाग १९, पृष्ठ ५५-६१) कहते थे। वह ग्राम का सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति होता था। उसका पद प्रायः वंशानुक्रम से होता था। वह ग्राम सेना का भी मुखिया होता था। ग्राम रक्षा उसका प्रमुख कर्त्तव्य था ।
__ ग्रामों में अपने पञ्चकुल होते थे। परमार अभिलेखों में पट्टकिल, राज्य की ओर से नियुक्त पटेल एवं जनपद अर्थात् ग्रामवासियों के उल्लेख मिलते हैं । इस प्रकार ग्रामों की व्यवस्था करने में राजकीय अधिकारी, जनता के प्रतिनिधि पञ्च तथा समस्त ग्रामवासी सामूहिक रूप से होते थे। तभी तो उस यग के ग्राम पूर्णतः स्वतंत्र इकाई के रूप में विद्यमान थे। राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था में उपरोक्त के अतिरिक्त निम्नलिखित अधिकारी भी सम्मिलित थे:--
तलार अथवा तलाराध्यक्ष-यह आधुनिक नगर कोतवाल के समान पुलिस अधिकारी होता था।
दण्डपाशिक-यह एक पुलिस अधिकारी था जो अपने पास दण्ड एवं पाश (हथकड़ी) रखता था। वह आंतरिक शांति स्थापित करने के लिये उत्तरदायी होता था। वह दोषी व्यक्तियों को बंदी बना कर न्यायालय में उपस्थित कर उनको दण्डित करवाता था।
चौरिक-यह अधिकारी चोरों को पकड़ने के लिये नियुक्त होता था।
शौकिक-यह राज्य की और से नियुक्त सभी प्रकार के शुल्क एकत्रित करने वाला अधिकारी था।
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गोकुलिक - यह अधिकारी राज्य की ओर से चरागाहों की देख रेख करता था ।
पट्टकिल - पट्टकिल नामक अधिकारी की नियुक्ति ग्रामों में होती थी। वह खेती योग्य समस्त भूमि का हिसाब किताब रखता था। खेतों की सीमाओं का निर्धारण करता था। चूंकि यह ग्राम का एक महत्वपूर्ण तथा प्रमुख अधिकारी था इसी कारण सभी भूदान अभिलेखों में इसका उल्लेख अनिवार्य रूप से किया जाता था ।
राज्याध्यक्ष- यह संभवतः एक न्यायिक होता था जो ग्रामों के झगड़ों का निबटारा करता था ।
उपरोक्त के अतिरिक्त राज्य में कुछ अन्य अधिकारी भी होते थे जिनके परमार अभिलेखों में उल्लेख मिलते हैं, जैसे अमात्य ( क्र ४३ ), अमात्यपुत्र ( क्र. १६), राजपुरुष ( समस्त दानपत्र अभिलेखों में ), वीसी (क्र. १८) तथा साधनिक ( क्र. ७६ ) ।
इस प्रकार परमार राजवंशीय अभिलेखों में प्राप्त तथ्यों से परमार साम्राज्य के शासन प्रबंध के बारे में प्रायः पूर्ण चित्र उजागर होता है । इसका अध्यक्ष नरेश था तथा वह विभिन्न शासकीय व अशासकीय अधिकारियों के माध्यम से प्रशासन का संचालन करता था । वस्तुतः उस युग में देश में विभिन्न राज्यों का प्रशासन प्राय: समान था । परन्तु परमार प्रशासन की विशिष्टता उसकी सांस्कृतिक देन एवं जनकल्याण की भावनाओं से ओतप्रोत होने से अत्यधिक थी । वाक्पति मुंज एवं भोज के समान नरेशों ने अपने राज्य को लक्ष्मी, सरस्वती एवं शक्ति का निवास बना कर अपने युग को चिरस्मरणीय बना दिया जिसका अनुसरण भावी पीढ़ियों के लिये स्पर्धा का विषय बन गया ।
धार्मिक व्यवस्था
परमारों के अधीन मालव राज्य में ब्राह्मण धर्म का चहुं ओर प्रसार हुआ। इस युग में वैदिक यज्ञ हवनों के साथ साथ भक्ति का सिद्धान्त अत्यन्त लोकप्रिय बना । परमार नरेशों ने अपने साम्राज्य में विभिन्न स्थानों पर हिंदू देवी देवताओं के मंदिर बनवाकर एवं ब्राह्मणों को भूमि दान में दे कर हिन्दू धर्म के प्रसार एवं विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
देवी-देवता
हिन्दू धर्म में विष्णु, शिव, ब्रह्मा, सूर्य, पार्वती, सरस्वती एवं अन्य अनेक देवी देवता सम्मिलित थे । परन्तु इतने अधिक देवी देवताओं एवं धार्मिक विश्वासों के विद्यमान रहते हुए भी आपसी मतभेद अथवा असहनशीलता कहीं देखने में नहीं आती। वे सर्वशक्तिमान ईश्वर के विभिन्न रूप माने जाते थे । इस प्रकार असाधारण सांस्कृतिक एकता देखने को मिलती है। fra fasणु एवं अन्य देवी देवताओं के मंदिर पास पास स्थित होते थे । परमार नरेशों ने विभिन्न देवी देवताओं को अपना आराध्य देव मानकर प्रतिष्ठित किया । यद्यपि परमार नरेश प्रधानतः शिव के भक्त थे परन्तु अपने राजचिन्ह पर विष्णु वाहन गरुड़ को अंकित करते थे । विष्णु की विभिन्न रूपों में पूजा होती थी जैसे नृसिंह, मत्स्य, वराह, राम, परशुराम, कृष्ण आदि । इसी प्रकार अन्य देवताओं के संबंध में भी है।
परमार नरेशों में सीयक द्वितीय नृसिंह अवतार के रूप में विष्णु का पुजारी था । वाक्पति द्वितीय मुरारी कृष्ण को मान्य करता था । नरवर्मन् ने स्वयं के लिये 'निर्वाण नारायण' की उपाधि को चुना था एवं वह विभिन्न अवतरणों में विष्णु का पुजारी था। अर्जुनवर्मन् लक्ष्मीपति
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विष्णु, शेषनारायण, परशुराम, राम, युधिष्ठिर एवं कृष्ण मुरारी की अराधना करता था। विध्यवर्मन् के राजकवि विल्हण ने विष्णु की प्रशंसा में प्रशस्ति लिखी है । देवपालदेव विष्णु मंदिर के लिए दान करता है। जयतुगिदेव “बालनारायण” की उपाधि धारण कर परशुराम, राम एवं कैटभजित को नमस्कार करता है। इसी प्रकार नरेश जयवर्मन् द्वितीय भी करता है। इतना सभी होते हुए भी शिव ही सर्वाधिक मान्य एवं परमार नरेशों का संरक्षक देव था। परमारों के अभिलेख प्रायः “ओं नमः शिवायः" से प्रारम्भ होते हैं। शिव विभिन्न नामों से पूजित था, यथा-स्मरार्ती, शम्भु, महेश, भवानिपति, व्योमकेश, नटेश, ओंकार, हर, अमरेश्वर, महाकालेश्वर, कनखलेश्वर, सिद्धेश्वर, नीलकण्ठेश्वर, भोजेश्वर, सिंधुराजेश्वर, काशीविश्वेश्वर, केदारेश्वर आदि। विख्यात द्वादश ज्योतिलिंगों में तीन महाकालेश्वर, अमरेश्वर एवं ओंकार मांधाता परमार साम्राज्य में स्थित थे।
परमार राजवंशीय अभिलेखों से ज्ञात होता है कि नरेश सीयक द्वितीय शिव का विख्यात भक्त था। वाक्पति द्वितीय के अभिलेख गिरिजा एवं श्रीकण्ठ की अराधना से प्रारम्भ होते हैं। भूदान देते समय वह भवानिपति की पूजा करता था। उसने एक शिव तड़ाग भी खुदवाया था। इसी प्रकार समकालीन साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि सिंधुराज शिव का महान भक्त था। उसने कुल राजधानी धारा नगरी में शिवलिंग की स्थापना की थी। भोजदेव के संबंध में उदयपुर प्रशस्ति में लिखा मिलता है कि उसने केदारेश्वर, रामेश्वर, सोमनाथ, सुंडीर, काल, अनल तथा रुद्र के मंदिरों का निर्माण करवाया था। उसने भोजपुर में भोजेश्वर मंदिर एवं चित्तौड़गढ़ में संधीश्वर मंदिर बनवाये तथा घंटोली में घंटेश्वर महादेव के मंदिर के लिए दान दिये । जयसिंह प्रथम ने अhणा में मंडलेश्वर मंदिर के लिए दान दिये। उदयादित्य का शासनकाल शवधर्म के उत्थान के लिए स्वर्णयुग कहा जा सकता है। उसको जगदेव नामक पुत्र की प्राप्ति शिव की कृपा से ही हुई थी। उसने उदयपुर में उदयेश्वर अथवा नीलकण्ठेश्वर महादेव का विख्यात मंदिर बनवाया। अन्य सैकड़ों मंदिर भी उसी के बनवाये हुए हैं। नरेश नरवर्मन् अपने अभिलेखों में शंभु व कार्तिकेय को नमस्कार करता है । शेरगढ़ से प्राप्त एक जैन प्रतिमा अभिलेख में शिव को गंगाधर रूप में नमस्कार किया गया है। नरेश जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय ने देपालपुर व शकपुर में शिव मंदिर तथा निमाड़ में सिद्धेश्वर महादेव के मंदिर बनवाये। इसी प्रकार महाकुमार शाखा के परमार शासक भी शिव के पुजारी थे। परमार युग में नरेशों की देखा-देखी जनता में भी शैव धर्म का खूब प्रचार हुआ। विभिन्न अभिलेखों में जन सामान्य द्वारा शैव मंदिरों के लिए दान देने के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
शिव की पूजा प्रायः शिवलिङ्ग के रूप में होती थी। परन्तु उदयपुर में उदयेश्वर मंदिर के बाहर दीवारों पर बनी मूर्तियों में शिव एवं दुर्गा विभिन्न स्थितियों में प्रदर्शित हैं। ऊन व निमाड़ के मंदिरों में शिव एवं सप्तमातृकाओं की मूर्तियाँ बनी हुई हैं । उज्जैन से नृत्य करते शिव की प्रतिमा प्राप्त हुई है। इसी प्रकार मंदिरों के मुख्य द्वारों पर बनी डाटों में भी शिव एवं पार्वती की मूर्तियाँ बनी मिलती हैं।
परमार राजवंशीय अभिलेखों में विभिन्न देवताओं के नाम उपलब्ध होते हैं। अकारान्त क्रम में ये नाम निम्न प्रकार से हैं:-अग्नि (अभिलेख क्र. ३६), अजयेश्वर (क्र. ७१), अनल (क्र. २२), अमरेश्वर (क्र. ७२), अर्द्धनारी नटेश्वर (क्र. ४३), अरुणदेव (क्र. ३६), अष्टमूर्ति शिव (क्र. ७६), अंबिकापति (क्र. ७), इन्द्र (क्र. ३६, ५९, ६०, ६१, ६५, ७२), उदयेश्वरदेव (क्र. २४, ६६, ६७), एकल्लदेव (क्र. ७१), ओंकार देव (क्र. ७६), ओंकार लक्ष्मीपति चक्रस्वामी
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(क्र. ६१), ओंकारेश्वर (क्र. ७६), कच्छप अवतार (क्र. ३६), कर्णश्वर (क्र. ६४), कृष्ण (क्र. ३३, ५८, ६३), कार्तिकेय (क्र. ३६, ८०), काल (क्र. २२), कुबेर (क्र. ३६, ७१), कूर्मराज (क्र. ३६), केदारेश्वर (क्र. २२), कैटभारि (क्र. ७६), गणेश (क्र. २२, ५३, ७३, ८०), गंगाधर शिव (क्र. ७६), घण्टश्वर देव (क्र. १६), चतुर्मुख मार्कण्डेश्वरदेव (क्र. ५३), चतुर्मुख ब्रह्मदेव (क्र. ५८), चामुण्ड स्वामीदेव (क्र. ५०), जम्बुकेश्वर (क्र. ७६), देवश्री वैद्यनाथ (क्र. ७१), दैत्यसूदन (क्र. ६५), नकुलीश (क्र. ६३), निम्बादित्य (क्र. ४३), नीलकण्ठदेव (क्र. ३४, ३७), प्रजापति (क्र. ३६), प्रद्योतन (सूर्य) (क्र. ७१), ब्रह्मदेव (क्र. २६, ३३, ३६, ६३, ७१, ७६), भगवान भवानिपति (क्र. ७). भट्टारकश्री नग्नदेव (क्र. १४), भुजंगराज (क्र. ३६), भैल्लस्वामीदेव (क्र. ५१), मत्स्यराज (क्र. ५८), महेश (क्र. ६३), महाकालदेव (क्र. २०, ८०), महादेव (क्र. २०, ३४, ४४, ४९, ५१, ५३, ५८), मुरारि (क्र. ३३), यमराज (क्र. ३६), राम, रामभद्र, रामचन्द्र (प्रायः सभी दानपत्र अभिलेखों में), रामेश्वर (क्र. २२), रुद्र (क्र. २२), लिम्बार्यदेव (क्र. ६३), लोलिगस्वामी देव (क्र. २८), वराह (क्र. २२, ३६, ५२, ५८), वासुकी नाग (क्र. २०), विष्णु (क्र. ३१, ४३, ५२, ५८, ६३, ७६), सुंडीर (क्र. २२), सूर्य (क्र. ४३, ४४, ५८, ५९, ६०, ७९), सोमनाथ देव (क्र. १४, २२, २९), शिवजी (क्र. २०, ३५, ४२, ४३, ५२, ५७, ६३, ८०), शेषनाग (क्र. ३६), शेष नारायण (क्र. २०, ३६), शंकर (क्र. १६, १७, ७१), शंभु (क्र. २२), हनुमान (क्र. ६३), हरि (क्र. ५१, ५८), हिरण्यकशिपु (क्र. ५८), हेरम्ब (गणश) (क्र. ७१)।
अभिलेख क्र. ८० में शिव के विशिष्ट बारह नाम इस प्रकार दिये हुए हैं:--महादेव, महेश्वर, शंकर, वृषभध्वज, कृत्रिवास, कामांगनाश, देवदेवेश, श्रीकण्ठ, ईश्वरदेव, पार्वतीप्रिय, रुद्र एवं शिव । वहीं पर पंचलिगों के नाम भी दिये हुए हैं, जो इस प्रकार से हैं-अविमुक्तेश्वर, केदारेश्वर, ओंकारेश्वर, अमरेश्वर एवं महाकालेश्वर। शक्ति पूजा
परमार साम्राज्य में बहुदेववाद के साथ शक्ति पूजा भी बहुत प्रचलित थी। शक्ति का अनेक रूपों में बखान किया गया है। विष्णु की शक्ति लक्ष्मी, ब्रह्मा की शक्ति सरस्वती एवं शिव की शक्ति दुर्गा अथवा भगवती कही गई है। शक्ति के दो रूप प्रचलित थे-मांगलिक एवं संहारक। दोनों रूपों में ही शक्ति में सारा संसार व्याप्त माना जाता था। अभिलेखों में विभिन्न देवियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं जो निम्नानुसार हैं:--अम्बिका (क्र. ६३), ईशप्रिया (पार्वती) (क्र. ७१), उज्जयिनी भट्टारिका (क्र. ५), उमा (क्र. ३६), चचिका देवी (क्र. ४०), दुर्गा (क्र. ३६), भट्टश्वरी देवी (क्र. ५), महालक्ष्मी (क्र. ५१, ६५), रमा (क्र. ३६), लक्ष्मी (क्र. ३६, ४७, ५२, ५३, ५७, ५८, ५९, ६०, ६१, ६५, ७१, ७२), विद्याधरी देवी (क्र. १५), सरस्वती (क्र. २, ५, ६, ७, ५९, ६०, ६१, ६३, ६५, ७२, ७८) ।
लक्ष्मी का रूप मांगलिक माना जाता था । इसी प्रकार सरस्वती विद्या की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती थी। अतएव यहाँ शक्ति से तात्पर्य दुर्गा से ही है। अपने मांगलिक रूप में वह गौरी अथवा पार्वती है जो शिव की अर्धागिनी है। परन्तु शिव के रौद्र रूप की पत्नी के रूप में वह काली, चण्डिका, अथवा चामुण्डा है। आश्विन मास में नवरात्रों में उसकी विशेष रूप से पूजा अर्चना आदि होती थी। परमार अभिलेखों में देवी हेतु मंदिर निर्माण का उल्लेख नहीं है, तिस पर भी वह सर्वमान्य थी। शिव के साथ उसका उल्लेख प्रायः होता ही है । देवी
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पूजा का पुरातात्विक प्रमाण देवी की वह प्रतिमा है जो नरेश उदयादित्य के शासनकाल में धार में लारा बनिया वर्ग ने स्थापित की थी ( अभिलेख क्र. २५) । इसी प्रकार मांडू में कालिका देवी के मंदिर में स्थापित देवी प्रतिमा की प्राचीनता भी परमार युग तक जाती है (बार्नेस - धार एण्ड मांडू, बम्बई, १९०२, पृष्ठ ३५३) । समकालीन मंदिरों में सभागृहों के प्रवेश द्वारों की डाटों में निर्मित मूर्तियों में शिव के साथ पार्वती का चित्रण सदैव दिखलाई देता है ।
सरस्वती पूजा
परमार नरेशों की साहित्यिक रुचि एवं प्रयासों के कारण देवी सरस्वती को अत्याधिक सम्मान प्राप्त हुआ । देवी सरस्वती वाग्देवी नाम से प्रख्यात थी ( अभिलेख क्र. १५) । मांडू से प्राप्त अभिलेख ( क्र. ७८) में सरस्वती देवी का गुणगान है। भोजदेव सरस्वती का सर्वविख्यात भक्त था। उसके शासनकाल में सरस्वती ही धारा नगरी में भोजशाला की अधिष्ठात्री देवी थी । १०३४ ईस्वी में निर्मित सरस्वती मां की विख्यात प्रतिमा नरेश भोजदेव के सरस्वती भक्त होने का अकाट्य पुरातात्विक प्रमाण है ( अभिलेख क्र. १५) । उस युग में जैन धर्मावलम्बियों में भी सरस्वती पूजा निरन्तर रूप से चालू थी । परमारों की आबू घराने के कतिपय अभिलेख सरस्वती वन्दना से प्रारम्भ होते हैं (एपि. इ., भाग ८, पृष्ठ
२०८ ) ।
सूर्य पूजा
परमार शासनकाल में सूर्य पूजा भी प्रचलित थी । भिलसा सूर्य पूजा का प्रमुख केन्द्र था। वहाँ भैल्लस्वामिन् का भव्य मंदिर स्थित था। वहाँ से दो अभिलेख प्राप्त हुए हैं। दूसरा अभिलेख ( क्र. ७९) महाकवि चक्रवर्तिन् पंडित छित्तव द्वारा रचित सूर्य प्रशस्ति है । वह भोज का राजकवि था । महाकुमार हरिश्चन्द्र ने भिलसा में वेत्रावती ( वेतवा ) नदी के किनारे पर स्थित भैल्लस्वामिन् के समक्ष भदान किया था । जगद्देव के जैनड़ अभिलेख (क्र. ४३ ) में प्रारंभिक दो श्लोक सूर्य की प्रशंसा में हैं । उसमें निम्बादित्य (सूर्य) के मंदिर का उल्लेख भी है । विदिशा के पास ग्यारसपुर में वज्रमठ मंदिर के ध्वस्त अवशेष हैं । यह सप्त अश्वों के रथ में स्थित सूर्य का नाम है। इसी प्रकार परमार साम्राज्य में अन्य स्थानों पर भी सूर्य मंदिरों की स्थापना के उल्लेख हैं । भिनमान भी सूर्य पूजा का विख्यात केन्द्र था । वहाँ जगतस्वामिन् नाम से एक सूर्य मंदिर विद्यमान था जिसके श्रेय हेतु १०६६ ई. में एक ब्राह्मण ने अपने व्यय से सोने का कलश अर्पित किया था ( बम्बई गजेटियर, भाग १, उपभाग २, पृष्ठ ४७३-७४) । राजस्थान में भी सूर्य पूजा बहुत प्रचलित थी । शृंगारमंजरी कथा में पुत्र प्राप्ति हेतु विजयादशमी पर सूर्य पूजा करने के उल्लेख हैं ।
तीर्थस्नान
परमार युग में तीर्थस्थलों में स्नान का बहुत प्रचार था । ये तीर्थस्थल पर्वत शिखरों, कन्दराओं, वनों एवं नदी संगमों पर स्थित थे । परमार अभिलेखों में भूदान से पूर्व दानकर्ता द्वारा पवित्र जल में स्नान करने के अनिवार्य रूप से उल्लेख मिलते हैं । अभिलेखों में निम्नलिखित नदियों के उल्लेख मिलते हैं -- कपिला ( क्र. ६१, ७२), कावेरी (क्र. ७६), कुविलारा ( क्र. ३४), गर्दभ नदी ( क्र. ४), गंगा ( क्र. ३६, ७६), नर्मदा ( क्र., ४, १६, २०, ५३, ६१,७५ ), पुण्या ( क्र. ७), महानदी ( क्र. ३६ ), मणा नदी ( क्र. १६), मही नदी ( क्र. १, २), रेवा नदी ऋ, ३४, ३६, ५७, ६१, ६५, ७२), वंक्षु नदी (क्र. ३६), वेत्रावती (क्र. ५२), सरयु नदी ( क्र. ४१) ।
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जैन धर्म
__ परमार राज्य में जैनधर्म का पर्याप्त विकास एवं प्रसार हुआ। परमार नरेशों ने जैन आचार्यों एवं विद्वानों को संरक्षण दे कर उनके धार्मिक एवं साहित्यिक कार्यकलापों को प्रोत्साहित किया। जैन आचार्य देवसेन ने 'दर्शनसार' ग्रन्थ धार के पार्श्वनाथ मंदिर में ९२३ ईस्वी में पूरा किया था । नरेश वाक्पति द्वितीय ने जैन आचार्यों अमितगत, महासेन व धनेश्वर को संरक्षण प्रदान किया था । नरेश भोजदेव ने जैन विद्वान प्रभाचन्द्र को संरक्षण दिया। भोज द्वारा प्रोत्साहित करने पर धनपाल ने 'तिलकमञ्जरी' ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें भोजदेव का झुकाव जैन धर्म की ओर होना प्रमाणित होता है। मुनि देवभद्र, आचार्य जिनेश्वर सूरि, आचार्य बुद्धिसागर आदि इसी काल में हुए। १०४३ ई. में कवि नयनंदि ने धार में जिनवर विहार में वास कर के 'सुदर्शन चरित्' की रचना की थी। नरेश जयसिंह प्रथम की राजसभा में जैन कवि प्रभाचन्द्र था। नरेश नरवर्मन की राजसभा में जैन विद्वान समुद्रघोष था। आचार्य जिनवल्लभ से प्रभावित हो उसने ग्राम प्रदान किये, परन्तु आचार्य के सादर मना करने पर नरेश नरवर्मन् ने चित्तौड़ के जिन मंदिरों में मंडपिकायें बनवाई तथा दो चैत्यों के लिये दान दिये। इसी समय भोजपुर में दो जिन प्रतिमाएँ स्थापित करवाई गई (अभिलेख क्र. ३५) । नरेश विन्ध्यवर्मन् जैन आचार्यों का यथायोग्य सन्मान करता था, परन्तु उसका उत्तराधिकारी नरेश सुभटवर्मन् जैनों से धृणा करता था। गुजरात पर आक्रमण के समय उसने वहाँ बहुसंख्यक जिन मंदिरों को क्षतिग्रस्त किया था। उसके विपरीत नरेश अर्जुनवर्मन् ने जैन आचार्यों को भरपूर सम्मान दिया। समकालीन पंडित आशाधर ने लिखा है कि धारा नगरी श्रावकों से परिपूर्ण थी। आशाधर ने चार परमार नरेशों का शासनकाल देखा था। इन नरेशों में विन्ध्यवर्मन् (११७५-११९४ ई.), सुभटवर्मन् (११९४---१२०९ ई.), अर्जुनवर्मन् (१२०९--१२१७ ई.), देवपालदेव (१२१८१२३९ ई.) तथा जयतुगिदेव (१२३९-१२५५ ई.) थे। इस काल में जिनधर्म की आशातीत उन्नति हुई। विभिन्न प्रकार के बहुसंख्यक ग्रन्थों की रचना हुई। इसके साथ ही जनसमाज का भी विभिन्न प्रकार से उत्थान हुआ।
इस युग में परमार साम्राज्य में विभिन्न नगरों में जैन मंदिरों का निर्माण हुआ तथा उनमें तीर्थंकरों की प्रतिमाएं स्थापित हुईं। ११वीं शताब्दी में निर्मित अनेक जैन मंदिर निमाड़ जिले के ऊन नगर में देखने को मिलते हैं । शेरगढ़ में शांतिनाथ, कुन्थुनाथ एवं अरनाथ की तीन विशाल प्रतिमाएँ स्थापित हुई । वहाँ पर प्राप्त एक अभिलेख में इन तीर्थंकरों की स्तुतियाँ विद्यमान हैं। इसके साथ ही ११०५ ईस्वी में चैत्र सुदि ७ को नेमिनाथ का एक विशाल महोत्सव मनाये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है । आसपास के अन्य अनेक स्थलों पर भी जैन मंदिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं। परमारों की आबू, भिनमाल एवं बागड शाखाओं के क्षेत्रों में इस काल में निर्मित बहुसंख्य जैन देवालय विद्यमान हैं। ये सभी क्षेत्र जैन धर्म के विख्यात केन्द्र थे।
हिन्दू धर्म के समान जैन तीर्थों का प्रचलन भी उस समय बहुत था। जैन तीथ प्रायः दो श्रेणियों के थे
१. सिद्ध-क्षेत्र, जहाँ जिन तीर्थंकरों एवं प्रख्यात मुनियों व आचार्यों का निर्वाण हुआ।.. २. अतिशय-क्षेत्र, अर्थात् वही क्षेत्र जो किसी विशिष्ट देव अथवा प्रतिमा स्थापना के
कारण विख्यात हो गया हो।
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विविधतीर्थकल्प नामक ग्रन्थ में अचलेश्वर, अर्बुदचलतीर्थ, कुण्डगेश्वर, अभिनन्दनदेव तीर्थ एवं उज्जयिनी तीर्थ के उल्लेख प्राप्त होते हैं। ये सभी तीर्थ परमार साम्राज्य के अन्तर्गत थे। । उपरोक्त धार्मिक विवरण से ज्ञात होता है कि परमार साम्राज्य के अन्तर्गत विभिन्न धर्मों में तात्विक मतभेद होते हुए भी वाह्य रूप से सांस्कृतिक एकता विद्यमान थी। सर्वत्र जाति पाति प्रथा समान रूप से चालू थी। दान दक्षिणा का महत्व चहुं ओर बगैर धार्मिक भेदभाव के चालू था । साम्राज्य में धार्मिक रीति रिवाजों में एकरूपता स्थापित थी। वस्तुतः सभी धर्मावलम्बियों में सह-अस्तित्व की भावना पूर्णतः विद्यमान थी। परमार नरेश इस दृष्टिकोण का पूर्णरूप से सम्मान करते थे। केवल इतना ही नहीं वे इस धार्मिक एकता में वृद्धि करने हेतु सदा तत्पर रहते थे ।
सामाजिक स्थिति
परमार राजवंशीय अभिलेखों से तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था पर कुछ विशिष्ट प्रकाश नहीं पड़ता। अतएव सामाजिक स्थिति के ज्ञान हेतु समकालीन साहित्य की सहायता लेना आवश्यक है । इसमें शृंगारमञ्जरी एवं तिलकमञ्जरी नामक ग्रन्थ अत्यधिक सहायक हैं । वस्तुतः परमारकालीन समाज गुप्तयुग से चली आ रही समाज से बहुत अधिक भिन्न नहीं कही जा सकती। अभी भी वर्ण एवं जाति व्यवस्था उसी प्रकार से चाल थी। जाति व्यवस्था अब विकसित हो कर बहुत कुछ कामधन्धों पर आधारित हो चली थी। ब्राह्मण
___ समाज में प्रचलित चतुर्वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत सर्वप्रथम ब्राह्मणों का स्थान आता है । प्राप्त अभिलेखों से उनकी श्रेष्ठता, समाज में सम्मानित स्थिति एवं राज्य में विशेष अधिकार प्रमाणित होते हैं। धार्मिक उत्सवों तथा विशिष्ट अवसरों पर उनको अधिकाधिक धन-धान्य, गायें तथा भूमि आदि दान में दी जाती थीं। उनके अध्ययन-अध्यापन तथा विद्वत्तापूर्ण प्रयासों को प्रोत्साहित किया जाता था। परिणामस्वरूप देश के विभिन्न राज्यों से विद्वान ब्राह्मण बहुत बड़ी संख्या में अपने जन्मस्थान त्याग कर मालव राज्य में आये ।
परमार अभिलेखों में वर्णित दानप्राप्तकर्ता विद्वान ब्राह्मणों के नामों के साथ उनके गोत्र, शाखा, प्रवर एवं मूल स्थान जहाँ से देशान्तरगमन करके वे मालव राज्य में आये, के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त उनके नामों के साथ उपाधियों के उल्लेख मिलते हैं, जैसे-पंडित, महापंडित, उपाध्याय, टक्कुर, श्रोत्रिय, पाठक, भट्ट आदि । परन्तु ये उपाधियाँ अभी वंशानुगत नहीं हुई थीं । अभिलेखों में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जहाँ दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण तथा उसके पिता, पितामह की उपाधियाँ एकसमान न होकर भिन्न हैं। उदाहरणार्थ महाकुमार हरिश्चन्द्र के भोपाल ताम्रपत्र (क्रमांक ५१) के अनुसार अवसथिक श्रीधर का पिता अग्निहोत्रिक भारद्वाज, पंडित मधुसूदन का पिता अवसथिक देल्ह, पंडित सोमदेव का पिता अवसथिक देल्ह, ठक्कुर विष्णु का पिता पंडित सोंडल था । इसी प्रकार जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय के मांधाता ताम्रपत्र (क्रमांक ७६) में दीक्षित पद्मनाभशर्मन् का पिता अवसथिक विद्याधरशर्मन् एवं पितामह चतुर्वेदिन् कमलाधरशर्मन्; पंडित श्रीकांतशर्मन् का पिता पंचपाठिन् मिश्र उद्धरणशर्मन्; द्विवेदिन् गोवर्द्धनशर्मन का पिता पंडित विद्यापतिशर्मन् तथा पितामह चतुर्वेदिन् भूपतिशर्मन् था आदि आदि ।
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परमार राजवंशीय प्राप्त अभिलेखों में दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मणों के निम्नलिखित गोत्र लिखे मिलते हैं:--अगस्त्य (क्र. ६.१२), अद्वाह ( क्र. ५१ ), औदल्य (क्र. ६५), आत्रेय (क्र. १३, ७६), उपमन्यु (क्र. ८), कृष्णात्रेय ( क्र. ५१), कात्यायन ( क्र. ३८, ६५, ७६ ), काश्यप ( क्र. ६, ५१, ५९, ६०, ६५, ७६), कौडिन्य ( क्र. ५१), कौत्स (क्र. ६५), कौशिक ( क्र. ११) गोपालि ( क्र. १, २ ), गौतम ( क्र. ६, ५१, ६५, ७२, ७६), गर्ग ( क्र. ५७), गार्ग्य (क्र. ६), चपलीय (क्र. ८०), चन्द्रात्रेय (क्र. ७६), धौम्य ( क्र. ६५), पराशर ( क्र. ६, ५५, ६५ ), परावसु ( क्र. ६५), पवित्र ( क्र. ६५), भारद्वाज ( क्र. ६, ३४, ४४, ४९, ५१, ६५, ७२, ७६), भार्गव (क्र. ६, ६५, ७२), मार्कण्डेथ ( क्र. ६५), माहुल ( क्र. ६), मुद्गल (क्र. ६५), मौद्गल्य (क्र. ६), मौनि (क्र. ६), मैत्रेय ( क्र. ६), वत्स ( क्र. ६, ९, ६५, ७६ ), वसिष्ठ ( क्र. ६, १०, ६५, ७६), वाराह ( क्र. ६), शांडिल्य ( क्र. ६, ५१, ६५, ७६), शौनक ( क्र. ५१ ), संकृति ( क्र. ७), सांकृत्य ( ६. ५१ ), सावण (क्र. ७६ ),
हरित् कुत्स ( क्र. ६५) ।
उपरोक्त के अतिरिक्त निम्नलिखित शाखाओं के उल्लेख हैं: - आश्वलायन ( क्र. ४४. ६५. ७२), ऋग्वेद (क्र. ७६), कठ ( क्र. ६५), कौथुम ( क्र. ६५.७६), माध्यंदिन ( क्र. ११. ३८. ६५. ७२. ७६), राणापिनि ( क्र. ६५ ), वह्वृच (ऋ. १३), ववृचाश्वलायन ( क्र. १२), वाजसनेय (क्र. ५७, ५९, ६०, ६१), वाजिमाध्यंदिन ( क्र. १०,६५), शांखायन ( क्र. ६५), सामवेद ( क्र. ६५) । इस काल में ब्राह्मणों की कुछ उपजातियाँ भी सामने आती हैं, जैसे दीक्षित, शुक्ल, त्रिपाठी, अग्निहोत्र, याज्ञिक, अवस्थी, पाठक आदि । अब वे अपने मूल निवास स्थानों से भी संबोधित किये जाने लगे, जैसे नागर ब्राह्मण, दाक्षिणात्य ब्राह्मण आदि । इस युग में ब्राह्मणों में उपजातियों के बनने के विभिन्न कारण रहे होंगे । एक कारण विदेशी विधर्मियों की भारतीयों, भारतीय धर्म एवं संस्कृति के प्रति कठोर नीति थी । ऐसे कठिन समय में ब्राह्मणों ने रक्तशुद्धि पर विशेष बल दिया । इसके परिणामस्वरूप समाज में उपजातियों को प्रोत्साहन मिला। बाद में इन में स्थायित्व आ गया ।
ब्राह्मणों ने अपनी विद्वत्ता, योग्यता एवं रुचि के अनुसार विभिन्न प्रकार के कार्य करना प्रारम्भ कर दिये । इनमें से बहुत से सन्यासी बन गये । अन्य रुचि तथा प्राप्त अवसर के अनुरूप धर्मगुरु, राजगुरु, राजपुरोहित, संधिविग्रहिक, दूतक लेखक, कवि, साहित्यकार, शिक्षक आदि बन गये। जो कुछ अधिक न कर सके, वे सेवा कार्य करने लगे तथा पाक विद्या में प्रवीण हो रसोइये बन गये ।
हमारे अध्ययनकाल में सहस्रों विद्वान ब्राह्मण अपने मूल निवास स्थान त्याग कर मालव राज्य में परमार नरेशों के संरक्षण में आ गये । प्रायः सभी परमार नरेशों ने इन विद्वान ब्राह्मणों का स्वागत किया। भूदान अथवा धन-धान्य देकर उनको सम्मानित किया । परमार राजवंशीय अभिलेखों में सभी दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मणों के मूल निवासों के उल्लेख प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं-- अथक, मध्य प्रदेश ( क्र. ६), अदिवा, आशुरेस मण्डल ( क्र. ६) अकोला ( क्र. ६५), अहिछत ( क्र. ४), अद्रियलविदावरी (क्र. ३४, ४४, ४९), आनन्दपुरी ( क्र. १,२), आश्रम स्थान ( क्र. ६५), आनोह ( क्र. ६ ), अम्बराचर ( क्र. ६), कणोपाभद्द ग्राम, मगध ( क्र. ६, ७), कुलाञ्चा (क्र. ६), कावड ( क्र. ६), खडूपल्लिका ( क्र. ६), खेडापालिका ( क्र. ६ ), खर्जूरिका ( क्र. ६), खेटक (क्र. ६), घटाउपरि ( क्र. ७२), चिञ्चास्थान (ऋ. १०), चौरम्ब ( क्र. ६), टकारी स्थान ( क्र. ६५,७२,७६ ), टेणी (क्र. ७६), डिण्डवानक ( क्र. ६५), दपुर ( क्र. ६), दुर्दरिका शावधिका ( क्र. ६ ), तोलापोह ( क्र. ७६), नंदिपुर, लाट ( क्र. ६), नन्दियाड
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(क्र. ६), नवगांव, दक्षिणराढ़ (क्र.८०), पौंड्रिक, उत्तरकुल (क्र.६), मथुरा (क्र.६५), मुताक्थु (क्र. ६५), मध्यप्रदेश (क्र. ६, ६५), मधुपालिका (क्र. ६), महावन (क्र. ६५), मान्यखेट (क्र. १३), मुक्तावसु (क्र. ५९, ६०, ६१), मितिलपाटक, सावथिका (क्र. ६), राजकीय (क्र. ६), वल्लोटक (क्र. ८), लवणपुर (क्र. ७६), लाट देश (क्र. ६), विल्वगवास, दक्षिणराढ़ (क्र.६), विलाक्ष ग्राम (क्र. ६), सरस्वती स्थान (क्र. ६५), शृंगपुर, मध्यदेश (क्र. ३८), श्रवणभद्र (क्र. ६), सोपुर (क्र. ६), श्रीवादा वेल्लुवल्ल, कर्नाटक (ऋ. १२), स्थानेश्वर (क्र. ६), हस्तिनपूर (क्र. ६५, हर्षपूर (क्र. ८)। यह सूचि देख कर आश्चर्य होता है कि सूदुर दक्षिण व पूर्वीराज्यों से लम्बी यात्रायें करके विद्वान ब्राह्मण किस प्रकार बहुत बड़ी संख्या में मालव भूमि में आ कर बस गये।
क्षत्रिय
__ अभिलेखों में क्षत्रियों का उल्लेख नहीं है। वास्तव में उनके उल्लेख का कोई अवसर ही न था। कुछ वीरों के युद्ध क्षेत्रों में शौर्य प्रदर्शन के विवरण अवश्य प्राप्त होते हैं। संभवतः उनके नामों के अन्त में वर्मन् शब्द जुड़ा होता था। यह भी संभावना है कि प्रान्तों के राज्यपालों व माण्डलिकों में से कुछ क्षत्रिय रहे होंगे । परन्तु परमार नरेशों के पूर्णतः क्षत्रिय होने की संभावना न्यून प्रतीत होती है। संभवतः राज्यपालों के पदों पर उनके कौटुम्बिक ही रहे होंगे। जो भी हो शासनकर्ता नरेश अपने वर्ण की परवाह न करते हुए जीवनान्त युद्धक्षेत्र में करना पूर्णतः श्रेययुक्त मानते थे। वैश्य
. आशा की जा सकती है कि परमार साम्राज्य में वैश्यों की संख्या पर्याप्त रही होगी। ये अधिकतर व्यापार वाणिज्य में संलग्न थे। कुछ लोग साहूकारी करते होंगे । वैश्य लोग खेतीबाड़ी एवं पशुपालन करते होंगे। इस प्रकार इनका मुख्य कार्य धनोपार्जन था । ये धन-धान्य के स्वामी थे। इस कारण समाज में निश्चित रूप से अधिक सम्मानित रहे होंगे । श्रेष्ठिन् लोग राजसभा में सम्मानित होते थे। कुछ अभिलेखों में उनके द्वारा मंदिर निर्माण करवाने एवं जन-कल्याण कार्य हेतु दान देने के उल्लेख मिलते हैं। व्यापारियों के संघों के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं।
___अभिलेखों में अन्य उद्योग धन्धे करने वालों के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं, जैसे स्वर्णकार, स्थपति (भवन निर्माता), सूत्रधार (सुतार), तेली, रूपकार आदि ।
कायस्थ
.. अभिलेखों में कायस्थों के उल्लेख भी हैं। इनमें अभिलेखों के लेखक सम्मिलित हैं। कुछ कायस्थों ने प्रशासनिक कार्य, न्यायाधीश का कार्य अथवा गणक आदि के कार्य भी सम्पन्न किये थे। अभिलेख क्र. १, २, १६ में कायस्थ तथा क्र. ७१ में कायस्थ पंडित के उल्लेख प्राप्त होते हैं। अन्त्यज
अभिलेखों में इनका कोई उल्लेख नहीं है। इनके उल्लेख का कोई अवसर ही नहीं है। स्त्रियों की स्थिति
___ अभिलेखों में स्त्रियों के संबंध में कोई विशेष उल्लेख नहीं है। केवल कुछ रानियों तथा विशिष्ट अधिकारियों की माताओं अथवा पत्नियों द्वारा दान करने के उल्लेख हैं। परन्तु किसी
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स्त्री द्वारा शासन करने अथवा प्रशासन में सीधे हस्तक्षेप करने का कोई उल्लेख नहीं है। प्रतीत होता है कि उनके कार्यक्षेत्र राजप्रासाद तक ही सीमित थे। अभिलेखों में वह माता के रूप में पूज्य है। नरेश यशोवर्मन् ने ११३५ ई. में अपनी माता मोमलादेवी की वार्षिकी पर भूदान किया था (क्र. ४६)। राजनीतिक संधियों के फलस्वरूप कुछ राजकुमारियों के विवाहों के उल्लेख हैं। तिलकमञ्जरी के अनुसार उदयादित्य की पुत्री श्यामलदेवी का विवाह गुहिल नरेश से हुआ था। जगदेव को पुत्री का विवाह वंगनरेश से हुआ था । अर्जुनवर्मन् को प्रथम महिषी कुन्तल राजकुमारी तथा दूसरी चौलुक्य राजकुमारी थी। विद्यापीठ
परमार युग साहित्यिक विकास के लिये विशेष रूप से विख्यात है। परमार राज्य में अनेक स्थलों पर विद्यापीठे स्थापित की गईं थीं। राजधानी धारा नगरी में स्थित भोजशाला विद्या का सर्वविख्यात केन्द्र था। वहां की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती थी। इसी प्रकार मांडू में एक सरस्वती सदन स्थापित किया गया था, जो धार में स्थित भोजशाला के अनुरूप र था। राज्य में अनेक स्थानों में मठ बने थे जहां शैवाचार्य, अथवा मठ के अनुरूप, जैनाचार्य धार्मिक शिक्षा प्रदान करते थे। धार में पार्श्वनाथ जिनविहार शिक्षा का केन्द्र था। उज्जयिनी में शैवमठ विद्यमान था जिसकी ख्याति देश में फैली थी। आबू क्षेत्र में एक शाक्तपीठ तथा एक जैनपीठ स्थापित थे। जालौर में ११६५ ईस्वी में कुमार विहार की स्थापना की गई थी जिसमें जैन आचार्य निवास करते थे।
विद्यापीठों के अतिरिक्त राज्य के प्रत्येक मंदिर में एक विद्यालय होता था। तिलकमञ्जरी में नरेशों द्वारा समय समय पर साहित्यिक गोष्ठियां करवाने के उल्लेख मिलते हैं। इन गोष्ठियों में विभिन्न विषयों पर सारगर्भित चर्चायें होती थीं। यहां पर बाहर से मालव राज्य में आए विद्वानों द्वारा अपनी विद्वता प्रदर्शित करने के अवसर प्राप्त होते थे। विद्वानों को राज्य की ओर से पारितोषिक दिये जाते थे। साथ ही उनको जीवन यापन की सुविधायें प्रदान की जाती थीं।
इस प्रकार परमार युगीन समाज सुखी व समृद्ध था। देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा मालव राज्य में साहित्यिक गतिविधियां अधिक विकसित थीं। इन्हीं कारणों से परमार युग तत्कालीन अन्य राजवंशों की अपेक्षा अधिक स्मरणीय हो गया है।
आर्थिक व्यवस्था सुदढ़ आर्थिक स्थिति
अभिलेखों से प्राप्त विवरणों से ज्ञात होता है कि परमार साम्राज्य की आर्थिक व्यवस्था अत्यन्त दृढ़ थी। मालव भूमि सदा अत्यन्त हरीभरी एवं उपजाऊ होने के साथ खनिज पदार्थों से भरपूर रही है। यही सदा ही धनधान्य की अत्यधिक प्रचुरता रही है। देश के इस भूभाग में कभी सूखा अथवा अकाल पड़ने का उल्लेख नहीं मिलता। यही कारण है कि परमार नरेश प्रायः प्रत्येक वर्ष विजय अभियान चलाने में सक्षम रहते थे। वे पावन अवसरों पर लाखों की उपजाऊ भूमि एवं धन-सम्पत्ति आदि ब्राह्मणों तथा याचकों को दान में देते रहते थे। साथ ही साहित्यिक गतिविधियों को आर्थिक सहायता द्वारा सदा प्रोत्साहित करते रहते थे।
मालव राज्य नगरों एवं ग्रामों से भरपूर था। अभिलेखों में इन नगरों एव ग्रामों के नाम लिखे मिलते हैं। नगरों में उद्योग-धन्धे एवं वाणिज्य-व्यवसाय केन्द्रित थे। उनमें ही धन की
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प्रचुरता थी। नगरों में मुख्य मार्गों, बाजारों तथा विशाल आवासों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। समरांगण सूत्रधार में राजधानी का विषद् विवरण मिलता है। कुवलयमाला में उज्जयिनी के बाजारों, दुकानों एवं ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं के उल्लेख हैं। शृंगारमञ्जरी कथा में नगर के आनन्दमय परन्तु कपटपूर्ण जीवन का विवरण प्राप्त होता है।
तिस पर भी जनता का अधिकांश भाग ग्रामों में ही निवास करता था। उस समय ग्राम प्रायः स्वतंत्र इकाइयों के रूप में थे। ग्रामवासियों की समस्त आवश्यकतायें स्थानीय रूप से पूर्ण हो जाती थीं। ग्रामों में आवासगृह, कृषि भूमि, गोचर भूमि एवं वनभूमि आदि होते थे। ये सदा विविध धान्यों, दुधारू एवं लद्रू पशुओं आदि से परिपूर्ण रहते थे। इसी कारण ग्राम्य' जीवन में सरसता, सरलता, सादापन तथा निष्कपटता व्याप्त रहती थी। ये नगरों के बनावटी जीवन से पूर्णत: अछुते थे। परन्तु ग्रामों में चोरों व लुटेरों के कारण असुरक्षा की भावना सदा व्याप्त रहती थी। प्रत्येक ग्राम में वहां के निवासियों को मिलजल कर अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करना पडती थी।
सिंचाई व्यवस्था
किसान लोग अपने खेतों की सिंचाई के लिये प्रायः प्रकृति पर निर्भर रहते थे। परन्तु कभी कभी शासन की ओर से नहरों, तालाबों एवं कुओं के खुदवाने हेतु सहायता प्रदान की जाती थी। अभिलेखों में इस सार्वजनिक कार्य हेतु धन प्रदान करने अथवा स्वयं खुदवाकर देने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। वाक्पति द्वितीय ने अपने नाम से मुञ्जसागर तड़ाग खुदवाया था। भोजदेव ने चित्तौड़ के पास भोजताल एवं भोपाल के पास एक विशाल झील बनवाई थी। उदयादित्य ने भी भोपाल के पास उदयपुर में उदयसागर बनवाया था। अमेरा अभिलेख में नरवर्मन् के शासनकाल में शुद्ध व मृदु जल से भरपूर तडाग बनवाने का उल्लेख है। महाकुमार हरिश्चन्द्र ने बावड़ी, कुओं एवं तड़ागों के निर्माण हेतु धन दिया था। आब शाखा के नरेश पूर्णपाल की भगिनि लाहिनि ने १०४३ ई. में एक तालाब बनवाया था। नरेशों की देखादेखी जनसामान्य ने भी इस पुनीत कार्य में योगदान दिया। १०८६ ई. में उदयादित्य के शासनकाल में जन्नक नामक एक तेली पटेल ने चिरिहित में एक तालाब बनवाया। इसी प्रकार भदुन्द के ब्राह्मणों ने एक बावड़ी बनवा कर ग्राम को अर्पित कर दी। शिल्प, व्यापार एवं संघ
____ अभिलेखों में सुनार, लुहार, सुतार, भवन निर्माता, तेली, मतिनिर्माता, उत्कीर्णकर्ता व अन्य अनेक शिल्पियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। प्रायः सभी शिल्पियों ने अपने अपने संघ बना रखे थे। संघ अपने सदस्यों द्वारा निर्मित वस्तुओं के उच्च स्तर का निरंतर ध्यान रखते थे। इसके साथ ही ये संघ अपने सदस्यों के उचित अधिकारों तथा उनके कल्याण का भी ध्यान रखते
स काल में नागरिक जीवन में इन संघों का महत्वपूर्ण स्थान था। राज्य भी इन संघों के निर्णयों का सम्मान करता था। व्यापारी वर्ग तथा दुकानदार भी अपने संघों के माध्यम से कार्य करते थे। १०२८ ई. में भोजदेव के शासनकाल में शेरगढ़ अभिलेख में तैलिकराज भाइयाक का उल्लेख है। उसने देवस्वामिन के मंदिर के लिये दान दिये थे। उसी अभिलेख में पूर्व में तीन श्रेष्ठियों ने देवश्री नग्नक के श्रेय हेतु दान दिये थे। ये श्रेष्ठिन् किसी मंडी समिति के सदस्य प्रतीत होते हैं। उदयादित्य के शासनकाल में १०८६ ई. में झालरापाटन अभिलेख से ज्ञात होता है कि तैलिक वंश के पटेल जन्नक द्वारा चार पली तल व अन्य अनेक दान
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शिव मंदिर के लिये दान में दिये गये थे। इन उल्लेखों से निश्चित होता है कि दानकर्ता अपने अपने संघों के प्रधान थे तथा उनको दान आदि करने की शक्तियां प्राप्त थीं। इसी प्रकार उनको अन्य अनेक प्रकार की शक्तियां भी प्राप्त रही होंगी।
व्यापारी वर्ग अपनी वस्तुओं के बेचने को लिये अन्य नगरों में भी ले जाते थे। ये व्यापारी प्रायः समूहों में चलते थे जिससे लटेरों व डाकुओं से सुरक्षित रहें। सामान लाने लेजाने के लिये प्राय: बैलगाड़ियों, अश्वों व ऊंटों आदि का प्रयोग होता था। बहुत सा माल नदियों के रास्ते नावों द्वारा ले जाया जाता था। व्यापारिक माल पर कर एवं चुंगी आदि लगती थी।
तौल व माप
परमार अभिलेखों में तौल व माप आदि के विभिन्न परिमाणों के विवरण प्राप्त होते हैं। ये विभिन्न वस्तुओं के लिये प्रयोग में लाये जाते थे। उनमें निम्नलिखित के उल्लेख हैं:
भरक---यह नारियल, मिश्री, गुड़, रुई, व अनाज आदि के लिये प्रयुक्त होता था। घटक, कुम्भ, घाणी, पलिका, कर्ष व पाणक--मक्खन व तेल मापने के लिए प्रयुक्त होते थे। चुंबक---मादक पेय को मापने के लिये प्रयुक्त होता था। कडव, भटक, हारक वाप व मष्ठि--जौ व अनाज मापने के लिये प्रयुक्त होते थे। ब्रोणाकारी, मानी--अनाज तोलने के लिये प्रयक्त होते थे।
इन सभी का वर्तमान में चाल परिमाणों से सभीकरण करना तो सरल नहीं है, परन्तु मानक संभवतः आधुनिक मन के समान रहा होगा।
भमि के नापों के लिये हलवाह, निवर्तन, दण्ड एवं बिस्वे के उल्लेख अभिलेखों में मिलते हैं। हलवाह भमि का वह भाग है जो एक हल द्वारा एक दिन में सरलता से जाता जा सकता था । परन्तु इसका ठीक ठीक परिमाण ज्ञात करना सरल नहीं है, क्योंकि विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न समयों में विभिन्न प्रकार के हलों का प्रयोग होता था । इसके अतिरिक्त जोतने का परिमाण भूमि की किस्म तथा बैलों की शक्ति पर निर्भर था। फिर भी हलवाह का परिमाण तो निश्चित रहा ही होगा। श्रीधर रचित गणितसार के अनुसार एक हलवाह ४८३८४० यव अथवा एक कोस के तिहाई भाग के बराबर होता था। निवर्तन का अर्थ विभिन्न विद्वानों ने अलग अलग लगाया है। प्राणनाथ विद्यालंकार के अनुसार निवर्तन एक एकड़ भूमि के बराबर होता था। (ए स्टडी इन इकानोमिक कंडीशन्स ऑफ ऐशंट इंडिया, पृष्ठ ८३) । परन्तु डी.सी. सरकार के अनुसार निवर्तन भूमि का वह नाप था जो २४० X २४० वर्ग क्यूबिट्स अर्थात् तीन एकड़ के बराबर होता था ( सक्सेस ऑफ दी सातवाहनस, पृष्ठ ३००, पादटिप्पणी)। अनेक स्थानों पर भूमि दण्ड के मान से नापी जाती थी। इसको पर्व भी कहते थे। इसमें नरवर्मन् का संवत् ११६७ का कदम्बपद्रक अभिलेख सहायक है । उस अभिलेख के अनुसार नरेश द्वारा २० निवर्तन भूमि दान में दी गई थी जो दण्ड के मान से ९६ पर्व लम्बी व ४२ पर्व चौड़ी थी। परन्तु इससे पर्व की ठीक लम्बाई ज्ञात नहीं होती। ___ इसी प्रकार मार्ग की दूरी को नापने के लिए क्रोश, योजन, गव्यूति आदि शब्दों का
होता था। एक कोस (क्रोश) संभवतः दो मील के बराबर होता था। इस दष्टि से योजन ४ कोस अथवा ८ मील के बराबर होता था। इसी प्रकार गव्यूति भी एक कोस
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अथवा दो मील के बराबर होता था। नाप के परिमाण लकड़ी के दण्ड अथवा धातु के गज़ होते थे। तौल के लिए प्रायः नर्मदा नदी के पत्थर प्रयोग में लाये जाते थे। ये पत्थर कठोर होते हैं तथा कम घिसते हैं।
सिक्के
सिक्कों से संबंधित निम्नलिखित नाम अभिलेखों में प्राप्त होते हैं-कौड़ी (क्र. १४), टंक (क्र. ३३), दर्भ (क्र. ३७), द्रम्भ (क्र. १८, ७१), वराह (क्र. १४), विंशोपक (क्र. ५२), वंशोपक (क्र. २०), वृषभ (क्र. १४), सुवर्ण (क्र. ५३, ५७) । इनमें कौड़ी कोई सिक्का नहीं था। यह समद्र से प्राप्त घोंघे का घर होता था जो सामान्य रूप से सबसे छोटे सिक्के के समान प्रयोग में लाया जाता था। टंक चांदी तथा सोने का सिक्का होता था। इसका वजन एक तोला होता था। इसी प्रकार दर्भ व द्रम्म के संबंध में था। ये ५ रूपक अथवा २० विंशोपक के बराबर होता था। इसका वज़न ६५ ग्रेन के बराबर होता था। ये चांदी के सिक्के थे। वराह ६० ग्रेन वज़न का चांदी अथवा तांबे का सिक्का होता था जिस पर वराह का चित्र अंकित रहता था। विंशोपक या वंशोपक द्रम्म के २०वें भाग के बराबर होता था । यह चांदी का सिक्का था। वृषभ भी चांदी का सिक्का था जिस का वज़न एक तोले का तिहाई अर्थात् चार माशा था। उस पर वृषभ का चित्र अंकित रहता था। सुवर्ण शुद्ध सोने का सिक्का होता था।
हमें अभी तक परमार नरेशों के कोई सिक्के प्राप्त नहीं हुए हैं। कुछ समय पूर्व एक सोने के सिक्के का विवरण दिया गया था जिसके एक ओर बैठी देवी का चित्र अंकित है, तथा दूसरी ओर श्रीमद् उदयादित्य देव लिखा बतलाया जाता है (जे. ए. सो. वं., भाग १६, १९२०, पृष्ठ ८४)। आर. डी. बनर्जी ने वह सिक्का परमार नरेश उदयादित्य का निरूपित किया था। किन्तु इसके पुनराध्ययन पर वह सिक्का चेदि नरेश गांगेयदेव द्वारा प्रचलित सिद्ध हो गया है (का. ई. ई., भाग ४, प्रस्तावना, पृष्ठ १८२)। इस प्रकार यह निश्चित हो गया है कि परमार राजवंशीय नरेशों ने अपने नाम से कोई सिक्के प्रचलित नहीं किये थे। वर्तमान में के. पी. रोडे ने परमार वंशीय राजकुमार जगदेव के एक सिक्के के संबंध में सूचित किया है (ज. न्य. सो. इं., भाग ९, पृष्ट ७५)। परन्तु वहाँ इस सिक्के का विवरण नहीं दिया गया है । सितम्बर १९७८ में जबलपुर विश्वविद्यालय में आयोजित सेमिनार में डा. के. डी. वाजपेयी ने विचार प्रकट किया कि परमार राज्य में संभवत: सेसानियन सिक्के प्रयुक्त होते थे । इसी कारण परमार नरेशों ने अपने सिक्के प्रचलित नहीं किये थे। लेखक उनसे सहमत है। ... उपरोक्त कुछ विवरणों के आधार पर परमारों की आर्थिक व्यवस्था का ज्ञान होता है। उस समय राज्य की आय का मुख्य आधार खेतीबाड़ी था। अभिलेखों में वर्णित भदान एवं ग्रामदान उस काल में इनके महत्त्व को उजागर करते हैं। इसके उपरान्त ही उद्योग-धन्धे एवं वाणिज्य-व्यवसाय का स्थान था। अभिलेखों में कुछ शिल्पियों के नाम प्राप्त होते हैं। वाणिज्यव्यवसाय हेतु सिक्कों का महत्त्व भी उजागर होता है । इसी कारण अभिलेखों में अनेक प्रकार के प्रचलित सोने, चांदी एवं तांबे के सिक्कों के उल्लेख हैं । अतएव कहा जा सकता है कि जनता का आर्थिक जीवन संतोषप्रद ।
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हरसोल का सीयक द्वितीय का ताम्रपत्र 'अ'
(संवत् १००५=९४९ ईस्वी)
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो गुजरात राज्य में अहमदाबाद जिले के अन्तर्गत हरसोल ग्राम में एक विसनगरा नागर ब्राह्मण के पास थे। अभिलेख का प्रथम उल्लेख डी. बी. डिस्कलकर ने ए.रि. वा. म्यू. १९२२-२३ पृष्ठ १३ पर किया। बाद में इसका विवरण प्रो. आ. इं. ओ. कां. मद्रास, पृष्ठ ३०३ व आगे में छपा। पुनः गुजराती जर्नल पुरातत्व, भाग २, पृष्ठ ४४ व आगे में इसका विवरण छपा । के. एन. दीक्षित द्वारा इसका सम्पादन कर एपि. इं., भाग १९, १९२७, पृष्ठ २३६ व आगे में ताम्रपत्रों के फोटो के साथ छापा गया ।
__ ताम्रपत्रों का आकार २१॥ ४१३।। सें. मी. हैं। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। दोनों में एक-एक छेद है जिनमें कड़ियां पड़ी थी। ताम्रपत्रों के किनारे कुछ मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं।
अभिलेख कुल २७ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १६ व दूसरे पर ११ पंक्तियां खुदी हैं। दूसरे ताम्रपत्र में नीचे बायें कोने में उड़ते गरुड़ की आकृति बनी है जिसका शरीर मानव के समान व मुखाकृति पक्षी की है। इसके बायें हाथ में एक नाग है। यह परमार राजवंश का राजचिन्ह है।
अभिलेख के अक्षरों की बनावट १० वीं सदी की नागरी लिपि है। प्रथम ताम्रपत्र के अक्षर बनावट में सुन्दर हैं, परन्तु दूसरे के अक्षर कुछ भद्दे हैं।
अभिलेख की भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है। इसमें कुल ७ श्लोक हैं। शेष सारा अभिलेख गद्य में है।
व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से इसमें कुछ विचारणीय तथ्य हैं । ब के स्थान पर सर्वत्र व का प्रयोग किया गया है। कुछ स्थानों पर श की जगह स का प्रयोग है । जैसे--यस पंक्ति १९, वंस पं. २२ आदि। कुछ शब्द ही गलत लिखे हैं जैसे--सिंघ पं. १, ६; मुक्ति के स्थान पर त्रुक्ति पं. ९; संबद्ध की जगह संबुद्ध पं. १२; तृण के स्थान पर त्रिण पं. १६; सोपरिकरः के स्थान पर सोपरकरः पं. १८ आदि। कुछ अन्य भी त्रुटियाँ हैं जो पाठ में ठीक कर दी गई हैं।
हैं। इनमें काळ तो प्रादेशिक व काल के प्रभाव प्रदशित करती हैं एवं कछ उत्कीर्णकर्ता की गलती से बन गई हैं।
अभिलेख की तिथि पंक्ति २५ में अंकों में दी हुई है जो संवत् १००५ माघ वदि ३० बुधवार है। इसको विक्रम संवत् से संबद्ध करना ही युक्तियुक्त है। यह बुधवार ३१ जनवरी, ९४९ ईस्वी के बराबर बैठती है। वर्ष कार्तिकादि व मास अमान्त था।
अभिलेख का ध्येय पंक्ति १३ व आगे में लिखा है। इसके अनुसार नरेश सीयक ने, योगराज के ऊपर (आक्रमण की) यात्रा कर व अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त कर, मही नदी के
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२
परमार अभिलेख
तट पर वास करते हुए, चन्द्र व सूर्य के योगपर्व के अवसर पर भगवान शिव की विधिपूर्वक अर्चना कर खेटक मंडल ( खेड़ा ) के अधिपति की प्रार्थना पर ( पं. ९) अपने अधीन मोहडवासक विषय के अन्तर्गत कुम्भारोटक ग्राम ( पंक्ति १२ - १३ ) दान में दिया ।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण का नाम पंक्ति १८ - १९ में दिया हुआ है । वह आनन्दपुरी नगरी का वासी, त्रिऋषि गोपाली गोत्री गोवर्द्धन का पुत्र लल्लोपाध्याय नामक ब्राह्मण था ।
पंक्ति क्र. २-५ में नरेश अमोघवर्ष देव व उसके पुत्र अकालवर्ष देव पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ के उल्लेख हैं। इनके नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियाँ परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं। ये दोनों मालखेड के राष्ट्रकूट वंशीय नरेश हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इसके बाद गलती से कुछ भाग उत्कीर्ण करने में रह गया है । नरेन्द्रपादानां बाक्यांश के तुरन्त बाद एक श्लोक है जिसका भाव है -- " उस कुल में प्रसिद्ध नरेश वप्पैपराज उत्पन्न हुआ जिसका उत्तराधिकारी वैरिसिंह था" । यहाँ शुरू के शब्द तस्मिनकुले से निश्चित होता है कि इससे पूर्व वंश का नाम था । परन्तु उसका उल्लेख नहीं है । आगे श्लोक क्र. २-४ में क्रमश: बप्पैपराज, वैरिसिंह वसीयक के उल्लेख हैं जो पिता-पुत्र शृंखला के अनुसार हैं। ये सभी परमार राजवंशीय प्रारम्भिक नरेश हैं। यहां इनकी उपाधि केवल नृप है । परन्तु आगे पंक्ति क्र. ११-१२ में सीयक पूर्ण राजकीय उपाधियों " महामाण्डलिक चूडामणि - महाराजाधिराजपति" से विभूषित है ।
पंक्ति क्रमांक २६ में दापक ठक्कुर श्री विष्णु का नाम है । यह एक ऐसा अधिकारी था जिसके माध्यम से दान की घोषणा एवं दानपत्र लिखवा कर निस्सृत किया जाता था। आगे कायस्थ गुणधर का नाम है, जो ताम्रपत्र का लेखक था । अन्त में नरेश के हस्ताक्षर हैं, जो मूल प्रति पर होते थे व दानपत्र पर उसका उल्लेखमात्र कर दिया जाता था ।
प्रस्तुत अभिलेख का अत्यधिक महत्त्व है । यह परमार राजवंश के प्राप्त अभिलेखों में सर्वप्रथम है । इस कारण यह परमारों की प्रारम्भिक स्थिति के जानने में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है । साथ ही गुजरात के तत्कालीन इतिहास का दिग्दर्शन भी करवाता है ।
पंक्ति क्र. ३-५ में उल्लिखित राष्ट्रकूट नरेशों के तादात्म्य के संबंध में सर्वश्री दीक्षित व डिस्कलकर लिखते हैं कि ये दोनों नरेश संभवत: अमोघवर्ष प्रथम व कृष्ण द्वितीय हैं, जिनका राज्यकाल ८१४ से ९११ ईस्वी तक प्रायः सौ वर्ष तक रहा । अथवा ये अमोघवर्ष तृतीय व कृष्ण तृतीय हैं जिन्होंने ९३४ से ९६१ ईस्वी तक राज्य किया। शक संवत् ८८० तदनुसार ९५८ ई० के कृष्ण तृतीय के करहाड ताम्रपत्र अभिलेख में प्रस्तुत अभिलेख के समान उपाधियुक्त पाठ है । इसी प्रकार शक संवत् ८६२ तदनुसार ९४० ईस्वी के देवोली ताम्रपत्र में उपरोक्त उपाधियुक्त लेख में परममाहेश्वर उपाधि भी सम्मिलित है । अतः प्रस्तुत अभिलेख की तिथि उपरोक्त दोनों अभिलेखों के ठीक मध्य में है । अतः यह संभव है कि उस समय राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय सीयक द्वितीय परमार का अधिपति था । इसीलिये सीयक द्वितीय को प्रस्तुत अभिलेख में सम्मानित स्थान प्राप्त है । वास्तव में सोयक की उपाधि " महामांडलिक चूडामणि" भी इसी की पुष्टि करती है ।
उपरोक्त को आधार बना कर डी. सी. गांगुली ने मत प्रकट किया कि परमार राष्ट्रकूट जाति के अंग थे ( प. रा. इ., पृष्ठ ६ ) । अपने मत के पक्ष में वे आगे लिखते हैं कि परमारों
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हरसोल अभिलेख अ
की राष्ट्रकूट उत्पत्ति इस तथ्य से भी प्रमाणित होती है कि सीयक द्वितीय के पुत्र वाक्पति मुंज ने अमोघवर्ष श्रीवल्लभ एवं पृथ्वीवल्लभ की राष्ट्रकूट उपाधियां धारण की थीं। इस आधार पर डा. गांगूली निष्कर्षरूप लिखते हैं कि परमारों का मूल निवास स्थान अवश्य ही दक्षिण में रहा होगा जो किसी समय राष्ट्रकूटों का निवास स्थान व राज्य था । इसके प्रमाणस्वरूप वे आईने अकबरी का साक्ष्य देते हैं जिसमें लिखा है कि परमार वंश का संस्थापक धनंजय दक्खिन से अपनी राजधानी बदल कर मालवा का अधीश्वर बन गया (वही, पृष्ठ ६-७) ।
परन्तु इन विचारों से सहमत होने में कठिनाई है। प्रथमतः यदि राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय सीयक द्वितीय परमार का समकालीन था तो उसका पूर्वाधिकारी अमोघवर्ष राष्ट्रकूट सीयक द्वितीय के पिता वैरिसिंह द्वितीय का समकालीन था। यदि परमार नरेश वास्तव में राष्ट्रकूटों के वंशज होते तो सीयक द्वितीय अपनी वंशावली को पूर्वकालीन राष्ट्रकूट नरेशों से शुरू करते, न कि स्वयं के व अपने पिता के समकालीन राष्ट्रकूट नरेशों से। दूसरे, प्रस्तुत अभिलेख की पंक्ति क्र. ५ में 'तस्मिन कुले' से पूर्व कुल का नाम होना चाहिये था, परन्तु वहां केवल 'नरेन्द्रपादानां' ही लिखा हुआ है। ऐसा लगता है कि पाठ में 'तस्मिन कुले' के पहले का भाग उत्कीर्णकर्ता की गलती से लिखने में छूट गया। तीसरे, यह संभावना भी हो सकती है कि परमार सीयक द्वितीय ने किसी राष्ट्रकूट प्रदेश पर सफल आक्रमण के समय लूट में प्रस्तुत अधूरे ताम्रपत्र प्राप्त कर लिये हों और उन पर उत्कीर्ण प्रारम्भिक अभिलेख को मिटाये बगैर ही आगे अपना लेख उत्कीर्ण करवा कर दान में दे दिया हो। इस प्रकार के अभिलेखों में सीयक द्वितीय के पुत्र वाक्पति द्वितीय के गाऊनरी ताम्रपत्र हैं जिन पर मूल रूप से राष्ट्रकूट अभिलेख खुदे हुए थे (आगे अभिलेख क्र. ६ व ७)। उसने पुराने अभिलेख को मिटा कर उन पर केवल अपना अभिलेख ही नहीं खुदवाया, अपितु राष्ट्रकूट राजकीय उपाधियां पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ अमोघवर्ष भी ग्रहण की।
सर्वश्री दीक्षित व डिस्कलकर विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि यह कहना तो कठिन है कि दोनों राजवंशों का आपस में क्या संबंध था, परन्तु यह संभव है कि परमार नरेश किसी राष्ट्रकूट राजकुमारी से उत्पन्न हुए हों। जिस प्रकार कुछ वाकाटक वंशीय अभिलेख रानी प्रभावती गुप्त के कारण गुप्त राजवंशीय विवरणों से प्रारम्भ होते हैं (एपि. इं., भाग १५, पृष्ठ ३९-४४; इं. ऐं., भाग ५३, पृष्ठ ४८), इसी प्रकार परमार भी राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष व अकालवर्ष की किसी राजकुमारी से उत्पन्न हुए हों। इसी कारण प्रस्तुत अभिलेख दोनों राष्ट्रकूट नरेशों के नामों से प्रारम्भ होता है।
सम्पादकद्वय ने एक और संभावना व्यक्त की है कि सीयक द्वितीय का पितामाह बप्पैपराज राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय अकालवर्ष के गुजरात पर आक्रमण के समय उसका एक सेनापति था। बाद में प्रायः ९०० ई० के आसपास वह गुजरात के राष्ट्रकूटों से राज्य छीनने में सफल हो गया। उसके बाद वह अथवा उसका पुत्र वैरिसिंह गुजरात से मालवा में आ गया एवं इस प्रदेश में अपने वंश का राज्य स्थापित कर लिया।
यह हो सकता है कि अपनी प्रारम्भिक अवस्था में परमार राष्ट्रकूटों के अधीन थे। परन्तु जैसे-जैसे राष्ट्रकूटों की शक्ति गुजरात में क्षीण होती गई, वैसे-वैसे ही उनके राज्य पर अपना प्रभुत्व स्थापित करते चले गये। प्रस्तुत अभिलेख में सीयक की उपाधि महामांडलिकचूडामणि इसी तथ्य की सूचक प्रतीत होती है। उसकी पश्चात कालीन उपाधि महाराजाधिराजपति
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उसके स्वतंत्र शासक होने को उदयपुर प्रशस्ति ( अभिलेख क्र. के विरुद्ध सफल युद्ध कर, अपने हो गया था ।
प्रस्तुत अभिलेख से यह अनुमान होता कि सीयक द्वितीय की राजधानी मालवा में स्थित थी, क्योंकि वह योगराज पर विजय प्राप्त कर मही नदी के पूर्व की ओर बढ़ रहा था । इसका मार्ग संभवतः पंचमहाल व झाबुआ जिलों के मध्य से होकर था । गुजरात में खेटक मंडल निश्चितरूप से उसके अधिकार में था ( नव० सर्ग ११, श्लोक ८९ ) | नवसाहसांक चरित से ज्ञात होता है कि सीयक द्वितीय ने रडुपाटि के स्वामी पर विजय प्राप्त की थी । अन्य पाठ रुडपदि, रुद्रपाटि, अथवा तर्दपाटि भी है। बुलर के अनुसार रडुपाटि या रुडपदि संभवतः संस्कृत शब्द रुद्रपाटि का ही अपभ्रंश है (इं. ऐं., भाग ३६, पृष्ठ १६८ ) । तर्दपाटि पाठ श्रीकण्ठ शास्त्री का है (सों. ऐ. क. हि., भाग १, पृष्ठ ११५) । रडुपाटि के लिये निम्न तीन तादात्म्य सुझाये गये हैं:
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१.
परमार अभिलेख ध्वनित करती है । उत्तरकालीन उदयादित्य की तिथिरहित २२) से यह निश्चित हो जाता है कि वह राष्ट्रकूट खोट्टिग शासन की समाप्ति से पूर्व संभवतः ९७० ई० में पूर्ण स्वतंत्र
२.
फ्लीट का मत है कि यह शब्द रुद या रट्ट का ही अशुद्ध पाठ है । रट्ट से तात्पर्य है राष्ट्रकूट (एपि० इं०, भाग ७, पृष्ठ २१७) ।
कनिंघम के अनुसार यह रोदपादि हो सकता है जो प्रदेश डाहल मण्डल एवं मालवा के पड़ौस में स्थित था ( आ. स. रि., जिल्द ९, पृष्ठ १०४) ।
३.
के. एन. दीक्षित का सुझाव है कि रडुपाटि का स्वामी संभवतः प्रस्तुत अभिलेख का योग - राज था (एपि. इं., भाग १९, १९२७, पृष्ठ २३६ व आगे ) ।
प्रस्तुत अभिलेख से अनुमान होता है कि योगराज का राज्य मही नदी व खेटकमंडल के पश्चिम में स्थित था, क्योंकि विजय प्राप्त करने के बाद सीयक द्वितीय ने पूर्व की ओर बढ़ते हुए ही नदी के तट पर पड़ाव डाला था जहां उसने दान दिया । एक अन्य संभावना यह भी है कि योगराज गुजरात में अणहिलवाडपत्तन के चापोत्कट ( चावडा वंश) अथवा काठियावाड के चालुक्य वंश का मुखिया था । ये दोनों भूभाग कान्यकुब्ज के प्रतिहारों की प्रभुसत्ता में थे । प्रतिहारों व राष्ट्रकूटों की पारम्परिक शत्रुता सर्वविदित है । संभव है कि राष्ट्रकूटों का पक्ष लेकर ही सीयक द्वितीय ने योगराज पर आक्रमण किया हो ।
अभिलेख में खेटक मण्डल के एक शासक का उल्लेख है जो सीयक द्वितीय के अधीन था । परन्तु यहां उसके नाम अथवा वंश का कोई विवरण नहीं है। शक संवत् ८३२ तदनुसार ९१० ई० के कपडवंज अभिलेख से ज्ञात होता है ( बा. ग., भाग १, उपभाग १, पृष्ठ १२९ ) कि ब्रह्मवाक् वंश के श्री प्रचण्ड ने खेटक मंडल का राज्य राष्ट्रकूट अकालवर्ष की कृपा से प्राप्त किया था । वह हर्षपुर ( हरसोल ) में शासन करता था । अतः संभव है कि सीयक द्वितीय के खेटकमंडल में उक्त प्रचण्ड का उत्तराधिकारी शासन कर रहा हो । यदि यह सही है तो स्वीकार करना होगा कि राष्ट्रकूट नरेश अकालवर्ष ने गुजरात में अपने साम्राज्य को कुछ स्थानीय माण्डलिकों के अधीन कर दिया था जिससे वे प्रतिहारों के आक्रमणों को रोक सकें ।
अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में से खेटकमण्डल का तादात्म्य गुजरात में अहमदाबाद एवं खेड़ा जिलों के कुछ भागों से किया जा सकता है । मोहडवासक अहमदाबाद
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हरसोल अभिलेख अ
जिले में प्रान्तीज तालुका में मोहडासा या मोडासा है। दान में दिया गया कुम्भारोटक ग्राम वर्तमान कामरोड है जो मोडासा से १३ मील पूर्व की ओर स्थित है। शिवनाथ का मंदिर, जो अभिलेख के दानकर्ता नरेश के मही नदी पर पड़ाव के पास था, सरनाल में रहा होगा जो वर्तमान में आणन्द-गोधरा रेल लाईन के मही नदी पर बने पुल के पास है। यह पवित्र स्थल है। यहां डाल्टेश्वर नाम से एक प्राचीन शिव मंदिर है।
मूल पाठ (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
विद्युच्चक्रकड़ार-केसरसटाभिनाम्बु (बु)द-श्रेणयः शोणं नेत्रहुताशडम्व (ब) र-भृतः सिंघा (हा)
कृतेः शारङ्गिणः । विस्फूज़ंद्गलगज्जितज्जित-ककुन्मातङ्ग दर्पोदयाः संरंभास्सुखयन्तु बः खरन
__ ख क्षुन (ण) द्विषद्-वक्षसः । [१] परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीमद्-अमोघवर्षदेव-पादा४. नुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीमद्-अकालवर्षदेव-पृथ्वीववल्लभ-श्रीवल्ल५. भ-नरेन्द्र-पादानां
तस्मिन् कुले कल्मषमोषदक्षे जातः प्रतापग्निहतारि-पक्षः । व (ब)प्पंप
- राजेति नृपः प्रसिद्धस्तस्मात् सुतोभूदनु वैरिसिंघः (हः)। [२॥] दृप्तारि-वनिता-वक्त्र-चन्द्रविव (बिंब)-कलं
कता। नो धौता यस्य कीर्त्यापि हरहासावदातया ।। [३॥] दुर्वार-रिपु भूपाल-रणरंगैक ना
यकः। नृपः श्रीसीयकस्तस्मात् कुल-कल्पद्रुमोभवत् ॥ [४।।] स एवंविधः प्रणत-सकल-सामन्त९. शिरोमणि-मरीचिरंजित-चरण-युगलः श्रीखेटक-मण्डलाधिपति-प्रतिपत्ति-प्रतिव (ब)द्ध त्रु
(भु ? ) क्ति १०. सतूर्यारव-संत्रस्तानेकरिपुसमूहः अनेकशंखध्वनि-व(ब) धिरित-पञ्चवर्णपताका-राजी-विरा११. जित-विशालस्थलावलम्वि (ब)त कुमुद वां (बांधव अतुल दान संपादनक कल्पद्रुमः महामण्ड१२. लिक-चूडामणिः महाराजाधिराजपति-श्रीसीयकः स्वभुज्यमान-मोहड़वासक-विषय संवु (ब)द्ध-कुं१३. भारोटक-ग्रामः समस्त-राजपुरुषान्प्रतिवासि-जनपदांश्च वो (बो)धयत्यस्तु वः यथा योगराज१४. स्योपरि यात्रासमयसंसिद्धकार्यानंतर-व्याधुटितै-महीनदीतट-निवासिभिरस्माभिश्चन्द्रा१५. र्क-योगपर्वणि शिवनाथं समय॑य॑व [धा] र्य। वाताभ्रविभ्रममिदं
वसुधाधिपत्य-मापात
मात्रमधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्त्रि (स्तृ) णाग्रजमवि (बि)न्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो (द्वितीय ताम्रपत्र)
परलोकयाने ॥ [५] इति जगदनित्यं सकलमवधार्योपरिलिखितो ग्रामः ससीमातृणगोचरपर्यं
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परमार अभिलेख
१८. तः सोपर (रि) करः सादाय-समुपेतः श्रीमत् आनन्दपुरीय-नागराय श्यारेयाय गोपालि-स१९. गोत्राय गोवर्द्धनसूनवे लल्लोपाध्याय[य]मातापितरोरात्मनश्च पुण्य-यसो (शो)भिवृद्धये अदृष्टफ२०. लमङ्गीकृत्य आचन्द्रार्कीर्णव-क्षितिसमकालं परया भक्त्या शासनेन उदकपूर्वकं प्रतिपादित इ२१. ति तंनि (नि)वासि-जनपदैर्यथा दीयमान-भाग-भोग-कर-हिरण्यादि सर्वमाज्ञा-श्रवण-विधेयैर्भूत्वा २२. तत्-पुत्रपौत्रादिभ्यः समुपनेतव्यं इति वु(बु)द्ध्वा अस्मद्वंस (श) जैरन्यैरपि भावि भोक्तृभिः
मत्प्रदत्त-ध२३. र्म दायोयम (म्) नुमन्तव्यः पालनीयश्च । उक्तं च।।
व (ब) हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिः । यस्य
_ यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्)।[६।।] यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रनानि धर्थियशस्कराणि ।
नि
भल्य-वान्तप्रतिभानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत ।। [७॥] संवत् १००५ माघ वदि ३० वुधे दाप२६. कोत्र ठक्कुरः श्री विष्णुः राजाज्ञया लिखितं कायस्थ गुणधरेण । स्वहस्तोयं श्री सीयक२७. स्य ।।
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
रक्तवर्ण नेत्रों से निकलने वाली अग्निज्वाला को धारण करने वाले, तीक्ष्ण नखों से शत्रु के वक्षस्थल को विदारित करने वाले, विद्युत् समूह के समान चमकती हुई बालों की जटाओं से मेघमण्डल को छिन्न-भिन्न करने वाले, अधिक गर्जना करने वाले कण्ठ से निकली हुई गर्जनाओं
से दिग्गजों का मानमर्दन करने वाले सिंह रूपी विष्णु का क्रोध तुम्हें सुख प्रदान करे ।।१।। ३. परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमान अमोघवर्षदेव के चरणों ४. का ध्यान करने वाले परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमान् अकालवर्षदेव पृथ्वीवल्लभ
श्रीवल्लभ नरेन्द्र के चरणों के ___ उस कुल में पापों का नाश करने में दक्ष प्रसिद्ध नरेश बप्पैपराज नामक उत्पन्न हुआ, जो अपने प्रताप की अग्नि में शत्रुओं की आहुति करता था। उसके वैरिसिंह नामक पुत्र हुआ जो उसका उत्तराधिकारी हुआ ।।२।।
जिसकी कीर्ति यद्यपि शिव की हंसी के समान शुभ्र थी, परन्तु वह अभिमानी शत्रुओं की स्त्रियों के मुखचन्द्रों पर से कलंक धोने में समर्थ न हो सकी ।।३।।
उसके श्री सीयक नामक नरेश उत्पन्न हुआ जो अपने वंश में कल्पवृक्ष के समान था, जो शत्रु नरेशों के साथ युद्धक्षेत्र रूपी रंगमंच पर अकेला ही नायक था॥४॥ ८. वह इस प्रकार सभी प्रणाम करने वाले सामन्तों ९. के सिरों की मणियों की किरणों से जिसके चरणयुगल शोभायमान थे, जिसके श्री खेटकमण्डल
के अधिपति की शरणागति से बंधनमुक्ति के
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हरसोल अभिलेख अ
१०. नगाड़ों की ध्वनि सुन कर अनेक शत्रुसमूह भय से कांपने लग जाते थे व अनेक शंखों
की ध्वनियों से बहरे बनाये गये हुए, पांच वर्षों की पताका-पंक्तियों से सुशोभित ११. विशाल स्थान पर जिसके चन्द्र (-चिह्न) लगे थे, जो अतुल्य दान देने वाला अकेला कल्पवृक्ष
था,
१२. जो महामण्डलिकों का चूडामणि था, ऐसे महाराजाधिराजों के स्वामी श्री सीयक अपने अधीन
मोहडवासक विषय के अन्तर्गत १३. कुम्भारोटक ग्राम के सभी राजपुरुषों, निवासियों व जनपदों को बोधित करते हैं- आपको
यह विदित हो कि योगराज के ऊपर (आक्रमण की) १४. यात्रा कर अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करने के उपरान्त महीनदी के तट पर निवास करते
हुए, चन्द्र व सूर्य के १५. योगपर्व के अवसर पर (अर्थात् अमावस्या) भगवान शिव की विधिपूर्वक अर्चना कर हमारे द्वारा विचार कर
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले मेघों के समान चंचल है, विषयभोग प्रारम्भ में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान हैं, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है।।५।।
(दूसरा ताम्रपत्र) १७. इस प्रकार यह धारणा कर कि यह सारा जगत अनित्य है, हमने ऊपर लिखा ग्राम अपनी
सीमा सहित, तल व गोचर भूमि तक, उपरिकर समेत १८. सब प्रकार की आय सहित श्रीमान आनन्दपरी नगर के त्रिऋषि गोपालि १९. गोत्र वाले गोवर्द्धन पुत्र लल्लोपाध्याय के लिये, माता पिता व निज पुण्य व यश की वृद्धि
के हेतु, अदृष्ट फल को २०. स्वीकार कर, चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहने तक के लिये, अत्यन्त भक्तिपूर्वक राजाज्ञा
द्वारा जल हाथ में ले कर दान दिया है। २१. इसका विचार कर वहां के निवासियों व जनपदों को जैसा दिया जाने वाला भाग भोग कर
हिरण्य आदि इस आज्ञा को सुन कर पालन करने में तत्पर होते हुए २२. उसके पुत्र पौत्र आदि के लिये भी देते रहना चाहिये। यह जानकर हमारे वंश में उत्पन्न
हुए व अन्यों में होने वाले भावी भोक्ताओं को मेरे द्वारा दिये गये इस धर्म२३. दान को मानना व पालन करना चाहिये । और कहा है
___ सगर आदि अनेक राजाओं ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है, तब तब उसी को उसका फल मिला है ॥६॥ ____ यहां पूर्व नरेशों ने धर्म एवं यश के हेतु जो दान दिये हैं वे निर्माल्य एवं के के
समान जानकर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ॥७॥ २५. संवत् १००५ माघ वदि ३० बुधवार। २६. यहां दापक ठक्कुर श्रीविष्णु हैं। राजाज्ञा से कायस्थ गुणधर ने लिखा है। ये
हस्ताक्षर स्वयं श्री सीयक २७. के हैं।
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८
(२)
हरसोल का सीयक द्वितीय का ताम्रपत्र 'ब'
( संवत् १००५ == ९४९ ईस्वी)
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर खुदा हुआ है । ये ताम्रपत्र पूर्ववर्णित ताम्रपत्रों के साथ ही प्राप्त हुए थे । ताम्रपत्र चौकोर हैं जो आकार में २० सें. मी. लम्बे व १३ सें. मी. चौड़े हैं । अभिलेख कुल २९ पंक्तियों का है-- प्रथम ताम्रपत्र पर १३ व दूसरे पर १६ पंक्तियां खुदी हैं । इन पर गरुड़ का राजचिह्न नहीं है जो संभवतः इस कारण है कि पूर्ववर्णित ताम्रपत्र एवं प्रस्तुत ताम्रपत्र उसी नरेश द्वारा एक ही दिन दो विभिन्न ब्राह्मणों को, जो पिता-पुत्र रूप से संबंधित थे, को दान स्वरूप दिये गये थे ।
प्रस्तुत अभिलेख के लेखक व खोदने वाले का कार्य, पूर्ववर्णित अभिलेख के समान, प्रशंसनीय नहीं है। अक्षरों की बनावट बहुत साधारण है । पंक्तियां भी सीधी नहीं हैं । दूसरे ताम्रपत्र पर शुरू के अक्षर बड़े हैं परन्तु बाद में छोटे होते चले गये हैं। अंतिम ५-६ पंक्तियों में तो अक्षर बहुत पास-पास खोदे गये हैं, यहां तक कि लेख का अंतिम भाग दाहिनी ओर के खाली स्थान पर खड़ी पंक्ति के रूप में खोदना पड़ा ।
अभिलेख का प्रमुख ध्येय पंक्ति क्रमांक १५ व आगे में वर्णित है । इसमें लिखा है कि श्री सीयक ने योगराज के ऊपर (आक्रमण की) यात्रा कर व अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त कर महीनदी के तट पर ठहरे हुए चन्द्र व सूर्य के योगपर्व के अवसर पर भगवान शिव की अर्चना कर खेटक मंडल के अधिपति की प्रार्थना पर ( पंक्ति ९ ) अपने अधीन मोहडवासक विषय के अन्तर्गत सहिका ग्राम ( पंक्ति १३) दान में दिया ।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण आनन्दपुरी नगरी का वासी, त्रिऋषि गोपाली गोत्री, लल्लोपाध्याय का पुत्र नीना दीक्षित था । सहिका ग्राम का समीकरण गुजरात राज्य में अहमदाबाद जिले के प्रांतीज तालुका के अन्तर्गत मोडासा से ८ मील दक्षिण में स्थित सीका नामक ग्राम से किया जा सकता है ।
पूर्ववर्णित अभिलेख के समान होने से इसका हिन्दी अनुवाद नहीं दिया जा रहा है, केवल मूल पाठ ही है ।
१. ओं ।
परमार अभिलेख
३.
संरंभास्सु
परमभट्टारक- महाराजाधिराज परमेश्वर श्री
मूल पाठ (प्रथम ताम्रपत्र)
विद्युक्च (च्च) क्रकडार केसर सटाभिनाम्वु (बु) द श्रेणयः शोणं नेत्रहुताशडम्व (ब) र भृतः सिंघा (हा ) -
कृते : शाङ्गिणः ।
विस्फूर्ज्जद्गलगज्जतज्जितककुन्मातङ्गदर्पोदयाः
खयन्तु वः खरनखक्षुन्तद्विषद्वक्षसः ।। [१ ॥ ]
४. मद् अमोघवर्षदेव-पादानुध्यात- परमभट्टारक- महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमद् अका५. लवर्षदेव- पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ-नरेन्द्रपादानां
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हरसोल अभिलेख ब तस्मिन् कुले कल्मष [मो] षद [क्षो] जातः
प्रतापाग्नि-हुतारि-पक्षः। व (ब)प्पंपराजेति नृपः प्रसिद्धस्तस्मात् सुतोभूदनु वैरिसिंघः (हः) ।। [२॥]
दृप्त_रि वनिता वक्त्र चन्द्रविव (बिंब) कलंकता। नो धौता यस्य कीयापि हरहासावदातया ।। [३॥] दुरिरि
पु भूपाल रणरंगैक नायकः । नृपः श्री सीयकस्तस्मात् कुल-कल्पद्रुमोभवत् ।। [४॥] स एवं वि९. धः प्रणतसकल-सामन्त-शिरोमणि-मरीचिरंजित-चरणयुगल: श्री खेटकमण्डला१०. धिपति-प्रतिपत्ति-पतिव (ब) द्ध त्रु (मु ? ) क्ति सतूर्यारव-संत्रस्तानेक-रिपु समूहः अनेक-शंखध्व११. नि-व (ब) धिरित-पञ्चवर्ण-पताका-राजी-विराजित-विशाल-स्थलावलम्वि (ब) त-कुमुद वां
(बां)ध१२. वः अतुल-दानसंपादनक-कल्पद्रुम: महामण्डलिक-चूडामणि-महाराजाधि१३. राजपति-श्रीसीयक: स्वभुज्यमान-मोहड़वासक-विषय संवु (ब) द्ध-सहिका-ग्रा
(द्वितीय ताम्रपत्र)
१४. मः समस्त-राजपुरुषान् प्रतिवासि-जनपदांश्च वो (बो)धयत्यस्तु वः यथा योगरा१५. जस्योपरि यात्रासमय-संसिद्ध-कार्यानन्तर-व्याधुटितर्महीनदीतट-निवासिभि१६. अस्माभिश्चन्द्रार्क-योग पर्वणि-शिवनाथं समभ्यया॑वधार्य । वाताभ्रविभ्रममिदं वसु
धाधिपत्य मापातमात्र मधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्त्रि (स्तृ) णाग्रजलबिन्दुसमा नराणां धर्म
__ स्सखा परमहो परलोकयान (ने) ॥ [५॥] इति जगदनित्यं सकलमवधार्योपरिलिखितो १९. ग्रामः ससीमात्रि (तृ) ण-गोचर-पर्यन्तः सोपर (रि) करः सादाय समो (मु)पेतः श्रीमदानन्द२०. पुरीयनागराय त्र्योर्षेयाय गोपालि-सगो [त्रा] य लल्लोपाध्याय-सुत-नीनादीक्षिताय २१. मातापित्रोरात्मनश्च पुण्ययसो (शो) भिवृद्धये अदृष्टफलमङ्गीकृत्याचन्द्राणि२२. व-क्षितिसमकालं परया भक्तत्या (क्त्या) शासनेन उदकपूर्वकं प्रतिपादितं इति तनि (नि)वा२३. सि-जनपदैर्यथा दीयमान-भागभोगकर-हिरण्यादि-सर्वमाज्ञाश्रवण-विधि (धे) यैर्भू२४. त्वा तत्पुत्रपौत्रादिभ्यः समुपनेतव्यं इति वुद्धा (बुद्ध्वा) अस्मद्वंस (श)-जैरण्य (न्य ) रपि भावि
भोक्त (क्तृ) भिः मत्प्र२५. दत्त-धर्मदायोयं अनुमंतव्यः पालनीयश्च । उक्तं च ।
व (ब)हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरा२६.
दिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्) ।। [६॥]
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परमार अभिलेख यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रनानि धर्मार्थ
यशस्कराणि। निमा (मा)ल्यवान्त-प्रतिमानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत ।। [७॥] सं. १००५ माघ व (वदी) ३० २८. [बुधे] दापकोत्र ठाकुर: श्री विष्णुः राजाज्ञया लिखितं कायस्थ-गुणधरेण । स्वहस्तोयं २९. श्रीसीयकस्य ।
(३)
अहमदाबाद का सीयक द्वितीय का ताम्रपत्र
(संवत् १०२६=९६९ ई०)
प्रस्तुत अभिलेख एक ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण है। यह सम्पूर्ण अभिलेख का केवल उत्तरार्द्ध है। पूर्वार्द्ध प्राप्त नहीं हुआ है । यह ताम्रपत्र १९२० ई० में गुजरात के खेड़ा नगर में एक अभिभाषक ने किसी ठठेरे से प्राप्त कर गुजरात पुरातत्व मंदिर अहमदाबाद में मुनि जिनविजयजी को भेंट कर दिया।
डी. वी. डिस्कलकर ने प्रो. आ. ई. ओ. कां, मद्रास, पृष्ठ ३०४ पर इसका उल्लेख किया । बाद में ए.रि. वा. म्यू, १९२३-२४, पृष्ठ १४ पर इसका उल्लेख किया। पुनः पुरातत्व नामक गुजराती जर्नल, भाग ३, पृष्ठ १४५ व आगे इसका उल्लेख किया । अन्त में ए. ई., भाग २९, १९२७, पृष्ठ १७७१७८ पर इसका सम्पादन किया। ताम्रपत्र वर्तमान में एल. डी. इंस्टीट्यूट आफ इंडोलौजी, अहमदाबाद में सुरक्षित है।
ताम्रपत्र चौकोर है जो आकार में ३५४ १९ सें. मी. है । इसका वजन १.१९८ ग्राम है। इसमें दो छेद हैं जिनमें दो कड़ियां रही होंगी। ताम्रपत्र के किनारे कुछ मोटे हैं व लेख की सुरक्षा हेतु ऊपर को मुड़े हैं । लेख प्रायः अच्छी हालत में हैं । कुछ अक्षर क्षतिग्रस्त हो गये हैं, परन्तु उनको संदर्भ में पढ़ा जा सकता है।
अभिलेख कुल १० पंक्तियों का है । अक्षरों की लम्बाई ६ सें. मी. है। परन्तु अंतिम पंक्ति के अक्षर तीन गुना बड़े हैं । वहां नरेश के हस्ताक्षर हैं । नीचे बाईं ओर कोने में उड़ते हुए गरुड़ की आकृति है। उसके बायें हाथ में नाग है व दाहिना हाथ उसको मारने के लिए ऊपर उठा है।
उत्कीर्णकर्ता ने अपना कार्य असावधानी से किया है । अक्षर न सीधे हैं न सुन्दर हैं । वे कभी बाई ओर व कभी दाहिनी ओर झुके हुए हैं।
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से इसमें कुछ त्रुटियां हैं । ब के स्थान पर सर्वत्र व का प्रयोग किया गया है। पंक्ति क्र. २, ४, ६ में विसर्ग के स्थान पर पूर्व अक्षर दोहरा कर दिया गया है । पंक्ति ६ व ८ में विसर्ग के स्थान पर ष का प्रयोग किया गया है। कुछ स्थानों पर अनुस्वार लुप्त हैं । पंक्ति ७ में श्लोक के तीसरे चरण में एक अनावश्यक दण्ड बना दिया गया है।
अभिलेख की भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है । ताम्रपत्र में कुल ५ श्लोक हैं । शेष अभिलेख गद्य में है।
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अहमदाबाद अभिलेख
अभिलेख की तिथि पंक्ति क्र. ९ में अंकों में संवत् १०२६ आश्विन वदि १५ लिखी है। यह अमावस्या को इंगित करता है। पूर्ववणित अभिलेखों में अमावस्या के लिये 'वदि ३०' लिखा है। प्रतीत होता है कि १० वीं सदी में अमावस्या दर्शाने हेतु दोनों प्रकार से अंकन कर दिया जाता होगा। समीकरण करने पर यह तिथि गुरुवार १४ अक्तूबर ९६९ ई० के बराबर निर्धारित की जा सकती है।
अभिलेख का प्रमुख ध्येय, दान का विवरण एवं दान प्राप्तकर्ता का नामादि प्रथम ताम्रपत्र में रहे होंगे जो अप्राप्य है।
अभिलेख में यद्यपि श्री सीयक के वंश व पिता के नामों का अभाव है परन्तु ताम्रपत्र के प्राप्तिस्थान, भाषा, लिपि व तिथि आदि से यह मानने में कोई कठिनाई नहीं है कि वह परमार राजवंशीय नरेश वाक्पति मुंज व सिंधुराज का पिता सीयक द्वितीय था। पूर्ववर्णित हरसोल के दोनों ताम्रपत्र भी इसी नरेश के हैं। कवि धनपाल द्वारा रचित प्राकृत ग्रन्थ पाईयलच्छी (इं. ऐं., भाग ३६, १९०७, पृष्ठ १६९, श्लोक' क्र. २७६-८) से ज्ञात होता है कि इसने अपना ग्रन्थ संवत् १०२९ तदनुसार ९७२ ई० में पूरा किया था जब मालव सेनाओं ने मान्यखेट को जीत कर लूटा था। उत्तरकालीन नरेश उदयादित्य की तिथि रहित उदयपुर प्रशस्ति (अभिलेख क्र. २२) के श्लोक क्र. १२ से ज्ञात होता है कि श्री हर्ष, अन्य नाम सीयक द्वितीय, ने राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिगदेव पर विजय प्राप्त की थी। अतः इसके उपरान्त ही सीयक' ने राष्ट्रकूट राजधानी मान्यखेट को लूटा होगा। इस आधार पर श्री सीयक' का संवत् १०२९ में शासन करना निश्चित होता है । प्रस्तुत ताम्रपत्र उस तिथि से तीन वर्ष पूर्व एवं हरसोल ताम्रपत्र से २१ वर्ष बाद का है । प्रस्तुत अभिलेख से भी प्रारम्भिक वर्षों में परमारों का संबंध गुजरात से होना प्रमाणित होता है।
अभिलेख में भौगोलिक नाम का अभाव है। इस में दानमहिमा दर्शाने वाले एवं दानभंग करने की स्थिति में शापयुक्त श्लोक ही है, इस कारण इसका मूल पाठ दिया जा रहा है हिन्दी अनुवाद नहीं दिया जा रहा है ।
मूल पाठ
(श्लोक १ अनुष्टुभ, २ इन्द्रवज्रा, ३ वसन्ततिलका, ४ शालिनी, ५ पुष्पिताग्रा) १. सामान्यं चैतत्पुण्यफलं वु (बु) द्ध्वास्मद्वंशजैरन्यैरपि भावि-भोक्तृभिरस्मत्प्रदत्त-धर्मादायोय२. म [नु] ग (म)न्तव्यप्पा (व्य: पा)लमी (नी) श्श (श्च) [।] उक्तं च भग[व]ता व्यासेन [1]
व (ब) हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य
यदा भूमि[स्त]स्य तस्य तदा फलं (लम्) ।। [१] यानीह दत्तानि पुरा नरे () दानानि धर्मार्थयशष्क (स्क) राणि [1] निर्मा
ल्यवा [न्तः] प्रतिमानि तानि को नाम साधुप्पु (धु:पु) नराददीत ।। [२] अस्मत्कुलक्रममुदारमुदाहरद्भिरन्य
- श्च दाम (न)मिदमभ्यनुमोदनीयं (यम्) । लक्ष्म्यास्तडित्सलिल-बुबु (बुबु) द च (चं) चलायाः दान (नं) फलं परयश
प(:प)रिपालनं च ।। [३]
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१२
७
८.
सर्व्वानेतान्भाविनष्पा ( : पा ) थि [ वे ] न्द्राद्भू (न् भू ) यो भूयो याचे (च) ते रामभद्रः । सामा[न्यो] -
परमार अभिलेख
य (यं) धर्म्मसेतुर्नृपाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ।। [४ ।। ] इति कमलदलाम्बु (म्बु) वि (बि) दुलोलां [ श्रि] -
यमनुचिन्त्य मनुष्यजीवित ( तं ) च । सकलमिदमुदाहृत (तं) च वु (बु) द्ध्वा न हि पुरुषैष्प (षैः प ) रकीर्त -
यो विलोप्याः || [५॥]
९.
इति । सं० १०२६ आश्विन वदि १५ [] स्वयमाज्ञा दापकश्चात्र श्री कन्हपैकः । १०. श्री सीयकस्य स्वहस्तोयं (ऽयम्) ।
(४)
धरमपुरी का वाक्पतिराजदेव द्वितीय का ताम्रपत्र
( संवत् १०३१ = = ९७४ ई० )
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर खुदा हुआ है । ये ताम्रपत्र धार जिले में धरमपुरी के पास एक किसान को अपने खेत में हल जोतते समय १९वीं शती के उत्तरार्द्ध में प्राप्त हुए थे । इसका प्रथम सम्पादन एफ. ई. हाल ने ज. ए. सो. बं. भाग ३०, १८६१, पृष्ठ १९५-२१० पर किया था। इसके बाद सन् १८७७ में नीलकंठ जनार्दन कीर्तने ने इसका पुनः सम्पादन इं. ऐं. भाग ६, पृष्ठ ४८-५५ पर किया । ताम्रपत्र इस समय इंडिया आफिस लाइब्रेरी, लंदन में सुरक्षित हैं ।
ताम्रपत्र आकार में ३१x२२ सें. मी. है। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा हुआ है । दोनों में छेद हैं | किनारे कुछ मोटे हैं व अन्दर की ओर मुड़े हैं ।
अभिलेख ३४ पंक्तियों का है -- प्रथम ताम्रपत्र पर १८ व द्वितीय पर १६ पंक्तियां खुदी हुई हैं। प्रत्येक पंक्ति में प्रायः ३५ अक्षर खुदे हैं । इसमें अक्षरों की बनावट सुन्दर है व सारा अभिलेख बहुत अच्छी हालत में है । दूसरे ताम्रपत्र पर अन्त में नरेश के हस्ताक्षर हैं । इसी ताम्रपत्र में नीचे बायें कोने में एक दोहरी पंक्ति का चौकोर बना है । इसमें उड़ते हुए गरुड़ की आकृति बनी हुई है जिसका शरीर मनुष्य के समान है परन्तु मुखाकृति पक्षी की है । इसके दाहिने हाथ में एक फणदार नाग है । यह परमार राजवंशीय चिह्न है ।
अभिलेख के अक्षरों की बनावट दसवीं शती की नागरी लिपि है। यह पूर्ववणित हरसोल के प्रथम अभिलेख से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। इस की भाषा संस्कृत है व पद्य गद्यमय है । इसमें कुल नौ श्लोक हैं। शेष सारा अभिलेख गद्य में है ।
व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से इस में कुछ विचारणीय तथ्य हैं । ब के स्थान पर सभी स्थलों पर व का प्रयोग किया गया है । र के बाद का व्यंजन दोहरा कर दिया गया है जैसे नर्मदा पंक्ति ८-९ सर्व्वदा पंक्ति २४ आदि । श के स्थान पर स का प्रयोग जैसे पिसाच पंक्ति १३, चतुर्द्दस्याम पंक्ति १४ । श्लोक एवं बाक्यों के अन्त में म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया गया है । कहीं कहीं पर शब्द ही गलत लिखे हैं जैसे संवत्सरे के स्थान पर सम्वत्सरे,
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धरमपुरी अभिलेख
१३
उज्जयिनी के स्थान पर उज्जयनी पंक्ति १४, श्रेयांसि के स्थान पर श्रेयान्सि पंक्त ३, आदि । छोटी मोटी कुछ और भी त्रुटियां खोदने वाले की लापरवाही के कारण बन गई हैं जो पाठ में सुधार दी गई हैं।
तिथि पंक्ति क्र. १४ में शब्दों में और पंक्ति क्र. ३२-३३ में अंकों में दी गई है। यह संवत् एक हजार इकतीस के भाद्रपद की शुक्ल चौदस है। परन्तु इसमें दिन का उल्लेख न होने से इसका सत्यापन संभव नहीं। यह गुरुवार, १७ सितम्बर ९७४ ईस्वी के बराबर बैठती है।
प्रमुख ध्येय पंक्ति क्र. ९ व १४-१५ में वर्णित है। इसके अनुसार श्रीवाक्पतिराजदेव ने उपरोक्त तिथि को पवित्र पर्व के अवसर पर उज्जयिनी में निवास करते हुए शिवतडाग के जल' में स्नान कर (पंक्ति १४-१५) भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक' अर्चना कर नर्मदा के तट पर गर्दभपानीय भोग के अन्तर्गत गर्दभपानीय से सम्बद्ध उत्तर दिशा में स्थित पिप्परिका तडार (तडाग ?) दान में दिया था।
दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण का नाम पंक्ति क्र. २०-२१ में लिखा हुआ है। वह अहिछत्र से देशान्तर गमन करके दक्षिणधाम (उज्जयिनी) में आया, ज्ञान विज्ञान में सम्पन्न वसन्ताचार्य था जो धनिक पंडित का पुत्र था।
पंक्ति क्र. ५-८ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री कृष्णराज देव, वैरिसिंहदेव, सीयक देव और वाक्पतिराज देव के पिता-पुत्र शृंखला अनुसार उल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं। अंतिम नरेश वाक्पतिराजदेव का एक अन्य नाम अमोघवर्षदेव भी दिया गया है। अभिलेख में जिस प्रकार इस नाम का उल्लेख किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह उसका मूल नाम था। साथ ही इसके नाम के आगे कुछ अन्य राजकीय उपाधियां "पृथ्वीवल्लभ, श्रीवल्लभ नरेन्द्रदेव" भी जुड़ी मिलती हैं। ये सभी अतिरिक्त उपाधियां मूलरूप से राष्ट्रकूट वंशीय नरेशों के नामों के साथ लगी प्राप्त होती हैं। पूर्ववणित हरसोल ताम्रपत्र 'अ' के ऐतिहासिक विवरण में दर्शाया जा चुका है कि वाक्पतिराज देव के पिता सीयक द्वितीय ने राष्ट्रकूटों की निरंतर गिरती हुई शक्ति से लाभ उठाकर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। इस कारण उसके पुत्र वाक्पतिराज ने अपनी वृद्धिंगत शक्ति को प्रदर्शित करने हेतु राष्ट्रकूट नरेशों द्वारा प्रयुक्त राजकीय उपाधियों को धारण करना युक्तियुक्त समझा और प्रस्तुत अभिलेख में उनको अपने नाम के साथ जोड़ दिया ।
उपरोक्त चारों नरेशों में से प्रथम का नाम कृष्णराज देव लिखा मिलता है, परन्तु पूर्ववणित हरसोल के दोनों ताम्रपत्रों में यह नाम वप्पंपराज लिखा है । परिमल पद्मगुप्त द्वारा रचित नवसाहसांक चरित (पर्व ११, श्लोक क्र. ८०-८२ ) व उत्तरकालीन उदयादित्य की तिथि रहित उदयपुर प्रशस्ति (अभि. क्र. २२) में यह नाम वाक्पति प्रथम है। वप्पैपराज वास्तव में वाक्पति का ही प्राकृत रूप है । अतः मानना होगा कि कृष्णराज देव व वाक्पतिराज देव प्रथम एक ही व्यक्ति के दो विभिन्न नाम हैं । शेष तीनों नाम इसी क्रम में परमारवंशीय अन्य अभिलेखों में भी प्राप्त होते हैं । इस प्रकार ये सभी मालवा के परमार राजवंशीय नरेश हैं। प्रस्तुत अभिलेख में वाक्पतिराज देव के वंश का नामोल्लेख नहीं है।
पंक्ति क्र. ११-१३ में उपर्युक्त तडाग की चारों सीमाओं को दर्शाया गया है। इसकी पूर्व दिशा में अगारवाहला तक, उत्तर दिशा में सात गत वाली चिखिल्लिका की खाई तक, पश्चिम दिशामें गर्दभ नदी तक और दक्षिण दिशा में पिशाचदेवतीर्थ तक उसके चारों घाटों की सीमाओं को लक्षित किया गया है।
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१४
परमार अभिलेख
प्रस्तुत अभिलेख वाक्पतिराज देव द्वितीय उपनाम मुंज द्वारा निस्सृत अभिलेखों में सर्वप्रथम है। इसकी तिथि ९७४ ई० है । उसके पिता सीयक द्वितीय का इससे पूर्व अहमदाबाद का अभिलेख ९६९ ई० का है । वाक्पतिराज द्वितीय मालव राजसिंहासन पर इन दोनों तिथियों के मध्य संभवतः ९७२ ई० में आसीन हुआ था । साथ ही यह तथ्य भी रुचिकर है कि प्रस्तुत ताम्रपत्र मालव भूमि पर दान में दिया गया सर्वप्रथम राजकीय अभिलेख है । इससे पूर्व दानपुत्र गुजरात से निस्सृत किये गये थे ।
• अभिलेख में प्राप्त भौगोलिक नामों में उज्जयिनी, नर्मदा, अहिछत्र ( रोहिल खण्ड, उत्तरप्रदेश में) सर्वविदित हैं । पिपरिका धार जिले की मनावर तहसील में आधुनिक पिप्परी ग्राम है जो नर्मदा नदी के उत्तर में ६-७ किलोमीटर की दूरी पर है । चिखल्लिका संभवतः चिखिलदा है जो पिप्परी से २८ किलोमीटर दक्षिण-दक्षिण पश्चिम की ओर है ।
१. ओं ।
२
३
४.
५.
मूल पाठ ( प्रथम ताम्रपत्र )
( श्लोक १ - २ शार्दुलविक्रीडित, ३-७ वसंततिलका, ४-५ अनुष्टुभ, ६ इन्द्रवज्रा ८ शालिनी, ९ पुष्पिताग्रा)
याः स्फुर्ज्जत्फणभृद्विषानलमिलम प्रभाः प्रोल्लसमूर्द्धाद्धशशांको (ङको ) टिघटिता या: सैं
हि (हि) के योपमाः । याश्चंचगिरिजाकपोललुलिताः कस्तूरिकाविभ्रमास्ताः श्रीकण्ठकठोर कण्ठरुचय :
श्रेयान्सि पुष्णन्तु वः ॥ [ १ ॥ ]
यल्लक्ष्मीवदनेन्दुना न सुखितं यन्नाssद्रितम्वारिधे aafa यन्न निजेन नाभिसर
ल्लद्वपुः पातु वः ।। [२]
परमभट्टारकः- महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीकृष्ण राजदेव पादानुध्यात- परमभ ६. ट्टारक- महाराजाधिराज - परमेश्वर श्रीवैरिसिङह (सिंह) देव- पादानुध्यात- परमभट्टारक महाराजाधिरा
सीपन शान्तिंगतं (तम्) । यच्छेषाहिफणासहस्रमधुरश्वासैर्न चाss श्वसितं तद्राधाविरहातुरं मुररिपोर्व्वे
७.
ज-परमेश्वर-श्रीसीयकदेव पादानुध्यात- परमभट्टारक- महाराजाधिराज- परमेश्वर - श्रीमदमो८. घवर्षदेवापराभिधान- श्रीमद्वाक्पतिराजदेव पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ-नरेन्द्रदेवः कुशली । श्रीनदातटे गर्भपानीयभोगे गर्दभपानीय-सम्वद्धि ( बंधि ) नी उत्तरस्यां दिशि पिपरिकानाम्ना तडारे (गे) स
९.
१०. मुपगतान्समस्त- राजपुरुषान्त्रा (ब्रा) ह्मणोत्तरान्प्रतिवासिपट्टकिल जनपदादींश्च बोधयत्य ( यति अ ) स्तु वः स
११. विदितं । यथा तडारो (गो ? ) sयमस्माभिराघाटाः पूर्व्वस्यां दिशि । अगारवाहला मर्यादा | तथोउत (थोत्त) रस्यां
१२. दिशि चिखिल्लिका सत्क (सप्त) गर्ताया समायता सा मर्यादा । तथा पश्चिमदिशौ (शि) गर्दभ नदी मर्यादा । त
१३. था दक्षिणस्यां दिशौ श्री पिसाचदेवत्ति (ती) र्थमर्यादा । एवं चतुराघाटोपलक्षिताभिरेक
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धरमपुरी अभिलेख
(लक्षितैरेक')तृशसा१४. हस्रिकसम्वत्सरेस्मिन् भाद्रपदशुक्ल-चतुर्दस्यां पवित्रकपर्वणि श्रीमदुज्जयनीसमावासितैः १५. शिवतडागाम्भसि स्नात्वा चराचरगुरुं भगवन्तं भवानीपतिमभ्यच्चर्य संसारस्याऽसारतां दृष्ट्वा ।
वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्य-मापातमात्र (त्र) मधुरो विषयोपभोगः । १७. प्राणास्तृणाग्रजलवि
न्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ।। [३] भ्रमत्संसार चक्रारधाराधारामिमां श्रियं (यम्) ।
प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चात्तापः परं फलं (लम्) ॥ [४॥] इति जगतो विनश्वरं स
१८.
(द्वितीय ताम्रपत्र) १९. कलमिदमाकलय्योपरिलिखित-तडार: (ग?) स्वसीमातृणकाष्ठयूति-गोचरपर्य्यन्तः स२०. वृक्षमालाकुलः सहिरण्य-भागभोगः सोपरिकरः सर्वादायसमेतः अहिच्छत्रविनिर्गताय धा२१. मदक्षिणप्रपन्नाय ज्ञानविज्ञानसंपन्नाय श्रीमद्वत्सन्ताचार्याय श्रीधनिकपण्डितसूनवे । २२. मातापित्रोरात्मनश्च पुण्ययशोभिवृद्धये अदृष्टफलमङ्गीकृत्या चन्द्राणिवक्षितिसमकालं पर-- २३. या भक्तया शासनेनोदकपूर्वकं प्रतिपादित इति मत्वा तन्निवासि-जनपदैर्यथा दीयमानभाग-भो२४. गकरहिरण्यादिकं सर्वमाज्ञाश्रवणविधेयैर्भूत्वा सर्वदास्मै समुपनेतव्यं । सामान्यं चैतत्पुण्यफ२५. लं वुद्ध्वाऽस्मद्वंशजैरन्यैरपि-भाविभोक्तृभिरस्मत्प्रदत्त-धर्मादायोयमनुमन्तव्यः पालनीयश्च । उक्तं २६. च ।
व (ब) हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभि
र्यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्) ॥ [५॥] यानीह दत्तानि
पुरा नरेन्द्रनानि धर्मार्थयशस्कराणि । निर्माल्यवान्त-प्रतिमानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत ।। [६।।] अस्म
त्कुलक्रममुदारमुदाहद्भिरन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं (यम्) । लक्ष्म्यास्तडित्सलिलवुद्ध (बुद्रु) दचञ्चलाया दा
नं फलं परयश: परिपालनं च ।। [७] सर्वानेतान्भाविनः पार्थिवेन्द्रान्भूयो भूयो याचते
रामभद्रः । सामान्योयं धर्मसेतु पाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ।। [८।।] इति___ कमलदलाम्वु (म्बु) विन्दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च । सकलमिदमुदाह
तं च बु (बु) वा न हि पुरुषः परकीर्तयो विलोप्याः ।। [९।।] इति । सं १०३१ भाद्रपद ३३. सुदि १४ स्वयमाज्ञादायकश्चात्त्र (त्र) श्रीकण्हपैकः । स्वहस्तोयं श्री वाक्प-- ३४. तिराजदेवस्य।
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परमार अभिलेख
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र)
१. ओं।
जो भुजंग के फैलने वाले विषाग्नि से सम्मिलित धूम्र के समान शोभायान हैं, जो मस्तक में लगे चन्द्र के अग्रभाग पर स्थित राहू के समान (कृष्ण वर्ण) है और जो चंचल पार्वती के कपोलों पर बिखरी हुई कस्तूरिका के समान हैं, शिवजी के कण्ठ की ऐसी कांतियां तुम्हारे कल्याणों को पुष्ट करें ॥१॥ ____जो लक्ष्मी के मुखचन्द्र से सुखी नहीं हुआ, जो समुद्र से गीला (शान्त) नहीं हुआ, जो निज नाभि स्थित कमल से शान्त नहीं हुआ और जो शेषनाग के हजारों फणों से निकले हुए श्वासों से आश्वस्त नहीं हुआ, राधा की विरह से पीड़ित मुरारि (विष्णु) का ऐसा
अशान्त शरीर तुम्हारा रक्षण करे ॥२॥ ५. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री कृष्णराजदेव के पादानुध्यायी परम६. भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वैरिसिंहदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक
महाराजाधिराज ७. परमेश्वर श्री सीयकदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमत् ८. अमोघवर्षदेव अन्य नामधारी श्रीमत् वाक्पतिराज देव पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ नरेन्द्रदेव
कुशलयुक्त होकर ९. श्री नर्मदा के तट पर गर्दभपानीय नामक भोग के अन्तर्गत गदर्भपानीय से सम्बद्ध उत्तर
दिशा में (स्थित) पिप्परिका नामक तडाग पर १०. आये हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के निवासियों, पटेलों और ग्रामवासियों
को आज्ञा देते हैं११. आपको विदित हो कि हमारे द्वारा यह तडाग घाटों सहित (जिसकी) सीमा पूर्व दिशा
में अगारवाहला तक है तथा उत्तर १२. दिशा में सात गत वाली चिखिल्लिका की लम्बाई तक तथा पश्चिम दिशा में गर्दभ नदी तक १३. तथा दक्षिण दिशा में श्री पिसाचदेव तीर्थ है एवं जिसकी चारों घाटों की सीमाओं को
लक्षित करते हुए (हमने) १४. संवत् एक सहस्र इकत्तीस के भाद्रपद की शुक्ल चौदस के पवित्र पर्व में श्रीयुक्त उज्जयिनी
में निवास करते हुए १५. शिवतडाग के जल में स्नान कर, चर व अचर के स्वामी भगवान भवानीपति की अर्चना कर, संसार की असारता को देख कर
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ॥३॥ . घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी
को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥ १८. यह जगत नाशवान है।
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-उज्जन अभिलख
१७
(दूसरा ताम्रपत्र) १९. यह सभी समझ कर ऊपर लिखा तडाग इसकी सीमा के तृण काष्ठ सहित व गोचर तक २०. वृक्षों की पंक्तियों से व्याप्त, हिरण्य भाग भोग उपरिकर आदि सब प्रकार की आय समेत
अहिछत्र से देशान्तरगमन करके २१. इस दक्षिण धाम में प्राप्त हुए, ज्ञान विज्ञान में सम्पन्न श्रीमान वसन्ताचार्य, जो श्रीधनिक
पंडित का पुत्र है, को २२. माता-पिता व स्वयं के पुण्य व यश में वृद्धि के हेतु अदृष्ट फल को अंगीकार कर चन्द्र
सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक २३. परम भक्ति के साथ राजाज्ञा से जल हाथ में लेकर दान दिया है। ऐसा मान कर वहां के
निवासियों के द्वारा सदा से दिया जाने वाला भाग भोग २४. कर सुवर्ण आदि सभी कुछ हमारी आज्ञा श्रवण करके पालन करते हुए सदा उसके लिये देते
रहना चाहिये। इस पुण्य फल को समान रूप २५. जान कर हमारे व अन्य वंशों में उत्पन्न होने वाले भावी नरेशों को हमारे द्वारा दिये गये
धर्म के हेतु इस दान को मानना व पालन करना चाहिये। कहा भी है
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है ।।५।। __यहां पूर्व के नरेशों द्वारा धर्म व यश हेतु जो दान दिये गये हैं, निर्माल्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ॥६॥
हमारे उदार कुलक्रम को उदाहरण-रूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये, क्योंकि बिजली की चमक व पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ॥७॥
सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है। अतः अपने अपने काल में आप को इसका पालन करना चाहिये ।।८।।
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ
कर और इन सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥९।। ३२. यह संवत् १०३१ भाद्रपद ३३. सुदि १४, स्वयं हमारी आज्ञा । और यहां दापक श्री कण्हपैक है। ये हस्ताक्षर स्वयं श्री ३४. वाक्पतिदेव के हैं।
उज्जैन का वाक्पतिराजदेव द्वितीय का ताम्रपत्र
(संवत १०३६=९७९ ईस्वी) प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर खुदा हुआ है। ये ताम्रपत्र १९वीं सदी के मध्य में उज्जयिनी के पास एक खण्डहर की खुदाई में प्राप्त हुए थे। इसका प्रथम सम्पादन राजेन्द्रलाल मित्र ने ज. ए. सो. बं, भाग १९, १८५०, पृष्ठ ४७५ व आगे में किया। इसके पश्चात् १८८५ ई० में प्रो. कीलहान ने इं. ऐं, भाग १४, पृष्ठ १५९ व आगे में सम्पादन किया। इस समय ये इंडिया आफिस लाईब्रेरी, लंदन में सुरक्षित हैं।
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१८
परमार अभिलेख
ताम्रपत्र आकार में ३२.३८४ २४.१३ सें. मी. हैं। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। दोनों ताम्रपत्रों में दो-दो छेद बने हुए है जिनमें कड़ियां पड़ी थीं। दोनों ताम्रपत्रों के किनारे कुछ मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं। दोनों ताम्रपत्रों का वजन २.१ किलोग्राम है।
____ अभिलेख ३० पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १७ व दूसरे पर १३ पंक्तियां खुदी हैं। सारा अभिलेख अच्छी हालत में है। दूसरे ताम्रपत्र पर नरेश, के हस्ताक्षर हैं। इसके अक्षरों की बनावट पूर्ववणित धरमपुरी के वावपतिराजदेव द्वितीय के अभिलेख से मिलती है।
__ व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से इसमें कुछ विचारणीय तथ्य हैं। ब के स्थान पर व का प्रयोग सामान्य रूप से किया गया है। र के बाद का व्यंजन दोहरा कर दिया गया है। ये प्रादेशिक व काल के प्रभाव को प्रदर्शित करते हैं। उत्कीर्णकर्ता द्वारा कुछ अन्य अशुद्धियां भी हो गई हैं जो पाठ में सुधार दी गई हैं।
अभिलेख में दान देने व ताम्रपत्र लिखवा कर प्रदान करने की दो विभिन्न तिथियों का उल्लेख है। भूदान देने की तिथि पंक्ति क्र. ११ में शब्दों में संवत्सर एक हजार छत्तीस, कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा दी गई है। उस रात चन्द्रग्रहण था। यह तिथि ६ नवम्बर ९७९ ईस्वी के बराबर निश्चित होती है। आगे पंक्ति २८ में ताम्रपत्र प्रदान करने की तिथि अंकों में संवत् १०३६ चैत्र वदी ८ दी गई है। यह शनिवार २७ मार्च ९८० ईस्वी के बराबर बैठती है। इस प्रकार ताम्रपत्र भूदान के चार मास बाद प्रदान किया गया था।
प्रमुख ध्येय पंक्ति क्र. १२ व आगे में वर्णित है। इसके अनुसार श्री वाक्पतिराजदेव द्वारा महासाधनिक श्री महाइक की पत्नी आसिनी की प्रार्थना पर तिणिसपद्र द्वादशक (१२ ग्रामों का समूह) से संबद्ध सेम्बलपूर ग्राम दान में दिया गया था। ग्रामदान उज्जियिनी भट्टारिका श्रीमत् महेश्वरी देवी के लिये स्नान विलेपन पुष्प गंध धूप और नैवेद्य प्रेक्षण आदि के निमित्त तथा देवगृह में टूट-फूट को ठीक करवाने हेतु दिया गया था। यह देवी उज्जैन में वर्तमान हरसिद्धि देवी है जिसका मंदिर महाकाल मंदिर के पास ही स्थित है। इसकी मान्यता महाकाल के समान ही है।
अभिलेख का प्रारम्भ ओं से होता है जो एक चिह्न द्वारा अंकित है। फिर ईशवन्दनायुक्त भगवान शिव व विष्णु की स्तुति है। तत्पश्चात् दानकर्ता नरेश की वंशावली है जो इसी नरेश के पूर्ववणित संवत् १०३१ के धरमपुरी अभिलेख के समान ही है। इसमें वंश का नामोल्लेख नहीं है। दापक का नाम रुद्रादित्य लिखा है। अन्त में नरेश के हस्ताक्षर हैं।
इस अभिलेख के संबंध में यह विचारणीय है कि भूदान प्रदान करने व दानपत्र लिखवा कर देने में चार मास की देरी क्यों हुई। पंक्ति क्र. १२ में लिखा है कि नरेश द्वारा भगवत्पुर में वास करते हुए महासाधनिक श्री महाइक की पत्नी आसिनी की प्रार्थना पर भूदान दिया गया था, जबकि पंक्ति क्र. २९ में लिखा है कि गुणपुर में महाविजय स्कन्धावार में निवास करते हुए नरेश ने ताम्रपत्र लिखवा कर प्रदान किया था। इनके आधार पर अनुमानतः नरेश वाक्पतिराज देव द्वितीय उत्तर की ओर किसी आक्रमणकारी शत्रु से लोहा लेने अथवा विजय करने के अभिप्राय से अपने सेनाध्यक्ष श्री महाइक के साथ जा रहा था, जब चम्बल नदी के किनारे भगोर में स्थित उसने कार्तिक पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण के अवसर पर उज्जैन भट्टारिका महेश्वरी देवी के निमित्त भूदान दिया। चार मास पश्चात् अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त कर वापिस लौटते हुए धार नगरी के पास गुणावद में महाविजय नामक अपने स्कंधावार अथवा सैनिक पड़ाव में स्थित उसने दानपत्र लिखवा कर निस्सृत कर दिया।
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उज्जैन अभिलेख
१९
इस अभियान में वाक्पतिराजदेव ने कहां पर एवं किस पर विजय प्राप्त की थी सो निश्चित करना सरल नहीं है। परन्तु हमें अन्य साक्ष्यों के आधार पर विदित है कि पश्चिम व उत्तर-पश्चिम की ओर वाक्पतिराजदेव ने तीन विभिन्न नरेशों से युद्ध कर विजय प्राप्त की थी। इनमें गुजरात का चौलुक्य नरेश मूलराज, मेवाड़ का गुहिल वंशीय नरेश शक्तिकुमार और नाडोल का चाहमान वंशीय नरेश बलराज सम्मिलित थे।
अभिलेख में उल्लिखित भौगोलिक स्थानों में भगवत्पुर मन्दसौर जिले में सीतामऊ के दक्षिण-पश्चिम की ओर १७ किलोमीटर की दूरी पर चम्बल नदी पर स्थित भगोर नामक स्थान है। कार्तिक पूर्णिमा को चम्बल नदी में स्नान कर दान देने को आज भी पुण्य माना जाता है। प्रस्तुत दान भी कार्तिक पूर्णिमा को दिया गया था। सेम्बलपुर सीतामऊ से उत्तर-पूर्व को तितरोद से ८ कि. मी. की दूरी पर स्थित सेमलिया है। तिणिपद्र भगोर से उत्तर की ओर ६ कि. मी. की दूरी पर तितरोद ग्राम है। वेस्टर्न स्टेट्स गजटीयर (भाग ५, पार्ट १, १९०७, पृष्ठ ३४८ व ३५०) में सी. ई. लुअर्ड ने उक्त सभी स्थानों को पवित्र स्थल के रूप में निरूपित किया है। गुणपुर संभवतः धार नगर से उत्तर पूर्व की ओर १२ कि. मी. की दूरी पर स्थित लेबड के पास गुणावद है।
महासाधनिक एक सैनिक प्रशासनिक अधिकारी अथवा सैनिक गवर्नर होता था। मेरुतुंग रचित प्रबंधचिन्तामणि में इसी भाव से इस अधिकारी का उल्लेख प्राप्त होता है (देखिये प. रा. इ-डी.सी. गांगुली, पृष्ठ १७६)। उत्तरकालीन संवत् १३३१ तदनुसार १२७४ ईस्वी के जयवर्मन द्वितीय के मान्धाता अभिलेख में साहनीय (संस्कृत : साधनिक) का उल्लेख प्राप्त होता है, जिसका अर्थ डी. सी. सरकार 'सेनाध्यक्ष' लगाते हैं (ऐपि. इं., भाग ३२, पृष्ठ १४१-४२)।
मूलपाठ (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं
यः (याः) स्फुर्जित्फण] भृद्विषानलमिलद्धूभ्र (द्ध म्र)प्रभाः प्रोल्लसन्मूर्धाबद्धशशाङककोटिघटिता याः संहिकेयोपमाः । या[श्चञ्च]
गिरिजाकपोललुलिताः कस्तूरिकाविभ्रमास्ताः श्री कण्ठकठोरकण्ठ[रु]चयः श्रेयांसि पुष्णन्तु वः ।। [१॥] यल्लक्ष्मीवदनेन्दुना न सुखितं यन्नाद्रितं वारिधेर्वारा यन्न निजेन नाभिसरसीपोन शान्ति
. गतम् । यच्छेषाहिफणासहस्रमधुरश्वासन चाश्वासितं तद्राधाविरहातुरं मुररिपोर्बेलद्वपुः
पातु वः ॥[२] परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीकृष्णराजदेव-पादानुध्यात-परम६. भट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीवैरिसिङघ (सिंह) देव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महारा७. जाधिराज-परमेश्वर-श्री सीयकदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमे८. श्वर-श्रीमदमोघवर्षदेवापराभिधान-श्रीमद्वाक्पतिराजदेव-पृथ्वीवल्लभ-श्री वल्लभनरेन्द्र दे९. वः कुशली। तिणिसपद्रद्वादशक-सम्व (संब) द्धमहासाधनिक-श्री महाइकभुक्त-सेम्बलपुरकग्रामे स१०. मुपगतान्समस्तराजपु[रु]षान्वा (ब्राह्मणोत्तरान्प्रतिवासि-पट्टकिल-जनपदादींश्च बोधयति ।
अस्तु वः सम्वि (संवि)
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२०
११. दितम् । यथा ग्रामोयमस्माभिः षट्त शसाहत्रि (त्रि) कसम्व (संव) त्सरेस्मिन्कार्तिकशुद्धपौ (पू) मायां सो
१२. मग्रहणपर्व्वणि श्रीभगवत्पुरा- वासितैरस्माभिर्म्महासाधनिक-श्रीमहाइकपत्नी-आसि१३. नीप्रार्थनयोपरिलिखितग्रामः स्वसीमातृणयूतिगोचर - पर्यन्तः सहिरण्याभागभोगः
१४. सोपरिकरः सर्वादायसमेतः श्रीमदुज्जयन्यां भट्टारिका - श्रीमद्भट्टेश्वरीदेव्यै स्नानविलेप१५. न-पुष्पगन्धधूप [ नै | वेद्यप्रेक्षणकादिनिमित्त]ञ्च तथा खण्डस्फुटितदेवगृह-जगतीसमारचनार्थ१६. ञ्च मातापित्रोरात्मनश्च पुण्ययशोभिवृद्धयेऽदृष्टफलम ङ्गी - कृत्या चन्द्रार्कार्णवक्षितिसमकालं परया भक्त्या शासनेनोदकपूर्व्वकं प्रतिपादित इति मत्वा तन्निवासिपट्ट
१७.
(द्वितीय ताम्रपत्र )
१८. किलजनपदैर्यथादीयमान- भागभोगकरहिरण्यादिकं सर्व्वमाज्ञाश्रवण
१९. विधेमै ( ) र्भूत्वा सर्व्वथा सर्व्वमस्याः समुपनेतव्यं । सामान्यं चैतत्पुण्यफलं वु (बु)ध्वाऽस्म२०. द्वंशजैरन्यैरपि भाविभोक्तृभिरस्मत्प्रदत्तधर्म्मदायोयमनुमन्तव्यः पालनीयश्च । उक्तं च ।
२१.
२२.
२३.
२४.
२५.
२६.
२७.
२८.
ल
व ( ब ) हु
भिर्व्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभि
र्य्यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम् ) ।। [३ । ] यानीह द
पुनराददीत ।। [४ ||] अस्मत्कुलक्रममुदारमुदाहरद्भिरन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं (यम्) ।
१. ओं ।
त्तानि पुरा नरेन्द्रद्दनानि धर्मार्थयशस्कराणि । निर्माल्यवान्तप्रतिमानि तानि को नाम साधुः
क्ष्म्यास्तडित्सलिलबुद्ध ( बुबु ) दचञ्चलाया दानं फलं परयशः प्रतिपालनञ्च ।। [ ५ ।।]
सर्व्वानेतान्भाविनः पा -
परमार अभिलेख
frवेन्द्रान्भूयो भूयो याचते रामभद्रः ।
सामान्योयन्धर्म्मसेतुर्नृपाणां काले काले पालनी
इति कमलदला (बु) बिन्दुलोलां श्रियमनुचिन्त्यम
सकलमिदमुदाहृतञ्च बु (बु) ध्वा न हि पुरुष प
यो भवद्भिः ।। [६ ।।]
नुष्यजीवितं च ।
इति सम्वत् १०३६ चैत्र वदि ९ गुण
२९. पुरावि (वा) सितै (ते) श्रीमन्महाविजयस्कन्धावारे स्वयमाज्ञादापकश्चात्र ३०. श्रीरुद्र (द्रा ) दित्यः । स्वहस्तोयं श्रीवाक्पतिराजदेवस्य ।
अनुवाद ( प्रथम ताम्रपत्र )
कीर्त्तयो विलोप्याः || [ ७ ॥ |]
भुजंग की फैलने वाली विषाग्नि से सम्मिलित धूम्र के समान शोभायमान है, जो मस्तक में लगे चन्द्र के अग्रभाग पर स्थित राहू के समान ( कृष्ण वर्ण ) है और जो चंचल पार्वती
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उज्जैन अभिलेख
२१
के कपोलों पर बिखरी हुई कस्तूरिका के समान है, श्री शिवजी के कण्ठ की ऐसी कांतियां तुम्हारे कल्याणों को पुष्ट करें।।१।।
जो लक्ष्मी के मुखचन्द्र से सुखी नहीं हुआ, जो समुद्र से गीला (शान्त) नहीं हुआ, जो निज नाभिस्थित कमल से शांत नहीं हुआ और जो शेषनाग के हजारों फणों से निकले हुए श्वासों से आश्वस्त नहीं हुआ, वह राधा की विरह से पीड़ित मुरारि का अशान्त
शरीर तुम्हारा रक्षण करे ।।२।। ५. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री कृष्णराजदेव के पादानुध्यायी परम६. भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वैरिसिंहदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजा७. धिराज परमेश्वर श्री सीयकदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर ८. श्रीमत् अमोघवर्षदेव अन्य नामधारी श्रीमत् वाक्पतिराजदेव पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ नरेन्द्रदेव ९. कुशलयुक्त होकर तिणिसपद्र द्वादशक से संबद्ध महासाधनिक श्री महाइक द्वारा भोगे
जा रहे सेम्वलपुर ग्राम में १०. आये हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के निवासियों, पटेलों और ग्रामवासियों
को आज्ञा देते हैं-- आपको ११. विदित हो कि हमारे द्वारा यह ग्राम संवत्सर एक हजार छत्तीस के कार्तिक की शुक्ल पक्ष
___ की पूर्णिमा को १२. चन्द्रग्रहण के पर्व पर श्री भगवत्पुर में वास करते हुए, हमारे द्वारा महासाधनिक श्री
महाइक की पत्नी १३. आसिनी की प्रार्थना पर, ऊपर लिखा ग्राम उसकी सीमा तृण-भूमि सहित गोचर तक साथ में
हिरण्य भाग भोग १४. उपरिकर सब प्रकार की आय समेत श्रीमत् उज्जयिनी भट्टारिका श्रीमत् भट्टेश्वरी देवी
के लिये स्नान १५. विलेपन पुष्प गंध धूप नैवेद्य और प्रेक्षण (जन द्वारा दर्शन) आदि के निमित्त तथा देवगृह
(मंदिर) में टूटफूट को ठीक करवाने हेतु १६. माता-पिता व स्वयं के पुण्य व यश में वृद्धि हेतु अदृष्टफल को स्वीकार कर चन्द्र सूर्य
समुद्र व पृथ्वी के रहते तक के लिये १७. परमभक्ति के साथ राजशासन द्वारा जल हाथ में लेकर दान दिया है। ऐसा मानकर
वहां के निवासियों
(दूसरा ताम्रपत्र)
१८. पटेलों व जनपदों के द्वारा जिस प्रकार से दिये जाने वाला भाग भोग कर सुवर्ण आदि
सभी कुछ हमारी आज्ञा को सुन कर मानते हुए १९. ये सभी पूर्णरूप से उसके लिये देते रहना चाहिये। इस पुण्यफल को समान रूप जान कर २०. हमारे व अन्य वंशों में उत्पन्न होने वाले भावि नरेशों को हमारे द्वारा दिये गये इस
धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये। कहा भी है-- ___ सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है।॥३॥
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२२
परमार अभिलेख
यहां पूर्व के नरेशों द्वारा धर्म व यश हेतु जो दान दिये गये हैं, निर्माल्य एवं क के समान समझ कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ||४||
हमारे वंश के उदार नियमों को मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये, क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल ( इसका ) दान करना और ( इससे ) परयश का पालन करना ही है ॥५॥
इन सभी भावी नरेशों से रामभद्र बार बार प्रार्थना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है । अत: अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिये ॥ ६ ॥
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझकर और इन सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ||७|| २८. यह संवत् १०३६ चैत्र वदि ९
२९. गुणपुर में श्रीमत् महाविजय स्कन्धावार में निवास करते हुए ( यह लिखा गया ) स्वयं हमारी आज्ञा । और यहां दापक
३०. श्री रुद्रादित्य है । ये हस्ताक्षर स्वयं श्री वाक्पतिराजदेव के हैं ।
(६)
गाऊन का वाक्पतिराजदेव द्वितीय का ताम्रपत्र
(संवत् १०३८ = ९८१ ई०)
प्रस्तुत अभिलेख तीन ताम्रपत्रों पर खुदा हुआ है जो १९३१ ईस्वी में उज्जैन के पास नरवल से ३ मील उत्तर-पूर्व को गाऊनरी ग्राम में एक तालाब को खोदते समय प्राप्त हुए थे। इनका प्रथम उल्लेख एम. वी. गर्दे द्वारा ए. रि. आ. डि. ग., संवत् १९६७, पृष्ठ १०-११ पर किया गया। के. एन. दीक्षित ने इनका सम्पादन एपि. इं., भाग २३, १९३५-३६, पृष्ठ १०११११ पर किया । ताम्रपत्र नरवल के राव साहेब के पास सुरक्षित हैं ।
ताम्रपत्रों का आकार ३८x२७ और ४० x २६ सें. मी. है । इनमें लेख एक ओर ही खुदा है । इनके किनारे कुछ मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं। इनमें दो-दो छेद हैं जिनमें तांबे की कड़ियां पड़ी हैं। तीनों ताम्रपत्रों का वजन ६.४३ किलो है ।
अभिलेख ५३ पंक्तियों का है । प्रथम ताम्रपत्र पर २३, द्वितीय पर २० व तृतीय पर १० पंक्तियां खुदी हैं । प्रत्येक पंक्ति में प्राय: ४८ अक्षर हैं । अक्षरों की बनावट सुन्दर है। तीसरे ताम्रपत्र पर दोहरी पंक्तियों के एक चतुष्कोण मुकुटधारी गरुड़ की आकृति बनी है जिसके बायें हाथ में फणदार सर्प है व दाहिना उसको मारने के लिये ऊपर उठा है। यह परमार राजचिह्न है । अक्षरों की बनावट १०वीं सदी की नागरी लिपि है । अक्षर पूर्ववर्णित धरमपुरी अभिलेख के अक्षरों के समान हैं, परन्तु यहां ये कुछ अधिक गोल हैं । भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है । इसमें कुल ९ श्लोक हैं। शेष सारा गद्य में है ।
व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर सर्वत्र व का प्रयोग किया गया है । इसी प्रकार अनेक स्थलों पर श के स्थान पर स और स के स्थान पर श का प्रयोग मिलता है। म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया गया है । कुछ शब्द ही गलत खुदे हैं जो पाठ में ठीक कर दिये गये हैं । इनमें कुछ अशुद्धियां प्रादेशिक व काल के प्रभाव को प्रदर्शित करती हैं एवं कुछ उत्कीर्णकर्ता द्वारा बन गई हैं।
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गाऊनरी अभिलेख
प्रथम ताम्रपत्र कुछ विशेषतापूर्ण है। इस ताम्रपत्र पर पहिले से ही एक अन्य लेख खुदा हुआ था जिसको उत्कीर्णकर्ता द्वारा रगड़ कर मिटाने का प्रयत्न किया गया परन्तु पूर्ण रूप से मिटाया नहीं गया। पूर्वकालीन अभिलेख का अधिकांश भाग अब भी दिखाई देता है और ध्यान करने पर मूल ताम्रपत्र से पढ़ा जा सकता है। यह प्रस्तुत अभिलेख से ५२ वर्ष पूर्व का एक राष्ट्रकूट लेख है। सामान्यतः ऐसा नहीं होता कि एक ही ताम्रपत्र पर इस प्रकार दो विभिन्न नरेशों के लेख एक दूसरे के लेख के ऊपर उत्कीर्ण हों, विशेषतः जब कोई नरेश दानपत्र प्रदान कर अपने व अन्य वंशजों से उस दान का सम्मान करने की प्रार्थना करे। प्रस्तुत अभिलेख में पूर्वकालीन दानपत्र के ऊपर ही नया दानपत्र उत्कीर्ण करवाने की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मालवा के परमार नरेशों व दक्खिन के राष्ट्रकूट नरेशों के मध्य युद्ध की स्थिति थी। यह संभव है कि प्रस्तुत दानपत्र दान प्राप्तकर्ता से छीन लिया गया हो अथवा यह कार्यालयीन प्रति रही हो जो परमार सेनाओं द्वारा दक्खिन में आक्रमण के समय राष्ट्रकूटों के कोषालय की लूट में प्राप्त कर ली गई हो। यह घटना विक्रम संवत् १०२९ तदनुसार ९७२ ईस्वी में घटी होगी क्योंकि प्रख्यात समकालीन विद्वान धनपाल ने अपने ग्रन्थ पाइयलच्छी के अंतिम श्लोकों में लिखा है कि उक्त ग्रन्थ उसने उपरोक्त वर्ष में पूर्ण किया जब मालवाधिपति ने मान्यखेट को लूटा था। ( पाइयलच्छी, वूलर द्वारा सम्पादित, प्रस्तावना, पृष्ठ ६ और श्लोक २७६-७८) । परमार नरेश सीयक द्वितीय ने राष्ट्रकूटों पर आक्रमण कर उनकी राजधानी को लूटा था। इस प्रकार संभव है कि लूट के धन के साथ प्रस्तुत दानपत्र भी मालव कोष में प्राप्त हो गया हो। इसीलिये सीयक द्वितीय के पुत्र वाक्पतिराजदेव द्वितीय ने इस दानपत्र पर से पूर्वकालीन लेख को मिटवाकर उस पर अपना लेख खुदवा कर निस्सृत कर दिया। इस प्रकार हम एक ऐसे ताम्रपत्र की प्राप्ति की समस्या को सुलझा सकते हैं जिसके माध्यम से यद्यपि दक्खिन का ग्राम दान में दिया गया था परन्तु वह अपने मूल स्थान से प्रायः पांच सौ मील उत्तर में प्राप्त हुआ है।
अभिलेख में दो विभिन्न तिथियां दी हुई हैं जिनमें से पहली तो दान देने की तिथि है व दूसरी दानपत्र लिखवा कर प्रदान करने की है। भूदान देने की तिथि पंक्ति क्र. ९ में शब्दों में संवत्सर एक हजार अड़तीस की कर्तिक पूर्णिमा लिखी है। उस दिन चन्द्रग्रहण पड़ा था। विक्रम संवत् से संबद्ध करने पर यह तिथि रविवार १६ अक्तूबर ९८१ ईस्वी के बराबर बैठती है। दानपत्र लिखवा कर प्रदान करने की तिथि भूदान से नौ मास पश्चात् की है। यह तिथि अंकों में पंक्ति क्र. ५२ में संवत् १०३८ द्वितीय आषाढ़ सुदि १० लिखी है जो सोमवार ३ जुलाई ९८२ ईस्वी के बराबर है।
प्रमुख ध्येय पंक्ति क्र. ७-९ में वर्णित है । इसके अनुसार श्री वाक्पतिराजदेव द्वितीय . ने हूण मण्डल में आवरक भोग से सम्बद्ध, वणिका ग्राम में निर्धारित ७८ अंशों को (पंक्ति १४) . २६ ब्राह्मणों के लिये दान दिया था (पंक्ति ४१-४२) ।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मणों की कुल संख्या २६ है जिनका विवरणात्मक उल्लेख अभिलेख की पंक्ति क्र. १४-४० में किया गया है। इस विवरण में क्रमशः मूल देश व स्थान का नाम जहां से देशान्तर-गमन करके दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण मालव राज्य में आया, उसका गोत्र, प्रवर, अध्ययन किये वेद की शाखा का नाम, ब्राह्मण का नाम, उसके पिता का नाम और उसको प्राप्त हुए अंशों के शब्द व अंकों में उल्लेख किये गये हैं। ये सभी संलग्न सूची में दिये गये हैं।
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m:39
1222M
लीहा
तीन
क्रमांक नाम १. सर्वानन्द . २. मूलस्थान ३. लोहिण ४. चन्द्रादित्य
शावर
अग्निहोत्र लोहप ७. दोनाक
अनन्तादित्य वामनस्वामिन् आतुक पुरुषोत्तम गोविन्द स्वामिन्
सिहर १४. शंकर
मधुमथन स्वयंतप नेनैयक
जामट १९. देवेक २०. आवस्थिक शर्वदेव २१. वराह २२. आशादित्य
भाइल देवादित्य
मुंजाल २६. अमात
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मणों की सूची पिता मूलस्थान
वेद की शाखा . गोत्र प्रवर प्राप्त भागर दीक्षित लोकानन्द मगध में कणोपा
ऋग्वेद की वह वच सांकृत्य तीन ब्रह्मपंडित मध्यदेश में अयक
सामवेद की छान्दोग्य वसिष्ठ तीन ईश्वर कावड
यजुर्वेद वाजिमाध्यंदिन गौतम तीन पीतवास चौरम्व
सामवेद की छान्दोग्य शांडिल्य तीन रणादित्य कुलाञ्चा
तीन वासुदेव आशुरेस मंडल में अविवा
वत्स पांच गोसरण दक्षिणी राड़ में विल्वंगवास
पराशर
पांच ( सुरादित्य खडूपल्लिका
यजुर्वेद वाजिमाध्यंदिन मौद्गल्य तीन दीक्षित हरि उत्तरकुल में पौंडिक सामवेद छान्दोग्य गार्ग्य पांच रिसिउल उम्वराचर
यजुर्वेद वाजिमाध्यंदिन अगस्त्य तीन मध्यदेश
मैत्रेय देवस्वामिन् । मधुपालिका
सामवेद छान्दोग्य काश्यप तीन मित्रानन्द श्रवणभट्ट
ऋग्वेद वह वृच
वत्स पांच देवादित्य सावथिका में दर्दुरिका सामवेद छान्दोग्य भार्गव तीन अचल
सावथिका देश में मितिलपाटक यजुर्वेद वाजिमाध्यंदिन पराशर श्रीनिवास खेडापालिका
मौनि खेटक
ऋग्वेद वह वृच भारद्वाज तीन आनोह
माध्यंदिन भार्गव
तीन लाहेट सोपुर
सामवेद कौथुक शांडिल्य श्रीधर खजूरिका
सामवेद छान्दोग्य माहुल तीन माहुल
ऋग्वेद वह वृच वाराह
तीन हरि लाटदेश
यजुर्वेद वाजिमाध्यंदिन काश्यप । तीन लीलादित्य राजकीय
सामवेद छान्दोग्य
वत्स ईश्वर
लाटदेश में नंदिपुर यजुर्वेद वाजिमाध्यंदिन भारद्वाज तीन गुणाकर श्रवणभद्र
वत्स पांच
ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه هه ر له و سه مه له له له اما
१५.
तीन तीन
मधु
१८.
विष्णु
य
तीन
"
तीन
दपुर
पांच
परमार अभिलेख
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गाऊनरी अभिलेख
५
पंक्ति क्रमांक ४-७ में वाक्पतिराज देव द्वितीय की वंशावली है। इसमें क्रमशः कृष्णराजदेव, वैरिसिंह व सीयकदेव के नामोल्लेख हैं जिनके साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां “परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर" लगी हैं। वाक्पतिराजदेव का अन्य नाम अमोघवर्षदेव दिया है। जो उसका मूल नाम था। आगे उसके नाम के साथ अन्य राजकीय उपाधियां "पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ नरेन्द्रदेव” जुड़ी हैं। यहां वंश का नामोल्लेख नहीं है।
वणिका ग्राम को कुल ७८ भागों में विभाजित कर २६ ब्राह्मणों को दान में दिया गया था। औसत रूप से इस प्रकार प्रत्येक ब्राह्मण को ३ भाग प्राप्त हुए थे। यद्यपि २ ब्राह्मणों को केवल एक-एक भाग और नौ को दो-दो भाग ही प्राप्त हुए। ऋग्वेदी ब्राह्मणों को विशेष सम्मान प्राप्त था। इसी कारण ऐसे चार ब्राह्मणों को कुल १९ भाग प्राप्त हुए थे। दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मणों की सूची में प्रथम नाम सर्वानन्द का है जिसको सर्वाधिक आठ भाग प्राप्त हुए थे। यह ब्राह्मण मगधदेश के अन्तर्गत कणोपाभद्र ग्राम से देशान्तर-गमन करके मालव देश में आया था। यह स्थान बिहार राज्य के पटना संभाग में शाहबाद जिले में स्थित केन्या अथवा केन्वा ग्राम होना चाहिये।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण व रोचक सूचना यह प्राप्त होती है कि उस काल में भारत के विभिन्न प्रदेशों से विद्वान ब्राह्मण देशान्तर-गमन करके मालव राज्य में आये और यहां पर शासनकर्ता परमार राजवंशीय नरेशों द्वारा उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर विभिन्न पारितोषकों व भूदानों द्वारा विभूषित किये गये। यह देशान्तर-गमन अधिकतर बंगाल देश से हआ जहां विभिन्न वेदों में पारंगत ब्राह्मण बहुसंख्या में विद्यमान थे। यहां तक कि उत्तर-काल में यह किंवदन्ति प्रचलित हो गई कि बारहवीं शती में बंगाल में विद्वान ब्राह्मण ही शेष नहीं रह गये। इसीके अनुरूप दोनाक नामक ब्राह्मण (क्रमांक ७) दक्षिणी राढ़ के अन्तर्गत विल्वगवास से देशान्तरगमन कर के मालव राज्य में आया था व उसको पांच भाग भूमि प्राप्त हुई थी। शावर (क्र. ५) नामक ब्राह्मण कुलाञ्चा से आया था। यह स्थान कोलांच अथवा क्रोडञ्च नामक ब्राह्मणों के एक मूल स्थान के समान ही है जो असम, उत्तरी बिहार और उड़ीसा के राज्यों में भूदान प्राप्त करते थे। यह स्थान संभवतः उत्तरी बंगाल के बोगरा जिले में कुलञ्च ही है। एक अन्य स्थान शावथिका देश है जिसकी समता बंगाल में उत्तरी बोगरा व दक्षिणी दिनाजपुर जिलों के भूभाग से संभव है। आसाम के एक नरेश इन्द्रपाल के एक अभिलेख में सावथि व उसके अन्तर्गत वैग्राम नामक स्थान का उल्लेख मिलता है (कामरूप शासनावली, पृष्ठ १३७)। बोगरा जिले के उत्तर पश्चिमी भाग में वैग्राम स्थान पर एक गुप्तकालीन ताम्रपत्र अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें उसका नाम वायिग्राम लिखा है। अतः सावथि देश अथवा श्रावस्ति में वोगरा जिले का उत्तरी भाग सम्मिलित था। प्रस्तुत अभिलेख में इस भूभाग में दो ग्रामों दुर्दरिका और मितिल पाटक के उल्लेख हैं, जिनका समीकरण क्रमशः वोगरा जिले में पंचवीवी थाने के अन्तर्गत दद्र ग्राम, मितैल अथवा मितैलपारा से किया जा सकता है। बंगाल से देशान्तर-गमन करके मालव राज्य में आने वाले ब्राह्मण अधिकतर सामवेद की छान्दोग्य शाखा के थे। यह इस कारण भी महत्वपूर्ण है कि बंगाल में उत्तरकाल में भी सामवेद की इसी शाखा के ब्राह्मणों की प्रधानता रही है।
मध्यदेश, जो मोटे रूप से आधुनिक उत्तर प्रदेश के बराबर था, कम से कम तीन दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मणों का मूल निवास था। परन्तु उसके अन्तर्गत उल्लिखित यक या
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परमार अभिलेख
अयक का समीकरण सरल नहीं है। उत्तर कुलदेश, जिसके अन्तर्गत पौंड्रिक ग्राम से एक ब्राह्मण (क्र. ९) आया था, निश्चित ही गंगा के उत्तर में कोई भूभाग रहा होगा । श्रवणभद्र, जो दो ब्राह्मणों (क्र. १३ व २६) का मूल निवास स्थल कहा गया है, का उल्लेख भोज देव के तिलकवाडा दानपत्र अभिलेख में भी प्राप्त होता है। यह स्थान उत्तरी भारत में कनौज के पास ही होना चाहिये क्योंकि उक्त अभिलेख के सुरादित्य का कुटुम्ब “कन्नौज से निकला" लिखा मिलता है। कल्चुरि नरेश रत्नदेव तृतीय के सरखो ताम्रपत्र अभिलेख में ( एपि. इं., भाग २२, पृष्ठ १५९ व आगे) इसका नाम 'मध्यदेश में सोणभद्र' लिखा है जो वत्सवंशीय ब्राह्मणों की एक शाखा का मूल स्थान कहा गया है। खेटक (क्र. १७) गुजरात राज्य का खेडा जिला है। लाट देश में नंदिपुर (क्र. २५) नर्मदा नदी पर स्थित आधुनिक नान्दोद है। खंडापालिका व खडुपल्लिका (क्र. १६ व ८) तो खेडावाल अथवा खेडौलिया के समान ही एक स्थान का नाम है जो संभवतः खेडावाल ब्राह्मणों का मूल निवास स्थान था। अन्य नाम खजूरिका, सोपुर, दपुर, अविवा व राजकीय ग्राम प्रायः मालव राज्य के अन्तर्गत अथवा इसके आस पास ही स्थित थे। वैसे खजुरिया नाम उज्जैन के आसपास बहुत प्रचलित है। मधुपालिका संभवतः मझौली के समान ही है जो ग्राम-नाम रूप से उत्तर प्रदेश में काफी प्रचलित है। इस प्रकार ब्राह्मणों के मूल निवास स्थानों के बारे में प्रस्तुत अभिलेख में पर्याप्त सूचना है जो स्वयं में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। गणना करने पर यह तथ्य सामने आता है कि ब्राह्मणों का सर्वाधिक आगमन बंगाल से हुआ था, इसके पश्चात अन्य प्रदेशों जैसे उत्तर प्रदेश, गुजरात आदि का स्थान है।
यह निर्धारण करना सरल नहीं है कि नरेश द्वारा भूदान देने और ताम्रपत्र लिखवा कर दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण को प्रदान करने में नौ मास का अन्तर क्यों है। संभव है कि नरेश इस अवधि में आसपास प्रदेशों पर विजय करने अथवा आक्रमणकारी शत्रु से युद्ध करने में व्यस्त रहा हो । अभिलेख में इस अन्तर का कोई कारण नहीं दिया गया है।
___ अभिलेख में उल्लिखित हूणमंडल से तात्पर्य उत्तरी मालवा में हूणों के अधीन प्रदेश से है। प्रतीत होता है कि इस युग में हूणों द्वारा प्रशासित अनेक क्षेत्र थे। पद्मगुप्त रचित नवसाहसांक चरित (सर्ग ११, श्लोक क्र. ९०) व अनेक परमार अभिलेखों में सीयक द्वितीय, वाक्पतिराजदेव द्वितीय व सिन्धुराजदेव द्वारा हूणों पर विजय प्राप्त करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। नवीं शती के मन्दसौर स्तम्भ लेख (का. इं. इं, भाग ३, पृष्ठ १५२ व आगे; डा. डी. सी. सरकार, सेलेक्ट इंस्क्रिपशन्स, भाग १, पृष्ठ ३२७, पादटिप्पणी ४) से ज्ञात होता है कि यशोधर्मन ने हूण नरेश मिहिरकुल को हराया था । उत्तरकालीन परमार नरेश उदयादित्य की तिथिरहित उदयपुर प्रशस्ति (क्र. २२) से ज्ञात होता है कि वाक्पतिराजदेव के पिता श्री सीयकदेव ने हूणों को परास्त किया था । कल्चुरि नरेश कर्ण की साम्राज्ञी आवल्लदेवी हूण नरेश की पुत्री कही गई है। अनुमान होता है कि प्रस्तुत अभिलेख का हूण मंडल संभवतः उज्जैन व मन्दसौर जिलों का मध्यवर्ती कुछ भाग रहा होगा। आवरक भोग संभवतः उज्जैन के उत्तर-पूर्व में आधुनिक आगर के पास अवार ग्राम था । इस ग्राम से प्रायः १५ मील उत्तर-पश्चिम में वेन्का नामक ग्राम है जो प्रस्तुत अभिलेख का वणिका ग्राम है।
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गाऊनरी अभिलेख
२७
मूलपाठ (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
याः स्फुजत्फणभृद्विषानलमिलद्ध म्र[प्र]भाः प्रोल्लसन्मू‘व (ब)द्वशशाङककोटिघटिता याः सैंडिह (संहि) केयोपमाः । याश्चच (ञ्च)गिरिजा
कपोललुलिता[:]कस्तूरिकाविभ्रमास्ताः श्रीकण्ठकठोरकण्ठरुचयः श्रेयान्सि (यांसि) पुष्णन्तु वः ।। [१] यल्लक्ष्मीवदनेदु (नेन्दु) ना न सुखितं यन्ना
तिम्वारिधेारा यन्न निजेन[ना]भिसरसीपोन शान्तिङ्गतं (तम्) । यच्छेषाहिफणासहस्रमधुरश्वासन चाश्वासितं तद्राधाविरहा
तुरं मुररिपोर्बेल्लद्वपुः पातु वः ॥ [२] परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीकृष्णराजदेव-पादानुध्यात-परमभट्टार५. क-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीवैरिसिङह (सिंह) देव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजा
धिराज-परमेश्वर-श्रीसीयकदेव-पादानु६. ध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीमदमोघवर्षदेवापराभिधान-श्रीमद्वाक्पतिराज
देव-पृथ्वीवल्लभ७. श्रीवल्लभनरेन्द्रदेवः कुशली। यथा हूणमंडले आवरकभोग-सम्व (म्ब) द्धपूर्वभोक्तृभिर्भुक्तभुक्ति
क्रमेण यथासम्ब (म्ब)[य]मा८. न[:] समस्ततलकैः सहित (ते) वणिकाग्रामे समुपगतान्समस्तराजपुरुषान्द्रा (ब्रा) ह्मणोत्तरान्प्रति
वासि-पट्ट]किलजनप[दा]९. दींश्च वो (बो) धयत्यस्तु वः सम्वि (संवि)दितं । यथा अतीताष्टतृस (त्रिंश) दुत्तरसाहसिकसम्व
(संवत्सरेस्मिन् कात्तिक्यां सोम] ग्रहणपर्वणि १०. स्नात्वा चराचरगुरुं भगवन्तं भवानीपतिमभ्यर्च्य सन्सा (संसा) रस्यासरतां दृष्ट्वा । वाताभ्रविभ्रममिदं वसु[धा]धिपत्यमापातमात्र
मधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्तृणाग्रजलविन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ॥३॥] भ्रमत्सन्सा (संसा) रचक्रा
ग्रधाराधारामिमां श्रियं (यम्) । प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चात्तापः परं फलं (लम्) ॥[४] इति जगतो विनश्वरं सकलमिदमाकलय्या (यो)परिलिखि१३. त ग्रामः स्वसीमातृणकाष्ट (ष्ठ) यूतिगोचरपर्य्यन्त (तः) सवृक्षमालाकुल (लः) सहिरण्यभाग
भोग (गः) सोपरिकरः सादायसमेतः उ१४. परिलिखित ग्रामेस्मिन् कल्पितांश अष्टसप्ततेमध्यात् मगद्ध (ध) देशान्तःपाति कणोपाभट्टग्राम
_ विनिर्गतसांकृत्यसगोत्रतृ (त्रि)१५. प्रवरव (ब) ह वृचशाखिने वा(ब्रा)ह्मण--सर्वानंदाय पण्डितदीक्षित]लोकानंदसूनवे अंशाऽष्टौ
(ष्टकं) ८ मध्यदेशान्तःपातित्यकभट्टग्राम१६. विनिर्गत वासिष्ठसगोत्रतृ (त्रि)प्रवरछ (च्छ)न्दोगशाखिने ब्रा (ब्रा)ह्मण-मूलस्थानाय आवस्थिक
व्र (ब) ह्मपण्डितसूनवे अंशत्रयं
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परमार अभिलेख
१७. ३ कावडभट्टग्राम - विनिग (र्ग) तगौतम सगोत्र - तृ (त्रि) प्रवर वाजिमाध्यन्दिन - शाखिने व्रा (ब्रा) ह्मण लोहिणा इ (ई) श्वरसूनवे अंशत्र
१८. यं ३ चौरम्व (म्ब) भट्टग्रामविनिर्गत-सा (शां ) डिल्य सगोत्र-तृ (त्रि) प्रवरच्छंदोगशाखिने व्रा (ब्रा) ह्मण चंद्रादित्यपि (पी) तवामसूनवे अंशचतुष्टयं ४
१९. कुलांचाग्राम-विनिर्गत- सां (शां ) डिल्य - सगोत्र - तृ (त्रि ) प्रवरछं (च्छं ) दोगशाखिने व्रा (ब्रा) ह्मणशाव (ब) राय रना (णा) दित्यसूनवे अंशद्वयं २ अशुरेस मंडलान्तःपा
२०. ति अविवाग्राम - विनिर्गत-वत्स सगोत्र- पंचप्रवरछं (च्छं ) दोगशाखिने व्रा (ब्रा)ह्मण पंडिताग्निहोतृ (त्रि) लोहपाय वासुदेवसूनवे अंशचतुष्ट
२१. यं ४ दक्षिणराढान्तः पाति- विल्वगवा (ग्रा) मविनिर्गत पारास (श) र सगोत्र - पंचप्रवर-छं (च्छं) - दोगशाखिने व्रा (ब्राह्मणदीनाकाय गो
२८
२२. सरणसु (सू) नवे अंशपंच (पञ्चकं ) ५ खडुपल्लिकाग्रा [म] व [नि ]र्गत मौद्गल्यसगोत्रतृ (त्रि ) - प्रवरवाजिमाध्यंदिन- शाखिने व्रा (ब्रा) ह्मण - अनन्तादित्या
२३. य सुरादित्य-सु (सू) नवे अं
(द्वितीय ताम्रपत्र )
२४. शद्वयं २ उत्तरकुल देशान्तः पाति-पौण्डरिक भट्टग्रामविनिर्गत-गार्ग्यसगोत्र- पंचप्रवरछं (च्छं)दोगशाखिने व्रा (ब्रा) ह्मण-वाम
२५. नश्वा ( स्वा) मिने दीक्षितहरिसु (सू) नवे अंशत्रयं ३ उम्वराचर-विनिर्गत अगस्त्यसगोत्र-तृ (त्रि ) - प्रवर- वाजिमाध्यन्दिन - शाखिने व्रा (ब्रा) ह्म
२६. ण आतुकाय रिसिउलसूनवे अंशमेकं १ मध्यदेशान्तः पाति- मैत्रेय सगोत्र-तृ (त्रि) प्रवर- वाजिमामाध्यन्दिनशाखिने व्रा (ब्राह्मण-पुरुषोत्तमाय
२७. लीहासूनवे अंशचतुष्टयं ४ मधुपालिकाग्राम - विनिर्गत कास्य ( श्य) पसगोत्र - तृ ( त्रि) प्रवरछं (च्छ) दोगशाखिने व्रा (ब्रा) ह्मण-गोविन्दश्वा (स्वा) मिने देवश्वा (स्वा) मि
२८. सूनवे अंशत्रयं ३ श्रवणमद्र - विनिर्गत वत्स सगोत्र - पञ्चप्रवर- व (ब) ह्वृचशाखिने ब्रा (ब्रा) ह्मणसिहटाय मित्रानंदसूनवे अंशचतुष्टयं ४
२९. शावथिकान्तःपाति-दर्दुरिका - ग्राम विनिर्गत- भार्गवसगोत्र-तृ (त्रि) प्रवरछ (च्छं) दोग-शाखिने ar (ब्राह्मणसं (शंकराय देवादित्यसूनवे अंशद्वयं
३०. २ सावथि [का]देशान्तः पाति-मितिलपाटक-विनिग (र्ग) त - पराशरसगोत्र (त्रि ) प्रवर- वाजि - माध्यंदिनशा खिने व्रा (ब्रा) ह्मण - मधुमथनाय अ
३१. चलसूनवे अंशद्वयं २ खेडापालिका - विनिर्गत मौनिसगोत्र-तृ (त्रि) प्रवर- वाजिमाध्यं दिन शाखिने व्रा (ब्रा)ह्मण-स्वयंतपाय श्रीनिवास
३२. सूनवे अंशत्रयं ३ खेटकविनिर्गत भारद्वाजसगोत्र - तृ (त्रि ) प्रवर व ( ब ) ह, वृचशाखिने व्रा (ब्रा) ह्मण नैकाय मधुसूनवे अंशचतुष्टयं ४ -
३३. नोहभट्टग्राम - विनिर्गत भार्गवसगोत्र - तृ (त्रि) प्रवर- वाजिमाध्यंदिनशाखिने व्रा (ब्रा) ह्मण-जामटाय विष्णुसूनवे अंशद्वयं २ तथा तस्यैव म्रा
३४. त्रे व्रा (ब्रा)ह्मण देदेकाय अंशद्वयं २ सोपुरविनिर्गत शांडिल्य - सगोत्र - तृ (त्रि) प्रवरकौथुमशाखिने व्रा (ब्राह्मण-आवस्थिक- स ( श ) र्व्वदेवाय लोहटसून
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गाऊनरी अभिलेख
३५. वे अंशद्वयं २ खर्जुरिकाग्राम-विनिर्गगत-माहुलसगोत्रतृ (त्रि) प्रवरछं (च्छं) दोगशाखिने वा (बा)
हाण-वराहाय श्रीधरसूनवे अंशचतुष्टयं ४ ३६. दपुरविनिर्गत-वाराहसगोत्र-तृ (त्रि)प्रवर-व (ब)ह बृच-शाखिने ब्रा (ब्रा)ह्मण-आशादित्याय - माहुलसूनवे अंशेत्रयं ३ (ला)ट-देशविनिर्गत३७. कास्य (श्य)प-सगोत्र-त (त्रि) प्रवर-वाजिमाध्यंदिनशा खिने बा(ब्राह्मण-भाइलाय हरिसूनवे
अंशमेकं १ राजकीय ग्राम] -विनिर्गत-वत्सस- . ३८. गोत्र-पंचप्रवरछं (च्छं) दोग-शा[खि]ने वा(ब्राह्मण-देवादित्याय लीलादित्यसूनवे अंशद्वयं २
.लाट शान्तःपाति-नान्दिपुरविनिर्गत-भार३९, द्वाजसगोत्र-तृ (त्रि) प्रवर-वाजिमाध्यन्दिन-शाखिने वा (ब्रा)ह्मण-मुंजालाय इ (ई)श्वर-सूनवे
अंशद्वयं २ श्रवणभद्र-विनिर्गात-वत्स४०. सगोत्र-पञ्चप्रवर-वाजिमाध्या (ध्य)न्दिन-शाखिने वा (ब्रा)ह्मणा-मात्त (त्य ? ) गुणाकरसु (सू) नवे
अंशत्रयं ३ एवमनुक्रमेण उ४१. परिलिखितग्रामोयं उपरिलिखित-वा (ब्रा) ह्मणेम्यः षद्वि (अवि ) शतिभ्यः मातापित्रोरात्मनश्च
पुण्ययशोभिवृहयेऽदृष्टफल४२. मङ्गीकृत्याचन्द्रार्कार्णवक्षितिसमकालं परया भक्त्या शासनेनोदक-पूर्वकं प्रतिपादित इति मत्वा
तंनि (नि)वासिप४३. ट्टि (?) किल-जनपदैर्यथादीयमान-भागभोगः (ग)-करहिरण्यादिकं सर्वमाज्ञाश्रवण-विधेयैर्भूत्वा सर्वदा एतेषां उ- . .
(तृतीय ताम्रपत्र) ४४. परिलिखित-निव (ब)द्धक्रमेण सम्पनेतव्यं । सामान्यं चैतत्युण्यफलं वु(बु)[वा]ऽस्मद्वंश
जैरन्यैरपि भा-- ४५. विभोक्तृमि रस्मत्प्रदत्तधर्मदायोयं (य)मनुमन्तव्यः । पालनीयश्च । उक्तञ्च ।
व (ब) हुमिसुधा भुक्ता राजभिः ४६.
सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्) ॥५॥] यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रनानि धर्मार्थय
शस्कराणि। निर्माल्यवान्तप्रतिमानि तानि को नाम शा (सा)धुः पुनरा[द]दीत ।। [६॥] अस्मत्कुलक्रममुदारमुदाहरद्भिर
* न्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीय (यम्) । लक्ष्म्यास्तडित्सलिलवुदु (बुबु) द-चंचलाया दानं फलं परयशः परिपालन
. च॥[७] सर्वानेतान्भाविनः पार्थिवेन्द्रान्भूयो भूयो याचते. रामभद्रः । सामान्योयं धर्मसेतु पाणां
___ काले काले पालनीयो भवद्भिः ।।८।। इति कमलदलाम्बुवि (बुबि)न्दुलोलां श्रियम
नुचिन्त्य मनुष्यजीवितञ्च । सकलमिदसु (मु) दाहृतं च वु (बु) वा न हि पुरुषैः पर
- कीर्तयो विलोप्याः ।।९।। इति सम्(सं)वत् १०३८ द्विराषाढ़शु (सु)दि १० स्वयमाज्ञा५३. दापकश्चात्र श्रीरुद्रादित्यः । स्वहस्तोयं श्री वाक्पतिराजदेवस्य ।
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परमार अभिलेख
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं
__ जो भुजंग के फैलने वाली विषाग्नि से सम्मिलित धूम्र के समान शोभायमान है, जो मस्तक पर लगे चन्द्र के अग्रभाग पर स्थित राहू के समान (कृष्ण वर्ण) है और जो चंचल पार्वती के कपोलों पर बिखरी हुई कस्तूरिका के समान है, श्री शिवजी के कण्ठ की ऐसी कांतियां तुम्हारे कल्याणों को पुष्ट करें ॥१॥
जो लक्ष्मी के मुखचन्द्र से सुखी नहीं हुआ, जो समुद्र से गीला (शान्त) नहीं हुआ, जो निज नाभिस्थित कमल से शांत नहीं हुआ और जो शेषनाग के हजारों फणों से निकले हुए श्वासों से आश्वस्त नहीं हुआ, वह राधा की विरह से पीड़ित मुरारि का अशान्त शरीर तुम्हारा
रक्षण करे ॥२॥ ४. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री कृष्णराज देव के पादानुध्यायी परमभट्टारक ५. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वैरिसिंहदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज
परमेश्वर श्री सीयकदेव के ६. पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमत् अमोघवर्षदेव अन्य नाम
श्रीमत् वाक्पतिराजदेव पृथ्वीवल्लभ ७. श्रीवल्लभ नरेन्द्रदेव कुशल युक्त होकर हूणमण्डल में आवरक भोग से सम्बद्ध पूर्व नरेशों द्वारा
भोगने एवं छोडने के क्रम से जिस प्रकार संबंधित हो इस ८. प्रकार सभी तालाबों सहित वणिका ग्राम में आये हुए सभी राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आस
पास के अन्य निवासियों. पटेलों और ग्रामवासियों ९. को आज्ञा देते हैं-आप को विदित हो कि इस संवत्सर के एक हजार अड़तीस वर्ष की कार्तिक
के सोमग्रहण पर्व पर १०. स्नान करके चर व अचर के स्वामी भगवान भवानीपति (शिव) की अर्चना कर, संसार की
असारता देख कर__ इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।।३।। _घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को
पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥ १२. यह जगत नाशवान है, यह सभी समझ कर ऊपर लिखा १३. ग्राम उसकी सीमा तण काष्ठ सहित गोचर तक, साथ में वक्षों की माला से व्याप्त, हिरण्य भाग
भोग उपरिकर सभी प्रकार की आय समेत १४. ऊपर लिखे इस ग्राम में निर्धारित ८ अंशों को मगध देश के अन्तर्गत कणोपामद्द ग्राम से देशान्तर
गमन करके आये सांकृत्य गोत्री १५. त्रिप्रवरी वह वृच शाखी पंडित दीक्षित लोकानन्द के पुत्र ब्राह्मण सर्वानन्द के लिये आठ ८ अंश
मध्यप्रदेश के अन्तर्गत अयक (त्यक) भट्टग्राम १६. से निकले वसिष्ठगोत्री त्रिप्रवरी छान्दोग्य शाखी आवस्थिक ब्रह्मपंडित के पुत्र ब्राह्मण
मूलस्थान के लिये तीन ३ अंश
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गाऊनरी अभिलेख
३१
१७. कावडभट्ट ग्राम से निकले गौतमगोत्री त्रिप्रवरी वाजिमाध्यंदिन शाखी ईश्वर के पुत्र ब्राह्मण
लोहिण के लिये तीन ३ अंश १८. चौरम्बभट्ट ग्राम से आये शांडिल्य गोत्री त्रिप्रवरी छान्दोग्य शाखी पीतवामसुत ब्राह्मण
चन्द्रादित्य के लिये चार ४ अंश १९. कुलांचा ग्राम से निकले शांडिल्य गोत्री त्रिप्रवरी छान्दोग्य शाखी रणादित्य के पुत्र ब्राह्मण शावर
के लिये दो २ अंश अशुरेस मंडल के अन्तर्गत २०. अविवा ग्राम से आये वत्स गोत्री पंचप्रवरी छांदोग्य शाखी वासुदेव के पुत्र ब्राह्मण पंडित
अग्निहोतृ लोहपाय के लिये चार २१. ४ अंश दक्षिणी राढ़ के अन्तर्गत विल्वग्राम से आये पाराशर गोत्री पंचप्रवरी छान्दोग्य
शाखी के गोसरण पुत्र ब्राह्मण दीनाक के लिये २२. पांच ५ अंश खडूपल्लिका ग्राम से आये मौदगल्य गोत्री त्रिप्रवरी वाजिमाध्यंदिन शाखी
ब्राह्मण अनन्तादित्य २३. के लिये (जो) सुरादित्य का पुत्र (है)
(दूसरा ताम्रपत्र)
२४. दो २ अंश उत्तरकुल देश के अन्तर्गत पौंड्रिक भट्ट ग्राम से आये गार्ग्य गोत्री पंचप्रवरी छान्दोग्य
शाखी दीक्षित हरि के पुत्र ब्राह्मण वामनस्वामि . २५. के किये तीन ३ अंश उम्बराचर से आये अगस्त्य गोत्री त्रिप्रवरी वाजिमाध्यन्दिन शाखी ब्राह्मण २६. रिसिउल के पुत्र आतुक के लिये एकः १ अंश मध्यदेश के अन्तर्गत (ग्राम ? ) मैत्रेय गोत्री
त्रिप्रवरी वाजिमाध्यन्दिन शाखी ब्राह्मण लीहा के पुत्र पुरुषोत्तम २७. के लिये चार ४ अंश मधुपालिका ग्राम से आये काश्यप गोत्री त्रिप्रवरी छान्दोग्य शाखी ब्राह्मण
देवस्वामी के पुत्र गोविन्द स्वामी के लिये २८. तीन ३ अंश श्रवणभद्र से आये वत्स गोत्री पंचप्रवरी वह वृचशाखी ब्राह्मण मित्रानन्द के
पुत्र सिहट के लिये चार ४ अंश २९. शावथिका के अन्तर्गत दर्दुरिका ग्राम से आये भार्गव गोत्री त्रिप्रवरी छान्दोग्य शाखी ब्राह्मण
देवादित्य के पुत्र शंकर के लिये दो २ अंश ३०. सावथिका देश के अन्तर्गत मितिलपाटक से आये पराशर गोत्री त्रिप्रवरी वाजिमाध्यंदिन शाखी
ब्राह्मण अचल के पुत्र मधुमथन के लिये ३१. दो २ अंश खेडापालिका से आये मौनि गोत्री त्रिप्रवरी वाजिमाध्यंदिन शाखी ब्राह्मण
श्रीनिवास के पुत्र स्वयंतप के लिये ३२. तीन ३ अंश खेटक से आये भारद्वाज गोत्री त्रिप्रवरी बह वृच शाखी ब्राह्मण मधु के पुत्र
नेनैयक के लिये चार ४ अंश ३३. आनोहग्राम से आये भार्गव गोत्री त्रिप्रवरी माध्यंदिन शाखी ब्राह्मण विष्णु के पुत्र जामट के
लिये दो २ अंश तथा इसी प्रकार उस के भाई ३४. ब्राह्मण देदेक के लिये दो २ अंश सोपुर से आये शांडिल्य गोत्री त्रिप्रवरी कौथुम शाखी ब्राह्मण
लोहट के पुत्र ब्राह्मण आवस्थितः शर्व के लिये ३५. दो २ अंश खजूंरिका ग्राम से आये माहुल गोत्री त्रिप्रवरी छान्दोग्य शाखी ब्राह्मण श्रीधर के पुत्र
वराह के लिये चार ४ अंश
C
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३२
परमार अभिलेख
३६. दपुर से आये वाराह गोत्री त्रिप्रवरी वह वृचशाखी ब्राह्मण माहुल के पुत्र आशादित्य के लिये
तीन ३ अंश लाट देश (ग्राम ? ) से आये ३७. काश्यप गोत्री त्रिप्रवरी वाजिमाध्यंदिन शाखी ब्राह्मण हरि के पुत्र भाइल के लिये एक १ अंश
राजकीय ग्राम से आये वत्स गोत्री ३८. पंचप्रवरी छान्दोग्य शाखी ब्राह्मण लीलादित्य के पुत्र देवादित्य के लिये दो २ अंश लाट
देश के अन्तर्गत नन्दिपुर से आये ३९. भारद्वाज गोत्री त्रिप्रवरी वाजिमाध्यंदिन शाखी ब्राह्मण ईश्वर के पुत्र मुंजाल के लिये दो २ अंश
श्रवणभद्र से आये वत्स४०. गोत्री पंचप्रवरी वाजिमाध्यंदिन शाखी ब्राह्मण गुणाकर के पुत्र अमात के लिये तीन ३ अंश
इस प्रकार क्रम से ४१. ऊपर लिखे इस ग्राम को ऊपर लिखे छब्बीस ब्राह्मणों के लिये माता पिता व निज पुण्य व यश
की वृद्धि के लिये अदृष्ट फल ४२. को स्वीकार कर चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक के लिये अत्यन्त भक्तिपूर्वक राजाज्ञा द्वारा
जल हाथ में लेकर दान दिया है । इसको मान कर वहां के निवासियों ४३. पटेलों ग्रामीणों के द्वारा जिस प्रकार दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि इस आज्ञा को मानकर सदा इनको
(तीसरा ताम्रपत्र) ४४. ऊपर लिखे बद्धक्रम से देते रहना चाहिये और इसका सामान्य पुण्यफल जान कर हमारे वंश व
अन्यों में होने वाले भावी ४५. नरेशों को मेरे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये । और
कहा है___ सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है ।।५।।
यहां पूर्व नरेशों ने धर्म व यश हेतु जो दान दिये हैं, निर्माल्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति इसे वापिस लेगा ॥६॥
हमारे वंश के उदार नियमों को मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ।।७।।
सभी भावी नरेशों से रामभद्र बार बार प्रार्थना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये एक समान धर्म का सेतु है , अतः अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिये ।।८।।
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ
कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिए ।।९।। - ५२. इति संवत् १०३८ द्वितीय आषाढ़ सुदि १० और यहां स्वयं आज्ञा । ५३. दापक श्री रुद्रादित्य है । ये हस्ताक्षर स्वयं श्री वाक्पतिराजदेव के हैं।
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गाऊनरी अभिलेख
(७)
गाऊनरी का वाक्पतिराजदेव द्वितीय का ताम्रप्रत्र
( संवत् १०४३ = ९८६ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है । ये ताम्रपत्र पूर्ववर्णित ताम्रपत्रों के साथ प्राप्त हुए थे । इनका उल्लेख एम. बी. गर्दे एवं सम्पादन के. एन. दीक्षित द्वारा उन ही ताम्रपत्रों के साथ किया गया था ।
३३
ताम्रपत्रों का आकार ३२x२५ सें. मी. व ३३x२५.३ सें. मी. है । इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है । दोनों में दो-दो छेद बने हैं जिन में कड़ियां पड़ी हैं । इनके किनारे मोट हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं । दोनों का वजन ३.१४० किलोग्राम है ।
I
अभिलेख २९ पंक्तियों का है । प्रथम ताम्रपत्र पर १६ व दूसरे पर १३ पंक्तियां अक्षरों की बनावट सुन्दर है । ताम्रपत्रों पर नरेश के हस्ताक्षर नहीं हैं । न ही गरूड़ का राजचिन्ह है । फिर भी यह माना जा सकता है कि यह राजकीय अभिलेख है । ये ताम्रपत्र पूर्ववणित ताम्रपत्रों के साथ जुड़े हुए प्राप्त हुए थे जो पूर्णतः राजकीय अभिलेख है । अतः भूल से अथवा जानकर इन पर हस्ताक्षर व राजचिन्ह अंकित नहीं किये गये ।
भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है । इसमें कुल नौ श्लोक हैं, शेष गद्य में है । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से इसमें कुछ विचारणीय तथ्य हैं । ब के स्थान पर वश के स्थान पर स का प्रयोग सामान्य रूप से किया गया है । र के बाद का व्यंजन दोहरा कर दिया है । म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग है । कहीं २ पर शब्द ही त्रुटिपूर्ण लिखे हैं जो उत्कीर्ण कर्ता की लापरवाही के कारण हैं । सभी त्रुटियां पाठ में सुधार दी गई हैं ।
तिथि पंक्ति ११ में शब्दों में व पंक्ति २९ में अंकों में दी है । यह "त्रिचत्वारिस सम्वत्सर सहस्र माघे मासि उदगयन पर्व्वणि " लिखी है । इसका भाव “त्रिचत्वारिशदधिके... अर्थात् संवत् एक हजार तेंतालीस माघ मास में उदगयन पर्व है । यह तिथि बुधवार, २२ दिसम्बर ९८६ ईस्वी के बराबर बैठती है । ताम्रपत्र लिख कर प्रदान करने की तिथि संवत् १०४३ माघ मास वदि १३ है, जो मास को पूर्णिमान्त मानकर गणित करने पर शुक्रवार ३० दिसम्बर, ९८६ ईस्वी के बराबर होती है ।
प्रमुख ध्येय पंक्ति ९ व आगे में वर्णित है । इसके अनुसार वाक्पतिराजदेव द्वितीय ने उपरोक्त तिथि को पूर्वपथक में निवास करते हुए उदगयन पर्व पर पुण्या ( ? ) नदी में स्नान कर भगवान भवानिपति की पूजा कर अवन्तिमंडल में उज्जयिनी विषय पूर्वपथक से सम्बद्ध म भक्ति में कच्छिक ग्राम दान में दिया ।
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दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण मगध के अन्तर्गत कणोपा ग्राम से देशान्तरगमन करके आया संकृतिगोत्री वह वृच आश्वलायन शाखी त्रिप्रवरी दीक्षित लोकानन्द का पुत्र सर्वानन्द था । वाक्पतिराजदेव के पूर्ववर्णित संवत् १०३८ के ताम्रपत्र में दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मणों की सूची में सर्वप्रथम इसी ब्राह्मण का उल्लेख है, जब इसको सब से अधिक ८ भाग प्राप्त हुए 1 अतः संभव है कि वह प्रस्तुत ताम्रपत्र के दान-ग्राम में ही निवास कर रहा था । यह तथ्य भी रोचक है कि दोनों ताम्रपत्रों का प्राप्तिस्थान जहां पहले ग्राम से ४० अभिलेख के ग्राम से केवल ३ मील की दूरी पर है ।
मील की दूरी पर है, वहीं प्रस्तुत
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परमार अभिलेख
पंक्ति ५-८ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जो पूर्ववणित अभिलेख के समान ही है। वंश का नामोल्लेख नहीं है । अभिलेख का अन्त मंगल से होता है ।
वाक्पतिराजदेव द्वितीय का यह प्राप्त अभिलेखों में अंतिम है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उसने संवत् १०४३ के बाद राज्य नहीं किया । अमितगति रचित सुभाषित-रत्न संदोह में वर्णन है कि वह ग्रन्थ वाक्पतिराजदेव के शासनकाल में संवत् १०५० तदनुसार ९९३९९४ ई. में पूर्ण किया था (देखिये काव्यमाला सीरीज, क्रमांक ८२, पृष्ठ १०४, श्लोक ९२२, सम्पादक भवदत्त शास्त्री एवं परब, बंबई, १९०३) । वाक्पतिराज मुंज के प्रतिद्वन्दी तैलप द्वितीय की मृत्यु संवत् १०५४ तदनुसार ९९७ ईस्वी से कुछ ही पूर्व हुई थी (बाम्बे गजटीयर जिल्द १, भाग २, पष्ठ ४३२) । अतः वाक्पतिराजदेव द्वितीय का वध इन दोनों तिथियों के बीच किया गया होगा ।
भौगोलिक स्थलों में अवन्तिमण्डल मालवा का पश्चिमी भाग था । इसका केन्द्र उज्जैन था । अतएव उज्जयनी विषय पूर्वपथक निश्चित रूप से उज्जयिनी एक विषय के रूप में था । पूर्वपथक वस्तुतः उज्जयिनी का प्रशासकीय पूर्वी भाग था । वाक्पतितिराजदेव के संवत् १०३१ के धरमपुरी ताम्रपत्र में पश्चिम पथक का उल्लेख है । मद्धक भुक्ति संभवतः आधुनिक महु क्षेत्र था । वर्तमान में महु नरवल' से प्रायः ४० मील की दूरी पर है। कडहिच्छक ग्राम वर्तमान में नरवल से ३ मील उत्तरपश्चिम में स्थित कर्च या कड़च ग्राम है । पुण्याम्र नदी का अर्थ होता है 'पवित्र नदी।' लगता है यहां लेखक नदी का नाम लिखना भूल गया है । कणोपा ग्राम 'बिहार में पटना संभाग के शाहबाद जिले में केन्या या केन्वा नामक ग्राम होगा ।
२..
मूल पाठ (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
याः स्फुर्जत्फणभृद्धिषानलमिद्भूमप्रभाः प्रोल्लसन्मू‘व (ब) द्धशशांकोटिघटिता याः
सैहिकेयोपमाः । याश्चंचगिरिजाकपोललुलिताः कस्तूरिका विभ्रमास्ता श्रीकण्ठकठो
___ रकण्ठरुचयः श्रेयांसि पुष्णन्तु वः । [१] यल्लक्ष्मीवदनेन्दुना न सुखित (तं) यन्नादितं वारिघेारा यन्न नि
जेन नाभिसरसीपद्मन शान्ति (न्तिं) गतं (तम्) । यच्छेषाहिफणासहस्रमधुरश्वासैन चाश्वासै (सितं तद्राधाविरहा
तुरं मुररिपोर्वेल्लद्वपुः पातु वः ।। [२] परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीकृष्णराजदेव६. पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीवैरिसिङह(सिंह)देव-पादानुध्यात-परमभ७. ट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसीयकदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-प८. रमेश्वर-श्रीमदमोघवर्षदेवापराभिधान-श्रीवाक्पतिराजदेव-पृथ्वीवल्लभ-श्रीवल्लभनरेन्द्रदेवः. ९. कुशली । अवन्तीमण्डले श्रीमदुज्जयनी-विषय-पूर्वपथक-सम्व' (म्ब)ध्यमान-मद्धक-भुक्त (क्तौ)
कडहिच्छक
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गाऊनरी अभिलेख
३५
१०. ग्रामे समुगतान्समस्त-राजपुरुषान्ना (ब्रा)ह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि-पट्टकिल-जनपदादींश्च वो (बो)११. धयत्यस्तु वः सम्वि (संवि)दितं यथा। पूर्णपथकावास्थितरस्माभिस्त्रिचत्वारिस (रिंशदधिके)
सम्वत्सर सहस्र माघे मासि १२. उदगयनपर्वणि। पुण्याभ्रसरिति स्नात्वा चराचरगुरुं भगव (वं) तमम्वि (म्बि) कापतिमभ्यर्च्य
.स (सं) सारस्यासा१३. रतां दृष्ट्वा ।
वाताम्रविम्रमिदं वसुधाधिपत्य मापातमात्र मधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्तृणा
ग्रजलविदु(विन्दु) समा नराणां धर्मः सखा परमहो परलाकयान ।। [३] भ्रमत्संसार चक्राग्रधारा धारामिमां
श्रियं (यम्)। प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चात्तापः परम्फलम् ।। [४॥] इति जगतो विनश्वरं सकलमिदमाकल१६. य्य । अयमुपरि-समारोपित-ग्रामः । स्वसीमातृणगोचर-गोयूतिपय (य)न्तः सवृक्षमालाकुल- .
(द्वितीय ताम्रपत्र) १७. श्चतुष्कंकटवि[शुद्धः समस्त-भागभोगकर-हिरण्यादायसमेतः । मगधांतःपाति कणोपाग्राम-विनिर्ग १८. ताय । स (सं)कृत्ति-सगोत्राय व (ब)ह वृचे-आश्ला (श्वला) यन-सा (शा)खाय त्रिप्रवराय दीक्षित
लोकानन्द सु[ता]य वा (ब्राह्मण१९. सर्वानन्दाय । पित्रो रात्मनश्च पुण्ययशोभि वृद्धये अदृष्टफलमङ्गोकृत्याचन्द्रार्का ण्णव-क्षिति सम२०. कालं परया भक्त्या सा (शा)सनेनोदकपूर्वम्स (वंस) प्रतिपादित इत्यवेत्यात्रत्यजनपदैर्यथा (थो)
त्पद्यमान-भा२१. गभोगादिकमाज्ञाश्रवणविधेयभू (भू )त्वा सदा सर्वमस्यै समुपनेतव्यं । सामान्यं चैतत्पुण्यफलं
वु(बु)ध्वा । २२. अस्मद्वंस (श)जैरन्यैश्च भाविभोक्तृभिरस्मत्प्रदत्त धर्मदायोयमनुमं तव्यः पालनीयश्च । व(ब) हुमिसुधा
भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्)।। [५॥] यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्र
नानि धर्मार्थ यशस्कराणि । । निर्माल्यवान्त प्रतिमानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत ।। [६॥ सर्वानेता
भाविनः पार्थिवेंद्रान्भूयो भूयो याचते रामभद्रः । सामान्योयम्धर्मसेतु पाणां काले काले
पालनीयो भवदभिः ।। [७] अस्मत्कुलक्रममुदारमुदाहरद्भिरन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं (यम्) । लक्ष्म्यास्तडित्सलिल वुद्व (बुबु)दचञ्चलायादानंफलं परयशः परिपालनं च ।। [८॥ इति कमलदलाम्वुवि (बुबि)- ..
__न्दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च । सकलमिदमुदाहृतं च वु(बु)ध्वा न हि पुरुषः परकीर्त-.
यो विलोप्याः ।। [९] सम्वत् (संवत्) १०४३ माघवदि १३ । मंगलं महाश्रीः।।
२६.
२९.
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३६
परमार अभिलेख
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
__जो भुजंग की फैलने वाली विषाग्नि से सम्मिलित धूम्र के समान शोभायमान है, जो मस्तक पर लगे चन्द्र के अग्रभाग पर स्थित राहू के समान (कृष्णवर्ण) है और जो चंचल पार्वती के कपोलों पर बिखरी हुई कस्तूरिका के समान है, शिवजी के कण्ठ की ऐसी कांतियां तुम्हारे कल्याणों को पुष्ट करें॥१॥ ___ जो लक्ष्मी के मुखचन्द्र से सुखी नहीं हुआ, जो समुद्र से गीला (शांत) नहीं हुआ, जो निज नाभिस्थित कमल से शांत नहीं हुआ और जो शेषनाग के हजारों फणों से निकले हुए श्वासों से आश्वस्त नहीं हुआ, वह राधा की विरह से पीड़ित मुरारि का अशान्त शरीर तुम्हारा रक्षण
करे ॥२॥ ५. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री कृष्णराजदेव । ६. के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वैरिसिंहदेव के पादानुध्यायी ७. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सीयकदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक
महाराजाधिराज ८. परमेश्वर श्रीमान अमोघवर्षदेव अन्य नाम श्रीवाक्पतिराजदेव पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ नरेन्द्रदेव । ९. कुशलयुक्त होकर अवन्ति मंडल में श्रीमान उज्जयनी विषय पूर्वपथक से सम्बद्ध मद्धक भुक्ति
में कडहिच्छक १०. ग्राम में आए हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के अन्य निवासियों, पटेलों और
ग्रामवासियों को ११. आज्ञा देते हैं—आपको विदित हो कि पूर्वपथक में ठहरे हुए हमारे द्वारा संवत् एक हजार
तेतालीस माघ मास में १२. उदगयन पर्व पर पुण्याभ्र नदी में स्नान कर, चर व अचर के स्वामी भगवान अम्बिकापति
(शिव) की पूजा कर संसार की असारता १३. देखकर
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भमात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानवप्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाली जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।।३।।
घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार के समान आती जाती रहने वाली इस लक्ष्मी को पाकर
जो दान नहीं करते, इनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥ १५. यह जगत नाशवान (है), यह सभी विचार कर १६. यह ऊपर दान दिया गया ग्राम अपनी सीमा तृण गोचर गोयूति तक, साथ में वृक्ष पंक्तियों से व्याप्त
(दूसरा ताम्रपत्र) १७. जिसकी चारों सीमाएं निश्चित हैं, सारे भाग भोग कर हिरण्य व आय समेत मगध के
अन्तर्गत कणोपा ग्राम से आए १८. संकृति गोत्री वह वृच आश्वलायन शाखी त्रिप्रवरी दीक्षित लोकानन्द के पुत्र ब्राह्मण १९. सर्वानन्द के लिए माता, पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिए अदृष्ट फल को स्वीकार
कर चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक
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मोडासा अभिलेख
२०. के लिए परमभक्ति के साथ राजाज्ञा द्वारा जल हाथ में लेकर दिया है। यह जान कर यहां आए
ग्रामवासियों के द्वारा जैसा उत्पन्न होने वाला २१. भाग भोग आदि आज्ञा को सुनकर पालन करते हुए सदा सभी कुछ उसके लिए देते रहना
चाहिए। और इसका समान रूप फल जानकर २२. हमारे वंश में उत्पन्न हुए व अन्यों में होने वाले भावी नरेशों को मेरे द्वारा दिए गए इस धर्मदान
को मानना व पालन करना चाहिए ।
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब २ उसी को उसका फल मिला है॥५॥ __ यहां पूर्व नरेशों ने धर्म व यश हेतु जो दान दिए हैं वे निर्माल्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ।।६।।
सभी भावी नरेशों से रामभद्र बार बार प्रार्थना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिए सामान्य धर्म का सेतु है। अतः अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिए ।।७।।
हमारे वंश के उदार नियमों को मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये, क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक हल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ॥८॥ ___ इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमल दल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ
कर और इस सब पर विचार कर मनुष्य को परकीति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥९॥ २९. संवत् १०४३ माघ वदि १३ । मंगलंमहाश्री।
(८) मोडासा का भोजदेव कालीन ताम्रपत्र
(संवत् १०६७=१०११ ई०)
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है । ये ताम्रपत्र सन् १९४४ में आर. पी. सोनी ने गुजरात राज्य के साबरकांठा जिले में मोडासा नामक स्थान से प्राप्त किये थे । यह स्थान अहमदाबाद से प्राय: ५२ मील उत्तर-पूर्व को माघम नदी के किनारे पर स्थित है । इस का प्रथम उल्लेख हरप्रसाद शास्त्री ने भारतीय विद्या भाग ५ , १९४५, सप्लीमेंट, पृष्ठ ३४-४० पर किया था। फिर इसका उल्लेख एन्नुअल रिपोर्ट ऑफ एपिग्राफी, १९५७-५८, क्र. ए-२३ पर किया गया । डी. सी. सरकार ने एपि. इं. भाग ३३, १९५९-६०, पृष्ठ १९२-१९८ पर इसका सम्पादन किया । वर्तमान में ताम्रपत्र मोडासा महाविद्यालय में सुरक्षित हैं ।
. ताम्रपत्रों का आकार १९x१३.५ सें. मी. है। ये काफी पतले हैं । इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है । इनमें केवल एक-एक छेद है । इनका वजन १.८ किलोग्राम है । अभिलेख २१ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १५ व दूसरे पर ६ पंक्तियां हैं । अक्षरों की बनावट सामान्य है । यह ११ वीं सदी की नागरी लिपि है। भाषा संस्कृत है, परन्तु कुछ प्राकृत मिश्रित प्रतीत होती है । संभवतः इसी कारण अत्यन्त त्रुटिपूर्ण है । सारा अभिलेख गद्य में है । यह एक निजि लेख है ।
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परमार अभिलेख
- व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, स के स्थान पर श, श के स्थान पर स का प्रयोग किया गया है । म् के स्थान पर अनुस्वार लगा दिया है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है । कुछ शब्द ही गलत लिखे हैं । ये सभी स्थान व काल का प्रभाव प्रदर्शित करते हैं । कुछ त्रुटियां लेखक एवं उत्कीर्णकर्ता द्वारा बन गई हैं । ' , तिथि प्रारम्भ में पंक्ति १ में शब्दों में व पंक्ति २ में अंकों में लिखी है । यह संवत् १०६७ ज्येष्ठ सुदि १ रविवार है । वर्ष को कार्तिकादि मानने पर यह रविवार ६ मई, १०११ ईस्वी के बराबर बैठती है ।
प्रमुख ध्येय पंक्ति ६-९ में वर्णित है । इसके अनुसार श्री भोजदेव के राज्य में मोहडवासक अर्धाष्टम मण्डल में भोक्तृ महाराजपुत्र श्री वत्सराज द्वारा शयनपाटक ग्राम में दो हल भूमि, जिसमें कोद्रव तिल मूंग चावल गेहूं आदि उत्पन्न होता था, साथ में ग्राम-मध्य में एक घर, खलिहान व धान्य सभी कुछ शासन द्वारा लिखकर दान में दिये गये।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण का विवरण पंक्ति ७-८ व पुनः पंक्ति ११-१२ में लिखा है । इसके अनुसार वह हर्षपुर से आया उपमन्यु गोत्री, गोपादित्य का पुत्र, वल्लोटकवासी चतुर्जातक शास्त्र के अध्ययन में संपन्न श्रेष्ठ ब्राह्मण देई अथवा देद्दाक था । - अभिलेख की पंक्ति ३-६ में शासनकर्ता नरेश की वंशावली दी हुई है। इसमें सर्वश्री सीयकदेव, वाक्पतिराजदेव, सिंधुराजदेव और भोजदेव के नामोल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं । वंश का नामोल्लेख नहीं है।
पंक्ति क्र. ६-७ में भोजदेव के अधीन मोहडवासक अर्धाष्टम (७३) मंडल में शासनकर्ता वत्सराज का उल्लेख है जिसको भोत्कार महाराजपुत्र कहा गया है। अभिलेख के अन्त में पंक्ति २० में इसको वच्छराज, जो वत्सराज का प्राकृत रूप है, लिखा है। यहां भोत्कार महाराजपूत्र संभवतः भोक्त महराजपुत्र का ही अशुद्ध रूप है। यदि ऐसा है तो डी. सी. सरकार के शब्दों में मानना होगा कि यहां वत्सराज को हो महाराजपुत्र कहा गया है, क्योंकि वह भोजदेव का अभी तक अज्ञात पुत्र है। अन्यथा वाक्यांश 'भोत्कार महाराजपुत्र श्री वत्सराज' का यह अर्थ लगाना होगा कि वत्सराज एक सामन्त का पुत्र था जिसका नाम भोत्कार महाराज था। परन्तु इसकी संभावना न्यून है। भोजदेव की राजसभा के एक कवि नयनन्दि ने बच्छराज (वत्सराज) को भोज का एक माण्डलिक लिखा है (अनेकान्त, नवम्बर १९५६, पृष्ठ ९९)। भोक्त शब्द से यह ध्वनित होता है कि मोहडवासक अर्द्धाष्टम मण्डल वत्सराज को सैनिक सहायता के बदले भोजदेव से मिली एक जागीर थी।
अगली चार पंक्तियों में दान का उपरोक्त विवरण है। परन्तु दानवाले भाग की भाषा अत्यन्त त्रुटिपूर्ण है। इसका यह भी अर्थ निकल सकता है कि दानकर्ता वास्तव में ब्राह्मण देई या देद्दाक था और श्री वत्सराज ने तो केवल इसको पुष्टि की थी। परन्तु इसकी संभावना न्यून है। प्राचीन भारतीय वाङ्गमय में उपानस्य गोत्र का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। संभव है कि यह औपमन्यव का ही भ्रष्ट रूप हो । दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण को वल्लोटकीय व चातुर्जातकीय लिखा है। आगे की पंक्ति १३ में वल्लोटकीय शब्द कुछ अन्य ब्राह्मणों के लिये भी प्रयुक्त किया गया है। ये ब्राह्मण या तो वल्लोटक नामक किसी स्थान के निवासी थे अथवा इस नाम के किसी ब्राह्मण समुदाय से संबंधित थे। चातुर्जातकीय का भाव संभवतः 'चतुर्जातक का सदस्य' है। डी. सी. सरकार के मतानुसार इस प्रकार यह चार व्यक्तियों के एक मंडल के सदस्य के रूप
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मोडासा अभिलेख
में हैं जो राजस्थान के चौथिया के समान है। परन्तु जातक का भाव फलित ज्योतिष भी होता है। यदि ऐसा है तो कहना चाहिये कि "चार ज्योतिषियों के मंडल का सदस्य"।।
पंक्ति १३-१५ में दान में दी गई भूमि के पाश्विकों के नाम हैं। यहां पाश्विकों से तात्पर्य शयनपाटक ग्राम में दान दी गई दो हल भूमि के पड़ोस में स्थित भूस्वामियों के नामों से है। पाश्विकों की सूचि में निम्नलिखित व्यक्तियों के नाम राज्याध्यक्ष को विदित हैं-ब्राह्मण ताट, नाट व पाहीय जो वल्लोटकीय थे, ब्राह्मण गोवर्द्धन, केलादित्य, ठकुर राणक जो दन्तिवर्म का पुत्र था, पटेल झम्बाक व गोग्गक ।
इसी प्रकार पंक्ति १६-१९ में साक्षियों की सूची है जिनके सामने अभिलेख लिखा गया था। इनमें संकशक का अधिपति ठकुर केशवादिय तथा ताम्पालीक, मेहर अर्थात ग्राम मखिया वल्लभराज, श्रेष्टिन जाउडि तथा भभ जो दोनों ही कपिष्ट के पुत्र थे, वेइवश, गढयति, संगम और कील्ला का पुत्र ठकुर चंद्रिका। यहां संकशक का ठीक अर्थ लगाना कठिन है। यह शब्द संकर्षक अर्थात कृषक नहीं हो सकता, क्योंकि 'कृषकों का अधिपति' का अनुमान लगाना ही कठिन है। अतएव यह किसी कबीले अथवा समदाय का नाम हो सकता है।
अभिलेख अनेक कारणों से महत्वपूर्ण है। यह महान परमार नरेश भोज देव के शासनकाल से संबंधित सर्वप्रथम प्राप्त अभिलेख है। इसके माध्यम से भोज का साम्राज्य साबरकांठाअहमदाबाद तक विस्तृत होना प्रमाणित होता है जो गुजरात के चौलुक्यों अथवा सोलंकी समकालीन नरेशों की राजधानी अन्हिलपाटन से बहुत दूर नहीं था।
जैनाचार्य मेरुतुंग (प्रबन्ध चिन्तामणि, टानी का अंग्रेजी अनुवाद पृष्ठ ३१ व आगे) व कुछ अन्य प्रबन्धकारों ने एक किंवदन्ति का उल्लेख किया है कि परमार नरेश वाक्पति मुंज
उत्तराधिकारी उसका छोटा भाई सिंधराज न होकर सिन्धराज का पत्र भोज देव था। परन्तु पद्मगुप्त रचित नवसाहसांक चरित (सर्ग ११, श्लोक, ९८) व परमार राजवंशीय अभिलेखों के साक्ष्य से उस किंवदन्ति का खण्डन होता है। प्रस्तत ताम्रपत्र, जो यद्यपि एक अधीनस्थ सामन्त द्वारा निजी रूप में दानरूप प्रदान किये गये थे. में भी सिंधराज के लिये पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभटारक महाराजाधिराज परमेश्वर प्रयक्त की गई हैं और उसको वाक्पतिराजदेव द्वितीय का उत्तराधिकारी व भोजदेव का पूर्वज निरूपित किया गया है। आचार्य मेरुतुंग के अनसार (प्रबन्ध चिन्तामणि, पष्ठ ३३-३६) वाक्पति मंज चालक्यों के विरुद्ध अपने सातवें व अंतिम आक्रमण में चालक्य नरेश तैलप द्वितीय द्वारा हरा कर बन्दी बना लिया गया एवं बाद में उसकी हत्या कर दी गई। तैलप द्वितीय के पुत्र महामंडलेश्वर आहवमल्ल सत्याश्रय के धारवार जिले में चिक्केरूर से प्राप्त अभिलेख, जिसकी तिथि शक संवत् ९१७ फाल्गुन सुदि १५ शनिवार तदनुसार १८ फरवरी, ९९५ ईस्वी है, से ज्ञात होता है कि इस समय वह उत्पल अर्थात वाक्पतिमुंज से युद्ध करने हेतु उत्तर की ओर प्रस्थान कर रहा था। (एपि. इं. भाग ३३, पृष्ठ १३१ व आगे)। आहवमल्ल सत्याश्रय इस समय धारवार के भूप्रदेश में अपने पिता तैलप द्वितीय का प्रान्तपति था। इससे ज्ञात होता है कि परमार नरेश वाक्पतिमुंज फरवरी ९९५ ई. के बाद हो किसी समय परास्त कर बन्दी बनाया गया था। इस अभिलेख के समय परमार नरेश निश्चित रूप से चालुक्य साम्राज्य की ओर अग्रसर हो रहा था। अतः चालुक्य युवराज का अपने पिता के साम्राज्य के दक्षिणी भाग से उत्तरी भाग को ओर अभिगमन वास्तव में परमार आक्रमण से सुरक्षा हेतु चालुक्य नरेश तैलप द्वितीय का अपनी सैनिक शक्ति में वृद्धि की योजना का ही एक अंग था। फलतः परमार नरेश परास्त कर बन्दी बना लिया गया और ९९७ ईस्वी में
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परमार अभिलेख
तैलप द्वितीय की मृत्यु से पूर्व उसका वध कर दिया गया। नवसाहसांकचरित् ( पर्व ११, श्लोक ९८) के साक्ष से ज्ञात होता है कि ( ९९५ ईस्यों के प्रारम्भ में) वाक्पतिराज मुंज के चालुक्य राज्य पर अंतिम आक्रमण के प्रयाण करने के समय मालव राज्यसिंहासन पर उसका छोटा भाई सिंधुराज उसके प्रतिनिधि के रूप में आरूढ़ हो गया था। बाद में वाक्पतिराज की जीवनलीला के अन्त हो जाने का समाचार पा कर सिंधुराज अपने भाई का उत्तराधिकारी बन गया और उसने पूर्ण राजकीय उपाधियां धारण कर स्वतंत्ररूप से शासन करना प्रारम्भ कर दिया । इस प्रकार सिंधुराज का शासन ९९५ ईस्वी के प्रारम्भ में निर्धारित करना ही युक्तियुक्त है ।
सिंधुराज के शासनकाल की अवधि व इसके पुत्र भोजदेव के सिंहासनारूढ़ होने की तिथि निर्धारित करना निश्चित प्रमाणों के अभाव में अत्यन्त कठिन है । कुछ विद्वानों ने सुझाव दिया है कि भोज देव का राज्यारोहण १००५ ईस्वी में हुआ था, परन्तु कतिपय विद्वान उसका राज्यारोहण १०१० ई. में निश्चित करते हैं (देखिये वूलर द्वारा संपादित पाईया लच्छी, प्रस्तावना पृष्ठ ९; एपि. इं. भाग १, पृष्ठ २३२-३३ ) | परन्तु मेरुतुंग कृत प्रबंधचिन्तामणि व बल्लाल रचित भोजप्रबंध में एक निश्चित किंवदन्ति का उल्लेख है जिसमें भोजदेव के शासनकाल की अवधि दी हुई है। डी. सी. सरकार के मतानुसार कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं है जिससे इसकी सत्यता पर विश्वास क्यों न किया जावे। इसके अनुसार भोजदेव ने ५५ वर्ष ७ मास ३ दिन शासन किया था :--
पञ्चाशत्पञ्चवर्षाणि सप्तमासं दिनत्रयम् । भोजदेवेन भोक्तव्यः सगौडोदक्षिणापथः ।।
( भोजप्रबंध संपादन वासुदेव पणशीकर पृष्ठ २; प्रबंधचिन्तामणि संपादन दुर्गाशंकर केवलराम शास्त्री पृष्ठ ३२ )
भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह की प्रारम्भिक ज्ञात तिथि इसके मान्धाता ताम्रपत्र ( अभिलेख क्र. १९ एपि. ई. भाग २, पृष्ठ ४६, भांडारकर सूची क्र. १३२ - श्री वूलर अपर्याप्त साधनों के आधार पर भोज की मृत्यु १०६२ ईस्वी के पश्चात निश्चित की थी) जो संवत् १११२ आषाढ़ वदी १३ तदानुसार रविवार १३ जून १०५६ ईस्वी में निस्सृत किया गया था, से ज्ञात होती है । भोजदेव की राजसभा के एक कवि दशवल ने अपने ग्रन्थ 'चिन्तामणि सार्णिका' की रचना शक संवत् ९७७ तदनुसार १०५५-५६ ईस्वी में की थी ( जर्नल आफ ओरियंटल रिसर्च, १९५२, भाग १९, खण्ड २, सप्लीमेंट) । इसके आधार पर भोज के शासन की अंतिम तिथि ज्ञात हो सकती है । इस प्रकार निष्कर्षरूप से कहा जा सकता है कि भोजदेव ने प्रायः १००० ई. से १०५५ ई. तक राज्य किया था । अतएव उसके पिता सिंधुराज ने ९९५ ई. से १००० ई. तक अर्थात प्रायः पांच वर्ष तक राज्य किया होगा । नवसाहसांकचरित् में वर्णित सिंधुराज की विजयों के बारे में मनगढ़न्त कथाओं के आधार पर इसको अधिक लम्बे काल का शासन निर्धारित करने में संकोच होना स्वाभाविक है । (एपि. इं., भाग १, पृष्ठ २३२-३३; डी. सी. गांगुली, परमार राजवंश का इतिहास, पृष्ठ ५८-५९ । वैसे भी नवसाहसांक चरित का रचनाकाल अनिश्चित है, यद्यपि यह १००५ ईस्वी में निर्धारित करने का सुझाव भी है - सम्पादन पंडित वामन शास्त्री इस्लामपुरकर, १८९५; इं. ऐं., भाग ३६, पृष्ठ १६३ ) । प्राप्त अभिलेखों में प्रस्तुत अभिलेख ही भोज के शासनकाल का सर्वप्रथम है । अतएव भोजदेव के कुल शासन की अवधि का प्रश्न भविष्य में इससे पूर्व तिथि के अभिलेख अथवा अन्य साक्ष्य तक अनिर्णीत ही मानना चाहिए ।
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मोडासा अभिलेख
४१
. प्रस्तुत अभिलेख से ज्ञात होता है कि गुजरात का साबरकांठा-अहमदाबाद भूभाग भोजदेव के साम्राज्य के अन्तर्गत था। अभी तक हमें यही विदित था कि उक्त भूभाग भोजदेव के पितामह सीयक द्वितीय (९४८-९७४) ईस्वी के अधीन था। प्रस्तुत अभिलेख से ज्ञात होता है कि मूलराज (९६१-९९६ ई.) द्वारा अन्हिलपाटन में चौलुक्य शक्ति की स्थापना करने पर भी उक्त भूभाग सीयक द्वितीय व उसके उत्तराधिकारियों के अधीन बना रहा । यह तथ्य भी विचारणीय है कि चौलुक्य मूलराज व उसके उत्तराधिकारी के अभिलेखों में साबरमती नदी के ऊपरी भाग के पूर्व दिशा में स्थित किसी स्थान का उल्लेख नहीं है। अत: यह मानना होगा कि इस काल में चौलुक्य राज्य की पूर्वी सीमा यहीं तक थी (ए. के. मजुमदार-चौलुक्याज़ ऑफ गुजरात, पृष्ठ ३२)।
अभिलेख में उल्लिखित भौगोलिक स्थानों में मोहडवासक प्रस्तुत अभिलेख का प्राप्ति स्थल मोडासा है। यह उक्त काल में एक मण्डल था जो अर्धाष्टम मंडल के नाम से प्रख्यात था। श्री सीयक द्वितीय के संवत् १००५ के हरसोल अभिलेख में भी मोहडवासक का एक मंडल के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है। शयनपाट ग्राम मोडासा से उत्तर की ओर ६ मील की दूरी पर स्थित सिनवाद या सेनवाद ग्राम है। हर्षपुर जहां से दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण निकल कर आया था संभवतः साबरकांठा जिले का हरसोल ग्राम ही है । यह भी संभव है कि यह परवर्ती परमार नरेश देवपाल देव के संवत् १२७५ का हरसूद ही हो जो मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के अन्तर्गत है। यदि यह किसी स्थान का नाम हो तो वल्लोटक संभवतः शयनपाट ग्राम के पास ही कोई स्थान रहा होगा।
मूलपाठ (अग्रभाग)
१. सिद्धम् । संवत्सर शतेषु दशशु (सु) सप्तषप्टय (ष्टय)धिकेप्र (शु) ज्येष्ठ-शुक्ल-पत्क (पक्ष) प्रतिप२. दायां संवत् १०६७ ज्येष्ट (ष्ठ)- [शु]दि १ रवायेह समस्त वृ(ब)हद्राजावली३. प्व(पू)व-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेस्व (श्व)र-श्रीसोयकदेव पदनुध्यत (पादानुध्यात)
प४. रमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेस्व (श्व) र-श्रीवाक्पतिरज (राज) देव-पादानुध्यत (ध्यात)
परमभट्टारक-मह (हा) राज (जा)धिराज-परमेस्व (श्व) र-श्रीसिंधुराजदेव-प(पा) दानुध्य (ध्या)त
परमभट्टारक-म६. ह (हा) राज (जा)धिराज-परमेस्व (श्व) र-श्रीभोजदेव-राज्ये श्री मोहडवा[शा (स)] कार्ड्सष्टम
मंडले ७. भोत्कार-महाराजपुत्र-श्री वत्सराजो (ज) इहैव वल्लोटकीय-चातुर्जातकीय-[श्रुताध्य८. यन-संपन (न)-प्रवर-वा (ब्रा)ह्मण-देईस्य (य) [श]यनपाटग्रामे-प्रदत्त-हलद्व९. य-भूमी (मि) सा (शा)सनं प्रयछ (च्छ) यत्येवं यथा [श]यनपाटग्रामे कोद्रवतिक मुद्रि]१०. व्रीहि-कन्ति (णि) क-आदि-क्षेत्रभूमि स्वचतुराघट्टनयंयत्या (राघाटसंयुक्ता) तथा ग्राममध्ये
गृह-खल११. धान्य-समेताऽस्य वा (ब्रा)ह्मणस्य हर्षपुर-विनिर्गताय उपानस्य (औपमन्यव ?) सगोत्राय१२. गोपादित्य- [सु]ताय चातुर्जातकीय-वी (वि)प्र-देद्दाकस्य (काय) धर्मा (म) हेतवे सा (शा) सना
क (का) रेण प्रद
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परमार अभिलेख
१३. ता भूमी (मि)-पारशि (शिव) का ल(लि)ख्यत्ता (न्ते) राजाध्य[क्ष]-विदितः व [ल्लो]टकीया
वा (ब्राह्मणाः तात: नाट: १४. ता (त)था पाहीयः वा (ब्रा) ह्मण-गोवर्द्धनः केल (ला)दित्यः दन्तिवर्म-सुत-ठक्कुर-राणकः पट्ट१५. किल-झुम्वा (बा) क-गोग्गकादिभि परिशकत्वा (आदिनाम् पाश्विकत्वे) भूमि दत्रिता (दत्तेति)
. (पृष्ठभाग) १६. साक्षि]णोः (नो) ली (लि) ख्यन्ते त्रत्रा (यथा) संकशकानामधिपति-ठक्कुर-केशवादित्यः १७. तथा ताम्पालीक: मेहर-वल्लभराजः कपण्डि (ष्टि)-सुत-श्रेस्ठि (ष्ठि) जाउडि: १८. कपष्डि (ष्ठि)-शु(सु)त-भभ तथा वेइवशुः गु(गू) ढ़यतिः सोङघमा-(संगमः) कोल्ला-शु (सु)त
ठक्कु१९. र-चन्द्रिकादि समस्तजन-प्रत्यक्ष शासनं समुकृतं (कीर्ण) लिखितं २०. चे (चै)तत लिख्यक (लेखक)-अन्तक-शु (सु)त-च्छडकेन [1] इति श्री चच्छ (वत्स) राजस्य । २१. मंगलं महाश्रीः॥
पवन
अनुवाद (अग्रभाग) . १. सिद्धि हो। संवत्सर एक हजार सड़सठ ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को ...२. संवत् १०६७ ज्येष्ठ सुदि १ रविवार के दिन आज यहां समस्त राजावली (ध्यान करते हुए)
३. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सोयकदेव के पादानुध्यायो ४. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वाक्पतिराजदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक ५. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिंधुराज देव के पादानुध्यायी परमभट्टारक ६. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव के राज्य में श्री मोहडवासक अर्धाष्टम मण्डल में ७. भोत्कार (भोक्तृ?) महाराजपुत्र श्री वत्सराज यहां ही वल्लोटकवासी चतुर्जातक शास्त्र के
अध्ययन ८. में संपन्न श्रेष्ट ब्राह्मण देई (देदाक) को शयनपाट ग्राम में दी गई दो हल ९. भूमि शासन द्वारा दी जाती है। इस प्रकार शयनपाट ग्राम में कोद्रव (अनाज) तिल मूंग १०. चावल गेहुं आदि के खेत व चार घाटों से संयुक्त तथा ग्राम के मध्य में घर खलिहान ११. व धान्य समेत इस ब्राह्मण को हर्षपुर से निकला हुआ उपमन्यु गोत्री १२. गोपादित्य के पुत्र चतुर्जातक ब्राह्मण देहाक को धर्म हेतु शासन द्वारा दी गई १३. भूमि के पड़ोस में लिखे हुए राज्याध्यक्ष को विदित है, वल्लोटकीय ब्राह्मण तात नाट १४. तथा पाहीय ब्राह्मण गोवर्धन केलादित्य दन्तिवर्म के पुत्र ठकुर राणक १५. पटेल झम्बाक गोग्गक आदि से शंका (निश्चय) करके भूमि दी गई है।
(पृष्ठभाग) १६. (इसके) साक्षी लिखे जाते हैं जैसे संकशक का अधिपति ठकुर केशवादित्य १७. तथा ताम्पालीक मेहर वल्लभराज कपिष्टपुत्र श्रेष्ठिन जाउडि १८. कपिष्ट पुत्र भभ तथा वेइवशु गूढ़यति संगम कील्ला पुत्र ठकुर
१९. चन्द्रिका आदि सभी व्यक्तियों के सामने उत्कीर्ण कर लिखा गया। . २०. और इसका लेखक अन्तक पुत्र छडक है। श्री चच्छ (वत्स) राज के (हस्ताक्षर ? )
२१. मंगलं महाश्रीः ।
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मी अभिलेख
(९)
महुडी का भोजदेव का ताम्रपत्र अभिलेख (सं. १०७४ = १०१८ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो मध्यप्रदेश में सिहोर जिले की आष्टा तहसील में महुडी ग्राम में रतनसिंह व उदयसिंह के पास परम्परागत संपत्ति के नाते रखे हैं । इसका प्रथम उल्लेख मेरे विद्यार्थी वी. एस. वाकणकर ने इन्दौर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका वीणा, धार स्मृति अंक, फरवरी १९५७, पृष्ठ २० व आगे में किया। बाद में डी. सी. सरकार ने एपि. इं., भाग ३३, १९५९-६० पृष्ठ २१५ व आगे में इसका सम्पादन किया ।
४३
ताम्रपत्रों का आकार ३५x२३ सें. मी. है। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। इनमें दो छेद हैं जिनमें कड़ियां पड़ी हैं । ताम्रपत्रों के किनारे मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं । अभिलेख कुल २९ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १५ व दूसरे पर १४ पंक्तियां हैं। अक्षरों की बनावट सुन्दर है। दूसरे ताम्रपत्र की अंतिम आठ पंक्तियों के अक्षर कुछ छोटे हैं। इन पंक्तियों के बराबर बाईं ओर राजचिन्ह है जिसमें विरासन में बैठा गरुड है । उसके बायें हाथ में कुम्भ व दाहिने में सर्प है। उसका शरीर मानव का एवं मुखाकृति पक्षी की है ।
अक्षरों की बनावट ११ वीं सदी की नागरी है । लिखावट सुन्दर है व अक्षर भलीभांति उत्कीर्ण हैं। भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है । इसमें कुल ९ श्लोक हैं। शेष अभिलेख गद्य में है । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व श के स्थान पर सका सामान्य रूप से प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार म् के स्थान पर अनुस्वार व अनुस्वार के स्थान पर म् का प्रयोग है । र के बाद का व्यंजन दोहरा कर दिया गया है। कुछ अक्षर ही गलत हैं जिन को पाठ में ठीक कर दिया गया है। यह कहना कठिन है कि इन त्रुटियों के लिये लेखक एवं उत्कीर्णकर्ता में से कौन उत्तरदायी है ।
तिथि पंक्ति ७-८ में शब्दों में तथा पंक्ति २८ में अंकों में लिखी है । प्रथम तिथि भूदान की घोषणा कर प्रदान करने की है। यह संवत् एक हजार चौहत्तरवें वर्ष में श्रावण सुदी पूर्णिमा गुरुवार चन्द्रग्रहण लिखी है, जो ३० जुलाई १०१८ ई. के बराबर बैठती है । परन्तु उस दिन बुधवार था गुरुवार नहीं तथा कोई चन्द्रग्रहण भी नहीं था । ताम्रपत्र लिखवा कर दानप्राप्तकर्त्ता ब्राह्मण को देने की तिथि अंकों में संवत् १०७४ अश्विन सुदि ५ थी । यह बुधवार १७ सितम्बर १०१८ ईस्वी के बराबर है ।
प्रमुख ध्येय पंक्ति ७ व आगे में वर्णित है। इसके अनुसार श्री भोजदेव ने उपरोक्त तिथि को धारा नगरी में निवास करते हुए चन्द्रग्रहण पर्व पर स्नान कर भगवान भवानिपति की विधिपूर्वक अर्चना कर भूमिगृह पश्चिम द्विपंचाशतक के अन्तर्गत दुर्गाई ग्राम दान में दिया था ।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण गौड देश के अन्तर्गत श्रवणभद्र स्थान से देशान्तरगमन करके मालव - राज्य में आया वत्स्य गोत्री पंचप्रवरी वाजनसेय शाखा का अध्ययनकर्ता भट्ट गोकर्ण का पौत्र भट्ट श्रीपति का पुत्र पंडित मार्कण्ड शर्मा था ( पं. १३-१५ ) ।
पंक्ति २-५ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री सोयकदेव, वाक्पतिराजदेव, सिंधुराजदेव व भोजदेव के नाम हैं । इनके नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां
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परमार अभिलेख
परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हैं। यहां वंश का नाम नहीं है । पंक्ति ५-६ में दान में दिये गये ग्राम का विवरण है। यह दुर्गाई ग्राम था जो भूमिगृह पश्चिम द्विपंचाशत्क के अन्तर्गत था। यह भूमिगृह किसी भूभाग के पश्चिम में स्थित ५२ ग्रामों का समूह रहा होगा।
पंक्ति २७ में 'छ' अक्षर तीन बार लिखा हुआ है जिससे यह अनुमान होता है कि मूल अभिलेख यहां समाप्त हो गया । आगे ताम्रपत्र लिखकर प्रदान करने की उपरोक्त तिथि अंकों में है। फिर 'स्वयमाज्ञा' है। नरेश ने अपनी आज्ञा द्वारा इस दान को घोषणा करवाई थी। फिर मंगल व नरेश के हस्ताक्षर हैं। इसके बाद दापक का नाम श्री जासट है। यह सामान्य रूप से नहीं होता। दापक का नाम पहिले होना चाहिये था। यह शायद उत्कोर्णकर्ता की भूल से हुआ, जिसका नाम नहीं है।
यह कहना कठिन है कि ग्रामदान करने एवं शासनपत्र उत्कीर्ण करवा कर प्रदान करने में प्रायः डेढ़ मास की देरी किस कारण हई। संभव है कि नरेश भोजदेव किसी अन्य कार्य में अथवा किसी यद्ध में व्यस्त रहा हो। परन्त वस्तस्थिति के बारे में जानना कठिन है। यह तथ्य भी विचारणीय है कि किसी परमार राजवंशीय नरेश द्वारा भोपाल क्षेत्र में ग्रामदान करने का साक्ष्य के रूप में यह प्रथम अभिलेख है। इससे पूर्व सभी भूदान गुजरात क्षेत्र में दिये गये थे। इससे इस विश्वास को बल मिलता है कि प्रस्तुत अभिलेख को तिथि १०१८ ई. से पूर्व ही भोपाल क्षेत्र भोजराज के अधीन हो गया था।
अभिलेख में उल्लिखित भौगोलिक स्थानों में धारा नगरी सर्वविदित है। अन्य स्थानों का तादात्म्य बिठाना कठिन है।
मूलपाठ (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
जयति व्योमकेशोऽसौ य: सर्गाय वि (बि) भति तां (ताम्) । ऐन्दवीं शिरसा लेखां जगद्वी (द्वी)जांकुराकृतिम् ।।[१॥] तन्वन्तु वः
स्मराराते: कल्याणमनिशं जटाः।
कल्पान्तसमयोद्दामतडिद्वलयपिङ्गलाः ॥२॥] परमभट्टारक महारा३. जाधिराज-परमेश्वर-श्रीसीयकदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री४. वाक्पतिराजदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसिंधुराजदेव पादा५. नुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीभोजदेववः कुशली । भूमिगृह-पश्चिम-द्विपंचा६. शत्कान्तःपाति-दुर्गायी-ग्रामे समुपागतान्समस्त-राजपुरुषान्ता (ब्राह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि पट्टकिल ७. नपदादिभिश्च समादिशत्यस्तु वः संविदितं यथा। श्रीमद् धारावस्थिततैरस्माभिश्च तुः
सप्तत्यधिकादशश८. त-संवत्सरे श्रावण-सुदि-पौणिमास्यां गुरौ संजात-सोमग्रहण-पर्वणि स्नात्वा चराचर
गुरुम्भगवन्त९. म्भवानीपत्यं (ति) समभ्यर्च्य संसारस्यासारतां ज्ञात्वा तथा हि
वाताम्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्य मापा१०.
तमात्र मधुरो विषयोपयोगः।
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महुडी अभिलेख
११.
प्राणास्तृणाग्रजलविन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो परलो
कयाने ॥३॥ भ्रमत्संसार चक्रारधाराधारामिमां श्रियं (यम्) । प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चात्तापः परं फलं (लम्)।।[४॥]
इति
२०.
१२. जगतो विनस्व (श्व) रस्वारू]पमाकलय्योपरिलिखित-ग्रामश्चतुस्सीमा-गोचर-यूति-पर्यन्तः सहिर१३. ण्य-भाग-भोगः सोपरिकरः सादाय-समेतः श्रीगौड-देशान्तःपाति-श्रवणभद्र-स्थान-विनिर्ग१४. त-वात्स्यगोत्र-पंचप्रवर-वाजसनेयशाखाध्यायिने भट्टगोकर्ण-पौत्र-भट्टश्रीपतिसुत-पंडित १५. [मार्कण्ड-शर्मणाय (णे) मातापित्रोरात्मनश्च पुण्ययशोभि वृद्धये अदृष्टफलमङ्गी-कृत्य ...चन्द्राणि
(द्वितीय ताम्रपत्र) १६. [व]क्षिति-समकालं यावत्परया भक्तया शासनेनोदकपूर्वकं प्रतिपादित इति मत्वा तन्निवासि प१७. []किल-जनपदादिभिर्यथा-दीपमान-भाग-भोगकर-हिरण्यादिकमाज्ञा-श्रवणविधेयर्भूत्वा स१८. वमस्मै समुपानेतव्यं । सामान्यं चैतत्पुण्यफलं वु(बु) ध्वास्मद्वंशजैरन्यैरपि भाविभिभॊक्तृभिर१९. स्मतप्रवृ(द)त्त-धर्मादायोऽयमनुमंतव्यः पालनीयश्च उक्तं च। व (ब) हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादि
भि-। र्यस्ययस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्) ॥[५।।] यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रनानि धर्मार्थ
य[श]स्कराणि । निर्माल्यवान्तप्रतिमानि तानि को नाम साधु पुनराददीत ।।६।।] अस्मत्कुलक्रममुदा
रमुदाहरद्भिरन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं (यम्) । लक्ष्मी (म्या)स्तडिद्व[ल]
य वुद्ध (बुद्ध) दचंचलाया दानं फलं परयशः परिपालनं च ॥[७॥] सर्वानेतान्भावि
____ नः पाथिवेंद्रान्भूयो भूयो याचते रामभद्रः । सामान्योऽयं धर्मसेतु-.
न पाणाम् काले काले पालनीयो भवद्भिः ।।[८॥] इति कमलदलाम्वुवि (म्बुबि)न्दुलो-- ..
* लां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च। सकलमिदमुदाहृतं च वु(बु)ध्वा न
परकीर्तयोविलोप्या: ।।[९]। . इति ।छ। छ। छ। २८. संवत् १०७४ अश्विनसुदि ५ । स्वयमाज्ञा । मंगलं महाश्रीः । स्वहस्तोयम् २९. महाराज श्रीभोजदेवस्य । दापकोऽत्र श्री जासटः ।
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र)
१. ओं।
- जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, आकाश ही जिनके केश हैं ऐसे महादेव श्रेष्ठ हैं ।।१।।
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४६
परमार अभिलेख
प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें ॥२॥ २. परमभट्टारक ३. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सीयकदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज
परमेश्वर श्री ४. वाक्पतिराजदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिंधु-राज देव के ५. पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव कुशलयुक्त हो भूमिगृह
पश्चिम द्विपंचाशत्क (५२) ६. के अन्तर्गत दुर्गाईग्राम में आए हुए सभी राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आस पास के निवासियों, पटेलों, ७. ग्रामीणों आदि को आज्ञा देते हैं। आपको विदित हो कि श्रीयुत धारा में स्थित हमारे द्वारा
संवत् एक हजार चौहत्तर में ८. श्राबण सुदि पूर्णिमा गुरुवार को हुए चन्द्रग्रहण पर्व पर स्नान कर चर व अचर के स्वामी भगवान ९. भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर संसार की असारता जान कर, तथा . - इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग
प्रारम्भमात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ॥३॥
घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥ १२. इस जगत का विनश्वर स्वरूप समझकर ऊपर लिखा ग्राम चारों सीमाएं गोचर भूमि तक, साथ में १३. हिरण्य भाग भोग उपरिकर आदि सब प्रकार की आय समेत श्री गौड़देश के अन्तर्गत श्रावणभद्र
स्थान से देशान्तर-गमन करके आये १४. वत्स्य गोत्री पंचप्रवरी वाजसनेय शाखा के अध्यायी भट्ट गोगर्ण के पौत्र भट्ट श्रीपति के पुत्र, पंडित १५. मार्कण्ड शर्मा के लिए मातापिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिए अदृष्टफल को स्वीकार ..... कर चन्द्र सूर्य समुद्र
(दूसरा ताम्रपत्र) १६. व पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ राजाज्ञा द्वारा जल हाथ में लेकर दान दिया है। यह
मानकर वहां के निवासियों १७. पटेलों जनपदों आदि द्वारा जिस प्रकार दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि हमारी
आज्ञा श्रवण करके पालन करते हुए। १८. सभी कुछ इसको देते रहना चाहिए। और इस पुण्यफल को समान रूप जान कर हमारे वंश में
व अन्यों में उत्पन्न होने वाले भावी नरेशों १९. को हमारे द्वारा दिये इस धर्म दान को मानना व पालन करना चाहिए । और कहा गया है--
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब २ उसी को उसका फल मिला है ।।५।।
यहां पूर्व नरेशों द्वारा धर्म व यश हेतु जो दान दिये गये हैं, निर्माल्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति इसे वापिस लेगा ।।६।।
हमारे उदार कुलम को उदाहरणरूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये, क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ॥७।।
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बांसवाड़ा अभिलेख
सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र वार २ याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिए समान रूप धर्म का सेतु है। अतः अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिए ।।८।।
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ
कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिए ॥९॥ २७. इति छ। छ। छ। २८. संवत् १०७४ आश्विन सुदि ५। हमारी आज्ञा । भंगलं महाश्री । ये हस्ताक्षर २९. महाराज श्री भोजदेव के हैं । इसके दापक श्री जासट हैं ।
(१०) बांसवाड़ा का ताम्रपत्र अभिलेख
(सं. १०७६=१०२० ई.)
. प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है। ये ताम्रपत्र १९ वीं सदी के तृतीय चतुर्थांश में गौरीशंकर ओझा ने बांसवाड़ा नगर में एक ठठेरिन से प्राप्त किये थे। ओझा जी ने इसका उल्लेख ए. रि. राज. म्यू. अजमेर में किया । डी. आर. भाण्डारकर ने इं. ऐं, भाग ६१, १८७२, पृष्ठ २०१ व आगे में इसका विवरण छापा । फिर ई. हुल्त्ज ने एपि. इं., भाग ११, १९११-१२, पृष्ठ ८१ व आगे में इसका संपादन किया। ताम्रपत्र इस समय राजपुताना म्यूजियम, अजमेर में सुरक्षित हैं।
ताम्रपत्रों का आकार ३४ ४ २५ सें.मी. है। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। ताम्रपत्रों में दो छेद हैं। इनके किनारे मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े है । अभिलेख कुल ३२ पंक्तियों का है । प्रथम ताम्रपत्र पर १५ व दूसरे पर १७ पंक्तियां हैं। अक्षरों की बनावट अच्छी है। दूसरे ताम्रपत्र पर एक चतुष्कोण में उड़ते हुए गरुड़ की आकृति है। इसके बाय हाथ म एक नागह
की आकृति है। इसके बायें हाथ में एक नाग है व दाहिना हाथ उसको मारने के लिए उठा हुआ है। यह परमार राजचिन्ह है।
___अक्षरों की बनावट ११ वीं सदी की नागरी है। अक्षर सुन्दर ढंग से खोदे गए हैं। प्रथम सात पंक्तियों के अक्षर शेष से कुछ अधिक बड़े हैं । भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है । इसमें नौ श्लोक हैं । शेष सारा अभिलेख गद्य में है। - व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग सामान्य रूप से किया गया है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है। पंक्ति क्र. १० व २२ में अवग्रह का प्रयोग किया गया है। श्लोक के अन्त में म् के स्थान पर अनुस्वार है । कुछ अक्षर ही गलत लिखे हैं जिन को पाठ में सुधार दिया गया है। ये त्रुटियां स्थानीय व काल के प्रभाव को प्रदर्शित करती हैं व कुछ उत्कीर्णकर्ता की लापरवाही से बन गई हैं।
तिथि पंक्ति क्र. ३१ में अंकों में संवत् १०७६ माघ सुदि ५ लिखी है। इसमें दिन का उल्लेख न होने के कारण इसकी सत्यता प्रमाणित करने में कठिनाई है। यह रविवार ३ जनवरी १०२० ईस्वी के बराबर है।
प्रमुख ध्येय के अनुसार भोजदेव ने उपरोक्त तिथि को स्थली मंडल में घाघ्रदोर भोग के अन्तर्गत वटपद्रक ग्राम में कोंकण विजयपर्व पर स्नान कर, भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर (पं. १०-११) सौ निवर्तन भूमि (पं. १६) दान में दी । दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण वामनपुत्र भाइल था। वह वसिष्ट गोत्री, वाजिमाध्यंदिन शाखी, एक प्रवरी था। उसके पूर्वज छिच्छा स्थान से आये थे।
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परमार अभिलेख - पंक्ति क्र. २-७ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री सीयक देव, वाक्पतिराज देव, सिंधुराज देव व भोज देव के उल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं। भोजदेव के वंश का नामोल्लेख नहीं है ।
पंक्ति क्र. ८ व आगे में उस ग्राम का विवरण है जिसमें सौ निवर्तन भूमि (पं. १६) का दान दिया गया था। निवर्तन भूमि के नापने का एक नाप था । लीलावती (१.६) के अनुसार एक निवर्तन ४०० वर्ग गज का होता था। परन्तु कौटिल्य (२.२०) के अनुसार यह ९०० वर्ग गज का होता था।
अभिलेख में एक नवीन तथ्य है कि नरेश के हस्ताक्षर दोनों ताम्रपत्रों पर हैं--प्रथम ताम्रपत्र पर अंतिम पंक्ति १५ एवं दूसरे ताम्रपत्र पर अंतिम पंक्ति ३२ पर। इसका कारण तो ज्ञात नहीं है। परन्तु संभव है कि दान की घोषणा किसी दापक के माध्यम से न होने से ताम्रपत्रों में किसी प्रकार के हेरफेर को रोकने हेतु ऐसा किया गया होगा।
दान का अवसर विशेष महत्व का है। पंक्ति १० में लिखा है कि भूदान कोंकण विजयपर्व के अवसर पर दिया गया था। हुल्त्ज़ ने कोंकण विजयपर्व का अर्थ "कोंकण विजय के वार्षिकोत्सव के अवसर पर" लगाया है। डी. आर. भाण्डारकर के मतानुसार इसका अर्थ है-“कोंकण विजय करने पर पर्वरूप में आनन्द मनाने के अवसर पर" (इंडियन ऐंटिक्वेरी, भाग ६१, पृ. २०१ व आगे)। डी. सी. सरकार इसी मत से सहमत हैं (एपि. इं. ३३, २१३) । वास्तव में यही विचार ठीक भी लगता हैं ।
भोजदेव ने कोंकण विजय १०१८ ई. एवं १०२० ई. के बीच किसी समय की होगी। उसके महुडी ताम्रपत्र, जो १०१८ ई. का है, में इस विजय का कोई वर्णन प्राप्त नहीं होता है । यह संभव है कि प्रस्तुत भूदान वास्तव में कोंकण पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष में दिया गया हो । भोजदेव जब कोंकण पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् गुजरात-बांसवाड़ा मार्ग से होकर राजधानी धारा नगरी को लौट रहा था, तभी बांसवाड़ा क्षेत्र में प्रस्तुत भूदान प्रदान कर ताम्रपत्र निस्सृत करवा दिए । चूंकि प्रस्तुत अभिलेख की तारीख ३ जनवरी, १०२० ईस्वी है अतः इससे कम से कम एक या दो माह पूर्व उसने विजयश्री प्राप्त की होगी । अतः कोंकण विजय की संभावित तारीख नवम्बर १०१९ ईस्वी में निश्चित करना ही युक्तियुक्त होगा।
अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में स्थली मण्डल संभवतः वागड़ भूभाग अर्थात वर्तमान राजस्थान के बांसवाड़ा और डूंगरपुर जिले हैं। वर्तमान में अर्थणा से उत्तरपूर्व की ओर प्रायः दो किलोमीटर की दूरी पर थली नामक स्थान है जो मूलतः स्थली रहा होगा जिसके नाम से मण्डल विख्यात था। घाघ्रदोर भोग संभवतः व्याघ्रदोर भोग है जिसका तादात्म्य बांसवाड़ा जिले में वागीडोरा नामक तहसील से किया जा सकता है। वटपद्रक संभवतः वरादिया ग्राम है जो वागीडोरा से उत्तर की ओर १० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है अथवा इसकी समता वालिया से करना संभव है जो वागीडोरा से दक्षिण पश्चिम की ओर प्रायः २० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। छिंच्छा, जहां से दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण निकल कर आया था, संभवतः छींछ ग्राम है जो वागीडोरा से उत्तर दिशा में प्रायः १० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है ।
मूल पाठ (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
जयति व्योमकेशौ (शोऽ) सौ यः सर्गाय वि(बि) भति ता (ताम्) । ऐंदवी शिरसा लेखां ज
गद्वी (दी)जांकुराकृति (तिम्) ॥[१॥]
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बांसवाड़ा अभिलेख
तन्वंतु वः स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः । । ।
ल्पांतसमयोहामतडिद्वलयपिंगलाः ।।[२] परमभट्टारक- महारा..... .... ४. जाधिराज-परमेश्वर-श्री[सी]यकदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-म५. हाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीवाक्पतिराजदेव-पादानुध्यात-परम-भ-... ६. डारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसिंधुराजदेव-पादानुध्यात- .. ७. परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीभोजदेवः कुशली। ८. स्थली-मंडले घाघ्रदोरभोगांतःपाति-वटपद्रके श (स) मुपगतान्समस्तराजपु९. रुषान्बा (ब्रा)ह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि-जनपदादींश्च समादिशत्यसु (स्तु) वः संविदितं । १०. यथाऽस्माभिः कोंकणविजयपर्वणि श्ना (स्ना)त्वा चराचरगुरुं भगवन्तं भवानीपति ११. समभ्यर्च्य सं[स]रस्या[स]रितां दृष्ट्वा । वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्य मापातमां
- मधुरो विषयोपभोगः । .. प्राणास्तृणाग (ग्र) जलविंदुसमा नराणां धर्मः सखा
परमहो परलोकयाने ।। [३।।] भ्रमत्संसार चक्रामधाराधारामिमां श्रियं यम्)। . प्राप्य ये न
ददुस्तेषां पश्चात्तापः परं फलं (लम्) ॥ [४॥ इति जगतो विनश्वरं स्वरुपमाकलय्योपरि१५. स्वहस्तोयं श्रीभोजदेवस्य ।
(द्वितीय ताम्रपत्र) १६. लिखितग्रामात (द) भूनिवर्तन-शतकं नि १०० स्वसीमातृणगोचर-यूति-पर्यंत. हिरण्या१७. दायसमेतं सभागभोग सोपरिकर सदिाय-समेतं वा (ब्रा.)ह्मण-भाइलाय वामन- . . . १८. सुताय वशि (सि)ष्ठ-सगोत्राय वाजिमाध्यंदिन-शाखायकप्रवराय च्छिंच्छास्थान-विनिर्गतपूर्व१९. जाय मातापित्रोरात्मनश्च पुण्ययसो (शो) भिवृद्धये अदृष्टफलमंगीकृत्य चंद्राक्का (र्का)र्ण२०. ब-क्षिति-समकालं यावत्परया भक्त्याशाश (स) नेनोदकपूर्व प्रतिपादितमिति मत्वा त२१. निवासि-जनपदैर्यथा-दीयमान-भागभोगकर-हिरण्यादिकमाज्ञा-श्रवणविधेय- . २२. भूत्वा सर्वमस्मै समुपनेतव्यमिति । सामान्यं चैतत्पुण्यफलं बु(बु)ध्वाऽस्मद्वंशजैरन्यै२३. रपि भावि भोकृभिरस्मत्प्रदत्त धा(म) दायोयमनुमंतव्यः पालनीयश्च । उक्तं च ।
व (ब)
हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरदिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम् ) ॥५॥], यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रनानि धर्मार्थयशस्कराणि । निर्माल्यवांतिप्रतिमानि-........
तानि को नाम साधुः पुनराददीत ।।[६॥] अस्मत्कुलक्रममुदारमुदाहरद्भिरन्यैश्च दानमि-, ENFi .
- दमभ्यनुमोदनीयं (यम्) । लक्ष्म्यास्तडित्सलिल वुद्ध (बुद्ध) दचंचलाया दानं फलं परमशः परिपाल- - २८.
- नं च ।।.[७॥
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परमार अभिलेख
सर्वानेताम्भाविनः पार्थिवेन्द्रान्भूयो भूयो याचते रामभद्रः ।
सामान्योयं धर्मसेतुर्नृपाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ।। [८॥] इति कम
__ल दलांवुवि (बुबि) दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च । सकलमिदमुदा
हृतं च बु(बु)ध्वा न हि पुरुषः परकीर्तयो विलोप्या ।। [९] इति संवत् १०७६ माघ सुदि ५ ३२. स्वयमाज्ञा । मंगलं महाश्रीः । स्वहस्तोयं श्रीभोजदेवस्य ।
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, मेघमंडल ही जिसके केश हैं ऐसे महादेव श्रेष्ठ हैं ॥१॥
प्रलयकाल में चमकने वाली विद्युत की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें ॥२॥ ३. परमभद्रारक ४. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सीयकदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक ५. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वाक्पतिराजदेव के पादानुध्यायी परम६. भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिंधुराजदेव के पादानुध्यायी ७. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव कुशलयुक्त' हो . ८. स्थली मण्डल में घाघ्रदोर भोग के अन्तर्गत वटपद्रक में आये हुए समस्त ९. राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आस पास के निवासियों व ग्रामीणों आदि को आज्ञा देते हैं
आपको विदित हो १०. कि हमारे द्वारा कोंकण विजय के पर्व पर स्नान कर चर व अचर के स्वामी भगवान
भवानीपति की . ११. विधिपूर्वक अर्चना कर संसार की असारता को देख कर
- इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भमात्र में ही मधर लगने वाले हैं, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाली जलबिन्द के समान है.परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है।।३।।
घुमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर
जो दान नहीं करते, उनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता।।४।। १४. इस जगत का विनश्वर स्वरूप समझ कर १५. ये स्वयं श्री भोजदेव के हस्ताक्षर हैं। .
(दूसरा ताम्रपत्र) १६. ऊपर लिखे ग्राम से सौ निवर्तन भूमि अपनी सीमा तृण गोचर भूमि तक हिरण्य १७. आय समेत, साथ में भाग भोग उपरिकर सभी प्रकार की आय समेत ब्राह्मण वामन पुत्र भाइल १८. के लिये जो वसिष्ठ गोत्री, वाजिमाध्यंदिन शाखी, एक प्रवरी, जिसके पूर्वज छिच्छा स्थान - से आये थे,
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बेटमा अभिलेख
१९. माता पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिए अदृष्ट फल को स्वीकार कर चन्द्र सूर्य समुद्र २०. व पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ राजाज्ञा द्वारा जल हाथ में लेकर दान दिया है, यह मान
कर २१. वहां के निवासियों व ग्रामीणों द्वारा जैसा दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि
हमारी आज्ञा श्रवण करके पालन करते हुए २२. सभी इस को देते रहना चाहिये । इस पुण्य फल को समान रूप जान कर हमारे वंश में व
अन्यों में उत्पन्न होने वाले २३. भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये।
और कहा गया है-- .
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जितके अधिकार में रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है॥५॥ __ यहां पूर्व के नरेशों द्वारा धर्म व यश हेतु जो दान दिये गये हैं, त्याज्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा.॥६॥
हमारे उदार कुलक्रम को उदाहरण रुप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ।।७।।
सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है । अतः अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिये ।।८॥
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमल दल पर पड़ी जल बिन्दु के समान चंचल समझ
कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों की पर-कीति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥९॥ ३१. यह संवत् १०७६ माघ सुदि ५ ३२. हमारी आज्ञा । मंगलं महाश्री। ये हस्ताक्षर स्वयं श्रीभोजदेव के हैं।
(११) बेटमा का भोजदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
(संवत् १०७६=१०२० ईस्वी) प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है। ये ताम्रपत्र १९०१ ई. में इन्दौर जिले के देपालपुर परगना में बेटमा ग्राम में एक खेत से मिले थे। इसका प्रथम उल्लेख डिस्कलकर महोदय ने ए. रि. वा. म्यू. १९२२-२३, पृष्ठ १३ पर किया। फिर एपि. इं., भाग १८, १९२५-२६, पृष्ठ ३२० व आगे पर सम्पादन किया। १९३२ में बी. एन. रेऊ ने 'राजा भोज' ग्रन्थ में इसका विवरण दिया । ताम्रपत्र इन्दौर संग्रहालय. में सुरक्षित है। ....
ताम्रपत्रों का आकार ३३ x २२ से. मी. है। इनमें लेख भीतर की और उत्कीर्ण हैं। इनमें दो छेद बने हैं जिनमें कड़ियां पड़ी हैं। किनारे मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं। वजन २.९६ किलोग्राम है।
___ अभिलेख २७ पंक्ति का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १३ व दूसरे पर १४ पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं। अक्षरों की बनावट सुन्दर है। दूसरे ताम्रपत्र पर अन्त में दोहरी लकीरों के चौकोर में गरूड़ का राजचिन्ह है जिसके बायें हाथ में नाग है व दाहिना हाथ उसको मारने हेतु ऊपर उठा है।
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परमार अभिलेख
क' अक्षरों की बनावट ११ वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर भलीभांति खुदे हैं। इनकी सामान्य लम्बाई १ से. मी. है। भाषा संस्कृप्त है व गद्यपद्य है। इसमें नौ श्लोक हैं; शेष गद्य में हैं । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग किया गया है। कहीं पर न के स्थान पर ण है। र के बाद का व्यंजन दोहरा है। म् के स्थान पर अनुस्वार है । कुछ शब्द ही त्रुटिपूर्ण हैं । इन सभी को पाठ में सुधार दिया * गया है। ये सभी काल के व प्रादेशिक प्रभाव हैं । कुछ त्रुटियां उत्कीर्णकर्ता की गलती से बन गई हैं ।
तिथि अन्त में अंकों में संवत् १०७६ भाद्रपद सुदि १५ है। इसमें दिन का उल्लेख न होने से सत्यापन संभव नहीं है । भोजदेव के पूर्व-वर्णित बांसवाड़ा अभिलेख की तिथि संवत् १०५६ माघ सुदि ५ है। अतः प्रश्न उपस्थित होता है कि इन दोनों में से पूर्वकालीन कौन सा है। ये दोनों ही विक्रम संवत् से संबद्ध हैं। यदि संवत् का प्रारम्भ चैत्र मास से माने तो प्रस्तुत अभिलेख बांसवाड़ा अभिलेख से पूर्वकालीन होगा। परन्तु मालव व गुजरात क्षेत्रों में संवत् का प्रारम्भ कार्तिक मास से मानने की परम्परा है। इस संबंध में निकटतम अभिलेखीय साक्ष्य भोज
देव का संवत् १०७८ का उज्जैन ताम्रपत्र (क्रमांक १२) है। उसमें भूदान देने की तिथि संवत् ..१०७८ माघ वदी तृतीय रविवार, एवं ताम्रपत्र लिखवा कर प्रदान करने की तिथि १०७८ चैत्र सुदी १४ लिखी है। इस प्रकार संवत् १०७८ का माघमास चैत्रमास से पहले आया । अतः वर्ष का प्रारम्भ कार्तिक मास से हुआ। इसी प्रकार बांसवाड़े के अभिलेख से प्रस्तुत अभिलेख बाद का है। गणना करने पर यह तिथि रविवार, ४ सितम्बर, १०२० ई. के बराबर बैठती है। उस दिन चन्द्रग्रहण था।
अभिलेख के प्रमुख ध्येय के अनुसार श्री भोजदेव ने न्यायप्रद-सप्तादशक के अन्तर्गत नालतड़ाग ग्राम कोंकण विजय ग्रहण पर्व पर दान में दिया था। दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण भट्ट
टुसिक का पुत्र पंडित देल्ह था जो कौशिक गोत्री, अघमर्षण विश्वामित्र व कौशिक इन तीन प्रबरों वाला, माध्यंदिन शाखी था। वह विशाल ग्राम से आया था एवं उसके पूर्वज स्थानेश्वर से देशान्तरगमन करके वहां आये थे।
दानकर्ता नरेश की वंशावली में सर्वश्री सीयकदेव वाक्पतिराजदेव द्वितीय, सिंधुराजदेव व भोजदेव के उल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियाँ परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हैं। वंश का नाम नहीं है।
दान का अवसर महत्वपूर्ण है। यह कोंकण ग्रहण पर्व लिखा है। पूर्ववणित अभिलेख में, जो ७ मास १० दिन पहले निस्सत किया गया था, दान का अवसर 'कोंकण विजय पर्व' लिखा है। अतः यह निश्चित है कि दोनों भूदान कोंकण विजय के उपलक्ष में दिये गये थे। परन्तु दोनों अवसरों का वास्तविक अभिप्राय क्या है ? दशरथ शर्मा ने सुझाव दिया है कि बांसवाड़ा अभिलेख में उल्लिखित 'कोंकण विजय पर्व' का भाव कोंकण विजय यात्रा पर्व मानना चाहिये। उस दिन परमार सेनाओं ने कोंकण विजय हेतु प्रस्थान किया था। उसके ७ मास १० दिन बाद प्रस्तुत अभिलेख निस्सत किया गया जिसका अवसर 'कोंकण विजय ग्रहण पर्व' लिखा है। इस दिन भोजदेव की सेनाओं ने समस्त कोंकण पर विजय प्राप्त कर अपने अधीन कर लिया था (जर्नल ऑक यंगानाथ झा रिसर्च इन्स्टीट्यूट, भाग. ५, पृष्ठ ६१-६२) ।
उपरोक्त संभावना अत्यन्त न्यून है । वास्तव में संपूर्ण परिस्थिति पर विचार करने पर, डिस्कलकर महोदय से सहमत होते हुए, कहा जा सकता है कि भोजदेव ने 'कोंकण पर्व विजय'
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बेटमा अभिलेख
पर विजय प्राप्त करने के फलस्वरूप पर्वरूप में आनन्द मनाने के अवसर पर भूदान किया। बाद में 'कोंकण विजय ग्रहण पर्व' पर कोंकण क्षेत्र को पूर्णतः अपने अधीन घोषित करने के फलस्वरूप पर्वरूप में आनन्द मनाते हुए ग्रामदान दिया। उत्तरकालीन तिथिरहित यशोवर्मन के काल्वन ताम्रपत्र (क्र. १८) में लिखा है कि भोजदेव ने कोंकण पर विजय प्राप्त की थी एवं नासिक भूभाग पर. उसके मांडलिक के रूप में यशोवर्मन शासनसूत्र संभाल रहा था। इस प्रकार शिलाहार नरेश अरिकेसरी का पुत्र कोंकण क्षेत्र पर भोजदेव के अधीन शासन करता रहा। प्रतीत होता है कि परमारों के मांडलिकों के रूप में शिलाहार नरेश कोंकण क्षेत्र पर १२वीं शताब्दि तक शासन करते रहे। बाद में वहाँ गुजरात के चालुक्यों ने अधिकार कर लिया।
भौगोलिक स्थानों में विशाला ग्राम का प्रयोग उज्जयनी नगरी के लिये हुआ है। स्थानीश्वर आधुनिक थानेसर है जो हरयाना राज्य के करनाल जिले में है। न्यायप्रद सप्तादशक, जो १७ ग्रामों का समूह था, इन्दौर के दक्षिण पश्चिम में कर के पास कपड रहा होगा। नालतडाग भी उसी के पास नार या नाल ग्राम था।
मूलपाठ (प्रथम ताम्रपत्र) .. १. ओं।
ज[य]ति व्योमकेशोसी यः सग्य वि (बि) भति तां (ताम्) । ऐंदवीं सि (शि) रसा लेखां जगद्वी (द्वी)जांकुराकृतिम् ।।[१।।] तन्वन्तु वः
. स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः । ____ कल्पान्तसमयोद्दामतडिद्वलयपिंगलाः ।।२।।] परममट्टारक-महा
राजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसीयकदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर४. श्रीवाक्प]तिराजदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसिंधुराजदेव-पा
दानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीभोजदेवः कुशली । न्यायपद्रसप्तादशकान्तःपाति-नालतडागे समुपगतान्समस्त-राजपुरूषान्वा (ब्रा)ह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि । पट्टकिल जनपदादीश्च समादिशत्यस्तु वः संविदितम् । यथास्माभिः स्नात्वा चराचरगुरुं भगवन्तं भवानीपति समम्यच्चयं । संमारस्यासारतां दृष्ट्वा ।।
वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्य मापातमात्र मधुरो विषयोपभोगः । ९. प्राणास्ति (स्तृ) णाग्रजलवि (बि)न्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ।।३।।] भ्रमत्संसार चक्राग्र
धाराधारामिमां श्रियं (थम्) । प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चातापः परं फलं (लम्) ।।[४।।] इति जगतो विनश्वरं ११. स्वरुपमाकलय्योपरिलिखितंग्राम: स्वसीमातृणगोचर-यूतिपर्यन्तः सहिरण्यभागभोंगः १२. सोपरिकरः सादायसमेतश्च ।। विशाल-ग्रामविनिर्गत पूर्व[जा]य स्थाण्वीश्वरादा-गताय १३. स्वहस्तोयं श्रीभोजदेवस्य ।
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५४
(द्वितीय ताम्रपत्र )
१४. कौसि (शि) कसगोत्राय । अघमर्षण - विश्वामित्र कौसि (शि) केति त्रिः (त्रि ) प्रवराय । माध्यंदिन शाखाय । भट्ट
१५. ठट्ठसिक सुताय- पण्डित देल्हाय । कोंकणग्रहणविजयपर्व्वाणि । मातापित्रोरात्मनश्च पुण्य य१६. शोभिवृद्धये । अदृष्टफलमं [गी] कृत्यचन्द्रार्कार्णवक्षितिसमकालं
यावत्परया भक्तया
शाश (स) नेनोदक
१७. पूर्वं प्रतिपादित इति । तन्मत्वा यथा दीयमानभागभोग-करहिरण्यादिकमाज्ञा श्रवण विधेयै१८. भूत्वा सर्व्वमस्मै सनुपनेतव्य (यं) । सामान्यं चैतत्पुण्यफलं वुध्वा (बुद्ध, वा) अस्मद्वंशजैरण्यै (न्यै) रपि भाविभो -
१९. क्तृभिरस्मत्प्रदत्तधर्म्मा (र्म) दायोयमनुमन्तव्यः पालनीयश्च । उक्तं च । (ब) हुभिर्व्वसुधा भुक्ता राजभिः
२०
२१.
२२.
२३.
२४.
२५.
२६.
२७.
सगरादिभि
र्यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम् ) ||[५] यानीह दत्तानि पुरा नरेंद्रनानि
अस्मत्कु
परमार अभिलेख
धर्मार्थ यस (श) स्राणि । निर्माल्यवान्तिप्रतिमानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत || [ ६ || ]
3
लक्रममुदारमुदाहरद्भिरण्यै ( न्यै ) श्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं ( यम् ) । लक्ष्म्यास्तडिच्छ (त्स) लिल वुद्वदचन्च (ञ्च ) -
लायाः दानं फलं परयसः (शः ) परिपालनं च ।। [ ७ ।।] सर्व्वानेतान्भाविनः पार्थिवेंद्रान् भूयोभू
यो याचते रामभद्रः । सामान्ययं धर्मसेतुर्नृपाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः || [[11] - इति कमलदलांव (बु) विदुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च । श (स) कलमिदमुदाहृ
तं च बुध्वा (बुद्ध्वा ) न हि पुरुषः परकीर्तयो विलोप्या [:] ।। [९ ।।] इति । सम्वत् १०७६ भाद्रपद शुदि १५ स्वयमाज्ञा । मङ्गलं महाश्रीः । स्वहस्तोयं श्री भोजदेवस्य ।
अनुवाद ( प्रथम ताम्रपत्र )
१. ओं,
जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, मेघमण्डल ही जिसके केश हैं ऐसे महादेव श्रेष्ठ हैं ॥१॥
प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें ||२||
२. परमभट्टारक
३. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सीयकदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर
४. श्री वाक्पतिराज देव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिंधुराज देव
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बेटमा अभिलेख
५५
५. के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव कुशलयुक्त हो न्यायप्रद
सप्तादशक ६. के अन्तर्गत नालतडाग में आये हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के निवासियों,
पटेलों और ग्रामीणों ७. को आज्ञा देते हैं-आपको विदित हो कि हमारे द्वारा स्नान कर चर व अचर के स्वामी ___ भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर
संसार की असारता देख कर ___ इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाले हैं, मानव प्राण तिनके के आग्रभाग पर रहने वाली जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।।३।। . घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील एंसी लक्ष्मी को
पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥ १०. इस जगत का विनश्वर ११. स्वरूप समझकर ऊपर लिखा ग्राम अपनी सीमा तृण गोचर भूमि तक साथ में हिरण्य भाग भोग १२. उपरिकर और सभी प्रकार की आय समेत विशाल ग्राम से आया जिसके पूर्वज स्थानीश्वर से
निकलकर आये थे। १३. ये हस्ताक्षर स्वयं भोजदेव के हैं।
(दूसरा ताम्रपत्र) १४. कौशिक गोत्री, अघमर्षण विश्वामित्र व कौशिक इन तीन प्रवरों, माध्यंदिन शाखी, भट्ट १५. ठट्ठसिक के पुत्र पंडित देल्ह के लिये कोंकणग्रहण विजय पर्व पर माता पिता व स्वयं के पुण्य १६. व यश की वृद्धि के लिये अदृष्टफल को अंगीकार कर चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक - परमभक्ति के साथ राजाज्ञा द्वारा जल १७. हाथ में लेकर दान दिया है, यह मानकर जैसा दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि
हमारी आज्ञा श्रवण करके १८. पालन करते हुए सभी इसको देते रहना चाहिये । और इस पुण्यफल को समान रूप
जानकर हमारे वंश में व अन्यों में भी उत्पन्न होने वाले भावी १९. भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये
और कहा गया है- सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है ॥५॥
यहां पूर्व के नरेशों द्वारा धर्म व यश हेतु जो दान दिये गये हैं, त्याज्य एवं के के समान जानकर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापस लेगा।।६।।
हमारे उदार कुल क्रम को उदाहरण रूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ।।७।।
सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समानरूप धर्म का सेतु है अत: अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिये ॥८॥
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परमार अभिलेख
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझकर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ||९|| २६. यह संवत् १०७६ भाद्रपद सुदि १५ । हमारी
२७. आज्ञा । मंगलमहाश्री । यह स्वयं श्री भोजदेव के हस्ताक्षर हैं ।
(१२) उज्जैन का भोजदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
- ( संवत् १०७८ = १०२१ ईस्वी)
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है । ये १८७० ई. में उज्जैन के पास नागझरी में खेत से मिले थे । इसका प्रथम उल्लेख नीलकंठ जनार्दन कीर्तने ने इं. ऐं., भाग ६, १८७ पृष्ठ ४९ व आगे में किया । फिर विश्वेश्वरनाथ रेऊ ने अपने ग्रन्थ 'राजा भोज' में १९३२ में इसका विवरण दिया । ताम्रपत्र संभवत: इंडिया आफिस लायब्रेरी, लंदन में रखे हैं ।
ताम्रपत्रों का आकार ३०.४x२०.३२ सें. मी. है । इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है । दो-दो छेद बने हैं जिनमें कड़ियां पड़ी थीं । किनारे कुछ मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं। अभिलेख ३१ पंक्तियों का है । प्रथम ताम्रपत्र पर १६ व दूसरे पर १५ पंक्तियां हैं । लेख सुन्दर है । दूसरे ताम्रपत्र पर दोहरी लकीरों के चौकोर में उड़ते गरूड़ का राजचिन्ह है । इसके बायें हाथ में नाग है व दाहिना हाथ मारने के लिये उठा है ।
अक्षरों की बनावट ११ वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर गहरे एवं ढंग से खुदे हैं । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है । इसमें नौ श्लोक हैं, शेष गद्य में है । व्याकरण के वर्णविन्यास . की दृष्टि से ब के स्थान पर व, स के स्थान पर श, श के स्थान पर स म् के स्थान पर अनुस्वार हैं । र के बाद का व्यंजन दोहरा हैं। कुछ शब्द ही गलत है। इन सभी को पाठ में ठीक कर दिया है । ये स्थान व काल का प्रभाव प्रदर्शित करती हैं। कुछ त्रुटियां उत्कीर्णकर्ता द्वारा भी बन गई है ।
इसमें दो तिथियां हैं । प्रथम तिथि पंक्ति ८-९ में शब्दों में ग्रामदान प्रदान करने की संवत्सर १०७८ माघ वदि तृतीय रविवार है । उस दिन सूर्य का उत्तरायण प्रारम्भ हुआ था । यह रविवार २४ दिसम्बर, १०२१ ईस्वी के बराबर है । दूसरी तिथि पंक्ति २०-२१ में अंकों में ताम्रपत्र लिखवा कर प्रदान करने की संवत् १०७८ चैत्र सुदि १४ है । यह सोमवार ३० मार्च १०२२ ई. के बराबर है ।
प्रमुख ध्येय के अनुसार श्री भोजदेव ने नागद्रह पश्चिम पथक के अन्तर्गत विराणक ग्राम दान में दिया था । दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण भट्टगोविन्द का पुत्र धनपति भट्ट था । वह ऋग्वेद की वह वृचाश्वलायन शाखा का अध्यायी, अगस्ति गोत्री, तीन प्रवरों वाला था । उसके पूर्वज वेल्लबल्ल से संबद्ध श्रीवादा से देशान्तरगमन करके आये राधासुरसंग के कर्णाट थे । किंदवन्ती के अनुसार राजा भोजदेव
विद्याध्ययन हेतु राजधानी में आये विद्यार्थियों के लिए एक विद्याकेन्द्र बनवाकर गोविन्द भट्ट को उसका अध्यक्ष नियुक्त किया था। संभव है कि प्रस्तुत अभिलेख के धनपति भट्ट का पिता गोविन्द भट्ट "ही वह व्यक्ति हो ।
दानकर्ता नरेश की वंशावली के अनुसार सर्वश्री सीयकदेव, वाक्पतिराजदेव, सिंधुराजदेव व भोजदेव के उल्लेख हैं । इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हैं। वंश का नाम नहीं है ।
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उज्जैन अभिलेख
ग्रामदान का अवसर महत्वपूर्ण है । यह "उदगयन पणिकल्पित हलानां लेख्ये' अर्थात् सूर्य के उत्तरायण के प्रारम्भ होने पर संकल्पित हलों के लिखे जाने के अवसर पर है। कीर्तने महोदय के अनुसार बैलों की एक जोड़ी द्वारा जोती जाने योग्य भूमि को एक हल भूमि कहा जा सकता है । रेऊ का अनुमान है कि भोजदेव के समय में माघ मास में खेत जोतने वाले कृषकों से लगान आदि की शर्ते तय की जाती होंगी। अतः संभावना यही है कि सूर्य का उत्तरायण प्रारम्भ होते ही उस काल में खेत जोतने वालों के साथ लिखापढ़ी होती होगी।
यहां ग्रामदान देने व ताम्रपत्र लिखवा कर प्रदान करने में ३ मास का अन्तर है। निश्चित ही नरेश किसी अन्य आवश्यक कार्य में व्यस्त रहा होगा । परन्तु वह कार्य क्या था इसका वर्तमान में ठीक से निर्धारण करना सरल नहीं है।
भौगोलिक स्थानों में नागद्रह का तादात्म्य नागझरी से किया जा सकता है जो उज्जैन के पास एक छोटी नदी है । यह वहां की पंचक्रोशी यात्रा के अन्तर्गत है। यह समीकरण इस कारण भी सही है कि प्रस्तुत दानपत्र इसी नदी के पास खेत से मिले थे। नागद्रह पश्चिम पथक नागझरी नदी के पश्चिम का भूभाग है । वीराणक की समता वरवान से की जा सकती है जो उज्जैन के उत्तर पश्चिम में नागदा के पास पश्चिमी रेलवे का एक रेलवे स्टेशन है।
मूलपाठ (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
जयति व्योमकेशोसौ य: सम्य वि (बि) भति तां (ताम् ) एन्दवी शिरसा लेखां जगढी (द्वी)जांकुराकृतिम् ।।[१।।]
तन्वन्तु वः स्मराराते कल्याणमनिशं जटाः । कल्पान्तसमयोद्दाम तडिद्वलय
पिङ्गलाः ।।२।। परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसीयकदेव-पादा४. नुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीवाक्पतिराजदेव५. पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसिन्धुराजदेव पादानुध्यात - ६ . परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीभोजदेवः कुशली । नागद्रह-पश्चिमपथ७. कांतःपति वीराणके समुपगत्तान्समस्त राजपुरुषान्त्रा (ब्रा) ह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि-पट्टकि८. ल-जनपदादींश्च समादिशत्यस्तु वः संविदितं । यथा अतोताष्टसप्तत्यधिक-साहस्रिक९. सम्वत्सरे माघासित-तृतीयाम् । रवावुदगयनपव्वणि कल्पित-ह१०. लाना लेख्ये । श्रीमद्धारायामवस्थित रस्माभिः स्नात्वा चराचर गुरूं भगव११. न्त (तं) भवानीपति समभ्यर्च्य संसारस्यासारतां दृष्ट्वा । १२. . . वाताभ्रविभ्रममिदम्वसुधाधिपत्यमापातमात्र मधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्तृणाग्रजलवि (बि)न्दु समा नराणां धर्मस्स
परमहो परलोकयाने ।।३।।] भ्रमत्सन (सं) सार-चक्राग्र-धाराधारामिमां श्रियं (यम्)। प्राप्य ये न
ददुस्तेषां पश्चात्ताप: परं फलं (लम्) ।।४।। इति जगतो विनश्वरं स्वरूपमाकलय्योपरि--.. १५. लिखितग्रामः स्वसीमा-तृणगोचरयूति पर्यन्तस्स-हिरण्यभागभो१६. 'स्वहस्तोय (यं) श्रीभोजदेवस्य
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परमार अभिलेख
( द्वितीय ताम्रपत्र) १७. गः सोपरिकरः सादायसमेतः वा (ब्रा)ह्मण-धनपतिभट्टाय भट्टगोविन्दसुताय व (ब)१८. हवृचाश्वलायनशाखाय। अगस्तिगोत्राय। त्रिप्रवराय। वेल्लुवल्लप्रतिव (ब)द्ध-श्रीवादावि
निर्गतरा१९. धसुरसंगकर्णाटाय। मातापित्रोरात्मनश्च पुन्य (ण्य ) यशोभिवृद्धये । अदृष्टफलमंगीकृत्य च२०. द्राार्णवक्षिति-समकालं यावत्परया भक्त्या शाश (स) नेनोदकपूर्व प्रतिपादित इति मत्वा २१. यथादीयमान-भागभोगकर-हिरण्यादिकमाज्ञा-श्रवणविधेयर्भूत्वा सर्वमस्मै सम्पनेतव्यं । २२. सामान्यं चैतत्पुण्यफलम्वुध्वा (बुवा)स्मद्वन्स (द्वंश )जैरन्यैरपि भाविभोक्तृमिरस्मत्प्रदत्त .... धर्मा (म) दायोऽय- . २३. मनुमन्तव्यः पालनीयश्च । उक्तं च ।
व (ब)हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा
भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्) ।।५।। यानहि दत्तानि पुरा नरेन्द्रनानि धर्मार्थयशस्कराणि । निर्माल्य
वान्ति (न्त) प्रतिमानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत ॥[६।।] अस्मत्कुलक्रममुदारभुदाहरद्भिरन्मैश्च
दानमिदमभ्यनुमोदनीयं (यम्) । लक्ष्म्यास्तडिच्छलिलवुदु (बुद्ध) दचंचणाया दानं फलं परयसष्प (यशः) परिपा
लनं च ।।[७] सर्वानेतान्भाविनः पार्थिवेन्द्रान्भूयो भूयो याचते रामभद्रः ।
सामान्योयं धर्मसेतु पाणां काले काले पालनीयो भवद्भि ॥८॥ इति क
मलदलाम्वुवि (बुबि)न्दुलोलां श्रियमनुचित्य मनुष्यजीवितं च । सकलमि
दमुदाहृतं च वुध(बुद्ध) वा न हि पुरुषैः परकीर्तयो विलोप्या (याः ) ।।[९।।] इति । संवत् १०३१. ७८ चैत्र शु (सु)दि १४ स्वयम (मा)ज्ञा मंगलं महाश्री । स्वहस्तोयं श्री भोजदेवस्य ।
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, मेघमंडल ही जिसके केश हैं ऐसे शिव श्रेष्ठ हैं ।।१।।
प्रलयकाल में चमकने वाली विद्युत की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें ॥२॥ ३. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सीयकदेव के पादानुध्यायी ४. परमभट्टारक महाराधिराज परमेश्वर श्री वाक्पतिराजदेव के ५. पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराधिराज परमेश्वर श्री सिंधुराजदेव के पादानुध्यायी ६. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव कुशलयुक्त होकर नागद्रह पश्चिमी पथक
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उज्जैन अभिलेख
७. के अन्तर्गत विराणक में आये हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आस पास के निवासियों, पटेलों
८. व ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं—आपको विदित हो कि संवत्सर एक हजार अठत्तरवें वर्ष की ९. माघ वदि तृतीय रविवार सूर्य के उत्तरायण पर्व के प्रारम्भ होने पर संकल्पित १०. हलों के लिखा जाने पर श्रीयुक्त धारा में निवास करते हुए हमारे द्वारा स्नान करके चर
व अचर के स्वामी
११. भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर संसार की असारता देखकर
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय-भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है || ३ ||
घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता || ४ | १४. इस जगत का विनश्वर रूप समझकर ऊपर
१५. लिखे ग्राम को अपनी सीमा तृण गोचर भूमि तक साथ में हिरण्य भाग भोग १६. ये हस्ताक्षर स्वयं भोजदेव के हैं ।
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( दूसरा ताम्रपत्र )
१७. उपरिकर, सभी आय समेत भट्टगोविन्द के पुत्र ब्राह्मण धनपति भट्ट के लिये
१८. वह वृचाश्वलायन शाखी, अगस्ति गोत्री, त्रिप्रवरी जिसके पूर्वज वेल्लबल्ल से संबद्ध श्रीवादा से निकलकर आये
१९. राधासुरसंग के कर्णाट थे, माता पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिये अदृष्टफल को स्वीकार कर
चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ जलहाथ में ले कर राजाज्ञा द्वारा दान दिया है । यह मान कर
२०.
२१. जैसा दिया जाने वाला भाग भोगकर हिरण्य आदि आज्ञा सुनकर पालन करते हुए सभी उसके लिये देते रहना चाहिये ।
२२. और इसके पुण्य फल को समान रूप जानकर हमारे वंश में व अन्यों में भी उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को
२३. मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है
सगर आदि अनेक नरेशों ने
वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है, तब २ उसी को उसका फल मिला है ||५|
यहां पूर्व के नरेशों द्वारा धर्म व यश हेतु जो दान दिये हैं, त्याज्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापस लेगा ||६ ॥
हमारे उदार कुलक्रम को उदाहरण रूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये। क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल ( उसका ) दान करना और ( उससे ) परयश का पालन करना ही है ॥७॥
सभी उन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है, अत: अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिये ॥ ८ ॥
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परमार अभिलेख
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझकर
और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥९॥ ३०: यह संवत् ३१. १०७८ चैत्र सुदि १४ । हमारी आज्ञा । मंगल व श्री वृद्धि हो। ये हस्ताक्षर स्वयं
श्री भोजदेव के हैं ।
- (१३) . .. ... देपालपुर का भोजदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
(संवत् १०७९-१०२३ ई०) . . प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो १९३१ में आर. जी.. ओझा ने इन्दौर जिले के देपालपुर कस्बे में किशोरसिंह कानूनगो के पास देखे थे। ओझा जी ने इस का उल्लेख 'हिन्दुस्तानी', अक्तूबर १९३१, पृष्ठ ४९४-५१५ पर अपने लेख में किया। फिर वि. एन. रेऊ ने 'राजा भोज' ग्रन्थ में इसका पाठ छापा । इसका सम्पादन ओझा जी ने १९३२ में इं. हि. क्वा., भाग ८, पृष्ठ ३०५-१५ पर किया । ताम्रपत्र वर्तमान में इन्दौर संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
ताम्रपत्रों का आकार ३५४ ३४ सें. मी. है। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। इनमें दो-दो छेद हैं जिनमें कडियां पड़ी हैं। ताम्रपत्रों के किनारे मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं। कड़ियों समेत इनका वजन ३.२८ किलोग्राम है। अभिलेख ३० पंक्तियों का है। प्रत्येक ताम्रपत्र में १५-१५ पंक्तियाँ हैं । लेख प्रायः सुन्दर है, परन्तु कहीं २ पर उत्कीर्णकर्ता की छेनी के मिशान बन गये हैं, जिससे पाठ में भ्रम होता है। दूसरे ताम्रपत्र के अक्षर प्रथम के अक्षरों से अधिक सुन्दर हैं। दूसरे ताम्रपत्र पर एक चतुष्कोण में उड़ते गरुड़ की आकृति है। उसके बायें हाथ में नाग है एवं दाहिना उसको मारने के लिये ऊपर उठा है।
अभिलेख के अक्षरों की बनावट ११ वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर अच्छे हैं पर गहरे खुदे हुए नहीं हैं। प्रथम ताम्रपत्र दूसरे से अधिक घिसा हुआ है जिसका कारण अज्ञात है । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है। इस में नौ श्लोक हैं। शेष अभिलेख गद्यमय है। व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग सामान्य रूप से किया गया है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है। वाक्यों व श्लोकों के अन्त में म् के स्थान पर अनुस्वार है । कुछ शब्द ही गलत हैं जिनको पाठ में ठीक कर दिया है। ये सभी प्रादेशिक प्रभावों को प्रदर्शित करते हैं। कुछ अशुद्धियां उत्कीर्णकर्ता द्वारा बन गई है। ...
आभिलेख की तिथि अन्त में संवत् १०७९ चैत्र सुदि १४ केवल अंकों में लिखी है। इसमें दिन का उल्लेख नहीं है । ओझा जी ने वर्ष को चैत्रादि मान कर इसको १९ मार्च १०२२ ई. के बराबर निर्धारित कर दिया है। परन्तु इसको स्वीकार नहीं किया जा सकता । भोजकालीन अभिलेखों का • गणित वर्ष को कार्तिकादि मानकर किया जाना ही युक्तियुक्त प्रतीत होता है । प्रस्तुत अभिलेख पूर्ववर्णित उज्जैन अभिलेख (क्र. १२) से ठीक एक वर्ष बाद का हैं। अतः इस दृष्टि से समीकरण करने पर यह तिथि शनिवार, ९ मार्च १०२३ ईस्वी के बराबर निर्धारित की जा सकती है। ... . अभिलेख का प्रमुख ध्येय पंक्ति क्र. ६ व आगे में वर्णित है । इसके अनुसार भोजदेव ने उज्जयिनी पश्चिम पथक के अन्तर्गत किरिकैक ग्राम (पं. ६) की भूमि का समतल चार हलयुक्त चौतीस अंश
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देपालपुर अभिलेख
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(पं. १२-१३) धारा नगरी में वास करते हुए असंख्य प्राणिवध करने पर प्रायश्चित की दक्षिणा स्वरूप (पं. ८) चर व अचर के स्वामी भगवान भवानिपति की विधिपूर्वक अर्चना कर दान में देना था (पं. १८)। दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण का विवरण पंक्ति क्र. १४-१७ में दिया हुआ है । वह मान्यखेट से देशान्तरगमन करके मालव राज्य में आया आत्रेय गोत्री, आत्रेय आर्चनानस व श्यावाश्व इन तीन प्रवरों वाला वह वृच शाखी भट्ट सोमेश्वर का पुत्र, वेद अध्ययन से सम्पन्न ब्राह्मण वच्छल (वत्सल) था।
पंक्ति २-६ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है, जिसके अनुसार सर्वश्री सीयकदेव, वाक्पतिराजदेव, सिंधुराजदेव व भोजदेव के उल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां 'परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' लगी हुई हैं । वंश का नामोल्लेख नहीं हैं।
अभिलेख में भूदान के अवसर का तो कोई उल्लेख नहीं है, परन्तु पंक्ति क्र. ८ का पाठ महत्वपूर्ण है । इसका अर्थ यह है कि हमारे द्वारा असंख्य प्राणिवध करने पर प्रायश्चितरूप दक्षिणास्वरूप स्नान कर' (भूदान दिया)। ओझाजी ने इसका अर्थ इस प्रकार लगाया है--'हमारे द्वारा विद्वान ब्राह्मणों के भोजन हेतु की गई प्राणिवध करने पर प्रायश्चित की दक्षिणा स्वरूप..."। परन्तु यह ठीक जचता नहीं। प्रतीत होता है कि यहां नरेश द्वारा चम्बल नदी में स्नान कर भूदान देने की सूचना देना ही है। वैसे इस उल्लेख से इस संभावना को भी बल मिलता है कि भोज ने किसी युद्धभूमि में हजारों व्यक्तियों का वध करने के उपरान्त ही चम्बल नदी में स्नान कर प्रस्तुत भूदान दिया होगा। महाभारत से ज्ञात होता है कि चन्द्रवंशी नरेश रन्तिदेव की भोजनशाला में प्रतिदिन असंख्य अतिथियों (ब्राह्मणों ?) को भोजन करवाया जाता था। इस कार्य के लिये उस ने दो लाख रसोइये नियुक्त कर रखे थे । भोजन के लिये किये जाने वाले पशुवध से एकत्रित चर्म से जो रुधिर धारा बहती थी उससे चर्मणावती (चंबल नदी) की उत्पत्ति हुई थी (द्रोणपर्व, अध्याय ६७, श्लोक १-५)।
अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में उज्जयिनी पश्चिम पथक वह भूभाग है जिसमें देपालपुर परंगना भी सम्मिलित था । किरिकैक ग्राम इन्दौर जिले के देपालपुर परगना में देपालपुर से प्रायः ६ मील दूर वर्तमान कर्की ग्राम है । यह चंबल के किनारे पर स्थित है। मान्यखेट, जहां से दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण देशा तर गमन करके मालव प्रदेश में आया था, आंध्र प्रदेश में आधुनिक मालखेद है।
मूल पाठ (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
जयति व्योमकेशौसौ यः सर्गाय वि (बि) भत्ति तां (ताम्) । ऐंदवी सि (शि) रसा लेखां जगद्वी (द्वी) जां कुराकृति (तिम्) ।। [१।।]
तन्वन्तु वः स्मरारातेः कल्याणमनिसं (शं) जटा: ।
कल्पांत-समयोद्दामतडिद्वलय पिंगलाः ।। [२] ३. परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री सीयकदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक४. महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री वाक्पतिराजदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज५. परमेश्वर-श्री सिंधुराजदेव पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री भोजदे६. वः कुशली। श्रीमदुज्जय (यि)नी-पश्चिम-पथकान्तःपाति-किरिकैकायां समुपगतान्समस्त-राजपु७. रुषान्त्रा (ब्रा) ह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि-पट्टकिल-जनपदादींश्च समादिशत्यस्तु वः संविदितं । यथा ८. श्रीमद्धारावस्थितरस्माभिः पारद्वि (गवि)प्रभृतिकृत-प्राणिवध-प्रायश्चित् दक्षिणायां स्नात्वा
चराचर ग- . .." ९, रु भगवन्तं भवानीपति समभ्यर्च्य संसारस्यासारतां दृष्टा (ष्ट्वा)
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परमार अभिलेख
वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्य-मापातमात्र-मधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्तृणाग्रजल विदु समा नराणां धर्मस्सखा परमहो
परलोकयाने ॥३॥ भ्रमत्संसारचक्रामधाराधारामिमां श्रियं (यम्)। प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चात्तापः
परं फलं (लम्) ॥[४॥] १२. इति जगतो विनश्वरं स्वरूपमाकलय्योपरि-लिखित-ग्रामात् ग्रामसामान्य-भूमेः (मे) १३. श्चेतुस्त (स्त्रिं) शत्यंश-प्रस्थि]कं-हल-चतुष्टयसंवत्तो (वृत्तं) स्वसीमातृणगोचर-यूति-पर्यन्तं
सहिरण्यभाग भो१४. गंसोपरिकरं सादाय-समेतं च । श्रीमान्यखेट विनिर्गताय । आत्रेय-सगोत्राय । आत्रेयार्चना१५. स्वहस्तोयं श्री भोजदेवस्य ।
(द्वितीय ताम्रपत्र) १६. नसस्या (श्या)वाश्वेति त्रिः (त्रि)प्रवराय । वह वृच (चा)-शाखाय भट्टसोमेश्वर-सुत-व्र (ब्रा)
ह्मणवच्छलाय । श्रुताध्यय१७. न-संपन्नाय मातापित्रोरात्मनश्च पुण्य-जसो (यशो) भिवृद्धये अदृष्ट फलमंगीकृत्य च (चं)
द्राक्र्कार्णवक्षिति१८. समकालं यावत्परया भक्या शाश (स)नेनोदकपूर्व प्रतिपादितमिति मत्वा यथा दीयमान
भाग-भोगक१९. रहिरण्यादिकं देवव्रा (बा)ह्मणाभुक्ति-वर्जमाज्ञा-श्रवणविधेयर्भूत्वा सर्वमस्मै समुपनेतव्यं । सा२०. मान्यं चैतत्पुण्यफलं वुध्वा (बुवा) अस्मद्वंशजैरन्यैरपि भावि-भोक्तृभिरस्मत्प्रदत्त-धर्मादायो
यमनुमन्तव्य : २१. पालनीयश्च । उक्तं च ।
व (ब) हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिर्य्यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा
फलं (लम्)। [५॥] यानीह दत्तानि पुरा नरेंद्रनानि धर्मार्थजस (यश)स्कराणि । निर्माल्यवान्ति प्रतिमानि तानि
___ को नाम साधुः पुनराददीत ।। [६ ॥
इति
अस्मत्कुलक्रममुदारमुदाहरद्भिरन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमो
दनीयं (यम्)। लक्ष्म्यास्तडित्सलिलवुद्व (बुद्रु ) द चंचलायाः दानं फलं परयसः (शः)
परिपालनश्च (नं च) ॥ [७।।] सर्वानेतान्भाविनः पार्थिवेंद्रान् भूयो भूयो याचते
रामभद्रस (द्रः)। सामान्योयं धर्मसेतुर्नृपाणां काले काले पालनीयोभ
वद्भिः ।। [८॥
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२८.
देपालपुर अभिलेख इति कमलदलाम्वुवि (बुबि) दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवि
तं च । स[क]लमिदमुदाहृतं च वुध्वा (बुवा) न हि पुरुषः परकीर्तयो विलोप्याः ।। [९॥] २९. इति । सम्बत् १०७९ चैत्र शुदि १४ । स्वयमाज्ञा। मंगलं महा३०. श्री: । स्वहस्तोयं श्रीभोजदेवस्य ।
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
__ जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, मेघमंडल ही जिसके केश हैं, ऐसे महादेव श्रेष्ठ हैं ।।१।।
प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु, शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें ।।२।। ३. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सीयकदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक ४. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वाक्पतिराजदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज ५. परमेश्वर श्री सिंधुराजदेव के पादानुध्यायी, परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव ६. कुशलयुक्त हो श्रीयुक्त उज्जयिनी पश्चिम पथक के अन्तर्गत किरिकक में आये हुए सभी राजपुरुषों ७. श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के निवासियों, पटेलों और ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं--आपको विदित
हो कि श्रायुक्त धारा में निवास करते हुए हमारे द्वारा असंख्य प्राणिवध करने पर प्रायश्चित की दक्षिणा स्वरूप स्नान कर चर व अचर के स्वामी भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर, संसार की असारता देख कर
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषयभोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाले हैं, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जल बिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।।३।।
घूमते हुए संसाररूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को
पा कर जो दान नहीं करते, उनको पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥ १२. इस जगत का विनश्वर रूप समझ कर ऊपर लिखे ग्राम से गांव की सामान्य भूमि का १३. समतल चार हलयुक्त चौतीस अंश निज सीमा तृण गोचर भूमि तक साथ में हिरण्य
भाग भोग १४. उपरिकर और सभी प्रकार की आय समेत श्रीयुक्त मान्यखेट से आये, आत्रेय गोत्री,
आत्रेय आर्चमानस १५. ये स्वयं श्री भोजदेव के हस्ताक्षर हैं।
(दूसरा ताम्रपत्र) १६. व श्यावाश्व इन तीन प्रवरों वाले, वह वच शाखी भट्ट सोमेश्वर के पुत्र श्रुत (वेद) अध्ययन से १७. सम्पन्न, ब्राह्मण वच्छल के लिये माता-पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिये
अदृष्टफल को अंगीकार कर चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी १८. के रहते तक परमभक्ति के साथ जल हाथ में लेकर राजाज्ञा द्वारा दान दिया है। यह
जान कर जैसा दिया जाने वाला भाग भोग कर
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परमार अभिलेख
१९. हिरण्य आदि, देवताओं व ब्राह्मणों के लिये निर्धारित भाग को छोड़ कर, आज्ञा सुन कर
पालन करते हुए सभी उसको देते रहना चाहिये, २०. और इसके पुण्यफल को समानरूप जान कर हमारे वंश में व अन्यों में उत्पन्न होने
वाले भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना २१. व पालन करना चाहिये। और कहा गया है--
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब-जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब-तब उसी को उसका फल मिला है ।।५।। ... यहां पूर्व के नरेशों द्वारा धर्म व यश हेतु जो दान दिये गये हैं, त्याज्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ।।६।। - हमारे कुलक्रम को उदाहरण रूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये, क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और ( इससे) परयश का पालन करना ही है ।।७।।
- सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार-बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है, अतः अपने-अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिये ।।८।। .. इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्यजीवन को कमलदल पर पड़ी जल-बिन्दु के समान चंचल
समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥९॥ २९. संवत् १०७९ चैत्र सुदि १४। हमारी आज्ञा । मंगल व श्री वृद्धि हो। ३०. ये स्वयं श्री भोजदेव के हस्ताक्ष
.. (१४) शेरगढ़ का सोमनाथ मंदिर प्रस्तर अभिलेख
(संवत् १०८४ =१०२८ ईस्वी) प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है जो १९३६ ई. में अनन्त सदाशिव अल्तेकर ने शेरगढ़ में सोमनाथ के एक ध्वस्त मंदिर में देखा था । इसका विवरण एपि. इं., भाग २३, पृष्ठ १३.७-१४१ में दिया। शेरगढ़ राजस्थान के कोटा जिले में ९० मील दूर परवान नदी पर एक ग्राम है।
अभिलेख का आकार ४१४३३ से. मी. है। इसमें १५ पंक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में ३० से ३६ अक्षर हैं। अक्षरों की स्थिति अच्छी है। अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी है। भाषा संस्कृत है, व गद्य में है। परन्तु इस पर प्राकृत का प्रभाव है। अभिलेख त्रुटियों से भरपूर है। व्याकरण के वर्ण-विन्यास की दृष्टि से श के स्थान पर स का प्रयोग है। त्रुटियों को पाठ में ठीक कर दिया है।
यह एक निजी दानपत्र है। इसमें अनेक दानकर्ताओं के विभिन्न दानों का उल्लेख है। इनमें व्यापारी व श्रेष्ठिन् थे। निजी अभिलेख होने से इसमें शासनकर्ता नरेश का उल्लेख नहीं है। परन्तु अन्य तथ्यों से ज्ञात है कि शेरगढ़ का क्षेत्र इस समय परमार साम्राज्य के अन्तर्गत था । उस समय भोजदेव का शासन चालू था। ....
अभिलेख में तीन विभिन्न तिथियों का उल्लेख है। प्रथम तीनों दान दो तिथियों को दिये गये थे। शेष दान तीसरी तिथि को दिये गये होंगे।
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शेरगढ़ अभिलेख
प्रथम दान का उल्लेख प्रथम दो पंक्तियों में किया गया है। यह दान संवत् १०७४ वैशाख सुदि ३ अक्षय तृतीया को दिया गया था। यहां दिन का उल्लेख न होने से इस का सत्यापन संभव नहीं है। यह तिथि २ अप्रेल, १०१७ ईस्वी के बराबर निर्धारित होती है। दान तीन विभिन्न श्रेष्ठियों-नरसिंह, गोवृष व धीरादित्य द्वारा भट्टारक श्री नग्नक के चरणस्नान के लिये प्रतिदिन एक कर्ष धी के रूप में दिया गया था। एक कर्ष नौ माशा के बराबर होता है। यह दान मंडपिका अर्थात मंडी से प्राप्त कर से दिया गया था । लगता है तीनों व्यापारी किसी एक मंडी समिति के सदस्य थे जिसका कार्य मंडी-कर उगाहना था। भट्टारक श्री नग्नक किसी देव-मत्ति को इंगित करता है।
दूसरे दान का उल्लेख अगली दो पंक्ति क्रमांक ३-४ में किया गया है। यह दान संवत् १०७५ वैसाख सुदि ३ को दिया गया था। यह तिथि २१ अप्रेल १०१८ ईस्वी के बराबर है। दानकर्ता वरंग ‘मार्गादाय-कौप्तिक' कहा गया है। वह संभवतः मार्ग-कर वसूल करने वाला अधिकारी था। दान श्री सोमनाथ देव के लिये चंदनधूप-निमित्त मार्गकर से ५ वृषभ मुद्राएं थीं। अभिलेख की पंक्ति क्र. ७ में वराह-मुद्राओं के उल्लेख से यह मानना होगा कि ये कोई ऐसी मुद्रायें रही होंगी जिन पर वृषभ का चित्र अंकित रहा होगा। हमें ज्ञात नहीं कि परमार नरेशों ने अपने साम्राज्य में कोई विशिष्ट मुद्रायें चलाई थीं। केवल उदयादित्य के कुछ सिक्के प्राप्त हुए हैं जिनके एक ओर बैठी देवी व दूसरी ओर नरेश का नाम है (जर्नल ऑफ दी एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, भाग १६, पुष्ठ ८४) । इस युग में मध्यदेश व राजपुताना में एक प्रकार की मुद्रायें चालू थीं जिनको 'गधिआ मुद्रायें कहा गया है। परन्तु इनको 'वृषभ' कहना ठीक नहीं है। ग्यारहवीं शती में ओहिन्द के हिन्दू नरेश व देहली के तोमर नरेश चांदी व टिन के सिक्कों का प्रयोग करते थे। जिनके अग्रभाग पर अश्वारोही व पृष्ठभाग पर वृषभ के चित्र अंकित थे। यह कहना कठिन है कि इसी प्रकार के सिक्के परमार साम्राज्य में प्रयुक्त होते थे एवं इनको 'वृषभ' नाम से पुकारा जाता था या कि नहीं। प्रस्तुत दान-घोषणा में यह नहीं लिखा है कि उपरोक्त मुद्रायें मासिक अथवा वार्षिक रूप से मंदिर को प्राप्त होती थीं।
उपरोक्त दान के नौ वर्ष उपरान्त संवत १०८४ माघ सदि १३ को, जो १२ जनवरी १०२८ ईस्वी के बराबर होती है, ठक्कर देवस्वामिन ने मंदिर के लिए तीन दान दिये। इनमें दीप-तेल के लिये तैलिकराज भाडयाक से लेकर दो घाणी तेलः पर्णशाला में धप (अगरबत
घाणी तेल; पर्णशाला में धूप (अगरबत्ती) के लिए प्रतिदिन एक कौड़ी: तथा मासवारक के लिये (?) प्रत्येक संक्रांति को दो-वराह मुद्रायें सम्मिलित हैं। यहां मासवारक शब्द ठीक से समझ में नहीं आता । संभवतः यह मंदिर के सामान्य कोष में दिया जाने वाला मासिक धन रहा होगा।
इसके उपरांत पंक्ति क्रमांक ८-१३ में मंदिर के लिये विभिन्न व्यक्तियों द्वारा निवास भवनों के दान देने के उल्लेख हैं। इनमें ९ व्यक्तियों द्वारा आठ भवनों के दिये जाने के विवरण हैं। इन व्यक्तियों में ६ व्यापारी, एक महल्लक अथवा जमींदार, एक तेली एवं एक शंखिक अथवा शंखों का कारीगर है।
___ आंगे पंक्ति १३-१५ में सोमनाथ मंदिर की कुल भूमि (निवास भवनों सहित) की सीमा दी हुई है। इसके अनुसार पूर्व में मंदिर, पश्चिम में ठाकुर कुडणक का निवास स्थान, उत्तर में प्रमुख मार्ग एवं दक्षिण की ओर नदी थी।
___अभिलेख में किसी भौगोलिक स्थल का उल्लेख नहीं है। उसकी आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि सभी दान स्थानीय रूप में दिये गये थे।
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परमार अभिलेख
मूलपाठ १. ओं' । संवत् १०७४ वैसा (शा) ख सुदि ३ अक्षयतृतीयायां मंडपिकादाया[त्] स्रे (श्रे)ष्ठि
नरसिंह गोवृषथीरा२. दित्यै भट्टारक श्री नग्नकस्य पादाभ्यंगाय दिन प्रति घृतकर्षमे[क] १ प्रदत्तं । आचन्द्रार्क] यावत् । ३.. संवत् १०७५ वैसा (शा)ख सुदि ३ श्रीसोमनाथदेवाय चंदनधूप निमित्तं माग्र्गादाये कौप्तिक४. वरंगेन (ण) माग्दायात् (द्) दत्तं वृषभ' ५ आचंद्राकं यावत् ॥छ। संवत् १०८४ माघ सुदि १३ ५. श्री सोमनाथदेवस्य दीपतैल निमित्तं ठक्कुर देवस्वामिना तैलिकराज थाइयाक घाण (णौ) ६. द्वौ प्रदत्तौ आचंद्रा6 यावत् ।। तथा पन्नसालायां धूप-निमित्तं कपर्दकवोडी (ड्री) १ दिनप्र७. ति दातव्या आचंद्रार्क यावत् । तथा मासवारके (?) संक्रांतौ वराह (हौ) द्वौ प्रदत्तौ आचंद्रार्क ८. यावत् । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलमिति ।। श्री सोमनाथदेवस्य वणि" ९. इंदामहिंदका[भ्यां] सत्का वासनिका प्रदत्ता ।। तैलिक थाइयाकेन सत्का वासनिका' प्र१०. दत्ता । तथा वणि[क्] सोढाकेन सत्का वासनिका प्रदत्ता ।। तथा वणिक (क्) साइयाकेन स११. त्का वासनिका प्रदत्ता ।। तथा वणिक (क) श्री हरजसोमाभ्यां स्वकीया (यौ) वासनिको द्वौ २ प्र१२. दत्तौ ।। तथा वणिक (क्) महल्लकेन सत्का वासनिका प्रदत्ता । तथा सं (शं)खिक लक्ष्मीधरेण १३. सत्का वासनिका प्रदत्ता ।। श्री सोमनाथदेव पल्लिका पूर्वतः देवमर्यादा । पश्चिमतः १४. [3]क्कुरकुडणकास्य] वासनिका मर्यादा । उत्तरतः मार्गमा (म)र्यादा । दक्षिणतः नदी मर्या१५. दा। चतुराघाटसाधिता श्री सोमनाथदेवपल्लिका ॥छ।। मंगलं महाश्रीः ।। . . . ।
(अनुवाद) १. ओं। संवत् १०७४ वैशाख सुदि ३ अक्षय तृतीया को मंडपिका से आये हुए श्रेष्ठि नरसिंह,
धीरादित्य ने २. भट्टारक श्री नग्नक के चरण स्नान (तैलमर्दन) के लिए प्रतिदिन एक-एक कर्ष (मान का)
घी दिया, जब तक सूर्य चन्द्र हैं। ३. संवत् १०७५ वैसाख सुदि ३ श्री सोमनाथदेव के लिये चंदन धूप निमित्त मार्ग-कर में
कौप्तिक वरंग के द्वारा ४. मार्ग कर से ५ वृषभ मुद्रायें सूर्य चन्द्र पर्यन्त प्रदान की गई। संवत् १०८४ माघ सुदि
१३ को ५. श्री सोमनाथदेव के निमित्त दीप तेल के लिये ठक्कुर देवस्वामि ने तैलिकराज थाइयाक से
(ले कर) दो घाणी तेल १. चिन्ह द्वारा अंकित। २. क्ष अक्षर कुछ भग्न है। ३. डी. आर. भण्डारकर के अनुसार 'धीरा' (इं. ऐं., भाग ४०, पृष्ठ १७६) । ४. यह दण्ड अनावश्यक है। ५. पढ़िये--"दत्ता वृषभाः" । ६. पढ़िये--- "पर्णशालायां"। डी. आर. भण्डारकर के अनुसार 'पल्लसालायां" । ७. पढ़िये--वणिग्म्यमिदा . ८. अक्षर 'का' कुछ क्षतिग्रस्त है। ९. दण्डों के मध्य एक चिन्ह है।
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वाग्देवी-मूर्ति अभिलेख
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६. सूर्य चन्द्र के रहते तक के लिये दिये । तथा पर्णशाला में धूप के निमित्त प्रतिदिन १ __कौडी सूर्य चन्द्र के रहते तक दी गई। ७. तथा मासवारक (?) के निमित्त प्रत्येक संक्रांति को दो वराह-मुद्रायें चन्द्रसूर्य के रहते तक
के लिये दी। ८. जब जब यह भूमि जिसके अधिकार में होती है तब तब उसी को उसका फल मिलता है।
श्री सोमनाथ के लिये ९. महाजन इंदा महिंदका ने उत्तम निवास भवन प्रदान किया। तैलिक थाइयाक ने उत्तम
निवास भवन प्रदान किया। १०. तथा वणिक सोढ़ाक ने उत्तम निवास स्थान प्रदान किया। तथा वणिक साइयाक ने ११. उत्तम निवास भवन प्रदान किया, तथा वणिक हरज व सोम ने अपने दो निवास स्थान
प्रदान किये। १२. तथा वणिक महल्लक ने उत्तम निवास स्थान प्रदान किया। तथा शंखों का व्यापार करने
वाले लक्ष्मीधर ने १३. उत्तम निवास प्रदान किया । श्री सोमनाथदेव के (मंदिर के आसपास की भूमि के)
प्रसार के पूर्व में मंदिर, पश्चिम में १४. ठक्कुर कुडणक का निवास स्थान, उत्तर में (प्रमुख) मार्ग, दक्षिण की ओर नदी १५. इस प्रकार चारों सीमाओं से निर्धारित सोमनाथदेव की भूमि का प्रसार है ।छ। मंगलं महाश्री।
(१५) भोजदेव-निर्मित वाग्देवी-मूर्ति अभिलेख
(संवत १०९१=१०३४ ईस्वी)
प्रस्तुत अभिलेख भोजदेव द्वारा निर्मित सरस्वती प्रतिमा की पादपीठ पर उत्कीर्ण है। इसका प्रथम उल्लेख के. एन. दीक्षित ने अंग्रेजी जर्नल रूपम, क्रमांक १७, जनवरी १९२४, पृष्ठ १-२ पर किया। वी. एन. रेऊ ने "भोजराज", १९३२, पृष्ठ ८४-८५ पादटिप्पणी में इसका उल्लेख किया। सी. बी. लेले ने परमार इंस्क्रिप्शनस इन धार स्टेट, १९४४, पृष्ठ ९५ पर उल्लेख किया। वी. एस. वाकणकर ने जनवरी १९७० में विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में भोज सेमिनार में इस पर एक लेख पढ़ा । वर्तमान में प्रतिमा ब्रिटिश म्यूज़ियम, लन्दन में है।
पादपीठ के पत्थर का आकार ३०.४४ १०.१६ सें. मी. है । लेख ४ पंक्तियों का है। अक्षर सुन्दर ढंग से खुदे हैं, परन्तु कुछ टूट गये हैं। इस कारण पाठ में मतभेद उत्पन्न हो गये हैं । लिपि ११वीं सदी की नागरी है । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है । इस में शार्दुलविक्रीडित छन्द में एक श्लोक है । शेष भाग गद्य में है। वर्णविन्यास की दृष्टि से श के स्थान पर स (सिवदेवेन) एवं र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है (निर्ममे)। सभी स्थलों पर अनुस्वार का प्रयोग है ।
तिथि अन्त में संवत् १०९१ केवल अंकों में बगैर अन्य विवरण के है । यह १०३४ ईस्वी के बराबर है । प्रमुख ध्येय नरेश भोज द्वारा सरस्वती की प्रतिमा की स्थापना करना है। उस प्रतिमा का शिल्पकार सूत्रधार साहिर का पुत्र मनथल था । अभिलेख शिवदेव के द्वारा उत्कीर्ण किया गया था ।
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परमार अभिलेख
यहां भोज की उपाधि नरेन्द्रचन्द्र लिखी हुई है । नाम, तिथि, लिपि व अन्य साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है वह मालवा के परमार राजवंशीय नरेश भोजदेव ही हैं। विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर ज्ञात होता है कि भोजदेव ने अपनी राजधानी धारा नगरी में सरस्वती का एक मन्दिर बनवाया था जिसमें उक्त प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गई थी । धार की भोजशाला में सुरक्षित एक प्रस्तर शिला पर उत्कीर्ण महाकवि मदन द्वारा रचित पारिजात-मंजरी उपनाम विजयश्री नामक नाटिका में उसको 'भारती भवन' कहा गया है। प्रबंधकारों ने इसको 'सरस्वती कण्ठाभरण प्रासाद' लिखा है जिसमें कवि धनपाल के काव्य की पद्रिकायें दीवारों पर लगाई गई थीं। तिलकमंजरी की प्रस्तावना में भी इसी प्रकार का उल्लेख है। वर्तमान में सर्वसाधारण इस प्रासाद को भोजशाला कहते हैं । किन्तु प्रभावकचरित्र के सुराचार्य चरितम् में “अथ श्री भोजराजस्य वाग्देवीकुलसदनः” उल्लेख है । इसको पाठशाला भी कहा गया है जहां भोजदेव द्वारा रचित व्याकरण का अभ्यास होता था। साथ ही वहां विद्वत्सभाओं का आयोजन भी होता था जिनकी अध्यक्षता भोजदेव स्वयं किया करते थे।
वाग्देवी प्रतिमा ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दन में कैसे पहुंची, इसके बारे में केवल इतनी सूचना प्राप्त है कि १९वीं शताब्दी में किसी समय एक अंग्रेज अधिकारी को भोजशाला के खण्डहरों में उक्त प्रतिमा पड़ी मिली जिसको वह अपने साथ इंग्लैण्ड ले गया। बाद में उसने अपना मूर्ति-संग्रह हिंदुस्टुअर्ट नामक व्यक्ति को बेच दिया। स्टुअर्ट ने मृत्यु से पूर्व अपना पूरा संग्रह क्वीन्स म्यूजियम को भेंट कर दिया। यही संग्रहालय बाद में ब्रिटिश म्यूजियम में परिवर्तित हो गया।
सरस्वती प्रतिमा मकराणा काले संगमरमर की बनी हुई है । इसकी ऊंचाई चार फीट है। प्रतिमा का विवरण कुछ इस प्रकार से है। इसके सिर पर मुकुट है जो चार मणिपट्टों, तीन रत्नपट्टिकाओं व नीचे मणिमालायुक्त है तथा करण्डाकार है। पीछे दाहिनी ओर केश-बंध है। बायें कान में ऊपर एक अलंकार है जो दो मणिपट्ट व लोलमणियों से जड़ा है। दाहिना कान ऊपर से टूटा है। दोनों कानों में नीचे कर्णकुण्डल हैं। गले में तीन मणिमालाओं से संकलित अलंकरण पड़ा है । स्तनों पर चोली है । नीचे कटिबंध मेखलाओं की तीन पंक्तियां हैं। अंतिम पंक्ति में घंटायुक्त कांचिपदम के चार पट्ट अर्द्धगोलाकार रूप में लटक रहे हैं । मध्य में घुटनों के नीचे तक मणिमालायें लटक रही हैं । इसके नीचे वस्त्र की सलवटें हैं। प्रत्येक पांव में चार वलय तथा एक मंजीर है। प्रतिमा के चार हाथ हैं परन्तु नीचे के दो हाथ टूट गये हैं । ऊपर के दोनों हाथों में भुजबंध तथा दो दो कंकण हैं। ऊपर के दाहिने हाथ में एक लम्बा कलमदान है, परन्तु बायें हाथ की वस्तु टूट गई है। प्रतिमा स्थानक (भावयक्त) है तथा त्रिभंगावस्था में है।
___ वाग्देवी के चरणों के पास दोनों ओर कुछ मूर्तियां बनी हुई हैं। दाहिनी ओर एक दाढ़ीयुक्त पुरुष है जिसके हाथों में कुछ वस्तु थी परन्तु वह टूट गई है, शायद वीणा रही हो । उसके सामने एक छोटे कद का पुरुष है जो संभवतः श्रीफल लिये है। दाहिनी ओर सिंहवाहिनी स्त्री है जिसके ऊपर (सोते अथवा सोने) खुदा है। इनके अतिरिक्त ऊपर मुख्य प्रतिमा के दाहिनी ओर एक उड़ती हुई देवकन्या की मूर्ति बनी है जिसके हाथ में पुष्पमाला है। बाई ओर की आकृति अस्पष्ट है।
वाग्देवी ध्यान मुद्रा में है । इसका मुख सुन्दर व शान्त मुद्रा में है। उसकी उरु-माला व मुकुट की बनावट द्रविड़ शैली में है एवं उसके बाजुबंद व कंगन बंगाल-उड़ीसा की आदि मूर्तियों के समान हैं। (प. रा. इ. गां., पृष्ठ २७२-२७३ ) । प्रतिमाज्ञान विशेषज्ञ ओ. सी. गांगूली लिखते हैं कि यह प्रतिमा मनोरम, शांत मुद्रा, मनमोहक और सामंजस्यपूर्ण मधुर संबंधयुक्त है। गरूडीय आकारों
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ardhar - मूर्ति अभिलेख
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की चारूता व माधुर्य और शरीर संस्थान के निरूपण के व्यापक निमंत्रण की दृष्टि से जो किसी भी अतिशयोक्ति से प्रायः मुक्त है वह अपूर्व सौंदर्य की उत्कृष्ट कृति है । उसकी गति धारणा का अभाव सर्वाधिक चित्ताकर्षक है जो राजसिक व सात्विक भावों के बीच में प्रायः परिवर्तित होता रहता है ( रूपम, १९२४, पृष्ठ १) | शिवराम मूर्ति महोदय के अनुसार भोज द्वारा संरक्षित परमार कालीन मूर्तियों का यह सर्वश्रेष्ठ नमूना उपस्थित है ( इंडियन स्कल्पचर, पृष्ठ १०७ ) ।
ऐसी संभावना है कि विद्याधरी की उक्तमूर्ति धार में भोजशाला के भीतर ठीक पश्चिम की ओर बड़े बरामदे में सामने की दीवार में बनी पीठिका में स्थापित थी। पीठिका में चढ़ने के लिये सीढ़ियां हैं। इन सीढ़ियों के स्तम्भों के पत्थर पर दोनों ओर नागबंध खुदे हुए हैं जिनमें पूर्ण वर्णमाला बनी हुई है । संभवतः यह बड़ा बरामदा ही वह सभागृह रहा होगा जहां विद्वत्सभा होती होगी ।
जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि प्रतिमा के पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख के पाठ में बहुत विभिन्नता है । इसका प्रमुख कारण कुछ अक्षरों का क्षतिग्रस्त होना है । वास्तव में पाठभेद केवल पद्यमय भाग में ही है, गद्यमय सारा भाग पूर्णतः सुरक्षित है । पद्यमय भाग के विभिन्न पाठ निम्नानुसार है:
( अ ) के. एन. दीक्षित द्वारा वाचन-
"ओं श्रीमद्भोजनरेंद्रचंद्र नगरी विद्याधरी ( ? ). नधिः नम स स्म खलु सुखं [ प्र प्य न ] याप्सराः वाग्देवी[म्] प्रतिम[म्] विधाय जननी यस्याज्जि [तनम् त्रयी]
. फलाधिकांधर [ सरिन् ] मूर्तिम् सुभं निर्ममे " ( रूपम् १९२४, पृ. २)
(आ) सी. बी. लेले का पाठ --
ओं । श्रीमद्भोजनरेंद्रचंद्र नगरी विद्याधरी...
म नधिनमासस्म खलु सुखं [ प्राप्यान ] याप्सरः वाग्देवी प्रतिमां विधाय जननीं यस्यार्जितानां वयीं . मूर्ति शुभां निर्ममे
• फलाधिकां धारा....
( परमार इंस्क्रिप्शनस इन धार स्टेट, १९४४, पृ. ९५ )
(इ) वी. एस. वाकणकर का प्रथम पाठ जो प्रत्यक्ष मूर्ति को प्रथमबार देखने पर तैयार किया थाओं श्रीमद्भोजनरेंद्रचंद्र नागरी विद्याधरी
मंविः यो या नाम... . णंलु सुखं प्रस्थाप्यतां याप्सरः वाग्देवी थम विधाय ( विहाय ) जननीमस्यार्जितानां तयी मयचित्सुफलाधिकां वर रुचित मूर्ति शुभां निर्ममे ।
( भोज सेमीनार में प्रस्तुत लेख, १९७० )
(ई) एल. एस. वाकणकर, बम्बई का पाठ -
श्रीमद्भोजनरेंद्रचंद्र नगरीम्मूर्ती
योद्यो नामर सुंदरी खलुसुखं प्रस्थाप्यतां याप्सराः वाग्देवी प्रथम विभाग जननी यस्यार्जितामत्रयी ययचित्सुफलाधिका वररुचिम्मूर्ति शुभां निर्ममे ।
( उपरोक्त लेख से उद्धृत )
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परमार अभिलेख
(उ) बाबू शास्त्री भट्ट, धार द्वारा पाठ--
श्रीमद्भोजनरेंद्रचंद्र नगरी विद्याधरी मूर्तिमत् योधा नामर सुंदरा खलु सुखं प्रस्थाप्यतां चाप्सरा: वाग्देवी प्रथम विधाय (विभाग) जननी यस्याजितानात्रेयी
यस्यचित्सुफलाधिका वररूचि मूर्ति शुभां निर्मये। (उपरोक्त लेख से उद्धृत) (ऊ) एच. आर. दिवेकर का पाठ जो १३-१०-१९७० को उन्होंने ए. डब्ल्यू. वाकणकर, धार के पास अभिलेख के फोटोग्राफ से पढा
ओं। श्रीमद्भोजनरेंद्रचंद्रनगरी विद्याधरी संसुधीः सौख्यायामर संसदः खलु पुरस्याराधनः याप्सराः वाग्देवीं प्रथमं विधाय जननीं यस्यां जिता वा त्रयी यस्यो वागम संविदां वररूचिमूर्ति शुभां निर्ममे।
(ए. डब्ल्यू. वाकणकर, धार से प्राप्त) (ए) वी. एस. वाकणकर, उज्जैन का दूसरा पाठ जो उन्होंने पेंसिल रबिंग के आधार पर तैयार
किया।
वी. एस. वाकणकर ने इस बारे में अपने लेख में लिखा है कि विद्याधरी के आगे म्मूर्तिः स्पष्ट है किन्तु यो या नाम के आगे अक्षर अस्पष्ट से हैं। रणं स्पष्ट है, पदं भी स्पष्ट है। वाग्देवी के आगे प्रथम विधाय स्पष्ट है। प्रथम के स्थान पर दीक्षित व लेले का वाचन प्रतिमा है पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि ति न होकर वह थ है तथा मा न हो कर म है। अत: प्रतिमा न होकर प्रथम ही ठीक है। भ और ध का अन्तर करना ठीक न होगा क्योंकि ध स्पष्टतया अंकित है । वे आगे लिखते हैं कि उनके वाचन में संस्कृत की दृष्टि से दोष हैं । अतः यह समस्या अभी भी शेष ही है।
मूल पाठ (संशोधित) १. ओं।
श्रीमद् भोजनरेंद्रचंद्र नगरी विद्याधरीम्मूर्तिः यो या नाम स्मरणं पदं खलु सुखं प्रस्थाप्यता
याप्सराः। वाग्देवी प्रथम विधाय जननीमस्याजिता नामवयी मस्यचित्सु फलाधिका वररुचिन्मूर्ति शुभां
निर्ममे ।। [१] ___इति शुभं । सूत्रधार साहिरसुत मणथलेन धटितं । विटिका सि (शि) वदेवेन लिखितमिति । ४. संवत् १०९१ ।
अनुवाद १. ओं। ___ श्रीमान भोजनरेन्द्रचन्द्र की नगरी में जो मूर्तिमति विद्याधरी देवी की मूर्ति है, जिसके नामस्मरण से ही निश्चित रूप से सुख प्राप्त होता है, इसकी स्थापना करके जिसने प्रथम बार मां वाग्देवी का निर्माण करके तीनों लोकों में नाम कमाया, जिसका पूजन करने से मनोरथ पूर्ण
होते हैं, यह शुभ सुन्दर मूर्ति निर्मित की ।।१।। ३. शुभ हो । सूत्रधार साहिर के पुत्र मनथल के द्वारा घड़ी गई । पंक्तियां शिवदेव द्वारा लिखी गई। ४. संवत् १०९१ ।
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तिलकवाड़ा अभिलेख
.७१
(१६) तिलकवाड़ा का भोजदेव कालीन ताम्रपत्र अभिलेख
(संवत् ११०३= १०४६ ईस्वी)
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो १९१७ ई. में गुजरात में तिलकवाडा के पास नर्मदा नदी के तल में एक व्यक्ति को स्नान करते हुए प्राप्त हुए थे। जे. एस. कुदलकर ने आल इंडिया ओरियंटल कान्फ्रेंस, पूना, १९१९ में एक लेख में इसका विवरण दिया। डिस्कलकर महोदय ने एपि. इं., भाग २१, पृष्ठ १५७-१५९ में इसका विवरण छापा। ताम्रपत्र सेंट्रल लायब्रेरी, बड़ोदा में सुरक्षित हैं।
ताम्रपत्रों का आकार २२४ १४ एवं २३४ १३ सें. मी. है। प्रथम ताम्रपत्र पर लेख दोनों ओर व दूसरे पर अग्रभाग में खुदा है। दोनों में एक-एक छेद है जिसमें कड़ी पड़ी थी। इनका वजन ०.९१० किलोग्राम है। ये काफी पतले हैं।
लेख २९ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र के अग्रभाग पर १३, पृष्ठ भाग पर १० एवं दूसरे पर ७ पंक्तियां खुदी हैं। संभवतः प्रारम्भ में एक ताम्रपत्र और था जो प्राप्त नहीं हुआ है। यह राजकीय अभिलेख नहीं है, यद्यपि श्लोक २०-२१ में इसको 'शासन' लिखा है।
___अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी लिपि है । उत्कीर्ण कार्य भद्दा है। उत्कीर्ण करने में छेनी के कुछ निशान बन गये हैं जिससे पढ़ने में गड़बड़ होती है। अक्षरों की लम्बाई प्राय: ५ सें. मी. है । भाषा संस्कृत है । सारा अभिलेख पद्य में है । इस में २१ श्लोक हैं । इनमें क्रमांक नहीं है। अतएव यह ज्ञात करना सरल नहीं कि अप्राप्य ताम्रपत्र में कितने श्लोक थे।
वर्णविन्यास की दष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श म् के स्थान पर अनुस्वार बने हैं। संधि का प्रयोग त्रुटिपूर्ण है। कुछ शब्द ही गलत हैं। इनको पाठ में सुधार दिया गया है । ये सभी प्रदेश व काल के प्रभाव को प्रदर्शित करते हैं एवं कुछ उत्कीर्णकर्ता द्वारा बन गए हैं।
तिथि श्लोक ८-९ में शब्दों में विक्रमादित्य संवत् ११०३ मार्गशीर्ष, सोमपर्व, सोमवार लिखी है। यहां संवत् के साथ विक्रमादित्य नाम संभवतः छन्द के कारण है। यह सोमवार १६ नवम्बर १०४६ ईस्वी के बराबर है।
अभिलेख के प्रमख ध्येय के अनसार श्री भोजदेव के अधीन संगमखेट में मंडलेश्वर जसोराज (यशःराज) द्वारा सारा विलुहजग्राम व घण्टपल्ली ग्राम में से सौ(अंश) भूमि के दान का उल्लेख करना है। भदान घण्टेश्वरदेव के (मंदिर) के लिये था । दानग्रहण करने वाला व्यक्ति महाव्रती मुनि दिनकर था जो साक्षात् नरमुंड धारण करने वाला शंकर कहा गया है।
अभिलेख का प्रारम्भ श्लोक के अंतिम चरण से होता है। अतएव इससे पूर्व एक ताम्रपत्र और रहा होगा जो अप्राप्य है। इसमें भोजदेव के पिता (सिंधुराज) की प्रशंसा है। श्लोक २ में भोजदेव का गुणगान है। श्लोक ३-५ में उसके अधीन सुरादित्य नामक प्रान्तपति का उल्लेख है जो श्रवणभद्र वंश का था। वह कान्यकुब्ज का निवासी था। उसने युद्धों में नरेश की सहायता की व अनेक शत्रुओं का नाश किया, जिनमें साहवाहन का नाम दिया गया है। श्लोक ६ में सुरादित्य के पुत्र जसोराज द्वारा संगमखेटक मंडल पर शासन करने का उल्लेख है। श्लोक ७ में भूदान हेतु अमात्यपुत्रों व निवासियों से अनुमति प्राप्त करने का उल्लेख है। फिर तिथि, दान में
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७२
परमार अभिलेख
दी गई भूमि एवं दान प्राप्तकर्ता के विवरण हैं। श्लोक २० में लेखक का उल्लेख है। आगे लेख में संभावित त्रुटियों के लिये क्षमायाचना है। मंगल के साथ अभिलेख का अन्त होता है।
यहां प्रथम समस्या नरेश भोजदेव का तादात्म्य निर्धारित करना है, क्योंकि उसके वंश अथवा पिता के नाम नहीं हैं। न ही राजकीय उपाधियां हैं। एक सुझाव है कि यह नरेश कान्यकुब्ज का प्रतिहार वंशीय भोज द्वितीय था। परन्तु उसका शासनकाल ९०८ से ९१० ईस्वी तक केवल ३ वर्ष का था । दूसरे, वह प्रस्तुत अभिलेख की तिथि से १३४ वर्ष पूर्व हो गया था। तीसरे, यह भी संभव नहीं है कि भोजदेव के सामन्त सुरादित्य व उसके पुत्र जसोराज जो कान्यकुब्ज के श्रवणभद्र वंश के थे, के मध्य १३४ वर्ष का अन्तर हो। अतएव प्रस्तुत अभिलेख के भोजदेव का तादात्म्य मालवा के परमार राजवंशीय नरेश भोजदेव से करना ही युक्तियुक्त है। अभिलेख की तिथि, प्राप्तिस्थान एवं लिपि आदि सभी इसी नरेश की ओर इंगित करती हैं।
__ दूसरी समस्या यह है कि प्रस्तुत अभिलेख में उल्लिखित साहवाहन नामक कौन नरेश था जिसको भोजदेव के लिये उसके सामन्त सुरादित्य ने अन्य शत्रु-नरेशों के साथ हराया था। उत्तरकालीन परमार नरेश उदयादित्य के तिथिरहित उदयपुर प्रस्तर-खण्ड अभिलेख (क्र. २२) के श्लोक क्र. १९ में भोजदेव की विभिन्न विजयों में कर्णाट, लाटपति, गुर्जरनरेश व तुरुष्कों, जिनमें मुख्य चेदि नरेश इन्दरथ, तोग्गल तथा भीम के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इनकी गणना प्रस्तुत अभिलेख के श्लोक क्र. ४ में उललिखित 'अन्येषां भुभुजां' के अन्तर्गत की जा सकती हैं, परन्तु प्रमुख रूप से नाम लेकर उल्लिखित साहवाहन के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं होता। यह संभावना तो अत्यन्त न्यून है कि साहवाहन सातवाहन का अपभ्रंश है, क्योंकि सातवाहन (आंध्रसातवाहन) वंश का अन्त २१८ ईस्वी में ३०वें व अंतिम नरेश पूलोमावी चतुर्थ के साथ ही हो गया था (आर. जी. भण्डारकर--अर्ली हिस्ट्री ऑफ डेक्कन, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ २६) । कुदलकर महोदय पूना ओरियंटल कांफ्रेंस की प्रोसीडिंग्स १९१९ में लिखते हैं कि यह साहवाहन क्या तुर्कीसाही अथवा शाहीय नरेशों में से कोई है ? ये नरेश कुशाण नरेश कनिष्क के वंशज थे जो काबुल में ८७० ईस्वी तक शासन करते रहे, जब अरब सेनापति याकुबेलायस ने इस नगर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया और बाद में राजधानी बदल कर सिंधुनदी पर ओहिन्द नगर में ले आया। अन्य संभावना यह है कि साहवाहन कोई ऐसा नरेश रहा हो जो तुर्की शाहीय वंश का अन्त कर अपने वंश की नींव डालने वाले ब्राह्मण लल्लिय का वंशज हो। यह घटना काश्मीर नरेश शंकरवर्मन (८८३-९०२ ईस्वी) के शासनकाल में घटी थी। ब्राह्मण लल्लिय द्वारा संस्थापित वंश का नाम हिन्दु शाहीय विख्यात हुआ। यह वंश कम से कम १०२१ ईस्वी तक चालू रहा, जब महमूद गजनवी के सेनापतियों द्वारा इस वंश का अन्त कर दिया गया।
इस संबंध में डी. सी. गांगुली (प. रा. इ., १९७०, पृष्ठ ८०) लिखते हैं कि साहवाहन नामक किसी नरेश का अब तक पता नहीं चला है जो भोज का समकालीन रहा हो। परन्तु ग्यारहवीं शती में छम्ब (पंजाब) में एक वंश का शासन था जिसका सर्वाधिक शक्तिशाली नरेश सालवाहन देव था। इसने अन्य उपाधियों के अतिरिक्त परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर की राजकीय उपाधियां भी धारण की थीं। उसके वीर सैनिकों ने दुर्गद के अधीश्वर व तुरुष्कों को पराजित किया था। त्रिगर्त नरेश ने उससे मैत्री की याचना की और कुलूत नरेश से उसने राजनिष्ठा प्राप्त की थी (इंडियन ऐंटिक्वेरी, भाग १७, पृष्ठ ८-९)। राजतरंगिणी (स्टीन कृत
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तिलकवाड़ा अभिलेख
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अनुवाद, पुस्तक ७, जिल्द १, पृष्ठ २१८) में उक्त नरेश सालवाहन को भोजदेव का समकालीन लिखा है और यह भी कि काश्मीर नरेश अनन्त ने इस नरेश की शक्ति का अवरोध किया था। कनिंघम के मतानुसार उक्त घटना सन् १०२५ व १०३१ ईस्वी के मध्य घटी होगी। (ज्योग्राफी ऑफ ऍन्शंट इंडिया, पृष्ठ १६२)। काश्मीर से भोजदेव का घनिष्ठ संबंध था जो छम्ब के उत्तर में स्थित है (राजतंगिणी, जिल्द १, पृष्ठ २८४)। छम्ब ताम्रपत्र अभिलेख (इंडियन ऐंटिक्वेरी, भाग १७, पृष्ठ ८) से सालवाहनदेव के अन्य सामरिक पराक्रमों के बारे में विदित होता है कि इसने कुरुक्षेत्र में अपने "शत्रुओं के हाथियों" की व्यूहरचना को नष्ट कर 'करिवर्ष' की उपाधि धारण की थी। कुरुक्षेत्र वर्तमान में हरियाना राज्य के करनाल जिले में विख्यात धर्मस्थान है। अतः संभव है कि छम्ब नरेश सालवाहनदेव से भोजदेव की मठभेड कुरुक्षेत्र में हई हो। यह तथ्य, कि सुरादित्य ने साहवाहन को हरा कर भोजदेव की राजलक्ष्मी को स्थिर करने का दावा किया है, संकेत करता है कि इसके अधीश्वर को युद्ध में कुछ प्रारंभिक पराजय सहन करनी पड़ी थी, यद्यपि अन्ततः वह विजयी हुआ।
इसके विपरीत डिस्कलकर ( एपि. इं., भाग २१, पृष्ठ १५८-१५९ ) ने मत प्रकट किया है कि साहवाहन वास्तव में चाहमान का ही अपभ्रंश है जिसमें स च में और व य में बदल गया । यह प्राचीन अभिलेखों में सामान्य बात है । इस आधार पर मानना चाहिये कि परमार सेनाओं ने चाहमान राजधानी शाकम्भरी पर अधिकार कर लिया, क्योंकि बाद में नाडोल का चाहमान नरेश अणहिल्ल अपने बंधु की सहायता हेतु आया और इसने वीर्यराम चौहान के उत्तराधिकारी चामुण्डराज को शाकम्भरी के स्वतंत्र करवाने में सहायता की। इस बार उसने भोजराज द्वारा चाहमान राज्य में नियुक्त परमार सेनापति साढ़ का युद्धक्षेत्र में वध कर दिया था (ऐपि. इं., भाग ९, पृष्ठ ७५, श्लोक ९; दशरथ शर्मा-अर्ली चौहान डायनेस्टीज़, पृष्ठ ३५, पादटिप्पणी १६)।
भूदानकर्ता श्री जसोराज संभवतः किसी राजघराने का व्यक्ति था क्योंकि इसका पिता सुरादित्य, जो कान्यकुब्ज से आया था व श्रवणभद्र वंशीय था, को नरोत्तम अर्थात पुरुषश्रेष्ठ कहा गया है। इसके अतिरिक्त दान देते समय जसोराज ने अमात्यपुत्रों व प्रधान देशवासियों को बुला भेजा था, जिससे विदित होता है कि इसके द्वारा भुक्त पद में इतनी क्षमता थी कि वह अमात्यपुत्रों को उपस्थिति की आज्ञा दे सकता था। आगे श्लोक क्र. २० में लेखक लिखता है कि यह राजपत्र राजा की आज्ञा से लिखा गया जो संभवत: श्री जसोराज ही था। यह सोचना तो युक्तियुक्त नहीं होगा कि दानपत्र के निस्सृत करते समय जसोराज राजकार्य से मुक्त होकर नर्मदा के किनारे संगमखेट मंडल में धार्मिक जीवन व्यतीत कर रहा था।
भौगोलिक स्थानों में तिलकवाडा भूतपूर्व बडोदा राज्य में इसी नाम के एक छोटे महाल का प्रधान कार्यालय था। संगमखेट मंडल भी उसी के पास वर्तमान में सन्खेडा महाल है। तिलकवाडा में नर्मदा व मना (मेना या मेनी) नदियों का संगम होता है। मणेश्वर का मंदिर वहीं पर स्थित आधुनिक मणिनागेश्वर शिव का मंदिर है। तिलकवाडा से प्रायः ११ मील दूर एक ग्राम घंटोली नामक है जिसकी समता अभिलेख के घंटापल्ली ग्राम से की जा सकती है। इसी प्रकार घंटोली से प्रायः २ मील की दूरी पर अन्य ग्राम बेलपुर है जिसकी समता बिलुहज से की जा सकती है। घंटोली ग्राम में घंटेश्वर का मंदिर अब जीर्णशीर्ण अवस्था में है। ऐसा प्रतीत होता है कि ताम्रपत्र, जो इसी मंदिर में सुरक्षित रखे थे, किसी समय नर्मदा नदी की बाढ़ में इस मंदिर के साथ ही बह गये होंगे।
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परमार अभिलेख
सि
मूलपाठ (प्रथम ताम्रपत्र--अग्रभाग) प्रापुः सखित्वन (म)चलं रिपवो दुरन्ताः ।।१।।] तस्माद्वभूव भुवि विश्रुतकीर्तिपुंज: श्रीभोजदेव इति शत्रु (क ?) जनस्य दंडी। दग्धा (? ) प्रतापशिखिना रिपुयक्षसां (वक्षां)निःकंटकं किल चकार चिरेण राज्यं (यम्) [२॥] तत्पादकमलध्याता कान्यकुब्ज
विनिश्रुतः । वंशे श्रवणभद्राणां सुरादित्यो नरा (रो)त्तमः ।।३।। साहवाहनसंग्रामे
___ अन्येषामपि भुभुजां । हत्वा योधां स्थिरां लक्ष्मी भोजदेवे चकार यः ।।४।। एवं कुर्वन (न)
'सौ क्षीणसुराणां धुरि वर्तिना। सुरादित्येति यन्नाम य (च ? ) तस्य हि शो
भते ।।[५] तत्पुत्र श्रीजसोराज संगमखेटमंडले । भुंजन्वृति सदा धर्मी धर्माया
तितरां बभौ ।।[६॥] आकार्यामात्यपुत्रा (त्रां) श्च प्रधानां देव (श) वासिनः । अनुमति प्रार्थ
यामास विदितं वोपराक्रम (मम्) ॥[७॥] सम्मतस्तै स्वधर्मण गत्वा श्रीनर्मदातटे । वस (त्स) रैविक्रमादित्यैः शतैरेकादशैस्तथा ।।[८॥] व्युत्तरैर्मार्गमासेस्मि
न सोमे सोमस्य पर्वणि । स्नात्वा गुरुरनुज्ञातः कृत्वा देवच्च (वार्च)नादिकान् ।।९।।] मणाया सङ्गमे रम्ये मणेश्वर सि (शि)वालये। दक्षिणमति सि(शिवेन मार्गे(प्रथम ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग)
-णोदकपूर्वकं (कम्)।।१०।।] श्रीघण्टेश्वरदेवाय ग्रामं विलुहज (?) ददौ । घण्टा
पल्यां तथा ग्रामे शतं भूमेः सुसो (शो) भनं (नम्) ।।[११] चतुराघाटनोपेत्तदा
. नंमेतददौ स्थिरं (रम्) । उपकाराय सर्वेषामत्क (मात्म) पापविहूतये ।।[१२॥]
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तिलकवाड़ा अभिलेख
.७५
हरन्नरकमायाति
दकग्राहक : तत्रमहाव्रत धरो मुनि । दिनकरो नाम यः साक्षा
____ कपालीव सं (शं) करः ॥१३॥ एतदत्तं मया दानं पालनीयं नरोत्तमैः ।। सि (शि)वस्य धर्ममिच्छद्भिः कल्याणमिहजन्मनि ।।[१४।।] सामान्योयं
धर्मसेतुः नृपाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः । सर्वा
नेतान्भाविन पार्थिवेंद्रान् भूयो भूयो याचते रामभद्रः ।।[१५।।] ब (ब) हुभिर्वसुधा भुक्ता राजानः (जभिः) सगरादिभिः । यस्य यस्य
____ यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्) ॥१६॥] षष्टिः वर्षसहश्राणि(द्वितीय ताम्रपत्र--अग्रभाग)
-स्वर्गे तिष्टति भूमिदः । आच्छेता (त्ता) चानुमंता च तान्ये (तावे)व नरक वसेत् ।।[१७।। स्वर्णमेकं गवामेकां भूमेरप्येकमंगुलं (लम्) ।
संप्लवं (वम् ) ॥[१८] विध्याटवीष्वतोयासु सु (शु)ष्ककोटरवासिनः। कृष्णसभिजायन्ते
भूमिहर्ता नराश्च ये ॥[१९॥] बालस्यान्वय-संभूत-कायस्थ-ऐवलात्मजः सा (शा)सनं
___ सोहिको नाम राज्ञाभ्यर्थ (न)याकरोत् ॥[२०॥] उनातिरिक्तमज्ञानाल्लिखितं सा (शा)सनेत्र यत् । प्राणाम
मेव कर्तव्यं संतः सर्वसहायतः ।।[२१॥ मंगलमहाश्रीः ॥
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र--अग्रभाग) जिनका अन्त करना कठिन है ऐसे शत्रुओं ने जिसकी अचल मित्रता प्राप्त कर ली ॥१।।
उससे श्री भोजदेव उत्पन्न हुआ, पृथ्वी पर जिसका कीर्तिपुंज विख्यात था। वह शत्रुओं को दण्ड देने वाला था। उसकी प्रतापरूपी अग्निज्वाला ने शत्रुओं के वक्षस्थल को जला दिया। उसने चिरकाल तक बिना रुकावट के राज्य किया।।२।।
उसके चरण-कमलों का ध्यान करने वाला कान्यकुब्ज में विख्यात श्रवणभद्र वंश में पुरुष श्रेष्ठ सुरादित्य हुआ ।।३।।
उसने साहवाहन व अन्य नरेशों के साथ (युद्ध में) योद्धाओं को मार कर भोजदेव की (राज) लक्ष्मी को स्थिरता प्रदान की ।।४।।
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७६
परमार अभिलेख
ऐसा करते हुए व क्षीण हो रहे देवताओं के अग्रभाग में (स्थित ) होने से वह सुरादित्य नाम को शोभायमान कर रहा था ॥५
उसका पुत्र श्री जसोराज, जो संगमखेट मंडल का उपभोग करता था, सदा धर्मी था, अपनी धार्मिकता के कारण बहुत अधिक विख्यात हुआ ।।६।।
अमात्यपुत्रों और प्रधान देशवासियों को बुला कर "आप को (हमारे) पराक्रम विदित हैं" कह कर अनुमति की प्रार्थना की ।।७।।
उनके द्वारा सम्मति मिलने पर स्वधर्म के अनुसार श्रीयुक्त नर्मदातट पर जा कर विक्रमादित्य संवत् ग्यारह सौ ।।८।।
तीन वर्ष के मार्ग (शीर्ष) मास में सोमवार को सोमपर्व पर स्नान कर गुरु की स्वीकृति से देव की अर्चना आदि कर के ।।९।।
मणा नदी के रमणीक संगम पर स्थित मणेश्वर के शिवालय में दक्षिण को (मुख किये) शिवमूर्ति की ओर जल हाथ में ले कर ॥१०॥
(प्रथम ताम्रपत्र--पृष्ठभाग) श्री घण्टेश्वर देव के लिये विलुहज ग्राम तथा घण्टपल्ली ग्राम में सुशोभित सौ(अंश) भूमि दान में दी ॥११॥
चारों घाटों से युक्त यह स्थाई दान सभी के उपकार के लिये व स्वयं के पापक्षय के हेतु दिया है ।।१२।।
वहां दानजल ग्रहण करने वाले महाव्रती मुनि दिनकर (नामक हैं) जो साक्षात् नरमुंड धारण करने वाले शंकर ही हैं।।१३।।
मेरे द्वारा दिया गया यह दान शिवधर्म पालन की व इस जन्म में कल्याण की इच्छा करने वाले श्रेष्ठ व्यक्तियों को पालना चाहिये ।।१४।।
सभी उन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है, अतः अपने अपने काल में आप को इसका पालन करना चाहिये ।।१५॥
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है ।।१६।।
(दूसरा ताम्रपत्र--अग्रभाग) भूमि का दान देने वाला साठ हजार वर्षों तक स्वर्ग भोगता है। इसको छीनने वाले व छीनने की स्वीकृति देने वाले, सभी उतने ही वर्षों के लिये नरक के भागी होते हैं ॥१७॥
एक स्वर्ण (मुद्रा), एक गाय, एक अंगुल भूमि का हरण करने वाला प्रलय काल तक नरक में वास करेगा ।।१८।।
भूमि का हरण करने वाले व्यक्ति विंध्य की अटवियों में सूखे वृक्षों के छिद्रों में रहने वाले कृष्ण सर्प निश्चय रूप से बनते हैं ।।१९।।
वाल वंश में उत्पन्न ऐवल पुत्र कायस्थ सोहिक ने यह राजपत्र राजा की आज्ञा से रचा ।।२०।।
इस शासन पत्र में अज्ञानवश जो भी कम या अधिक लिखा गया है उसको नमस्कार ही करना चाहिये क्योंकि सज्जन सब सहन करते हैं ।।२१।।
. मंगल व श्रीवृद्धि हो।
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भोजपुर अभिलेख
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(१७) भोजपुर का भोजदेव कालीन प्रस्तर जैन प्रतिमा अभिलेख
(तिथि रहित) प्रस्तुत अभिलेख मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में भोजपुर नामक ग्राम में एक पुराने मंदिर में जैन तीर्थंकर की पत्थर की एक विशाल मूर्ति की पादपीठिका पर खुदा है। इसका प्रथम उल्लेख इंडियन आकियालाजी, ए रिव्यू, १९५९-६०, क्रमांक २६, पृष्ठ ५७ पर किया गया। डी. सी. सरकार ने एपि. इं., भाग ३५, पृष्ठ १८५ पर इसका विवरण छापा। इससे पूर्व मुनि कांतिसागर ने अपने ग्रन्थ “भोजपुर के प्राचीन स्मारक" में इसका उल्लेख किया।
अभिलेख दो पंक्तियों का है। प्रथम पंक्ति ५३.३० सें. मी. व दूसरी ३८ सें. मी. लम्बी है। प्रथम पंक्ति के अक्षर बड़े व दूसरी पंक्ति के छोटे हैं। अक्षर प्रायः टूट गये हैं। अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी लिपि है। भाषा संस्कृत है व पद्य में है। इनमें दो श्लोक हैं। तिथि नहीं है। परन्तु अन्यथा यह ११वीं सदी का होना चाहिये।
प्रथम पंक्ति में वसन्ततिलका छन्द में एक श्लोक है। इसके पूर्वार्द्ध में चन्द्रार्द्धमौली शिव व उत्तरार्द्ध में राजाधिराज परमेश्वर भोजदेव के उल्लेख हैं। संभव है कि शासनकर्ता नरेश व उसके आराध्यदेव का परिचय 'जयति' के समान किसी शब्द से किया गया हो, परन्तु श्लोक के विस्तृत भाग में कोई क्रिया दिखाई नहीं देती है। अभिलेख के प्राप्तिस्थल व लिपि के आधार पर यह परमार राजवंशीय भोजदेव ही है।
दूसरी पंक्ति में अन्य श्लोक उपजाति छन्द में हैं। इसके पूर्वार्द्ध में सागरनन्दि पढ़ा जाता है, शेष भाग टूट गया है। उत्तरार्द्ध में नेमिचन्द्र.....सूरि व शांतिजिन के उल्लेख हैं। परन्तु वाक्य रचना त्रुटिपूर्ण लगती है। फिर भी यह निश्चित है कि प्रमुख उद्देश्य जिन भगवान शांतिनाथ की उस प्रतिमा की स्थापना करना था जिसकी पादपीठिका पर अभिलेख उत्कीर्ण है। प्रतिमा की स्थापना करवाने वाला व्यक्ति सागरनन्दि नामक जैन गृहस्थ था। मूर्ति की प्रतिष्ठापना का विधिविधान जैन आचार्य नेमिचन्द्र सूरि द्वारा सम्पन्न किया गया था।
यह एक जैन अभिलेख है, परन्तु प्रथम श्लोक में भगवान शिव की स्तुति होने से इसका रचयिता शैव मतावलम्बी हो सकता है। शिवस्तुति नरेश भोजदेव के कारण है, जो शिव आराधक था।
अभिलेख का महत्त्व अत्याधिक है। यह परमार नरेश भोजदेव को भोजपुर से संबद्ध करता है। अतः यह प्रमाणित होता है कि भोजपुर नाम इसी नरेश के नाम पर पड़ा था।
मूलपाठ १. '- -८-८८८- -८ [कारे चौद्ध मौलि रसमः सम ----
--~-~~- मद्भुत की[त्ति]- -२ - - -3 राज परमेश्वर भोजदेवः ।।[१।।] २. ------ -- ----८र: सा[ग] रनन्दि नामा।
स ने[मि]चन्द]रो विदधे प्रतिष्ठां सुदुर्लभः साति जिनस्य मुरि ॥२॥] १. यहां संभवतः सिद्धं चिन्ह रहा होगा। २. संभवतः 'राशि'। ३. संभवतः 'राजाधि' । ४. संभवत: 'शांति' ५. 'सूरि'
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७८
परमार अभिलेख
अनुवाद १. जिनके मस्तक पर अर्द्धचन्द्र है, ऐसे शंकर के समान . . . . अद्भुत कीर्ति वाले . . . . राज
परमेश्वर भोजदेव । २. . . . . सागरनन्दि ने नेमिचन्द्र सूरि सहित अत्यन्त दुर्लभ शांतिनाथ जिन भगवान की (मूर्ति की) स्थापना की।
. . (१८) कालवन का भोजदेव कालीन यशोवर्मन का ताम्रपत्र अभिलेख
(तिथि रहित) प्रस्तुत अभिलेख तीन ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है। ये १९२० में नासिक जिले में कालवन के पास एक भील से मिले थे। इनका प्रथम उल्लेख ए. रि. आ. स. इं., १९२१-२२, पष्ठ ११८-११९ पर किया गया। फिर राखलदास बनर्जी ने एपि. इं., भाग १९, १९२७-२८, पष्ठ ६९-७५ पर इसका विवरण छापा । ये प्रिंस ऑफ वेल्ज़ संग्रहालय बम्बई में रखे हैं।
ताम्रपत्रों का आकार २५.४० X १४.६० सें. मी. है। इसमें लेख भीतर की ओर--- प्रथम ताम्रपत्र पर पृष्ठ भाग पर, दूसरे पर दोनों ओर व तीसरे पर अग्रभाग पर खुदा है। सभी में एक छेद है जिसमें कड़ी पड़ी थी। इनके किनारे कुछ मोटे हैं।
अभिलेख ४५ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर ११ दूसरे पर ११-११ व तीसरे पर १२ पंक्तियां खुदी हैं । लेख की स्थिति प्रायः अच्छी है। कुछ अक्षर भग्न हो गये हैं, परन्तु उनको संदर्भ में जमाया जा सकता है।।
अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी लिपि है। उत्कीर्णकता का कार्य भद्दा है। अक्षरों में मात्राएं गलत हैं। छेनी से व्यर्थ में चिन्ह बन गये हैं। अशुद्धियों से भरपूर है। अक्षरों की लम्बाई भी एक समान नहीं है।
भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है। इसमें ८ श्लोक हैं, शेष गद्य में है। कहीं-कहीं पर प्राकृत शब्दों का समावेश दिखाई देता है। वर्ण-विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग है। ऋ वर के प्रयोग में कोई अन्तर नहीं है। मात्रायें आगे, पीछे या बीच में जहां चाहे लगा दी गई हैं। संधि का ध्यान नहीं रखा गया । व्याकरण की भी अनेक अशुद्धियां हैं। इन को पाठ में ठीक कर दिया गया है।
अभिलेख में तिथि का अभाव है। यह संभवतः उत्कीर्णकर्ता की भूल से है। पंक्ति १३ में "इस चैत्रमास की अमावस्या पर सूर्यग्रहण के अवसर पर" शब्द खुदे हैं। अनुमानतः मूल प्रति में वर्ष का उल्लेख रहा होगा। परन्तु ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करने में भूल से छूट गया।
प्रमख ध्येय भोजराजदेव के अधीनस्थ मांडलिक यशोवर्मन के अधीन सामन्त गंगकूलीय अम्मराणक की (पंक्ति ९) चालुक्य वंशीय धर्मपत्नी चच्चाई राज्ञी (पंक्ति १६) व अन्य व्यक्तियों द्वारा भमि, भवन व अन्य वस्तुयें दान करने का उल्लेख करना है। (पंक्ति १८-२४)
दानप्राप्तकर्ता का विवरण पंक्ति २५-२६ में है। वह श्वेतपद के जिनमंदिर में मनि · सुव्रतदेव था। यह दान मंदिर में पूजा, अभिषेक, नैवेद्य, चैत्र पवित्रक के हेतु दिया गया था।
पंक्ति १-७ में धारा नगरी में परमार वंशीय नरेशों में सर्वश्री सीयकदेव, वाक्पतिराजदेव, सिंधुराजदेव व भोजराजदेव के उल्लेख हैं। राजकीय उपाधियां नहीं हैं। परमार वंश को मेरु
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कालवन अभिलेख
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महापर्वत के ऊँचे शिखर के समान कहा है। सीयकदेव के युद्धों में विजय प्राप्त करने व कीर्तिफैलने का वर्णन है। वाक्पतिराजदेव के काव्यानुराग व शत्रुओं को अधीन करने का वर्णन है। इसी प्रकार सिंधुराजदेव की प्रशंसा है। यहां भोजदेव की विजयों का निश्चित वर्णन है। उसके कर्णाट, लाट, गुर्जर, चेदि नरेश, कोंकण अधिपति आदि पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख है। उत्तरकालीन उदयादित्य की उदयपुर प्रशस्ति (क्रमांक २२) में भी भोजदेव की इन विजयों का वर्णन है। प्रस्तुत अभिलेख में सर्वप्रथम इन नरेशों के वंश का नाम है। परन्तु यहां सामान्य प्रशंसा है, उसकी उत्पत्ति का वर्णन नहीं है, जो बाद के अभिलेखों में मिलता है। एक नया तथ्य यह भी है कि परमार वंश का संबंध धारा नगरी से स्थापित है।
पंक्ति ८ में भोजदेव के एक सामन्त यशोवर्मन का उल्लेख है जो आधे सेल्लुक नगर के साथ १५०० ग्रामों का भोग कर रहा था । पंक्ति क्र. ९ के अनुसार इस सामन्त के आधीन
औद्रहादि विषय में ८४ ग्राम कर-मुक्त थे जिनमें एक ग्राम मुक्तापली था। इस विषय का मुख्य अधिकारी गंगवंशीय अम्मराणक था। अगली पंक्तियों में दान के अवसर का उल्लेख है। इसके अनुसार इस अम्मराणक ने चालुक्यवंश में, उत्पन्न अपनी पत्नी समेत श्वेताम्बर आचार्य श्री अम्मदेव के मुख से विख्यात धर्म व अधर्म संबंधी आगम-वाक्य सुन कर व अन्य धर्म की अपेक्षा मुख्य जिनधर्म परलोक शुभ फल देने वाला है, ऐसा सोच कर महिषबुद्धि क्षेत्र में कलकलेश्वर पुण्य तीर्थ में इस चैत्रमास की अमावस्या पर सूर्यग्रहण के अवसर पर दान दिया। यहां दानकर्ता द्वारा अपने वंश के साथ अपनी पत्नी के वंश का उल्लेख संभवतः इसके महत्त्व को प्रदर्शित करना ही है।
पंक्ति क्र. १७-२४ में दान का विवरण इस प्रकार है :सपत्नीक अम्मराणक द्वारा मुक्तापली के उत्तर से माहुडला ग्राम की उत्तर दिशा में ४० निवर्तन भूमि जिसके पूर्व में 'नदी, दक्षिण में हथावाड ग्राम, पश्चिम में कांकडा खाई, उत्तर में पर्वत, इस प्रकार चारों ओर से घिरी विशुद्ध भूमि (पंक्ति क्र. १७-१९); डोंगरिका कुमारीस्तन के दोनों तटों पर श्री कक्कपैराज द्वारा दी गई २५ निवर्तन भूमि (पंक्ति क्र. २०); वकाइगल आदि नागरिकों द्वारा संगाम नगर की सीमा के पास चडलीवट में ३५ निवर्तन
भूमि (पंक्ति २१-२२); ४. पुष्पवाटिका की २ निवर्तन भूमि, ५. दो तेल घाणी, १४ व्यापारिक दुकानें, १४ द्रम्म (सिक्के) व १४ छत्र दिये गये (पंक्ति
२२-२४); ६. और दुकानों में, गलियों में प्रतिपत्र पचास (?), सभी टूटे हुओं का जीर्णोद्धार किया गया
(पंक्ति २४)।
पंक्ति क्र. २६-२८ विशेष महत्त्वपूर्ण है। इनमें दान की घोषणा से संबंधित उपरोक्त विषय के राज्य अधिकारियों की सूची है जो पूर्ववणित अभिलेखों से भिन्न है। इसमें वीसि, देशलिक, ग्रामटक, गोकुलिक, चौरिक, शौल्किक, दण्डपाशिक, प्रातिराज्यिक, महत्तम और कुटुम्बिक के उल्लेख हैं। अंतिम पंक्ति क्र. ४४-४५ में अभिलेख के लेखक का नाम है जो ब्राह्मण वंश में उत्पन्न सांधिविग्रहिक श्री जोगेश्वर था।
ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत अभिलेख का बहुत महत्त्व है। अभी तक प्राप्त अभिलेखों में भोजकालीन यह अंतिम अभिलेख है। यद्यपि इसमें तिथि का अभाव है, तिस पर भी यह
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परमार अभिलेख
प्रथम अभिलेख है कि जिसमें भोज की विभिन्न प्रमुख विजयों का निश्चित उल्लेख है। पंक्ति क्र. ६ में उसकी विजयों में कर्णाट, लाट, गुर्जर, चेदि नरेश व कोंकण अधिपति के उल्लेख प्राप्त होते हैं। कर्णाट पर उसकी विजय का उल्लेख बल्लाल द्वारा रचित भोजचरित् में भी प्राप्त होता है। भोज ने अपने (पितृव्य) ताऊ वाक्पतिराजदेव द्वितीय के वध का बदला लेने के लिये वहां के चालुक्य नरेश संभवत: जयसिंह द्वितीय (१०१५-१०४२ ई.) पर आक्रमण किया था। इसमें भोजदेव की सहायतार्थ गांगेयदेव कलचुरि और राजेन्द्रचोल (कुलेनूर अभिलेख, एपि.इं., भाग १५, पृष्ठ ३३१) भी सम्मिलित हुए थे जो चालुक्यों के कट्टर शत्रु थे। युद्ध गौतमगंगा नदी (गोदावरी) के किनारे पर हुआ था। इसके उपरांत भोज ने लाट पर विजय प्राप्त करने की योजना बनाई। इससे पूर्व भोज के पिता सिंधुराज ने लाट के शासक गोग्गीराज को हराया था। भोजदेव ने अब इसके पुत्र कीतिराज पर विजय प्राप्त की (इंडियन ऐंटिक्वेरी, भाग १२, पृष्ठ २०१-३)। कीतिराज १०१८ ईस्वी में लाट पर शासन कर रहा था (सूरत दानपत्र अभिलेख, पाठक कोमेमोरेशन वाल्यूम, पृष्ठ २८७-३०३)। इस विजय के उपरांत लाट देश भोजदेव के प्रभावक्षेत्र में ही रहा। गुर्जर नरेश भीम प्रथम चौलुक्य व भोजदेव के संघर्ष का विशद् वर्णन मेरुतुंग रचित प्रबन्ध चिंतामणि में प्राप्त होता है (पृष्ठ ३२-३३)। जिस समय भीम प्रथम सिंध पर आक्रमणकारी हो रहा था तब भोजदेव ने अपने सेनापति कुलचन्द्र को गुजरात पर आक्रमण करने के लिये भेजा था। उसने चौलुक्य राजधानी अणहिलपट्टण पर विजय प्राप्त कर खूब लूटा और गुर्जर प्रधान मंत्री से बलात् एक जयपत्र लिया। चौलुक्यों की क्षति इतनी अधिक थी कि 'कुलचन्द्र की लूट' एक किंवदन्ति बन गई। चेदि नरेश पर भोजदेव की विजय का उल्लेख महाकवि मदन द्वारा रचित पारिजात-मंजरी नाटक में भी प्राप्त होता है (ऐपि. ई., भाग ८, पृष्ठ १०१, श्लोक क्र. ३)। वास्तव में चेदि नरेश गांगेय विक्रमादित्य एक शक्तिशाली नरेश था (का. इं. ई., भाग ४, प्रस्तावना, पृष्ठ ९०-९१) और प्रारम्भ में इन दोनों में मित्रता थी, पर बाद में वे विरोधी बन गये। संभवतः इसी कारण भोज द्वारा उस पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख प्रधानतापूर्वक किया गया। जहां तक भोज द्वारा कोंकण अधिपति पर विजय प्राप्त करने का प्रश्न है, भोजदेव के पूर्ववणित वांसवाडा (क्र. १०) व बेटमा (क्र. ११) के ताम्रपत्र अभिलेखों में इसका विवरण दिया जा चुका है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत अभिलेख के साक्ष्य से भी इसकी पुष्टि होती है। प्रस्तुत अभिलेख का प्राप्ति स्थान कोंकण के अन्तर्गत था जहां भोजदेव के ही प्रसाद से यशोवर्मा उसके सामन्त के रूप में शासन कर रहा था।
प्रस्तुत अभिलेख के तिथि-रहित होने के कारण यह विवाद का विषय बन गया है । आर. डी. बनर्जी ने विचार प्रकट किया है कि यह अभिलेख भोज की मृत्यु के उपरान्त प्राय: १०५५ ई. में अशांति काल में निस्सृत किया गया था। उन के अनुसार प्रस्तुत अभिलेख के माध्यम से एक सामान्य सामन्त अपने शासनकर्ता नरेश की अनुमति प्राप्त किए बगैर ही भूमिदान करने का साहस करता है। इससे साफ है इस दानपत्र के निस्सृत होते समय परमारों की शक्ति काफी कुछ क्षीण हो गई थी। वे आगे लिखते हैं कि प्रस्तुत अभिलेख परमार नरेशों के सामान्य भूदान अभिलेखों से निम्न बातों में भिन्न है--इसमें गरुड़ व सर्प की मुद्रा अथवा परमारों का राजचिन्ह नहीं है। दूसरे, इसमें तिथि नहीं है व शासनकर्ता नरेश के लिए 'कुशली' शब्द का उल्लेख नहीं है। तीसरे, प्रथानुसार अभिलेख के प्रारम्भ में शिवस्तवन भी नहीं है। इस प्रकार यह प्रायः निश्चित है उक्त अधीनस्थ सामन्त ने अराजकता की स्थिति में ही प्रस्तुत दानपत्र प्रदान किया था जो भोजदेव के प्राणान्त व त्रिपुरी के कर्ण द्वारा मालव राज्य के हस्तगत करने से उत्पन्न हुई थी।
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कालवन अभिलेख
८१
बनर्जी के विचार से सहमत होने में अनेक कठिनाइयां हैं। भोजकालीन प्राप्त प्रथम मोडासा अभिलेख (क्र. ८) उसके अधीन भोक्तृ वत्सराज द्वारा प्रदान किया गया था। इसके अतिरिक्त तिलकवाडा अभिलेख (क्र. १६) भोजदेव के अधीन उसके मांडलिक जसोराज द्वारा प्रदान किया गया था। इन दोनों ही ताम्रपत्रों में कहीं कोई ऐसा उल्लेख नहीं है कि उनके दानकर्ताओं ने भूमिदान करते समय अपने अधिपति नरेश से कोई अनुमति प्राप्त की थी। इसके अतिरिक्त इन दोनों में ही प्रस्तुत अभिलेख के समान परमारों का राजचिन्ह, शासनकर्ता नरेश के लिए 'कुशली' शब्द अथवा प्रारम्भ में शिवस्तवन नहीं हैं। तो बनर्जी के सिद्धान्त के अनुसार यह मानना चाहिए कि सन् १०११ व १०४७ ईस्वी में परमार शक्ति क्षीण हो गई थी। परन्तु प्राप्त तथ्यों के आधार पर ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं होता। इसके विपरीत विदित होता है कि उक्त वर्षों में परमार शक्ति पर्याप्त विकसित थी।
___डी. वी. डिस्कलकर ने भी आर. डी. बनर्जी के मत का जोरदार शब्दों में खण्डन किया है। वे लिखते हैं कि यद्यपि प्रस्तुत अभिलेख में परमार दानपत्रों की कुछ सामान्य विशिष्टतायें नहीं हैं, किन्तु इससे यह मान लेने में कोई रुकावट नहीं पड़ती कि यह अभिलेख भोजदेव के शासन काल में ही प्रकाशित किया गया था। दानकर्ता ने अभिलेख के प्रारंभ में विशेष सावधानी पूर्वक भोजराज देव व उसके पूर्वजों का ससम्मान उल्लेख किया है। यह इस बात का प्रबल साक्ष्य है कि प्रस्तुत अभिलेख भोज के शासनकाल का ही है। इसके अतिरिक्त दानकर्ता राजपरिवार का कोई विशिष्ट व्यक्ति न होकर केवल एक शासकीय व्यक्ति ही था।
वास्तव में यह एक जैन अभिलेख है व जैनों के श्वेताम्बर सम्प्रदाय से संबंधित है। इस कारण यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि अन्यथा इस युग के जैन अभिलेख कम संख्या में प्राप्त हुए हैं। यह सर्व विदित है कि परमार वंश के सर्वदिश विकास में जैन सामन्तों, अमात्यों, चिन्तकों, लेखकों व सनाढयों आदि का योगदान कुछ कम नहीं रहा था।
____ भौगोलिक स्थानों के समीकरण में कलकलेश्वर तीर्थ का तादात्म्य उस स्थान से किया जा सकता है जो इस समय कालवन से प्रायः १० मील पश्चिम में है और जहां पर वर्तमान में भी कलकलेश्वर का शिव मंदिर विद्यमान है। श्वेतपद खानदेश का ही प्राचीन नाम है। सेलुक का समीकरण सतने से किया जा सकता है जो कालवन के पास ही स्थित है। मुक्तापली का नाम इस समय बदल कर मखमलवड हो गया प्रतीत होता है। महडला ग्राम मखमलवड के उत्तर में डिनडिनडोरी तालका में वर्तमान मोहदी ग्राम है। महिषबद्धिका इस समय नासिक के समीप महसरुला प्रतीत होता है। हथावाड का समीकरण हलसागढ़ से किया जा सकता है। संगामनगर संभवतः नासिक व सूरत के बीच वर्तमान सनगने ग्राम हैं।
अभिलेख की पंक्ति क्र. २७-२८ में निम्नलिखित अधिकारियों के उल्लेख हैं:देशलिक-संभवतः यह आधुनिक जिलाधीश के समान ही कोई अधिकारी था।
प्रामटक--यह ग्राम का मुखिया होता था। इसको ग्रामकूट भी कहते थे। वह ग्राम में सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति होता था। सामान्यत: उसका पद वंशानुक्रम से होता था। वह ग्राम सेना का भी मुखिया होता था। ग्रामरक्षा इसका प्रधान कर्तव्य था। (ए. एस. अलतेकर--स्टेट एण्ड गवर्नमेंट इन ऐंशेन्ट इंडिया, पृष्ठ २२६)
गोकुलिक--यह पशुओं को चराने की भूमि अर्थात् चरागाहों का रक्षक अधिकारी प्रतीत होता है।
चौरिक--इसका मुख्य कर्त्तव्य चोरों को पकड़ना था।
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शौल्किक -- यह चुंगी अथवा शुल्क अधिकारी था ।
दण्डपाशिक- यह एक अधिकारी था जो अपने हाथ में एक डंडा उठाए रखता था । इसका मुख्य कर्त्तव्य नगर या ग्राम की आंतरिक सुरक्षा का ध्यान रखना था । वह अपराधियों को न्यायालय में प्रस्तुत करता था। भोजदेव द्वारा रचित शृंगारमंजरी कथा में भी इसका उल्लेख मिलता है ( पृष्ठ ८० ) ।
प्रातिराज्यिक - - संभवत: यह कोई ऐसा अधिकारी था जो राज्य के छोटे क्षेत्रों में राजा के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता होगा ।
महत्तम -- नगरों व ग्रामों के बड़े-बूढ़े व विशिष्ट व्यक्तियों की गणना महत्तम रूप में होती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि बड़े-बूढ़े नागरिक प्रबन्ध में भाग लेकर अपने ऊपर पर्याप्त उत्तरदायित्व लेते थे । सिंधुराज के अधीन पर्पट नामक एक महत्तम था ( जैन साहित्य और इतिहास, नाथुराम प्रेमी, पृष्ठ २७२, ४१२ ) । भोजदेव रचित शृंगारमंजरी कथा में भी महत्तम का उल्लेख है ।
परमार अभिलेख
निवर्तन -- यह भूमि का एक नाप था । विभिन्न विद्वानों ने इसका विभिन्न मान बतलाया है । पी. एन. विद्यालंकार के अनुसार यह प्रायः एक एकड़ के बराबर था (ए स्टडी इन दी इकॉनोमिक कंडीशन ऑफ एनशंट इंडिया, पृष्ठ ८३ ) । डी. सी. सरकार के गणित के अनुसार यह २४०X२४० वर्ग क्यूबिट अर्थात् प्राय: ३ एकड़ के बराबर था ( सक्सेसर्ज़ ऑफ दी सातवाहनस, पृष्ठ ३००, पादटिप्पणी ) । कोष के अनुसार यह २० रॉड के बराबर होता था । ( एक रॉड = ६ फीट ७३ इंच ) । परन्तु कालवन तालुका से प्राप्त शंकरगण के अमोना ताम्रपत्र के अनुसार यह ४० X ४० दण्ड होता था (का. ई. ई., भाग ४ पृष्ठ ४३ ) ।
द्रम्म -- यह
ग्रीक शब्द Drachma का संस्कृत रूप है तथा उसी सिक्के के मान्य तौल के बराबर होने से द्रम्म कहलाने लगा । सामान्यतः यह नाम रजत सिक्कों के लिए प्रयुक्त होता था जिनका वज़न रजत के ६५ दानों के बराबर होता था ( जर्नल ऑफ न्यूमिस्मेटिक सोसाईटी ऑफ इंडिया, भाग २, पृष्ठ १-१४) । बी. जे. सांडेसरा के अनुसार यह सबसे बड़ा चालू सिक्का था जो सोने या चांदी का होता था । यह द्रम्म पांच रूपक के बराबर होता था ( वही भाग ८, पृष्ठ १४४ ) ।
सांधिविग्रहिक - - यह अधिकारी शांति व युद्ध से संबंधित होता था । वह मित्र नरेशों के राजदूतों का स्वागत करता था और उनको अपने स्वामी नरेश के सामने उपस्थित करता था । साथ ही वह शत्रु नरेशों के राजदूतों से भी बातचीत करता था । राजकीय पत्र व्यवहार और राजाज्ञाओं को लिखवाना व प्रसारित करवाना भी उसी का कार्य था । प्रत्येक नरेश के अतिरिक्त उसके अधीन सामन्त भी अपनी राज्यसभा में ऐसा अधिकारी नियुक्त करते थे । इस पद पर विशिष्ट विद्वान ही नियुक्त होते थे। यहां पर भोजदेव के अधीन सामन्त यशोवर्मन का सांधिविग्रहिक योगेश्वर था जिसने प्रस्तुत अभिलेख लिखवाया था ।
वीसि - - इसके संबंध में निश्चित करना कठिन है ।
मूलपाठ ( प्रथम ताम्रपत्र )
१. स्वि (स्व) ति । श्रीमाम् (न) धारायाम् मेरुमहागिरि - तुङ्गशृंगोपमे प्रवांमू (परमार) त्वये अनेक-समर-संघट्ट[सा] -
२. धित-शत्रुपक्ष - विस्तृत - यसो (शो) ध्वलित-दिगन्तरालः श्रीसीयकदेव-पादानुध्यातः सर[स्व]कृतकाव्यमुक्तसायक-धूम्र्मा ( घूर्णा) यित - सि (शि) र:
३. ति मुखतिलक - भूत (तः ) शत् (तु) -पक्ष
- कविजन
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कालबन अभिलेख
४. श्री वाक्पतिराजदेव-पादानुध्यातः अनेकमहाहव-विजितारि-जनप्रथित-यस (शो) निर्मली५. कृत-सकल-धराधरधराजलधिसीमा-श्रीसें (सिंधुराजदेव-पाद[T]नुध्यातः महाव (ब)ल-प्रचण्डरि६. पुपक्षनिद्दारित-कर्णाटलाट-गुर्जरचेद्या (द्य) धिप-कोंकणेस (श)-प्रभृति-रिपुवर्ग-निदारित७. जनितत्रासयस (श)धवलित भुवनत्रयः श्रीभोजराजदेव-प्रसादावाप्त'-नगर-से[ल्लुकार्द्ध]८. सार्द्ध-सहश्र (स्र)-ग्रामाणां भाक्तार: (भोक्ता) श्रीयसो (शो) वर्मः (आ) तस्मिन् विषये
मुक्ता[प]ल्याम् चतुरासी (शी)९. ति-मान्यकपट्ट-औंद्रहादि-विषय-सामन्तो गङ्गकुलतिलक-भूतः श्री [म्म]रा१०. णेकेन स्वे (श्वे) ताम्व (ब)र-श्री-अम्मदेवाचार्य मुखाख्यात धर्माधर्मागम-वाक्य-प्रवो (बो) धित ११. चिहाने]न मुक्खा (ख्य) जिनधर्ममन्ये (न्यद्) धम्मादि]ह परलोकसु (शु) भ फलदानं (न)3 इति विचि--
(द्वितीय ताम्रपत्र--अग्रभाग) १२. [त्य] जातमनसा महिषवु (बु) द्धिकायां श्री कलकलेस्व (श्व )रे पुण्य-तीर्थे चै]१३. त्रमासामा (वा)स्यां सूर्यग्रहणे सागरतरङ्ग-चंचल-जीवलो[कं] च्छा१४. या समा लक्ष्मी फेनोपमं जीवितमां (तम)वधार्य मातापितरोरात्मनस्य पुण्ययस (शः) १५. श्री वृद्धये सोपवीतेन पाणिना पुण्योत्तमतीर्थे (तीर्थे) अंबु (बु) गृहित्वा सुपूण्णे[न] क१६. मन्डलुना चालुव्या (क्या)न्वये प्रसूत धर्मपत्नी-श्री-चच्चाईराज्ञी-करगृहीत-[निक्षिप्त]१७. जलेन पादौ प्रक्षाल्य भमिरियं दत्ता मक्तापल्या उत्तरेण माहडला-ग्रामोत्तर१८. दिसा (शा) यां भूमी (मि)-निवर्त्तनानि चत्वारि सास्य (सदय) सीमा पूर्वे नदी दक्षिणा हथावाड ग्रा१९. म-सीमा कांकडाः पश्चिमे गर्ता उत्तरे पर्वतं (त:) एवं चतुराधाट-विसु (शु)द्धा भूमी (मि)
[रि]यं त२०. था कुमारीस्तन-डोंगरिका उभयतटे श्री कक्कपैराज-दत्तभूनिवर्तनानि [पं]चे (च)२१. वीस (विंशत्) तथा वकाइगल-प्रभृति-नगरेण संगाम-नगरसीमा पार्श्वे चडै२२. लीवटे निवर्तनानि पंचतृ (त्रि) श[त्] पुःप (पुष्प)वाटिकाभूमि निवर्तनद्वयं तैल[घा]
(द्वितीय ताम्रपत्र--पृष्ठभाग) २३. णकद्वयं वणिकह (ख) दाश् चतुर्दश द्रम्मा एवशात्र (एqश्छत्र) चतुर्दशं ददाति अट्टणि२४. कायां वोलि[का] प्रतिपत्राणि पंचास (श)दित्य असे (शे )षं लुप्तजीर्णोद्धारं कृतं आचन्द्रा२५. कर्क कालं यावत्] स्वे (श्वे)तपद जिनालये श्री मुनिसुव्रतदेवाय निवेदिता] पूजाभिषे२६. क-नैवेद्य-चैत्र-ग्रासाच्छादंनेषु रि (ऋ)षिणामुपयोग्या अस्मिन् विषय-वीसी (सि)२७. [दे]सिलक-ग्राम[ट कगोकुलिक-चौरिक-सौ (शौ)ल्किक-दण्डावासिक (दण्डपाशिक)-प्रातिराज्यि२८. क-महत्तम-कुटुम्बिनोन्यांश्च तननिवासिनो जनपदादीन वो (बो)धयत्यस्य (अस्तु) वा २९. विदितं मया दत्तं मवंशजैरन्यैरव्वागामि-नृपति-भोगपति भिरियमस्मद्दा- ....... ३०. योनुमंतव्यः पालयितव्यश्च योऽा ज्ञान-तिमिरप[ट]लावृतमतिराच्छिंद्या३१. दाच्छिद्यमानः सः पञ्चभिर्महापातकैरुपपातकैः संयुक्तः स्याद् इति उ(१) इस शब्द से विदित होता है कि यशोवर्मन भोजदेव का एक सामान्त था। (२) संभवतः चिन्हेन। (३) गवर्नमेंट एपिग्राफिस्ट यहां भिन्न पाठ सुझाते हैं--"मुक्त्वाजिनधर्म अन्ये धर्मा इहपरलोके
शुभफल"।
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परमार अभिलेख
३२. क्तं व (च) भगवता व्यासेन
देवद्रव्यं गुरोर्द्रव्यं द्रव्यं चैव जिनेस्व (श्व) रे । त्रिविधं पत
नं दृष्टं दानभक्षणलङ्घने ।। [१] षष्टिवर्ष-सहश्रा (ला)णि स्वर्गे तिष्ठा (ष्ठ)
षु
च।
(तृतीय ताम्रपत्र-अग्रभाग)
ति भूमिदः । आच्छेत्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेत् ॥ [ २।।] सं (शं)खं भद्रासनं च्छात्रं] वरास्वा (श्वा)वर-वाहनाः । भूमिदानस्य चिन्हानि
दृस्य (श्य)न्ते तानि भारत ।। [३॥] सप्तजन्मान्तरेणैव यत्पुण्यं पूर्वसंचितं । अर्द्ध-अंगु
लेन सीमाया हरणेन प्रणस्य (श्य )ति ।। [४।।] अग्निष्टोम-सहस्रश्च वाजपेय-शत (ते)गवां कोटिप्रदानेन भूमिहर्ता न सु(शु)ध्यति ।। [५।।] कि सूर्यः तीव्रतापो दह
ति शसि (शि) कलाम् पावकोति ज्वलन्ते नो रुढं भूमिसस्यं न वसति विषयेमा
धवश्चाल्पवृष्टिः । कि गोषु क्षीरमल्पं शुषति सरिसरो जीवलोके न वृद्धिः यत्रायभूमिहर्ता वसति परिजने तस्य चिन्हानि मा (ता) नि ।। [६।।] यास्मि]नु (न) कुले जायति
भूमिदाता स मोदते पुत्रकलत्र-धान्यैः । सुस्थं प्रज्ञानां वसते च यत्र सौख्यं शृि (श्रि)या
नन्दति भूमिपाला (लः)।।७।।] व (ब) हुमिर्वसुधा भुक्ता राजा (ज) भिः सगरादिभिः । यस्य यस्य य
दा भूमी (मिः) तस्य तस्य तदा फलं (लम्) ॥ [1] लिखितमिदं द्विजान्वये (सां]धिविग्रहिक श्री जोग (गे) स्व (श्व)४५. रेणेति ।
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र) १. स्वस्ति । श्रीयुक्त धारा (नगरी) में मेरु महापर्वत के ऊंचे शिखर के समान परमार वंश में
अनेक युद्धों में संघर्ष किया है (४) अनावश्यक है।
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कालवन अभिलेख
२. व साध लिया है शत्रुपक्ष को जिसने ऐसा, जिसकी विस्तृत कीर्ति से चारों दिशाएं ध्वलित ( शुभ्र ) हो गई हैं ऐसा श्री सीयकदेव का पादानुध्यायी जो सरस्वती
३. के मस्तक का तिलक रूप बन गया, जिसने काव्य के द्वारा कवियों के सिरों को व बाणों के द्वारा • शत्रुपक्ष के सिरों को झुका दिया,
४. श्री वाक्पतिराजदेव के पादानुध्यायी अनेक महायुद्धों में शत्रु पर विजय प्राप्त कर जो जनता में विख्यात हो गया,
५. जिसने पर्वतों व समुद्रों तक विस्तृत सारी पृथ्वी को अपने यश से निर्मल कर दिया, श्री सिंधुराज देव के पादानुध्यायी महाबली व प्रचण्ड
६. शत्रुपक्ष को नष्ट करने वाला, कर्णाट लाट गुर्जर चेदि-नरेश कोंकण - अधिपति आदि शत्रुपक्ष को नष्ट कर
भय उत्पन्न करने वाला, जिसके यश से तीनों लोक शुभ्र हो गए हैं ऐसे श्री भोजराजदेव के प्रसाद से प्राप्त आधा सेल्लुक नगर
८. साथ में डेढ़ हजार ग्रामों का भोक्ता श्री यशोवर्मा उस विषय मुक्तापली में चौरासी
७
८-५
९. मान्य कपट्ट (कर - मुक्त ) औद्रहादि विषय में सामन्त गंग कुल के तिलक के समान श्री अम्मराणक १०. के द्वारा श्वेताम्बर आचार्य श्री अम्मदेव के मुख से विख्यात धर्म व अधर्म के आगम वाक्य से
प्रबोधित
११. चिन्ह से अन्य धर्म की अपेक्षा मुख्य जिनधर्म परलोक शुभफल देने वाला है ऐसा सोचकर
( दूसरा ताम्रपत्र -- अग्रभाग )
१२. मन में निश्चय करके महिषबुद्धिका क्षेत्र में श्री कलकलेश्वर पुण्यतीर्थ में
१३. इस चैत्रमास की अमावस्या पर सूर्यग्रहण के अवसर पर सागर की लहरों के समान चंचल, जीवलोक की छाया
१४. के समान लक्ष्मी व फेन के समान जीवन को समझ कर, माता पिता व स्वयं के पुण्य यश
१५. व लक्ष्मी की वृद्धि के लिए पुण्य व उत्तम तीर्थ में यज्ञोपवीत सहित हाथ में जल ग्रहण कर के
पवित्र
१६. कमंडलु से चालुक्य वंश में उत्पन्न धर्मपत्नी श्री चच्चाई राज्ञी के द्वारा निक्षिप्त जल से
१७. दोनों चरण धोकर यह भूमि ( मेरे द्वारा) दान में दी गई जो मुक्तापली के उत्तर से माहुडला ग्राम की उत्तर
१८. दिशा में चालीस निवर्तन भूमि, इसकी सीमा पूर्व में नदी, दक्षिण में हथावाड ग्राम सीमा
१९. व पश्चिम में कांकडा खाई, उत्तर में पर्वत, इस प्रकार चारों ओर से घिरी यह विशुद्ध भूमि तथा २०. डोंगरिका कुमारीस्तन के दोनों तटों पर श्री कक्कपैराज द्वारा दी गई पच्चीस निवर्तन भूमि २१. तथा वकाइगल आदि नागरिक के द्वारा संगाम नगर की सीमा के पास
२२. चडैलीवट में पैंतीस निवर्तन, पुष्पवाटिका की दो निवर्तन भूमि
( दूसरा ताम्रपत्र- पृष्ठ भाग )
२३. दो तेल घाणी, चौदह व्यापारिक दुकानें, चौदह द्रम्म (सिक्के) एवं चौदह छत्र दिये गये । दुकानों में
२४. गलियों में प्रतिपत्र पचास, सभी लुप्त ( टूटे हुओं) का जीर्णोद्धार किया गया, चन्द्र २५. व सूर्य जब तक स्थित हैं, श्वेतपद के जिनमंदिर में श्री मुनि सुव्रतदेव के लिये दिये गये, अभिषेक
पूजा
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परमार अभिलेख
२६. नैवेद्य, चैत्र पवित्रक (संभवतः महावीर जन्म दिवस), भोजन, वस्त्र जो ऋषियों के उपयोग के
योग्य हैं। इस विषय के वीसि, २७. देशिलक, ग्रामटक, गोकुलिक, चौरिक, शौल्किक, दण्डपाशिक, प्रातिराज्यिक २८. महत्तम, कुटुम्बिक और अन्य निवासियों, ग्रामवासियों को आज्ञा देते हैं-आप को २९. विदित हो कि मेरे द्वारा दिये गये मेरे वंश व अन्य आने वाले वंशों के नरेशों व भोगपतियों के
द्वारा यह हमारा दान। ३०. मानना व पालन करना चाहिये । जो अज्ञानरूपी तिमिरपटल से आवृत्त मति द्वारा इसका
उल्लंघन करे अथवा ३१. उल्लंघन करवाये वह पंचमहापातकों व उपपातकों से संयुक्त होगा ३२. इस प्रकार भगवान व्यास द्वारा कहा गया है
देवद्रव्य, गरुद्रव्य और जिन भगवान के द्रव्य के दान का जो भक्षण या उल्लंघन करता है उसका तीनों प्रकार से पतन दिखलाई पड़ता है ।।१।। भूमि का दान करने वाला साठ हजार वर्ष तक स्वर्ग में रहता है,
(तीसरा ताम्रपत्र-अग्रभाग) इसका हरण करने वाला अथवा करवाने वाला और उसी प्रकार का अन्य नरक का भागी होता है ।।२।।
शंख भद्रासन छत्र श्रेष्ठ-अश्व श्रेष्ठ-वाहन व भूमि, हे भारत, ये भूमिदान के चिन्ह दिखाई देते हैं ।।३।।
अर्द्ध अंगुल भूमि के हरण करने से सात जन्मों में पूर्वसंचित पुण्यों का नाश हो जाता है ।।४।।
भूमि का हरण करने वाला सहस्र अग्निष्टोम यज्ञ करने, सौ वाजपेय यज्ञ करने और करोड़ गायों के दान करने से भी शुद्ध नहीं होता ।।५।।
क्या तीव्रताप वाला सूर्य चन्द्रकला को जलाता है ? अग्नि अधिक जल रही हो, भूमि पर धान्य न उगता हो, देश में अल्पवृष्टि होती हो, गायों में दूध कम हो, नदी तालाब सूख गये हों व जीवलोक में वद्धि न होती हो, ये सारे चिन्ह इस स्थान के हैं जहां भमिहर्ता निवास करता है ॥६॥
जिस कूल में भूमिदाता उत्पन्न होता है वह पूत्र स्त्री व धान्य से आनन्दित रहता है और वहां प्रजाजन सुख से निवास करते हैं और राजागण सुख व लक्ष्मी से युक्त होते हैं ।।७।। - सगर आदि अनेक नरेशों ने पृथ्वी भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही
है, तब २ उसी को उस का फल मिला है ।।८।। ४४. यह ब्राह्मण वंश में उत्पन्न सांधिविग्रहिक श्री जोगेश्वर के ४५. द्वारा लिखा गया।
___ मान्धाता का जसिहदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
.. (संवत् १११२=१०५६ ईस्वी) प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो १९वीं सदी के अंतिम चरण में मध्यप्रदेश में मान्धाता से प्राप्त हुए थे। परन्तु इन की प्राप्ति का इतिहास ज्ञात नहीं है। इस का
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मान्धाता अभिलेख
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संपादन कीलहान ने एपि. इं., भाग ३, पृष्ठ ४६-५० पर किया। इसके बाद भी इस का समय समय पर उल्लेख होता रहा।
ताम्रपत्रों का आकार ३४४ २५.५ सें. मी. है। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। इनमें दो-दो छेद बने हैं जिनमें कड़ियां पड़ी हैं। दोनों ताम्रपत्रों के किनारे कुछ मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं।
अभिलेख कुल ३० पंक्तियों का है। प्रत्येक ताम्रपत्र पर १५-१५ पंक्तियां हैं। सारा अभिलेख ठीक से सुरक्षित है। दूसरे ताम्रपत्र.पर एक चतुष्कोण में उड़ते हुए गरूड़ की आकृति है। उसके बायें हाथ में एक सर्प है जिसको वह देख रहा है। अभिलेख के अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी लिपि है। लिखावट सुन्दर है। अक्षर सफाई से गहरे खुदे हैं। अक्षरों की सामान्य लम्बाई ७/१६ इंच है। भाषा संस्कृत है एवं गद्यपद्यमय है। इस में कुल ९ श्लोक हैं। शेष सारा अभिलेख गद्य में है।
व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श एवं म् के स्थान पर अनुस्वार सामान्य रूप से प्रयोग किये गये हैं। र के बाद का व्यंजन दोहरा कर दिया गया है। पंक्ति २० में अवग्रह का प्रयोग त्रुटिपूर्ण है। कुछ शब्द ही गलत हैं जिनको पाठ में ठीक कर दिया है। ये त्रुटियां स्थान व काल के प्रभावों को प्रदर्शित करती हैं। कुछ गलतियां उत्कीर्णकर्ता की लापरवाही से बन गई है।
तिथि पंक्ति क्र. २९ में अंकों में संवत् १११२ आषाढ़ वदि १३ लिखी हुई है। इसमें दिन का उल्लेख न होने से इस का सत्यापन नहीं हो सकता। यह तिथि १३ जून, १०५६ ईस्वी के बराबर है।
प्रमुख ध्येय के अनुसार नरेश जयसिंहदेव द्वारा धारा नगरी में ठहरे पूर्णपथक मंडल में मक्तुला ग्राम ४२ के अन्तर्गत भीमग्राम दान देने का उल्लेख करना है ।
दान प्राप्तकर्ता का विवरण पंक्ति क्र. १४-१६ में है । इस के अनुसार उपरोक्त ग्राम अमरेश्वर (तीर्थ में स्थिति) पट्टशाला में (निवसित) ब्राह्मणों के लिये भोजन आदि के लिये दिया गया था।
__पंक्ति ३-६ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है। इसमें सवश्री वाक्पतिराजदेव, सिंधुराजदेव, भोजदेव व जयसिंहदेव के उल्लेख हैं। सभी के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां लगी हैं। वंश का नाम नहीं है।
परमार राजवंश के इतिहास में प्रस्तुत अभिलेख का अपना ही महत्व है। वंशावली में प्रथम तीन नरेशों के आपस में एक-दूसरे से संबंध पूर्णरूप से ज्ञात हैं। उसी प्रकार जयसिंह ने अपने को भोजदेव का पादानुध्यात लिखा है। तिस पर भी इन दोनों नरेशों का आपस में क्या संबंध था सो निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। यह स्वीकार करने में कठिनाई है कि जयसिंहदेव भोजदेव का पुत्र था।
___ अभिलेख से ज्ञात होता है कि संवत् १११२ तदनुसार १०५५-५६ ईस्वी में धारा नगरी में जयसिंहदेव राज्य कर रहा था। अन्यथा इस नरेश का परमार राजवंशावली, जो उदयपुर प्रशस्ति (क्र. २२) व नागपुर प्रशस्ति (क्र. ३६) आदि से प्राप्त होती है, में कोई उल्लेख नहीं है। दूसरे चूंकि जयसिंहदेव भोजदेव का उत्तराधिकारी था, इस कारण भोजदेव का शासनकाल इस तिथि से आगे बढ़ाया ही नहीं जा सकता।
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परमार अभिलेख
मेरुतुंग रचित प्रबंधचितामणि से विदित होता है कि भोजदेव की मृत्यु के समय मालव राज्य पर पश्चिम की ओर से गुजरात के चौलुक्यों ने तथा पूर्व की ओर से कल्चुरियों ने सामूहिक रूप से आक्रमण कर लूटपाट की जिससे मालव तहस-नहस हो गया ( टाऊनी का अनुवाद, पृष्ठ ५०-५१ ) । उदयपुर प्रशस्ति व नागपुर प्रशस्ति से भी इसकी पुष्टि होती है । प्रतीत होता है कि भोजदेव के कोई पुत्र नहीं था अथवा कम से कम ऐसा पुत्र तो कतई नहीं था जो उस अत्यन्त कष्टमय समय में परमार राज्य की रक्षा कर सकता। नागपुर प्रशस्ति के अनुसार भोजदेव की मृत्यु पर साम्राज्य 'कुल्याकुले' बन गया अर्थात् परमारवंशीय राजकुमारों के आपसी झगड़ों के कारण साम्राज्य संकटग्रस्त हो गया। इस प्रकार विदित होता है कि भोजदेव की मृत्यु हो जाने पर राजसिंहासन के लिए संघर्ष शुरु हो गये। इनमें जयसिंह व उदयादित्य प्रमुख थे । कल्याणी के चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल की सहायता से जयसिंह परमार राजसिंहासन प्राप्त करने में सफल हो गया (विक्रमांकदेव चरित्, पर्व ३, श्लोक ६७ ) । अब स्वयं को भोजदेव का सही उत्तराधिकारी प्रदर्शित करने हेतु जयसिंह ने प्रस्तुत अभिलेख में स्वयं को भोजदेव का पादानुध्यात घोषित कर दिया ।
इसके विपरीत उदयादित्य एवं उसके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों में जयसिंहदेव प्रथम का कोई उल्लेख नहीं है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि जयसिंह की सफलता से उदयादित्य की महत्वाकांक्षा को आघात पहुंचा था। जब तक जयसिंह जीवित रहा उदयादित्य मालव सिंहासन प्राप्त न कर सका । १०७० ईस्वी में जयसिंह युद्धक्षेत्र में सोमेश्वर द्वितीय चालुक्य के हाथों मारा गया एवं चाहमान दुर्लभ तृतीय की सहायता से उदयादित्य मालव राजसिंहासन पर आरूढ़ हो गया ( पृथ्वीराज विजय, अध्याय ३, श्लोक ७७ ) । अत: उदयादित्य ने अपने अभिलेखों में जयसिंह प्रथम का उल्लेख ही नहीं किया । यही परम्परा उसके बाद के अभिलेखों में चालू रही ।
उपरोक्त आन्तरिक मतभेदों के कारण निश्चित ही परमार राज्य को काफी अशक्त कर दिया था क्योंकि शीघ्र ही धारा नगरी पर शत्रुओं ने अधिकार कर लूटा ( वडनगर प्रशस्ति, एपि. इं., भाग १, पृष्ठ २९७ श्लोक ९; मेरुतुंग कृत प्रबंधचित्तामणी, पृष्ठ ५१-५२) । नरेश जयसिंह वहां से भाग कर पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर आहवमल्ल प्रथम के पास सहायता हेतु गया । सोमेश्वर प्रथम ने अपने पुत्र विक्रमादित्य षष्ठ को सेना सहित भेजा । जयसिंह ने उसकी सहायता से मालव सिंहासन पुनः प्राप्त कर लिया। उसने अपनी पुत्री का विवाह विक्रमादित्य से कर दिया । विल्हणकृत विक्रमांकदेव चरित्, भाग ३, श्लोक ६७ में लिखा है-
स मालवेन्दुं शरणं प्रविष्टमकण्टके स्थापयति स्म राज्ये । कन्याप्रदानच्छलतः क्षितीशाः सर्वस्वदानं बहवोऽस्य चक्रुः ।। ६७ ।।
अर्थात् उस (विक्रमादित्य) ने शरण में प्रविष्ट हुए मालव नरेश को निष्कंटक राज्य में स्थापित किया, बहुत से नरेशों ने कन्यादान के बहाने से अपना सर्वस्य दान उसके लिए किया । उक्त सभी घटनायें १०५५-५६ ईस्वी में घट गई, क्योंकि प्रस्तुत अभिलेख जो इसके तुरन्त बाद का है जयसिंह ( प्रथम ) को मालव राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित प्रदर्शित करता है । भौगोलिक स्थलों में अमरेश्वर नर्मदा नदी पर मान्धाता के पास है । पूर्वपथक मंडल ताप्ती नदी की सहायक पूर्ण नदी से घिरा भूभाग है । शेष स्थानों के समीकरण में कठिनाई है ।
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मान्धाता अभिलेख
मूलपाठ
(प्रथम ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग) १. ओं
जयति व्योमकेशोसौ यस्सर्गाय वि (बि) भति तां (ताम्) । एन्दवीं सि (शि) रसा लेखां जगद्वी (दी)जां
कुराकृति (तिम्) [१॥] तन्वन्तु वः स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः । कल्पान्त-समयोद्दाम-तडिद्व
लयपिङ्गलाः ॥[२।।] परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीवाक्पतिराजदेव-पादा ४. नुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसिन्धुराजदेव-पादानुध्यात-परम५. भट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीभोजदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महा६. राजाधिराज-परमेश्वर-श्रीजयसिङ्घ (ह) देवः कुशली । पूर्णपथक-मण्डले म[क्तु]लाग्रा७. म-द्विचत्वारिंशदन्तःपाति-भीमग्रामे समुपगातान्समस्त-राजपुरुषान्द्रा (ब्राह्मणोत्तरान्प्र८. तिनिवासि-पट्टकिल-जनपदादींश्च समादिशत्यस्तु वः संविदितं । यथा श्रीमद्वा (द्धा) रा-व९. स्थितरस्माभिः स्नात्वा व (च) राचरगुरुं भगवत्तन्तिं] भवानीपतिं सम[भ्य] » संसारस्यासारतां दृष्ट्वा ।
वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्य मापातमात्र-मधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्तृणा
ग्र-जलविन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ।।[३॥] भ्रमत्संसार-चक्राग्रधा
राधारामिमां श्रियं (यम्) । प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चात्तापः परं फलं (लम्)।[४।।] इतिजगतो विनस्व (श्व) रं १३. स्वरूपमाकलय्योपरिलिखित ग्रामोयं स्वसीमा-तृण-गोचरयूति-पर्यन्तः सहिरण्य१४. भागभोगः सोपरिकरः सादाय-समेतस्च (श्च) श्री अमरेस्व (श्व) र पट्टशाला-व्रा (ब्राह्मणेभ्यः
(भ्यो) १५. स्वहस्तोयं श्रीजयसिंङ्घ (ह) देवस्य ।
(दूसरा ताम्रपत्र-अग्रभाग) १६. भोजनादि-निमित्तं मातापितोरात्मनश्च-पुण्य यशोभिवृद्धयेऽदृष्टफलमंगी१७. कृत्य चन्द्राणिवक्षिति-समकालं यावत्परया भक्तया शाश (स)नेनो-दकपूर्व प्रतिपा१८. दित इति मत्वा तन्निवासि-पट्टकिल-जनपदैर्यथादीयमान-भाग-भोग-कर-हिर१९. ण्यादिकं देवता (ब्रा)ह्मण-भुक्तिवर्जमा[ज्ञा]-श्रवणविधेयैर्भूत्वा सर्वमेभ्यः समुपनेतव्यं २०. सामान्यं चैतत्पुण्यफलं वुद्धा (बुध्वा)ऽस्मद्वंशजैरन्यैरपि भावि-भोक्तृभिरस्मत्प्रदत्तधर्म२१. दायोयमनुमन्तव्यः पालनीयश्च । उक्तं च । व (ब)हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरा
दिभिः। यस्य यस्य यदा [भू]मिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्) ॥[५।।]
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°
२३.
२४.
२५.
२६.
२७.
२८.
यानीय (ह) दत्तानि पुरा नरेन्द्रद्दत्ता (ना) -
fa धर्मार्थ - यशस्कराणि । निर्माल्य वान्ति- प्रतिमानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत || [ ६ || ] अस्मत्कुलक्रममुदार-मुदाहरद्भिर [न्यै] श्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं ।
लक्ष्म्यास्तडित्स
९.
लिल बुद्ध (बुद्ध) द चंचलाया दानं फलं परयशः परिपालनं च । । [ ७ ।।] सर्व्वानेतान्भाविनः पार्थिवे
न्दान्भूयो भूयो याचते रामभद्रः । सामन्योयं धर्म्मसेतुर्नृपाणां काले काले पाल
नीयो भवद्भिः || []
इति कमलदलम्वु (म्बु) विन्दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजी
परमार अभिलेख
इति
२९. संम्व ( संव) त् १११२ आषाढ़ वदि १३ । स्वयमाज्ञा । मङ्गलंमहाश्रीः । स्वहस्तोयं ३०. श्रीजयसिङ्घ (ह) देवस्य ।
वितं च । सकलमिदमुदाहृतं च वृद्धा (बुद्ध वा ) न हि पुरुषः परकीर्त्तयो विलोप्या ।। [९ ।।]
अनुवाद ( प्रथम ताम्रपत्र )
१. ओं
जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, मेघमण्डल ही जिनके केश हैं, ऐसे महादेव सर्वश्रेष्ठ हैं ||१||
प्रलयकाल में चमकने वाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु, शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें ॥२॥
३. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वाक्पतिराजदेव के
४. पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिंधुराजदेव के पादानुध्यायी ५. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक ६. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री जयसिंहदेव कुशलयुक्त हो पूर्णपथक मण्डल में मक्तुला ग्राम ७. बयालीस के अन्तर्गत भीमग्राम में आये हुए सभी राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के निवासियों, पटेलों व ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं-- आप को विदित हो कि श्रीयुक्त धारा में स्थित हमारे द्वारा स्नान कर चर व अचर के स्वामी भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर संसार की असारता को देख कर -
८.
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाले हैं, मानवप्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान हैं, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है || ३ ||
घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धारा ही जिस का आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता || ४ || १२. इस जगत का नाशवान
१३. रूप समझ कर ऊपर लिखा यह ग्राम अपनी सीमा तृण गोचर भूमि तक साथ में हिरण्य
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मान्धाता अभिलेख
९१
१४. भाग भोग उपरिकर और समस्त आय समेत श्री अमरेश्वर में पट्टशाला के ब्राह्मणों के लिये १५. ये स्वयं श्री जयसिंह देव के हस्ताक्षर हैं।
(द्वितीय ताम्रपत्र) १६. भोजन आदि के लिए, माता-पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिये, अदृष्ट
फल को स्वीकार १७. कर चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक के लिए परमभक्ति पूर्वक राजाज्ञा द्वारा जल
हाथ में ले कर दान दिया है। १८. इसका विचार कर वहां के निवासियों, पटेलों, ग्रामीणों को सदा से दिया जाने वाला भाग
भोग कर हिरण्य १९. आदि, देव ब्राह्मण द्वारा भोगे जाने वाले को छोड़ कर, आज्ञा को सुना हुआ मान कर,
सभी कुछ इनके लिये देते रहना चाहिये। २०. और इस का समानरूप फल जान कर हमारे व अन्य वंशों में उत्पन्न होने वाले भावी
भोक्ताओं को भी हमारे द्वारा दिये गये इस धर्म२१. दान को मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है--
___ सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब-जब यह भूमि जिसके अधिकार में रही है तब-तब उसी को उसका फल मिला है ।।५।।
यहां के नरेशों ने धर्म व यश हेतु जो दान दिये हैं वे त्याज्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति इसको वापिस लेगा॥६॥
हमारे उदार कुलक्रम को उदाहरण रूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ।।७।। __सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार-बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समानरूप धर्म का सेतु है। अतः अपने-अपने कालों में आपको इस का पालन करना चाहिये ।।८।। ___ इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल
समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीति नष्ट नहीं करना चाहिये ।।९।। २९. यह संवत् १११२ आषाढ़ वदि १३ । हमारी आज्ञा । मंगल व श्रीवृद्धि हो । ये हस्ताक्षर ३०. स्वयं श्री जयसिंह देव के हैं।
(२०) पाणाहेडा का जयसिंहदेव प्रथम कालीन मण्डलीक का प्रस्तरखण्ड अभिलेख
(विक्रम संवत् १११६=१०५९ ई०)
प्रस्तुत अभिलेख राजस्थान में बांसवाड़ा जिले में पाणाहेडा नामक स्थान पर मंडलेश्वर महादेव के मंदिर की दीवार में लगे प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है । इस का प्रथम उल्लेख गौरीशंकर ओझा ने ए. रि. राज. म्यू., १९१६-१७, पृष्ठ २ किया। फिर आर. आर. हलदर ने एपि. इं., भाग २१, पष्ठ ४१-५० पर इसका विवरण छापा ।
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परमार अभिलेख
प्रस्तर खण्ड का आकार ८०५०.४ सें. मी. है। वर्तमान में वह खण्डित है । उसके दोनों ओर के भाग सुरक्षित हैं, मध्यवर्ती भाग नष्ट हो चुका है। सुरक्षित भाग बहुत अच्छी हालत में है । खण्डित होते हुए भी अभिलेख में वर्णित तथ्यों की रूपरेखा समझने में कठिनाई नहीं है । अभिलेख ३८ पंक्तियों का है। अक्षरों की बनावट ११ वीं शती की नागरी लिपि है । बनावट में अक्षर सुन्दर हैं एवं ध्यान से खोदे गये हैं । अक्षर १ से १.५ सें. मी. लम्बे हैं । भाषा संस्कृत है । पंक्ति १, २६, ३६ एवं ३८ में केवल कुछ अंशों को छोड़कर सारा अभिलेख पद्यमय है । श्लोकों में क्रमांक दिये गये हैं । परन्तु पंक्ति २६ में श्लोक ३५ को भूल से ३४ उत्कीर्ण कर दिया है । पंक्ति ३५ में उत्कीर्णकर्ता को अपनी भूल ज्ञात हो गई, अतएव वहां श्लोक ५४ को ठीक से अंकित कर दिया । पुनः अंतिम पंक्ति ३८ में भूल से श्लोक ६१ को ६० अंकित कर दिया । इस प्रकार अभिलेख में कुल श्लोक संख्या ६१ है । इनमें केवल कुछ श्लोक अर्थात् १, १९, २१, २७, ३५, ३७, ४१, ४३, ४५, ४७, ५०, ५२, ५४, ५५, ५७, ५९ एवं ६१ पूर्ण हैं। शेष सभी अधूरे हैं । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, स के स्थान पर श, श के स्थान परस, म् के स्थान पर अनुस्वार का सामान्य रुप से प्रयोग है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है । अनेक स्थलों पर संधि नहीं की गई है । कुछ शब्द ही गलत उत्कीर्ण हैं । इन सभी को पाठ में कोष्टक में सुधार दिया गया है। ये त्रुटियां स्थानीय व काल के प्रभाव प्रदर्शित करती हैं । कहीं २ पर लेखक व उत्कीर्णकर्ता भी उत्तरदायी हैं ।
तिथि अंतिम पंक्ति में संवत् विक्रम १११६ लिखी है । इससे आगे कुछ अक्षर भग्न हो गये हैं जिनमें मास, पक्ष, तिथि व दिन आदि रहे होंगे। यह वर्ष १०५९ ईस्वी के बराबर है । प्रमुख ध्येय के अनुसार नरेश जयसिंह प्रथम के सामन्त वागड के परमार शासक श्री मण्डलीक द्वारा पांशुलाखेटक में शिव के मंदिर का निर्माण करवाकर उसके लिये विभिन्न दान देने का उल्लेख करना है ।
श्लोक ६ वें आबूपर्वत पर यज्ञकुण्डाग्नि से परमार नामक दिव्य पुरुष की उत्पत्ति का उल्लेख है । पूर्ववणित अभिलेख ( क्रमांक १७ ) में प्रथम बार परमारवंश का नामोल्लेख करके उसका सामान्य गुणगान है। उसकी उत्पत्ति का कोई उल्लेख नहीं है । वहां परमारवंश को सीधे धारानगरी से संबद्ध कर दिया। परन्तु वह अभिलेख कोई शासनपत्र न होकर भोजदेव के अधीन सामन्त यशोवर्मन द्वारा निस्सृत किया गया था। इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख में प्रथम बार परमार राजवंश की उत्पत्ति का पौराणिक विवरण मिलता है । श्लोक ७ से २५ तक में राजवंशीय नरेशों का जयसिंह प्रथम तक प्रशंसात्मक विवरण है । श्लोक २६ से अभिलेख का दूसरा भाग शुरु होता है । इसमें परमारों की वागड़ शाखा के शासकों का वर्णन है । श्लोक ३७ के अनुसार मण्डलीक ने युद्ध में कण्ह नामक किसी शत्रु सेनापति को उसके अश्वों व हाथियों समेत बन्दी बना कर नरेश जयसिंह के सामने प्रस्तुत किया था । श्लोक ३८ में जयसिंह की प्रशंसा है ।
आगे श्लोक ३९ में उल्लेख है कि मण्डलीक ने पांशुलाखेटक में शिवमंदिर का निर्माण करवाया । श्लोक ४०-४४ में मंदिर निर्माण के पुण्य दर्शाये गये हैं । श्लोक ४५ में नरेश जयसिंह द्वारा उपरोक्त मंदिर के लिये उस मार्ग से जाने वाले प्रत्येक बैल पर एक वंशोपक (मुद्रा) प्रदान करने की घोषणा है । श्लोक ४६ के अनुसार पांशुलाखेटक में कुछ अन्य दानों की घोषणा है जिनके विवरण श्लोक ४७-४९ में हैं । मंडलीक ने वहां वन्दनघाट पर दो भाग भूमि, नग्नतडाग एवं वरुणेश्वरी के पीछे दो सुन्दर वाटिका तथा खेत सहित भूमि प्रदान की। श्लोक ५०-५१ में नट्टापाटक, देउलपाटक,
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पाणाहेड़ा अभिलेख
भोग्यपुर, पानाछ्य, मण्डलद्रह तथा मंडलेश्वर ग्रामों में कुछ भूमियां दान करने का उल्लेख है । श्लोक ५२ के अनुसार स्त्रियों के पांवों के पायजेबों की झंकार से मुखरित पाणाहेडा नगर शिवजी के भोग के लिये प्रदान किया गया । श्लोक ५३ में उस नगर में शुद्ध द्रव्य, भूमि एवं घाट आदि का दान किया गया। सभी दान मण्डलीक के द्वारा दिये गये थे।
___अभिलेख में उल्लिखित मालवा के परमार राजवंश तथा वागड शाखा के शासकों के नाम एवं क्रम की अन्य अभिलेखों से पुष्टि होती है। राजवंशीय नरेश सर्वश्री सीयक द्वितीय, मुंजदेव, सिंधुराजदेव तथा भोजदेव पूर्ववणित अभिलेखों में इसी क्रम में मिलते हैं। जयसिंहदेव प्रथम का, भोजदेव के उत्तराधिकारी के रूप में, उल्लेख उसके पूर्ववणित मांधाता अभिलेख (क्रमांक १९) में मिलता है। प्रस्तुत अभिलेख के आधार पर जयसिंह प्रथम के शासनकाल में ४ वर्ष की वद्धि होती है। वागड शाखा के शासकों में धनिक, चच्च, सत्यराज, लिम्बराज तथा मण्डलीक है। इनमें दो नाम कंकदेव एवं चंडप नहीं हैं जो अर्थणा के संवत् ११३६ के चामुण्डराज के अभिलेख में हैं (एपि. इं., भाग १४, पृष्ट २९५ व आगे) । संभव है कि प्रस्तुत अभिलेख के क्षतिग्रस्त श्लोकों में ये नाम भी रहे हों ।
भौगोलिक स्थानों में पांशुलाखेटक प्रस्तुत अभिलेख का प्राप्तिस्थान पाणाहेडा है। नट्टपाटक वर्तमान नाटावाड ग्राम है । यह पाणाहेडा से पश्चिम की ओर दो मील है । देउलपाटक आधुनिक देलवाड़ा है जो जगपुड़ा से दक्षिण-पश्चिम की ओर ४ मील है। भोग्यपुरा भगोरा है। यह पाणाहेडा से उत्तर-पश्चिम में ३ मील है। पानाछ्य पाणाहेडा से ४ मील दूर पानासी है। मण्डलग्रह मादल्डा है जो नाटापाडा से पश्चिम को ४ मील है। नग्नतडाग नागेला तालाब है जो पाणाहेडा में मंडलेश्वर मंदिर के पास है। खलिघट्ट नर्मदा के किनारे खलघाट है। यह बम्बई-इन्दौर मार्ग पर स्थित है ।
विंशोपक एक सिक्का था। डी. आर. भण्डारकर के अनुसार यह तांबे का होता था। इसका मूल्य द्रम्म का बीसवां भाग होता था (कार्माइकल लेक्चर्स, पृष्ठ २०८ ) ।
मूलपाठ (श्लोक १. २. ५२ - आर्या; ३. ४. ५.६.८.११. १३. १४. १५. २३. २६ . २९. ३१. ३२. ३९. ६०-शार्दूलविक्रीडित; ७.१६-वसन्ततिलका; ९. १०. १२. १७. १८ . २२. ३३-स्रग्धरा; १९. २०. २४. २५. २७. २८. ३०. ३४. ३६ . ३७. ४४--५१ . ५३--५९. ६१--अनुष्टुभ; २१--मालिनी; ३५--शालिनी; ३८---उपजाति; ४०-४३-तोटक)
१. ओं। ओं नम: शिवाय।
धृतगगनसिंधुपट्टः शैलसुताशालभंजिकासुभगः । जयति जगत्रयमंडप मूलस्तंभो महादेवः ।।१।। जयति शिवो यन्मू[नि]- - - - - - - । - - - - - - - - - - - - - - ।।२।। --- --[श] -
शांककलया सद्यः प्रपद्यामतं वामः प्राप्य सुरां जगाम गरलग्रासादघोरः सुखं । ईशानेन समुद्रमंथन विधौ नेचोकृत: पन्नगो
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________________
९४
३
५.
७.
९.
१०.
तैर्द्ध मम्मलिताः पुनश्च दलिताश्चूडेंदुलेरवांशुभिः । भूयः स्फारभुजंगभोगश (ग) रलश्वासोम्मिभिः संभृताः, शंभो: पातु कठोरकंठ.
-11811
र्द्धत्ते कुटुंबं (बं) हरिः । मैनाका (ब्बु) दयो: स्वसुस्तव गृहे को नाथ मे वर्त्त मिथ्याहं भवतः प्रियेत्यगसुताक्षिप्तो हरः पातुः वः ॥ ५ ॥ अत्रास्त्य (बु) द
- [वि]
तते हो क्रियाक कुंडाने: परमार इत्यभिधया दिव्यः पुमानुत्थितः || ६ || आसीदकुंठ भुजदर्पकठोरवैरिकंठास्थिनिर्दलनदंतुर खड्ग[धारः] ।
--11911
श्चंडोड्डामररावरुद्धककुभि द्राक्ताडिते दुंदभौ । चेलुः पीलुघटातु रंगमचमूसंघट्टदर्पोत्कटाः
सामान्ताः कटकाग्र
--~
---I
ये संज्ञापनार्थं मुहु
र्व्वेतालैः स्नातुकामै
रनवि (धि) गततलास्तस्य युद्धस्थलीषु । दोडोच्चंडखङ्गाह्तक रटिघटाघोरकंकालकूलाः सद्य: कीलालनद्यः स्फुटितनरशिरः पङ्क
सु (शु) डारा डाकिनीनां [ह]
येन्या (ना) -
11511
[उद्य]द्दिवं कठपीठस्फुटविगल दसृक्सि
क्तसंग्रामरंगः |
राजा श्रीमंजदेवः समजनि कृतिनां वां (बां) धवो यस्य कीर्तिः कुंजे कुंजे गिरीणां प्रकटितपुलकं गीयते किन्नरीभिः ।।१०।।
[म] कातरेण मनसा वा ( चं ) चत्फणामंडलः । लेभे(ऽ)नंतरमेव सौस्थ्यमतुलं तुच्छाभवद्यन्महो त्वंगतु (त्तुं ) गतुरंगनिष्ठुरखुरक्षोदोद्गतैः पांसुभि ।।११।।
11811
- [ श] तकरटिघटाः सत्वरं जित्वरेण ।
परमार अभिलेख
. नेत्र
दीयन्त मून स्फुरदसिसलिलं पातयित्वारिसैन्ये
गृद्ध ( गृध) स्त्रीणां ररंध्रः (धुः ) श्रु (स्तु) तवलवसासीधवो योद्ध ( द्धृ ) कंठाः ।। १२ । ।
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पाणाहेड़ा अभिलेख
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
१७.
भावा (बा) [ हु ? ]
भेजे यस्य
- पराक्रमनिधिः श्रीसिंधुराजो नृपः ।
विसप्पिकुंजर घटासंघट्टहेलानमद्धात्रीमंडलभारधारण- परिक्लेसं ( शं) भुजंगेश्वरः ।। १३ ।।
क : स्थातुं क्षमते पराक्रम:
ते दृष्यंतु [बंध ] नारिप
: सौ (शौ) र्य प्रतिस्पर्द्धया
दधेर्मुख एव यस्य यस (श) सावित्रासितः कालिमा || १४ ||
जाता वागसमंजसा भयव [शा] दुत्सृ
स्रु (श्रुत्वा यद्भुजदंडपीडितधनु
ष्टंकारमाराद्वतं गाढापाणिरुपानहः परमभूदै ( दे ) कैव विद्वेषिणां ।।१५।।
-~-~
. [ते] प्रोद्दामगर्व्वं वचः ।
तस्माजायत सरोरुहपत्तनेत्रो विद्यानि [धिः]
- [य] द्वा गृहे यादसं ( शं) ।
भुक्ता
चंडकृपाणदंड व्यापारकौस (श) ल विदग्धभुजो नरें
द्रः ।। १६ ।।
सर्प्यत्युद्दाम दपत्कर टिघटामेदुरे यस्य सैन्ये मेदिन्यामक्षमायाम- सहभरधुरां धर्तुमुद्धर्तुकामः ।
कर्म्मो मर्म्मव्यथाभिः समजनि निभृवः (तः) प्राणशेषस्तु-,
यस्मिन्नुर्व्वी विजेतुं प्रचलति व (ब) लवत्तुंगमातंगसैन्यक्षोभक्षीण प्रवाहाः प्रमथितनलिनीमंडपोड्डीनहंसाः ।
वैरिस्रोवा (बा) ष्पपुरै रुषु समभव (वं ) स्तेपि कूपाः
सि (शि) रसि शत्रूणां खङ्ग
(शे) षः ।।१७।।
दर्शयन्नात्मनो रूपं विद्यास्प (फु) रितविभ्रमैः । यत्प्रतापia (बु) दो भूत्वा का ( द ) निवर्षी प्रजास्वभूत् ।। १९ ।।
[ श्व] लेह्याः ||१८||
- रियं ॥ २० ॥
तमनु विनतभूभृच्चक्रचूडाच्चितांहि : ( घ्रि ) प्रतपति जय [सिं] हः पार्थिवो माव (ल) वानां । चलतुरग सेनापांशुभिर्य: प्रयाणे कलुषयति चतुर्णमर्णवानां पयांसि ।। २१ ।।
यद्वा ( द्वा) हु: सौ (शौ) र्यवेगो
[अ] मरयुवतिभिः कीर्यते पुष्पवृष्ट्या ।
९५
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परमार अभिलेख
हेलाकृष्टासिदंडाहतसु
भटघटाकंधकंडा (स्कन्धकण्ठा) स्थिखंडप्रश्च्योतद्रक्तधाराप्लुतसमरधरापृष्ठनृत्यत्कवं (ब )धः ।।२२।। ताः कंडूल कपोलकेलिकषणत्रुटयत्कठोर[द्रुमा]
---- होईण्डविलासडंव (ब) ररणच्चंडासिधाराजले द्राग्म (ङम)ज्जति वि
पक्षवारणघटाः संग्रामसौ(सी) मास्पृशः ।।२३।। यस्याजौ यमजिव्हाभं खड्गमालोक्य विद्विषः । अप्राप्तेप्यायुषः का. . . . .न्मुंचंति जीवितम् ।।२४।।
[सर्वे पृथ्वीभृतश्चित्रं मुष्टिमध्ये निवेसि (शि) ताः ॥२५॥ अत्राशौ (शी)त्परमारवं[श]विततौ लब्धा (ब्धा)न्व[यः] पार्थिवो नाम्ना श्रीधनिको धनेस्स (श्व) र इव त्यागेककल्पद्रुमः । ---८८-८- - निन्ये स्वकीयं वपुः ॥२६॥ श्रीमहाकालदेवस्य निकेट हिमपांडुश्रीधनेश्वर इत्युच्चैः कीर्तनं यस्य राजते ।।२७।। चच्चनामाभवेत्व (वत्त)स्माद्भातृसूनुर्महानृपः। रण. . . . ---. . . . . . . . ~- ~..।।२८।। --------- --------ख्यया विख्यातः करवालघातदलितद्विट्कुभिकुंभस्थलः । यः श्री
खोट्विक (ट्टिग) देवदत्तसमरः श्रीसीयकार्थे कृती रेवायाः खलिघाट्ट] नाम्नि तटे युध(द्ध )वा प्रतस्थे दिवं ।।२९।।
...... वासितां ॥३०॥ आ (अ)तः कीर्तितरंगिणी-सल (चुलु) कित-त्रैलोक्य-सीमांतरस्त्यागी___सत्य पराक्रमो [गुण]निधिः श्रीसत्यराजोभवत् । यः श्रीभोजनरेंद्रदत्तविभवः सार्द्ध रणे गुजरैः कृत्वा [सं-~-~-~~----~--~-॥३१॥
--- ---भाग्य भागीरथीभेत्रः (त्तुः) कीर्तिषु चाहमानमहतां वंशोद्भवा लभ्यते । ___ जश्रीः सहजेव येन सहज श्रीमन्मतिः स्वामिना यस्याः स्यादुपमानमादिपुरुष (षा) पीत[स्त]नी देवकी ॥३२।। तस्या -- ख्यातः श्रीलिंव (ब) राजः प्रकटसुभटता (तः) सृष्टिषु व (ब) ह्मकल्पः ।
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पाणाहेड़ा अभिलेख
२५.
स्वल्पश्री
भूरिदाता नयाविनयमहापंडितस्तद्वरिष्ठः स्वि (स्व) गं प्राप्तश्छलित्वा कलियुगमधिपद्वेषिणोनिईलित्वा ।।३३।।
भोगत्यागौ गृहीत्वा]. . . . . . . . . .---.. श्री मंडलीक इत्यस्य लघुभ्राताभवे (व)नृपः ॥३४॥ सू (शू) रस्त्यागी नर्मशीलो वि
पश्चित् कंदपाभः कामिनी चित्तचौरः । सामंतानां मूर्द्ध नि दत्ताहिरेको राजत्युर्वीमंडले मंडलीकः ।।३४ (३५) ।। अपि च । भोज. . . . .--. . . . . . . . . .---..।
. . . . . . . . .~-~.. ॥३५(३६)॥ येनादाय रणे कन्हं दंडाधीसं (शं) महाव (ब)लं। अप्पितं जयसिंहाय सा[श्वं]
गजसमन्विवं (तं) ॥३६ (३७) ।। जयत्यसौ श्रीपरमारवंशो यत्र प्रभुः श्रीजयसिंहदेवः । जातः प्रसा (शा) खासु च यस्य तुंग सामंत पूज्य------॥३७ (३८)।
भक्त्याकार्यत मंदिरं स्मररिपोस्तत्पांशुलाखेटके। यस्योत्तु (त्तुं)गशिरः
- प्रदेशनि हितैर्दीपोत्सवे दीपकैईत्तं कज्जलमंजयंति नयनान्यादायसिद्धस्त्रियः ॥३८ (३९)॥ तृणमुष्टिमुपाहृतवानपि यः ---------
~-~~-~-भुवि सोप्यवतीर्य भवेन्नृपतिः ।।३९ (४०)। शरदारुमृदालयमीश कृते कुरतेल्पध[नो] दिनमेकमपि । दिवि वर्षसहस्रमुपास्य सि (शि)वं पुन रत्न महीपनतः प्रभवेत् ।।४० (४१)। व (बृ) हदाम - -८८CC कामयतेपि महेंद्रपदं सुरनाथमपि स्खलयेदचिरात ॥४१ (४२)॥ यदि पक्वमहेष्टकया तरुभिर्खरसारश (शि) लाघटितर्घटयेत् । निखिलामरसे (शे) खरघट्टनया निविसे (शे)द्दिवि घृष्टपदांवु (बु) रुहः ।।४२ (४३)।
- . . . . . . . . . . विषाणजं । प्रासादमथ माणेयं शिव एव करोति यः ॥ ४३ (४४)। राज्ञा स्री (श्री) जयसिंहेन अस्मै देवाय भक्तितः । वृषभं प्रति भोगार्थं मार्गे पिंसो (शो) पको दत्तः ।।४४ (४५)। पांसुलाखेटके स्थाने कच्छोक.. ८-८..। ....... . . द्वितीयस्तु दत्तः शंभोः स्वभक्तिना (?)॥४५(४६)। वंदनाख्ये (5) रघट्टे च भूमै (मे)
भागद्वयं तथा। दत्तं श्रीमंडलीकेन स्वश्रेयाय (यसे) महेस (श)तः ।।४६ (४७)।
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परमार अभिलेख
३३.
३४.
पृष्ठे नग्नतडागस्य वरुणेस्व (श्वर्यास्तथैव च । वाटिका सुभगा दत्ता. . . . .. ..-~.. ।।४७(४८)।। . . . . एवादितः कृत्वा यावच्चंद्रदिवाकरौ । भूमिर्दत्ता सकेदारा वुध्वा (बुद्ध वा)
'सांसारिकं फलं ।।४८ (४९)।। नढ्ढापाटकग्रामे भूरन्या देउलपाटके । भोग्यपुरे च पानाच्यामपरा मंडलद्रहे ।।४९ (५०)।। एवमेतेषु ग्रा[मेषु] . . . . . . . . .[ल]क्षिता । भूमिः श्रीमंडलीकेन दत्ता श्रीमंडलेश्वरे ॥५० (५१)।। एतच्च पु
रं ललनानुपर झंकार मुखरिताभोगं । भोगनिमित्तं शंभोईतं श्रीमंडलीकेन ।।५१ (५२)।। पुरेत्र सत्कद्रव्यस्य भूरघट्टादिकस्य च । म....
. . . . शः प्रकल्पितः ।।५२ (५३)।। तपर (स) वी व (ब) ह्मचारि(री) यै (यः) [शुचिर्दाता (तो) जितेंद्रि
यः। तेनात्र तविः ( ? ) कर्तव्या वारिकः सह सर्वदा ॥५४।। भरतो धुंधुमारश्च कार्तवीर्यो शिविर्व (बिर्ब) लिः । हरिस् (२) चंद्रस्तु मांधाता नलो वेणु पादयः] ।।५५।।
--- . . . . जानः (ताः) वरपूरिताः । तंप्यायुषि परिक्षीणे गताः] कृता (कार्ता) तिकं पुरं ॥५६।। मत्वैतिदस्थिरं सवं र न लोप्यं सि (शि) वसंवंधि वस्तुस्तोक (कम) पि यद्भवेत् ।।५७।।
३५.
३७.
यतः।
भवस्नानाज्यमज्ञा नाद्यस्थितं करजोदरे] ।
• • • • • • --- . . . . . . . . हरिद्विपः ॥५८।। विसे (शेषतः। अस्मद्वंसे (शे) थ -- विषये भो
क्तात्र यो भवेत्। तस्यास्माभिः कृताभ्यर्था (र्चा) सि (शि) वदत्तं न चालयेत् ॥५९॥ अस्ति प्रत्यवनीस (श) चक्रमुकुटस्पृष्टाह्नि (घ्रि) पीठश्रियः श्रीकोदंड चतुर्भु]
--- -- [ते]नेयं स्फुटवणपाकपटिम प्रौढेः पदाडं [वरैः]
संदृष्ट्वा सुम३८.
* [नः] प्रवो (बो) धजननी शंभोः प्रशस्तिर्ग हे ॥६०॥ यावच्चांद्री कला शंभोोतते कूटमंडपे ।
कीत्तिः श्रीमंडलीकस्य तावदस्त्वक्षया भुवि ।।६० (६१)। संवत् वि[क]म १११६. . [वा]लभ्यकायस्थ-श्रीधरसुतासराजेनेयमुत्कीरिता (ण्णा)[सु(शु) दा]।।
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पाणाहेड़ा अभिलेख
(अनुवाद) ओं। ओं। शिव को नमस्कार। १. आकाश गंगा रुपी पट्ट को धारण करने वाले शैलसुता रूप शालभंजिका के कारण सुन्दर
तथा त्रिलोक रुपी मंडप के मूल स्तम्भरुप महादेव की जय हो। २. इस शिवजी की जय हो जिसके मस्तक पर. . . .। ३. ... .जिस शिव ने चन्द्रकला से अमृत प्राप्त करके. . . . . उस अघोर ने सुरा के प्राप्त
कर के भी हलाहल पी कर ही सुख को प्राप्त किया। जिस शिव ने समुद्रमंथन के समय वासुकी नाग को भी रस्सी बना दिया । . . . . . काले धुएं से पुष्ट हुए, पुनः श्री शंकर की जटाजूट में विराजमान चन्द्रलेखा की किरणों के द्वारा क्षतविक्षत हुए, सब दूर फैलने वाली सर्यों की विषैली श्वासों की
लहरों से पुष्ट हुए, महादेव के नीलकंठ. . . . . हमारा रक्षण करें। ५. ........विष्णु कुटुम्ब का पोषण करता है। मैनाक व अर्बुद की बहन (पार्वती)
'तेरा नाथ कौन है' ? मैं आपकी प्रिया हूं यह तो मिथ्या ही है' ऐसे पार्वती द्वारा अपमानित शिव आपका रक्षण करे। यहां आबु पर्वत पर. . . . विस्तृत यज्ञ करने पर कुण्डाग्नि से परमार नाम का दिव्य
पुरुष उत्पन्न हुआ। ७. .... .तीक्षण भुजाओं के दर्प से कठोर शत्रुकण्ठों की हड्डियों को चूर्ण करने के लिये
तीखी खङ्ग की धार . . . . . । ....... समस्त सामन्तों को सूचनार्थ बार-बार उग्र ध्वनि से दिशाओं को व्याप्त करने वाली शीघ्र बजाई गई हुई दुंदुभि के बजाने पर, सामन्तगण अपने-अपने पड़ावों से चले। जिनका अभिमान राज समूह, अश्व एवं सैनिकों के संघर्ष से उभर रहा था. . . . .। .....नेत्रों वाले, स्नान करने की इच्छा करने वाले पिशाचों ने उसके युद्ध स्थलों में (बहने वाली) और शक्तिशाली बाहुओं द्वारा प्रचण्ड तलवारों के आघात से मृत्यु को प्राप्त हाथियों के समूहों के भयंकर अस्थिपंजर रूपी किनारों वाली, फूटे हुए मानव सिरों के कीचड़ से (युक्त) अथाह, ऐसी रक्त की नदियों में तत्काल . . . . . .। . . . . . कंठों से स्पष्टतया बहने वाले रक्त से युद्ध भूमि को जिसने सिंचित कर दिया है, कार्यकुशल व्यक्तियों का बंधु राजा श्री मुंजदेव उत्पन्न हुआ जिसकी कीर्ति पर्वतों के कुंजों में रोमांचित किन्नरियों द्वारा गाई जाती है । ऊंचे घोड़ों के कठोर खुरों के खोदने से उठे हुए धूलि कणों से. . . . . भयभीत मन के कारण जिसका फणमंडल चंचल हो गया है ऐसा . . . . . बाद में ही अपना अतुलनीय
संतुलन प्राप्त कर सका। १२. ... . .सैकड़ों हाथियों के समूहों को तत्काल जीतने वाले जिसने शत्रु सैन्यों के मस्तक
पर चमकने वाली खड्ग की कांतिरूपी सलिल का छिड़काव करके जिनमें से वसा व
रक्त बह रहा है ऐसे योद्धाओं के कण्ठों को गद्धस्त्रियों के लिये दिया। १३. रम्भा की भुजायें . . . . . . परामक्रम का भंडार श्री सिंधुराज नरेश हुआ। जिसके चलने
वाले गज समूह के संघर्ष और विनोद से झुकने वाले भूमण्डल के भार को धारण करने में शेषनारायण महान क्लेश का अनुभव कर रहा था।
११.
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२०.
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२२.
२३.
२४.
२५.
२६.
परमार अभिलेख
जिसके शौर्य के आगे ...... . गर्वपूर्वक वचन को सहन करने में कौन समर्थ हो सकता है । पराक्रम की प्रतिस्पर्धा में वे भले ही गर्व किया करें जिन्होंने अपने मुख पर जिसकी कीर्ति से त्रस्त की गई हुई कालिमा धारण की हुई है व जिनके केवल कबंध (धड़) ही शेष हैं।
जिसके भुजदण्ड से खींचे हुए धनुष की डोरी टंकार से तत्काल शत्रुओं की वाणी लड़खड़ाने लग गई व घर में जिस स्थिति में थे उस कार्य को छोड़ कर भय के
कारण पैरों को शरीर में सिकोड़ कर बैठ गये ।
उससे कमलपत्र के समान नेत्रों वाला विद्या की निधि
उग्र कृपाण के दण्ड को
उन्मत्त गज-घटा
चलाने की चतुराई में निपुण हैं भुजायें जिसकी ऐसा नरेंद्र उत्पन्न हुआ । आकाश के समान नीलवर्ण जिसकी सेनायें जब चलने लगी तो उसके भार को सहन करने में असमर्थ पृथ्वी के भार को वहन करने की इच्छा रखने वाला .. . अनेक प्रयत्न करता हुआ मर्मव्यथाओं से शेषनाग प्राणों के शेष रहने से निश्चल
हो गया ।
उसकी विजय यात्रा के लिये चलने पर बलवान हाथी एवं घोड़ों की सेनाओं से क्षुब्ध एवं क्षीण हो गया है प्रवह जिनका कमलवनों के कुचलने से हंस उड़ गये हैं ऐसी.. . शत्रुओं की स्त्रियों के आशुओं के बहाव से मरुस्थल के कुवें भी घोड़ों के चाटने योग्य हो गये ।
जिसका प्रताप रूपी मेघ विद्यारूपी बिजली की चमक से अपने रुप को दिखाते हुए प्रजा में दान रूपी वर्षा करने लगा ।
शत्रु के सिरों पर प्रहार की गई हुई खड्ग
उसके बाद जयसिंह नामक नरेश हुआ जिसके चरण प्रणाम करने वाले नरेशों की मुकुट मणियों से पूजित हुआ करते थे, जिसने अपनी यात्रा के समय चंचल घोड़ों एवं सेना की धूलि से चारों समुद्रों के जल को मलिन कर दिया था ।
जिसके बाहु में पराक्रम वेग से देवांगणानाओं के द्वारा इस पर पुष्पवृष्टि की गई । सरलता से सींचे गये हुए खड्गों से मारे गये हुए शत्रु योद्धागणों के स्कंध एवं कण्ठ की अस्थियों से बहने वाली रक्तधाराओं से सिंचित समरभूमि पर नृत्य कर रहे हैं कबंध जिसमें ..
इन (शत्रुओं) के गजसमूहों ने गंडस्थल की खुजलाहट के मिटाने के लिये घर्षण करने से बड़े बड़े वृक्षों को भग्न कर दिया है..... वे केवल संग्राम की शोभामात्र रह गये, उस ( जयसिंह) के भुजदण्ड के घुमाने से उग्र खड्गधारारुपी जल में वे गज तत्काल डूब जाते थे ।
युद्ध में जिसके शत्रुगण यम की जिव्हा के समान खड्ग को देखकर आयु की मर्यादा प्राप्त न होने पर भी. . प्राणों को छोड़ते हैं ।
. विचित्र कि सारे नरेश उसकी मुट्ठी के मध्य में रहते हैं ।
यहां विस्तृत परमार वंश में ( अर्थात शाखा में ) श्री धनिक नामक नरेश हुआ जो त्याग करने में कुबेर के समान कल्पवृक्ष के समान था..... . अपने शरीर को पहुंचाया ।
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पाणाहेड़ा अभिलेख
૧૧
२७. श्री महाकाल देव (के मंदिर) के समीप बर्फ के समान शुभ्रकीर्ति श्री धनेश्वर नाम से
अधिकता से शोभायमान है। (संभवतः उसने एक श्वेत भवन बनवाया) . २८. उसके पश्चात उसके भाई का पुत्र चच्च नामक नरेश हुआ। युद्ध में......।
. . . . . इस नाम से प्रसिद्ध तलवार के आघातों से जिसने शत्रुगजों के गण्डस्थलों का विदारण कर दिया है, जो सीयक के लिये खोटिगदेव से युद्ध करते हुए नर्मदा के किनारे खलघाट के तट पर दिवंगत हुआ।
. . . . . .निवास करते हुए। ३१. कीतिरुपि नदी से त्रैलोक्य की सीमा को व्याप्त कर लिया है ऐसा त्यागी, सत्य
पराक्रम वाला, गुण का भण्डार श्री सत्यराज हुआ जिसने गुर्जरों के साथ युद्ध करके श्री
भोज नरेश से वैभव प्राप्त किया . . . . . .। ३२. जिसकी मति सहज में ही श्रीमन्ततापूर्ण थी, जिसकी उपमान वह देवकी है, जिसका स्तन
पान आदिपुरुष (कृष्ण) ने किया, श्रेष्ठ चाहमान वंश में उत्पन्न हुई राजश्री जिस
(सत्यराज) ने प्राप्त की. . . . . . । ३३. उससे प्रसिद्ध श्री लिम्बराज (उत्पन्न हुआ) जो अच्छे अच्छे वीर योद्धाओं के निर्माण
करने में ब्रह्मदेव के समान, ऐश्वर्य कम होने पर भी अत्याधिक दानशील, नीति व विनम्रता में महापंडित, श्रेष्ठ, कलियुग के शत्रु नरेशों का छलपूर्वक विनाश करके. . . . . . .
स्वर्ग को प्राप्त हुआ। ३४. भोग त्याग को स्वीकार कर . . . . . . उसका छोटा भाई श्री मंडलीक नामक नरेश हुआ।
वह मण्डलीक पृथ्वी पर शोभायमान हो रहा है जो शूर, त्यागी, रसिक, विद्वान, कामदेव के समान सुन्दर, कामिनियों के चित्त को हरण करने वाला, सामन्तों के मस्तकों पर
चरण स्थापित करने वाला है। ३६. और भी। भोज...... ३७. जिसने रण में महाबलि कण्ह नामक सेनापति को, उसके अश्वों व गजों समेत, पकड़ कर
जयसिंह को समर्पित कर दिया। ३८. इस परमार वंश की जय हो, जिसमें प्रभु (नरेश) श्री जयसिंह देव उत्पन्न हुआ। जिस
वंश की शाखाओं में उच्च सामन्तों द्वारा पूजित...... .....पांशुला खेटक में भक्तिपूर्वक शिव मंदिर का निर्माण कराया, दीपोत्सव में जिसके उन्नत शिखरों पर स्थापित दीपकों के काजल को सिद्ध-स्त्रियां अपने नयनों में लगाती थीं। जो मुट्ठीभर तृण लेकर समर्पण करता है. . . . . वह भी पृथ्वी पर जन्म लेकर नरेश हो जाता है। जो निर्धन व्यक्ति एक दिन भी बांस, लकड़ी अथवा मिट्टी का शिव मंदिर बनाता है, वह स्वर्ग में हजारों वर्ष शिव की उपासना करके फिर से यहां पर राजा बनता है। महान . . . . . . . . . इन्द्र पद की कामना करने वाले देवाधिपति को भी तुरन्त नीचे गिरा देता है। यदि पक्की ईंटों, वृक्षों व दृढ़ शिलाओं से देवमंदिरों का निर्माण करता है, वह कमलों पर चलता हुआ स्वर्ग में निवास करता है।
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परमार अभिलेख
४४. जो शिव मंदिर का निर्माण शृंगों अथवा मणियों से करता है वह . . . . . .। ४५. राजा श्री जयसिंहदेव के द्वारा इस शिवजी के (मंदिर) के लिये भक्ति से इस मार्ग से
जाने वाले प्रत्येक वृषभ पर एक वंशोपक प्रदान करने का (निश्चय किया गया)। पांसुला खेटक स्थान में शिवजी के लिये भक्ति से दूसरा (दान) दिया.....। श्री मण्डलीक ने अपने कल्याण के लिये वन्दन नामक घाट पर दो भाग भूमि इसी प्रकार दान में दी। नग्न तडाग व वरुणेश्वरी के पीछे सुन्दर वाटिका दी. . . . . .। इसी प्रकार सांसारिक फल को जान कर चन्द्र व सूर्य के रहते तक खेत सहित भूमि
प्रदान की. . . . . .। ५०. नढ्ढापाटक ग्राम में, देउलपाटक में, भोग्यपुर में, पानाछ्य में और मण्डलद्रह में... ५१. इस प्रकार इन ग्रामों में निशित भूमि श्री मण्डलीक ने मंडलेश्वर में दान में दी। ५२. श्री मण्डलीक के द्वारा स्त्रियों के पांवों के पायजेबों की झंकार से मुखरित यह नगर
शिवजी के भोग के हेतु दान किया गया। ५३. इस नगर में शुद्ध द्रव्य व भूमि एवं घाट आदि का. . . . . . दान किया। ५४. तपस्वी, ब्रह्मचारी, पवित्र, उदार व जितेंद्रिय जो भी हो वे तीर्थयात्रियों के साथ यहां
सदा तपश्चर्या करें। ५५. भरत, धुंधुभार, कार्तवीर्य, शिवि, बलि, हरिश्चन्द्र, मान्धाता, नल, वेणु आदि नरेश भी. . . . ५६. ... . . वे भी आयु के समाप्त होने पर यमपुरी को चले गये। ५७. यह सारा राज्य, आयुष और धन अस्थिर हैं, यह जान कर नरेशों को शिव से संबंधित
छोटी से छोटी वस्तु को भी लुप्त नहीं करना चाहिये। कारण कि शिवजी के तीर्थ, जप और ज्ञान से जो कुछ अंजली में स्थित है, . . . . . ऐरावत . . . . . और विशेषतः हमारे वंश में अथवा विषय (प्रदेश) में जो उपभोग करने वाला हो, उससे हमारी प्रार्थना है कि शिव हेतु जो दिया गया है उसका अपहरण न करें। शत्रुसमूहों के मुकुटों से स्पर्श की जा रही है पादपीठ की शोभा जिसकी, धनुर्धारी चतुर्भुज (राम के समान पराक्रमी श्री मंडलीक ?) ने स्पष्ट वर्णरचना, चातुर्य भरे शब्दाडम्बरों से (परिपूर्ण) देख कर विद्वज्जनों को ज्ञान प्रदान करने वाली यह प्रशस्ति
शिव मंदिर में उत्कीर्ण करवाई। ६१. जब तक कूटमंडप में चन्द्रमा की कला प्रकाशमान है, तब तक श्री मंडलीक की कीर्ति
पृथ्वी पर अक्षय रहे।
विक्रम संवत् १११६. . . . . . वलभी के कायस्थ श्री धर के पुत्र आसराज के द्वारा यह उत्कीर्ण की गई।
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उदयपुर अभिलेख
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(२१) उदयपुर का ज्ञातपुत्र उदयादित्य का नीलकंठेश्वर मंदिर प्रस्तर अभिलेख
(विक्रम सं. १११६, शक संवत् ९८१=१०५९ ईस्वी) प्रस्तुत अभिलेख का पाठ अत्यन्त अशुद्ध एवं संदिग्ध है। यह विदिशा जिले में उदयपुर में नीलकंठेश्वर मंदिर में दीवार में लगे एक प्रस्तर शिला पर उत्कीर्ण है। इसका उल्लेख ज. ए. सो. बं., भाग ७, पृष्ठ १०५६ तथा भाग ९, १८४० , पृष्ठ ५४५--५४८ पर किया गया। परन्तु वहां इसका फोटो न हो कर पाठ की हस्तप्रतिलिपि ही छपी है।
___ अभिलेख का आकार ९४४५५ सें. मी. है। इसमें २२ पंक्तियां उत्कीर्ण हैं । प्रत्येक पंक्ति में ६५ से ७५ तक अक्षर हैं। अंतिम पंक्ति के अक्षर २.५ सें. मी. है।
भाषा संस्कृत है, परन्तु अत्यन्त त्रुटिपूर्ण है । यहां तक कि उसका ठीक से अर्थ लगाना भी कठिन है । अनुमानतः अभिलेख गद्य--पद्यमय है। यह कहना सरल नहीं है कि इसका कितना भाग श्लोकबद्ध है। संभवत: पंक्ति १-२ में एक श्लोक स्रग्धरा छन्द में है। इसी प्रकार पंक्ति २-३ में भी श्लोक है। तीसरा श्लोक संभवतः पंक्ति ३-४ में है, परन्तु यह अपूर्ण लगता है । आगे के श्लोकों के बारे में कुछ भी निश्चित करना सरल नहीं है। वैसे पंक्ति १३ में दण्डों के मध्य १ का अंक दो बार है । पंक्ति १४ में २० का अंक है। इसी प्रकार पंक्ति १६ में दण्डों के मध्य २४ का अंक, पंक्ति १७ में दण्डों के मध्य २३ अंक, पंक्ति १८ में दण्डों के मध्य २७ अंक, पंक्ति २० में ३० व ३१ अंक और पंक्ति क्र. २१ में दण्डों के मध्य ३२, ३३ व ३४ अंक हैं । यह कहना सरल नहीं कि इन अंकों का वास्तव में क्या प्रयोजन है। संभव है कि ये अंक श्लोकों के क्रमांक रहे हों । यदि ऐसा है तो मानना होगा कि अभिलेख कुल ३४ श्लोकों का है। परन्तु सभी श्लोकों को ठीक से जमाना संभव नहीं है।
__ व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से केवल इतना कहना ही पर्याप्त है कि अभिलेख अत्यन्त त्रुटिपूर्ण है। इसमें कठिनाई से ही कोई वाक्य शुद्ध है। अशुद्धियों के लिये लेखक व उत्कीर्णकर्ता दोनों ही उत्तरदायी हैं।
अभिलेख में तिथियों की भरमार है। इनमें एक विशिष्टता यह है कि प्रारम्भिक तिथियां शब्दों व अंकों दोनों में रखी हुई हैं। इसके अतिरिक्त प्रायः सभी में सम्बद्व संवतों का नाम भी दिया हुआ है । पंक्ति क्र. ६ में तिथि विक्रम संवत् १११६ और शक संवत् ९८१ दी हुई हैं। गणना करने पर ये दोनों १०५९ ईस्वी की बराबर निश्चित होती हैं । पंक्ति १३-१५ में भी कुछ तिथियों का उल्लेख है। पंक्ति १३ में तिथियां केवल शब्दों में लिखी हुई हैं। जिनको ठीक से पढ़ने में कठिनाई है । इसी प्रकार पंक्ति १४ में प्रारम्भ में कोई तिथि शब्दों में है जिसको पढ़ने में कठिनाई है। परन्तु दूसरी तिथि अंकों में लिखी हुई है जो कलियुग का ४१६० वर्ष है । इस समय कलियुग का चालू वर्ष ५०७९ है। इसमें से ईस्वी सन् का चालू वर्ष निकाल देने पर कलियुग का प्रारम्भ ३१०१ ईस्वीपूर्व निश्चित हो जाता है। इससे गणना करने पर कलियुग ४१६० वर्ष सन् १०५९ ईस्वी के बराबर बैठता है जो उपर्युक्त गणना से मेल खाता है। आगे पंक्ति १५ में पुनः किसी युग संवत्सर के ४३३९ वर्ष का उल्लेख है जिसके बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। आगे भी कुछ अन्य
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परमार अभिलेख
तिथि है जो पूरी तरह समझ में नहीं आती । वूलर महोदय इसके संबंध में लिखते हैं कि पंक्ति १३-१४ में अभिलेख का विक्रम संवत् १५६२, शक संवत् १४४७ (शुद्ध पाठ १४२७) अथवा कलियुग ४६०७ में किसी संग्रामवर्मा की आज्ञा से लिखा जाना सिद्ध होता है (एपि. इं. , भाग १, पृष्ठ २३३)। परन्तु प्रस्तुत पाठ में ये तिथियां ठीक से पढ़ने में नहीं आतीं। कलिपुग संवत् ४६०७ तिथि तो है ही नहीं। इसके अतिरिक्त संग्रामवर्मा का भी कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं होता इस कारण यह मानने में कठिनाई है कि अभिलेख बाद में ईसा की १५वीं शताब्दी में उत्कीर्ण करवा कर उदयेश्वर मंदिर में लगवाया गया था जैसा कि मिराशी महोदय ने भी लिखा है (स्ट. इ. मि., भाग २, १९६१, पृष्ठ ७८ )।
अभिलेख का प्रमुख ध्येय अनिश्चित है। संभवतः यह उदयादित्य की प्रशंसारूप एक प्रशस्तिमात्र हो । यह भी संभावना है कि उक्त नीलकंठेश्वर (उदयेश्वर) मंदिर का निर्माण १०५९ ईस्वी में उदयादित्य द्वारा अथवा उसके शासनकाल में निर्मित कराये जाने के उपलक्ष्य में प्रस्तुत प्रशस्ति उसमें लगवा दी गई हो । वास्तव में उक्त मंदिर में अनेक अभिलेख उत्कीर्ण हैं।
पंक्तिवार विवरण पर विचार करने से प्रतीत होता है कि इसका प्रारम्भ 'सिद्धि से होता है। इसके पश्चात गणेश, ओंम् व परब्रह्म को नमस्कार है। फिर ईशवन्दनायुक्त पार्वतीनाथ शिव की आराधना में एक श्लोक है । इसके उपरान्त पंक्ति २-३ में संभवतः दूसरा श्लोक है जिस में पावार (परमार) वंश के नरेश सूरवीर (शूरवीर) द्वारा मालव राज्य की स्थापना का उल्लेख है। निश्चित ही यह विवरण उदयपुर क्षेत्र में मालव राज्य की स्थापना को ही इंगित करता है। फिर उससे उत्पन्न पुत्र गोदल (गोंडल) राज्याधिकारी बना। अगले श्लोक के अनुसार, जो संभवतः पंक्ति ३-४ में है, तत्पुत्र पाता (ज्ञाता) ने शत्रुसैन्यों का मंथन कर (अरिबलमथन) राज्य प्राप्त किया, मालव (प्रदेश) में जा कर प्रसिद्धि प्राप्त की एवं धर्मानुसार आचरण कर तालाबों से युक्त मंदिरों का निर्माण किया। पंक्ति ५ में उल्लेख है कि उसने उदयादित्य को योग्य मानकर नरेश बनाया और कीर्ति अर्जित की। परन्तु यहां ज्ञाता का उदयादित्य से संबंध दिया हुआ नहीं है। संदर्भ में वह उसका पूत्र ही होना चाहिये क्योंकि आगे पंक्ति ११ में 'तस्यात्मजं' लिखा हुआ है।
अभी तक के विवरण के संबंध में उपरोक्त जर्नल में अभिलेख के सम्पादक ने विचार प्रकट किया है कि अरिवलमथन व्यक्तिवाचक नाम है और वह गोंडल का उत्तराधिकारी था। सम्पादक ने ज्ञाता का नाम कतई छोड़ दिया है। अरिवलमथन मालव गया और मध्यदेश को पुनः प्राप्त किया, जिस पर इसके पूर्वज राज्य करते थे और जो बाद में विरोधी राजाओं द्वारा छीन लिया गया था। उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र उदयादित्य था। इसके विपरीत हाल महोदय का मत है कि सौरवीर (शूरवीर) शब्द किसी राजा का नाम नहीं है। गोंडल पहला राजवंशी व्यक्ति है जिसका नाम अभिलेख में आया है। उसका पत्र ग्याता (ज्ञाता) प्रतीत होता है जिसके स्थान पर "पाता" लिख दिया गया है। यह ज्ञात्रि की प्रथमा विभक्ति ज्ञाता का संभवतः देशी विकृतरुप है। यदि अरिवलमथन शुद्ध पाठ हो तो यह संदिग्ध ज्ञाता का एक विशेषण है। यह व्यक्तिवाचक नाम नहीं हो सकता। उदयादित्य उस का पुत्र कहा गया है और यह स्पष्ट रुप से लिखा है कि वह संवत् १११६ व शक संवत् ९८१ तदनुसार १०५९ ईस्वी में राज्य कर रहा था (ज. अमे. ओ. सो., भाग ७, पृष्ठ ३५)। इस पर टिप्पणी करते हुए डी.सी. गांगुली लिखते हैं कि वे हाल से सहमत हैं कि अरिवलमथन व्यक्तिवाचक नाम नहीं है।
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उदयपुर अभिलेख
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किन्तु उनका झुकाव उसे उदयादित्य का विशेषण मानने की ओर है। क्योंकि यदि यह अभिलेख उदयपुर व नागपुर प्रशस्तियों (क्रमांक २२ व ३६) के प्रकाश में पढ़ा जाये तो अवश्य ही यह दृढ़तापूर्वक कहना चाहिये कि ज्ञाता ने नहीं अपितु उदयादित्य ने मालवा के अपने पैतृक राज्य का उद्धार किया और उस पर अपना आधिपत्य स्थापित किया (प. रा. इ. गां., पृष्ठ ९७, पादटिप्पणी ४)।
__ इससे आगे उदयादित्य की प्रशंसा है। पंक्ति ६ में अभिलेख की उपर्युक्त तिथि विक्रम संवत् १११६ और शालिवाहन शक ९८१ शब्दों व अंकों में है जब उदयादित्य ने धर्म, अर्थ, कार्य व शक्ति से युक्त हो शास्त्रमार्ग से आत्मकल्याण हेतु अनेक प्रकार से कीर्ति प्राप्त की थी। पंक्ति ७-१० में लिखा है कि विगत ४४६ वर्षों से जब लोग देवालयों की पूजा से विरत हो गये थे व नरेशों में धर्म का लोप हो गया था (संभवतः हर्षवर्द्धन के समय से जब बौद्ध धर्म का पुनः प्रचार हो चला था) तब उसने जम्बूद्वीप को भगवती का निवासस्थान बना दिया और नरेशों में धर्माचरण हेतु उन पर विजय प्राप्त की। उसने शत्रुनरेशों को जीतने के उपरान्त पुनः उनको राज्याधिकार सौंप दिये । पंक्ति ११-१२ के अनुसार जन्म से लेकर सन्मार्ग में संलग्न इस (ज्ञाता) का पुत्र (उदयादित्य) सूर्योदय में स्नान कर (पंक्ति १३ का पाठ अनिश्चित है) कलिवर्ष व्यतीत ४१६० (१०५९ ईस्वी) में (पंक्ति १५ का पाठ अनिश्चित है) जब वह २० वर्ष का हो गया तब शुभ मुहूर्त में (जिसका विषद विवरण पंक्ति १६-१७ में है) महानपुत्र के संस्कारों को सम्पन्न कर राजपुत्र (उदयादित्य) को कार्याध्यक्ष (युवराज) पद पर नियुक्त कर दिया। पंक्ति १८ के अनुसार दोनों पिता-पुत्र इस प्रकार सत्कर्म में प्रवृत्त हुए जिससे दोनों लोकों में सुख की प्राप्ति हो।
आगे पंक्ति २१ तक प्रस्तुत अभिलेख के संबंध में विवरण है। इसमें लिखा हुआ है कि यह प्रशस्ति उनके (ज्ञाता एवं उदयादित्य) सत्कार्यों के गुणवर्णन वाली अतिविशिष्ट स्तुति के बहाने से लिखी गई एवं मंदिर में लगाई गई। पंक्ति १९ में इसके लेखक का नाम है। वह गुरुदेव भक्त, वेदों के गायनरस में निपुण, ज्योतिष व शिक्षाशास्त्र में निपुण अप्यायी नामक ब्राह्मण था । पंक्ति २१ के अनुसार इस प्रशस्ति के माध्यम से पुत्रों व पौत्रों को शास्त्रों में शिक्षित किया जाये। यदि कोई इसमें दोषों को दिखावें तो लेखक को संतोष होगा। इससे पूर्व इसके चिरस्थाई रहने की कामना व्यक्त की गई है। अंतिम पंक्ति २२ में पुनः 'सिद्धि' लिखा हुआ है जिसका भाव यह है कि यहां मूल अभिलेख का अन्त हो गया है। इसके उपरान्त अभिलेख के उत्कीर्णकर्ता का नाम है जो सूत्रधार सित का पौत्र, सन्ततदेव का पुत्र वसल' था। वह अपने को नरेश (उदयादित्य) के दासों का दास निरुपित करता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से इस अभिलेख का अत्याधिक महत्व है। उपलब्ध पाठ से यह आशय निकलता है कि उदयादित्य और उसके पूर्ववर्ती शासक परमार राजवंश की एक अवर-शाखा के थे। प्रतीत होता है धाराधीश भोजदेव के मांडलिक के रुप में उदयादित्य मालवा के पूर्वी भाग में भिलसा के अन्तर्गत उदयपुर क्षेत्र में शासन करता था। जब चौलुक्यों और कर्णाटों की संयुक्त सेनाओं ने मालव साम्राज्य पर आक्रमण कर भोजदेव के उत्तराधिकारी जयसिंह प्रथम को प्रायः १०७० ई. में युद्ध में मार डाला, तब उदयादित्य परमार साम्राज्य का रक्षक प्रमाणित हुआ और आक्रमणकारियों के चंगुल से निकाल कर उसे पुनः स्वतंत्र कर दिया। धारा नगरी के परमार राजवंश
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परमार अभिलेख
में कोई अन्य राजकुमार इतना सशक्त नहीं था जो उस संकटपूर्ण स्थिति में मालवराज्य की बागडोर संभाल सकता । अत: राज्यशक्ति उदयादित्य को प्राप्त हो गई, जिसका अधिकार सर्वोपरि था।
अब प्रमुख प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उदयादित्य का भोजदेव से क्या संबंध था। इस समस्या पर प्रकाश डालने वाले निम्नलिखित अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध होते हैं१) उदयादित्य के शेरगढ़ अभिलेख (क्रमांक २९) की पंक्ति ५-६ में उल्लेख है--
“परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव पादानुध्यात परमभट्टारक महाराजा
धिराज परमेश्वर श्री उदयादित्यदेव : कुशली।" २) उदयपुर प्रशस्ति (क्रमांक २२) के श्लोक २१ में उल्लेख है :--
तत्रादित्य प्रतापे गतवति सदनं स्वरिंगणां भर्गभक्ते व्याप्ता धारेव धात्री रिपुतिमिर भरैम्मौ ललोकस्तदाभूत । विश्वस्तांगो निहत्योद्भटरिपुति[मिरभ]रं खड्गदंडासुजाल
रन्यो भास्वानिवोधन्धुति मुदित जनात्मोदयादित्यदेवः ।।२१।। "शिवभक्त (भोजदेव), जिसका प्रताप सूर्य के समान था, के स्वर्ग चले जाने पर, धारा नगरी के समान जब सारी पृथ्वी शत्ररुपी अंधकार से व्याप्त हो गई तथा उसके पारम्परिक योद्धाजन दुर्बल हो गये, तब सूर्य के समान उदयादित्यदेव, उन्नत शत्रुरुपी अंधकार को खड्गदण्ड की किरणों से नष्ट कर समस्त जनों के मनों को आनन्दित
करता हुआ, उदित हुआ।" ३) नागपुर प्रशस्ति (क्रमांक ३६) के श्लोक ३२ में लिखा है
तस्मिन्वासव व (ब)न्धुतामुपगते राज्ये च कुल्याकुले भग्नस्वामिनि तस्य व (ब)न्धुरुदयदित्योभवद्भूपतिः । येनोद्धृत्य महार्णवोपममिलत्कर्णाट कर्ण प्रभृ
त्यु-पालकर्थितां भुवमिमां श्रीमद्वराहापितं ॥३२।। "उस (भोजदेव) के इन्द्र की बंधुता को प्राप्त (दिवंगत) होने पर और राज्यस्वामी के कौटुम्बिकों के संघर्षरुपी जल में मग्न होने पर, उसका बंधु उदयादित्य नरेश हुआ, जिसने महासमुद्र के समान संयुक्त रूप से कर्णाट कर्ण आदि नृपतियों के द्वारा पीड़ित इस पृथ्वी का उद्धार कर के वराह अवतार का अनुकरण किया।" जगद्देव के जैनड अभिलेख (क्रमांक ४३) के श्लोक ६ में उल्लेख है--
यस्योदयादित्य नृपः पितासी, देवः पितृव्यः स च भोजराजः ।
विरेजतुयौं वसुधाधिपत्य, प्राप्त प्रतिष्ठाविव पुष्पवन्तौ ।।६।। "जिसका पिता उदयादित्य था और देव भोजराज चाचा था, विकसित होने वाले जो दोनों शीघ्र ही अपने तेज से वसुधा का आधिपत्य प्राप्त कर प्रतिष्ठित जैसे हुए।" जगदेव के डोंगरगांव अभिलेख (कं.४२) के श्लोक ५ में निम्नलिखित उल्लेख है
ततो स्कन्दैर्मग्नां माल मेदिनीम]
उद्धरन्नुदयादित्यस्तस्य भ्राता व्यवर्द्धत ।।५।।। "उस (भोज देव) के पश्चात् उसका भाई उदयादित्य वृद्धि को प्राप्त हुआ, जिसने मालव भूमि का उद्धार किया, जो तीन शत्रुओं के आक्रमण से (धूली में) मग्न हो गई थी।"
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उदयपुर अभिलेख
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तीसरे साक्ष्य में
उपरोक्त साक्ष्यों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि क्रमांक १ व २ में दोनों नरेशों के संबंध के बारे में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है । क्रं. १ में उदयादित्य ने स्वयं को भोजदेव का पादानुद्यात घोषित करके ही संतोष कर लिया, परन्तु वास्तविक संबंध को उजागर नहीं किया, जबकि क्रमांक २ में आपसी संबंध के प्रश्न को छुआ तक नहीं। यहां यह तथ्य भी विचारणीय है कि उक्त दोनों अभिलेख स्वयं उदयादित्य के शासनकाल में निस्सृत किये गये थे, और नरेश की अनुमति के बिना उनकी घोषणा नहीं हो सकती थी । उदयादित्य को भोजदेव का 'बंधु' निरूपित किया गया है । ( कोष के अनुसार बन्धु का अर्थ इस प्रकार है -- " नातेदार, भाई- विरादरी, सम्बन्धी, पारिवारिक नातेदार । धर्मशास्त्र में तीन प्रकार के बन्धु बतलाये गये हैं-- आत्मबन्धु, पितृबन्धु और मातृबन्धु । कोई भी किसी प्रकार का सम्बन्धी जैसे प्रवासबन्धु, धर्मबन्धु आदि । मित्र, पति, पिता, माता, भाई) । यहां यह विचारणीय है यह अभिलेख उदयादित्य के पुत्र नरवर्मन का है जो उसकी मृत्यु के उपरान्त १०९४ ई. में मालव राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ था और जिसने ११३३ ई० तक शासन किया था । इसके अतिरिक्त इस प्रशस्ति में परमार राजवंश श्री नरवर्मन तक संपूर्ण वंशावली ठीक से लिखी मिलती है। केवल यही नहीं, अपितु उसमें सभी नरेशों के एक दूसरे से संबद्ध पूर्णरुप से निरूपित हैं । इसके साथ ही उसके श्लोक ५६ में साफ लिखा मिलता है कि वह प्रशस्ति नरवर्मन के स्वयं के द्वारा रची गई थी । अतः यह मानने में कठिनाई है कि नरवर्मन को अपने पिता व भोजदेव के संबंध के बारे में ठीक से जानकारी नहीं थी अथवा उसने केवल अनुमानत: उनको 'बन्धु' निरूपित कर दिया। इसके विपरीत उपरोक्त से यह सिद्ध होता है कि नरवर्मन को अपने पिता व भोजदेव के संबंध के बारे में पूर्ण जानकारी थी ।
साक्ष्य क्रमांक ४ में जगद्देव ने उदयादित्य को अपना पिता व भोजदेव को चाचा (पितृव्यः ) लिखा है, जबकि साक्ष्य क्रमांक ५ में जगद्देव ने अपने पिता उदयादित्य को भोजदेव का 'भ्राता' लिखा है । जगदेव अपने पिता उदयादित्य का सब से छोटा व तीसरा पुत्र था ( अभिलेख ४२-४३) । उसके अन्य दो बड़े भाई लक्ष्मदेव व नरवर्मन थे । परन्तु लक्ष्मदेव अपने पिता के राज्यकाल में ही दिवंगत हो गया था ( अभिलेख क्र. २७) । अतः नरवर्मन अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त राज्याfaara बन गया ( अभिलेख ३३) । संभवत: इसके बाद ही जगद्देव कुन्तल नरेश के पास चला गया, जो चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ट (१०७६ -- ११२६ ई.) था, जहां इसका हार्दिक स्वागत हुआ (अभिलेख ४३ ) । लगता है कुन्तल नरेश ने जगद्देव को गोदावरी के उत्तर में स्थित प्रदेश अर्थात् बरार व उसके आस पास का प्रदेश शासन करने हेतु सौंप दिया। इसी कारण इसी भूभाग के अन्तर्गत जैनड व डोंगरगांव में जगद्देव के उपरोक्त अभिलेख प्राप्त हुए हैं । जैन अभिलेख ( साक्ष्य ४ ) तो तिथिरहित है, परन्तु डोंगरगांव अभिलेख ( साक्ष्य १११२ ई. में निस्सृत किया गया था । अतः इस बात की बहुत संभावना है कि मालव राज्य से दूर, दक्षिण में इतना समय व्यतीत होने के उपरान्त भोजदेव व उदयादित्य के निजि संबंध के बारे में लोगों को निश्चित रूप से कुछ ज्ञात न रहा हो। इसलिये जगदेव ने अपने अभिलेख में उनको 'भ्राता' घोषित करना ही ठीक समझा हो। इससे जगद्देव स्वयं को भी महान भोज से संबद्ध कर सकता था, क्योंकि महान नरेश से संबंध स्थापित होना तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति में निश्चित ही सम्मान सूचक था। इस प्रकार उपरोक्त समस्त साक्ष्यों पर एक साथ विचार करने पर सारी परिस्थिति समझ में आ सकती है ।
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परमार अभिलेख
उदयादित्य के भोजदेव का 'भ्राता' होने के संबंध में यह विचारणीय है कि यदि वे दोनों वास्तव में 'सहोदर' थे, तो उदयादित्य का जन्म उनके पिता सिंधुराज को मृत्यु से पूर्व अथवा मृत्यु के कुछ ही मास के भीतर हो जाना चाहिये । वर्तमान में हमें सिंधुराज की मृत्यु की तिथि निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है । उसका पुत्र भोजदेव १०११ ईस्वी में मालव राजसिंहासन पर आरूढ़ था ( अभिलेख = ) | परन्तु उसका राज्यारोहण कब हुआ था सो भी अज्ञात है । इस समय केवल यही कहा जा सकता है कि उपरोक्त संभावना के आधार पर उदयादित्य का जन्म इससे पूर्व हो चुका था । यदि यह सत्य है तो उदयादित्य को भोजदेव की १०५५ ईस्वी में मृत्यु हो जाने पर सामान्य रूप से राज्यारूढ़ हो जाना चाहिये था और १०७० ईस्वी तक, जब वह वास्तव में नरेश बना, प्रतीक्षा करने का प्रश्नही उपस्थित नहीं होता । इसके अतिरिक्त उस समय उसकी आयु कितनी अधिक रही होगी सो भी विचारणीय है । फिर यह भी कैसे संभव है कि भोजदेव के सहोदर उदयादित्य का कभी भी किसी भोजकालीन अभिलेख, विजय अभियान, अथवा ग्रन्थ आदि में किसी संदर्भ में कोई उल्लेख ही नहीं प्राप्त हो ।
सर्वप्रथम प्रोफेसर कीलहार्न ने १९१४ ई. में मत प्रकट किया था कि उदयादित्य भोजदेव का बंधु था (एपि. इं., भाग २, पृष्ठ १८० व आगे ) । परन्तु बंधु का अर्थ दूर का संबंधी अथवा भाई दोनों ही हो सकता है । अतः उदयादित्य को भोजदेव का दूर का भाई मान लिया गया । बाद में गांगूली महोदय ने भी इसी मत का समर्थन किया और इसकी पुष्टि में आईने अकबरी में उल्लिखित, कुछ परिवर्तित रूप में, इस घटना की क्षीण स्मृति का उल्लेख किया है कि “मुंज ने ईश्वर को धन्यवाद किया, बड़े स्नेह से भोज का स्वागत किया, और इसको अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, और जब उसके पुत्र जयचन्द्र ( जयसिंह ) का शासन समाप्त हुआ तब उसका स्थान लेने के लिये पोंवार (परमार) जाति में कोई न था । पोंवार (परमार) जाति का जितपाल (उदयादित्य ), जो एक प्रमुख भूमिस्वामी ( सामन्त ) था, सिंहासन के लिये चुना गया और इस तरह भाग्य के उलटफेरों से अधीश्वरता उसके वंश में चली गई । " ( प. रा. ई. गां., पृष्ठ ९८ ) । उपरोक्त मत का विरोध एच. सी. रे ( डायनेस्टिक हिस्ट्री ऑफ नार्दर्न इंडिया, भाग २, पृष्ठ ८७६) और वी. वी. मिराशी (एपि. इं., भाग २६, पृष्ठ १८४ ) ने किया है। मिराशी का कथन है कि नागपुर अभिलेख ( साक्ष्य ३) के उल्लेख, कि उदयादित्य भोजदेव का बंधु था, से यह अर्थ नहीं निकलता कि प्रथमोक्त उत्तरोक्त का दूर का संबंधी था, क्योंकि बंधु का अर्थ भाई भी होता है । आगे जैनड अभिलेख ( साक्ष्य क्र. ४ ) में उल्लेख है कि जगद्देव का उदयादिता पिता व भोजदेव पितृव्य ( चाचा ) था । और डोंगरगांव अभिलेख ( साक्ष्य ५ ) में तो साफ लिखा मिलता है कि उदयादित्य भोजदेव का भ्राता था । अतः यह निश्चित ही है कि उदयादित्य भोजदेव का सगा भाई ( सहोदर ) था । ( स्ट. इं. मि. १९६१, भाग २, पृष्ठ ७३-७९)। अपने मत पर जोर देते हुए डी. सी. गांगूली पुनः लिखते हैं (इं. हि. क्वा., भाग १८, सितम्बर १९४२, पृष्ठ २६६-६८ ) कि बंधु का सामान्यतः अर्थ संबंधी होता है ( गोविन्द चतुर्थ का कैम्बे ताम्रपत्र अभिलेख, एपि. इं, भाग ७, पृष्ठ ३८, श्लोक २२, में बंधु का अर्थ संबंधी है ) । वैसे इसका अर्थ भाई भी होता है । भ्राता का अर्थ भाई और पितृव्य का अर्थ चाचा होता है । परन्तु भ्राता का अर्थ समीपी संबंधी व समीपी मित्र और पितृव्यः का अर्थ कोई बड़ा पुरुष संबंधी भी होता है ( मोनियर विलियमस संस्कृत कोष ) । ऐतिहासिक तथ्यों से
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उदयपुर अभिलेख
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हमें ज्ञात है कि पालवंशीय जयपाल देवपाल का चचेरा भाई था, परन्तु भागलपुर अभिलेख में जयपाल को देवपाल का भ्राता लिखा मिलता है (इंडियन एंटिक्वेरी, भाग १५, पृष्ठ ३०४, श्लोक ६)। अतः जैनड व डोंगरगांव अभिलेखों के आधार पर यह कहना गलत होगा कि उदयादित्य भोजदेव का सहोदर (सगा भाई)था। गांगली आगे लिखते हैं कि उदयपुर अभिलेख (साक्ष्य २) में परमार राजवंश के संस्थापक उपेन्द्र से लेकर भोजदेव तक सभी नरेशों के संबंधों का सावधानीपूर्वक उल्लेख किया गया है, परन्तु उदयादित्य के भोजदेव से संबंध के बारे में पूर्णत: मौन है । यह मौन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त नागपुर प्रशस्ति (साक्ष्य ३) में लिखा मिलता है कि उदयादित्य भोजदेव का बंधु था जबकि नरवर्मन लक्ष्मदेव का भ्राता था। इस प्रकार उस अभिलेख में बंधु व भ्राता में सावधानीपूर्वक अन्तर दिखाया गया है । अतः उदयादित्य के भोजदेव के संबंध के बारे में भावी साक्ष्य के प्राप्त होने तक प्रतीक्षा करना ही उपयुक्त है। परन्तु वर्तमान में उपरोक्त विवाद पर पूर्णतः विचार करने पर डी. सी. गांगूली के मत से सहमत होना ही उचित प्रतीत होता है।
(विशेषः- इन पंक्तियों के छपने के समय तक प्रस्तुत अभिलेख की मूल छाप प्राप्त हो गई है, जो साथ छापी जा रही है)।
-लेखक
मूलपाठ
१. सिधि: श्री गणेश ओं नमः ओं परब्रह्मणे नमः ।।
वक्रपञ्चत्रिनेत्रं ससितिलकक्रितं' मौलिगंगाप्रवाहां भस्मांगां नीलकण्ठं दशभुत भुजसहित
व्यालसोभासुभावं । अर्धांगेहैमवत्यां वरण २. धनू' पुरंमाभ, सिंहैर्वद्वाहनाभ्यां सुभमतिकरणं पार्वती सं११प्रणम्य ॥(१॥) श्रीमान्
पावार वस्यो'२नृपतिच विवुध मालवंराज्यं क्रित्वा विदात सूरवीर भवंतिषलमिदैत् पापिनां
भूषरहा। ३. तेभ्यः१४ पुत्र: प्रसिध' ५ सकलगुणजुतं१६ गन्दलोदेवमभि:१७ दातामोक्ता विवेकीरिपु
सकल ८जितं आत्मकीत्ति प्रसिधि: (॥२॥) पाता तस्यात्मजाता ९ अरिवलमथनं पुव२ ° राज्यं
च प्रापि पूर्व २१ वंसानुकीतिलमति । ४. तमहीं मालवेमध्यदेशं गत्वास्थानंप्रसिधः२२ भवति श्रुतमति कीर्तयो देवपोज्यं धर्म
क्रि२३त्वातपस्या २४ बहु सलिलमयं चोतुमं२' चाप्यकुर्जा (॥३।।) देवालय वहुकारी । नपिसवाल्यंव १. जे. ऐ. एस. बी., भाग ९, पृष्ठ ५४५ पर आधारित २. द्धि ३. पंचास्यत्रि ४. शशिकृततिलकं ५. हं ६. गं ७. भुत अनावश्यक है ८. शो ९. त्यामणि कनक १०. लसन्नूपुरांध्रयासुशोभं सिंहोक्षभ्यांसमेतंश्रु ११. शं १२. श्यो १३. रतिवुधो धार्मिकोमानवेशो राज्यं कृत्वा प्रदातारवपरवलयुतः शूरवीरो बभूव । १४. पुत्रस्तस्य १५. द्धि १६. युतो १७. भक्तो १८. सकलरिपुजयीरवीयकीया॑प्रसिद्धः १९. जन्माश्रु २०. नः पूर्व २१. समाप्यप्रान्वंशस्यप्रसिद्ध परनृपतिहतं २२. द्धोहिमरुचिसुयशादेवकार्यं च २३. कृ २४. स्मिंस्तडाग २५. शैवगेहंचकार । नानादि वालयं च व्ययमपिकृतवान् धान्यहेम्नोद्धिजेभ्यः मुंत्रयोग्यं नरेशं सनृपतिरुदयादित्यमात्म
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परमार अभिलेख
५. बहुविधिक्रितं सोवलजतां व्ययमपित्रथा जम्बुद्वीपस्य सुरालयवंहि भवद्वितीयांयप्तजजसि बहुनि विप्रगण मधान्यं वहुददत् योग्यं उदद्यादित्ययं नरेसक्रित्वा कीर्तिचिवंभू६. वपिसहमवदां एकादशशतकं वंसोगनदधिकं पौइस चविक्रमहसं २७ संवत १११६ नवशतएकाशीतिसकगत शालिवाहनं चन्निपषांस २८ शाके ९८१ मनावसुविधि धर्मका र्य्ययुक्तषिशक्तियुति-सास्रमार्गेण उदयादित्य नृपेस आत्महितार्थं च बहुविधि ऋतं कीर्ति । गतपंदवेदसतांदधिकं चत्वारिंस यदगते २ यस्सै ४४६ पूर्व्वनृपगतसंह्यतक
८. नंप्रभुत्यभवेमपितदाकालो कलियुग धर्म्महित्वासछेदेवालयअपुज्यतं भवेम्लानिसर्व्वन्रिपेषुलोपं । तेषां गोत्र प्रशस्तस्तपो भवतिदिप्तेनिवसंतिभ्रमित सर्व्वगणाजम्बु
९. द्वीप भगवती निवास क्षितिपति धर्मात पुण्य पालति योगस्धर्म्म प्रसिधंशराम श्री वाहुदे - प्रसादहत्वम अधिकारं समापयेत्सर्व्वा क्रित्वाप्तीमिह सपति करोति
भुदिगणगतं शिये । भुवनति
७.
०
१०. शास्त्रमार्गेणोना ३१ प्रसिध कीर्ति सिम्यतु औममगुर सुरायागस वेला विहसिस्वं शिवस्याकगुणजुता सतापत्त्रो धर्म्मरतावहुदाता कलित्रयस्य जातिसुभुज्यतिदाक्षतवतस्मै तल्वेश ११. चाजन्मप्रभूविसम मार्गे जुक्तान्यमप्रमिधवच शालवाहन दयाजुतं हर्ष सहैव कालं तस्यात्मजं सकल लक्षण सजुत चाजुक्ता गुणेपि परिपूजन पात्र दानादपपात्र सदकितनाहगदा १२. त्मास्ना सूर्य्यो स्वकीय मतिमाधरिपुभद्धयन् निधर्मार्थं वामषनुभोय विर
विमना क्रितंमनिशंभु मतिनो देव देव प्रयातोस्मिकदेव्व आदइच्छा प्राप्ति समीहित सिद्धं द्वयं देवतातिदी
१३. स्थित्वा स्फोत विक्रमधिपतावात्वशत पंच ३२ पंचाधिकषष्ठिनेत्र भवतो |१| पूर्ण रसात्मतां - हतयेह ।१। कार्य्यपतिशीति वह्नि भक्ततंचकीणिशंअतसवि सप्ताधिक चत्वाविंशचतुर्दशशत १४. तानषतो तादृश २० पंचसप्ताहाकशतंद्वाचष्टदुभिवेदास्हअयोचाचतुः शताधिकमेक शतं कलिमितानि उक्ता क्रमा ४१६० मानाजाक्षिताहस्ततताहरया
१५. हिदत्यायुगं संवत्सर ४३३९ वर्षगते यदा परिमितां धम्मं युगचतत आगष्ट नामाभचति परिवत्सरयुगशते क्रमश: ब्रह्मविंशतिकाव्दीय
वालवनामा ३४
करणे योगेच
१६. मधुमास सितपक्ष मन्मथ तिथि ३ ३ जुता दामोहिते ।। परिघेवमाहरा | २४| आनन्दनमाहवसो लग्ने गेवर्ग अवधि मादोरजत्यसहा १७. मीमदिमताशरीरलतेमच्चन्तयिगतेहिम रश्मि मारस्य तदामहत पुत्रां कृतसंस्कारो शशि पुत्रा हिमववास्यादेषप्तये च । २३ । मीनगते भ्रिगु तनय केलि तदाभारामुपुत्र
२७.
२८. शकादित्य गताब्दाः ३०. लेकलियुग धर्मं हित्वा
२६. द्वितियं कृत्वाकीत्त्यप्रसिद्धोयजनमपि तथा धर्मकार्य्यं तपस्वी जम्बुद्वीपस्य सारंहरनिलयमनुंकारयामास यत्नात् तदा विक्रमादित्यगतसंवत्सराः २९. उदयादित्य संगृहीत रवीयवंशवत्पराः कलिगताब्द ४१६० सर्व्वे देवालयमपूजयन् जम्बुद्वीपो भगवती निवास: ३१. तस्यात्मजः सकल लक्षण युतः शालिवाहनो देवालये पुजपात्रादि दत्त्वा कालवितये पिसमोहितार्थ सिद्धि देवतातिथि पूजा निरतीसाव विमना धर्मार्थं काम वेद कर्म्मा निशंकृतवान् ३२. पंचहरं शब्द का संबंध ठीक से लगता नहीं है । ३३. थौ ३४. म
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उदयपुर अभिलेख
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१८. तदोः काध्यक्षख्यात३५ तदाभवुकहा२६ ॥२७।। प्तिक्रिया वितभ्यः दयम्भः। भुविनिजु ७ ____ क्ततदानु३८जाजा छायः । द्वेपितवचहिः ।। लोकद्वये पिसौ • भता प्राप्तिः ।। सक्रिया ४१
प्रशस्ति गुरुदेवभक्तः । विप्रोवहुवेदगा। १९. नरसोक्ति त्यगो विप्रभूततोषी आप्यायी ज्योतिषशास्त्र एभ्यक शिक्षा४२ पृथसिक्त दैवेदवचा
गुण आवेदन हि शक्यतो हा आज्ञाता भावात्तु प्रतरति साधु मिप्रध्वजा २०. तहथः ।३०। अति प्राज्य स्तुति छद्मना' 3 देव देवय गस्यति। चन्द्रादित्य हेतु वदा' सात्यय
पाश ।३१। मिहिर विज्ञापकाहामं चन्द्रादित्ययु आत्म्भव प्रशस्ति लिषितं ६ तेनः नानसहं २१. ईश्वरः ।।३२।। याव्ना ७ पृथ्वीरविष्वाहायावन्मेरुर्महानदी। तावत् पुत्रस्य पौत्रस्य शास्त्र
सिक्षित कृता४८ ॥३३।। अस्तं भवत्या पारशी पुस्तक इह लिषितंमन। यदि तुष्ट:
पूर्वचममः दोषः ॥३४॥ २२. सिधिः५० । दासान ५१ दास प्रभीरे ५२ पदे सौज्ञस्कन्दाभूअका करावसे 3 छत्रधार सितास्य पुत्र सन्ततदेवं ५४ तस्य पुत्र ५५ वसलव ६ पशंमय* ७ ।
(संभावित हिन्दी भाव) १. सिद्धि हो । श्रीगणेश और परब्रह्म को नमस्कार।
पंचमुख वाले, तीन नेत्र वाले, जिनके मस्तक पर चन्द्र है, जिनकी जटा में गंगाप्रवाह है, शरीर पर भस्म लगी है, कण्ठ नीला है, दस भुजाओं से युक्त है, सर्प से सुशोभित है, जिसके अर्धांग में पार्वती का वास है। जिसके के चरणों में नूपुर शोभायमान है, सन्मति को प्रदान करने वाले, पार्वतीपति शिव को प्रणाम है ।।१।।
श्रीमान पावार (परमार) वंश नरेश सूरवीर मालव राज्य स्थापित कर के विद्वान नरेश हुआ जो पापियों को दण्डित करता था । उससे प्रसिद्ध पुत्र सकल गुणों से युक्त, गांदल (गोंडल) नामक देवभक्त, दाता, भोक्ता, विवेकी और समस्त शत्रुओं को जीतने वाला, अपनी कीर्ति से विख्यात हुआ ।।२।। __उसके पुत्र पाता ( ज्ञाता) ने शत्रुसैन्यों का मंथन कर ( अरिवलमथन ) राज्य प्राप्त किया व वंश के पूर्वजों के अनुसार कीर्ति प्राप्त की। भूमंडल पर मध्यदेश में मालव में जा कर प्रसिद्धि प्राप्त की, शास्त्रानुकूल गतिवाला, देवपूजक, धर्म तपस्या
करके, जलाशय से युक्त देवालयों का निर्माण किया ।।३॥ ५. बहुत व्यय करने वाला, जम्बूद्वीप में बहुत सुरालयों (मंदिरों) का निर्माण करने वाला,
ब्राह्मणों को सुवर्ण धान्य का अतिदान देने वाला, उदयादित्य को योग्य मान कर नरेश
बनाया व कीर्ति का संचय किया। ६. वर्ष सोलह अधिक ग्यारह सौ विक्रम संवत् १११६, नौ सो इक्यासी गत शालिवाहन
शक ९८१ में धर्म, अर्थ,
३५. स्त. ३६. व दुमां प्रशस्तिमकारयत् ४१. सक्रियः ४२. पण्डित: अरचयत समां प्रशस्तिं सोकरोत् शुभा ४६. खि ५१. नु ५२. पूजित पाद भूषाज्ञाकारि वंशे ५७. तेनैवांडत्कीणिता
३७. यु ३८. द ३९. जो (त?) ४०. शु ४३. मिमां ४४. वालयस्थितां ४५. स्थिति ४७. वत् ४६. ज्ञा कृते ४९. खि ५०. द्धि
५३. सु ५४. वः ५५. त्रः ५६. सुवल
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११२
७.
परमार अभिलेख
कार्य से युक्त, शक्तियुक्त, शास्त्र मार्ग से उदयादित्य नरेश ने आत्मकल्याण हेतु अनेक प्रकार से कीर्ति प्राप्त की । विगत ४४६ वर्षों से ले कर
८. कलियुग में धर्म का त्याग कर के लोग देवालयों की पूजा से विरत हो गये थे व नरेशों
में धर्म का लोप हो गया था। इनके गोत्र (कुल) विख्यात हों, तप वृद्धि हो, तेजयुक्त हो, उसने जम्बूद्वीप को
९. भगवती का निवासस्थल बना कर नरेशों में धर्माचरण के लिये, पुण्य के पालन के लिये, योगधर्म की प्रसिद्धि के लिये बाहुबल से विजय प्राप्त की । शत्रु नरेशों को जीतने के उपरांत पुनः
१०. उनका अधिकार सौंप कर सब कोई शास्त्रमार्ग से कीर्ति संचित करे व शिव का पूजक बने, धर्म में तत्पर होवे, धर्म में दाता होवे आदि .
११. इस प्रकार जन्म से लेकर सन्मार्ग में संलग्न शालवाहन ( ? ) के समान दयायुक्त, हर्ष से परिपूर्ण उसका पुत्र समस्त लक्षण युक्त, सभी गुणों से युक्त ऐसा जान कर पूजा पात्र, दानपात्र सहित
१२. सूर्योदय पर स्नान कर अपनी मति को धर्म अर्थ में लगा कर शिवजी की भक्ति से देव-देव (महादेव) की शरण में जाने से इच्छा प्राप्ति व इष्ट सिद्धि होती है ऐसा मान कर
१३. विक्रम काल में पंद्रह सौ बासठ कार्यपति ( नरेश), अग्निभक्त, चौदह सौ सैंतालीस १४. ४१६० कलि वर्ष व्यतीत
१५.
. युग संवत्सर ४३३९ वर्ष ( ? ) व्यतीत होने पर और परिवत्सर के ४०० युग ( ? ) व्यतीत होने पर, ब्रह्म (जन्म) के बीस वर्ष के
१६. चैत्र मास शुक्ल पक्ष तेरहवीं तिथि, बालव करण, परिंग योग, शुभ लग्न, शुभ वर्ग में १७. अहिमरश्मि (सूर्य) के उच्च राशिगत होने पर शुक्र मीन राशिगत होने पर बुधवार को..... दान आदि दे कर तब महान पुत्र के संस्कारों को सम्पन्न कर
१८. राजपुत्र को युवराज ( कर्माध्यक्ष ) पद पर नियुक्त कर दिया । वह सत्कर्म के विस्तार से पृथ्वी पर नियुक्त उस (पिता) की छाया में रहते हुए दोनों ही सत्कर्म में प्रवृत्त हुए, जिससे दोनों लोकों में सुख की प्राप्ति हो । उनके सत्कार्यों का यह प्रशस्ति रूप (अभिलेख ) गुरुदेव भक्त, वेदों के गायन
१९. रस में निपुण, गो-विप्र को संतुष्ट करने वाला, ज्योतिष शास्त्र एवं शिक्षाशास्त्र में निपुण, आप्यायी नामक ब्राह्मण ने गुण वर्णन वाली
२०. अति विशिष्ट स्तुति के बहाने से देवालय में स्थित चन्द्र व सूर्य के रहते तक के लिये यह प्रशस्ति लिखी है ।
२१. जब तक यह पृथ्वी, सूर्य, स्वाहा ( अग्नि- पत्नि), मेरू महानदी स्थित हैं, तब तक पुत्रोंपौत्रों को इसके ( माध्यम से ) शास्त्रों में शिक्षित किया ( जावे ) । यह पुस्तक ( प्रशस्ति ) मेरे द्वारा लिखी गई । यदि मेरे दोषों को ( दिखावें तो मैं ) संतुष्ट हूंगा । २२. सिद्धि हो । ( यह प्रशस्ति ) सूत्रधार सित के पौत्र सन्ततदेव के पुत्र वसल की गई ) जो महाराज के दासों का दास है ।
द्वारा उत्कीर्ण
.
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उदयपुर प्रशस्ति
११३ (२२) उदयपुर का उदयादित्यदेव कालीन नीलकंठेश्वर मंदिर प्रस्तरखण्ड अभिलेख
अथवा उदयपुर प्रशस्ति
(तिथि रहित) _प्रस्तुत अभिलेख एक खण्डित प्रस्तर-शिला पर उत्कीर्ण है जो मध्यप्रदेश के मिलसा (विदिशा) जिले के बासौदा परगने के अन्तर्गत उदयपुर नामक कस्बे में नीलकंठेश्वर (उदयेश्वर) के विशाल मंदिर के प्रांगण में पड़े अवशेषों में प्राप्त हुआ था। इसका प्रथम उल्लेख एफ. ई. हाल द्वारा ज. ए. सो. बं., भाग ३०, पृष्ठ १४४, पादटिप्पणी ४ में किया गया है। फिर ए. कनिंघम द्वारा आ. स. इं. रिपोर्ट स, भाग ७, पृष्ठ ८२-८३ एवं भाग १०, वर्ष १८७४-७५ एवं १८७६-७७, पृष्ठ ६५ पर उल्लेख किया गया। जे. बूलर ने एपि. इं,. भाग १, १८८८, पृष्ठ २२२-२३८ पर इसका सम्पादन किया। वर्तमान में यह पुरातत्व संग्रहालय, ग्वालियर में सुरक्षित है।
अभिलेख का आकार ७२४ ६९.५ सें. मी. है। इसमें अक्षर अच्छे गहरे व सुन्दर ढंग से खुदे हैं। सारा अभिलेख ठीक से सुरक्षित है। परन्तु इसकी अंतिम पंक्ति क्र. २४, जिसमें श्लोक क्र. २३ प्रारम्भ हो गया है, अधुरी है। इस प्रकार प्रस्तुत प्रस्तरखण्ड भग्नावस्था में हैं। वास्तव में यह सम्पूर्ण अभिलेख का केवल पूर्वार्द्ध ही है। इसके अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी लिपि है। इसकी भाषा संस्कृत है। पंक्ति क्र. १ में शुरू के तीन शब्दों को छोड़ कर सारा अभिलेख पद्यमय है। इसमें २२ श्लोक सुरक्षित हैं।
___ व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग सामान्य रूप से कर दिया गया है । र के बाद का व्यंजन दोहरा कर दिया गया है । म् के स्थान पर अनुस्वार लगा दिया गया है। कुछ शब्द ही गलत हैं जो पाठ में ठीक कर दिए गए हैं। ये स्थानीय व काल के प्रभावों को प्रदर्शित करते हैं। कुछ अशुद्धियां उत्कीर्णकर्ता की असवाधानी से बन गई हैं । अभिलेख में तिथि का अभाव है जो इसके महत्व को देखते हुए खटकता है । इसका प्रमुख ध्येय उदयादित्य के अधीन किसी एक सामन्त द्वारा मंदिर-निर्माण का उल्लेख करना है।
श्लोक ५-६ में परमार वंश की उत्पत्ति का विवरण है। इसके अनुसार आबू पर्वत पर विश्वामित्र द्वारा वसिष्ठ की धेनू के अपहरण करने पर, वसिष्ठ ने यज्ञाग्नि प्रज्वलित की। इसमें से एक वीर उत्पन्न हुआ। वह अकेले ही शत्रुसैन्यों को मार कर धेनू को वापिस ले आया। तब मुनि ने उसको आशीर्वाद दिया “तुम परमार (शत्रुसंहारक) राजा होगे"। इस प्रकार उस वीर के नाम पर उसके वंश का नाम परमार पड़ गया। वसिष्ठ द्वारा आबू पर्वत पर तपस्या करने का उल्लेख महाभारत (वन पर्व, अध्याय ८२) और पद्मपुराण (अध्याय २) में प्राप्त होते हैं। पूर्ववर्णित अभिलेखों में कालवन अभिलेख (क्रमांक १८) में सर्व प्रथम परमार वंश के नाम का उल्लेख मिलता है। परन्तु उसमें उत्पत्ति का विवरण नहीं है, सामान्य गुणगान ही है। पाणाहेडा अभिलेख (क्रमांक २०) में ऊपर जैसा विवरण है। परन्तु वह अभिलेख परमार राजवंशीय न होकर, परमारों की वागड शाखा के सामन्त द्वारा निस्सृत किया गया था। इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख में ही सर्वप्रथम परमार राजवंश के लिए पौराणिक व्युत्पत्ति प्रदान की गई है। समकालीन साहित्यिक साक्ष्य के रूप में
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११४
परमार अभिलेख
परिमल पद्मगुप्त रचित नवसाहसांकचरित् विशेष रूप से उल्लेखनीय है (सर्ग ११, श्लोक ६४७६)। इसमें परमारों की आबू पर्वत पर अग्निकुण्ड में से उत्पत्ति का विषद् विवरण है। इसी प्रकार के विवरण उत्तरकालीन नागपुर प्रशस्ति (अभिलेख ३६) एवं परमारों की आबू शाखा के अनेक अभिलेखों में प्राप्त होते हैं। यह भी विचारणीय है कि राष्ट्रकूटों, यादवों, होयसलों, कल्चुरियों, प्रतिहारों आदि ने भी अपने लिए इसी प्रकार की उच्च एवं पौराणिक उत्पत्तियों के उल्लेख किए हैं। नरेश वाक्पति मुंज के राजकवि हलायुध ने पिंगलसूत्रवृत्ति में अपने आश्रयदाता नरेश के लिए 'ब्रह्मक्षत्र' शब्द का प्रयोग किया है।
__ ब्रह्मक्षत्रकुलीन: समस्त सामन्त चक्रनुत चरणः ।
सकलसूक्ततैकपूञ्जः श्रीमान मजश्चिरं जयति ।। (पिंगलाचार्य कृत छन्दशास्त्र, अध्याय ४, पृष्ठ ४९, ४/१९, उद्धृत, गौरीशंकर ओझा, राजपुताने का इतिहास, भाग १, पृष्ठ ७५, पादटिप्पणी २)।
आगे परमार राजवंशीय नरेशों की प्रारम्भ से लेकर उदयादित्य तक तालिका एवं उनके कार्यों का विवरण है। पूर्ववणित किसी भी अभिलेख में इस प्रकार की तालिका प्राप्त नहीं होती। इसी कारण प्रस्तुत अभिलेख का अत्याधिक महत्व है।
श्लोक क्र.७ में परमार वंश के प्रथम नरेश उपेन्द्रराज का उल्लेख है जिसने अपने पराक्रम से उच्च राजत्व को प्राप्त किया। वह अपने द्वारा किए गए यज्ञों के कारण अति विख्यात हुआ। नवसाहसांकचरित् में इस नरेश की प्रशंसा में लिखा मिलता है कि उसने अपनी प्रजा पर करों के बोझ को कम किया और विद्वानों को आश्रय प्रदान किया (सर्ग ११, श्लोक क्र. ७६-७८) । उसकी राजसभा में सीता नामक एक कवियित्री थी जिसने उसको अपने गीत का विषय बनाया था । मेरुतुंग कृत प्रबंधचिन्तामणि से भी इसकी पुष्टि होती है (बम्बई संस्करण, पृष्ठ १०८ व आगे)। चारणों के अनुसार उसकी प्रिय साम्राज्ञी लक्ष्मीदेवी थी (लुअर्ड व लेले--दी परमार्स ऑफ धार एण्ड मालवा--धार स्टेट गजेटीयर, १९०९, अपेंडिक्स सी, पृष्ठ १२१ व आगे) ।
श्लोक क्र. ८ में उसके पुत्र वैरिसिंह प्रथम का उल्लेख है। यहां उसके पराक्रम व पृथ्वी पर प्रशस्ति युक्त जयस्तम्भ स्थापित करने का विवरण है। श्लोक क्र. ९ में उसके पुत्र सीयकं प्रथम की विजयों का सामान्य वर्णन है। इन दोनों नरेशों के बारे में अन्यत्र कहीं पर भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता। नवसाहसांकचरित् में उल्लेख है कि उपेन्द्र व वाक्पति प्रथम के बीच अन्य नरेश हुए (सर्ग ११, श्लोक क्र. ८०)। इसलिए यह कथन प्रस्तुत अभिलेख के आधार पर ठीक माना जा सकता है।
श्लोक क्र. १० में उसके पुत्र वाक्पति प्रथम का उल्लेख है जिसको अवन्ति की युवतियों के नयन कमलों के लिए सूर्य समान कहा गया है। अत: मालव क्षेत्र पूर्णरूप से उसके अधीन हो गया था। वास्तव में वह परमारवंश का प्रथम महत्वपूर्ण शासक था। नवसाहसांकचरित् में उपेन्द्र के बाद इसी का नाम है। हरसोल अभिलेखों (क्र. १-२) में राजवंशावली वप्पंपराज से प्रारम्भ होती है, जबकि वाक्पति द्वितीय मुंज के अभिलेखों (क्र. ४-७) में कृष्णराजदेव से शुरू होती है। अतः कृष्णराजदेव व वप्पैपराज वास्तव में एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं। वप्पैपराज तो वाक्पतिराज का ही प्राकृत रूप है। अतः कृष्णराजदेव उसका मूल नाम रहा होगा व वाक्पतिराज उसकी विद्वता के अनुरूप रहा होगा। उपर्युक्त सभी अभिलेखों में इस नरेश के लिए पूर्ण राजकीय उपाधियों 'परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' का प्रयोग किया गया है। अतः उसने पर्याप्त शक्ति अजित
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कर स्वयं को इन उपाधियों के योग्य बना लिया था। इसकी पुष्टि प्रस्तुत अभिलेख से भी होती है। इसी श्लोक में आगे लिखा हुआ है कि वह अपने हाथ की तलवार की चमक से स्वयं प्रकाशमान था, वह इन्द्र के समान था, उसके अश्व गंगा व समुद्र के जलों का पान करते थे'। संभवत: उसने महेन्द्रपाल प्रथम प्रतिहार के सामन्त के रूप में उसके मगध व वंग विजयों में भाग लिया हो एवं बंगाल की खाड़ी तक गया हो। चारणों के अनुसार उसने कामरूप में विजय प्राप्त की थी। उसकी प्रिय रानी का नाम कमलादेवी था (लुअर्ड व लेले-उपरोक्त)। नवसाहसांकचरित् में इस नरेश का केवल अलंकारिक विवरण ही प्राप्त होता है (सर्ग ११, श्लोक ८०-८२) ।
श्लोक क्र. ११ में उसके पुत्र वैरिसिंह द्वितीय का उल्लेख है जो वज्रटस्वामि नाम से भी प्रसिद्ध था। उसने अपनी खङ्ग से शत्रुसमूह का नाश किया जिससे धारा नगरी ख्यातियुक्त हो गई। वैरिसिंह द्वितीय का उल्लेख हरसोल अभिलेखों (क्र. १-२) और वाक्पति द्वितीय के सभी अभिलेखों (क्र. ४-७) में प्राप्त होता है, जहां सभी में उसको उसके पिता के समान पूर्ण राजकीय उपाधियों से विभूषित किया गया है । हमें अन्य विवरणों से ज्ञात होता है कि वह प्रतिहार वंशीय नरेश महीपाल व महेन्द्रपाल द्वितीय का समकालीन था। उसके समय में राजनीतिक क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए जिससे लाभ उठाकर उसने अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि कर ली। बाद में महीपाल प्रतिहार ने मालवा पर अधिकार कर लिया। यह उस के पुत्र महेन्द्रपाल द्वितीय के ९४६ ईस्वी के प्रतापगढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है (एपि.ई., भाग १४, पृष्ठ १७६-१८८)। इसके अनुसार प्रतिहार नरेश के अधीन श्री माधव उज्जैन का राज्यपाल था व सेनापति श्रीशर्मन् मण्डपिका (मांडव) में शासन संचालन कर रहा था। वैरिसिंह द्वितीय का शासनकाल प्रायः ९१९-९४५ ईस्वी के मध्य निश्चित किया जा सकता है।
श्लोक क्र. १२ के अनुसार उसका पुत्र श्री हर्षदेव शासनाधिकारी हुआ। इस नरेश का अन्य नाम सीयकदेव द्वितीय था जो इसके स्वयं के अभिलेखों (क्र. १-३), इसके पुत्र वाक्पतिराजदेव द्वितीय व पौत्र भोजदेव के अभिलेखों में लिखा मिलता है। मेरुतुंगकृत प्रबंधचिन्तामणि में इसका नाम सिंहदत्तभट्ट लिखा है (पृष्ठ २१) । इस नरेश ने पूर्ण राजकीय उपाधि 'परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' के अतिरिक्त महाराजाधिराजपति और महामाण्डलिक चूडामणि की उपाधियां भी धारण की थी (अभिलेख क्र. १-२) । अतः कहा जा सकता है कि उस समय तक उसने अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि कर ली थी। वास्तव में अभी तक के परमार राजवंशीय नरेशों में वह सर्वप्रथम महत्वपूर्ण नरेश था व उसको वंश की राजनीतिक प्रभुता का संस्थापक कहा जा सकता है । इसी के समय में भारत के राजनीतिक क्षितिज में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए । प्रतिहार राजवंश पतन की
ओर अग्रसर था। चन्देल, चाहमान, चेदि, गुहिल आदि वंशों का उत्थान हो रहा था। हमें सीयक के अनेक युद्धों के विवरण प्राप्त होते हैं। परन्तु उसकी सर्वविख्यात विजय राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिगदेव पर थी जो नर्मदा नदी के किनारे स्थित खलघाट पर युद्ध में प्राप्त की गई थी। ९७२ ईस्वी में उसने राष्ट्रकूट राजधानी मान्यखेट को लूटा (बूलर द्वारा सम्पादित पाइयलच्छी, भूमिका पृष्ठ ६, श्लोक क्र. २७६-२७८) । नवसाहसांकचरित् के अनुसार सीयक द्वितीय की साम्राज्ञी का नाम वडजा था (सर्ग ११, श्लोक ८६)। इनके दो पुत्र थे--वाक्पति द्वितीय मुंज और सिंधुराज। सीयक द्वितीय का शासन काल प्रायः ९४५ ई. से ९७३ ई. तक माना जाता है।
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परमार अभिलेख
अगले दो श्लोकों क्र. १३-१५ में उसके पुत्र वाक्पतिराजदेव द्वितीय की कीर्ति का उल्लेख है । उसके अन्य नाम अमोघवर्षदेव ( अभिलेख क्र. ४-७ ), मुंज व उत्पल थे। उसके वंश के उत्कीर्ण अभिलेखों में उसका नाम वाक्पतिराजदेव है, परन्तु नागपुर अभिलेख ( क्र. ३६) में मुंज लिखा हुआ है । उत्तरकालीन परमार राजवंशीय नरेश अर्जुनवर्मन् ने अमरुशतक पर रसिक संजीवनी नामक टीका में लिखा है कि वाक्पतिराज अपरनाम मुंज उसका पूर्वज था ( " अस्मत्पूर्वजनस्य वाक्पतिराज अपर नाम्नो मुंजदेवस्य"-- ' -- अमरुशतक पृष्ठ २३) । काश्मीरी कवि क्षेमेन्द्र ने जिस एक श्लोक के रचयिता का नाम उत्पलराज लिखा है, वल्लभदेव ने उसी श्लोक के रचयिता का नाम वाक्पतिराज लिखा है ( सुभाषितावलि, श्लोक क्र. ३४१३ ) | नवसाहसांकचरित् में एक स्थान पर वाक्पति को सिंधुराज का ज्येष्ठ भ्राता लिखा है जो उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन पर बैठा था ( सर्ग १, श्लोक क्र. ६ - ७) । वाक्पतिराजदेव ने राजकीय उपाधि "परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर" के अतिरिक्त 'पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ नरेन्द्रदेव' भी धारण की थी ( अभिलेख क्र. ४-७ ) । अतः वह पूर्ण रूप से प्रभुसत्ता संपन्न नरेश था ।
वाकपतिराजदेव की विजयों के बारे में वर्तमान श्लोकों में जो उल्लेख है वह केवल सामान्यरूप ही है । तथ्यों से ज्ञात होता है कि वह सुदूर दक्षिण में केरल व चोल राज्यों तक गया ही नहीं था। फिर भी यह संभव है कि वहां के नरेशों ने वाक्पतिराजदेव से अपने शत्रुओं के विरुद्ध सहायता की मांग की हो । कर्णाट व लाट के विरुद्ध युद्धों के बारे में अवश्य ही कुछ तथ्य उपलब्ध हैं । तुंग कृत प्रबंधचिन्तामणी से ज्ञात होता है कि वाक्पति ने कर्णाट नरेश तैलप द्वितीय को सोलह बार युद्ध में हराया, यद्यपि अगली बार वह स्वयं बन्दी बना कर मार डाला गया (बम्बई संस्करण, पृष्ठ ५८ ) । प्रतीत होता है कि इससे पूर्व उसने लाट प्रदेश पर आक्रमण किया था जो मही और ताप्ती नदियों के मध्य स्थित था । तैलप द्वितीय का सेनापति चौलुक्य वंशीय बारप्पा इस समय लाट का शासक था ( प्रबंध चिन्तामणी, पृष्ठ १६ ) । वाक्पतिराजदेव को इस युद्ध में निर्णायक सफलता प्राप्त हुई थी । इससे कुछ पूर्व उसने कल्चुरि नरेश युवराज द्वितीय पर आक्रमण कर असाधारण विजय प्राप्त की थी। उसकी राजधानी त्रिपुरी थी, और उसकी बहिन बोंठादेवी चालुक्य तैलप द्वितीय की माता थी । इस प्रकार वाक्पतिराजदेव द्वितीय के कुछ प्रमुख युद्धों का उल्लेख सही है ।
सामरिक सफलताओं के अतिरिक्त वाक्पतिराजदेव की विद्वत्ता व दानशीलता आदि गुणों का बखान भी उपरोक्त श्लोकों में किया गया है । वह भी सत्यता पर आधारित है। प्रबंधचिन्तामणी, भोजप्रबन्ध व अन्य प्रबन्धों में अनेक श्लोक वाक्पति मुंज द्वारा रचे माने जाते हैं । नवसाहसांकचरित् ( सर्ग ११, पृष्ठ ९३ ) में लिखा है -- “ गते मुंजे यशःपुंजे निरालम्बा सरस्वती" अर्थात् यश की राशि मुंज के स्वर्ग सिधारने पर सरस्वती अनाथ हो गई । उसी में एक अन्य स्थान (नवसाहसांकचरित् सर्ग १, पृष्ठ २ ) पर लिखा है कि "हम वाक्पतिराजदेव की वन्दना करते हैं जो सरस्वती रूपी कल्पलता का अकेला मूल है, जिसकी कृपा से हम अन्य महान कवियों द्वारा प्रयुक्त पथ पर चलते हैं ।"
सरस्वतीकल्पलते ककन्दं वन्दामहे वाक्पतिराजदेवम् ।
यस्य प्रसादाद्वयमप्यनन्य कवीन्द्रचीर्णे पथि सञ्चरामः ||७||
उसकी राजसभा में अनेक प्रख्यात कवियों व विद्वानों की उपस्थिति का भी उल्लेख मिलता है । उसके धरमपुरी अभिलेख (क्र. ४) में अहिछन से देशान्तरगमन करके आए दार्शनिक
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वसन्ताचार्य को तडार (तड़ाग क्षेत्र) पिप्परिका प्रदान करने का उल्लेख है। इसी प्रकार गाऊनरी अभिलेख (क्र. ६) में भी देश के विभन्न प्रदेशों से देशान्तरगमन करके आए २६ ब्राह्मणों को दान देने का उल्लेख है। इनके कुछ अन्य लेखक व उनकी कृतियों का विवरण इस प्रकार है--नवसाहसांकचरित् का रचयिता पद्मगुप्त; नाटक कला पर दशरूपक का लेखक धनञ्जय ; उसका भाई धनिक जिसने दशरूपक पर दशरुपावलोक नामक टीका एवं काव्यनिर्णय नामक ग्रन्थ लिखे; पाइयलच्छीनाममाला व तिलकमंजरी के रचयिता धनपाल व उसका अनुज शोभन; और दक्खिन से देशान्तरगमन करके आया भट्टहलायुध जिसने पिंगलछन्दशास्त्र पर मृतसंजीवनी नामक टीका लिखी। इनके अतिरिक्त भी अनेक विद्वान रहे होंगे जिनके नाम आज हमें ज्ञात नहीं हैं। इस प्रकार यह निर्विवाद है कि प्रस्तुत अभिलेख में वाक्पतिराजदेव के लिए प्रशंसात्मक शब्दों का प्रयोग ठीक ही किया गया है। वाक्पतिराजदेव द्वितीय के शासनकाल की तिथि ठीक से निश्चित करना सरल नहीं है क्योंकि संबंधित साक्ष्यों का अभाव है। फिर भी संभावित तिथि ९७४ से ९९७ ईस्वी तक निश्चित की जा सकती है।
श्लोक क्र. १६ में उसके छोटे भाई श्री सिंधुराज का उल्लेख है। नवसाहसांकचरित् (सर्ग ११, श्लोक ९२) एवं विभिन्न प्रबन्धों से इस तथ्य की पष्टि होती है कि वाक्पतिराजदेव द्वितीय के पश्चात् उसका अनुज सिंधुराज राज्य का अधिकारी हुआ। इसके अनेक विरुदों का उल्लेख मिलता है-नवसाहसांक, नवीनसाहसांक, कुमारनारायण, मालवैकमृगांक, अवन्तितिलक, अवन्तीश्वर, परमार महीभृत व मालवराज । परन्तु अभी तक हमें इस नरेश का कोई अभिलेख प्राप्त नहीं हुआ है। तथापि उत्तरकालीन परमार राजवंशीय अभिलेखों में दी गई वंशावली में इसका सर्वत्र नामोल्लेख है।
नवसाहसांकचरित् (सर्ग १०, श्लोक क्र. १४-२०) में सिंधुराज की विजयों में कोसल राजकुमार, वागड, लाट व मुरल के उल्लेख हैं। इनके अतिरिक्त एक नाग राजकुमारी से उसकी परिणय कथा तो इस ग्रन्थ का आधार ही है। परन्तु प्रस्तुत अभिलेख में उसके केवल हूणराज पर विजयश्री प्राप्त करने का ही उल्लेख है। वर्तमान में यह निश्चित करना सरल नहीं है कि यह हूणराज कौन व कहां पर था। नवसाहसांकचरित व परमार अभिलेखों में उल्लिखित हूण राजकुमारों पर सीयक द्वितीय, वाक्पति द्वितीय व सिंधुराज द्वारा विजय प्राप्त करने से यह अनुमान होता है कि हूण राज्य परमार साम्राज्य की सीमा से बहुत दूर नहीं रहा होगा। वाक्पतिराजदेव द्वितीय के गाऊनरी अभिलेख (क्र. ६) के आधार पर यह कहना संभव है कि यह परमार राज्य के दक्षिणपूर्व में स्थित था। उक्त अभिलेख में उल्लिखित वणिका ग्राम, जो आवरक भोग में था, हूण मंडल के अन्तर्गत था। गाऊनरी वर्तमान में इन्दौर क्षेत्र में स्थित है। अतएव व णिका ग्राम गाऊनरी से अधिक दूर नहीं होना चाहिए अथवा इन्दौर क्षेत्र में ही होना चाहिए। एक चेदि अभिलेख में भी हूणों के उल्लेख से भी यही निष्कर्ष निकलता है, जिसके अनुसार चेदि नरेश कर्ण ने हूण राजकुमारी आवलदेवी से विवाह किया था (का. इं. इं., भाग, ४, प्रस्तावना, पृष्ठ १०२, १६५; अभिलेख क्र. ५६-५७, श्लोक क्र. १५)। प्रतिपाल भाटिया के अनुसार (दी परमार्स, १९७०, देहली, पृष्ठ ४०) इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि हूण राज्य परमार व चेदि राज्यों के मध्य स्थित एक छोटा राज्य था । इस आधार पर हूण मंडल होशंगाबाद जिले अथवा महू से लगते विंध्य क्षेत्र व नर्मदा नदी के उत्तर में निश्चित किया जा सकता है।
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परमार अभिलेख
प्रतीत होता है कि सिंधुराज ने हूणों पर अंतिम विजय प्राप्त की थी। हूणों से संघर्ष उसके पिता सीयक द्वितीय के शासन काल में प्रारम्भ हुआ, उसके भाई वाक्पति द्वितीय के शासन काल में चालू रहा और उसके स्वयं के शासन काल में इसका अन्त हो गया। इस समय हूण राज्य सदा के लिए परमार राज्य में आत्मसात कर लिया गया। सिंधुराज के शासन काल के उपरान्त परमारहूण संघर्ष का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।
सिंधुराज के शासन की तिथियां निर्धारित करने में भी कठिनाई है, क्योंकि निश्चित साक्ष्यों का अभाव है। अनुमानतः उसका राज्यकाल ९९७ ई. और १०१० ई. के मध्य होना चाहिए। संभवतः ९९७ ई. में वाक्पति द्वितीय की चालुक्य राजधानी में हत्या कर दी गई थी, तभी सिंधुराज सिंहासनारूढ़ हुआ होगा, और १०११ ईस्वी से पूर्व उसका पुत्र भोजदेव गद्दी पर आसीन हो गया था जब उसने मोडासा अभिलेख (क्र. ८) निस्सृत किया था।
इसके उपरान्त श्लोक क्र. १६-२१ में भोजराज की प्रशंसा है। श्लोक क्र. १९ में भोजराज द्वारा कर्णाट, लाटपति, गुर्जर नरेश, तुरुषकों, चेदि नरेश, इन्द्ररथ, तोग्गल तथा भीम पर विजय प्राप्त करने का वर्णन है।
___ कर्णाटों पर भोजराज की विजय का कालवन अभिलेख (क्र. १८) व वल्लाल कृत भोजचरित् में उल्लेख है । भोजराज ने अपने पितृव्य (ताऊ) वाक्पति द्वितीय के अपमान का बदला लेने के लिए कर्णाट के चालुक्य नरेश संभवतः जयसिंह द्वितीय (१०१५-१०४२ ईस्वी) पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में भोज की सहायतार्थ कल्चुरि नरेश गांगेयदेव व दक्षिण के राजेन्द्रचोल (कुलेनूर अभिलेख, एपि.ई., भाग १५, पृष्ठ ३३१ व आगे) सम्मिलित हुए थे जो चालुक्यों के कट्टर शत्रु थे। यह युद्ध गौतमगंगा (गोदावरी) नदी के किनारे पर हुआ था।
लाट राज्य पर पूर्व में भोजराज के पिता सिंधुराज ने वहां के शासक गोग्गीराज को हरा कर विजय प्राप्त की थी। अब उसके पुत्र कीर्तिराज को भोजराज ने हराया। कीर्तिराज के पौत्र त्रिलोचनपाल के एक अभिलेख में लिखा मिलता है कि कुछ समय के लिए कीर्तिराज की कीर्ति उसके शत्रुओं द्वारा धूमिल कर दी गई (इं. ऐं., भाग १२, पृष्ठ २०१-३) । कीर्तिराज के सूरत अभिलेख से ज्ञात होता है कि १०१८ ईस्वी में वह लाट का राज्याधिकारी था (पाठक कोमेमोरेशन वाल्यूम, पृष्ठ २८७३०३)। इस तिथि के पश्चात् ही संभवतः लाट भोजराज के प्रभावक्षेत्र में आ गया।
गुर्जर नरेश भीम प्रथम चौलुक्य का भोजराज प्रथम से संघर्ष का विषद् वर्णन मेरुतुंग कृत प्रबन्धचिन्तामणी में प्राप्त होता है (पृष्ठ ३२-३३)। जिस समय भीम प्रथम सिंध पर आक्रमणकारी हो रहा था, तब भोजराज ने अपने सेनापति को गुजरात पर आक्रमण करने भेजा। उसने चौलुक्य राज्य पर आक्रमण किया, राजधानी अण्हिलपट्टन को लूटा, राजप्रासाद के सिंहद्वार पर कौडियां बो दी और गुर्जर प्रधानमंत्री से बलात् एक जयपत्र लिया । चौलुक्यों की क्षति इतनी अधिक थी कि 'कुलचन्द्र की लूट' एक किंवदन्ति बन गई। प्रस्तुत अभिलेख में भीम पर विजय का नाम लेकर उल्लेख है।
तुरुष्कों अर्थात मुस्लिम आक्रमणकारियों से भोजराज को संभवतः सीधे कोई युद्ध नहीं करना पड़ा था। यह इसलिए भी संभव है कि उसके शासनकाल में मुसलमानों ने मालवा पर कभी आक्रमण नहीं किया था। प्रस्तुत अभिलेख में उल्लेख है कि भोजराज ने केवल भृत्यमात्रों अर्थात् भाड़े के सैनिकों द्वारा ही तुरुष्कों को पराजित कर दिया। अतः संभव है कि उसने भाड़े के सैनिकों
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को मुसलमानों से लड़ने के लिए अपने राज्य के बाहर किसी स्थान पर भेजा हो। हमें अन्य साक्ष्यों से ज्ञात है कि महमूद गजनवी ने १०२४-२६ ईस्वी में सोमनाथ पर जैसलमेर-मारवाड़-गुजरात के मार्ग से आक्रमण किया था। गुजरात के चौलुक्य नरेश भीम प्रथम का मुस्लिम आक्रमण का सामना करने का साहस न हुआ, इसलिए उसने कण्ठा के दुर्ग में शरण ली। महमूद ने सोमनाथ को लूटा, परन्तु उपरोक्त मार्ग से लौटने का साहस न कर सका, क्योंकि वहां शक्तिशाली भारतीय नरेश परमदेव की सेनाएं उसका सामना करने हेतु प्रतीक्षारत थीं। इस संबंध में समकालीन लेखक गर्दीजी ने अपने जैनुलअखबार नामक ग्रन्थ (पृष्ठ ८५) में लिखा है कि महमूद ने अपनी विजय को हार में बदल जाने के भय से वापसी के लिए मरुप्रदेश का कठिन मार्ग अपनाया, और सैनिकों व पशुओं की अत्याधिक हानि उठाकर अन्ततः मुल्तान पहुंचा। यह बहत संभव है कि उपरोक्त परमदेव वास्तव में परमारदेव अर्थात् भोजराज प्रथम रहा हो। यदि ऐसा ही है तो कहना होगा कि महमूद गजनवी का भोजराज प्रथम की सेनाओं का सामना करने से कतराना ही वास्तव में प्रस्तुत अभिलेख में तुरुष्कों की हार लिख दिया गया हो।
चेदि नरेश पर भोजराज द्वारा विजय प्राप्त करने का उल्लेख कालवन अभिलेख (क्र. १८) और मदन रचित परिजातमंजरी (एपि. ई., भाग ८, पृष्ठ १०१, श्लोक ३) में प्राप्त होता है । उपरोक्त से ज्ञात होता है कि चेदि नरेश का नाम गांगेय था। गांगेय देव विक्रमादित्य एक शक्तिशाली नरेश था । उसने गौड़ नरेश को हराया था व हिमालय तक अपनी विजय पताका फहराई थी (का. इं. इं., भाग ४, प्रस्तावना पृष्ठ ९०-९१)। हम ऊपर देख चुके हैं कि चालुक्य नरेश पर आक्रमण करने हेतु भोजराज ने गांगेयदेव व राजेन्द्र चोल के साथ मिलकर संभवतः एक मैत्रीसंघ का निर्माण किया था। यह मैत्री कुछ समय तक चालू रही परन्तु बाद में भंग हो गई। संभवतः इसी कारण भोजराज द्वारा इस चेदि नरेश पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख प्रमुख रूप से किया गया है।
इन्द्ररथ नामक नरेश संभवतः सोमवंशी राजा था जो गोदावरी पर सम्बलपुर क्षेत्र में राज्य करता था। उसकी राजधानी आदिनगर थी (प्रो. इं. हि. कां., १९४०, पृष्ठ ६६-६७) । संभव है कि यह विजय भोजराज ने अपने मित्र राजेन्द्र चोल के साथ प्राप्त की थी (सा. इं. इं., भाग ३, पार्ट ३, पृष्ठ ४२४)।
तोग्गल, जिस पर भोजराज द्वारा विजय प्राप्त करने का उल्लेख है, की पहचान करना कठिन है। संभव है कि वह गजनवी का सेनापति रहा हो। भीम पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इस प्रकार श्लोक क्र. १७ में उल्लेख है कि भोजराज ने कैलाश से मलय तक तथा उदयाचल से अस्ताचल तक संपूर्ण पृथ्वी का पृथुराज के समान उपभोग किया और अपने धनुष की डोरी से सहज में ही दिक्पालों को उखाड़ कर दिशाओं में फेंक दिया, बहुत कुछ तथ्यों पर आधारित है। भोज वास्तव में एक महान सैनिक नेता था। उसकी शक्ति का लोहा उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक सभी दिशाओं में माना जाता था । उसने अपने समय के प्रमुख शक्तिशाली नरेशों से टक्कर ली थी। इस प्रकार उसने सार्वभौम नरेश की ख्याति प्राप्त कर ली थी।
भोजराज केवल सैनिक सफलताओं के कारण ही नहीं अपितु संस्कृति के संरक्षक के रूप में भी सर्वाधिक विख्यात हुआ। श्लोक क्र. १६ में लिखा हुआ है कि उसने उत्तम व्यक्तियों को भी कंपा दिया। वह एक अद्वितीय रत्न था। जबकि श्लोक क्र. १८ में उसकी प्रशंसा में लिखा हुआ है कि उसने जो प्राप्त किया, जो आदेश दिया, जो दान दिया एवं जो ज्ञात किया, वह कोई न कर सका। आगे लिखा है कि कविराज श्री भोज की इससे अधिक प्रशंसा क्या हो सकती है। हमें ज्ञात होता है कि समकालीन लेखकों--जैसे छित्तप, देवेश्वर, विनायक एवं शंकर ने भोज को कवि के रूप में;
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परमार अभिलेख
क्षीरस्वामी, सायण एवं महीपाल के समान वैयाकरणों ने वैयाकरण के रूप में; भावमिश्र व माधव के समान वैद्यों ने वैद्य के रूप में; दशबल अल्हदनाथ, रघुनन्दन, विज्ञानेश्वर के समान धर्मज्ञों ने इसको धर्मशास्त्र के क्षेत्र में अद्वितीय माना है (औफेक्ट-कैटेलोग्स कैटेलोगोरम, भाग १, पृष्ठ ४१८, भाग २, पृष्ठ ९५) । शृंगारगंजरी कथा (पृष्ठ १) में भोजदेव की तुलना सुबंधु, भास, गुणाढ्य एवं बाण के समान विद्वानों से की गई है। राजनैतिक व वैदिक गुणों में उसकी समता वृहस्पति, उशनस्, उद्धव, चाणक्य और धर्मकीर्ति के समान विशिष्ट व्यक्तियों से की गई है। भोज रचित प्रायः सौ से अधिक ग्रन्थ माने जाते हैं जो कला, साहित्य, शृंगार, ज्योतिष, वैद्यक, धर्म, व्याकरण, गायन आदि सभी प्रकार की विद्याओं से संबंधित हैं। उसके सुभाषित तो बहुत ही विख्यात हैं। यद्यपि यह विश्वास करना सरल नहीं है कि भोज, जो साहित्य से भिन्न गतिविधियों (युद्ध संबंधी व प्रशासनिक गतिविधियों) में अत्यधिक व्यस्त रहता था, विविध विषयों से संबंधित प्रमाणिक ग्रन्थ लिख सका था। परन्तु यह सत्य है कि प्राप्त ग्रन्थों में रचयिता के रूप में उसी का नाम लिखा मिलता है। अतः यह स्वीकार करना होगा कि ये ग्रन्थ यदि उसके द्वारा नहीं तो भी उसके मार्गदर्शन में लिखे गए होंगे। इस प्रकार विविध विषयों में न केवल उसकी स्वयं की रुचि, अपितु विद्वानों, कवियों, वैद्यों, दार्शनिकों, कलाविदों, वैज्ञानिकों आदि को संरक्षण प्रदान करने में उसकी प्रवृत्ति के बारे में भी ज्ञात होता है। बिल्हण कृत विक्रमांकदेव चरित् (अध्याय १८, श्लोक ९६) व कल्हण रचित राजतरंगिणी (भाग १, पुस्तक ४, श्लोक २५९) में भोज द्वारा कवियों को संरक्षण प्रदान करने की प्रशंसा की गई है। काव्यप्रकाश में मम्मट का कथन है कि विद्वानों के घरों में धन भोज द्वारा प्रदान करने के कारण है (अध्याय १०, श्लोक क्र. ११४)।
प्रस्तुत अभिलेख के श्लोक क्र. २० में उल्लेख है कि भोजराज ने केदारेश्वर, रामेश्वर, सोमनाथ, सुंडीर, काल, अनल व रुद्र के मंदिरों का चारों ओर निर्माण कर पवित्र पृथ्वी को यथार्थ नाम वाली बनाया। मेरुतुंग विरचित प्रबंधचिंतामणि के अनुसार भोजराज ने धारा नगरी को देवालयों व श्रेष्ठ अट्टालिकाओं से सुशोभित किया (पृष्ठ ४६) । इसके अतिरिक्त धार में ही उसने एक सरस्वती सदन, जो आज भी भोजराज के नाम से विख्यात है, का निर्माण करवा कर वहां सरस्वती देवी की मूर्ति स्थापित की (अभिलेख क्र. १५)। भोपाल के पास भोजपुर नामक नगर का निर्माण भी करवाया गया (अभिलेख क्र. १७), जहां विशाल भोजताल (झील) बनाई गई थी (इं. ऐं., भाग १७, पृष्ठ ३५१) । राजतरंगिणी के अनुसार उसने काश्मीर राज्य के अन्तर्गत कपटेश्वर में पापसूदन तीर्थ का निर्माण किया था (अध्याय ८, श्लोक क्र. १९०-१९३) । और भी अनेक निर्माण कार्य करवाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस प्रकार भोजराज निर्माण कार्य करवाने में कितनी रुचि लेता था सो उपरोक्त श्लोक में ठीक ही लिखा हुआ है।
श्लोक क्र. २१ में लिखा हुआ है कि इस शिवभक्त (भोजराज) के स्वर्ग चले जाने पर धारा नगरी के समान सारी पृथ्वी शत्रुरूपी अंधकार से व्याप्त हो गई । मेरुतुंग कृत प्रबंधचिन्तामणि (पृष्ठ ५०-५१) व नागपुर अभिलेख (क्र. ३६) से ज्ञात होता है कि भोजराज की मृत्यु के समय गुजरात के चौलुक्यों व डाहल के कल्चुरियों का सामूहिक आक्रमण धारा नगरी पर हुआ। संकट के ऐसे समय में परमार राज्य-सिंहासन की प्राप्ति के हेतु गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया जिसमें जयसिंह प्रथम
और उदयादित्य प्रमुख थे। इनमें जयसिंह प्रथम १०५५ ईस्वी में पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल की सहायता से सिंहासन प्राप्त करने में सफल हो गया। उसने संभवतः १०७० ईस्वी तक अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में शासन किया। इस वर्ष कर्ण कर्णाट आदि नरेशों ने मालवा पर आक्रमण कर दिया, जिसमें जयसिंह प्रथम मारा गया और मालवा एक बार फिर से शत्रुओं के हाथों
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उदयपुर प्रशस्ति
में
पड़ गया। ऐसे समय में उदयादित्य ने राज्य सिंहासन संभाला और शत्रुओं को मार भगाया । प्रस्तुत अभिलेख में उपरोक्त गृहयुद्ध के बारे में कुछ लिखा नहीं मिलता। यहां केवल यही लिखा हुआ है कि “जब इस (भोज) के पारम्परिक योद्धाजन दुर्लभ हो गए" । संदर्भ में गृहयुद्ध का होना निश्चित है ।
श्लोक क्र. २१-२२ में उदयादित्य की प्रशंसा है। यहां भोजदेव और उदयादित्य के आपसी संबंध के बारे में अभिलेख पूर्णतः मौन है । उदयादित्य की प्रशंसा में लिखा मिलता है कि सूर्य के समान उदयादित्य देव, उन्नत शत्रुरूपी अंधकार को खङ्गदण्ड की किरणों से नष्ट करके समस्त जनों के मनों को आनन्दित करता हुआ, उदित हुआ और वराह अवतार के समान भूमि उद्धार का कार्य इस परमार ने कितनी सुगमता से किया ।"
यह विचारणीय है कि उदयादित्य ने स्वयं को भोजदेव का उत्तराधिकारी प्रतिपादित किया है, जबकि अन्य साक्ष्यों से विदित होता है कि उनके बीच जयसिंह प्रथम ने प्रायः १५ वर्ष तक शासन किया था । वास्तव में उदयादित्य और उसके पुत्र-पौत्रों के अभिलेखों में उल्लिखित वंशावलियों में जयसिंह प्रथम का नाम पूर्णतः छोड़ दिया गया है। यह संभवत: इसलिए हुआ कि उदयादित्य देव को अपने प्रमुख विरोधी जयसिंह प्रथम का पादानुध्यात लिखना सहन नहीं हुआ । इसके अतिरिक्त जयसिंह प्रथम अपने पूर्ण शासन काल में चालुक्यों की सहायता पर निर्भर था, अतः वंश लिये अपमानयुक्त माना गया होगा । इस कारण वंशावलियों में उसका नाम छोड़ दिया गया । विभिन्न साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उदयादित्य देव ने आक्रमणकारियों को शीघ्र ही भागने पर बाध्य कर दिया एवं परमार राजवंश का पुनरुद्धार किया। उदयादित्य ने १०७० ई. से १०९४ ईस्वी तक शासन किया था ।
प्रस्तुत अभिलेख में किसी भौगोलिक स्थान का नाम नहीं है ।
(मूल पाठ)
( श्लोक १८ इन्द्रवज्रा २, ३, ९, १०, १२, १९ वसन्ततिलका, ४, ६, १५, १८ अनुष्टुभ ; ५,२१ स्रग्धरा; ७,१६,२० उपजाति; ११ शालिनी; १३ शार्दूलविक्रीडित १४,२२, आर्या; १७ मन्दाक्रान्ता)
१. ओं नमः शिवाय ।
२.
३.
४.
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५.
गंगावसंसिक्त भुजंगमाल भाले कलेन्दोरमलांकराभा । यन्मूद्धि नम्रेहितकल्पवल्लया भातीव भूत्यै स तवास्तु शंभुः ।।१।। सानंदनंदिकरसुंदर सांद्रनांदी नादेन तुंबुरुमनोरमगानमानैः । [ नृत्यं ] त्यवस्य (श्य ) मनि [शं] सुरवासवेस्या (श्याः ) यस्याग्रतो भतु वः ससि (शि) वः शिवाय ॥ २ ॥ मूर्द्धस्थिता [सरितोक्ष] मयेव सं ( शं) भोरर्द्धांग मंगघटनाव्हनमाश्रयंती । दृष्ट्वात्मनाथवस (श) तां
कंदोच्छित्त्या इवोद्यतः ||४|| *
* यहां एक विचित्र चिन्ह बना है । प्रतीत होता है यहां मंगल पूरा हो गया है। इसके साथ ही
दो खड़े दण्ड बने हैं।
सकलांगतुष्टा पुष्टि नगेंद्रतनया भवतां विदध्यात् ||३|| गणेशो[वः]सु[खाया]स्तु निशातः परशुः करे
यस्य नम्रघनावद्य
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अस्त्युव्वीर्धः प्रतीच्यां हिमगिरितनयः सिद्धदंपत्यसिद्धेः (दां) स्थानं च ज्ञानभाजामभिमत
फलदोsafoeतः सोऽर्बुदाख्य: । विश्वामित्रो वसिष्ठादहरत व[ल]तो यत्र गां तत्प्रभावाजज्ञे वीरोग्निकुंडाद्रिपुवल निधनं य
श्चकारक एव || ५ |
मारयित्वा परान्धेनुमानिन्ये स ततो मुनिः । उवाच परमारा[ख्यः पार्थिवेंद्रो भविष्यसि ||६||
तदन्ववायेऽखिलयज्ञसंघ तृतामरोदाहृत कीतिरासीत् । उपेन्द्रराजो द्विजवर्गरत्नं सौ (शौ) र्याज्जितोत्तुंग नृपत्व [ मा नः ||७|| तत्सूनुरासीदरिराज कुंभि कंठीर वो
वीर्यवतां वरिष्ठः । श्रीवैर (रि) सिंहश्चतुरर्णवान्तु धात्यां जयस्तंभकृत प्रशस्तिः || ८ || तस्माद्वभूव वसुधाधिपमौलिमाला रत्नप्रभारुचिररं
जित पादपीठः ।
श्रीसीयकः करकृपाणजलोम्मिमग्न स ( श) लुव्रजी विजयिनां धुरि भूमिपालः || ९ || तस्मादवन्ति तरुणीनय
नारविन्दभास्वानभूत्करकृपाणमरीचिदीपः ।
श्रीवाक्पतिः स (श) तमरवानुकृतिस्तुरंगा गंगासमुद्र सलिलानि पिवन्ति यस्य ।।१०।। जातस्तस्माद्वैरिसिंहोन्यनाम्ना लोको ब्रूते [ वज्रट ] स्वामिनं यं । • शतो धारया से निहत्य श्रीमद्वारा सूचिता येन राज्ञा ||११||
तस्मा
भूरिरेव ( श्व) र संघसेवा (ना) गर्ज्जद्गजेंद्ररवसुंदर तूर्यनादः । श्रीहर्षदेव इति खोट्टिगदेवलक्ष्मीं जग्राह यो युधि नगादसमप्र
तापः ।।१२।।
परमार अभिलेख
पुत्रस्तस्य वि[भू] षिवा (ता) खिलधराभोगो गुणैकास्पदं सौ (शौ) र्याक्रान्त समस्तस (श) तुविभवाधिब्याद्य ( न्याय्य) वित्तोदयः । वकृत्वो
च्चकवित्वतर्क कलनप्रज्ञातशा [स्त्रा ] गमः श्रीमद्वाक्पतिराजदेव इति यः सद्भिः सदा कीर्त्यते ॥ १३ ॥
कर्णाटलाटकेरल
चोल शिरोरत्नरागिपदकमलः । यश्च प्रणीयगणाथितदाता कल्पद्रुमप्रख्यः ।। १४ ।। युवराजं विजित्याजौ हत्वा तद्वा
हिनीपतीन् । खङ्गमूर्द्धि (नि) कृतं येन त्रिपूर्यां विजिगीषुणा ।। १५ ।। तस्यानुजो निज्जितहूणराजः श्रीसिंधुराजो विजयाज्जि
त श्रीः ।
श्रीभोजराजोजनि येन रत्नं नरोत्तमा कम्प कृदद्वितीयं ||१६||
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उदयपुर प्रशस्ति
आ कैलासान्मलयगिरितोऽस्तोदयाद्रिद्वयादा भुक्ता पृथ्वी पृथु
नरपतेस्तूल्यरुपेण येन । उन्मूल्योर्वीभरगुरु[ग]णा लीलया चापयज्या (यष्ट) क्षिप्ता दिक्षु क्षितिरपि परां प्रीतिमापादिता च ।।१७।। साधित विहितं दत्तं
ज्ञातं तद्यन्न केनचित् । किमन्यत्कविराजस्य श्रीभोजस्य प्रशस्यते ।।१८।। चेदीश्वरेंद्ररथातोग्ग]ल[भीममुख्यान कर्णाट लाटपति गूजरराट्तुरू
___ष्कान् । यद्धृत्यमात्रविजितानवलोक्य]मौला दोष्णां वलानि कलयंति न योद्ध]लोकान्] ।।१९।। केदार रामेस्व (श्व) र सोमनाथ [सुं]डीर कालानलरुद्र--
सत्कैः । सुराश्रयाप्य च यः समन्ता (ना) द्यथार्थसंज्ञां जगतीं चकार ।।२०।। तत्रादित्यप्रतापे गतवति सदनं स्वग्गिणां भर्ग (1) भक्ते व्याप्ता धारेव धात्री रिपुति
* मिरभैरम्मौ ललोकस्तदाभूत् । विश्वस् (स्रस्)तांगो निहित्योद्भटरिपुति[मिरभ]रं खगदंडांसुजालैरन्यो भास्वानिवोद्यन्धुतिमुदित जनात्मोद-.
यादित्यदेवः ॥२१॥ येन धरणीवराहः परमारेणोद्धृतो] निरायासा[त्] । [तस्यतस्या भू]मेरुद्धारो वत कियन्मात्रः ।।२२।। [कुंवान्य. . . . .] तवाजिव्रजरु- - - - - - - -
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(अनुवाद) १. ओं। शिव को नमस्कार ।
जिसके मस्तक पर चन्द्रमा की निर्मल कांतियुक्त कला कल्पवल्लि के समान शोभायमान है तथा जिसके गले में गंगाजल से सिंचित सर्पमाला है, ऐसे शंभु तुम्हारा कल्याण करें ॥१॥
मदमस्त नन्दी के हाथों से बजाये गये हुए (मृदंग) नाद से तथा नारद के मनोहर गायनों के साथ स्वर्ग की अप्सराएं सदा जिसके आगे नृत्य करती हैं ऐसे शिव तुम्हारा कल्याण करें ॥२॥
जिसने शंभु के सिर पर स्थित गंगा को सहन नहीं किया व जिसने शंकर के आधे शरीर का आश्रय लिया, स्वयं को शंकर के शरीर में स्थित देख कर जिसके सारे अवयव तुष्ट हो गये, ऐसी पर्वतराजपुत्री (पार्वती) तुम्हें समृद्धि प्रदान करे ॥३॥
अपने परमभक्तों के महत् पापों का नाश करने के लिये मानो उद्यत होकर जिसने हाथ में तीक्ष्ण परशु को धारण किया है ऐसे गणेश तुम्हें सुख प्रदान करें ।।४।।
पश्चिम दिशा में हिमगिरिपुत्र अर्बुद नामक एक बड़ा पर्वत है, जो सिद्ध दंपत्तियों की सिद्धि का स्थान है व जो ज्ञानवानों को वांछित फल देता है, जहां विश्वामित्र ने वसिष्ठ
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परमार अभिलेख
की गाय का बलात् हरण किया, तब उस (वसिष्ठ) के प्रभाव से अग्निकुण्ड में से एक वीर उत्पन्न हुआ जिसने अकेले ही शत्रु सैन्य का नाश किया ॥५॥
शत्रुओं को मार कर वह गाय को वापिस ले आया, तब मुनि ने कहा-"तुम परमार नाम से राजा होगे ।।६।। .
उस वंश में अखिल यज्ञ समूह से तृप्त देवताओं के द्वारा जिसकी कीति गाई जा रही है व जो द्विज समूह में रत्न के समान हैं और जिसने अपने पराक्रम से उच्च राजत्व का मान प्राप्त कर लिया है ऐसा उपेन्द्रराज (नरेश) हुआ ॥७॥
उसका पुत्र वैरिसिंह था जो राजारूपी हाथियों के लिये सिंह के समान था, जो पराऋमियों में सबसे बलवान था और जिसने चारों समुद्रों से युक्त पृथ्वी पर प्रशस्तियुक्त जयस्तम्भ स्थापित किये ।।८।।
उसके श्री सीयक (उत्पन्न) हुआ जिसका पादपीठ पृथ्वी के नरेशों के मुकुटों के रत्नप्रभा से रंजित होता था तथा जिसकी तलवार की जल लहरियों में शत्रुसमूह डूब जाते थे, जो विजयी राजाओं में सर्वश्रेष्ठ था ।।९।।
उससे श्री वाक्पति हुआ जो अवंति की युवतियों के नयन कमलों के लिये सूर्य के समान था, अपने हाथ की तलवार की चमक से जो स्वयं प्रकाशमान था, जो इन्द्र के समान था तथा जिसके अश्व गंगा व समुद्र के जलों का पान करते थे ।।१०।।
उससे वैरिसिंह नामक पुत्र हुआ जो वज्रटस्वामि नाम से भी लोक में प्रसिद्ध था, जिसकी खड्ग की धारा से शत्र समूह के मारे जाने के कारण श्रीयुक्त धारा नगरी सूचित (विख्यात) हुई ।।११।।
उससे श्री हर्षदेव हआ जिसके नगाड़ों का घोष शत्रसंघ की सेनाओं में गरजने वाले श्रेष्ठ हाथियों की गर्जना के समान सुन्दर था, जो (नागभक्षी) गरुड़ के समान प्रतापी था व जिसने युद्ध में खोट्टिगदेव की लक्ष्मी को छीना था ।।१२।।
उसका पुत्र जो संपूर्ण पृथ्वी के लिये आभूषण रूप था, जो गुणों का एकमात्र आश्रय था, शौर्य से जीते समस्त शत्रुओं से धन प्राप्ति के द्वारा जिसके कोष में वृद्धि होती थी, जो वक्तृत्व, उच्च कवित्व, तर्क प्रवीणता तथा शास्त्र आगम में निष्णात था तथा सज्जनों के द्वारा श्रीमत वाक्पतिराजदेव के नाम से जिसकी कीर्ति गाई जाती है ।।१३।।
जिसके पदकमल कर्णाट लाट केरल चोल (नरेशों) के मुकुट रत्नों से रंजित होते थे और जो प्रार्थना करने वाले याचकों की इच्छा पूर्ति के लिये कल्पवृक्ष के समान विख्यात था ॥१४॥
त्रिपुरी नगरी में विजय की इच्छा करने वाले उसने युद्ध में युवराज को जीतकर तथा उसके सेनापतियों को मार कर अपनी खड्ग को ऊंचा किया ।।१५।।
उसके छोटे भाई श्री सिंधुराज ने हूणराज को जीत कर विजयश्री प्राप्त की। जिससे भोजराज उत्पन्न हुआ। जिसने उत्तम व्यक्तियों को भी कंपा दिया व जो अद्वितीय रत्न था ॥१६।।
जिसने कैलाश से मलय तक तथा उदयाचल से अस्ताचल तक संपूर्ण पृथ्वी का पृथुराज के समान उपभोग किया, जिस ने अपने धनुष की डोरी से सहज ही में दिक्पालों को उखाड़ कर दिशाओं में फेंक दिया तथा जिसने पृथ्वी को परमप्रीति से प्रसन्न किया ।१७।।
___ जो उसने साध्य किया (प्राप्त किया), जो आदेश किया, जो दिया, जो ज्ञात किया वह कोई न कर सका। कविराज श्री भोज की इससे अधिक प्रशंसा क्या हो सकती है ।।१८॥
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उदयपुर अभिलेख
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कर्णाट, लाटपति, गुर्जर नरेश व तुरुष्कों, जिनमें मुख्य चेदि नरेश इन्द्ररथ, तोग्गल तथा भीम थे, की सेनाओं को जिसके भृत्यमात्रों ने ही विजित कर लिया व इस कारण जिसकी पारम्परिक सेनाओं के बाहुबल की उग्रता की गणना की जाती है, उसके योद्धाओं की नहीं की जाती (क्योंकि योद्धाओं की तो अभी बारी भी नहीं आ पाई थी) ।।१९।।
जिसने चारों ओर केदारेश्वर, रामेश्वर, सोमनाथ, सुंडीर, काल, अनल व रुद्र आदि के मंदिरों का निर्माण कर पवित्र पृथ्वी को यथार्थ नाम वाली बनाया ।।२०।।
शिव भक्त (राजा भोज), जिसका प्रताप सूर्य के समान था, के स्वर्ग चले जाने पर, धारा नगरी के समान सारी पृथ्वी शत्रु रूपी अंधकार से व्याप्त हो गई तथा उसके पारम्परिक योद्धाजन दुर्बल हो गये, तब सूर्य के समान उदयादित्यदेव उन्नत शत्रुरूपी अंधकार को खड्गदण्ड की किरणों से नष्ट करके समस्त जनों के मनों को आनन्दित करता हुआ उदित हुआ।।२१।।
जो (पृथ्वी उद्धार का) कार्य वराह अवतार ने किया, वह भूमि उद्धार का कार्य इस परमार ने कितनी सुगमता से किया, यह कितना आश्चर्य है ।।२२।।
(२३) उदयपुर का उदयादित्य कालीन प्रस्तरखण्ड अभिलेख
(उत्तरार्द्ध व तिथि रहित) प्रस्तुत प्रस्तरखण्ड, जो उदयपुर प्रशस्ति (क्र. २२) का उत्तरार्द्ध है, उदयपुर में चतुआ दरवाजा मुहल्ले में एक धीवर के घर से प्राप्त हुआ था। इसका उल्लेख ए. रि. आ. डि. ग., १९२५-२६, क्रमांक ७१, पृष्ठ १२-१३ पर किया गया है। प्रस्तरखण्ड पुरातत्व संग्रहालय, ग्वालियर में रखा है ।
अभिलेख में कुल २७ पंक्तियां उत्कीर्ण हैं। इसकी भाषा संस्कृत है व सारा पद्यमय है। परन्तु प्रस्तर खण्ड बुरी तरह घिसा हुआ है। इस कारण इसको पूर्णत: पढ़ना असंभव ही है । फिर भी यहां वहां जो अंश पढ़े जा सकते हैं उनके आधार पर निम्न तथ्य सामने आते हैं।
पंक्ति क्र. १-६ में उदयादित्य की कुछ सैनिक सफलताओं का विवरण है। इनमें से केवल डाहल के चेदि शासक (डाहलाधीश) पर विजय प्राप्त कर उसके संहार करने का उल्लेख है। साथ ही उदयपुर नगर के निर्माण का भी उल्लेख है। परमार राजवंशावली उदयादित्यदेव तक ही वर्णित है। इसके उपरान्त पंक्तियों में उसके अधीन नेमक वंश के नरेशों का विवरण है । प्रतीत होता है उदयादित्य ने नेमक वंशीय अधीनस्थ सामन्त पर उदयपुर व उसके आस पास से क्षेत्र का शासन भार डाला था। उसी के माध्यम से प्रस्तुत उदयपुर प्रशस्ति निस्सृत की गई थी। परन्तु प्रस्तर खण्ड के अत्याधिक क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण उक्त वंश के नरेशों का पूर्ण विवरण पढ़ने में नहीं आता। फिर भी उसका प्रारम्भिक शासक संभवतः रुद्रादित्य था। नेमक वंशीय शासक शैव मतावलम्बी थे। आगे शुद्रक नामक एक अन्य नरेश का उल्लेख है जिसने किसी एक गुर्जर नरेश पर विजय प्राप्त की थी। उसके पुत्र, जिसका नाम पढ़ने में नहीं आता है, ने उदयपुर में मंदिर का निर्माण करवाया था। अभिलेख का मुख्य ध्येय उसी मंदिर के निर्माण का उल्लेख करना है।
प्रस्तर खण्ड में तिथि का अभाव है। यदि तिथि का उल्लेख रहा होगा तो अभिलेख के घिस जाने के कारण उसका पढ़ना असम्भव हो गया है ।
. इस प्रकार प्रस्तुत प्रस्तर खण्ड से, इसके पूर्वाद्ध में प्राप्त तथ्यों से अधिक कोई नवीन सूचना सामने नहीं आती।
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(२४)
उदयपुर का उदयादित्य का उदयेश्वर मंदिर प्रस्तर अभिलेख
( संवत् ११३७ = १०८० ईस्वी)
प्रस्तुत अभिलेख विदिशा जिले के बासौदा परगने के अन्तर्गत उदयपुर में नीलकंठेश्वर ( उदयेश्वर ) मंदिर के पूर्वी द्वार के भीतर लगे एक प्रस्तर खण्ड पर खुदा हुआ है । इसके अनेक बार उल्लेख किए जा चुके हैं । कनिंघम ने आ. स. रि., भाग १०, पृष्ठ ८३ पर; डी. आर. भण्डारकर ने प्रो. रि. आ. स. वे. स. १९१३-१४, पृष्ठ २२ पर और एम. बी. गर्दै ने ए. रि. आ. डि. ग., संवत् १९७४, क्र. १०५ पर इसके उल्लेख किये ।
परमार अभिलेख
अभिलेख का क्षेत्र ४६x२७.९५ सें. मी. है । इसमें ६ पंक्तियां हैं। अक्षरों की सामान्य लम्बाई ४ सें. मी. है । अभिलेख की स्थिति अच्छी है। इसकी लिखावट ११ वीं सदी की नागरी है। अक्षरों की बनावट सुन्दर है । वे ढंग से एवं गहरे खुदे
1
वर्ण विन्यास की दृष्टि से श के स्थान पर स का प्रयोग किया गया है । र के बाद काव्यञ्जन दोहरा बना दिया गया है । पंक्ति १ में च्छत्रां में पुनरावृत्ति है । इन सभी अशुद्धियों को पाठ में सुधार दिया गया है । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है । इसमें अनुष्टुभ छन्द में एक श्लोक है । शेष अभिलेख गद्य में है ।
अभिलेख की तिथि पंक्ति ५ में अंकों में दी है । यह संवत् ११३७ वैसाख सुदि ७ है । इसमें दिन का उल्लेख नहीं है । इससे पूर्व सूर्य के संक्रमण का उल्लेख है । साथ ही करण है, परन्तु उसका नाम नहीं है । इस कारण तिथि का प्रमाणीकरण संभव नहीं है। विगत विक्रम संवत् के आधार पर गणित करने पर यह सोमवार, ३० मार्च १०८० ईस्वी के बराबर बैठती है ।
अभिलेखका प्रमुख ध्येय पंक्ति क्र. ६ में दिया हुआ है। इसके अनुसार उपरोक्त तिथि को उदयादित्य द्वारा श्री उदयेश्वरदेव के मंदिर पर ध्वजारोहण के मांगलिक कार्य के सम्पन्न करने का उल्लेख करना है ।
अभिलेख के प्रारम्भ में नरेश उदयादित्य के लिये सिद्धियुक्त आशीर्वाद है जिसने सारी पृथ्वी को अपने एक छत्र के अधीन कर दिया । पंक्ति ३ में लिखा है कि वह पृथ्वी पर ऐश्वर्य से यश का सम्पादन करे । आगे सूर्य के संक्रमण व करण का उल्लेख परन्तु इसका ठीक अर्थ अनिश्चित है। यहां 'रवि' के उल्लेख से संभवत: नरेश के नाम के उत्तरार्द्ध 'आदित्य' पर जोर देना है । इसी प्रकार उदयपुर प्रशस्ति ( क्र. २२) एवं कुछ अन्य अभिलेखों में उदयार्क, आदित्य, भास्वान आदि शब्दों द्वारा उसका उल्लेख किया गया है । परन्तु संभव है कि यहां सूर्य के किसी अन्य राशि पर संक्रमण का उल्लेख किया गया हो ।
अभिलेख के श्लोक का स्चयिता पंडित शृंगवास का पुत्र पंडित महीपाल था। यहां मंदिर का नाम "उदयेश्वर देव का मंदिर" लिखा है जो उसके निर्माता नरेश के नाम पर ही है ।
यह विचारणीय है कि यहाँ शासनकर्ता नरेश उदयादित्य की वंशावली अथवा वंश का नाम नहीं दिया हुआ है । परन्तु अभिलेख के प्राप्ति स्थान, एवं उसमें अंकित तिथि से यह निश्चित होता है कि उदयादित्य वास्तव में परमार वंशीय नरेश ही था जिसके अनेक अभिलेख इस
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धार अभिलेख
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मंदिर में खुदे प्राप्त होते हैं । उन अभिलेखों में भी उसके द्वारा उपरोक्त मंदिर के निर्माण करवाने का उल्लेख है।
अभिलेख का महत्व इस तथ्य में है कि इससे नरेश उदयादित्य के शासन काल की प्रथम लिखित तिथि ज्ञात होती है। अन्यथा अभी तक के उसके अभिलेखों में तिथि का अभाव है। उदयपुर प्रशस्ति (क्र. २२) में तो उसके पौराणिक वराह की भांति पृथ्वी अर्थात् परमार साम्राज्य के उद्धार करने का उल्लेख है।
अभिलेख में किसी भौगोलिक नाम का उल्लेख नहीं है । संभवत: उसकी आवश्यकता भी नहीं थी।
(मूलपाठ) १. स्वस्ति ।।
एकच्छवां करोतु क्षमामुदयादित्य भूपति (1)
इत्याद्यं सिद्धिदं वेदं शंसामः सर्वतो नृप ।। [१] ३. क्ष्मासि (शि) रसि भूत्या स क्ष्माभूधशस्तु ।। रवि संक्रांति ४. करणं (णम्) ।। [श्लोको]यं पंडित श्री शृङ्गवाससूनोः । ५. पंडित श्री महीपालस्य ॥ संवत् ११३७ वैसा (शा)ख सुदि ७ ६. श्रीमदुदयेस्व (श्व) र देवस्य ध्वजारोहः संपूर्णः ।। मंगलं महाश्रीः [1]
- (अनुवाद) १. स्वस्ति ।
उदयादित्य नरेश पृथ्वी को एकछत्र बनावे । हे राजन, इस प्रकार की सिद्धि प्रदान करने वाले को हम बोलते हैं ।।१।। ३. (अब) वह पृथ्वी से यश सम्पादन करे। रवि संक्रांति ४. करण की। यह श्लोक पंडित श्री शृंगवास के पुत्र ५. पंडित श्री महीपाल का (है) । संवत् ११३७ वैसाख सुदी ७ ६. श्रीमत् उदयेश्वर देव का ध्वजारोह (समारोह) संम्पन्न (हुआ)। महालक्ष्मी मंगलकारी हो ।
(२५) धार से प्राप्त देवी प्रतिमा अभिलेख
(सं. ११३८%१०८१ ई.) प्रस्तुत अभिलेख श्वेत पत्थर की बनी देवी मूर्ति के पादपीठ पर उत्कीर्ण है। यह प्रतिमा धार स्टेट के पुरातत्व विभाग के काशीनाथ कृष्ण लेले ने १९२० ई. में धार नगर में देवी तालाब के किनारे पड़ी प्राप्त की थी। इसका उल्लेख ए. भं. ओ.रि. ई., भाग ४, पार्ट २, १९२२२३, पृष्ठ ९९-१०२ में किया।
देवी प्रतिमा ५८ सें. मी. ऊंची व २८ सें. मी. चौड़ी है। यह सफेद पाषाण, जो संगमरमर के समान लगता है, की बनी हुई है। इसके पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख दो पंक्तियों का है। अभिलेख का कुल क्षेत्र २०x१० सें. मी. है। इसमें खुदे अक्षर २ सें. मी. लम्बे हैं । अक्षर ११ वीं सदी की नागरी लिपि में हैं, यद्यपि कुछ अक्षर पूर्वकालीन भी लगते हैं । अक्षरों की बनावट सुन्दर नहीं है, एवं ध्यान से खोदे भी नहीं गये हैं। भाषा संस्कृत है, परन्तु त्रुटिपूर्ण है । अभिलेख गद्यमय है परन्तु पाठ अशुद्ध लगता है। वर्ण विन्यास की दृष्टि से कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है।
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परमार अभिलेख
तिथि शुरु में संवत् ११३८ लिखी है। इसमें अन्य कोई विवरण नहीं है। यह १०८१ ई. के बराबर बैठती है। इसका ध्येय लार वर्ग के जसहर नामक व्यक्ति द्वारा देवी प्रतिमा की प्रतिष्ठापना करने का उल्लेख करना है।
एम. बी. गर्दै ने अभिलेख के पाठ को भिन्न प्रकार से पढ़ कर अर्थ लगाया है। वे दसहर (दसहरा) पढ़ते हैं। इसी आधार पर उपरोक्त वर्ष में तिथि निर्धारित करते हैं। दसहरा पर्व वर्ष में तीन बार--चैत्र, ज्येष्ठ व आश्विन मासों में पड़ता है। प्रस्तुत अभिलेख में आश्विन अर्थात अक्तूबर मास होने की संभावना बलवती है। प्रतिमा पार्वती (दुर्गा) की है जिसका पूजन सारे देश में आश्विन मास में होता है। गर्दे के अनुसार इससे आगे के शब्द "अग्निथितां पणमति=अग्निस्थितां पार्वती"-अग्नि में स्थित पार्वती अथवा तपश्चर्या में लीन पार्वती, होना चाहिये।
अभिलेख में यद्यपि किसी स्थान अथवा नरेश का नाम नहीं है फिर भी प्रस्तुत प्रतिमा का संबंध धारा नगरी से ही है। वैश्य जाति में लार वर्ग ही धार के प्राचीनतम वासियों में है। तिथि के आधार पर प्रतिमा का निर्माण एवं प्रतिष्ठापना-दोनों कार्य नरेश उदयादित्य (१०७०-१०९४ ईस्वी) के शासनकाल में की गई थी। उदयादित्य ही वह प्रख्यात नरेश है जिसने भोजदेव के उज्जवल शासन के उपरान्त जयसिंह प्रथम (१०५५-१०७० ईस्वी) के समय अवनत परमार साम्राज्य की पुनर्स्थापना की थी, और साहित्य व कलाओं का पुनरुत्थान किया। इसके शासनकाल में सुविख्यात कलाविदों व मूर्तिनिर्माताओं का प्रचुर आदर सम्मान होता था।
मूर्ति का विवरण इस प्रकार है--प्रतिमा ग्यारहवीं शती की मूर्तिकला का सुन्दर नमूना है। देवी खड़ी है। चारों हाथ आभूषणों से अलंकृत हैं। सिर पर मुकुट है। देवी गहन चिन्तन की मद्रा में है। उसके चारों ओर आठ छोटी आकतियां हैं। दो आकतियां सिर के पास ओर, तथा दो टांगों के दोनों ओर हैं। दाहिनी ओर ऊपर की आकृति सृष्टि निर्माता ब्रह्मा की, व बांई ओर सृष्टि संरक्षक विष्णु की है । तीसरी आकृति ज्ञान के भण्डार गणेश की है जिसके वाहन मूषक की आकृति नीचे पादपीठ पर बनी है। चौथी आकृति संहारक शिव की है। चरणों के पास चार सेविकाओं की आकृतियां हैं, जिनमें से दो हाथों में चौरियां लिये खड़ी हैं व अन्य दो हाथ जोडे बैठी हैं। सेविकाओं के ऊपर दोनों ओर दो दो अन्य चिन्ह समान आकृतियां है जो मुकुट प्रतीत होते हैं। गर्दै महोदय के अनुसार ये अग्निकुंड हैं जिनमें से ज्वाला उभर रही है। इस प्रकार प्रस्तुत प्रतिमा में पार्वती पंचाग्नि साधन तप करती दिखाई गई है। इसके अन्तर्गत साधक पंचाग्नि के मध्य खड़ा होता है या बैठता है। पांचवीं अग्नि के रूप में सूर्य होता है। पुराणों के अनुसार पार्वती ने शिव को पतिरूप में प्राप्त करने हेतु तपस्या की थी।
(मूलपाठ) १. सं. ११३८ [1] [ज]सहरः भ (अ)ग्निछि२. तां प्रन (ण)[म]तिः२ लारवर्ग' [1]
(अनुवाद) संवत् ११३८ । लारवर्ग के जसहर द्वारा (स्थापित) अग्निस्थित पार्वती (की मूर्ति)
[दसहरे (के अवसर पर) लारवर्ग (द्वारा स्थापित) अग्निस्थित पार्वती (की मूर्ति)] (१) श्री लेले ने इसको य पढ़ा, परन्तु विवरण में अ कर दिया। छाप में इसकी आकृति कुछ
विचित्रसी है। (२) विसर्ग के बिन्दु अनावश्य हैं। (३) संभवतः लारवर्य।
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उदयपुर अभिलेख
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(२६) उदयपुर का उदयादित्य कालीन मंदिर प्रस्तर स्तम्भ अभिलेख
(तिथि रहित)
प्रस्तुत अभिलेख पूर्ववणित अभिलेख क्र. २४ के पास पूर्वी द्वार की ओर जाने वाली सीढ़ियों के ऊपर बाईं ओर स्थित एक प्रस्तर स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसके नीचे लगे एक प्रस्तर खण्ड पर दो पंक्तियों का एक श्लोक भी उत्कीर्ण है, जो प्रस्तुत अभिलेख का आगे का भाग प्रतीत होता है। सुविधा की दृष्टि से मूल अभिलेख को 'अ' एवं इसको 'ब' क्रम दिया गया है। इनका उल्लेख ए. रि. आ. डि. ग., संवत् १९७४, क्र. १११ पर किया गया । परन्तु यह रिपोर्ट अप्राप्य है। हरिहर द्विवेदी कृत ग्रन्थ ग्वालियर राज्य के अभिलेख क्र. ६४९ पर इसका सामान्य उल्लेख है।
मूल अभिलेख 'अ' ७ पंक्तियों का एवं 'ब' दो पंक्तियों का है। दोनों की स्थिति अच्छी है, परन्तु पंक्ति ६ में दो अक्षर लुप्त हो गये हैं जो संदर्भ में जोड़े जा सकते हैं। दूसरे अभिलेख 'ब' की दोनों पंक्तियों के अंतिम अक्षर भग्न हो गये हैं। अभिलेख 'अ' का आकार ३२३४ २४३ सें. मी. है। अक्षर प्रायः ४ सें. मी. लम्बे हैं। भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है। अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी है।
व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व एवं श के स्थान पर स का प्रयोग किया गया है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है। इन सभी को पाठ में सुधार दिया गया है।
अभिलेख में तिथि का अभाव है, परन्तु अक्षरों की बनावट एवं अभिलेख क्र. २४ के सानिध्य से इसकी तिथि उसी के आस पास निर्धारित की जा सकती है। इसका प्रमुख ध्येय नरेश उदयादित्य के नाम पर उदयपुर नगर की स्थापना एवं पास में एक झील के बनवाने का उल्लेख करना है।
___इसके प्रारम्भ में अनुष्टुभ छन्द में दो श्लोक हैं। प्रथम श्लोक में भूपति उदयादित्य द्वारा उदयपुर नगर को अपने नाम पर बसाने और वहां पर एक झील के बनवाने का वर्णन है। दूसरे श्लोक में इसी नरेश की प्रशंसा है। यहां पर नरेश के वंश का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, परन्तु इसमें कोई शंका नहीं है कि वह परमार राजवंशीय इसी नाम का विख्यात नरेश है। इससे आगे श्लोकों के उत्कीर्णकर्ता का नाम है जो आंशिक रूप में टूट गया है। परन्तु अभिलेख 'ब' के आधार पर इसका नाम स्थिरदेव निश्चित किया जा सकता है। वह सूत्रधार मधुसूदन का भाई था। अभिलेख का अन्त 'मंगलं महाश्रीः' से होता है। ऊपर कहा जा चुका है कि प्रस्तुत अभिलेख एवं अभिलेख क्रमांक २४ के नीचे अभिलेख क्रमांक 'ब' उत्कीर्ण है जो दोनों से संबद्ध प्रतीत होता है। इसमें दो पंक्तियों में केवल एक श्लोक है। इसमें लिखा हुआ है कि उपरोक्त सभी श्लोक पंडित महीपाल द्वारा रचे गये थे एवं स्थिरदेव द्वारा उत्कीर्ण किये गये थे। परन्तु तीनों अभिलेखों का एक साथ अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि ये महीपाल द्वारा रचे गये थे जिसको अभिलेख क्रमांक 'ब' में पंडित कहा गया है और अभिलेख क्रमांक २४ में शृंगवास का पुत्र लिखा है। इसी प्रकार उत्कीर्णकर्ता का नाम अभिलेख क्रमांक
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परमार अभिलेख
२४ में लुप्त है, अभिलेख क्रमांक 'अ' में टूट गया है, परन्तु अभिलेक क्रमांक ब में साफ पड़ने में आता है।
तीनों अभिलेखों के एक साथ अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नरेश उदयादित्य ने अपने नाम पर उदयपुर नगर की स्थापना की, वहां एक झील और सुविख्यात शिव मंदिर के निर्माण करवाये।
मूलपाठ (क्रमांक अ) स्वयंभूरपरः श्रीमानुदयादित्य भूपतिः[1] पुरेस्व (श्व) रे समुद्रादीनुदयोपपदा-धात् ॥१॥] किमन्यव (ब) हुभिर्वीरैः किमन्यैर्व (ब) हुभिःस्त
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एकच्छे दादिकं वेदं शंस सर्वा
र्थ सिद्धिदः3॥२॥] . उत्कीर्णाः श्लोकाः ६. सूत्रधार श्री मधुसूदन भ्रातृ श्री ..... ७. देवेन । मंगलम्महाश्रीः ।।
(क्रमांक ब) १. एते श्लोकाः समुत्कीर्णाः [स्थि]रदेवेन -~-६ (1) २. पंडित श्री महीपाल कृताः-~~-~- (॥)
अनुवाद (क्रमांक अ) श्रीमान उदयादित्य नरेश मानो दूसरा ब्रह्मदेव ही है (जिसने) स्वयं के नगर में झील आदि उदयपद से निर्मित किया (?) ॥१॥ ____ अन्य बहुत वीरों से क्या प्रयोजन, अन्य बहुत सी स्तुतियां करने से क्या प्रयोजन।
सर्वार्थ सिद्धि को देने वाले एकछत्र वेद का भी वर्णन किया गया है। ।।२।। ५. श्लोक उत्कीर्ण किये गये ६. सूत्रधार श्री मधुसूदन के भाई श्री. . . . . . ७. देव के द्वारा । महालक्ष्मी मंगलकारी हो ।
(क्रमांक ब) १. ये श्लोक स्थिर देव . . . . के द्वारा उत्कीर्ण किये गये। २. पंडित श्री महीपाल द्वारा रचे गये. . . . . .। १. दो अक्षरों का पाठ अनिश्चित है। २. संभवतः 'एकच्छता'। ३. संभवतः 'सिद्धिदम्'। ४. नीचे क्रमांक ब, पंक्ति १ के आधार पर यहां दो अक्षर संभवतः 'स्थिर' रहे होंगे। ५. यहां बहुवचन के प्रयोग से अभिलेख क्र. २४ व प्रस्तुत दोनों भागों के सभी श्लोकों से ... तात्पर्य रहा होगा, ऐसी संभावना है। ६. संभवतः 'धीमता'।
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कामेद अभिलेख
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(२७) कामेद से प्राप्त उदयादित्य कालीन प्रस्तरस्तम्भ अभिलेख
(संवत् ११४० =१०८३ ईस्वी)
प्रस्तुत अभिलेख एक छोटे प्रस्तर स्तम्भ पर उत्कीर्ण है, जो उज्जैन से उत्तर पूर्व की ओर उज्जैन-आगर मुख्य सड़क पर कामेद ग्राम में एक खेत में हल चलाते समय प्राप्त हुआ था। खेत के स्वामी ने पास ही एक पक्का चबूतरा बनवा कर इस पर इस स्तम्भ को स्थापित कर दिया और इस पर सिन्दूर पोत दिया । इस कारण बाद में इसको साफ कर जब छाप ली गई तो भी कुछ अक्षर प्रयत्न करने पर भी साफ नहीं आ पाये । परन्तु जो प्राप्त है सो अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
स्तम्भ की ऊंचाई ९२.५ सेंटीमीटर है। इसमें निचले भाग पर अभिलेख खुदा हुआ है। अभिलेख के ऊपर वाले भाग में हाथ जोड़े गरुड़ की आकृति खुदी हुई है। यह परमार राजवंश का राजचिन्ह है।
अभिलेख ८ पंक्तियों का है । इसका क्षेत्र ४८४ ३२.५ सेंटीमीटर है । प्रत्येक पंक्ति में प्रायः १६ से १९ अक्षर हैं। परन्तु अंतिम पंक्ति केवल ७ सें. मी. लम्बी है। इसमें तिथि के अंक खुदे हुए हैं। खोदे हुए अक्षरों का आकार एक समान नहीं है। प्रथम दो पंक्तियों के अक्षरों की लम्बाई प्रायः .५ सें. मी. है। शेष पंक्तियों के अक्षरों की लम्बाई .३ सें. मी. है। अक्षरों की बनावट भद्दी है और वे लापरवाही से उत्कीर्ण किये गये हैं । अक्षरों की बनावट ग्यारहवीं शताब्दी की नागरी है। भाषा संस्कृत है व सारा अभिलेख गद्यमय है। शब्द विन्यास की दृष्टि से इसमें कोई विशेषता नहीं है।
अभिलेख की तिथि संवत् ११४० है। इसमें अन्य विवरण नहीं है । यह सन् १०८३ ईस्वी के बराबर है। इसका प्रमुख ध्येय उदयादित्य के शासन काल में उसके दूसरे पुत्र नरवर्मदेव द्वारा राढ़घटिका ग्राम में १२ हल भूमि दान करने का उल्लेख करना है, जिसकी आय से लक्ष्मदेव के लिये अक्षय-दीपिका जलाने का प्रबंध किया गया था।
पंक्ति क्र. १-४ में उज्जयिनी के समीप धवली ग्राम में ठहरे श्री उदयादित्य देव का उल्लेख है जिसके नाम के साथ पूर्णतः राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं। पंक्ति ४-५ में उसके पुत्र लक्ष्मदेव के लिये अक्षयदीप जलाने का उल्लेख है । आगे दूसरे पुत्र नरवर्मदेव द्वारा रायटिका ग्राम में १२ हल खेती योग्य भूमि जल हाथ में लेकर प्रदान करने का उल्लेख है। यह दान किसको दिया गया सो उल्लेख नहीं है। संभव है कि भूमि ग्राम पंचायत को ही सौंप दी गई हो जिसको अक्षयदीप सदा जलाये रखने का कार्य सौंपा होगा।
प्रस्तुत अभिलेख ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। यह अभिलेख उदयादित्य के इससे पूर्व के अभिलेख के तीन वर्ष के भीतर ही निस्सृत किया गया था। इससे पूर्वकालीन अभिलेख संवत् ११३७ तदनुसार १०८० ई. (क्र. २४) का है। इसके अतिरिक्त इसका संबंध उज्जैन के आसपास के क्षेत्र से है जो प्रस्तुत अभिलेख के समय परमार साम्राज्य के अन्तर्गत था। अतएव यह निर्विरोध रूप से कहा जा सकता है कि इसमें उल्लिखित उदयादित्य वास्तव में परमार राजवंशीय प्रख्यात नरेश ही है। इसकी उपरोक्त राजकीय उपाधियां, जो इसके शेरगढ़ अभिलेख (क्र. २९) में भी प्राप्त होती हैं व जिसमें इसको परमार राजवंश से संबद्ध किया हुआ है, उक्त तथ्य की ही पुष्टि करती हैं। पुनः अभिलेख के ऊपर प्रारम्भ में हाथ जोड़े गरुड़ की आकृति
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परमार अभिलेख
भी अभिलेख के परमार राजवंशीय होने की ओर इंगित करती है। फिर उत्तरकालीन परमार राजवंशावली से ज्ञात होता है कि उदयादित्य के लक्ष्मदेव और नरवर्मन नामक पुत्र थे (अभिलेख क्र. ३६)। अतः प्रस्तुत अभिलेख में यद्यपि उदयादित्य के वंश अथवा वंशावली का कोई उल्लेख नहीं है, फिर भी उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर इसको परमार राजवंशीय नरेश मानने में कोई कठिनाई नहीं है।
अभिलेख के प्रमुख ध्येय का विवरण विशेष महत्व लिए हुए है। इसके अनुसार 'अक्षय दीपिकायें अर्थात् सदा जलते रहने वाले दीपक के हेतु दान दिया गया था। यह वास्तव में 'अक्षयलोक दीपिकायें' का ही छोटा रूप है जिसका भाव है 'ऐसा दीपक जो स्वर्ग में सदा शांति प्रदान करे'। इसको इस संदर्भ में लेने पर अभिलेख की ऐतिहासिकता उजागर होती है। अभिलेख के निस्सृत करने के कुछ समय पूर्व ही लक्ष्मदेव की मृत्यु हुई थी। नरवर्मन को अपने बड़े भाई से अत्याधिक अनुराग था जैसा हमें उसके नागपुर अभिलेख (क्र. ३६) से भी ज्ञात होता है। वह प्रशस्ति स्वयं नरवर्मन द्वारा रची गई थी और उसमें उसके भाई लक्ष्मदेव की प्रशंसा में सर्वाधिक १९ श्लोक (क्र. ३५-५४) लिखे मिलते हैं।
लक्ष्मदेव की मृत्यु किन परिस्थितियों में हुई थी सो प्रस्तुत अभिलेख से ज्ञात नहीं होता। न ही उसकी मृत्यु की निश्चित तिथि ज्ञात होती है। परन्तु यह विचारणीय है कि नागपुर प्रशस्ति (क्र. ३६) में जहां वैरिसिंह से लेकर लक्ष्मदेव तक परमार राजवंशावली दी हुई है। प्रत्येक नरेश के नाम के साथ क्षितिपति, भूपति, नृप आदि उपाधि लगी हुई है। परन्तु लक्ष्मदेव के नाम के साथ इस प्रकार की कोई उपाधि नहीं है, यद्यपि इसको 'सम्यक प्रजापालन व्यापार प्रवणः अर्थात् सम्यक रूप से प्रजा पालन में दक्ष' लिखा है (श्लोक क्र. ३५)। इससे अनुमान होता है कि वह कभी भी धारा के राजकीय सिंहासन पर आरूढ़ नहीं हुआ। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि संभवतः वह परमार साम्राज्य के पूर्वी भाग में अपने पिता उदयादित्य के शासनकाल में एक प्रांतपति के रूप में शासन सूत्र संभाले हुए था, क्योंकि नागपुर अभिलेख में उसके द्वारा इसी भूभाग में दान देने का विवरण भी है (श्लोक क्र. ५५)।
अभिलेख में वर्णित केवल दो ही भौगोलिक स्थानों का उल्लेख प्राप्त होता है। इनमें प्रथम धवली है जहां पर उस समय उदयादित्य स्वयं ठहरा हआ था। इस स्थान का ता वर्तमान ढाबला ग्राम से किया जा सकता है जो उज्जैन से प्रायः २० कि. मी. उत्तर पूर्व की ओर स्थित है। दूसरा स्थल राढ़घटिका अथवा घटिका है जहां पर भूमि का दान किया गया था। यह स्थान ढाबला से ३ कि. मी. उत्तर-पश्चिम की ओर घटिया ग्राम ही है।
(मूलपाठ) १. स्वस्ति [1] श्रीमदुज्जयन्याः ---- २. -- --१ धवलीग्रामावस्थित परम३. भाट्टा]रक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री उद४. यादित (त्य) देव[:] [1] तदी[य] पुत्र [ल]क्षम (क्ष्म) देवस्य अक्षय ५. दीपिकार्थे राडघटी (टि) का-ग्राम (मे) क्षेत्रभूमिः ६. हलांक १२ प्रदत्ता इति द्वितीय ----- १. संभवतः 'समीपस्थ'। २. संभवतः पुत्रेन'
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झालरापाटन अभिलेख
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७. नरवर्मदेवेन उदकं प्रदत्तं (त्तम् )[]संवत् ८. ११४० [1]
(अनुवाद) १. स्वस्ति । श्रीयुक्त उज्जयिनी के (समीप) २. (स्थित) धवलीग्राम में ठहरे परम३. भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री ४. उदयादित्य देव । उसके पुत्र लक्ष्मदेव की (के लिये) अक्षय ५. दीप के हेतु राडघटिका ग्राम में खेती (योग्य) भूमि ६. १२ हल (नाप की) दी गई । दूसरे (पुत्र) ७. नरवर्मदेव के द्वारा जल (हाथ में लेकर) दी गई। संवत् ८. ११४० ।।
(२८) झालरापाटन का उदयादित्य कालीन प्रस्तर अभिलेख
(संवत ११४३=१०८६ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है जो प्रायः १९०० ई. में राजस्थान में झालरापाटन में सर्वसुखिया कोठी में मिला था। इसका प्रथम उल्लेख डी. आर. भण्डारकर ने प्रो. रि. आ. स. इं. वे. स., १९०५-६, पृष्ठ ५६, क्र. २०९४ में किया। वि. एन. शास्त्री ने इसका विवरण ज. ए. सो. बं., न्य सीरीज, १९१४, भाग १०, पष्ठ २४१ व आगे पर छापा। ए. रि. इं. ए., १९५२-५३, क्र. ४१९ पर इसका उल्लेख किया गया। वर्तमान में यह प्रस्तर खण्ड झालावाड़ संग्रहालय में सुरक्षित है।
अभिलेख १० पंक्ति का है जिसका आकार २० x १५ से. मी. है। पंक्ति ३, ४, ९ में अंतिम एक-एक अक्षर क्षतिग्रस्त हो गये हैं, शेष सारा ठीक स्थिति में है। पहली ७ पंक्तियों के अक्षर प्राय: १३ से. मी. हैं, शेष के अक्षर आधे लम्बे हैं । प्रथम सात पंक्तियों में प्रत्येक में प्रायः २० अक्षर हैं, पंक्ति क्र. ८-९ में ३० अक्षर एवं अंतिम पंक्ति में १० अक्षर हैं।
अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी है। भाषा संस्कृत है। सारा अभिलेख गद्य में है। व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से श के स्थान पर स का प्रयोग किया गया है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया है। वाक्य के अंत में म् के स्थान पर अनुस्वार है। कुछ अन्य त्रुटियां भी हैं जो पाठ में सुधार दी गई हैं।
अभिलेख की तिथि शुरु में संवत् ११४३ वैशाख सुदि १० है। यह रविवार, २६ अप्रेल १०८६ ई. के बराबर बैठती है। प्रमुख ध्येय उदयादित्य के शासनकाल में पटेल जन्नक द्वारा
मंदिर व बावड़ी बनवाने का उल्लेख करना और श्री लोलिगस्वामी देव के लिए कुछ दानों का उल्लेख करना है।
__पंक्ति क्र. २ में श्रीमान् उदयादित्य देव के कल्याणकारी विजययुक्त राज्य का उल्लेख है। पंक्ति क्र. ३ में तैलिक वंश में उत्पन्न पटेल चाहिल के पुत्र पटेल जन्नक का नाम है जिसने
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परमार अभिलेख
पंक्ति क्र. ४ के अनुसार शिव के एक मंदिर का निर्माण करवाया था। यहां 'इदं' शब्द से यह अनुमान होता है कि प्रस्तुत अभिलेख इसी मंदिर में लगा हुआ था । परन्तु यह निश्चित करना सरल नहीं है कि यह मंदिर कहां पर बनवाया गया था । आगे पंक्ति क्र. ५ में उसी के द्वारा एक बावडी के बनवाने का उल्लेख है सो चिरिहिल्लतल में चाडाघौषा कपिका और व्रवासक के बीच में स्थित थी। फिर पंक्ति क्र. ७-९ में उसी के द्वारा लोलिगस्वामी देव, जिसको दानकर्ता की माता प्रणाम करती है, के लिये श्री सेंधवदेव पर्व पर चार पल्ली दीपते मोदक प्रतिवर्ष खरीद कर देने का उल्लेख है। इससे पूर्व पंक्ति क्र.६ में प्रस्तुत अभिलेख के उत्कीर्णकर्ता का उल्लेख है जो पंडित हर्षुक था। अंतिम पंक्ति क्र. १० में महालक्ष्मी के मंगलकारी होने की कामना है। मंगल के प्रारम्भ में 'छ' अक्षर और बाद में ९ अंक के समान एक चिन्ह है जिनका अभिप्राय अनिश्चित है।
अभिलेख का महत्व इस तथ्य में है कि शिवमंदिर का निर्माण व अभिलेख की स्थापना उस समय हुई जब उदयादित्य का राज्य शासन चालू था। परन्तु यहां उदयादित्य के नाम के साथ न तो राजकीय उपाधियां हैं एवं न ही कोई सम्मानसूचक राजकीय चिन्ह है। इसके अतिरिक्त उसके वंश अथवा वंशावली का भी कोई उल्लेख नहीं किया गया है। यहाँ एक सामान्य नागरिक द्वारा मंदिर बनवाने का उल्लेख करने हेतु मंदिर में लगवाया गया पट्ट ही है। अतः शासनकर्ता नरेश का इसमें उपरोक्त विवरण न होना कोई अचम्भे की बात नहीं है। वास्तव में यह विश्वास करने को अनेक कारण हैं कि वह उदयादित्य ही था जो परमार राजवंशीय राजधानी धारा नगरी से शासन कर रहा था। प्रस्तुत अभिलेख के आसपास के वर्षों में उदयादित्य के अनेक अभिलेख प्राप्त होते हैं। उदाहरणर्थ उसका संवत् ११३७ का उदयपुर प्रस्तर अभिलेख (क्र. २४) इससे केवल ६ वर्ष पूर्व ही निस्सृत किया गया था। उसका शेरगढ़ अभिलेख (क्र. २९), जिसकी तिथि आंशिक रूप में टूट गई है, प्रायः लेखनकला की समानता के आधार पर उसी समय के आसपास ही निस्सृत किया गया प्रतीत होता है। प्रस्तुत प्रस्तर खण्ड, जो झालरापाटन में है, कहीं बहुत दूर से वहां पर नहीं लाया गया था। झालरापाटन वर्तमान में शेरगढ़ से दक्षिण पश्चिम की ओर केवल २५ मील की दूरी पर है। जबकि शेरगढ़ अभिलेख (क्र. २९) में उल्लिखित चच्छरोणी (आधनिक चचोनी) से उत्तर पश्चिम की ओर प्रायः २० मील की दूरी पर और विदिशा जिले में उदयपुर से उत्तर-पश्चिम की ओर प्रायः १५० मील है। अतः स्वीकार करना चाहिए कि उदयादित्य का साम्राज्य उत्तर में कोटा व झालरापाटन एवं उत्तर-पूर्व में विदिशा जिलों तक विस्तृत था।
अभिलेख में वर्णित भौगोलिक स्थानों में चिरिहिल्ल (पंक्ति ४) वर्तमान में झालरापाटन से दक्षिण पूर्व की ओर ५० मील की दूरी पर चिरेलिया नाम से विद्यमान है। घोषकपिका संभवत: घटोला ग्राम ही है जो झालरापाटन से दक्षिण-पूर्व की ओर २५ मील और चिरेलिया से दक्षिण-पश्चिम की ओर ८ मील की दूरी पर स्थित है। वरुवासक के बारे में निश्चित रूप से कहना कठिन है परन्तु यह संभवतः वसूली ग्राम हो सकता है जो घटोला से उत्तर की ओर प्रायः ६ मील की दूरी पर स्थित है। ये सभी स्थल झालावाड़ जिले के अन्तर्गत अकलेरा तहसील में हैं और शेरगढ़, जहां से उदयादित्य का अन्य अभिलेख (क्र. २७) प्राप्त हुआ है, से प्राय: २७-२८ मील दक्षिण की ओर स्थित हैं। अत: यह संभव है कि प्रस्तुत अभिलेख का प्रस्तर खण्ड उपरोक्त किसी स्थान से प्राप्त हुआ हो ।
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शेरगढ़ अभिलेख
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(मूलपाठ) १. ओं नमः शिवाय । संवत् ११४३ वैसा (शा)खा शुदि १० अ२. येह श्रीमदुदयादित्यदेव कल्याण विजयराज्ये । तै३. लिकान्वए (ये) पटू(ट्ट) किल चाहिलसुत पटू (ट्ट)किल जन्न[के]४. न शंभोः प्रासादमिदं (दोऽयं )कारितं (तः) । तथा चिरिहिल्लतले चा५. डाघोषाकूपिकावुवासकयोः अन्तराले वापी च। ६. उत्कीर्णेयं प (पं)डित हर्षकेने (णे)ति । जानासत्का७. ता धाइणिः प्रणमति । श्री लोलिगस्वामिदेवस्स (स्य) केरि (कृते) ८. तैल (लि) कान्वय पटू (ट्ट) किल चाहिल सुत पटू (ट्ट)किल जनकेन । श्री सेंधवदेव पर९. व (पव) निमित्यं (तं) दीपतैल्य (तैल) चतुः पलमेकं मु (मो) दकं क्रीत्वा तथा वरिषं (वर्ष) प्रति
स[]विज्ञा१०. प्तं ॥छ।। मंगलं महाश्री ॥९
(अनुवाद) १. ओं। शिव को नमस्कार । संवत् ११४३ वैशाख सुदि १० को २. आज श्रीमान् उदयादित्य देव के कल्याणकारी विजय (युक्त) राज्य में।। ३. तैलिक वंश में पटेल चाहिल सुत पटेल जन्नक के ४. द्वारा (भगवान) शंभु का यह मंदिर बनवाया गया तथा चिरिहिल्लतल में ५. चाडाघौषा कूपिका और वुवासक के बीच एक वापी (बावड़ी) बनवाई गई। ६. यह पंडित हर्षुक के द्वारा उत्कीर्ण करवाया गया । जन्नक की माता (?) ७. प्रणाम करती है। श्री लोलिगस्वामी देव के लिए ८. तैलिक वंश का पटेल चाहिलसुत पटेल जनक के द्वारा श्री सेंधवदेव पर्व ९. पर चार पली दीपतेल तथा एक मोदक खरीद कर प्रतिवर्ष दिया जावेगा। १०. छः । मंगल व श्रीवृद्धि हो । ९ (?)
(२९) शेरगढ़ का उदयादित्य का प्रस्तरखण्ड अभिलेख .
(तिथि खण्डित)
प्रस्तुत अभिलेख राजस्थान के कोटा जिले में अत्रु तालुका के अन्तर्गत शेरगढ़ नामक स्थान से प्राप्त हुआ। शेरगढ़ पत्थर के परकोटे से घिरा एक ध्वस्त नगर है । शेरशाह सूरि (१५४०४५ ई.) ने इस पर अधिकार कर इसको अपने नाम पर बदल डाला। परन्तु प्रस्तुत अभिलेख में इसका नाम 'कोषवर्द्धन' लिखा मिलता है। अभिलेख वहां लक्ष्मीनारायण मंदिर में एक स्तम्भ में लगे प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है। प्रस्तरखण्ड किसी अन्य मंदिर से लाकर यहां लगाया गया है।
अभिलेख का सम्पादन डा. अनन्त सदाशिव अल्तेकर ने एपि. इं., भाग २३, १९३५-३६, पृष्ठ १३१-४१ पर किया। इसका कुछ अन्य स्थलों पर भी उल्लेख किया गया । प्रस्तरखण्ड की हालत अच्छी है। अभिलेख सुन्दर ढंग से उत्कीर्ण है। इसका आकार ७०४ ६४ सें. मी. है ।
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परमार अभिलेख
वर्तमान में यह दो स्थानों से क्षतिग्रस्त है । शुरू की १२ पंक्तियों का कुछ अंतिम भाग एवं अभिलेख का अंतिम भाग टूट गया है। परन्तु इसमें से अधिक भाग अन्य अभिलेखों की सहायता से पूरा किया जा सकता है।
अभिलेख २४ पंक्तियों का है। प्रत्येक पंक्ति में प्रायः ३८ अक्षर हैं। अक्षरों की बनावट सुन्दर है और वे गहरे खुदे हैं। बनावट में ये अक्षर ११वीं सदी की नागरी लिपि में हैं। भाषा संस्कत है व गद्यपद्यमय है। इसमें आठ श्लोक हैं.परन्त अंतिम श्लोक अधरा है। शेष अभिलेख गद्य में हैं । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, म् के स्थान पर अनस्वार का प्रयोग सामान्य रूप से किया गया है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया
कहीं पर संधि नहीं की गई है। एकाध स्थान पर अनावश्यक रूप से दण्ड लगा दिए गए हैं।
____ अभिलेख की तिथि पंक्ति क्र. ९-१० में शब्दों में लिखी है। परन्तु वहां वर्षों की संख्या भग्न हो गई है जो अत्यन्त खटकता है। तिथि का पाठ इस इकार है--". . . . . . अधिक ग्यारह सौ संवत्सर में चैत्र सुदि चतुर्दशी को दमनक पर्व पर।" वैसे नरेश उदयादित्य के शासनकाल की तिथियां अन्य आधारों पर ज्ञात हैं। कौस्तुभ स्मृति (पृष्ठ १९-२३) के अनुसार दमनक पर्व वसन्त ऋतु में मनाया जाता है। हेमाद्रि व मदनरत्न के अनुसार दमनक पर्व चैत्र सुदि चतुर्दशी को मनाया जाता है। प्रस्तुत अभिलेख से भी इसकी पुष्टि होती है ।
अभिलेख का प्रमुख ध्येय पंक्ति ६ व आगे में वर्णित है। इसके अनुसार नरेश उदयादित्य के द्वारा कर्पासिका ग्राम में निवास करते हुए उपरोक्त तिथि को स्नान कर भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर चञ्चुरीणी मण्डल के अन्तर्गत--- द्रह १२ में कोषवर्द्धन दुर्ग में भगवान सोमनाथ देव के भोग के लिए विलपद्रक ग्राम के दान करने का उल्लेख करना है।
पंक्ति ३-६ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री वाक्पतिराज देव, सिंधुराज देव, भोज देव व उदयादित्य देव के उल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं । अंतिम दो नरेशों के संबंधों के बारे में स्थिति शंकास्पद है, जिसके बारे में पूर्ववणित अभिलेखों में विचार किया जा चुका है। यहां नरेशों के वंश का नामोल्लेख भी नहीं है।
ऊपर कहा जा चुका है कि ग्रामदान सोमनाथ के मंदिर के लिए दिया गया था, जो कोषवर्द्धन (शेरगढ़) के दुर्ग में स्थित था। वर्तमान में वह मंदिर शेष नहीं है। परन्तु शेरगढ़ से ही प्राप्त एक अन्य अभिलेख (एपि. इं., भाग २३, पृष्ठ १४१ व आगे) से ज्ञात होता है कि परमारकालीन सोमनाथ मंदिर आधुनिक लक्ष्मीनारायण मंदिर के पास स्थित है। संभव है कि सुल्तान शेरशाह सूरि के आक्रमण के समय विख्यात सोमनाथ मंदिर ध्वस्त कर दिया गया, तथा
न लक्ष्मीनारायण मंदिर छोड़ दिया गया। बाद में जनता ने सोमनाथदेव की मूर्ति पास के मंदिर में स्थापित कर दी। वर्तमान में लक्ष्मीनारायण मंदिर के एक कोने में बने मंडप में शिवलिंग स्थापित है जिसको सोमनाथ कहा जाता है।
भौगेलिक स्थानों में चञ्चुरीणी संभवतः वर्तमान चाचुर्णी ग्राम है जो शेरगढ़ से २४ मील दूर पर्वान व निमाज नदियों के संगम पर स्थित है। विलापद्रक संभवतः विलण्डी है जो शेरगढ़ से दक्षिण की ओर ११ मील दूर है। अन्य संभावना यह है कि यह विलवारों ग्राम है, जो शेरगढ़ से पूर्व की ओर २५ मील दूर है।
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शेरगढ़ अभिलेख
१. ओं स्वस्ति । [ योभ्युदयश्च] ।
२.
३.
द्वलय पिङ्गलाः । । [ २ ]
परमभट्टारक- महाराजाधिराज - परमेश्वर श्री वाक्पतिराजदेव-पा[दानु]
४. ध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिन्धुराजदेव - पा[ दानुध्यात-पर] ५. म भट्टारक - महाराजाधिराज - परमेश्वर श्री भोजदेव - पादानुध्यात- परमभट्टारक-म]
१२.
१३.
( मूलपाठ )
[जयति] व्योमकेशोसौ [यः सग्गय विभर्ति ताम् । ऐ] न्दवी सि (शि) रसा लेखां जग
६. हाराजाधिराज - परमेश्वर - श्री उदयादित्य देव [ : ] कुशली । चञ्चुरीणीमंड [लान्तपाति ---]७. रद्रहद्वादशके श्री कोशवर्द्धन दुग्र्गीय श्री सोमनाथदेव [भु]क्तेरनु...
८. विलापद्रकग्रामे समुपगतान् समस्तराजपुरुषान् व्रा (ब्रा) ह्मणोतरान् प्रति [ निवासिपट्टकिल- ज ] - ९. न-पदादींश्च वो (बो) धयत्यस्तु वः संविदितं । यथा कर्पासिका - ग्रामावस्थितैरस्मा [भिधि]१०. कशतैकादशकसंवत्सरे चैत्र सुदि चतुर्द्दश्यां दमनकपर्व्वणि स्नात्वा चराचरगु[रुं भगवन्तं भ]११. वानीपति समभ्यच्चर्य संसारस्यासारतां दृष्ट्वा । तथाहि ।
वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिप [त्य मापात ] -
[द्वी]जां कुराकृतिम् ।।[१]
२१.
तन्वतु (न्तु ) वः स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः । कल्पान्त समयोद्दाम [तडि]
२२.
मातमधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्तृणाग्रजलवि (बि) न्दुसमा नराणां धर्म्मः सखा परम [ हो पर ] - लोक याने ||[३||]
१४. इति जगतो विनश्वरं स्वरूपमाकलय्या-दृष्टफलमंगी - कृत्य चन्द्राक्कार्णव-क्षितिसमकालं-या१५. वत्परया भक्त्या श्री कोशवर्द्धनदुर्गीय श्री सोमनाथ देवायैवोपरिलिखित ग्राम: स (स्व) सीमातृणयू१६. ति गोचरपर्यन्तः सवृक्षमालाकुल: सहिरण्यभागभोगोपरिकर सर्व्वादायसमेतश्च मातृ ( ता ) -
भ्रमत्संसार-चक्राग्रधाराधारामिमां श्रियं ( यम् ) ।
प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चात्तापः परं फलं (लम् ) ||[४]
पित्रोरात्म
१७. नश्च पुण्ययशोभिवृद्वये । शासनेनोदकपूर्व्वकतया प्रदत्त इति । तन्मत्वा तन्निवासिजनपदैर्यथा [ प्र]१८. दीयमान भागभोगकर हिरण्यादिकं देवव्रा (ब्राह्मणभुक्ति वर्ज्यमाज्ञाश्रवणविधेयैर्भूत्वा सर्व्वममुष्मै १९. समुपनेतव्यं । सामान्यं चैतत्पुण्यफलं वु (बु) द्ध्वा अस्मद्वंशजैरण्यै ( न्य) रपि भावि - भोक्तृभिरस्मत्प्रदत्तधर्म्मा (र्म्म) -
२०. दायोयमनुमंतव्यः पालनीयश्च । उक्तं च ।
१३७
(ब) हुमिर्व्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः ।
यस्य य
स्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम् ) । । [ ५।। ] यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रद्दनानि धर्म्मार्थयशस्कराणि । नि
मलयवान्ति प्रतिमानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत || [ ६ ॥ ॥]
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१३८
२३.
२४.
अस्मल्कुलक्रममुदारमुदाहरद्भि - रण्यै ( न्यै ) -
श्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं ( यम् ) । लक्ष्म्यास्तद्विलयवुदु (बुद्बु) दचंचलाया दानं फलं परयशः परिपाल
सव्र्व्वानेतान् भाविनः पार्थिवेन्द्रान् भूयो भूयो याचते रामभद्रः । सामान्योयं धर्म्मसेतुर्नृ
( अनवाद)
११.
परमार अभिलेख
नं च । । [ ७॥ ]
१. ओं । स्वस्ति । जय व अभ्युदय हो ।
जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, आकाश ही जिसके केश हैं, ऐसे शिव की जय हो || १ ||
प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिव की जटायें तुम्हारा सदा कल्याण करें || २ ||
३. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वाक्पतिराज देव के
४. पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिंधुराज देव के पादानुध्यायी ५. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक
६. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री उदयादित्य देव कुशल युक्त होकर चञ्चुरीणी मंडल के अन्तर्गत...
11[5]11
७. -- रद्रहद्वादशक में श्री कोशवर्द्धन दुर्ग में श्री सोमनाथ देव के भोग के लिए
८.
विलापक ग्राम में आये हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के निवासियों, पटेलों और ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं--आप को विदित हो कि कर्पासिका ग्राम में ठहरे हुए हमारे
९.
द्वारा...
१०. अधिक ग्यारह सौ संवत्सर में चैत्रसुदि चतुर्दशी को दमनक पर्व पर स्नान कर, चर व अचर के स्वामी भगवान
भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर संसार की असारता देखकर, तथा-
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ||३||
घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धारा ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥
१४. इस जगत का विनश्वर स्वरूप समझ कर अदृष्टफल को स्वीकार कर चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी
के रहते तक
१५. परम भक्ति के साथ श्री कोशवर्द्धन दुर्ग में श्री सोमनाथ देव के लिए ऊपर लिखा ग्राम अपनी सीमा तृण भूमि
१६. गोचर तक साथ में वृक्षों की पंक्तियां सहित, साथ में हिरण्य भाग भोग उपरिकर और सब प्रकार की आय सहित, माता पिता व स्वयं
१७.
के पुण्य व यश की वृद्धि के हेतु राजाज्ञा द्वारा जल हाथ में लेकर दान दिया है। उसको मान कर आसपास के निवासियों व ग्रामीणों के द्वारा
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उज्जैन अभिलेख
१३९
१८. जैसा दिये जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि, देव ब्राह्मण द्वारा भोगे जा रहे को छोड़ कर,
आज्ञा सुन कर सभी उस के लिये १९. देते रहना चाहिये । और इसका समान रूप पुण्यफल जान कर हमारे व अन्य वंशों में उत्पन्न
होने वाले भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये जाने वाले इस २०. धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये। और कहा गया है
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है, तब २ उसी को उसका फल मिला है ।।५।।
यहां पूर्व के नरेशों ने धर्म व यश हेतू जो दान दिये हैं, वे त्याज्य एवं कै के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ॥६॥
हमारे उदार कुलक्रम को उदाहरण रूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये, क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है।।७।।
सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार २ याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिए समान रूप धर्म का सेतु है ---- ॥८॥
(३०)
उज्जैन का उदयादित्य कालीन महाकाल मंदिर नागबंध प्रस्तरखण्ड अभिलेख
(तिथि रहित)
प्रस्तुत अभिलेख उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर में उत्कीर्ण है। इसका प्रथम उल्लेख प्रो. रि. आ. स. वे. स., जून १९०४, पृष्ठ १६ पर किया गया । फिर ज. ब. बा. रा. ए. सो., भाग २१, पृष्ठ ३५० पर उल्लेख किया गया। इसके बाद भी समय समय पर इसके उल्लेख हुए। के. एन. शास्त्री ने एपि. इं., भाग ३१, पृष्ठ २५-३० पर विवरण छापा ।
वर्तमान में यह दो भागों में प्राप्त है। प्रथम भाग महाकालेश्वर मंदिर की ऊपरी मंज़िल में एक भित्ती में लगे प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है। इसमें ३६ पंक्तियां खुदी हैं जो बहुत पासपास हैं। दूसरा भाग निचली मंजिल में एक छत्री में लगे प्रस्तर खण्ड पर खुदा है। इसमें ३८ पंक्तियां हैं। यहां कुछ भाग में अभिलेख है। शेष में वर्णमाला है।
प्रथम प्रस्तर खण्ड का आकार ५५४४४ सें. मी. है। परन्तु इस पर उत्कीर्ण लेख बहुत जर्जर है। उसको पढ़ना कठिन है। द्वितीय प्रस्तर खण्ड पर वर्णमाला को छोड़ कर उत्कीर्ण लेख का आकार ४४४३६ सें. मी. है। यह अच्छी हालत में है। परन्तु इसका कुछ पत्थर टूट गया है।
__ अक्षरों की बनावट ११वीं-१२वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर प्रायः सुन्दर ढंग से बने हैं। भाषा संस्कत है। नागबंध को छोड कर सारा अभिलेख पद्यमय है। श्लोकों में क्रमांक दिये गये हैं। ये श्लोक क्रमांक ७९ से ८७ तक हैं। श्लोकों के अध्ययन से जान पड़ता है कि इनका रचयिता पदरचना में प्रवीण था। उसकी कल्पनाशक्ति भी अत्यन्त प्रखर थी।
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग सामान्य रूप से किया गया है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है। कुछ अन्य त्रुटियां भी हैं जिनको पाठ में ठीक कर दिया गया है।
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१४०
परमार अभिलेख
अभिलेख में तिथि का अभाव है। यह संभव है कि टूटे हुए भाग में उल्लेख रहा हो । श्लोक ८५-८७ में उदयादित्य व नरवर्मन के उल्लेख हैं । उदयादित्य का शासनकाल १०९३-९४ ईस्वी में समाप्त हुआ था। उसका उत्तराधिकारी नरवर्मन था। इस प्रकार इसकी तिथि ११वीं सदी के अंतिम दशक में निश्चित की जा सकती है।
प्रमुख ध्येय अनिश्चित है। संभवतः इसका उद्देश्य उज्जयिनी में शिव मंदिर के निर्माण अथवा पुनर्निर्माण का उल्लेख करना रहा हो। श्लोक ७९-८४ में भगवान शिव की प्रशंसा से यह निश्चित
कि प्रशस्ति महाकाल को समर्पित हैं। पुराणों के अनुसार (शिव पुराण, भाग ४, अध्याय १, श्लोक २१-२३) द्वादश ज्योतिलिंगों में महाकाल सम्मिलित हैं। महाकाल मंदिर पूर्व काल से विद्यमान था। इस प्रकार उदयादित्य व नरवर्मन ने उसका पुनर्निर्माण किया होगा।
अभिलेख के प्रथम खण्ड में १९ श्लोक हैं। इनमें से प्रथम १६ श्लोकों में शिव की स्तुति एवं अर्बुद पर्वत का वर्णन है । इसके पश्चात् मुनि वसिष्ठ द्वारा यज्ञ करने एवं विश्वामित्र द्वारा उसकी सुरभि गाय के अपहरण का उल्लेख है । इस अंश में कवि ने दृष्टान्त, उपमा एवं कविता की विशिष्टताओं का उपयोग किया है जिनसे काव्य में सरसता आती है। श्लोक २० से ७८ तक का भाग जर्जर हो गया है। संभवतः इसमें परमार वंश की उत्पत्ति तथा वंशावली का उल्लेख रहा होगा। इसके कुछ अंश उदयपुर प्रशस्ति (क्रमांक २२) से मिलते हैं। वंशावली का विवरण नरवर्मन तक होने की संभावना है।
नीचे दिया गया मूल पाठ श्लोक ७९ से प्रारम्भ होता है। इसमें शिव की स्तुति है। श्लोक ८०-८१ में भी शिव की स्तुति है । श्लोक ८२ में योग की महिमा दर्शायी गई है। श्लोक ८३ में ओंकार रूपी विष्णु के विराट स्वरूप की स्तुति है। श्लोक ८४ में पुनः शिवस्तुति है। ये श्लोक १७ पंक्तियों में हैं।
पंक्ति १८-१९ में संस्कृत वर्णमाला के अक्षर उनकी श्रेणी के क्रम से खुदे हैं। प्रत्येक श्रेणी के अन्त में उनकी संख्या दी हुई है। इनका जोड़ ५१ दिया है। पंक्ति १८ में १४ स्वर तथा ४ अयागवाह हैं। पंक्ति १९ में २५ स्पर्श, ४ अन्तस्थ तथा ४ ऊष्म हैं। इस प्रकार कुल योग ५१ हैं । पंक्ति २० में आ से ल तक ५ दीर्घ स्वर हैं । पंक्ति २१-२२ में १४ माहेश्वर सूत्र हैं। इनकी कुल संख्या ४७ है। इसमें प्रत्येक सूत्र के अन्त में इत् व्यञ्जन छोड़ दिए गए हैं। ह केवल एक बार पंक्ति २२ के अन्त में दिया है। प्रत्येक अक्षर समह के अन्त में उनका योग दिया गया है।
प्रस्तुत वर्णबंध में संस्कृत वर्ण संख्या ५१ है । परन्तु पाणिनी के अनुसार यह संख्या ६३ या ६४ है। उसमें २१ स्वर, २२ स्पर्श, ४ अन्तस्थ, ४ ऊष्म, ४ यम, ४ अयोगवाह, दुहस्पृष्ट और प्लुत लकार हैं। अंतिम अनिवार्य रूप से नहीं हैं।
, वर्णमाला के बाद श्लोक ८५-८७ हैं। श्लोक ८५ के अनुसार उदयादित्यदेव की अक्षर रचित वर्णनाग-कृपाणिका कवियों व नरेशों के वक्षपट पर आभूषण रूप से सजाई जाती है। श्लोक ८६ में इसको असिपुत्रिका (खग) कहा गया है एवं उदयादित्य व नरवर्मन् दोनों के नामों से सम्बद्ध किया है। श्लोक ८७ में उदयादित्य की नामांकित वर्णनाग-कृपाणिका सुकविबंधु द्वारा रची गई।
'सुकविबंधुना' की व्याख्या आवश्यक है। यदि बंधु कवि था तो सुकवि उसकी उपाधि थी। इसके संबंध में एक विचार यह व्यक्त किया गया है कि जिस समय नरवर्मन अपने पिता उदयादित्य के शासनकाल में पूर्वी प्रदेश का प्रान्तपाल था तब यही बंधु नामक कवि उसका कृपापात्र रहा होगा। उसी ने प्रस्तुत वर्णनाग--कृपाणिका की रचना की। इसके विपरीत दूसरी संभावना व्यक्त की गई है कि 'सुकविबंधुना' (श्रेष्ठ कवियों का बंधु, मित्र अथवा आश्रयदाता) स्वयं नरवर्मन की उपाधि रही
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उज्जैन अभिलेख
१४१
हो। इस प्रकार वर्णनाग-कृपाणिका स्वयं उसी के द्वारा रची गई। नागपुर प्रशस्ति (क्रमांक ३६) के श्लोक ५६ के अनुसार नरवर्मन उस प्रशस्ति का रचयिता था। अतः संभव है कि प्रस्तुत अभिलेख का लेखक भी नरवर्मन रहा हो। उसने पितृभक्ति एवं आदर प्रदर्शन हेतु अपने पिता उदयादित्य के नाम पर उसको प्रचलित कर दिया। यह विचारणीय है कि श्लोक ८५ उज्जैन के साथ, धार व ऊन के नागबंधों में, श्लोक ८६ उज्जैन व धार तथा श्लोक ८७ केवल उज्जैन में ही प्राप्त हैं।
___ अभिलेख की पंक्ति १८-२८ के बराबर तथा नीचे में वर्णबंध उत्कीर्ण है। नाम के अनुरूप यह वर्णबंध एक नाग तथा खङ्ग का सम्मिश्रण है। नाग का मुख खड्ग के चौड़े हत्थे की आकृति से ज्ञात होता है। और उसका घुमावदार लम्बा शरीर खड्ग के पैने भाग से ज्ञात होता है जो नौ विभिन्न घुमावों के आधार पर छोटे छोटे चौकोर बनाता हुआ, अन्त में पूंछ के पास पतला नोकदार हो गया है। खड्ग के हत्थे वाले व कांटे वाले भाग में अ से लेकर औ तक १४ स्वर हैं। उसके नीचे वाले भाग में ह य व र ल व्यंजन हैं। फिर खड्ग के मध्यवर्ती भाग को घुमाओं के द्वारा समान आकार के २५ वर्गों में विभक्त कर दिया गया है जिनमें अपने अपने वर्गों के अनुसार क से लेकर म तक २५ स्पर्श हैं। इनके ठीक नीचे घुमावों के आधार पर बने त्रिकोणीय भाग की दाहिनी भुजा में ४ ऊष्म और इसके नीचे अयोगवाह, अर्थात् उपध्यानीय जिह्वामूलीय अनुस्वार व विसर्ग हैं। परन्तु इस त्रिकोण की बाईं भुजा के अक्षर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए हैं। फिर भी जो कुछ दिखाई देता है उसके एवं इसी प्रकार के धार में प्राप्त वर्णनाग-कृपाणिका के आधार पर इसमें संभवतःक्ष त्र ज्ञ और ओं हैं जिनसे आधुनिक देवनागरी अक्षर माला का अन्त होता है। वैसे एक अन्य संभावना यह भी है कि इसमें ४ यम रहे हों।
- खड्ग का अंतिम भाग, जो नाग की पूंछ के समान है, सीधा ऊपर उठ कर उसके बराबर ही नीचे की ओर बना हुआ है, इस प्रकार यह एक चिमटे के समान दाहिनी व वाम भुजाओं में विस्तृत हो गया है। इन दोनों भुजाओं को ३९ बराबर चौकोरों में विभाजित किया गया है । वाम भुजा में ऊपर से नीचे की ओर २१ चौकोरों में संज्ञा के सात रूपों तीनों वचनों में जैसे स औ अस् अम् औ अस् आदि का उल्लेख है। इसी प्रकार दाहिनी भुजा में ऊपर से नीचे की ओर १८ चौकोरों में क्रियाओं के उभयपद धातुओं जैसे ति तस् अन्ति, सि, थस् थ मि वस् मस्, ते इते अन्ति से इथे ध्वे आदि का उल्लेख है ।
प्रस्तुत वर्णनाग-कृपाणिका में यह महत्वपूर्ण तथ्य उजागर होता है कि इसमें उल्लिखित अक्षरमाला प्रायः पाणिनि की अष्टाध्यायी के १४ माहेश्वर सूत्रों पर आधारित है। इसीलिए ह का उल्लेख दो बार किया गया है--एक तो ४ अन्तस्थों के प्रारम्भ में और दूसरी बार ४ ऊष्मों के साथ अन्त में । यदि ऊपर से नीचे को पढ़ा जावे तो इसमें २५ स्पर्श भी मिलते हैं जो यद्यपि पूर्णतः सूत्रों के अनुसार उसी क्रम में नहीं हैं तथापि अपने स्थानों व प्रत्ययों की दृष्टि से प्रायः उसी क्रम में हैं। इस प्रकार संक्षेप में १४ माहेश्वर सूत्र, ३९ सुप् व तिण् प्रत्ययों सहित संस्कृत व्याकरण के प्रारम्भिक प्रमुख सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है जो इस हेतु अनिवार्य माने जाते हैं। पुनः शब्दशास्त्र का पूर्ण ज्ञान, जो व्याकरण के समकक्ष ही हैं, इसके समुचित अध्ययन के लिए अनिवार्य है का भी बोध करवाता है । इस दृष्टि से प्रस्तुत नागबंध सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य व उस पर आधारित ज्ञात हेतु ही रचा गया है। एक पौराणिक कथा के अनुसार सम्पूर्ण साहित्य व दर्शन के निर्माता स्वयं महेश्वर हैं । सृष्टि निर्माण के प्रारम्भ में स्वयं महेश्वर ने ही सनक सनन्दन आदि चार ऋषियों को चौदह सूत्र सिखलाए थे । ये १४ सूत्र समस्त ज्ञान व शब्द ब्रह्म के स्रोत हैं, इसी कारण इनको माहेश्वर सूत्र कहा जाता है। प्रस्तुत अभिलेख के लेखक द्वारा वर्ण शब्द का प्रयोग संभवतः दोहरे अर्थ में किया गया है-कवियों के लिए तो इसका प्रयोग किया ही गया होगा, साथ ही समस्त ज्ञान का भी इससे बोध होता होगा।
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१४२
परमार अभिलेख
ज्योतिल्लिङ्ग
(मूल पाठ) (श्लोक ७९-८४ शार्दूलविक्रीडित; ८५-८७ अनुष्टुभ) --- नन्द्रसदृशशक्तिरशनारम्यं वियद्वेदिकं
"मनादिसिद्धनिवि (बि) डध्यानप्रसूनाच्चितम् । नासाग्राप्पितचक्षुष[:]
कतिपय पश्यंति यद्योगिनस्तद्भूयादणिमादि दिव्यफल
दं रुपं सतां [शाम्भवम्] ॥७९।। नित्यं व्यापकमेकमज्ज्वलजलं ज्योति: स्फुरद्रत्नवद्योगोन्मीलितमीलितेक्षणपुटा: पस्य (श्य)न्ति पातंजलाः । सांद्रयॊमकदम्ब (म्ब)-~
कुसुमैरच्यचितं चिन्तितं तद्भूयादपुनर्ह (भ)वाय परमं रूपं सतां शाम्भवम् ।।८०॥ [नाम्भः]
क्लेदयति प्रकम्पयति न व (ब्रह्माण्डहर्ता मरुनाग्निः प्लुष्यति नावृणोति [च नभः] -
___क्षोणी (णी) न चाकामति । योगाभ्यासवसा (शा) द्विमुक्त विषयां (या)सङ्गान्यदन्तम्विनिल्लीना
न्त[:] करणां (णं) हृदि स्फुरतु तज्जयोतिः सतां शाम्भवम् ।।८१।। वैराग्याति
। शया द्वितीया (य) सतताभ्यास प्रसूतिगुरुव (व)त्तीनां मनसो निरोध उदितो योगः स योगीश्व
रैः। यस्मि (स्मिन्) संश्न (स्न) पितेच्चिते परिचिते ध्याते नते संस्तुते स्पृष्टे दृष्ट उपाज्जितेस्तु
पुरजित्स व (ब्रह्मभूयाय वः ।।८२।। क्रीड़ाकुण्डलितोरगेश्वरतनूका[रा]धिरूढो
म्व (ब) रानुस्वारं कलयन्नकाररुचिराकारः कृपाः प्रभुः । विष्णोविश्वतनोरवन्तिनग
रीहपु(त्पु) ण्डरीके वसन्नो (न्नों) काराक्षरमूतिरस्यतु महाकालोन्तकालं सताम् ।।८३॥
भुज्य
- न्ते भुवनानि सप्त वसुधा साम्भोनिधिीयते कल्पान्तेपि न नश्यते न कुपितान्भृत्यो
रपि त्रस्यते। ध्यायद्भिर्यदपास्त कर्मनिगडर्धात्रापि न प्रार्थ्यते तद्वः स्वान्तमलं करो
तु चरणाम्भोजद्वयं सा (श)म्भवम् ।।८४॥
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उज्जैन अभिलेख
१४३
१८. अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ १४:२x २ १९. क ख ग घ ङ ५च छ ज झ ५ ट ठ ड ढ ण ५त थ द ध न ५प फ ब भ म य र ल व ४
स (श) ष स ह ५१ २०. आ ई ऊ ऋ ल अ इ उ ण (ण) [ऋ] ल क (क) १० ए ओ ङ (ङ) ऐ औ च (च) ह य व र ट ल
ण(ण) २१. म ङ[ण] न म (म्) झ भ ञ (ञ) घट ध [ष] ज प(ब) गड द श (श्) २० । २२. ३४ ख फ छ ठ थ च ट त क (व) क प य श ष स र (२) १३ हल (ल) ३३।४७।।
उदयादित्यदेवस्य वर्णनागकृपाणिका । कवीनां च नृपाणां च वेषो वक्षसि रोपितः ।।५।। ए[के]यमुदयादित्य नरवर्ममहीभुजोः । [महे]शस्वामि[नोवर्णस्थित्य सिद्धासिपुथि (त्रि)का ॥८६।। [उदया]दित्यनामाङक वर्णनागकृपाणिका। [पद्यमुक्ता]मणिश्रेणी सृष्टा सुकविवं (बं)धुना ॥८७।।
(अनुवाद) ७९. जो (सर्पराज) के समान रस्सी से सुशोभित है, जो गगनव्याप्त है, जो ज्योतिलिंग है, जो
अनादि होकर सिद्धों द्वारा एकाग्र ध्यान द्वारा पुष्पों से अर्चित है तथा योगीजन नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि लगा कर जिसका दर्शन करते हैं, ऐसा यह शंभु का स्वरूप सज्जनों
को अणिमादि दिव्य सिद्धि प्रदान करने वाला हो। ८०. जो नित्य है, जो व्यापक है, जो एक प्रकाशमान देदीप्यमान रत्न के समान उज्जवल ज्योति
स्वरूप है, जिसका पातंजल योगी योगाभ्यास से खुले एवं निमिलित नेत्रों से दर्शन करते हैं, जो आकाश कदम्ब पुष्पों से अचित है, ऐसे शंभु का स्वरूप सज्जनों के अपुनर्जन्म (मोक्ष)
के लिये हो। ८१. जो जल से आर्द्र नहीं करती, जो ब्रह्माण्ड को हरण करने वाली वायु से प्रकम्पित नहीं
करती, जो अग्नि से दग्ध नहीं करती, जो गगन को व्याप्त नहीं करती, जो पृथ्वी पर आक्रमण नहीं करती, जो योगाभ्यास से समस्त विषय व्यासंग से मुक्त होकर हृदय में
अन्तर्लीन है, ऐसी शिवजी की वह ज्योति सज्जनों के हृदय में स्फुरित होती रहे। ८२. वैराग्य के अतिरेक से अद्वितीय सतत अभ्यास से उत्पन्न, मन की भारी वृत्ति का निरोधक,
योगीश्वरों के हृदय में उदित हुआ योग, जिसमें स्नान करने पर, अचित करने पर, परिचित होने पर, ध्यान करने पर, नत होने पर, स्तुति करने पर, देखने पर तथा
उपार्जित करने पर वह योग तुम्हारे ब्रह्मप्राप्ति के लिये हो। ८२. क्रीड़ा से कुण्डलित हुए भुजंगराज के शरीर द्वारा निर्मित, जिस पर अनुस्वार आकाश ही
विन्दुरूप है, जो आकार के समान मनोहर आकृति वाला है, विश्व ही जिसका शरीर है, ऐसे विष्णु के अवन्तिका नगरी रूपी हृदय कमल में निवास करने वाला ओंकार स्वरूप
कृपा से भरा हुआ प्रभु सज्जनों के अन्तकाल को निरस्त करता रहे। ८४. कर्म बंधनों से मुक्त हुए (योगियों) के द्वारा जिन चरण कमलद्वय का ध्यान किया जाता है
वे सातों भुवनों को भोगते हैं, समुद्रों सहित पृथ्वी का दान देते हैं, कल्पान्त होने पर भी
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परमार अभिलेख
नष्ट नहीं होते, क्रुद्ध मृत्यु से भी त्रस्त नहीं होते, और ब्रह्मदेव के द्वारा भी (पुनर्जन्म
हेतु) नहीं चाहे जाते हैं, शंभु के ऐसे चरणकमल द्वय तुम्हारे अन्तकरण को अलंकृत करें। ८५. यह उदयादित्य की अक्षर रचित वर्णनाग-कृपाणिका कवियों व नरेशों के वक्षस्थलों पर
भूषणरूप से आरोपित है। ८६. महेश व स्वामी उदयादित्य व नरर्मन नृपतियों के नामों की स्मृति हेतु एक यह सिद्ध
असिपुत्रिका (खङ्ग) निर्मित है। [अथवा शिवोपासक नरेश उदयादित्य व नरवर्मन के
नामांकित यह खड्ग चतुर्वर्ण व सिद्धि (विद्या) की रक्षा हेतु स्थित (तत्पर) है।] ८७. शब्द रूपी मुक्तामणि पंक्तियों से निर्मित उदयादित्य की नामांकित वर्णनाग कृपाणिका
सुकविबंधु द्वारा रची गई।
(३१) धार का नरवर्मन कालीन भोजशाला नागबंध प्रस्तरस्तम्भ अभिलेख
(तिथि रहित)
प्रस्तुत वर्णनाग कृपाणिका बंध अभिलेख धार में भोजशाला के भीतर सामने मुख्य गुम्बद के आधार स्तम्भों में से केन्द्रीय स्तम्भों पर उत्कीर्ण है। इसका प्रथम उल्लेख १९०४ में प्रो. रि. आ. स. वे. ई. में किया गया । इसके बाद भी समय समय पर इसके उल्लेख हुए । इसका विवरण एपि. ई., भाग ३१, पष्ठ २९ पर है।
अभिलेख दो अंशों में है। प्रथम अंश दाहिने स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसमें अनुष्टुभ छन्द में दो श्लोक हैं। नीचे संस्कृत धातु प्रत्ययमाला है। यह एक नागयुगल के घुमावदार लम्बे शरीरों द्वारा निर्मित चौकोर व गोलाकार मिश्रित त्रिकोणीय तालिका के रूप में है। श्लोकों का क्षेत्र २०४६.७ सें. मी. है। उसके नीचे प्राय: १७ सें. मी. स्थान रिक्त है। फिर नागबंध बना हुआ है जिसका क्षेत्र ६०४४४ सें. मी. है।
द्वितीय अंश बाईं ओर के केन्द्रीय स्तम्भ पर खुदा है। इसमें संस्कृत वर्णमाला दी हुई है। यह एक नाग के घुमावदार लम्बे शरीर द्वारा निर्मित चौकोर व लम्बी तालिका के रूप में है। यह उज्जैन में महाकाल मंदिर में प्राप्त वर्णनाग कृपाणिका बंध के समान है। इसका क्षेत्र ७०-३२ सें. मी. है। .
. दोनों केन्द्रीय स्तम्भ सुन्दर कलात्मक ढंग से गढ़े हुए हैं। अभिलेख प्रायः अच्छी हालत में है यद्यपि काल का प्रभाव साफ दृष्टिगोचर है। भोजशाला के फर्श पर सुन्दर काले चिकने पत्थरों की शिलायें लगी हैं। इन पर उत्कीर्ण लेख छेनी द्वारा क्षतिग्रस्त कर दिये गये हैं। यह कार्य धर्मान्ध अज्ञानता का परिचायक है। परन्तु यह सौभाग्य ही है कि नागबंध स्तम्भों पर उत्कीर्ण होने के कारण सुरक्षित हैं। दोनों अंश सरल प्रकृति एवं मायाविहीन हैं यद्यपि दूर से देखने में रहस्यमय लगते हैं।
__ नागबंधों के अक्षरों की बनावट ११ वीं-१२ वीं शती की देवनागरी लिपि है। अक्षर सुन्दर ढंग से प्राय: ६ सें. मी. लम्बे खुदे हैं। अभिलेख की भाषा संस्कृत है जिसमें उज्जैन नागबंध के श्लोक ८५-८६ की प्रतिलिपि हैं। दूसरे श्लोक में असिपुत्रिका के स्थान पर असिपुथिका लिखा हैं। नागबंधों में वर्णमाला वाला भाग उज्जैन में प्राप्त बंध के समान है, परन्तु प्रत्ययमाला अंश नवीन है।
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धार अभिलेख
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. यहां तिथि का अभाव है। श्लोकों में उदयादित्य व नरवर्मन के उल्लेख हैं। संभव है कि नरवर्मन ने अपने शासन के प्रारंभ में ही दोनों नागबंधों को कवियों एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के वक्ष पर आभूषण रूप से धारण करवाना शुरू कर दिया हो। तथा उन की प्रतिलिपि भोजशाला में स्तम्भों पर उत्कीर्ण करवा दी। नागबंध उसके पिता के नाम पर प्रचलित थे अत: नाम में परिवर्तन किया गया हो।
प्रत्ययमाला युक्त नागबंध में १० लकारों की १८० तिण विभक्तियां एवं १६ धातु प्रत्यय हैं। इस नागबंध के तीन भाग किये जा सकते हैं--ऊपर, मध्य एवं नीचे के भाग। ऊपर के भाग में अभिलेख काफी साफ है। वहां प्रारम्भिक शब्द कुछ धुंधला पड़ गया है। यह संभवतः 'अथ' है। के. एन. शास्त्री इसको 'अथ तिविभक्ति बंधः' मानते हैं, परन्तु डी. सी. सरकार उनसे सहमत नहीं हैं (एपि. इं., भाग ३१, पृष्ठ २९)। पी. टी. श्रीनिवास आयंगर (भोजराज, १९३१, मद्रास, पृष्ठ १०२) लिखते हैं कि नागयुगल के मुखों के पास 'अथ' शब्द तथा उनकी ग्रीवाओं के मध्य 'धातु' शब्द उत्कीर्ण हैं। नीचे के त्रिकोण में 'इन प्रत्यय' शब्द लिखे हैं। इस आधार पर अभिलेख का शीर्ष “अथ धातु प्रत्ययाः" माना जा सकता है।
मध्यवर्ती भाग एक वर्गाकार चतुष्कोण के रूप में है जो अपने एक कोण के सहारे खड़ा है। इसको एक ओर से १० समानन्तर व दूसरी ओर से प्रथम को काटती हुई १८ समानन्तर रेखाओं को काटने से १८० भागों में विभाजित किया हुआ है। पुनः प्रत्येक दो रेखाओं के जोड़ों को अन्त में अर्द्ध गोलाकार रेखाओं से इस प्रकार मिला दिया गया है कि सम्पूर्ण वर्गाकार चतुष्कोण ही लम्बाई व चौड़ाई के मान से आपस में एक दूसरी को बराबर काटती हुई दो वक्र रेखाओं से बना प्रतीत होता है। इस प्रकार चतुष्कोण के ऊपर बाईं ओर निर्मित ५ अर्द्ध गोलाकारों व इनके मध्य ५ रिक्त स्थानों में १० लकारों के विभिन्न रूपों के प्रथम अक्षर उत्कीर्ण हैं। ये क्रम के अनुसार व स वि ह्य अप स्व (श्व) आ भ और कृ (क्रि) अक्षर हैं जिनसे क्रमशः वर्तमान, संभावन, विधि, ह्यस्तन, अतीत, अतीत सामान्य, परोक्ष, श्वस्तन भविष्यत्, आशिष भविष्यत् और क्रियातिपत्ति अथवा क्रियातिक्रम का बोध होता है जो पाणिनि के अनुसार निम्नांकित दस लकारों को दर्षाते हैं--लट्, विधिलिङ, लोट्, लङ, लुङ, लिट्, लुट् आशीलिङ लुट् और लुङ । (चान्द्र व्याकरण में दस लकार अपने सार्वधूतक और आर्धधूतक विभागों के अनुसार विभक्त हैं। इस प्रकार प्रथम चार अर्थात् लट्, विधि लिङ, लोट् और लङ सार्वधूतक विभागीय हैं और शेष छहों आर्धधूतक विभागीय हैं। परन्तु पाणनीय सिद्धान्त के अनुसार वे अपने टित् व णित् विशेषताओं के अनुसार क्रमबद्ध होते हैं। प्रस्तुत बंध में चार लकार सिद्धान्त चन्द्रिका के अनुरूप क्रमबद्ध हैं। परन्तु यहां आर्धधूतक लकारों के क्रम में कुछ त्रुटि है। फिर भी लकारों का मूल विभाजन शुद्ध होने से इसमें विशेष अन्तर नहीं पड़ता है।) प्रत्येक लकार के नीचे क्रियाओं के १८ रूप दिये हुए हैं जिनमें से आधे परस्मैपदी व शेष आधे आत्मनेपदी हैं । यह तथ्य चतुष्कोण के निचले बायें भाग में बाहर की ओर परस्मै. व आत्मने-प्रथमार्द्ध शब्दों के लिखे होने से सामने आता है। प्रत्येक पद तीन भागों में विभाजित है, जैसा प्र म उ प्रथम अक्षरों से ज्ञात होता है। ये अक्षर क्रमशः प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष और उत्तम पुरुष को सूचित करते हैं। इन तीनों पुरुषों के रूप भी चतुष्कोण के नीचे बाईं ओर प्रत्येक अर्द्ध गोलाकार वाले भागों व उनके मध्य रिक्त स्थानों में १, २, ३ अंक लिख कर दर्शाये गये हैं। चतुष्कोण के ऊपर दाहिनी ओर नौ अर्द्धगोलाकारों व उनके मध्य रिक्त स्थानों में प्रत्येक पंक्ति का जोड़ १० अंक लिख कर १८ बार दोहराया गया है। पुनश्च प्रत्येक तीन पंक्तियों के समूहों के पश्चात
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परमार अभिलेख
उनका जोड़ ३० अंक लिख कर प्रत्येक ९ पंक्तियों के पश्चात उनका जोड़ ९० अंक लिख कर, और अन्त में सभी पंक्तियों का कुल जोड़ १८० अंक लिख कर दर्शाया गया है । चतुष्कोण के निचले दाहिने भाग के अर्द्धगोलाकारों व उनके मध्य रिक्त स्थानों में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है ।
अभिलेख का तीसरा भाग २२ गोलाकार आकृतियों द्वारा निर्मित एक त्रिकोण के रूप में है । इन गोलाकार आकृतियों में धातु प्रत्यय दिये हुए हैं । त्रिकोण के मध्य 'तिन् प्रत्यय' लिखा हुआ है । इस दृष्टि से इनमें १० विकर्ण और १२ सनादि प्रत्यय होना चाहिये । परन्तु त्रिकोण के दाहिनी ओर बने गोले भग्न हो गये हैं । अतः ठीक स्थिति का ज्ञान कठिन ही है । फिर भी जो शेष है उसके आधार पर बहुत कुछ जाना जा सकता है। त्रिकोण की मुख्य भुजा पर बने सात गोलों में अ यन् नु न उ ना अय अक्षर खुदे हुए हैं । ये क्रमशः भवादि, दिवादि, स्वादि, रुधादि, तनादि, क्रयादि व चुरादि धातुओं के विकर्ण हैं। इनमें अदादि, जुहोत्यादि व तुदादि सम्मिलित नहीं है, क्योंकि प्रथम दो के विकर्ण तो छोड़ ही दिये हैं, व तुदादि का विकर्ण भवादि के समान ही है । त्रिकोण की दो भुजाओं पर सन् य अय् इयङ्ङ काम्य और आय लिखे हैं जो सनाद्यन्त क्रियाओं के रूप है । इनमें से दूसरा अर्थात य का प्रयोग क्यच् क्यङ् क्यष् rs और यक् के लिये भी होता है । प्रयोग के समय इनमें से केवल य ही रह जाता है, और शेष भाग लुप्त हो जाता है । तीसरा अय् वास्तव में णिङ और णिच् का ही छोटा रूप है । क्विप् का उल्लेख ही नहीं किया गया है क्योंकि क्रिया के अन्त में इसका लोप हो जाता है । इस प्रकार प्रस्तुत बंध में १२ सनादि प्रत्ययों में से केवल ६ का ही उल्लेख किया गया है । बाईं ओर के गोलों में तीन अन्य प्रत्ययों इच् यण् इन् का भी उल्लेख है, परन्तु क्रियाओं में इनके महत्व व प्रयोग के बारे में निश्चित ज्ञात नहीं है। इसी प्रकार कुछ प्रत्यय दाहिनी ओर के टूटे हुए गोलों में भी रहे होंगे ।
दूसरा वर्णनाग कृपाणिका बंध, जो बाईं ओर के केन्द्रीय स्तम्भ पर उत्कीर्ण है, उज्जैन व ऊन से प्राप्त बंधों के समान संस्कृत वर्णमाला युक्त है । यह बंध केवल एक नाग के घुमाव - दार लम्बे शरीर से बने चतुष्कोणों व लम्बी पूंछ द्वारा निर्मित है। जैसा कि पूर्व अभिलेख में दर्षाया जा चुका है, संपूर्ण वर्ण-माला सर्प के मुख्य शरीर वाले भाग में और संज्ञा के रूप व क्रियाओं के धातु पूंछ वाले भाग में वर्णित हैं । सर्प के मुख के ऊपर संभवतः क्ष अक्षर उत्कीर्ण है और इसके नीचे अ आ लिखे हैं । नीचे त्रिकोण की बाईं भुजा में रु यु उ लिखे हैं और आधार में उपघमावीय, जिह्वामूलीय, विसर्गीय दिये हुए हैं। इन सभी का अभिप्राय अनिश्चित है ।
(३२)
ऊन का नरवर्मन कालीन चौबारा डेरा मंदिर नागबंध प्रस्तर अभिलेख ( तिथि रहित )
प्रस्तुत अभिलेख ऊन में चौबाराडेरा व अन्य मंदिरों में उत्कीर्ण है । इसका प्रथम उल्लेख ए. रि. आ. स. ई., १९१८-१९, पृष्ठ १७ पर किया गया। इसके बाद भी समय-समय पर इसके सामान्य उल्लेख किये गये। के. एन. शास्त्री ने इसका विवरण एपि. इं., भाग ३१, पृष्ठ ३० पर दिया ।
वर्तमान में यह तीन खण्डों में है । प्रथम खण्ड एक खण्डित मंदिर की बाईं दीवार में लगे पत्थर पर उत्कीर्ण है। इसके ५ टुकड़े हो गये हैं । इस में उज्जैन व धार के समान वर्णनाग
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अमेरा अभिलेख
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कृपाणिका बंध उत्कीर्ण है। दूसरा खण्ड चौबारा डेरा मंदिर क्रमांक १ में दीवार में लगे पत्थर पर खुदा है। इसमें उज्जैन नागबंध के समान ५ पंक्तियों में संस्कृतमाला उत्कीर्ण है। तीसरा खण्ड पास ही एक अन्य मंदिर की दीवार में लगे पत्थर पर है। इसमें उज्जैन के श्लोक ८५ अथवा धार के प्रथम श्लोक के समान एक श्लोक उत्कीर्ण है।
तीनों प्रस्तर खण्ड रेतीले पत्थर की शिलायें हैं, जिन पर काल का प्रभाव हो गया है। अक्षर अत्यन्त क्षीण व क्षतिग्रस्त हो गये हैं। उनको उज्जैन व धार के नागबंधों की सहायता से पढ़ा जा सकता है। अक्षर प्रायः २.२ सें. मी. लम्बे हैं। अतः अभिलेख का आकार बड़ा है। नागबंध वाले खण्ड का आकार १०३ x ६७ सें. मी. है। इसमें खड्ग का हत्था तथा नाग से बने कोष्टक अत्यन्त क्षतिग्रस्त हो गये हैं।
नागबंध का विवरण पूर्ववर्णित उज्जैन (क्र. ३०) व धार (क्र. ३१) में प्राप्त नागबंधों के अनुसार है। इसका वास्तविक ध्येय जो भी रहा हो, परन्तु इन नागबंधों के माध्यम से संस्कृत भाषा की व्याकरण के मूल नियमों का प्रचार एवं प्रसार अवश्य हुआ होगा।
अमेरा का नरवर्मन कालीन प्रस्तर अभिलेख
(संवत् ११५१=१०९४ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है जो विदिशा जिले में उदयपुर से ३ कि. मी. दूर अमेरा ग्राम में एक पुराने तालाब के किनारे मिला था। इसका प्रथम उल्लेख ए. रि. आ. डि. ग., १९२३-२४, पृष्ठ १६ पर किया गया। फिर ए. रि. आ. स. इं., १९२३-२४, पृष्ठ १३५ पर उल्लेख किया गया। प्रस्तर खण्ड पुरातत्व विभाग, सेंट्रल सर्कल, भोपाल में सुरक्षित है।
अभिलेख का आकार ६०४५३ सें. मी. है। इसमें २४ पंक्तियां हैं जो काफी जर्जर हैं। अक्षरों की लंबाई १.२ सें. मी. से २ सें. मी. है। शुरु की आठ पंक्तियों के अक्षर काफी छोटे हैं व पास-पास खुदे हैं। परन्तु बाद के कुछ बड़े हैं व खुले हैं। पंक्ति क्र. १, ३-६, १११८, २३ काफी क्षतिग्रस्त हैं।
अक्षरों की बनावट ११ वीं सदी की नागरीलिपि है। परन्तु कुछ स्थानों पर अत्यन्त त्रुटिपूर्ण है एवं अक्षरों में भेद करना भी कठिन हो जाता है। भाषा संस्कृत है, परन्तु अशुद्धियों से भरपूर है। अंतिम तीन पंक्तियों को छोड़ कर, सारा अभिलेख पद्यमय है। विरामचिन्ह गलत लगे हैं जिससे यह मालूम करने में ही कठिनाई होती है कि नया श्लोक कहां से शुरु होता है। श्लोकों में क्रमांक नहीं हैं। इसमें कुल १५ श्लोक हैं।
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स का प्रयोग है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया है। कुछ शब्द ही गलत है जिनको पाठ में सुधार दिया गया है।
तिथि पंक्ति २२ में अंकों में लिखी है। यह संवत् ११५१ आषाढ़ सुदि ७ है। दिन का उल्लेख न होने के कारण इसका सत्यापन संभव नहीं है। यह शुक्रवार २३ जून १०९४ ईस्वी के बराबर निर्धारित होती है। प्रमुख ध्येय नरेश नरवर्मन के शासनकाल में बालवंशीय विक्रम नामक ब्राह्मण अधिकारी द्वारा एक तालाब के निर्माण कराने का उल्लेख करना है।
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परमार अभिलेख
श्लोक क्र. ३-५ में दानकर्ता नरेश के पूर्वाधिकारी शासकों के उल्लेख हैं। श्लोक ३ में वाक्पति का नाम साफ पढ़ने में आता है। अगले श्लोक में संभवतः भोजदेव व उदयादित्य के उल्लेख हैं। श्लोक ५ में नरवर्मन का शासनकर्ता के रूप में उल्लेख है। श्लोक क्र. ६-८ में दानकर्ता अधिकारी श्री विक्रम की वंशावली है। श्लोक ९-१४ में उसके द्वारा निर्मित तालाब का गुणगान है। यह तालाब संभवतः वही है जिसके किनारे से प्रस्तुत प्रस्तर खण्ड प्राप्त हुआ है।
श्लोक . १५ महत्वपूर्ण है। इसमें लिखा है कि सरोवर के निर्माण में श्री विक्रम ने अपने बाहूबल से प्राप्त २५०० राजमुद्रित मुद्रायें (टंक) व्यय की थी। मुद्राओं की यह संख्या शब्दों व अंकों में दी हुई है। संभव है श्री विक्रम ने यह धन नरेश नरवर्मन के अधीन सेनापति के रूप में किसी युद्ध में सफल होने पर प्राप्त किया हो, परन्तु इसका विवरण नहीं है।
अभिलेख का महत्व इस तथ्य में है कि इसके माध्यम से नरवर्मन के शासनकाल की प्रारम्भिक तिथि अभी तक ज्ञात तिथि से दस वर्ष पूर्व निर्धारित करने में सहायता प्राप्त होती है। इस में किसी भौगोलिक स्थान का उल्लेख नहीं है।
(मूलपाठ) (श्लोक १ शार्दूलविक्रीडित, २ स्रग्धरा, ३-४ इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा या उपजाति, ५, ६, ९
उपजाति, ७, ८ इन्द्रवज्रा, १० से १५ अनुष्टुभ) १. सिद्धि [1] ओं [1]
मध्ये [सो (शो)]भित [दुग्ध]सिंधु वि- - - [पारो]पमं संमूर्च्छद्धन घोर घोष घटनी (ना)व्या[घू] -
_णिता [सां (शां) तरं (रम्)।] --क~~-~-क---कृष्णस्य पाणौ स्थितं युष्माकं स (श)त[भद्र]जालमिव
[स्या]त्पांचजन्यं मुदे।।[१॥] यास्मिना (ना) पूर्यमाणे~~~~~करं -~--~-- [त्रा]साद प्राप्तरेवं प्रति]र[थ]
तुरगा नष्टमार्गा[:] प्रयान्ति। व (ब) ह्या व (ब)ह्मांड खं[ड]-~~~~~-स्येति नारायणास्यं तहः पाया
त्सनादं वदनविहि[तः] पांचजन्यो मुरारे[] ||[२] ---ऽस्मिन् परमार वंसे (शे) --~- भारि रिहा
भवच्च। श्रीवा[प] तिर्वदन -~----~--~~-~-- ॥[३।।] अजायत - ~~ नृप -~
रागसंटि (?) संघट्ट - रणस्य । ----------------- -~- दया]र्कः ।। [४] श्रीमान्ज (ज)यी -~
जाज्जितराजल -तदंगजे श्री नरवर्म नाम्नि । पृथ्वीं स[दा] सा (शा) सति सु (शु)[ख]धाम्नि वक्तुं न स (श) क्ता[:] कवयो [शु]णे
न (गुणानाम् ? ) ॥[५॥] .
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अमेरा अभिलेख
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(सीमानमान[द] कृता (?) प्रजानां (नाम्) ।
अस्ति - -- - - - - - - मयाणकाक्ष[:] प्रथितः [प]थिव्यां (व्याम्) [1] विप्रादिनां वर्ण~-प्तवे - यः शोभते सच्चरितेन स (श) श्वत् ! ।।[६।।]
तं निर्म[ले]नायक वा (बा)ल वं
. [शे] श्रीमद्भरद्वाज कुल प्रसूतिः । --~णां तस्य [वि]धेव्विधाता स्री (श्री)स्तंभनामे
ति व (ब) [भू]व विप्रः।।[७॥]
तस्माद[भू]
ल्लं णराजनामा सु (शु)द्धैर्यसो (शो) भिर्द्धवलीकृतासा (शाः)[1] तस्यापि पुत्रो भवदुच्च कीर्तिः श्री[वि] क्रमस्त्यागि मुखांब्ज (ब्ज)भानू (नुः)।[८] कारापितं तेन त
____डागमेतत् सु (शु)द्धैर्द्धनैरा-~- न चिन्हें । पीयूष] वत्स्तंभ निविष्टमूर्ति गरुत्म
___ नार[भ्य?]त सू (शु) द्धवारि ॥[९।।] -~-~~~ द्विपै - वन्द्र (ब्द्र ) ह्मचारिभिः। स्नानसंध्यान
राच्चषिपितृ संतप[णा]य च ।।।[१०]।। स (सु)व्यायत्तटं सस्व (शश्व) द्धौतामलसि (शि) ला तलं (लम्)।
तापे च झर्नकैरन्यैश्च जलजातिभिः ।।[११॥] हंसः] सद्राजहंसश्च [स्वा]वका
रंडव (ब) हिभिः । सारसैश्चक्रवा[क]श्च कू[ज]द्भिज (य)त्र सेव्यते ।।[१२।।] भूतानामूपकाराय
ताडागं यः पुमानिह । व्यनष्टे यस्य भूमौ स्यात् ते[न] सार्द्ध सपुण्यभाक (क्) ।।[१३।।] यस्माज्ज
लात्प्रजा[:] सर्वा[:] कल्पे[कल्पेसुजत्प्रभुः । तस्माज्जलं परं दानं न भूतो न भविष्यति ।।[१४] निज भुयो (जो) पाजिता - टंककै राय (ज) मुद्रिभिः (तैः) । तडागेष, [च] संलग्नाः सत (शता) नां
पंच]विस (श) तिः ।।[१५]॥ २५०० [1] संवत् ११५१ अष (आषा)ढ़ सुदि ७ एत (षा) प्रसस्ता (शस्तिः) कृता । सिद्धि । २३. [लिखि]तं (ता) पंडित राज]पालेन- - तत्सूनुना सौमतिकेन । २४. मालुः ।।
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परमार अभिलेख
(अनुवाद) सिद्धि। ओं। १. क्षीर समुद्र के मध्य...के समान सुशोभित अपने फैलने वाले गंभीर नाद से जिसने
दिशाओं को व्याप्त कर लिया है, श्रीकृष्ण के हाथ में स्थित पंचजन्य शंख, शतभद्र जाल
के समान आप को आनन्द प्रदान करे । २. जिसके बजाने पर... शत्रुओं के अश्व त्रास से मार्गभ्रष्ट होते हैं, ब्रह्मदेव जिस नारायण के मुख
को. . . ब्रह्मांड खण्ड . . . वह मुरारि के मुख से लगा हुआ व नाद करता हुआ पंचजन्य शंख
आपका रक्षण करे। ३. ... इस परमार वंश में. . .श्री वाक्पति का मुख... । ४. उत्पन्न हुआ... नरेश . . . युद्ध का. . . उदयार्क (उदयादित्य). . . । ५. श्रीमान् विजयी, जिसने अपने बाहुबल से राजलक्ष्मी प्राप्त की, उसका प्रखर तेजयुक्त पुत्र
नरवर्मन् नामक जब पृथ्वी पर शासन कर रहा था तो उसके गुण-बखान करने में कवि भी असमर्थ थे।
(वह) प्रजाओं को आनन्द प्रदान करने की चरम सीमा थी। ६. ब्राह्मण वर्ण में पृथ्वी पर प्रसिद्ध मयाणकाक्ष . . .है जो अपने सत् आचरण से सदा
सुशोभित है। ७. उस निर्मल नायक बालवंश में भारद्वाज कुल में उत्पन्न . . .श्रीस्तम्भ नामक ब्राह्मण हुआ। ८. उसका पुत्र . . .णराज नामक हुआ जिसने अपनी शुद्ध कीर्तियों से दिशायें ध्वलित कर दी
थीं। उसका पुत्र भी उच्चकीर्ति वाला श्री विक्रम नामक त्यागियों के मुख-कमलों के लिए
सूर्य के समान हुआ। ९. उसने इस तड़ाग को बनवाया। शुद्ध धन द्वारा...चिन्ह रूप एक स्तम्भ लगवाया
जिस पर गरुड़ की मूर्ति स्थापित थी। उसका जल शुद्ध था। १०. ...जहां पर हाथी. . . ब्रह्मचारी के द्वारा स्नान, संध्या, देव ऋषि, पितृ तर्पण हेतु ... ११. जिस सरोवर का तट विस्तृत है व शिलातल सदा निर्मल है। जब अधिक ताप होता तो
मछली, मगर व अन्य जलजन्तुओं के द्वारा जिसका तल प्रयोग में लाया जाता था। १२. जहां पर गूंजन करने वाले हंस, राजहंस, कारण्डव, मयूर, सारस व चक्रवाकों द्वारा जिसका
उपयोग किया जाता है। १३. प्राणिमात्रों के कल्याण के हेतु जिसने यह तड़ाग बनवाया व जिसकी भूमि पर बनवाया,
वह पुण्य का भागी है। १४. जिस जल से प्रभ ने कल्प-कल्प में सारी प्रजायें निर्मित की उस जल जैसा श्रेष्ठ दान न
हुआ है न होगा। १५. अपने हाथ से कमाये गये द्रव्य, राजमुद्रांकित पच्चीस सौटंक (सिक्के) तालाब में लगाये।
२५००। २२. संवत् ११५१ आषाढ़ सुदि ७ को यह प्रशस्ति लिखी। सिद्धि हो। २३. पंडित राजपाल के पुत्र सौमति के द्वारा लिखी गई। २४. मालु (?)।
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देवास अभिलेख
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देवास का नरवर्मन का ताम्रपत्र अभिलेख (अपूर्ण)
(संवत् ११५२= १०९५ ई.) प्रस्तुत अभिलेख एक ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण है जो देवास नगर में १९६८ ई. में विचित्र परिस्थितियों में प्राप्त हुआ। इन्दौर के एक चिकित्सक डा. एस. एन. नागू अपने एक रोगी को देखने देवास गये । वहां एक ठठेरे द्वारा प्रस्तुत ताम्रपत्र से वर्तन में लगाने हेतु दो गोल टुकड़े काटने का समाचार मिला । वे तुरन्त गये एवं टुकड़े प्राप्त किये। शेष भाग उज्जैन के एक कबाड़ी के हाथ बेच दिया गया था, अतः तुरन्त उससे सम्पर्क साध कर वे भी प्राप्त कर लिए गये। सभी खण्डों को जमा कर सावधानी से जोड़ा गया। इस प्रकार प्रस्तुत ताम्रपत्र पूर्ण कर लिया गया। यह वर्तमान में विक्रम विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग में सुरक्षित है।
ताम्रपत्र सम्पूर्ण अभिलेख का केवल प्रथम भाग है। अनुमानतः सारा अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण था। अभिलेख का आकार ३१४२४३ से. मी. है। ताम्रपत्र में अभिलेख केवल एक ओर उत्कीर्ण है। इसके नीचे दो छेद बने हैं जिनसे अंतिम वाक्य प्रभावित हो गया है। इसके किनारे मोटे हैं व लेख वाले भाग की ओर मुड़े हैं। इसका वजन २.०३५ किलो ग्राम है।
ताम्रपत्र में १८ पंक्तियां खुदी हैं। लेख सुन्दर नहीं है फिर भी पढ़ने में कठिनाई नहीं है। कुछ अक्षरों की बनावट बेढंगी है। बनावट में ये ११वीं-१२वीं सदी की नागरी लिपि में है । अक्षरों की लम्बाई प्रायः १ सें. मी. है। भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है। प्राप्त भाग में ४ श्लोक हैं, शेष गद्यमय हैं।
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, ए औ के लिए पृष्ठमात्रायें, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा, वाक्य के अन्त में अनुस्वार, एवं आवश्यक स्थानों पर संधि का अभाव आदि कुछ विचारणीय तथ्य हैं। ये सभी काल व स्थानीय प्रभावों को प्रदर्शित करते हैं। कुछ त्रुटियां उत्कीर्णकर्ता की गलती से बन गई हैं। इनको पाठ में सुधार दिया गया है।
अभिलेख की तिथि संवत् ग्यारह सौ बावन की भाद्रपद सुदि एकादशी है। यह मंगलवार, १४ अगस्त १०९५ ई. के बराबर बैठती है। इसमें दिन का उल्लेख न होने से इसका सत्यापन संभव नहीं है।
__ इसका प्रमुख ध्येय नरेश नरवर्मन द्वारा अपने पिता उदयादित्य देव की सांवत्सरिका (वार्षिकी) पर भूदान का उल्लेख करना है। दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण दक्षिणापथ में आदिवलविदा स्थान से देशान्तरगमन करके आया भारद्वाज गोत्री, भारद्वाज, अंगिरस, वाहरुपत्य इन तीनों प्रवरों वाले, वेद की आश्वलायन शाखा के अध्यायी, ब्राह्मण धनपाल का पौत्र, महिरस्वामी का पुत्र विश्वरूप था। यह धनपाल भोजदेव कालीन सुविख्यात धनपाल से भिन्न था, क्योंकि वह मध्यदेश का वासी था एवं काश्यप गोत्री था (जैन साहित्य और इतिहास-नाथुराम प्रेमी, पृष्ठ ४०९)।
अभिलेख की पंक्ति ३-६ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री सिंधुराजदेव, भोजदेव, उदयादित्यदेव और नरवर्मनदेव के नामोल्लेख हैं। इनके नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं।
पंक्ति ६-८ में भूदान के गांव का उल्लेख है जो इंगुणीपद्र-सार्द्धसप्तशत भोग के अन्तर्गत भगवत्पुर प्रतिजागरक में मालापुरम ग्राम था। यहां लिखा है कि इससे पूर्व श्री धर्माधिकरण
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परमार अभिलेख
पंडित प्रभाकर को पांच हल भूमि दान में दी गई थी। अतः उसको प्रस्तुत दानभूमि निर्धारण करते समय छोड़ दिया जावे । दान देते समय नरेश चरसटिका ग्राम में स्थित था।
पंक्ति क्र. १७-१८ में दान की दो हल भूमि को दोनों ओर-लम्बाई व चौड़ाई में ४२ बार नापा गया था (उभयद्विचत्वारिंशन्माप्यकेन) । नापने के लिए ९६ पर्व का दण्ड प्रयोग में लाया गया था जो एक हल नापने की प्रथा थी (भूमिनिवर्तन प्रथा)। इस प्रकार इस प्रमाण की भूमि एक हल द्वारा एक मौसम में सुगमता से जोती जा सकती थी। वास्तव में बांस के डण्डे से भूमि नापने की प्रथा वर्तमान मालवा में प्रचलित है। यदि पर्व को अंगुल मान लें एवं अंगुल को ३/४ इंच के बराबर मान लें। (देखिये मार्कण्डेय पुराण, भारतीय संस्करण, ४९, पृष्ठ ३८-३९) तो डण्डे की कुल लम्बाई (९६४ ३/४ =) ७२ इंच अथवा ६ फीट होगी। इसको ४२ बार नापने पर यह लम्बाई २५२ फीट होगी। चौड़ाई भी इतनी ही होगी। इस प्रकार उक्त भूमि का कुल क्षेत्र (२५२४ २५२= ) ६३५०४ वर्ग फीट अथवा प्रायः २० बीघा होगा। भोजदेव के कालवन अभिलेख (क्र. १८) के समान यहां भूमि का नाप ४०x४० =१६०० वर्ग दण्ड ही है। शेष २ दण्ड संभवतः खेत की मेढ़ के लिए छोड़ दिए गये।
अभिलेख का महत्व इस तथ्य में है कि भूदान नरेश नरवर्मन द्वारा अपने पिता उदयादित्य की वार्षिकी पर दिया गया था। इससे ज्ञात होता है कि उदयादित्य की मृत्यु अभिलेख की तिथि से ठीक एक वर्ष पूर्व हो चुकी थी।
___ भौगोलिक स्थानों में इंगुणीपद्र का तादात्म्य वर्तमान इंग्नौद से किया जा सकता है जो रतलाम के पास छोटी रेल लाईन पर ढोढर स्टेशन से ५ मील दक्षिण-पूर्व में स्थित है। संवत् ११९० के कच्छपघात वंशीय अभिलेख में इस को इंगणपद्र कहा गया है (भण्डारकर सूचि क्र. २२९) । रेवा नदी वर्तमान नर्मदा ही है। कुविलारा वर्तमान में वह नदी है जो ओंकारेश्वर के पास नर्मदा में मिलती है। भगवत्पुर, जिसको प्रतिजागरणक कहा गया है, चम्बल पर स्थित भगोर है जो इंग्नौद से २५ कि. मी. उत्तर-पूर्व की ओर स्थित है। (वेस्टर्न स्टेट गजेटियर, मालवा, पृष्ठ ३४८) । दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण का मल स्थान दक्षिणापथ में अद्रियलविदा का तादात्म्य सरल नहीं है। दानस्थल मालापूर ग्राम की दो संभावनायें हैं--प्रथम भगोर से ४० कि. मी. उत्तरपूर्व में मालखेड़ा, दूसरे दक्षिण में मालापुर है। चरमटिका (?) जहां दान के समय नरेश स्थित था, का पाठ ही निश्चित नहीं है। अतः इसके समीकरण का प्रश्न ही अधूरा है।
(मूल पाठ) १. ओं स्वस्ति [1] ज्योभ्युदयश्च ।।
जयति व्योम केशोसौ यः सर्गाय वि (बि) भति ता (ताम्) । एंदवी शिरसा लेखां जग
___ द्वी (ट्टी) जां कुराकृतिम् ।। [१] तन्वन्तु वः स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः । कल्पान्त समयोद्दाम तडिद्वलयपिङ्ग
लाः ।। [२] परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री सिंधुराजदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-म४. हाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री भोजदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर५. श्री उदयादित्यदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री नरवर्मदेवः कु
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देवास अभिलेख
६. शली ।। इङगुणीपद्रसार्द्ध - सप्तशत- भोगे भगवत्पुर- प्रतिजागरणके श्री धर्माधिकरणे पंडित
प्रभाक
७ र भुज्यमान-भूहल- पंचक- वज्र्जं-मालापुरके ग्रामे समुपगतान्समस्त राजपु
5.
रुषान्त्रा (ब्राह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि-पट्टकिल- जनपदादींश्च वो (बो) धयत्यस्तु वः संविदितं ॥ यथा चरमटिका
९. ग्रामावस्थितैरस्माभि: द्विपंचाशदधिकशतैकादश- संवत्सरे भाद्रपं ( प ) द- सु (शु) दि एकादस्यां
(श्यां) महाराज
१०. श्री उदयादित्य देव साम्व (सांव ) त्सरिके रेवानदी कुविलारा नद्योः संगमे स्नात्वा चराचर
गुरुं भगव[]तं
११. भवानीपति श्री नीलकंठदेवं समभ्यर्च्य संसारस्यासारतां दृष्ट्वा तथा हि
वाताभ्रविभ्रममिदं वसु
१२.
१३.
धाधिपत्यमापातमात्र मधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्तृणाग्रजल व (ब) दु समा नराणां धर्म्यः सखा
१४.
परमहो परलोक याने || [३||]
भ्रमत्संसार चक्राग्रधाराधारामिमां श्रियं ( यम् ) । प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चात्तापः प
रं फलं (लम् ) । [४ ।]
इति जगतो विनस्च (श्व) रं स्व (स्व) रूपमाकलय्यादृ [ष्ट] फलमङ्गीकृत्य चंद्राक्कीर्णव क्षिति समकालं या
१५. वत्परया भक्त्या दक्षिणा [पथा ] न्तः पाति अद्रियलविदा स्थान विनिर्गत भारद्वाज [ गो]त्र भारद्वाजआंगिरस
१५३
१६. वा (बा) है [स्पत्ये] ति त्रिप्रवर आश्वलायन शाखाध्यायि व्रा (ब्रा) ह्मण धनपाल पौत्र म [हि ] रस्वामि सुत विश्वरूपाय
१७. उपरिलिखित मालापुरक ग्रामात्षण्णवति पर्व्वदण्डप्रामाण्येनो भर्याद्विचत्वारिंशन्माप्यकेन १८. [भू] निवर्त्तन विंशतिप्रथामापित भूहलद्वयन्तथा अस्मिन्नेव सम्ब ( संव) त्सरे नित्यकल्पित लेख्ये
(अनुवाद)
१. ओं स्वस्ति । जय व वृद्धि हो ।
जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, आकाश ही जिसके केश हैं, ऐसे महादेव सर्वश्रेष्ठ हैं ||१||
प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु, शिव की जटाएँ तुम्हारा कल्याण करें || २ ||
३. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिंधुराज देव के पादानुध्यायी परमभट्टारक ४. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर
५. श्री उदयादित्य देव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री नरवर्मदेव ६. कुशलयुक्त हो, इंगुणीपत्र सार्द्धसप्तशत भोग में भगवत्पुर प्रतिजागरणक में श्री धर्माधिकरण पंडित प्रभाकर
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परमार अभिलेख
७. द्वारा भोगे जा रहे पांच हल भूमि को छोड़कर मालापुरक ग्राम में आए हुए सभी राजपुरुषों, ८. श्रेष्ठ ब्राह्मणों, पड़ौसियों, पटेलों और ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं-- आपको विदित हो कि
चरमटिका ९. ग्राम में ठहरे हुए हमारे द्वारा ग्यारहसौ बावन संवत्सर में भाद्रपद सुदि एकादशी को महाराज १०. श्री उदयादित्य देव की सांवत्सरिका (वार्षिकी) के अवसर पर रेवा व कुविलारा नदियों के संगम
पर स्नान करने चर व अचर के गुरु भगवान ११. भवानीपति श्री नीलकंठदेव की सम्यक रूप से अर्चना कर संसार की असारता को देखकर,
उसी प्रकार---
इस संसार का आधिपत्य आंधी में बिखरने वाले बादलों के समान अस्थिर है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर लगे जल-बिन्दु के समान हैं, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा है ।।३।।
धूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर
जो दान नहीं करते उनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ।।४।। १४. इस जगत का विनश्वर रूप विचार कर, अदृष्ट फल को स्वीकार कर, चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी
के रहते तक १५. परमभक्ति के साथ दक्षिणापथ के अन्तर्गत अद्रियलविदा स्थान से देशान्तरगमन करके आए
भारद्वाज गोत्री, भारद्वाज आंगिरस १६. वार्हस्पत्य इन तीन प्रवरों वाले, (वेद की) आश्वलायन शाखा के अध्यायी, ब्राह्मण धनपाल के
पौत्र, महिरस्वामी के पुत्र, विश्वरूप के लिए १७. ऊपर लिखे मालापुरक ग्राम से ९६ पर्व दण्ड के प्रमाण से, दोनों ओर ४२ माप से १८. भूनिवर्तन २० (अंगुल) माप से दो हल भूमि इसी संवत्सर को सदा के अनुसार लिख कर
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भोजपुर का नरवर्मन कालीन जिन-प्रतिमा अभिलेख
(संवत् ११५७=११०० ईस्वी) प्रस्तुत अभिलेख रायसेन जिले में भोजपुर नामक ग्राम में एक पुराने जैन मंदिर में स्थापित तीर्थंकर पार्श्वनाथ की पत्थर की एक प्रतिमा की पादपीठिका पर उत्कीर्ण है। इसका प्रथम उल्लेख इंडियन आकियालाजी, ए रिव्यू, १९५९-६०, क्रमांक बी-२५३ पर है। डी. सी. सरकार ने एपि. इं., भाग ३५, पृष्ठ १८६ पर इसका विवरण छापा । इससे पूर्व मुनि कांतिसागर ने “भोजपुर के प्राचीन स्मारक' नामक पुस्तिका में इसका उल्लेख किया।
अभिलेख ५ पंक्तियों का है। इसका आकार २६४ २० सें.मी. है। अक्षरों की बनावट ११वीं१२वीं शती की नागरी लिपि है। अक्षरों की सामान्य लम्बाई १.२ सें.मी. है। अभिलेख की हालत अच्छी है। भाषा संस्कृत है , परन्तु त्रुटियों से भरपूर है । अभिलेख गद्य-पद्यमय है। इसकी अंतिम ३ पंक्तियों में अनुष्टुभ छन्द में एक श्लोक है। तिथि प्रारम्भ में संवत् ११५७ लिखी है जो ११०० ईस्वी के बराबर है।
इसमें नरवर्मन के राज्य करने का उल्लेख है। वह इसी नाम का परमार राजवंशीय नरेश था। वह उदयादित्य का दूसरा पुत्र था । उसने पिता की मृत्यु हो जाने पर १०९४ ईस्वी में राज
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नागपुर प्रशस्ति
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सिंहासन संभाला एवं ११३३ ईस्वी तक शासन किया। इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख की तिथि उसके शासनकाल में पड़ती है ।
अभिलेख का प्रारम्भ उपरोक्त तिथि से होता है । फिर नरेश नरवर्मन के शासन का उल्लेख है । उसके बाद दानकर्ता के वेमक वंशीय होने का उल्लेख है । आगे श्लोक में कहा गया है। कि दो जिन मूर्तियों को चिल्लण के द्वारा प्रतिष्ठापित करवाया गया । वह नेमिचन्द्र का पौत्र व श्रेष्ठिन राम का पुत्र था । इस प्रकार चिल्लण व्यापारी वर्ग का था तथा भोजपुर का निवासी था । इनमें से एक प्रतिमा वही है जिस पर अभिलेख उत्कीर्ण है ।
यहां यह जानना रोचक है कि उक्त जैन मंदिर में ही तीर्थंकर शांतिनाथ की विशाल प्रस्तर प्रतिमा पर भोजदेव कालीन है ( अभिलेख १७ ) । इस प्रकार भोजपुर नगर नरेश भोजदेव द्वारा
बसाया गया था ।
(मूल पाठ) १. सम्[व]त ११५७ [श्री नरवर्म्म स्वा (सा) म्राज्ये वेम२. कान्वय ( ये )
३.
४.
मधु (न्द्र ) स ( सुतः स्रे ( श्रे) ष्ठी रामाख्या नु
तत्पुत्र चिल्लणाख्येन जि[न]
युग्मं प्रतिष्ठितं (तम्) ।। (१।। ) (अनुवाद)
संवत् ११५७ | श्री नरवर्मन के
साम्राज्य में वेमक वंश में
नेमिचन्द्र सुत श्रेष्ठिन् राम के पुत्र चिल्लण के द्वारा दो जिन ( मूर्तियों) को प्रतिष्ठापित
करवाया गया ||१||
णि सुतियः ।
(३६)
नागपुर का नरवर्मन का संग्रहालय प्रस्तर अभिलेख ( नागपुर प्रशस्ति ) ( संवत् ११६१ = ११०४ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है जो नागपुर के केन्द्रीय संग्रहालय में सुरक्षित । इसका विवरण बालगंगाधर शास्त्री ने ज. ब. ब्रां. रा. ए. सो., १८४३, भाग १, पृष्ठ २५९ व आगे छापा था। प्रो. लॉसेन ने जर्मन भाषा में इसका विवरण एक जर्मन जर्नल में छापा । प्रो. कीलहार्न ने एपि. इं. १८९४, भाग २, पृष्ठ १८० व आगे में इसका विवरण छापा ।
अभिलेख का आकार १३७ x ८४ सें. मी. है। इसके कुछ नीचे एक पंक्ति १५२ सें. मी. लम्बी है । लेखकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है । नीचे का आधा भाग काफी क्षतिग्रस्त है । कुछ अक्षर टूट गए हैं । श्लोक ३४, ४५, ५१ के कुछ अक्षर पढ़े नहीं जा सकते हैं । अभिलेख ४१ पंक्ति का है । अक्षरों की बनावट ११वीं - १२वीं शती की नागरी लिपि है । अक्षर ध्यान से खोदे नहीं गए हैं। छेनी के कुछ निशान बन गए हैं । अतः अनेक अक्षरों में भ्रम होता है । अक्षरों की सामान्य लम्बाई १.५ सें. मी. है।
भाषा संस्कृत है । प्रायः सारा अभिलेख पद्यमय है । इसमें अनेक छन्दों का प्रयोग किया गया है, परन्तु प्रधानता शार्दूलविक्रीडित छन्द की है । कुल ५८ श्लोक हैं । श्लोकों में क्रमांक नहीं हैं
.
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परमार अभिलेख
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा, कहीं पर व्यञ्जन को अनुस्वार एवं कहीं सवर्ण बना दिया गया है। शब्द को अगली पंक्ति में चालू रखने के लिए अकेला या दोहरा दण्ड बना दिया है। अर्द्धविराम के लिए भी दण्ड बना दिया है। दण्ड र के समान प्रतीत होता है। कहीं कहीं पर अक्षर ही गलत हैं। इन सभी त्रुटियों के लिए उत्कीर्णकर्ता उत्तरदायी है।
श्लोक क्र. ५६ के अनुसार यह प्रशस्ति है जो शासनकर्ता नरेश नरवर्मन द्वारा रची गई थी। परन्तु लेख की अत्यधिक लम्बाई देखते हुए इसमें वर्णित वास्तविक तथ्य अत्यन्त न्यून हैं । संभवतः इसी कारण श्लोक ५७ में राजकीय लेखक सुझाव देने पर बाध्य हो गया कि पाठक उचित परिश्रम करें एवं अपनी बुद्धि को कुश के अग्रभाग के समान तीक्ष्ण बनावें।
तिथि पंक्ति ४० में संवत् ११६१ है। इसमें अन्य विवरण नहीं है। यह ११०४ ई. के बराबर है। नरवर्मन का शासन काल १०९४ से ११३३ ईस्वी तक था। अतः यह तिथि उसके राज्यकाल में ठीक बैठती है । ध्येय श्लोक ५५-५६ में वर्णित है । इसके अनुसार नरवर्मन के अग्रज लक्ष्मदेव ने व्यापर मंडल में दो गांव दान में दिए थे। अब उनके स्थान पर नरवर्मन ने मोखलपाटक ग्राम दान में देकर वहां एक देवमंदिर बनवाया एवं प्रस्तुत प्रशस्ति उसम लगवा कर उसका उल्लेख कर दिया।
लोक क्र. ८-१३ में अवुर्द पर्वत पर मुनि वसिष्ठ के निवास करने, उसकी नंदिनी धेनु का विश्वामित्र द्वारा अपहरण करने, वसिष्ठ द्वारा प्रज्वलित अग्नि से अद्वितीय वीर परमार के उत्पन्न होने का विवरण है , जिसके नाम पर वंश का नाम पड़ा। श्लोक १४-१५ में परमार वंश की समता चन्द व सर्य वंशों से की गई है जिनमें राज्यवर्द्धन, विशाल धर्मभृत, सत्यकेतु, पृथ, अज, राम, नल नरेश हव एवं भरत के वंशज गिने गए। यहीं पर पुनः परमार वंश की अग्नि से उत्पत्ति को दोहराया गया है। श्लोक १६-३१ में परमार वंश के नरेशों का विवरण है। इसमें वैरिसिंह द्वितीय, सीयक द्वितीय, मंजराज, सिंधुराज एवं भोजराज के लौकिक विवरण हैं।
___ श्लोक क्र. ३२ महत्वपूर्ण है। इसमें लिखा हुआ है--"उस (भोजदेव) के इन्द्र की बंधुता को प्राप्त होने पर और राज्यस्वामी के कौटुम्बिकों के संघर्षरूपी जल में मग्न होने पर उसका बंधु उदयादित्य नरेश हआ जिसने महासमुद्र के समान संयुक्त रूप से कर्णाट कर्ण आदि नरेशों के द्वारा पीडित इस पथ्वी का उद्धार करके वराह अवतार का अनुसरण किया।" इससे निम्न तथ्य सामने आते हैं-- (१) भोज की मृत्यु के बाद उसके कौटुम्बिकों में संघर्ष होने पर कर्ण ने कर्णाट की सहायता से आक्रमण किया था। (२) आक्रमणकारियों को परमार साम्राज्य से बाहर निकालने का कार्य उदयादित्य ने सफलतापूर्वक सम्पादित किया और (३) उदयादित्य भोज का बंधु था।
उक्त सभी ऐसे तथ्य हैं जो हमें अन्य किसी अभिलेख से ज्ञात नहीं होते। उदयपुर प्रशस्ति (क्र. २२) के श्लोक क्र. २१ में कुछ इसी आशय का उल्लेख है, परन्तु वह केवल सामान्य रूप से काव्यमय विवरण ही है। उसमें आक्रमणकारी शत्रुओं के नामोल्लेख नहीं हैं। इसके अतिरिक्त भोजदेव से उदयादित्य का संबंध भी दर्शाया नहीं गया है।
हमें अन्य आधारों से ज्ञात है कि भोजदेव की मृत्यु के उपरान्त राज्याधिकार प्राप्ति हेतु उसके संबंधियों में संघर्ष हुआ था जिसमें जयसिंह प्रथम सफल हो गया था (अभिलेख क्र. १९२०)। जयसिंह प्रथम ने १०५५ ई. से संभवतः १०७० ई. तक शासन किया था। परन्तु इस सारी अवधि में वह अपने विरोधियों व शत्रुओं से संघर्षरत रहा । इसी कारण उसके लिये दक्खिन के चालुक्यों की सहायता पर निर्भर रहना आवश्यक हो गया। १०७० ई. में एक युद्ध में उसकी मृत्यु के उपरान्त ही उसका विरोधी उदयादित्य राज्याधिकारी बन सका। प्रस्तुत अभिलेख में उक्त
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नागपुर प्रशस्ति
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जयसिंह प्रथम का नामोल्लेख ही नहीं है। केवल इतना ही नहीं पश्चातकालीन समस्त अभिलेखों में से उसके नाम का लोप कर दिया गया।
श्लोक क्र. ३३-३४ में भी उदयादित्य की काव्यात्मक प्रशंसा है। श्लोक क्र. ३५ से ५४ में उसके पुत्र लक्ष्मदेव की काव्यात्मक प्रशंसा है। परन्तु बीच बीच में उसकी विजयों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी प्राप्त होता है। प्रस्तुत प्रशस्ति में अपने बड़े भाई लक्ष्मदेव की प्रशंसा में सर्वाधिक २० श्लोकों के समावेश से इस विश्वास को बल मिलता है कि श्लोक क्र. ५५-५६ में वर्णित ग्रामदानों के नवीनीकरण के अवसर पर नरवर्मन ने मूल रूप से लक्ष्मदेव की प्रशंसा में ही श्लोकों की रचना की होगी, परन्तु पुनर्विचार करने पर बाद में अपने पूर्वजों का भी इसमें समावेश कर दिया गया। परिणामस्वरूप प्रशस्ति का वर्तमान अत्यन्त विस्तृत रूप हो गया।
लक्ष्मदेव की विभिन्न विजयों के वर्णन में श्लोक क्र. ३५-३७ में उसका चारों दिशाओं में सामरिक अभियानों का पारम्परिक उल्लेख है । श्लोक क्र. ३८ के अनसार वह अद्वितीय हाथियों को पकड़ने का इच्छा से पूर्व की ओर गया और गौडपति के नगर में प्रवेश कर गया। श्लोक क्र. ३९-४१ में उसके त्रिपुरी पर आक्रमण करने व शत्रुओं का नाश करने के उपरान्त विंध्य की तराई में नर्मदा नदी के तट पर पड़ाव डालने का उल्लेख है। लक्ष्मदेव का त्रिपुरी पर आक्रमण बहुत संभावित है। वास्तव में त्रिपुरी के चेदिकल्चुरि नरेश मालव के परमारों के चिरपरिचित शत्रु थे। कल्चुरि कर्ण ने मालवा पर आक्रमण कर बहत क्षति पहुंचाई थी। परन्त जयसिंह प्रथम ने दक्खिन के चालक्यों की सहायता से उसको मार भगाया था। कर्ण मर चुका था व उसका पूत्र यशःकर्ण (१०७२-१११५ ई.) अब राज्याधिकारी था। लक्ष्मदेव की बहिन श्यामलदेवी की पत्नी अल्लहणदेवी का विवाह यश :कर्ण के बडे पुत्र गयकर्ण के साथ हो गया था (भेराघाट अभिलेख, एपि इं., भाग २, पृष्ठ १२; का.इं.इं., भाग ४, पृष्ठ ३१६)। फिर भी संभावना है कि लक्ष्मदेव ने चेदि नगरी त्रिपुरी पर आक्रमण कर उसको लूटा हो और मालवा पर हुए आक्रमण का बदला लिया हो (का. इं. इं. भाग ४, पृष्ठ १०३)
श्लोक क्र. ४२-४५ में विंध्य को लांघ कर पूर्व में अंग-कलिंग की सेना से मुठभेड़ का सामान्य विवरण है। श्लोक क्र. ४६ में उसके दक्षिण की ओर जाने का उल्लेख है जहां चोल व अन्यों (जनजातियों)ने उसके समक्ष समर्पण किया। श्लोक क्र. ४७ में इसके पांड्य राज्य के अन्तर्गत ताम्रपर्णी जाने व बहुमूल्य मोती प्राप्त करने का उल्लेख है; जबकि अगले श्शोक क्र. ४८ में उसके सेतुबन्ध तक जाने व सेना के हाथियों से निर्मित पल द्वारा पार करने का विवरण है। वास्तव में लक्ष्मदेव के दक्षिणी अभियान पर किसी निश्चित साक्ष्य के अभाव में विश्वास करने में कठिनाई प्रतीत होती है। यह मात्र कवि कल्पना लगती है।
आगे श्लोक क्र. ४९-५१ में उसके पश्चिमी समद्र तट पर अभियान का अलंकारिक भाषा में वर्णन है। श्लोक क्र. ५२-५३ में उसके उत्तर दिशा में जाने का अलंकारिक वर्णन है। परन्तु श्लोक क्र. ५४ में वर्णित तथ्य विचारणीय हैं। इसके प्रथमार्द्ध में लिखा है--"जिसने खेल-खेल में ही पराजित किये गये तुरुष्कों के द्वारा भेंट किये गये अश्वों के लेटने के कारण केसरमय रेत नरम पड़ गई ऐसी बंक्षु नदी के तट पर (पड़ाव डाला)।" वंक्षु नदी का तादात्म्य सरल नहीं है। सामान्यतः इसकी समता मध्य एशिया में आक्सस नदी से की जाती है। डी. सी. गांगूली लिखते हैं कि बंक्षु नदी गंगा की एक छोटी धारा थी जिसका अब तादात्म्य नहीं किया जा सकता। (प. रा. इ. गां., पृष्ठ ११२-११३)।
यहां तुरुष्कों अर्थात मुस्लिम आक्रमणकारी के नाम का उल्लेख नहीं है। परन्तु समकालीन ऐतिहासिक तथ्यों से ज्ञात होता है कि अफगानिस्तान में गज़नी के प्रख्यात शासक
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परमार अभिलेख
महमूद (९९९-१०३० ई.) के उपरान्त उत्तराधिकारियों में उसका पौत्र इब्राहीम (१०५९१०९९ ई.) शासक बना जिसने महमद नामक अपने पत्र को १०७५ ई. में भारत में अधिकत क्षेत्रों का राज्यपाल नियक्त किया था (केम्ब्रिज हिस्टी आफ इंडिया. भाग ३. पष्ठ ३४)। महमूद ने भारत में अपना विजय-अभियान चलाया। तलवार के बल पर उसने आगरा क्षेत्र जीता व अनेक हिन्दू नरेशों को अपने अधीन कर लिया (इलियट कृत हिस्ट्री आफ इंडिया, भाग ४, पष्ठ ५२४)। फिर उसने अपनी सेनाओं को मालवा की ओर बढाया। तत्कालीन कवि साल्मान ने महमद के इस आक्रमण का वर्णन किया है और राजकुमार को संबोधित करते हुए लिखा है--"तमने प्रत्येक प्रदेश में वर्ष की प्रचण्डतम ग्रीष्म ऋतु में आनन्ददायक स्थानों में आवास किया। इस यात्रा में तुम्हारी सेना ने एक हजार मूर्ति-मंदिरों को नष्ट किया और तम्हारे हाथियों ने सौ से अधिक किलों को पददलित किया। तुम अपनी सेना उज्जैन ले गये। मालवा थर्राया और तुम से भागा" (वही)। संभवतः इसी संघर्ष को प्रस्तुत श्लोक में ध्वनित किया गया है। परन्तु यह सिद्ध करना कठिन होगा कि परमार राजकुमार को मुस्लिम आक्रमण में कितनी सफलता प्राप्त हुई।
श्लोक क्र. ५४ के उत्तरार्द्ध में उल्लेख है--"सरस्वती के किनारे पर निवास करने के कारण जिसने अधिक वाक्चातूर्य प्राप्त कर लिया है, ऐसे वीर नरेश को बाणों के पिंजरे में बन्द कर (लक्ष्मदेव ने) चाटुकारी के शब्द सिखाये"। सरस्वती नदी स्पष्टतः पंजाब की एक नदी का नाम है जो सिरमौर अथवा शिवालिक पहाड़ियों से निकलती है, और अंबाला जिले में अदवर्दी नामक स्थान पर मैदान में प्रवेश करती है। रसूल नामक गांव के समीप यह घघ्घर नदी में मिल जाती है (ज. रा. ए. सो., १८९३, पृष्ठ ५१)। ब्रह्म संहिता (१४.१९) के अनुसार काश्मीरियों के साथ रहने वाली कीर नामक एक जाति है जो उत्तर-पूर्व के प्रदेश में निवास करती है। वैजनाथ उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि कीर नामक स्थान पर राजा लक्षमण में शासन करता था (एपि.ई..भाग १. पष्ठ १६३)। यह गांव कोट कांगडा से पर्व दूर स्थित है। इससे लगभग १०० मील दक्षिण में सरस्वती नदी बहती है। अभिलेखों में बार कीरों पर आक्रमणों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। पालवंशीय धर्मपाल (७८०-८१५ ई.) ने कीरों को परास्त किया था (गौड लेख माला. पष्ठ १४)। चन्देल नरेश यशोवर्मन ९५० ई.) ने कीरशाही से वैकुण्ठ की एक प्रतिमा प्राप्त की जो उसने भोट के शासक से ली थी (एपि.ई., भाग १. पष्ठ १२९. श्लोक ६३)। जब कल्चरि कर्ण (१०४२-१०७२ ई.) ने वी का प्रदर्शन किया तो कीर पिंजरे के तोते की भांति अपने स्थान पर ठहर गये (एपि. इं., भाग २, पृष्ठ १५, श्लोक १२)। अतः यह संभव है कि लक्ष्मदेव ने कांगडा जनपद के इन कीरों से सफलतापूर्वक युद्ध किया हो।
अभिलेख के अध्ययन से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या उदयादित्य के बड़े पूत्र व नरवर्मन के बडे भाई लक्ष्मदेव ने परमार राजवंशीय सिंहासन को सुशोभित किया था। इस संबंध में निम्नलिखित तथ्य उजागर होते हैं:
(१) प्रस्तुत प्रशस्ति में सभी नरेशों के नामों के साथ क्षितिपति, नृप, भूपति आदि उपाधि लगी हुई है, परन्तु लक्ष्मदेव के नाम के साथ इस प्रकार की कोई उपाधि नहीं है।
(२) लक्ष्मदेव का स्वतंत्र रूप से अथवा उसके समय का कोई अभिलेख अथवा दानपत्र आदि प्राप्त नहीं हुआ है।
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नागपुर प्रशस्ति
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(३) परमार राजवंश के पश्चातकालीन सभी प्रशस्तियों अथवा दानपत्रों आदि में लक्ष्मदेव के नाम का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। इसके विपरीत सभी में उदयादित्य के उपरान्त नरवर्मन के ही उत्तराधिकारी होने का उल्लेख मिलता है।
(४) केवल प्रस्तुत प्रशस्ति में ही लक्ष्मदेव की विभिन्न विजयों का उल्लेख मिलता है, जिनकी सत्यता में ही सन्देह होता है।
(५) १९७० ई. में प्राप्त संवत् ११४० तदनुसार १०८३ ई. का कामेद स्तम्भ अभिलेख (क्र. २७) इस तथ्य को उजागर करता है कि अभिलेख के निस्सृत करने से कुछ समय पूर्व ही लक्ष्मदेव की मृत्यु हो गई थी, क्योंकि उसके लिये अक्षयदीप जलाने हेतु उसके अनुज नरवर्मन ने १२ हल भूमि दान में दी थी। इसके अतिरिक्त दोनों भाईयों के नामों के साथ उसमें कोई उपाधि नहीं है, जिससे अनुमान होता है कि अपने पिता के शासनकाल में दोनों ही राज्यपाल के पद पर रहें होंगे।
(६) १९६८ ई. में प्राप्त नरवर्मन के देवास ताम्रपत्र अभिलेख (क्र. ३४) से ज्ञात होता है कि नरवर्मन ने अपने पिता उदयादित्य की वार्षिकी के अवसर पर दो हल भूमि दान में दी थी। अतः उदयादित्य की मृत्यु एक वर्ष पूर्व १०९४ ई. में हुई थी।
(७) नरवर्मन के अमेरा प्रस्तर अभिलेख (क्र. ३३) से ज्ञात होता है कि नरवर्मन तब तक मालव राज्यसिंहासन पर आरूढ़ हो चुका था। अतः उसके पिता उदयादित्य की मृत्यु उससे कुछ समय पूर्व ही होना चाहिये।
स प्रकार इन सभी साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लक्ष्मदेव की सत्य अपने पिता के शासनकाल में प्रायः १०८३ ई. में हो गई थी. और उसने राजसिंहासन को कभी भी सशोभित नहीं किया। अधिक संभावना यही है कि वह अपने पिता के शासनकाल में पूर्वी प्रदेशों का प्रान्तपति था। तथा उसका छोटा भाई नरवर्मन पश्चिमी भाग में प्रान्तपति था। इसी कारण नरवर्मन का संवत ११४० का स्तम्भ दान अभिलेख (ऋ. २७) उज्जैन के पास कामेद में प्राप्त हआ है। अत: लक्ष्मदेव की प्रशंसा व विजयों का जो विवरण प्रस्तुत में प्राप्त होता है वह स्पष्टतः नरवर्मन द्वारा अपने अग्रज के प्रति असीम आदर व अत्यधिक स्नेह की भावना को प्रदर्शित करता है। इस प्रकार यदि लक्ष्मदेव की विजयों में वास्तव में कोई सत्यता है तो अन्य किसी साक्ष्य की प्राप्ति तक प्रतीक्षा करना होगी।
___ भौगोलिक स्थानों में व्यापुर मण्डल नागपुर के समीप ही स्थित होना चाहिये । दान मूलतः व्यापुर मंडल में स्थित ग्रामों का किया गया था। अभिलेख एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है जो स्पष्टतः किसी मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त था। अतः वह अपने मूल स्थान से अधिक दूर नहीं ले जाया गया है। इसीलिये बालगंगाधर शास्त्री ने सुझाव दिया था कि यह स्थान नागपुर के पास ही होना चाहिये (ज. ब. ब. रा. ए. सो., भाग १, पृष्ठ २६४-२६५)। नागपुर के पास रामटेक में अब भी प्राचीन किलों व मंदिरों के अवशेष पड़े हुए हैं। मोखलपाटक का तादात्म्य कठिन है। शेष सभी नाम विख्यात व सर्वविदित हैं।
(मूल पाठ) (छन्द : अनुष्टुभ १, ३, ५, ७, १५, ४६, ५६, ५८; रथोद्धता २, ४, १४; शार्दूलविक्रीडित ६, ८, ९, ११, १३, १७, १८, १९, २०, २२, २३, २४, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३९, ४१, ४३, ४४, ४५, ४७, ४८, ५०, ५१, ५३, ५४, ५५; वसन्ततिलका १०, १२; स्रग्धरा १६, ४२; मालिनी २१, २७, उपेन्द्र वज्रा ३८; उपजाति ४०, ४९, ५२, ५७)
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परमार अभिलेख
१. ओं [1] ओं नमो भारत्यै ।।
प्रसादौदार्यमाधुर्यगमाधिसमतादयः ।। युवयोर्ये गुणाः सन्ति वाग्देव्यौ तेपि सन्तु नः ।।[१।।] एक एव भुवनत्रयेपि स श्रीपतिर्भवतु वो विभूतये । यस्य मध्यमपद श्रितोप्यमी भास्कर प्रभृतयश्चकासति ।। [२॥] जाति वृत्तञ्च वि (बि) [भ्राणा] गु
पालंकारचारवः । सरसाश्च प्रसीदन्तु सूक्तयः सूरयश्च नः ।।३।।] . दुर्द्धरारिपुरभङ्गभीषणो भूरिभूतिसविशेषभूषणः] । [रा]ज राजकृत सक्रियः क्रियाद्वन्हिवंशसदृशः शिवः शिवं ।। [४॥] . जाता महार्णवोत्पन्ने, व (ब्र) ह्माण्डशुक्तिसंपुटे । महेश[स्याच्चि]
ता मुक्ता जयन्त्यम्मोजयोनयः ।। [५।।] वैराग्यं च सरागतां च नृशिरोमालां च माल्यानि च, व्याघ्रानेकपचर्मणी च वसने चाहींश्च हारादि च । यद्म (भू ) तिं च विलेपनं च भजते भीमं च भव्यं च तद्दिश्याद्रुपमुमारमारमणयोर्भुक्तिं च मुक्तिं च वः ।। [६।।] वैश्वरूप्यं सम[भ्य]
स्य मीनाद्याकृतिकतवात् । स्वामिन्ननिम्मिताशेषविश्वोविष्णुः पुनातु वः ।। [७॥ अस्ति ग्रस्तगिरिन्द्रगगरिमा नीलाश्मसानूल्लसकान्तिवातविडम्वि (म्बि) ताम्व (म्ब) रतलः श्रीमान्नगेन्द्रोर्बु (बु) दः । यस्यव्योमतलोद्विलचि शिखर प्रारभार पद्माकरप्रेङखत्पद्मपरागचक्रमि
तरत्र (ब्रह्माण्डखण्डायते ।। [८।।] देवरावृतमभ्रमण्डलमिदं मत्त्यैश्च भूमण्डलं कृत्वा धर्मातुलायमानवपुषो यस्यान्तयोय॑स्य च । जाने यावदवैतुमिच्छति विधिः किं शुद्धमित्येतयोबर्द्ध वं तावदगादमर्त्य शिरवरिस्तम्भान्नभोमण्डलं ।।[९] लेभे विभिद्य जलधिप्र
धिभूमिचक्रमाकाशचक्रमपि येन दिगन्तनेमि । संसारवर्त्मनि महाविषमे निषन्न (ण्ण) भग्नोन्नतैकतटविश्वरथाक्षलक्ष्मीः ।। [१०।। तस्मिन्वेदविदां वरः स भगवाना काशगङ्गापयः पुरप्लावितकान्त कोमल तटे तिष्ठद्व यस्त्रेतानलधूमवत्तियम
नां प्रीत्यै पितुर्व (ब)ह्मणो गङ्गासङ्गमसिद्धये समनय द्व(ब) ह्माण्डखण्डं प्रति ।। [११] विद्यामहासरिदुपान्तवित्तिघोर संसारसैकतविषक्तमसक्तमेते । यस्य त्रिलोकरथमुत्पथ संप्रवृत्तमुत्तारयान्ति शतशोप्युपदेशधुर्याः ।। [१२।।
७.
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नागपुर प्रशस्ति
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
आयातस्य कदाचन क्षितिपतेराच्छिन्दतः कौशिकस्थाति
थ्योचितवस्तु जातजननादानन्दिनीं नन्दिनीं । निता कुपितेन तेन हविषा संहर्षिताद्व (द्व) हिषो वीरः श्रीपरमार इत्यनुपमः सत्याभिधानोभवत् ।। [१३ ।। ]
राज्यवर्द्धन विशालधर्म्मभृत् सत्यकेतु पृथुकीति पार्थिवः । वर्द्धतेयमहिमांशुचन्द्रमः संतति प्रतिकृतिर्यदन्वय
: । । [ १४ । ]
वराजरामराजितोनलोद्भवः सभारतः । ग्रहेन्द्र चन्द्रयोरिव व्यजायतायमन्वय: ।। [१५॥]
वंशेस्मिन्वैरिसिंहः क्षितिपतिरभवद्भूरिद्भूतिप्रभावप्रागल्भ्यौदार्यशौर्य प्रचयपरिचय प्राज्यसौराज्य सिद्ध: । नम्रक्ष्मापालभाल स्थलदलित लुलत्कान्तको
टीरकोटि-त्रुट्यन्माणिक्य चक्रस्थपुटितमणिमत्पाद पीठोपकण्ठः ।। [१६ ।।]
सर्व्वाशाविजयप्रयाणसमये यस्येन्द्रनीलप्रभैमयूरात पवारणैः शुशुभिरे नष्टावकाशा दिशः । सर्पन्मत्त करीन्द्रचक्रचरणप्राग्भा रदीर्ण स्थिरारोद्भूतविषन्न (ण) शेषसविष
श्वासावरुद्धा इव ।। [१७ ।।]
पाताले वडवामुखानलमिषात्पृथ्वीतले च स्फुरत्सौवर्णाचल कैतवाद्वियति च त्र (ब्र ) ह्माण्डखण्डच्छलात् । [च]ञ्चत्काञ्चनचक्रवालवलयव्याजाच्च दिङमण्डले यस्याद्यापि समुल्लसत्यविचलीभूतः प्रतापानलः ।। [१८ ।।]
स्वल्र्लोकेषु च विद्विषत्क्षितिषु च व्यालेन्द्रगेहेषु च स्वाराजं च रिपुव्रजं च मुरजिन्नागाधिराजं च यः । ऐश्वर्येण च विक्रमेण च धराभारक्षमत्वेन च न्यक्कुर्व्वश्च पराभवंश्च समतिक्रामंश्च पृथ्वीमपात् ।। [१९ ।।] तस्माद्वैरिनृपावरोधनवधूवैधव्यदुःखोद्भव
द्वापाम्भ कणशान्तकोपकोपदहनः श्रीसीयकोभून्नृपः । आविर्भावितनूतन स्थितिरयं व्र (ब्र ) ह्माण्डखण्डच्छलाद्यस्याद्यापि विलोक्यते विय [द] धोधूमः प्रतापानलः । [२०] ||
O
अनुगगनमुदस्थुः स्थूलमुक्तोच्चया ये यदसिदलितकुप्यत्कुम्भिकुम्भस्थलेभ्यः । सततमपि पतन्तस्तेद्य यावन्न पृथ्वीं पृथुलतरलताराव्या
भाजो भजन्ते ।। [२१॥]
अत्याश्चर्यमदृष्टमश्रुतमिदं कस्मै समाचक्ष्महे को न्वेतत्प्रतिपद्यते च तदपि प्रस्तूयते कौतुकात् । उद्धृत्यापि वसुंधरामसदृशीं लव ( ब ) ध्वापि लक्ष्मीं च यः कूर्व्वन्कार्यमनेकशः सुमनसामागान्न वैकुण्ठतां । । [ २२ ।।]
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परमार अभिलेख
तस्माद्वै
रिवरुथिनीव (ब)हुविधप्रारब्ध (ब्ध)[य]द्धाध्वरप्रध्वंसक पिनाकपाणिरजनि श्रीमुञ्जराजो नृपः । प्रायः प्रवृतवान्पिपालयिषया यस्य प्रतापानलो लोकालोकमहामहीध्रवलयब्याजान्महीमण्डलं ।।[२३॥] यस्मिन्सर्पति लीलयापि ललितः सैन्यैः समुज्ज
म्मितं वाहव्यूहविसारिधूलिपटलब्यालुप्तदिग्मण्डलैः। अत्यद्रीन्द्र] करीन्द्र [सञ्च]य पदप्रेङ्खोलनोच्छृङ्खलप्रेङ्खच्छृङ्खलतादनिर्भरभृत व (ब्रह्माण्डभाण्डोदरैः ॥२४॥] यनिस्तृ (वि) शनिरस्तमस्तकतया लठ(ब) ध्वान्यथा दुर्लभं देवत्वं स्वकव (ब)न्धमुद्ध]तपधो दृष्ट्वा भटै-.
वेष्टितं। संहर्षात्पततो विमानशिखरादाश्लिष्य कण्ठे हठाद्वीरान्सिङ्ग] ररागिणो रुरुधिरे संभूय सिद्धाङ्गनाः ॥[२५।।] तस्यासीदथ पार्थिवः पृथुयशाः श्रीसिन्धुराजोनुजः स्फूर्जद्वाडवपावकस्फुट[मोहः[सौन्द]र्यशौर्यानलः । यः संग्रामयु
*गान्तवल्गितभुजादुतिदूरोल्लसकल्लोलाथितमण्डलाग्रप [ट]लेनामञ्जलद्भूभृतः ।।[२६॥] व्रजति जयिनि यत्रामित्रजातेन जज्ञे तरलतुरगवेगोद्भुतभूरेणुराजिः । विकटकरटिभारभ्रष्टभूपृष्ठरन्ध्रा दुदित इव समन्तादन्तकालाग्निधूमः ।।[२७।।] गाम्भीर्यं प्रल
यार्णवस्य च व (ब)लं कल्पान्तवातस्य च स्थेमानं कमेठशितुश्च [गुरु]तां [व (ब्रह्माण्ड] भाण्डस्य च । तेजः कालहुताशनस्य च महीयस्त्वं धुचक्रस्य च स्वीत्कृत्येव विनिम्मितं यमविदुःप्रत्याजि पृथ्वीभुजः ।।[२८॥] तत्सूनुर्भुवनैकभूषणमभूद्भूपालचूडामणि-. च्छायाडम्ब (म्ब) रचुम्विताहिकमल: श्रीभोजदेवो नृपः । यस्याद्या[पि]स[माश्रयन्ति चरणौ शक्रासना[ध्या]सिनः स्पर्धाव (ब)न्धविनम्रनिर्जरनटत्कोटीरकोटित्विषः ।।[२९।।] रटत्पटहपाटवप्रकटझर्झरस्फूज्जितस्फुरडडमरूडम्व (म्ब) रोडडमरडिण्डिमोडडामरा। स्फु
टत्करट कुञ्जरप्रपदसंपतत्संभ्रमभ्रमद्भवन[म] भ्रमज्जग[ति] यच्चमू[रुच्च] कैः ।।[३०॥] वैकुण्ठः कमलासनाय चतुरास्याय स्वयंभूः पुनः पञ्चास्याय हराय' शम्भुरपि षड्वत्क्राय पुत्राय च । सेनानीरपि दन्दशूकपतयेजस्रं सहस्राननायाद्यापि स्पृहय
त्यमर्त्यसमितौ यात्कीति]मुत्कीर्तयन् ॥[३१॥]
२२.
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नागपुर प्रशस्ति
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तस्मिन्वासवव (ब)न्धु तामुपगते राज्ये च कुल्याकुले मग्नस्वामिनि तस्य व (ब)न्धुरुदयादित्योभवद्भूपतिः । येनोद्धृत्य महार्णवोपममिलत्कर्णाटकर्णप्रभु] मुवीपालकदथितां भुवमिमां श्रीमद्वराहायितं ।।[३२॥]
__स्मादुग्रतरप्रताप पवनो पारुढ़दुर्दर्शतासादृश्योत्थर विभ्रमादभिमुखैः प्रापञ्चि यैः पञ्चता। मन्ये सोयमिति प्रतीतिविततामर्ष प्रकर्षेण ते भि[त्त्वा]भास्करमण्डलं रिपुभटा: प्रापुः परां निर्वति ॥[३३॥] एकस्यां समितौ विलोक्य विजयं य
__स्यापरस्यां स्तुव[खी ?] - - [वकृ?]तां समर्थयति दृग्जिह्वासहस्रद्वये । कित्वानन्दनिमीलितेक्षणतया श्रौतै ः सुखैर्वञ्चितश्चक्षुः (एक) कर्णमकर्णमप्यहिपतिः स्वीयं वपुनिन्दति ।। [३४।।] पुत्रस्तस्य जगत्रयैकतरणेः सम्यक् प्रजापालनव्यापारप्र
वणः प्रजापतिरिव श्रीलक्ष्मदेवोभवत् । नीत्या येन मनुस्तथानुविदधे नासौ न वैवस्वतः सर्वत्रापि सदाप्यवर्द्धत्तं यथा कीर्तिनवैव स्वतः ।। [३५।।] संभूय ध्रियतां गुरुव (ब) लमराद्भूः कर्भराजादयः सद्यो नश्यत [वा द्रुतं नमत वा प्रत्य
थिपृथ्वीभुजः । चक्षुर्मक्षु पिधीयतामनिमिषाः पांसुः पुरा पुरय त्येवं व्याहरति प्रयाणपटहो यस्य स्वनच्छद्मना ।। [३६।।] यस्मिन्सप[ति] वा (बान्धवोपि विधुरैः पूर्वैः परित्यज्यते कल्याणस्य कथापि कातरतया नापेक्ष्यते दक्षिणैः । आशावल्लिरस
त्फलेति विकलैनिश्चीयते पश्चिमैमत्तुं केवलमुत्तमैन्नपतिभिर्दैधाप्ययोध्यास्ते ॥ [३७॥] प्रयाति यस्मिन्प्रथमं दिशं हरेज्जिहीर्षयानन्यसमान दन्तिनां। यथाविशद्गौडपतेः पुरंदरास्तथा] शशङके सहसा पुरंदरः ।। [३८।। उत्साहोन्नति सन्निमित्तजनि
ताजस्रयाणक्रमेणाक्रम्य त्रिपुरी रणकरसिकान्वि[ध्वं]स्य विद्वेषिणः । येनावास्यत विन्ध्यनिर्झरमरुत्संचारचारूल्लसलीलोद्यानलतावितानवसतौ रेवोपकण्ठस्थि] ले ।। [३९।।] जातानि जन्यश्रममार्जनानि वीजानि यत्कुञ्जरमज्जनानि । तटाचलो
च्चाटनतत्पराया रेवाप्रवाहोम्मि परंपरायाः ।। [४०॥]
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परमार अभिलेख
ये व्यालोलकरालनिर्झरकराः कुम्भायमानोन्नमस्कूटान्ताः कटकान्तभागविगलद्दानायमानाम्भसः । प्रायस्तेपि विरोधिसिन्धुरधिया यद्वाहिनीवारणरुन्मीलन्मदमेदुरै वि (वि) भिदिरे विन्ध्ययस्य
__ पादाचला: ।। [४१॥] स्फार[त्वक्सा]खारस्थगितगुरुतटीकूटकुट्टकटङकप्रायप्रेङ्खत्खुराग्रत्वरित[ह]रिचमूचक्रच[ङक्राम्यमाणाः । येनालङध्यन्त सेनाकरिकरटत टोद्दामदानाम्वु (म्बु) गन्धव्याविद्धागण्यवन्यद्विपकुलपटलध्यामला विन्ध्यपादाः ।। [४२।।] ये दिक्सिन्धुरव (ब)
न्धवः क्षयमरुल्लोलाद्रिसत्ता] भृतः क्रीडाक्रीडकुटुम्ब (ब) का [न्ति] जलमुक्सव (ब)ह्मचर्याजुषः । यत्सेनानृपगन्धसिन्धुरमरुन्मैत्रीविहस्तीकृतस्तैरप्यङ्गकलिङ्ग कुज्जर कुलयुद्धा[य]व (ब)द्धोञ्जलिः । [४३॥] देवासौ पुरुषोत्तमः स भगवानाशिश्रिये यः श्रिया येनेदं व (ब) लिवैरिव (ब)न्धविधिना विश्व समाश्वासितं । येनाधारि वसुन्धरेति दधतः सानन्दमन्दाक्षतां यस्य प्राच्यपयोनिधौ वु(बु)धजनैास्तुतिः प्रस्तुता ॥ [४४।।] ये कल्पानलधूममण्डलनिभाः कादम्वि (ब) नीविद्विषः संवतॊल्लसितान्धकारसुहृदस्त्रुट्य
द्वियद्वा (द्वा)न्धवाः । व ---- [आहव] श्रमनुदे पा[थो] वगाहोद्यतैर्यत्सामन्तमतङ्गरधरितास्तेप्यम्वु (ब)धेरुर्मयः ।। [४५।।] कुम्भसंभवसोदर्ये यत्रापाचीमुपा[छे] ति । चोलाद्यन्र्नीच][भूत्वा] विन्ध्यवा (बा)न्धवतादधे ।। [४६।।] ली [ला]म्भ:प्लवने यदीयपृतनासामन्त- .
सीमन्तिनीश्रोणि [श्रेणि [विशी]र्यमाणर[श]नामुक्ताः पतन्तिस्म याः । ताभिः संप्रति पप्रथेनु पृथिवीं यत्ताम्रपर्णीपय : पश्याद्यापि तदेव पाण्ड्यनृपतेर्जी]वातवे [जा]य[ते] ।। [४७] ।। स्वामिन्नेष स सेतुरत्रभवतो रामस्य यो मारुतिप्रायोपाहृत
शैलशृंङ्गरचितो वद्धिष्णुविन्ध्यायते । इत्या[दत्य कुतूहलेन कथितं तज्ज्ञ] रवज्ञाय यः सेनाहास्तिकसेतुनैव विदधे द्वीपान्तरोपक्रमं ।। [४८।।] अथावभज्योभयथा यमाशां यस्या नघे] सर्पति सैन्यसङ्के। अभूत्स्वकीयां ककुभं व्यपायाद्गो
___ पायितुं पाशभृदप्यपाशः ।। [४९।।] मैनाक प्रमुखा वसन्ति कुहाचित्कालाग्निरास्ते क्वचित्सन्ति क्वापि तिमिगिलप्रभृतयः कुत्रापि शेते हरिः । एतद्वेत्ति न कोपि जलधौ [तस्याप्य[शेष] पय[:] पीत्वा यत्करिभिः कृतकचुलुकैस्तैस्तै
रगस्त्यायितं ॥[५० ॥
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नागपुर प्रशस्ति
१६५
यः संभूय तिमिङ्गिलप्रभृतिभिः संसप्पिणस्तन्वि]ते पोताधानसव (ब) न्धुतां शिखरिणो मैनाकमुख्या अपि । भ्राम्यन्मन्दरडम्व (म्ब) राणि दघिरे तैरप्यशेषेम्वु (म्बु)धौ यत्सेनागजराज[पीव]रकरा--- नोच्छृङ्खलै ।।[५१।।] अथातितिक्षोरिव राज
राज मन्यं तदाशां प्रति यस्य यातुः । द्विधापि भीत्युज्झितवित्तपार्शभूपैः प्रतीपैविभयर्व (ब) भूवे ।।[५२।।) आरामा: समरा मरावपि तदा पुन्नागपूगादिमद्गुल्मान्तवनदेवतायितजय श्रीमद्यश: पादपाः । यस्यासन्भुजदण्डचण्डि]मलसल्लोलासिलक्षीकृतक्षोणी पालक
पालमण्डलगलत्कीलालकुल्याकुला : ॥[५३॥] खेलोत्खाततुरुष्कदत्त विलसद्वाहावलोवेल्लनक्लाम्यत्कुङकुमकेसराधिकमृदौ वंशूपंकण्ठस्थले । येनावास्य सरस्वतीसविधतासाधिक्यवाक्पाटवश्चाटूनुत्कट[प]त्रिपञ्जरगत : कीराधिपोध्याप्यत ।।[५४॥] तेन व्यापुरमण्डले सुकृति
ना यस्म ग्रहेन्द्रग्रहे यद्ग्रामद्वयमग्रियेण विधिना विश्राणितं श्रद्धया। तभ्राता नरवर्मदेवनृपतिः पश्चात्परीवर्त्य तद्ग्रामं मोखलपाटकाख्यमदिशद्देशत्रयस्येच्छया ॥[५५।।] तेन स्वयंकृतानेकप्रशस्तिस्तुतिचित्रितं । श्रीमल्लक्ष्मीधरेणतद्देवागारमकार्यत ।। [५६।।]
सं ११६१
४१.
ओं
हंहो वु(बु)धाः साधु समुत्सहध्वं कुशाग्रकल्पां च धियं विधध्वं। मध्यस्थभावं च समाश्रयध्वं सुखं च नः सूक्तिसुधामुपाध्वं ।। [५७॥] वन्दनीयावुभौ सूक्तिश्रोतरौ तौ विपश्चितौ। यावश्रु मुञ्चतः सान्द्रमानन्दालस्यनिर्भ (ब्र्भ)रौ॥[५८॥]
(अनुवाद) १. ओं! ओं सरस्वती को नमस्कार। १. हे सरस्वती एवं दुर्गा देवियो! प्रसाद, उदारता, मधुरता, चित्त एकाग्रता, समता आदि
आप दोनों के जो गुण हैं वे हमको भी प्राप्त हों। २. तीनों भुवनों पर वर्तमान एकमात्र विष्णु आपके कल्याण के हेतु हो, जिसके मध्यमपद ____ आकाश पर आश्रित होने पर सूर्य इत्यादि प्रकाशित होते हैं। ३. जाति, वृत्त (छन्द आदि) को धारण करने वाली, गुण व अलंकारों से मनोहर, रसों से
परिपूर्ण, सूक्तियों तथा जाति (कुल) वृत्त (आचरण) से सम्पन्न, गुणरूपी अलंकारों से यक्त, मधुर व्यवहार वाले विद्वज्जन हम पर प्रसन्न हों।
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परमार अभिलेख ४. दुर्जय शत्र नगरी को भंग करने हेतु भयानक, बहुभस्म जिनका विशेष भूषण है, कुबेर
के द्वारा पूजित, अग्नि के वेश के समान शिव आपका कल्याण करें। ५. प्रलयकालीन समुद्रजन में उत्पन्न, ब्रह्माण्ड रूपी सीपियों के संपुट में, शिवजी के पूजित,
कमलों से उत्पन्न ऐसे मोतियों (मुक्त व्यक्तियों) की जय हो। ६. उमा व रमा के साथ रमण करने वाले क्रमशः शिव व विष्णु के रूप जो क्रमशः
वैराग्य व रागता, मुंडों की माला व पुष्पों की माला, बाघचर्म व साधारण वस्त्र, सर्प व पुष्पों के हार, भस्म व चन्दन, भयानकता व भव्यता से युक्त रहते हैं, आपको आनन्द
व मुक्ति प्रदान करें। ७. मत्स्यादि अवतारों के बहानों से विश्वरूप का अभ्यास कर समस्त विश्व को अपने से
अभिन्न जिसने निर्मित कर दिया है (विश्वव्यापिता), वह विष्णु आपका रक्षण करे। ८. शोभायुक्त अर्बुदपर्वत है, जिसने श्रेष्ठ पर्वतों के गर्व को भी पूर्णरूप से चूर कर दिया है
और जो अपने नीलवर्ण शिखर से निकलती हुई श्रेष्ठ कान्ति द्वारा आकाश को मात करता है, जिसके गगनचुम्बी विस्तृत शिखर पर स्थित सरोवरों के जल में इधर उधर झूमते
हुए कमलों के परागचक्र मानो ब्रह्माण्ड के नभमण्डल हों। ९. गगन मण्डल देवताओं से घिरा है तथा भूमंडल मानवों से व्याप्त है। धर्म तुला के रूप
में स्थित जिस अर्बुद पर्वत के दोनों छोरों पर "उक्त दोनों में कौन शुद्ध है" ऐसा जानने की मानो ब्रह्मदेव इच्छा रख रहा है। इतने में ही देवतागण लघुता के कारण गगनमंडल में चले गये, ऐसा मैं मानता हूँ। __जिसका एक छोर पृथ्वी मण्डल को आवृत्त करने वाले समुद्र को छूता है और दूसरा छोर आकाशमंडल को आवृत्त करने वाले क्षितिज को स्पर्श करता है, ऐसा वह पर्वत मानो विश्वरूपी मार्ग में, जो अत्यन्त विषम है, फंसे हुए विश्वरथ की धुरी की शोभा
को धारण करता है, जिसका एक भाग भग्न होकर मानो ऊपर की ओर उठा हुआ है। ११. इस पर्वत पर, जिसका सुन्दर किनारा आकाश गंगा की जल की बाढ़ से प्लावित होता
रहता है, वेदज्ञाताओं में श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठ रहा करते थे, जिन्होंने तीन प्रकार की हवनाग्नियों के समूह से घिरी यमुना को, अपने पिता ब्रह्मदेव की संतुष्टि के लिये ब्रह्माण्ड खण्ड
की ओर मोड़ दिया ताकि वह गंगा से संगम कर सके। १२. विद्यारूपी महानदी के समीप रहने वाली जो घोर संसार रूपी रेती से भरपूर किनारे में
फंसा हुआ है व उन्मार्ग की ओर पथभ्रष्ट हुआ ऐसे त्रैलोक्य रथ को जिस (वशिष्ठ)
के सैकड़ों उपदेश रूपी घोड़े उद्धार करते हैं। १३. जब किसी समय आये हुए क्षितिपति विश्वामित्र ने अतिथि सत्कार के लिये उचित वस्तुओं
को प्रदान करने में समर्थ नन्दिनी नामक गाय को वनि कुपित होकर होम द्वारा अग्नि को प्रसन्न किया, जिस से अद्वितीय वीर परमार की उत्पत्ति
हुई जिसने अपना नाम सार्थक किया। १४. जिस (परमार) का वंश सूर्य व चन्द्र वंशों के नेरेशों राज्यवर्द्धन, विशाल धर्मभृत, सत्यकेतु
व पृथु की प्रतिकृति रूप है, वह वृद्धिगत हो रहा है। अथवा जो वंश राज्य को बढ़ाने वाले, विशाल धर्म का पालन करने वाले, सत्य जिनकी पताका है और विशाल जिनकी कीर्ति है, ऐसे सूर्य चन्द्र वंशों के नरेशों की प्रतिकृति रूप वृद्धिगत हो रहा है।
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नागपुर प्रशस्ति
१६७ १५. इस वंश में जो अग्नि से उत्पन्न हुआ, अजर अमर एवं अपराजित नरेश हुए जो विद्वानों की
सभा में रत रहे और सूर्य व चन्द्र वंशों के समान प्रतिष्ठित हुए, जिन वंशों को श्रेष्ठ अज और
राम ने शोभायमान किया, जिनमें नल उत्पन्न हुआ एवं जिनमें भरत के वंशज गिने गये। १६. इस वंश में वैरिसिंह नामक नरेश हुआ जो विशाल ऐश्वर्य के प्रभाव, प्रढ़ौता, उदारता,
शौर्य आदि गुणों के विशिष्ठ परिचय से समृद्ध सौराज्य सिद्ध को प्राप्त हुए। १७. समस्त दिशाओं की यात्राओं के समय में, इन्द्रनील मणि के समान जिनकी कांति है ऐसे
मयूर छत्रों से व्यस्त दिशायें शोभायमान हो रही थीं, और चलते हुए उन्मत्त हाथियों के समूहों के चरणों के पूर्व दिशा में भार पड़ने से पृथ्वी में दरारें पड़ गईं एवं वे दरारें मानों
त्रस्त हो गये हुए शेषनाग के विषयुक्त श्वासों से अवरूद्ध हो गईं। १८. जिसकी प्रतापाग्नि, जो पाताल में वडवाग्नि के बहाने से, भूतल के ऊपर मेरू पर्वत
के बहाने से, आकाश में ब्रह्माण्ड खण्ड के बहाने से, और दिशाओं में उड़ने वाले सुवर्णमय चक्रवालों के मण्डलों के बहाने से, किसी प्रकार भी विचलित न होते हुए आज भी
शोभायमान हो रही है। १९. स्वर्गलोक के स्वराज्य सौरभ को अपने ऐश्वर्य से तिरस्कृत करता हुआ, शत्रु नरेशों में
रिपु समूह को पराक्रम से पराभूत करता हुआ और पाताल में शेषनारायण के पृथ्वी को
धारण करने की क्षमता का अतिक्रमण करता हुआ वह पृथ्वी का पालन कर रहा था। २०. उस (वैरिसिंह) से श्री सीयक नरेश उत्पन्न हुआ। शत्रु नरेशों के अन्तःपुर की वधुओं के
वैधव्य दुख से उत्पन्न हुए आश्रुकणों से शांत हो गई है कोपाग्नि जिसकी ऐसा, धूम्ररूपी आकाश के नीचे ब्रह्माण्ड खण्ड के बहाने से जिसने अपनी नवीन स्थिति उत्पन्न की है । उसकी
ऐसी प्रतापाग्नि आज भी देखी जा रही है। २१. जिसकी तलवार के प्रहार से क्रुद्ध हाथियों के मस्तकों से छोटे २ मोती उड़कर आकाश की
ओर ऊंचे चले गये, और वे आज भी विशाल तरल तारागणों के रूप में निरन्तर गिरते
हुए भी पृथ्वी पर नहीं पहुंच पाये हैं। २२. ___अत्यन्त आश्चर्य है कि यह न तो सुना गया और न देखा गया। यह किसे कहें, कौन इसे
स्वीकार करेगा ? तथापि कौतुकवश प्रस्तुत किया जाता है । पृथ्वी का उद्धार करके भी अननुरूप लक्ष्मी को प्राप्त करके भी, अनेक देवताओं का कार्य करने पर भी, वैकुण्ठता को
प्राप्त नहीं हुआ ( विष्णु के समान)। २३. इससे श्री मुंजराज नरेश हुआ जो शत्रुसेना द्वारा आरम्भ किये गये युद्ध-यज्ञ के प्रध्वंस के
लिये एक शंकरस्वरूप था, जिसकी प्रतापाग्नि ने पालन करने की इच्छा से लोकालोक विशाल
पर्वत के बहाने से समस्त भूमण्डल को व्याप्त कर लिया। २४. जब वह आमोदपूर्वक प्रयाण करता था तो अश्वसमूह से फैलने वाली धूली से आच्छादित
कर दिया है समस्त दिग्मंडल जिन्होंने ऐसे तथा पर्वतराजों से भी विशाल राजराजों के समूहों के पदों की शृंखलाओं के नाद से पूर्णतया समस्त ब्रह्माण्ड परिपूरित कर दिया
है जिन्होंने ऐसे सुन्दर सैन्यों से समस्त (भूमंडल) व्याप्त हो जाता था। २५. जिसकी खङ्ग से मस्तक विद्विन्न हो जाने से अन्यों को दुर्लभ ऐसे देवत्व को प्राप्त करके,
उठाये गये हुए अपने धड़ों को सैनिकों द्वारा घिरा हुआ देखकर, अत्यन्त हर्षपूर्वक विमानशिखरों से नीचे की ओर गिरने वालों को समस्त सिद्धांग्नायें समूह बनाकर, कण्ठ में आलिंगन करके, युद्ध के अनुराग रखने वालों को रोकने लगती थी।
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परमार अभिलेख
२६.
उस (मुंज) का छोटा भाई विशाल कीर्तिमान सिंधुराज हुआ जो दैदीप्यमान बड़वाग्नि के समान स्पष्ट जिसका तेज है ऐसा, सुन्दरता से परिपूर्ण, पराक्रमाग्नि रूप था, जिसने संग्रामरूपी प्रलयकाल में चलायमान भुजाओं के झंझावात से कल्लोलरूप में परिणत हुए राजमंडलों के पटलों से शत्रु नरेशों को डुबा दिया ।
जब वह नरेश विजित होकर प्रस्थान करता था तब उसके चंचल अश्वों के वेग से उठे हुए धूल के बादल उसके शत्रुसमूह को ऐसे प्रतीत होते थे जैसे कि भयानक हाथियों के भार से क्षत भूमि की दरारों से उठने वाली सर्पनाशक अग्नि के धुऐं के समान हों ।
२७.
२८.
२९.
३०.
३१.
३३.
शत्रुपक्ष के नरेश जिसको प्रलय के समुद्र की गंभीरता, कल्पों का अन्त करने वाली वायु के बल कच्छपावतार की स्थिरता, ब्रह्माण्ड रूपी भाण्ड की गुरुता, कालाग्नि के तेज और गगनमंडल की विशालता से युद्ध स्वीकार कर जानने लगे ।
उसका पुत्र श्री भोजदेव नरेश हुआ जो संसार का अद्वितीय भूषण था, जिसके चरण कमल नरेशों की चूडामणियों की कांति द्वारा अलंकृत थे, व जिसके चरणयुगल पर आज भी, जब कि वह इन्द्रासन पर विराजमान है, स्पर्धा के बंधन से विनम्र देवतागणों के मुकुटों के अग्रभागों की कांतियां आश्रय पाती हैं ।
जिसकी सेना, नगाड़ों की ध्वनियों झर्झरों की गर्जनों, बहुसंख्यक डमरूओं की कर्कश ध्वनियों एवं मृदंगों के गूंजते स्वरों से युक्त थी, और उन्मत्त गजों के पदविन्यासों की घबराहट से समस्त भवन मानों जिसमें घूम रहे हैं, ऐसे जगत में भ्रमण करती थी ।
३२.
उस (भोजदेव ) के इन्द्र की बंधुता को प्राप्त होने पर ( दिवंगत होने पर) और राज्य - स्वामी के कौटुम्बिकों के संघर्षरूपी जल में मग्न होने पर उसका बंधु उदयादित्य नरेश हुआ, जिसने महासमुद्र के समान संयुक्त रूप से कर्णाट कर्ण आदि नरेशों के द्वारा पीड़ित इस पृथ्वी का उद्धार करके वराह अवतार का अनुसरण किया ।
३६.
आज भी जिसकी कीर्ति का देवसभा में गान करते हुए विष्णु चतुर्मुखी शिव से, शिव षडमुखी पुत्र कार्तिकेय से, कार्तिकेय सहस्रमुखी शेषनारायण से ( गुणगान की ) अभिलाषा करने लगे ।
अतिउग्र प्रताप के पवन से उत्पन्न हुई जो चकाचौंध के सामने से उत्पन्न हुए सूर्य के भ्रम से अभिमुख हुए जिन्होंने मृत्यु जिससे प्राप्त की। सूर्य मण्डल को छोड़कर यही सूर्य है ऐसा विश्वासपूर्वक मानकर के शत्रु सैनिक परम सुख को प्राप्त हुए ऐसा मैं मानता हूं ।
३४.
एक सभा में उसकी विजय को देखकर और दूसरी सभा में स्तुतिगान ( का श्रवण करके ) दो सहस्र जिह्वाओं से समर्थन करता है, किन्तु जब आनन्द विभोर हो नेत्र बन्द कर लेता है (नेत्र ही कर्ण का कार्य करने के कारण ) तो श्रवण सुख से वंचित होने पर वह भुजंगराज अपने शरीर की निंदा करता है ।
३५.
तीनों लोकों में सूर्य के समान उस ( उदयादित्य ) का लक्ष्मदेव नामक पुत्र हुआ जो सम्यकरूप से प्रजापालन के कार्य में प्रजापति के समान दक्ष था, जिसने नीति द्वारा मनु का अनुकरण किया, 'दण्ड देने में वह यमराज नहीं ऐसा नहीं था । उससे उसकी नवीन कीर्ति सर्वत्र स्वयं ही फैलने लगी ।
जिसकी विजय यात्रा गर्जना के बहाने से घोषित कर रहा था कि कूर्मराज आदि मिलकर शक्तिपूर्वक पृथ्वी को वहन करें और जो शत्रुनरेश हैं वे या तो नष्ट हों या तत्काल नत हों । हे देवगणों, इससे पूर्व कि वे धूल से भर जावें, शीघ्र ही अपने नेत्रों को बन्द कर लो ।
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३७. उसके (दिग्विजय पर) प्रयाण करते हुए पूर्व के नरेशों द्वारा अपने बंधुगण भी त्यागे जाते
हैं, दक्षिण के नरेशों द्वारा कातरता के कारण कल्याणकारी कथाओं की उपेक्षा की जाती है, पश्चिम की नरेश अपनी आशा-लताओं का फल अनिष्ट ही है ऐसा निश्चय करते हैं, और उत्तर के नरेशों ने केवल मृत्यु का आलिंगन करना ही श्रेष्ठ माना है (अंतिम पंक्ति कुछ
अशुद्ध प्रतीत होती है)। ३८. अद्वितीय हाथियों को पकड़ने की इच्छा से वह पूर्व दिशा की ओर गया, व जैसे ही गौडपति .
के नगर में उसने प्रवेश किया वैसे ही इन्द्र भी सहसा शंका करने लग गया। ३९. उत्साहयुक्त व उन्नतिशील उसने जब क्रम से प्रयाण किया, तब त्रिपुरी पर आक्रमण करके
व केवल युद्धों में आनन्दित होने वाले शत्रुओं का नाश करके जब उसने रेवा के किनारे वास किया तब उसके तम्बू आनन्ददायक बगीचों की लताओं से आवृत्त, व विंध्य पर्वत के
झरनों से संचरित होने वाली वायु से आनन्दपूरित थे। ४०. जब उसके हाथी युद्ध में उत्पन्न होने वाली थकान की रेवा नदी के जल में स्नान द्वारा दूर
करते थे तो उनसे उत्पन्न होने वाली लहरें मानो नदी के प्रवाह की परम्परागत लहरों
से भी बढ़चढ़ कर होती थी। ४१. उसकी सेना के हाथी जो बहते हुए मद की धाराओं से ढके हुए थे, विन्ध्य पर्वत की
तराई में स्थित छोटी पहाड़ियों को भी भेद देते थे जैसे कि वे शत्रुओं के हाथी ही हों, क्योंकि इनके कंपकंपाते विकराल झरने मानो सूड़ें, उनकी आगे झुकी हुई चोटियां मानो
गण्डस्थल और उनके कमरबंधों से निकलता हुआ जल मानो बहता हुआ मद ही हो। ४२. जिसने विंध्य की तराई की पहाड़ियों को पार किया जो कि विशाल बांसों की झाड़ियों से
आच्छादित भाग पर काटे गये हुए बांसों के नुकीले भागों में संचरण करने वाले खरानों से शीघ्र गति वाली अश्व सेना द्वारा आक्रमण किये गये हैं और जो पहाड़ियां सेना के हाथियों के गंडस्थलों के मदगंध से आकृष्ट अगणित जंगली हाथियों के समूह से श्यामल
हो गई हैं। ४३. दिग्गजों के बंधु के समान, प्रलयकालीन अंधड़ से चलायमान पर्वतों की शोभा को धारण
करने वाले, अपने साथियों से सूड द्वारा जल बोछार करने की क्रीड़ा से जल वर्षा करने वाले मेघों की शोभा को धारण करने वाले अंग व कलिंग के गजसमूहों ने जिस (लक्ष्मदेव) की सेना के नरेशों के हाथियों के मदगंध-वायु से पराजित होकर युद्ध में हाथ जोड़ लिये,
अर्थात दया की प्रार्थना की। ४४. जो भगवान विष्णु श्री (लक्ष्मी) से आश्रित हुए वह पुरुषोत्तम है, जिसने शत्रु बलिराजा
के बंधन से सारे जगत को आश्वस्त कर दिया, और जिसने वसुन्धरा धारण की, इस प्रकार आनन्द से अधखुले नेत्रों को धारण करने वाले जिस विष्णु की पूर्व पयोधि में बुधजनों ने मिथ्या स्तुति प्रस्तुत की है। (मिथ्या इसलिये कि लक्ष्मदेव ने उक्त सभी बातें
पहिले ही पूर्ण कर दी हैं)। ४५. कल्पाग्नि के धूम्रमंडल के समान काली, मेघमाला से द्वेष करने वाली (अर्थात् इससे भी
काली), प्रलयकाल में फैलने वाले अंधकार की मित्र (अर्थात काली) और टूटते आकाश के बंध (अर्थात काला), ऐसी समद्र की लहरों को, यद्ध के परिश्रम के निवारणार्थ, जल में प्रवेश करने के लिये उद्यत, जिसके सामन्तों के हाथियों ने अपनी कालिमा से छोटा कर दिया।
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१७०
परमार अभिलेख
५०.
४६. कुम्भोत्पन्न अगस्त्य के समान जब उसने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया तब चोल आदि
उसके सामने अवनत होकर विन्ध्य पर्वत के समान नत हो गये। ४७. जल विहार के समय जिसकी सेना के सामन्तों की रानियों की कटियों पर बंधी मालायें
टूट कर गिरती हैं, उनसे पृथ्वी पर जिस ताम्रपर्णी का जल प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ, देखो
आज भी वही (जल) पांड्य नरेश के जीवनयापन का साधन बना। ४८.. (जब लक्ष्मदेव समुद्र तट पर पहुंचे तब) जानकार व्यक्तियों द्वारा बड़े आदरपूर्वक कौतूहल
से कहा गया कि 'महाराज यह श्री रामचन्द्र का वह सेतु है जो मारुति आदि द्वारा लाये गये पर्वत शिखरों से विरचित, वृद्धि को प्राप्त होता हुआ, विंध्याचल के समान शोभायमान है'। (परन्तु जिस लक्ष्मदेव ने) उसकी उपेक्षा करते हुए सेना के हाथियों से
निर्मित पुल से ही जाने का उपक्रम किया। ४९. इसके उपरान्त दोनों दिशाओं को (पूर्व-दक्षिण) का भेदन कर जिसका सफल सैन्य समूह
आगे बढने लगा तो अपनी दिशा (पश्चिम) को संकट से रक्षा करने वाले पाश धारण करने वाले अरुण ने पाश का त्याग कर दिया।
यद्यपि उसके हाथियों द्वारा समुद्र में सारा जल अगस्त्य के समान अनेकों बार पूर्णरूप से पी लिया गया, परन्तु यह कोई नहीं जान पाया कि मैनाकादि पर्वत कहां स्थित है
तिमिंगलादि मत्स्य कहां है और विष्णु कहां सोते हैं । ५१. जिस समुद्र में तिमिंगलादि महामत्स्य सम्मिलित होकर नावों की समानता को धारण करते
हैं, व मैनाक आदि पर्वत भी मन्दराचल पर्वत के भ्रमण की शोभा को धारण करते हैं, वही क्रियायें जिसकी सेना के गजराजों के पुष्ट सूंडों के . . . . . . उच्छृखल संचालनों से
सम्पन्न होती थी। ५२. इसके उपरान्त मानो अगले नरेश (कुबेर) को असहन करते हुए उसकी दिशा (उत्तर)
की ओर प्रयाण करने पर (कुबेर के) शत्रु नरेश, जिन्होंने उसके भय के कारण उत्तर
दिशा को ही त्याग दिया था, वे सभी (लक्ष्मदेव के आते ही) निर्भय हो गये। ५३. तब पुन्नाग व पूग आदि के वृक्षों के झुंडों में वनदेवता के समान संचरण करने वाली
जिसकी विजयश्री थी व जहां के वृक्ष उसकी कीर्तिवृक्ष हो गये थे, इस प्रकार वन भी, उपवन तुल्य बन गये थे, तथा जो वृक्ष जिसके भुजदण्डों के उग्र संचालनों से लक्ष बनाये
गये हुए नरेशों के मस्तक समूहों से झरने वाले रक्त की नदी से सिंचित हो रहे थे। ५४. जिसने खेल २ में ही पराजित किये गये तुरुष्कों के द्वारा भेंट किये गये अश्वों के लेटने
के कारण केसरमय धरती नरम पड़ गई ऐसी वंक्ष नदी के तट पर (पड़ाव डाला), सरस्वती के किनारे पर रहने के कारण, जिसने अधिक वाक्चातुर्य प्राप्त कर लिया है, ऐसे वीर
नरेश को वाणों के पिंजरे में बन्द कर चाटुकारी के शब्द सिखलाये। ५५. उस पुण्यात्मा (लक्ष्मदेव) ने सूर्यग्रहण के अवसर पर श्रद्धा से विधिपूर्वक व्यापुर मंडल में
पूर्व में जो दो गांव जिस (ब्राह्मण) के लिये दिये, उसके पश्चात् उसके भाई नरेश नरवर्मदेव ने तीनों स्थानों की इच्छा द्वारा उसके बदले मोखलपाटक नामक ग्राम आज्ञा
द्वारा दिया। ५६. श्री लक्ष्मी (राज्य लक्ष्मी) को धारण करने वाले उस (नरवर्मन) के द्वारा अपने द्वारा
रचित अनेक स्तुतियों एवं प्रशस्तियों से चित्रित यह देवमंदिर बनवाया।
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मधुकरगढ़ अभिलेख
११६१
ओं
५७.
हे श्रेष्ठ विद्वज्जनों, आप उत्तम रीति से उत्साह रखिये व अपनी अपनी बुद्धि को कुशाग्र के तुल्य बनाइये, मध्यस्थभाव (निष्पक्षता ) स्वीकार कीजिये और हमारी इस सूक्ति रूपी अमृत का सुखपूर्वक आस्वादन कीजिये ।
सूक्तिकार व श्रोता, ऐसे दोनों विद्वान वन्दनीय हैं जो सूक्ति को सुनकर आनन्द विभोर होकर आनन्द के आश्रु बहाते हैं ।
५८.
( ३७ )
मधुकरगढ़ का नरवर्मदेव कालीन प्रस्तर खण्ड अभिलेख ( संवत् ११६४ = ११०७ ई.)
१७१
प्रस्तुत अभिलेख एक सफेद प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है । यह १८२५ ई. में राजस्थान में भूतपूर्व बूंदी राज्य में हरौती के अन्तर्गत मधुकरगढ़ में प्राप्त हुआ था । यह कर्नल टाड़ ने खोजा था । इसका उल्लेख ट्रा. रा. ए. सो. ग्रे. ब्रि. आ. १८२७, भाग १, पृष्ठ २२३-२२६ पर किया गया । उसके बाद भी समय २ पर इसका उल्लेख किया गया । वर्तमान में प्रस्तरखण्ड अज्ञात है । उपरोक्त जर्नल में अभिलेख का अंग्रेजी में केवल सारांश दिया हुआ है । अभिलेख का मूल पाठ नहीं है। न ही उसकी प्रतिलिपि अथवा फोटो है ।
तिथि अन्त में संवत् ११६४ पौष पूर्णिमा दी हुई है । संभवतः उस दिन सूर्यग्रहण पड़ा था। यह मंगलवार ३१ दिसम्बर ११०७ ईस्वी के बराबर है । परन्तु उस दिन कोई सूर्यग्रहण नहीं अपितु चन्द्रग्रहण पड़ा था । सूर्यग्रहण उससे एक पखवाड़ा पहले अमावस्था को अर्थात् १६ दिसम्बर ११०७ ईस्वी को पड़ा था ।
प्रमुख ध्येय नरवर्मदेव के अधीन सामन्त श्रीहर द्वारा एक शिवमंदिर के निर्माण का उल्लेख करना है । अभिलेख के विवरण पर विचार करने पर अनुमान होता है कि इसमें प्रारम्भ में ४ श्लोक रहे होंगे । प्रथम श्लोक में भगवान नीलकण्ठ के ध्यान में रहने की कामना है । दूसरे में नरेश सिंधुराज की विजयों का सामान्य विवरण है । अगले श्लोक में भोज, उदयादित्य एवं नरवर्मन के उल्लेख हैं । इसके उपरान्त मंत्री रूद्रयादित्य का उल्लेख है । आगे का विवरण संभवतः गद्यात्मक है । इसमें दानकर्ता सामन्त श्रीहर के पिता महादेव एवं पितामह रूद्रादित्य के उल्लेख हैं। यहां कहा गया है। कि श्रीहर ने अपने अधिपति की ख्याति में वृद्धि की । संभवतः उसने नरेश नरवर्मन के लिये कोई विजय प्राप्त की होगी । परन्तु उसका वर्णन नहीं है ।
श्रीहर ने अपने अधिपति के मंदिर के पास ही एक शिव मंदिर बनवाया । यह उसने अपने कोष से सवा लाख दर्भ ( मुद्रायें) व्यय करके बनवाया था। इसको शुद्ध-धन कहा है। मंदिर वंज . स्थान पर बनवाया गया था जो दक्खिन व उदीच्य देशों के मध्य स्थित था। यहां दक्खिनदेश से तात्पर्य विध्य पर्वत के दक्षिण की ओर स्थित प्रदेश से है । उदीच्य देश से तात्पर्य उत्तरी भारत से है । इन दोनों भौगोलिक भागों के मध्य मालव भूमि स्थित है । वंज स्थान मधुकरगढ़ का ही अन्य नाम रहा होगा, अथवा मधुकरगढ़ के पास ही कोई स्थान रहा होगा। कोटा से प्रायः १२ मील की दूरी पर पहाड़ियों में मन्दरगढ़ आज भी विद्यमान है । यही मधुकरगढ़ था ( कोटा राज्य का इतिहास, पृष्ठ १३९ ) ।
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१७२
परमार अभिलेख
वाक्पतिराज द्वितीय (९७३-९९५ ई.) के मंत्री का नाम रुद्रादित्य था । प्रस्तुत अभिलेख के रुद्रादित्य का तादात्म्य उससे करने में कठिनाई है। प्राय: १०० वर्ष के अन्तर से उसके पौत्र श्रीहर को नरवर्मदेव के शासन काल में सामन्त के रूप में निश्चित करने में कुछ शंका होती है। अभिलेख में रुद्रादित्य का उल्लेख तो है, परन्तु उसके अधिपति वाक्पतिराज द्वितीय का कोई उल्लेख नहीं है। आगे अभिलेख का संभावित हिन्दी रूपान्तर दिया जाता है। मूल पाठ उपलब्ध नहीं है।
(संभावित हिन्दी रूपान्तर) नीलकंठदेव की आकृति सदा मेरे हृदय पटल पर अंकित रहे, और मेरे कण्ठ से नीलकंठ के अतिरिक्त अन्य कोई शब्द न निकले।
सिंधुलराज के चरण कमलों पर नरेशों के मुकुटों में जड़ित चमकने वाली मणियों की किरणों व उनके वक्षस्थलों पर लगे हीरों की चमक सिंधुलराज के चरणकमलों पर पड़ती है । अपने शत्रु पर्वतराजों को वह धूली में मिलाता है ।
उससे भोज उत्पन्न हुआ जिसने शत्रुपत्नियों को लूटा; जो अपने शत्रुओं के लिये वन में सूखे पत्तों में अग्नि के समान था। इसके उपरान्त राजा उदयादित्य हुआ। जब वह मर गया तो नरवर्मन हुआ जिसने अपने बाहुबल से विजयश्री प्राप्त की।
उसका मंत्री रुद्रादित्य संसार में पूर्ण विकसित पुष्प के समान शास्त्रों का ज्ञाता था।
उससे विद्वान महादेव उत्पन्न हुआ, व उससे श्रीहर हुआ जिसने अपने अधिपति की ख्याति में वृद्धि की । उसके अपने अधिपति के मंदिर के पास ही शुद्धधन से एक शिवमंदिर बनवाया । उसके फलस्वरूप मेरे को इस जन्म में ही पुण्य की प्राप्ति हुई है। और अत्यन्त दक्षता से इस मंदिर का निर्माण करवाया है । दक्खिन से उदीच्य देशों के मध्य वंजस्थान पर स्वधन द्वारा सूर्यग्रहण के अवसर पर यह मंदिर सवा लाख दर्भ (मुद्रा) खर्च करके बनवाया। __ संवत् ११६४ पौष पूर्णिमा ।
कदम्बपद्रक का नरवर्मदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
(संवत् ११६७=१११० ई.)
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जिनकी प्राप्ति अनिश्चित है। इनका प्रथम उल्लेख प्रो. रि. आ. स. इं. वे. स., १९२०-२१ पृष्ठ ५४ पर है। राखलदास बनर्जी ने इसका विवरण एपि. इं., १९२९-१९३०, भाग २०, पृष्ठ ५०५--०८ पर छापा।
ताम्रपत्रों का आकार ३२४ २१ सें. मी. है। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है । किनारे मोटे हैं एवं भीतर की ओर मुड़े हैं। दोनों में दो-दो छेद बने हैं जिनमें कड़ियां पड़ी थीं। ताम्रपत्र काफी भारी है। इनका वजन ८॥ किलोग्राम है।
अभिलेख २९ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १७ व दूसरे पर १२ पंक्तियां हैं । अक्षरों की बनावट सुन्दर है। दूसरे ताम्रपत्र पर गरुड़ का राजचिन्ह है। गरुड़ के पंख फैले हैं। वह आगे झुका है एवं उड़ने के प्रयास में है। उसके दोनों हाथों में दो नाग हैं।
_ अक्षरों की बनावट १२ वीं सदी की नागरी है। अक्षरों की लम्बाई .६ से .१० सें. मी. है। नरेश के हस्ताक्षर बड़े अक्षरों में हैं। भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है। इसमें ९ श्लोक हैं। शेष
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कदम्बपद्रक अभिलेख
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अभिलेख गद्य में है । व्याकरण के वर्णविन्यास की दष्टि से ब के स्थान पर व, स के स्थान पर श, श के स्थान पर स, म् के स्थान पर अनुस्वार, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है। कुछ शब्द ही गलत हैं जो उत्कीर्णकर्ता की असावधानी से हैं। इनको पाठ में ठीक कर दिया गया है।
अभिलेख की तिथि अन्त में अंकों में संवत् ११६७ माघ सुदि १२ है। इस में दिन का उल्लेख नहीं है। यह गुरूवार ३ फरवरी १११० ई. के बराबर है। अभिलेख का प्रमुख ध्येय नरेश नरवर्मन द्वारा उपेन्द्रपुर मण्डल के भण्डारक प्रतिजागरणक में महामांडलिक राज्यदेव द्वारा भोगे जा रहे ग्राम में २० हल भूमि, जो अलग २ समय पर तीन व्यक्तियों द्वारा दान में दी गई थी, की पुष्टि करना है।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण मध्य देश में शृंगपुर स्थान से आया कात्यायन गोत्री, कात्यायन कपिल विश्वामित्र इन तीन प्रवरों का, माध्यंदिन शाखा का अध्यायी, ब्राह्मण द्विवेद नारायण का पौत्र दीक्षित देवशर्मा का पुत्र, द्विवेद आशाधर था।
दान में दी गई भूमि २० हल थी जो दण्ड के प्रमाण से ९६ पर्व लम्बी व ४२ पर्व चौड़ी थी। यह भूमि अलग २ समय पर तीन व्यक्तियों द्वारा दान में दी गई थी:--- (१) १० हल भूमि महामाण्डलिक राजदेव द्वारा संवत् ११५४ कार्तिक सुदि १५ को स्वयं के
द्वारा भुक्त भूमि में से दान में दी गई थी, (२) ४ हल भूमि राजदेव की पत्नी (अथवा पुत्रवधू) श्रीमती महादेवी द्वारा पहले दान में
दी गई थी, और (३) ६ हल भूमि स्वयं नरेश नरवर्मन द्वारा संवत् ११५९ पौष सुदि १५ को भूतरप्रन पर्व पर
दान में दी गई थी। (एन.पी. चक्रवर्ती इसको उदगयन पर्व पढ़ते हैं)।
पंक्ति २-५ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री सिंधुराजदेव, भोजदेव, उदयादित्यदेव और नरवर्मदेव के उल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं । वंश का नामोल्लेख नहीं है।
अभिलेख में दानसंबंधी विवरण विचारणीय है। इसमें प्रथम दान संवत् ११५४ तदनुसार १०९७ ई. में दिया गया, परन्तु उसकी पुष्टि नरेश द्वारा १३ वर्ष पश्चात् की गई। इसी प्रकार स्वयं नरेश द्वारा दिया गया दान संवत ११५९ तदनसार ११०२ ई. में घोषित किया गया, परन्तु इसकी पुष्टि भी ८ वर्ष बाद की गई। निश्चित ही तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियां इस देरी के लिये उत्तरदायी रही होंगी। हमें विदित है कि दान में दी गई उपरोक्त भूमि बेतवा नदी के पश्चिमी क्षेत्र में स्थित थी जो भूभाग पहले चन्देल राज्य के अन्तर्गत भी रह चुका था। ११९३ ई. में कीर्तिवर्मन चन्देल (१०६५-११०१ ई.) ने सेनापति वत्सराज ने बेतवा नदी पर एक घाट का निर्माण करवाया था। कीर्तिवर्मन का उत्तराधिकारी सल्लक्षणवर्मन (११००१११०ई.) था जो स्पष्टतः नरवर्मन परमार का समकालीन था । संवत् १३३७ तदनुसार १२८०ई. के वीरवर्मन चन्देल के अजयगढ़ शिलालेख (एपि इं., भाग १, पृष्ठ ३२५ व आगे) से ज्ञात होता है कि सल्लक्षणवर्मन ने चेदि नरेशों के साथ मिल कर मालवों की राज्यलक्ष्मी का अपहरण किया था, जिस कारण नरवर्मन को उपरोक्त भाग में कुछ क्षेत्र से हाथ धोना पड़ा था। यह संभव है कि पश्चिमी सीमा पर नरवर्मन को गजरात के चौलक्यों से संघर्षरत रहने के कारण पूर्वी सीमा पर चन्देल नरेश का कार्य सरल हो गया हो। यह तो निश्चित ही है कि बेतवा का प्रदेश परमारों व चन्देलों के बीच संघर्ष का क्षेत्र था । सल्लक्षणवर्मन के पौत्र मदनवर्मन ने भी इस प्रदेश को प्राप्त किया था जो उसके संवत् ११९० तदनुसार ११३४ ई. के औगासि ताम्रपत्र अभिलेख से ज्ञात होता है। उस समय उसने भिल्लस्वामी (भिलसा) में ठहरे हुए एक
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परमार अभिलेख
भूदान किया था। अतः संभावना यही है कि वह भिल्लस्वामी में अपने मालव अभियान के समय ठहरा होगा। उपरोक्त विवरणों से यह निश्चित होता है कि प्रस्तुत अभिलेख की तिथि से पूर्व अपने शासन के प्रथम दशक में नरवर्मन निरन्तर अपने शत्रुओं से संघर्ष में संलग्न रहा था।
___ भौगोलिक स्थानों में उपेन्द्रपुर संभवतः शिवपुरी जिले का दक्षिण पूर्वी भाग रहा होगा, अर्थात् बेतवा के पश्चिम में रानोद के चारों ओर का प्रदेश । भण्डारक की समता वी. वी. मिराशी के अनुसार मुन्दर से संभव है जो उज्जन के उत्तरपूर्व में २४ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। कदम्बपद्रक की समता भण्डारक से एक मील पूर्व की ओर कामलीखेड़ा से की जा सकती है (वी .वी. मिराशी, का. इं. इं., भाग ४, पृष्ठ १५२) ।
(मूलपाठ) (१. २. ४. ५ अनुष्टुभ ; ३. ७ वसन्ततिलका; ६ इन्द्रवज्रा; ८ शालिनी; ९ पुष्पिताग्रा) १. ओ। स्वस्ति। श्री जयोभ्युदयश्च ।
जयति [व्योमकेशोसौ यः सर्गाय वि (बि) भत्ति तां (ताम्)। ऐंदवी शिरसां लेखां जगद्वीजाङ्ग (ङकु) राकृति (तिम्) ॥[१।।]
तन्वन्तु वः स्मरारातेः कल्याणमनिशंजटाः ।
कल्पान्तसमयादात (योद्दाम) तडिद्वलय पिङ्गलाः ।।२।।] परमभद्वा (ट्टा) रक-महाराजा३. धिराज-परमेश्वर-श्रीसिन्धुराजदेव-वा (पा) दानुध्यात-परन (म) भट्टारक-महराजाधिराज
परमेश्वर-श्री भोजदेव-पादानुध्या४. त-व (प) रमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री उदयादित्यदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक
महाराजाधिराज-प५. रमेश्वर-श्री नरवर्मदेवः कुशली। उपेन्द्रपुर मण्डले भण्डारक प्रतिजागरणके महामाण्डलिक
श्री राज्य (ज) देव भुय्य (ज्य)६. मान कमम्व (दम्ब)पद्रक ग्रामे समुपगतास्न (तानस) मस्त राजपुरुषान् वा (ब्रा) ह्मणा (णो)
न्त (त्त) रान् [प्रतिनिवासि पट्टकिलजनपदादींश्च वो (बो)७. धयत्यस्तु वः संविदितं यथा श्रीमद्धारावस्थितरस्माभिः स्नात्वा चराचर गुरुं भगवन्तं भवानीपति
समभ्यच्र्य संसा८. रस्यासारतां दृष्ट्वा तथा हि ।
वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्यमापातमात्रमधुरो विषयोपभोगः । प्राणस्त्रि (स्तृ)
णाग्रजलविन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने [३॥] भ्रमत्संसार चक्रारधाराधारामिमां श्रियं ।
प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चात्तापः परं फलं ॥४॥] इति जगतो विन[श्वरं स्वरूपमाकलय्यादृष्ट-फलमङ्गीकृत्य चन्द्रार्का११. पर्णव-क्षिति-समकालं यावत्परया भक्त्यिा ] श्रीमध्यदेशान्त:पाति शृंगपुरस्थान विनिर्गत
___कात्यायनगोत्र कात्यायन १२. कपिल विश्व (श्वा) मित्रेति प्रवर माध्यंदिनशाखाध्यायि वा (ब्राह्मण द्विर्वे (वे) द नारायण पौत्र
दीक्षित देवस (श)मसुत द्विवेद आसा (शा)धराय
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कदम्बपद्रक अभिलेख
१३. उपरिलिखित या (ग्रा) मात्षण्णवति पर्व्व दम्न्ड ( दण्ड ) प्रामाण्येन भेय (मेया) द्विचत्वारिस (श) न् माध्यकेन भुनिवर्त्तन विंशतिप्रत्य ( : प्रदत्ता ) भु
१४. हलविंशति: पर ( पुरं ) मतो महामाण्डलीक श्री राजदेवेन चतुःपंचास (श) दधिकशतैकादश सम्वत्सरे कार्तिक शुदि पञ्चद
१५. श्यां स्वभुक्तो कस्यितं वाद्धापित (?) भूहलदशकतिमिर्व्वा ( अन्य पाठ :- स्वमुक्तौ कल्पितत्वाद्दापितं भूहल दशकं तथा) महामण्डलीक श्री राजदेववधू श्री महादेव्या पूर्व्वकल्पेत१६ . त्वान्ता ( अन्य पाठ :5: -- पूर्व्वकल्पितत्वत्) भूहलचतुष्टयं तथा अस्माभिरेकोनषष्टयधिक शतैकादशक
सम्वत्सरे पौष शुदि
१७. पंचदश्यां सञ्जात भूतरप्रनपर्व्वणि कस्यितत्वं ( ? ) भूहल षट्कं एवं यथायथं भूहल विश
(द्वितीय ताम्रपत्र )
१८. तिः सीमातॄण [यू ]ति-पर्यन्त-सहिरण्यभागहो ( भो ) गसोपरिकर सर्व्वादाय समेता
१९. सावा ( माता ) पितोरात्मनश्च पुण्ययशोभिदृ ( वृ) द्धये शासनेनोदक- पूर्व्वकतया प्रदत्ता ते (त) नमत्वा तन्ननि
२०. वासि - पट्टकिल - जनपदैर्यथादीयमान भागभोगकर-हिरण्यादिके (क) मज्ञाश्रवन (ण) विधेयैभु (र्भू) त्वा सर्व्वममुष्मे (मैं) समुप
२१. नेतव्यं सामान्यं चैतत्पुण्यफलं बुध ( बुध्द् ) वा अस्मद्वंस (श ) जैरन्यैरपि भावि भोक्तृभिरस्मत्प्रदत्त धर्मादायोयमनुमन्तव्यः
२२ . पालनीयश्च । उक्तं च ।
२३.
२४.
२५.
२६.
२७.
(ब) हु [] सुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भु (भू) मिस्तस्य तस्य तदा फलं । । [ ५ ।।] यानीह
दत्तानि पुरा नरेन्द्रनानि धर्म्मार्थ यशस्कराणि । निर्माल्य वान्ति प्रतिमानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत । । [ ६ ।।]
अस्म
कुल क्रममुदारमुदाहरद्भिरन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं । लक्ष्म्यास्तद्विलय- बुद्दु (बुद्बु) द - चंचलाया दानं फलं परष (य) शः
लनीयो भवद्भिः ।। [८]
इति कमलदलाम्वु (बु) विन्दुलोलां श्रियमनुचित्र (न्त्य) मनुष्यजीवितं च । सकलमिदमुदाहृतसबुध (हृताश्चबुद्वा) न हि पुरुमै (षै) परकीर्त्तयो विलोप्या || [ ९ ॥ |] इति । संवत् ११६७
२८. माघ शुदि १२दू ( दूतक ) ठक्कर श्री केशवः । मङ्गलं महाश्रीः च श्रीः । २९. स्वहस्तोयं महाराज श्री नरवर्म्मदेवस्य ।
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परिपालनं च || [७ ॥] सर्व्वातिहा (तान्भा) विनः पार्थिवेन्द्रान् नृपो नूयो ( भूयोभूयो ) याचते स ( रा ) मभद्रः । शा (सा) मान्योयं धर्मसेतुर्न पाणां काले काले पा
अनुवाद ( प्रथम ताम्रपत्र )
१. ओं । स्वस्ति । श्री जय और वृद्धि हो ।
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परमार अभिलेख
जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, मेघ मंडल ही जिसके केश हैं, ऐसे महादेव श्रेष्ठ हैं ||१||
प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु, शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें || २ ||
२. परमभट्टारक महाराजाधिराज
३. परमेश्वर श्री सिंधुराजदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव के पादानुध्यायी
४. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री उदयादित्यदेव के पदानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज
५. परमेश्वर श्री नरवर्मदेव कुशलयुक्त हो उपेन्द्रपुर मण्डल में भण्डारक प्रतिजागरणक में महामाण्डलिक श्री राजदेव द्वारा भोगे जा रहे
६. कदम्बपद्रक ग्राम में आये हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के निवासियों, पटेलों व ग्रामीणों को
७. आज्ञा देते हैं - आपको विदित हो कि श्रीयुक्त धारा में ठहरे हुए हमारे द्वारा स्नान कर, चर व अचर के स्वामी भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर,
८. संसार की असारता को देखकर तथा-
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषयभोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ||३||
घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पा कर जो दान नहीं करते उनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ||४||
१०. इस जगत के विनश्वर स्वरूप को समझकर, अदृष्टफल को स्वीकार कर, चन्द्र सूर्य
११. समुद्र पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ मध्यदेश के अन्तर्गत शृंगपुर स्थान से आये
हुए कात्यायन गोत्री कात्यायन
१२. कपिल विश्वामित्र इन प्रवरों के माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, ब्राह्मण द्विवेद नारायण के पौत्र दीक्षित देवशर्म के पुत्र द्विवेद आशाधर के लिये
१३. ऊपर लिखे ग्राम से दण्ड के प्रमाण से छियानवे पर्व ( लम्बी ) व बयालीस पर्व ( चौड़ी ) बीस भूनिवर्तन से नापी
१४. बीस हल भूमि, महामाण्डलिक श्री राजदेव के द्वारा ग्यारह सौ चव्वन सम्वत् में कार्तिक सुदि पंद्रह १५. को स्वयं के द्वारा भुक्त भूमि में से दस हल दी गई व महामाण्डलिक श्री राजदेव की ( पुत्र ) वधु श्रीमती महादेवी द्वारा पूर्व में कल्पित
१६. चार हल भूमि तथा हमारे द्वारा ग्यारह सौ उनसठ सम्वत्सर में पौष सुदि
१७. पंद्रह को भूतरप्रन पर्व के अवसर पर छः हल भूमि, इस प्रकार बीस हल भूमि
( द्वितीय ताम्रपत्र )
१८. ( अपनी ) सीमा, तृण भूमि तक, साथ में हिरण्य भाग भोग उपरिकर सब प्रकार की आय समेत १९. माता पिता व स्वयं के पुण्य व यश की अभिवृद्धि हेतु शासन ( प्रस्तुत राजाज्ञा ) द्वारा जल हाथ में लेकर दान में दी गई है। इसको मानकर
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डभोक अभिलेख
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२०. वहां से निवासियों, पटेलों व ग्रामीणों के द्वारा जैसा सदा से दिया जाने वाला भाग भोग कर
हिरण्य आदि आज्ञा सुनकर सभी उसके लिये २१. देते रहना चाहिये और इसका समान रूप फल जानकर हमारे वंश व अन्यों में उत्पन्न होने वाले
भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना २२. व पालन करना चाहिये । और कहा गया है--
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही तब २ उसी को उसका फल मिला है ।।५।।
यहां पूर्व के नरेशों ने धर्म व यश हेतु जो दान दिये हैं वे त्याज्य एवं के के समान जानकर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ।।६।।
हमारे उदार कुलक्रम को उदहारणरूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ।।७।।
सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार २ याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है अतः अपने २ काल में आपको इसका पालन करना चाहिये ।। ___ इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमल दल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ कर
और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ।।९।। २७. संवत् ११६७ २८. माघ सुदि १२ दूतक ठक्कर श्री केशव । महालक्ष्मी और श्री मङ्गल करें। २९. ये स्वयं महाराज श्री नरवर्मदेव के हस्ताक्षर हैं ।
(३९) डभोक का नरवर्मन् कालीन प्रस्तरखण्ड अभिलेख
__ (तिथि रहित) प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है। यह राजस्थान के उदयपुर जिले में डभोक ग्राम से प्राप्त हआ था। इसका उल्लेख ए.रि.आ.स.इं., १९३६-३७, पष्ठ १२४
२४ पर किया गया। वर्तमान में यह पुरातत्व संग्रहालय, उदयपुर में सुरक्षित है।
अभिलेख २० पंक्तियों का है। इसका आकार ३१४ २४ सें.मी. है। सारा अभिलेख अत्यधिक क्षतिग्रस्त है। इसका ऊपर का दाहिना कोना तथा नीचे का बायां कोना टुट गया है। पंक्ति ८-१२ में मध्य के कुछ अक्षर पूरे लुप्त हैं। जो शेष हैं उस पर समय व प्रकृति का प्रभाव साफ दिखाई देता है। केवल कुछ अक्षर ठीक से सुरक्षित हैं। इस कारण इसका पाठ पूर्णतः पढ़ना संभव नहीं। अत: इसका सामान्य विवरण दिया जा रहा है।
अक्षरों की बनावट १२वीं सदी की नागरी लिपि है। भाषा संस्कृत है। तिथि का अभाव है। पंक्ति ७ में परमार नरेश नरवर्मन् के शासन का उल्लेख है। प्रमुख ध्येय नरवर्मन् के शासन काल में कायस्थ महापति द्वारा संभवतः दो शिवमंदिरों के निर्माण का उल्लेख करना है। ...
पंक्ति क्रमांक ४-७ में सिंधुराज, भोजदेव, उदयादित्य एवं नरवर्मन् के उल्लेख हैं। परन्तु इनसे संबंधित विवरण स्पष्ट नहीं हैं। इन नरेशों के आपसी संबंधों के बारे में कोई उल्लेख भी
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परमार अभिलेख
प्रतीत नहीं होता। पंक्ति १२ में महीपति का उल्लेख है जो कायस्थ वंशीय था। वह संभवत: पंक्ति ९ में उल्लिखित रुद्रादित्य का पुत्र था, जिसको कायस्थ कुंजर कहा गया है। पंक्ति १३ से आगे में दो मंदिरों के निर्माण का उल्लेख है। किसी भौगोलिक स्थान का उल्लेख नहीं है। अभिलेख के आकार को देखते हुए इसमें प्राप्त तथ्य न्यून हैं। इसके आधार पर ज्ञात होता है कि नरवर्मन् के शासनकाल में राजस्थान में उदयपुर का भूभाग परमार साम्राज्य के अन्तर्गत था। ... अभिलेख का मूलपाठ नहीं दिया जा रहा है।
(४०) भिलसा का नरवर्मन् का विजामंदिर प्रस्तर-स्तम्भ अभिलेख
(तिथि रहित) प्रस्तुत अभिलेख विदिशा में विजमंदिर में एक प्रस्तर स्तम्भ पर उत्कीर्ण है । इसके उल्लेख प्रो.रि., आ.स.इं, वे. स., १९१३-१४, पृष्ठ ५९ तथा ए.रि.आ.डि.ग, संवत १९७४, १९१६-१७ में किये गये।
अभिलेख २६ पंक्तियों का है। इसका आकार ६३४ १६ सें. मी. है। अक्षरों की बनावट १२वीं शती की नागरी लिपि है । अक्षरों की लम्बाई २ से २.५ सें. मी. है। प्रत्येक पंक्ति में ७-८ अक्षर उत्कीर्ण हैं । अभिलेख की स्थिति सामान्य है। प्रथम ५ पंक्तियों के कुछ अक्षर क्षतिग्रस्त हो गये हैं। भाषा संस्कृत है एवं गद्यपद्यमय है । पंक्ति १-९ में पहला श्लोक, पंक्ति १४-१९ में दूसरा श्लोक है । शेष गद्यमय है।
___व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, म् के स्थान पर अनुस्वार, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा बना है। ए ऐ के लिए पृष्टमात्रा का प्रयोग है। इस में तिथि का अभाव है । परन्तु इसकी लिपि आदि एवं नरेश नरवर्मन् के उल्लेख के आधार पर उसके शासनकाल में ही इसको रखा जा सकता है। इसका प्रमुख ध्येय नरेश की आराध्य देवी चच्चिका के प्रति भक्ति प्रदर्शित करना है।
__ अभिलेख का प्रारम्भ सिद्धं से होता है जो एक चिन्ह द्वारा अंकित है। आगे प्रथम ९पंक्तियों में एक श्लोक में देवी चच्चिका की प्रशंसा है। इसमें कहा गया है कि देवी के स्मरण मात्र के प्रसाद से पृथ्वी का आधिपत्य प्राप्त होता है । सम्यक रूप से आराधना करने पर देवी आकाश-विचरण की शक्ति प्रदान करती है । अगली ५पंक्तियों में नरेश नरवर्मदेव को प्रत्येक स्त्री के लिये भाई समान निरूपित किया गया है। यहां नरेश के लिये राजकीय उपाधियां महाराजाधिराज परमेश्वर दी हुईं हैं। उसका अन्य नाम निर्वाणनारायण था। आगे पंक्ति १४-१९ में दूसरा श्लोक है। इसमें लिखा है कि चच्चिका सभी जनों की प्रिय देवी हैं जिसके प्रसाद से संसार-योग्यता प्राप्त होती है । पंक्ति २० से आगे लेखक ठक्कुर सुपट का पुत्र (पौत्र), ठक्कुर णीजा का पुत्र ठक्कुर श्री माधव का नाम है । वह माथुर वंशीय ब्राह्मण था। माथुर वंशीय संभवतः मथुरा से आये ब्राह्मण लेखक रहे होंगे । ब्राह्मणों में इस वंश का सामान्यतः उल्लेख नहीं मिलता। . अभिलेख का स्तम्भ चच्चिका देवी के मंदिर में लगा रहा होगा। संभावना यह है कि नरवर्मन् ने स्तम्भ के आस-पास देवी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने हेतु मंदिर का निर्माण करवाया होगा। चच्चिका देवी का सप्तशती के कवच में 'उत्तरोष्ठे तु चच्चिका' का वर्णन प्राप्त होता है । बस्तर जिले में पुजारीपाली स्थान से प्राप्त गोपालदेव के प्रस्तर अभिलेख में भी चच्चिकादेवी का उल्लेख है (का. इं. ई., भाग ४, पृष्ठ ५९१, श्लोक १६ व पादटिप्पणी)।
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उज्जैन अभिलेख
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. (मूल पाठ) १-९ सिद्धम् ।
स्री (श्री) च[च्चिका स्मरणमात्र[कृत] प्रसादात्. [संप्राप्यति (ते) कलि[युगेपि] धराधिपत्यं (यम्) । [आ]राधिता विधियुता कुसुमैवि (वि)चित्रः
स्रा (सा) खेचर त्वरस सिद्धिपदस्य लब्ध (ब्धिः) ।। [१] १०-१४ इति महाराजाधिराज परमेस्व (श्व) र स्री (श्री) नरवर्मदेवस्य निर्वाणनारायणस्य परनारी
सहोदरस्य १५-१९ चच्चि (च्चि) काख्या समारव्याता देवी सर्वजनप्रिया ।
यस्याः प्रसादमात्रेण लेभे संसारयोग्यतां (ताम्) । [२] २०-२६ कृतिरियं ठक्कुर सूपटसुत ठकुर । णीजास (जस्य) सु (सु) त ठक्कुर स्री (श्री) माधवस्य ।
परनारी सहोदरस्य । द्विजस्य । माथुर वंशजस्य ।। मंगलं महास्री (श्रीः) [1]
(अनुवाद) १. सिद्धि ।
श्री चाच्चिका के स्मरण करने के प्रसाद से कलियुग में भी पृथ्वी का आधिपत्य प्राप्त होता है। विचित्र कुसुमों द्वारा विधिपूर्वक आराधना करने पर आकाश विचरण की सिद्धि
प्राप्त होती है ॥१॥ १०-१४ महाराजाधिराज परमेश्वर श्री नरवर्मदेव-निर्वाणनारायण (जो) पर-स्त्री के लिए भाई (है) ।
सभी जनों की प्रिया चच्चिका नामक सुविख्यात देवी जिसके प्रसादमात्र से संसार
योग्यता (अर्थात् संसार में कार्य करने की क्षमता) प्राप्त होती है ।।२॥ १९-२६ यह कृति ठकुर सुपट के सुत (पौत्र) ठकुर णीजा के सुत ठक्कुर श्री माधव की है, (जो) पर-स्त्री के लिए भाई है, ब्राह्मण है, माथुर वंश का है। मंगल महालक्ष्मी ।
(४१) उज्जैन का निर्वाणनारायण-नरवर्मन का महाकाल मंदिर प्रस्तर अभिलेख
(तिथि रहित) प्रस्तुत अभिलेख एक काले प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है जो उज्जैन के महाकाल मंदिर के पास खण्डहरों में प्राप्त हुआ था। इसका उल्लेख ए. रि. आ. डि. ग., संवत् १९९२, पृष्ठ १५; नागरी प्रचारिणी पत्रिका, संवत् १९९५, भाग १९, पृष्ठ ८७-८९ पर है। यह पुरातत्व संग्रहालय, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में सुरक्षित है। ... प्रस्तरखण्ड किसी बड़े अभिलेख का अंशमात्र है । यह भग्न होकर त्रिकोणीय आकार का रह गया है । इसमें १४ पंक्तियां शेष हैं जो सभी अधूरी हैं । प्रथम पंक्ति के अक्षर कुछ क्षतिग्रस्त हैं। दूसरी पंक्ति में २५ अक्षर हैं। आगे की पंक्तियां क्रमशः छोटी होती चली गई। अंतिम पंक्ति में केवल २ अक्षर शेष हैं। मूल अभिलेख का आकार ज्ञात करने का कोई साधन नहीं है।
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परमार अभिलेख
अक्षरों की बनावट १२वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर सुन्दर ढंग से खुदे हैं। इनकी लम्बाई प्रायः १ सें. मी. है। भाषा संस्कृत है एवं उपलब्ध सारा खण्ड पद्यमय है। इसमें श्लोक क्र. १८, १९, २२ व २६ अंकित हैं, परन्तु सभी श्लोक अधूरे हैं। व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, म् के स्थान पर अनुस्वार है । ए ओ की मात्राए पंक्ति के ऊपर लगी हैं, परन्तु ऐ औ के लिए पृष्टमात्राएं हैं।
अभिलेख के अलंकारिक स्वरूप को देखते हए यह एक प्रशस्ति लगती है। इसका ध्येय संभवतः किसी देवालय के निर्माण का उल्लेख करना है। यदि यह ठीक है तो देवालय का निर्माण
रमार वंशीय निर्वाणनारायण द्वारा करवाया गया था। भिलसा अभिलेख (क्र. ४०) से ज्ञात है कि निर्वाणनारायण वास्तव में नरेश नरवर्मन का अन्य नाम था। पंक्ति क्र. ७ में मुंज (वाक्पति द्वितीय) का उल्लेख है। अभिलेख, में कोई तिथि नहीं है परन्तु लिपि आदि के आधार पर इसको नरवर्मन् के शासनकाल में रखा जा सकता है ।
अभिलेख की प्रथम ५ पंक्तियों में किसी एक नरेश अथवा नरेशों द्वारा अपनी विजयी सैनिकों सहित उत्तर दिशा में सरयु नदी पर अयोध्या नगरी व हिमालय तक, पश्चिम दिशा में द्वारिका तक, दक्षिण दिशा में मलयगिरी व सुदूर लंका तक जाने का विवरण है। यह सारा ही पारम्परिक प्रतीत होता है एवं किसी ऐतिहासिक तथ्य की जानकारी नहीं मिलती। ____ अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थल सर्वविदित एवं प्रख्यात हैं ।
(मूल पाठ) १. • • • • • [रा] देको • • • • • • • • • तत्रा' • • २. . . वगाहय सरयूं जित्वाश्रमं सैनिक: साकेतोपवनावलीषु करणा. . . ३. . . “हिक्लमं नीते कांतैः सह मलयशैले युवतिभिः । यदातंकाल्लंका[ति?]. . . ४. · · · श्रुत्वा वृत्तमेतद्व (द)लिदमन कृतं कीतितं पूर्वविद्भिः पर्यन्ते द्वारकाया' .. ५. · · 'विदा नूनं येन हिमाद्रिमूर्द्ध नि शिथिली चक्रेलका वग्रहः ॥१८॥ . . ६. · · १९।। तस्मिन्विश्लेषशुष्य त्रिदिवपुरपुनः] प्रीतिसत्रोत्सता. . . ७. · · 'जिश्रियः संयति प्रोत्खायोत्किरतोडुविभ्रमभृतो मुं[ज] . . . ८. · · दरातयः ।।२२।। वैधव्यं विजयश्रियो रणभु[वि] . . . ९. · · ·पचर्यमाणः । निर्वाणनारायण इत्य[भा]. . १०. . . 'लकेनागा [त्रि]शंकोद्दिशं (शम्) ।।२६।। . . . ११. · · · [र?] णम” (स)णिता हमज (ब्ज) पी[तो?] . . . १२. . . पालभाल स्थलीति (?) . . १३. · · ·णमालिनि... १४. . . . . . (?) . . .
(अनुवाद) १. . . . . “अकेला . . . . . वहां · · · २. . . सैनिकों के साथ सरयु में प्रवेश कर, थकावट दूर कर, साकेत की उपवन पंक्तियों में .. ३. . . मलय पर्वत पर अपने प्रियतमों के साथ युवतियां थक चुकी थीं। जिसके आतंक से लंका... ४. . . 'पूर्व विद्वानों के द्वारा वणित बलिराजा के दमन के इस वृत्तान्त को सुन कर द्वारका के आस
पास...
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डोंगरगांव अभिलेख
१८५ ५. . . 'जानकार जिसने हिमालय के शिखरपर आक्रमण शिथिल कर दिया ॥१८॥.... ६. . . . १९॥ उसके वियोग में सूखने वाले स्वर्ग में पुनः प्रीति' . . ७. . . ' युद्ध में सितारों की शोभा को धारण करने वाले (शत्रुओं) को उखाड़ कर मुंज... ८. . . 'शत्रुगण ।।२२।। रणक्षेत्र में विजयलक्ष्मी का वैधव्य . . . ९. · · · सेवा किया गया हुआ। निर्वाणनारायण ऐसा... १०. · · · हाथी त्रिशंकु की दिशा को (प्राप्त हो गये) ॥२६॥ . . ११. · · · रण में युद्धरत अश्व जल पीकर... १२. · · ·पाल भाल स्थल . . . १३. · · · ·मालिनी . . . .
.१४.
. . . . . . . . . . . .
(४२) डोंगरगांव का जगद्देव कालीन प्रस्तर अभिलेख
(शक संवत् १०३४ =१११२ ईस्वी) प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है, जो महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में डोंगरगांव में एक ध्वस्त मंदिर के द्वार पर लगा था। वि.वि. मिराशी ने इसका विवरण स्थानीय समाचार पत्र में छापा । बाद में एपि. इं., १९४१-४२, भाग २६, पृष्ठ १७७-१८५ में इसका सम्पादन किया।
अभिलेख का क्षेत्र १३०४२० सें. मी. है। इसमें ८ पंक्तियां हैं । लेख काफी जीर्ण है । पंक्ति १, ५, ७, ८ में प्रायः १२ अक्षर भग्न हो गये हैं। अक्षरों की बनावट १२ वीं सदी की नागरी है। प्रथम ६ पंक्तियों में अक्षरों की लम्बाई १.८ सें. मी. है, पंक्ति ७ में १.५ सें. मी. एवं पंक्ति ८ में १.३ सें. मी. है। यह स्थिति स्थानाभाव के कारण उत्पन्न हुई।
अभिलेख की भाषा संस्कृत है । प्रारम्भिक तीन शब्दों व अन्त में तिथि व लेखक के नाम को छोड़कर सारा अभिलेख पद्यमय है। इसमें १५ श्लोक हैं जो विभिन्न छन्दों में हैं। सभी श्लोक साहित्यिक भाषा में सुन्दर ढंग से रचे गये हैं। इसका रचयिता विश्वस्वामिन् एक श्रेष्ठ कवि प्रतीत होता है। . व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है। पंक्ति ४ में अवग्रह का प्रयोग है । कुछ शब्द ही अशुद्ध हैं जिनको पाठ में ठीक कर दिया है।
. अभिलेख की तिथि अन्त में शक संवत् १०३४ चैत्र पूर्णिमा लिखी है। इसमें दिन का उल्लेख नहीं है । जिस भूभाग से अभिलेख मिला है वहां शक संवत् ही चालू था। उक्त वर्ष नन्दन संवत्सर था जो दक्षिणी पंचांग के अनुसार है। यह शुक्रवार, १५ मार्च १११२ ई. के बराबर है।
. अभिलेख परमार राजकुमार जगद्देव के शासन काल का है । इसका प्रमुख ध्येय जगद्देव द्वारा श्रीनिवास ब्राह्मण को डोंगरगांव दान में दिये जाने का उल्लेख करना है। वहां श्रीनिवास ने अपने पिता श्रीनिधि की पुण्यवृद्धि हेतु शिव का एक देवालय बनवाया था। जगद्देव का यही एक तिथि युक्त अभिलेख बरार क्षेत्र से प्राप्त है । उसका आदिलावाद जिले में जैनड से प्राप्त अन्य अभिलेख तिथि रहित है।।
. श्लोक २-३ में वंश के आदिपुरुष वीर परमार की होमाग्नि से उत्पत्ति का उल्लेख है । श्लोक ४ में भोजदेव एवं श्लोक ५ में उदयादित्य की प्रशंसा है। यहां लिखा है कि “जब मालव भूमि तीन शत्रुओं के सामूहिक आक्रमण के कारण (धूलि में) मग्न हो गई तो उस (भोज) के भ्राता उदयादित्य
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परमार अभिलेख
ने इसका उद्धार किया।" (भोज व उदयादित्य के संबंधों के बारे में अभिलेख क्र. २१ तथा आक्रमणकर्ता नरेशों के बारे में अभिलेख क्र. २२ व ३६ देखिये)
श्लोक ६-७ में उल्लेख है कि उदयादित्य के अनेक पुत्र होने पर भी अपनी इच्छा के अनुरूप जगद्देव नामक पुत्र की प्राप्ति की। हमें ज्ञात है कि उदयादित्य के अन्य दो पुत्र लक्ष्मदेव व नरवर्मन् थे। लक्ष्मदेव की मृत्यु पिता के जीवन काल में हो गई एवं नरवर्मन् पिता का उत्तराधिकारी हुआ। जगद्देव का नाम परमार अभिलेखों में प्राप्त नहीं होता, इस कारण डी.सी. गांगुली ने उसका तादात्म्य लक्ष्मदेव से कर दिया जो निश्चित ही तथ्यों के विपरीत है । श्लोक ८ क्र. से ज्ञात होता है कि उदयादित्य ने जगद्देव को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, परन्तु अपने बड़े भाई के पक्ष में उसने सिंहासन त्याग दिया । रासमाला (सम्पादन रालिसन, भाग १, पृष्ठ १७७ व आगे) के अनुसार उदयादित्य की बाघेला व सोलंकी वंशीय दो रानियां थीं, जिनके क्रमशः रणधवल (रिंधुवुल) एवं जगद्देव (जुगदेव) नामक पुत्र थे । जगदेव अपनी विमाता के व्यवहार से रूष्ट हो गुजरात चला गया। वहां वह सिद्धराज जयसिंह का सेनापति बन गया। इस पद पर वह १८ वर्ष तक रहा । एक बार सिद्धराज जयसिंह ने मालवा पर आक्रमण की योजना बनाई, अतः जगदेव गुजरात छोड़ मालवा चला आया। उसके पिता ने उसका स्नेहयुक्त स्वागत किया एवं अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। पिता की मृत्यु पर यह मालव राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ एवं उसने ५२ वर्ष तक राज्य किया। - रासमाला के उपर्युक्त विवरण की प्रस्तुत अभिलेख से केवल आंशिक रूप में पुष्टि होती है। जगद्देव का कम से कम एक बड़ा भाई तो अवश्य था, जिसका विरुद् संभवतः रणधवल रहा हो । यह भी हो सकता है कि उदयादित्य ने उस को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया हो। परन्तु प्रस्तुत अभिलेख से ज्ञात होता है कि वह मालव राजसिंहासन पर कभी आरूढ़ नहीं हुआ। श्लोक क्र. ९ के अनुसार वह कुन्तल नरेश के पास चला गया जहां उसका सौहार्दपूर्ण स्वागत हुआ। यह कुन्तल नरेश परवर्ती चालुकय वंशीय विक्रमादित्य षष्टम् (१०७६-११२६ ई.) था। प्रतीत होता है उसने जगदेव को गोदावरी नदी के उत्तर की ओर स्थित प्रदेश का शासक बना दिया। यह भूभाग तत्कालीन शक्तियों में कुछ समय पूर्व तक संघर्ष का कारण बना हुआ था।
का राष्ट्रकूटों के समय में परमार राज्य की दक्षिणी सीमा संभवतः नर्मदा नदी थी। यहीं पर सीयक द्वितीय ने खोटिग राष्ट्रकूट को हराया (अभिलेख क्र. १-२) एवं राजधानी मान्यखेट को लूटा था । अब परमार राज्य की दक्षिणी सीमा संभवत: गोदावरी बन गई । फिर चालुक्य तैलप द्वितीय ने अंतिम राष्ट्रकूट नरेश को हराया एवं मुंज (वाक्पति द्वितीय) पर आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये (मेरुतुंग रचित् प्रबन्ध चिन्तामणि, टाऊनी का अनुवाद, पृष्ठ २३) । तैलप ने संभवतः वह सारा क्षेत्र जीत लिया जो सीयक व मुंज ने राष्ट्रकूटों से प्राप्त किया था। परन्तु शीघ्र ही सिंधुराज ने इस क्षेत्र पर पुनः अधिकार कर लिया। उसके राजकवि पद्मगुप्त ने लिखा है-“जिस (सिंधुराज) ने अपनी खड्ग के बल पर स्वराज्य को प्राप्त किया, जिस पर कुन्तलपति ने अधिकार कर लिया था. . . . . ." (अध्याय १, श्लोक ७४)। उदयादित्य के शासन के अंतिम वर्षों में चालुक्य विक्रमादित्य षष्टम् ने विदर्भ पर आक्रमण कर उसके कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। नागपुर क्षेत्र में सीतावल्दी से प्राप्त शक संवत् १००८ तदनुसार १०८७ ई. के एक प्रस्तर अभिलेख से ज्ञात होता है कि विक्रमादित्य षष्टम् का धाडीमण्डक राष्ट्रकूट नामक एक माण्डलिक इस भूभाग पर शासन कर रहा था। (एपि. इं., भाग ३, पृष्ठ ३०४ व आगे)। प्रतीत होता है कि विक्रमादित्य षष्टम् ने जगद्देव को बरार घ' भूतपूर्व हैद्राबाद रियासत का उत्तरी भाग शासन करने हेतु सौंपा होगा। मेरुतुंग (उपरोक्त, पृष्ठ १८६) के साक्ष्य से भी ज्ञात
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डोंगरगांव अभिलेख
१८३
होता है कि यद्यपि सिद्ध (सिद्धराज जयसिंह) ने जगद्देव का पर्याप्त सम्मान किया था परन्तु यशस्वी परमादिन् (विक्रमादित्य षष्टम्) द्वारा तत्परतापूर्वक आमंत्रित किये जाने पर वह (जगद्देव) कुन्तल देश चला गया । ।
अपने त्याग, शौर्य व दानशीलता के कारण जगदेव की बहुत प्रसिद्धि हुई। अभिलेख के श्लोक क्र. ११ में लिखा है कि ऐसा कोई देश, ग्राम, लोक व सभा नहीं है जहां दिन रात जगद्देव की प्रशंसा नहीं गाई जाती। यह कोरी प्रशंसा नहीं है अपितु तथ्यों पर आधारित है। गुजरात के अनेक वृत्तान्तों में जैसे रासमाला (भाग १, पृष्ठ ११७ व आगे), प्रबंध चिन्तामणि (पृष्ठ १८६ व आगे), शारंगधर पद्धति (सुभाषित क्र. १२६१) आदि में जगद्देव के गुणों का बखान है।
रासमाला के अनुसार जगद्देव ८५ वर्ष की आयु तक जीवित रहा। मृत्यु से पूर्व उसने अपने पुत्र जगद्धवल को अपना राज्य सौंप दिया। परन्तु उपरोक्त का कोई अभिलेख हमें प्राप्त नहीं हुआ है। कुछ साक्ष्यों के आधार पर ज्ञात होता है कि मध्य प्रान्त का कुछ भाग इसके बाद भी परमारों के अधीन रहा।
अभिलेख में उल्लिखित भौगोलिक स्थानों में केवल डोंगरगांव का नाम मिलता है। यह वही स्थान है जहां से अभिलेख प्राप्त हुआ।
___ (मूल पाठ)
(श्लोक १-८, १०, ११, १३, १४ अनुष्टुभ; ९ शार्दूलविक्रीडित; १२ शालिनी) १. ओं नमः शिवाय।
कूज़न्व: पातु जगतां प्रभवस्थितिसं हि (ह्रि) तीः । तिस्र: --~- विश्वं यत्र [सुवर्तकः ।।१।। अस्त्यर्बु (ब्बु) द इति ख्यातः प्रतीच्यां दिशि पर्वतः । मेखलाद्यन्त संचारिकूर्मराज दिवाकरः ।।२।। ...... कामधेनु हृतवते]- ..
. विश्वामित्राय कुप्यतः। ...... वसिष्ठात्तत्र होमाग्नौ परमारो व्यजायत ।।३।। . . . तद्वन्से (शे) क्षत्रचरितः पुष्फ (प) वन्तान्वयाधिके । बभूव भोजदेवाख्यो राजा रामसमो गुणैः ।।४।। ततो रिपुत्रयस्कन्दैमग्नां मालव [मेदिनीम्]।
धरन्नुदयादित्यस्तस्य भ्राता व्यवर्द्धत ॥५॥ ..... यस्याच्छया दिशाः कीर्त्या भुवनानि परैर्गुहाः। [काष्ठाः] परा व (ब) लादेव काव्याप्यन्त चाथितः (तैः) ॥६॥ तस्य सत्स्वपि पुत्रेषु स्वसम्मत सुतैषिणः । हराराधनतो जज्ञे जगद्देवो माही]-..
___पतिः ॥७॥ दिवं प्रयाते पितरि स्वयं प्राप्तामपि श्रियम् । परिवित्तिभयात्त्यक्त्वा योऽग्रजाय न्यवेदयत् ।।८।।
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परमार अभिलेख
पुत्राणाम्प्रथमोऽसि राज्यविषयस्वामी भुजो दक्षिणः सर्वास्वेव हरित्सु जङ्गम [इ]
__ यत्सीमा जयो मूतिमान् । आत्मैवेति च सप्रसादमुदितों यः कुन्तलक्ष्माभृता ताद्रूप्यन्दधदेव दक्षिण दिशालङकारतां पुष्यति ।।९।। अर्थिप्रत्यर्थिनो यस्मिन्वा (बा)णैः स्वर्णैश्च वर्षति । दैन्यसैन्य[निधिं] मुक्त्वा ...
[ङिक]तमुपासते ।।१०॥ न स देशो न स ग्रामो न स लोको न सा सभा। न तन्नक्तं दिवं यत्र जगद्देवो न गीयते ।।११।। आचन्द्राक्र्क शासनीकृत्य येन क्ष्मापालेन श्री जगद्देवनाम्ना। पुण्याधा]रं डोङ्गरग्रामनामा ग्रामो दत्त: श्रीनिवा]सद्वि
जाय ।।१२॥ तद्दत्तडोङ्गरग्रामे श्रीनिधे[:] श्रेयसां निधेः । विद्यावृत्त निवासेन श्रीनिवासेन [सूनुना ॥१३।। पितुः पुण्योदयायतत्कारितं शिवमन्दिरम् ।
आकल्पं कल्पतां भूमिभूषणाय निरत्ययम् ।।१४।। अत्र देवाय ग्रामे[स्मि]न्यश्च [श्रीनिवासप्रहि] (सायहि) ८. [व्याघातं] कृत्वातिक्षिप्य. . . यो हर्तुमिच्छति स पञ्चमहापातकैलिप्यते । शक संवत् १०३४
नन्दन-संवत्सरे चैत्यां शासनं लिखितमिति । लेखको विश्वस्वामी]। १०३४ तथांके १५।
(अनुवाद) ओं। शिव को नमस्कार। १. विश्व की उत्पत्ति स्थिरता व संहार-तीनों करने वाला · · · · · · विश्व को जो भली
भांति चलाता रहता है वह आपकी रक्षा करे । २. जिसकी मेखला के आदि (तल) में कूर्म (स्थित) है. व अन्त (कटिबंध प्रदेश) में सूर्य
भ्रमण करता है ऐसा अर्बुद नाम से विख्यात पर्वत पश्चिम दिशा में है । ३. कामधेनु के हरण करने पर विश्वामित्र पर क्रोधित हो वसिष्ठ द्वारा वहां होमाग्नि __में से परमार की उत्पत्ति हुई। ४. उसके वंश में जो क्षात्रधर्म के कार्यों में सूर्य व चन्द्रवंशों से भी अधिक था भोजदेव
नामक नरेश हुआ जो राम के समान गुणों वाला था । ५. उसके पश्चात् उसका भाई उदयादित्य वृद्धि को प्राप्त हुआ जिसने मालव भूमि का
उद्धार किया जो तीन शत्रुओं के आक्रमण से (धूली में) मग्न हो गई थी। ६. जिसकी शुभ्रकीर्ति से दिशायें व सारा जगत बलपूर्वक व्याप्त हो गया, गुफायें शत्रुओं
से व्याप्त हो गई और सुदूर दिशायें स्तुति किये गये काव्यों से व्याप्त हो गई । ७. . अनेक पुत्रों के होने पर भी अपनी इच्छा के पुत्र की इच्छा करनेवाले उसके द्वारा
शिव की आराधना करने पर महिपति जगद्देव उत्पन्न हुआ।
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जैन अभिलेख
८.
१८५
पिता के स्वर्ग जाने पर राज्यलक्ष्मी के स्वयं पास आने पर भी परिवृत्ति के भय से त्याग करके जिसने बड़े भाई के लिये दे दी ।
९.
"तुम मेरे पुत्रों में प्रथम हो, राजविषय के स्वामी हो, दाहिनी भुजा हो, सभी दिशाओं में जीवधारियों तक सीमा विजय के मूर्तिस्वरूप हो व स्वयं मेरे समान ही हो" - जो कुन्तल नरेश द्वारा प्रसन्न हो इस प्रकार संबोधित किया गया वह उसी का रूप धारण कर दक्षिण दिशा की अलंकारिता का पोषण करता है ।
१०.
जिसके बाणों व सुवर्णों के बरसाने से शत्रु व याचक अपनी सैनिक व दीनता की निधियों का त्याग कर निस्संकोच उसकी शरण में आते हैं ।
११. ऐसा देश नहीं, ग्राम नहीं, लोक नहीं, सभा नहीं, ऐसी रात नहीं व दिन नहीं जहां जगद्देव की प्रशंसा नहीं गाई जाती ।
१२.
जिस श्री जगदेव नामक भूपति ने पुण्य के आधारस्वरूप, चन्द्र व सूर्य के रहते तक शासन द्वारा डोंगरगाम नामक ग्राम को श्रीनिवास ब्राह्मण को दान दिया ।
१३. इस डोंगरग्राम में यश की निधि श्रीनिधि के पुत्र, विद्या के निवास श्रीनिवास द्वारा १४. पिता के पुण्य के उदय के हेतु वहां शिवमंदिर बनवाया जो दोषरहित है व पृथ्वी का आभूषण स्वरूप कल्प के रहते तक निर्बाध रहे ।
८.
यह इस ग्राम में श्रीनिवास द्वारा देवता के लिये दिये गये को जो तोड़कर फेंकेगा अथवा हरण करने की इच्छा करेगा वह पांच महापापों से लिप्त होगा । शक सं. १०३४ नन्दन संवत्सर में चैत्र की पूर्णिमा को यह शासन लिखा गया । लेखक विश्वस्वामी । तथा १०३४ अंकों में १५ ।।
(४३)
जैनड़ का जगदेव का प्रस्तर अभिलेख ( तिथि रहित )
प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है जो आंध्र प्रदेश में आदिलाबाद से ६ मील उत्तर पूर्व की ओर जैनड़ ग्राम में एक मंदिर के मंडप में सुरक्षित है । इसका उल्लेख ए. रि. आ. डि. नि., १९२५-२६ एवं १९२७-२८, पृष्ठ २३-२४, अपेंडिक्स 'बी' में किया गया। डी. सी. गांगुली ने इसका सम्पादन एपि. इं., १९३३, भाग २२, पृष्ठ ५४ ६३ पर किया ।
अभिलेख का क्षेत्र ४७× ४२ सें. मी. है। इसमें २८ पंक्तियां हैं । प्रस्तरखण्ड बीचोंबीच टूट गया है जिससे सभी पंक्तियां प्रभावित हुई हैं। सभी में कम से कम एक-एक अक्षर क्षतिग्रस्त हो गया है । अभिलेख के अक्षरों की बनावट ११वीं - १२ वीं सदी की नागरी लिपि है । अक्षरों की लंबाई १ सें. मी. है। अक्षर सुन्दर ढंग से खुदे हैं । भाषा संस्कृत है एवं सारा अभिलेख पद्यमय है । इसमें विभिन्न छन्दों में २० श्लोक हैं। सभी श्लोक उच्च साहित्यिक भाषा में सुन्दर ढंग से रचे गये हैं । इनका रचयिता अश्वत्थामा एक श्रेष्ठ कवि प्रतीत होता है ।
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व श के स्थान पर स, म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है। कुछ अक्षर ही गलत लिखे हैं । इन सभी को पाठ में सुधार दिया गया है । कुछ त्रुटियां काल व प्रादेशिक प्रभावों को प्रदर्शित करती हैं । अभिलेख में तिथि का अभाव है जो इसके महत्व को
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१८६
परमार अभिलेख देखते हुए खटकता है। परन्तु यह पूर्ववणित डोंगरगांव अभिलेख (क्र. ४२) से बहुत दूर नहीं रखा जा सकता।
____ अभिलेख का प्रमुख ध्येय जगद्देव के शासनकाल में उसके अमात्य लोलार्क की पत्नी द्वारा निंबादित्य के मंदिर के निर्माण का उल्लेख करना है जो अनुमानतः वही रहा होगा जिसके प्रांगण में बने मंडप में यह प्राप्त हुआ है। अभिलेख का महत्व इस तथ्य में है कि इसमें भोजदेव एवं उदयादित्य के जगद्देव के साथ संबंधों की घोषणा है। साथ ही जगद्देव की विभिन्न विजयों का विवरण है।
श्लोक क्र. ४ में परमार एवं उसकी पौराणिक उत्पत्ति का विवरण है। श्लोक ६ में उल्लेख है कि भोज जगद्देव का पितृव्य (चाचा) तथा उदयादित्य पिता था। श्लोक ७-१२ में जगद्देव द्वारा क्रमशः आंध्रदेश, चक्रदुर्ग नरेश, दोरसमुद्र नरेश मलहर, गुर्जर नरेश जयसिंह एवं कर्ण पर प्राप्त की गई विजयों का काव्यात्मक उल्लेख है। इससे आगे के श्लोकों में उसके अमात्य लोलार्क एवं उसकी पत्नी द्वारा मंदिर निर्माण का विवरण है। ..
- 'जगद्देव की विजयों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि उनमें से प्रथम तीन विजयें अपने आश्रयदाता चालुक्य विक्रमादित्य षष्टम् के सेनापति के रूप में प्राप्त की होंगी। इनका उल्लेख विक्रमादित्य षष्टम् की विजयों में भी प्राप्त होता है (अर्ली हिस्ट्री ऑफ दी डेक्कन--जी. . याज़दानी, पृष्ठ ३५४-७०)।
- आंध्र देश--यह भूभाग गोदावरी व कृष्णा नदियों के बीच स्थित था। इसकी राजधानी वेंगी थी। इस समय वहां कुलतुङ्ग चोल शासक था। चोलों व कल्याणी के चालुक्यों में चिरकाल से शत्रुता थी। विक्रमादित्य षष्टम् ने वेंगी पर अनेक बार आक्रमण किये। अंततः १११८ ई. में उस पर अधिकार करने में सफल हो गया। इस अभियान में जगद्देव सेनापति था, इसी कारण उसके अभिलेख में इस विजय का उल्लेख है।
चक्रदुर्ग--यह आधुनिक बस्तर जिले में चक्रकोट है। यह नागवंशीय नरेशों की राजधानी थी (विल्हण रचित विक्रमांकदेव चरित् , सर्ग ६) । चक्रदुर्ग नरेश पर जगद्देव ने आक्रमण कर विजय प्राप्त की एवं नरेश के हाथी भेंट में स्वीकार किये। दशरथ शर्मा के मतानुसार यह युद्ध १०७६ ई. से पूर्व ही हो चुका होगा (राजस्थान भारती, भाग ४, क्रमांक ४, पृष्ठ ४६.)।
दोर समुद्र--यह मैसूर में वेलूर तालुके में हलेविद ग्राम के रूप में विद्यमान है। वहां जगद्देव ने मलहर के स्वामी पर विजय प्राप्त की थी। श्री डेरेट के मतानुसार यह विजय १०९३ ई. अथवा इसके आसपास प्राप्त की गई होगी (जे. डी. एम. डेरेट-दी होयसलजए मेडीवल' इंडियन रायल फैमिली, बम्बई, १९५७, पृष्ठ ३६)। प्रबंध चित्तामणि के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि जगद्देव ने एक सीमांत नरेश को हराया था जो होयसल वंशीय ही हो सकता है, क्योंकि वह ही उसके राज्य की सीमा पर स्थित था। एन. पी. चक्रवर्ती का विचार है कि मलहर क्षोणीश होयसल नरेशों द्वारा ग्रहण किये गये कन्नड विरुद मलपरोलगंड का ही संस्कृत अनुवाद है। मलप अथवा मलह एक पहाड़ी जाति थी जिससे होयसल नरेश मूलतः संबंधित थे (एपि. इं., भाग २२, पृष्ठ ५८, पादटिप्पणी ५; एपि. क., भाग ६, प्रस्तावना, पृष्ठ १४)।। ... इसके विपरीत १११७ ई. के वेलूट तालुका अभिलेख में कुछ अन्य प्रकार का विवरण प्राप्त होता है-“दोरसमुद्र में उन्होंने (विष्णुवर्द्धन होयसल व बल्लाल होयसल) जगदेव की सेनाओं को परास्त कर, सिन्दूर से नहीं अपितु उसके हाथियों के रक्त से विजयश्री को रंगा, एवं गले के मुख्य हार के साथ उसके कोष पर भी अधिकार कर लिया" (एपि. क., भाग ५,
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जैनड़ अभिलेख
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रादिया. परन्त सा५या
बिबलियोथिका इंडिका, क्र. ५८; एच. एन. क्र. ११६)। कुछ इसी से मिलता-जुलता उल्लेख पश्चात्कालीन ११५९ ई. के श्रवणबेलगोला अभिलेख (एपि. क., भाग २, क्र. ३४८, पृष्ठ १६८) में प्राप्त होता है। अतः यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि १०९३ ई. में जगद्देव ने होयसल नरेश को हरा दिया
बाद में १११७ ई. में वह स्वयं उसके उत्तराधिकारी से हार गया। जयसिंह--श्लोक क्र. १० में जयसिंह एवं जगद्देव के संघर्ष का कलात्मक वर्णन है। गांगली ने विचार व्यक्त किया कि यह जयसिंह, भोजदेव का उत्तराधिकारी जयसिंह प्रथम रहा होगा। परन्तु एन. पी. चक्रवर्ती ने (एपि. इं., भाग २२, पादटिप्पणी क्र. ८) विरोध करते हुए लिखा है यहां जयसिंह जगद्देव का मित्र नहीं अपितु शत्रु है। वैसे भी जयसिंह प्रथम परमार की मृत्यु १०७० ई. में रणक्षेत्र में हो चुकी थी (अभि. क्र. १९-२०)। जगद्देव का शत्रु मालवा प्रदेश पर आक्रमणकारी जयसिंह सिद्धराज था। इस चौलुक्य नरेश ने शाकम्भरी के कर्णोराज की सहायता से जगद्देव के भाई नरवर्मन् पर आक्रमण किया था (एपि. इं., भाग २६, पृष्ठ १०४, श्लोक १७; कुमारपाल प्रबंध, भाग १, श्लोक ४१; प्रतिपाल भाटिया, दी परमास, १९७०, अध्याय ७, पृष्ठ ११४ व आगे)। अतः संभव है कि जगद्देव ने चौलुक्यों व चाहमानों के सामूहिक आक्रमण के समय अपने बड़े भाई की सहायता की हो। परन्तु यह आक्रमण केवल अस्थाई रूप से ही टाला जा सका, क्योंकि नरवर्मन् की मृत्यु के बाद यशोवर्मन् परमार पर जयसिंह सिद्धराज ने पुनः आक्रमण किया था।
कर्ण--अभिलेख के श्लोक १३ में जगद्देव द्वारा किसी कर्ण पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख है। गांगूली के मतानुसार यह गुजरात का चौलुक्य नरेश था जिसका शासनकाल १०६४-९४ ई. के मध्य था। परन्तु प्रतिपाल भाटिया (उपरोक्त, पृष्ठ ११२-१३) के अनुसार यह त्रिपुरी का चेदि नरेश यशःकरण (१०७२-१११५) था। हमें ज्ञात है कि चेदि नरेश परमारों के चिरकालीन शत्रु थे। अतः संभव है कि जगद्देव ने अपने पिता के समय, मालवा छोड़ने से पूर्व, इस यशःकर्ण को हराया हो (अभिलेख क्र. ३६)। .
इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख में जगद्देव की विजयों का विवरण वास्तविक तथ्यों पर आधारित है, कोरी कल्पना नहीं कही जा सकती।
उत्तरकालीन परमार नरेश अर्जुनवर्मन् रचित रसिक संजीवनी (पृष्ठ ८) में उल्लेख है कि उसका पूर्वज जगद्देव अत्यन्त रूपवान व्यक्ति था। उसके रूप का वर्णन नाचिराज ने भी किया था (यथास्मत् पूर्वज रूपवर्णयते नाचिराजस्य सत्रासा इव सालसा इव लसर गर्वा इबाद्री इव व्याजिह्या इव लज्जिता इव परिभ्रांता इवर्ता इव त्यद्पे निपतति कुत्र न जगद्देव प्रभो सुभ्रुवा वातावर्तन नतित् ओत्पलदलद्रोणी द्रुहो दृष्टयः)
एक उल्लेख के अनुसार जगद्देव की पुत्री मालव्यदेवी का विवाह पूर्वी बंगाल के नरेश सामलवर्मन् के साथ हुआ था। (ज. ए. सो. बं., भाग १०, पृष्ठ १२७)।
(मूलपाठ) (छन्दः श्लोक १.२० अनुष्टुभ ; २.३.७-१२.१४.१५. १८ शदीलवक्रीडित; ४.१६.१७.१९ स्रग्धरा; ५.६ उपजाति; १३ मंदाक्रान्ता) . ... १. [ओं] नमः सूर्याय।
अकालेपि रवेारे निम्व (ब) पुष्पोद्गमैरयं । प्रत्ययं पूरयन्भानुन्निरत्ययमुमास्तां (पास्यताम्) ॥१॥
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तं वन्देमहि वारुणीजल
निधेर्व्वेलावनालीस्थिर
स्थानं स्थाणुमभेद्यमाद्यममितच्छायातिमात्रोच्छ्रयं । उन्मीलन्ति व (ब) हिः प्ररोहसमये यस्य त्रिलोकीच्छलान् मध्ये
व्योम [[दिग]न्तरालमतुला : शाखाशिखापल्लवाः ॥ २ ॥ तद्भ्रूभंगविचेष्टितं भगवतो भर्गस्य भव्याय वो भूयाद्भङगुरिताङगुली किसलये पाणौ ध
नुः पश्यतः । दग्धुं [a]णि पुराणि पन्नग [श ] तैर्ज्यावल्लिता लंभिते यत्राविर्भवति स्म भास्वरशरव्याजेन विष्णोर्व्वपुः ॥ ३ ॥ आसीदाशीर्व्वचोभिः सक
मुनिजनमनितो [दिनीन्द्र ]
राजा मुद्रां वहद्भिः शिरसि व (ब) हुविधैब्व (ब्बों) धितश्चाटुवादैः । विश्वामित्रप्रताप व्यपनयनिपुण: प्राप्तजन्मा
वसिष्ठ ध्यानाद्भूमध्व [जाच्च ] त्रिभुवनविदितः सत्वसारः प्रमारः ॥४॥ तदन्वये सान्वयनामधेयः श्रीमान् जगदेव इति क्षितीशः । अभूद [त्र]
भूपालदिगन्तराल [न] म्र्माणनिर्व्यूढभुजश्रमोयं ॥५॥ यस्योदयादित्य नृपः पितासीद्देवः पितृव्यः स च भोजराजः । विरेजतुर्थी -
वसुधाधिपत्य प्राप्त प्रतिष्ठाविव पुष्पवन्तौ ॥६॥ अन्धाधीशमृगीदृशः पतिपरित्यकाश्चिरं यच्चमू वाहव्यूहखुराग्रखण्डित
वीणाः स्खलन्त्योध्वनि । नीयन्ते नवनीत कोमलपदास्ता म्रप्रभैः पल्लवै
र्दत्त्वालंव (ब) नमम्वु (बु) धेः परिसरक्षोणीलताश्रेणिभिः ||७|| श्री
डोच्चाटितचक्रदुर्गनृपतेरद्यापि यस्याज्ञया
दण्डानीत गजेंद्रदान सलिलैर्न्यस्तां प्रस (श) स्तिं परां । निर्व्यावृत्ति पठन्ति कण्ठलुठितः कैः
कैनिनादा शैलोपान्तवसुन्धरासु विपिनोत्संगेषु भृङ्गाङ्गनाः ॥ ८ ॥ मध्ये दोरसमुद्रमद्रिशिखराकारां कपालावलीमालोक्य
[[a]रद्रदन्तमुसल प्रान्तस्सां (शां) प्रेयसां । सादैः प्रतिमन्दिरं मलहरक्षोणीस (शा) चित्तोदरे शूलं [प]ल्लवयन्ति वा[प] सलिलैर्यद्वैरिणां व
ल्लभाः ।।९।।
परमार अभिलेख
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जैनड़ अभिलेख
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आश्चर्य जयसिंहविक्रमकथा स्वाध्याय स (सं)ध्याधनध्वानं यस्य धनुर्द्ध (ध्र्व)नि नरपतेर्व्यज्जन्ति विस्तारिणः । अद्याप्यर्बुदपर्वतोदर
दरीद्वारेषु रात्रिदिवं कंदद्गुर्जरवीरवर्गवनितावाष्पाम्बु (म्बु) पूरोम्मर्यः ।।१०।। एकत्राद्भुतयुद्धमूर्धनि धनुःसन्धानधीर: करः कीर्ति कंदल
यन्नि]यन्नविरतो यस्यारिसर्चङकषः । अन्यत्राम्वु (म्बु) धिवीचिकांचिवसुधामध्ये मधुस्यन्दिभिः सूक्तैः सत्कवयः शतं व्यवसिताः स्तोतुं तथाप्यक्षमाः ।।११॥ उत्पन्नः प्रतिपन्नकर्णनृपतेर्यस्यक एवोचितः संसारोदरसार संग्रहसहाध्यायो निधिः पाथसां । यस्याभ्य]र्णनिष[भ्र] (ण्ण)पण्डितशताला
. पानिशम्यानिशं [नि]:शंकः कलराजहन्सविरुत[रधा]प्यमन्दोत्सवः ।।१२।। कीर्तेः पात्रं प्रकृतिपुरुष: पौरुषोत्कर्षभूमिभूमेर्भर्तुः भुवनजयि
न (नः) स्वस्य मूर्तिः प्रतापः । श्री लोलार्कः समजनि जगद्वल्लभो वा (बा)लभावादारभ्यैष प्रथितमहसामन्वये दाहिमानां ।।१३।। एकामेव मनो
हरामभिनवोल्लेखेन रेखा] मुखा (खां) शुंगाम्प्राप्य महेन्द्ररि (इ)त्यभिधया वो (ब) तान्यविस्फूजितः। लोके यस्य पितामहः शुचिमहः पुञ्जन्निजन्नाटत्याद्यापि द्विपदन्तकुंदकुमुदच्छायैर्यशोरासि (शि)भिः ।।१४॥ आसीद्यस्य पिता पितामहमुखान्भो (म्भो) जैश्चतुर्भिश्चिरं गीतः श्रीगुणराज इत्यति
शयाद्विश्वेष वीराग्रणीः।। एकः शूरसहस्रसाक्षिणि रणे क्षोदक्षमः [साजीन: (क्षोदाक्षमश्चार्जुनः) प्रौढ़: पल्लवयं (यन्) प्रतापमुदयादित्यस्यनित्यप्रियः ।।
१५॥ [च]ञ्चद्भिश्चिनचिह्नध्वजपटपटलैः पाण्डुरैरातपत्रः पंक्तिन्यस्तैरपास्तप्रलयघनखे मढक्कानिनादैः । जा (ज्ञा)यन्तेः (ते) यस्य सैन्यान्यविर
लतरले जिभिर्वज्रपुंज प्रा[यैः] प्रासासिपाशप्रणयिभिरपररश्ववारैश्च वीरैः ।।१६।। शा[ल]प्रान्मु (शु)[:] सितांश प्रतिनिधिवदनः पद्मपनायताक्ष: पीनां[सो]दीर्घवा (बा)हुः कनकगिरिशिलासन्निभोरस्थलश्च । वा (बा)हव्यूह] (स्य) हेषाख किसलयितश्रोत्रमूर्च्छषु गच्छन् यो मध्ये राजपुत्रेष्वपि व (ब)हुषु परि
ज्ञायते रेखयैव ॥१७॥
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१९०.
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२७.
२८.
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६.
सु (शु) द्धो वाचि शुचिर्न्स ( ) नस्य [जि] (पि) जगद्देव [ प्रतोषैरिह द्वंद्वंद्वहर] नमन्ननुदिनं बा (बा) ल्यात्प्रभृत्येव यः ।
चञ्चच्चामरम
७
न्तरेण महतीं राष्ट्र] श्रियं निश्चलां
वि (बि) भ्राण :
तत्पत्नी पद्मपत्रायतनयनयुगा पद्म
- दलयति द्वेषस्पृशः पार्थिवान् ।। १८ ।।
ओं । सूर्य को नमस्कार ।
१.
रविवार अथवा किसी समय भी निर्बाध विश्वास (ज्ञान) को पूरित करने वाले सूर्य की नीम के पुष्पों व मूल सहित उपासना करना चाहिये ।
२.
जिस का पश्चिम समुद्रतट की वनपंक्ति में स्थिर स्थान है, जो अभेद्य है, सर्वादि है, अपरिमित छाया के लिये अत्यन्त उन्नत है, जिसकी अपरिमित शाखायें, शिखायें, पल्लवादि त्रैलोक्य के बहाने से आकाश व दिगन्तराल के बीच विकसित होते रहते हैं, वृक्षरूपी ऐसे शिवजी को हम प्रणाम करते हैं ।
[संकाशवक्त्रा ]
नाम्ना पद्मावतीति त्रिजगति विदिता [रागतः श्वेत] पद्मा । एतस्मिन्नग्रहारे हठहृतकलुषे कारयामास दित्यप्रासाद
निम्वा
लभतां जगतां श्रोतः संगम हृदयंगमा । सज्जनन्यस्तभारेयमश्वत्थामकवेः कृतिः ।। २० ।।
(अनुवाद)
समस्त मुनिजनों के आशीर्वादों से सम्मानित, आज्ञा स्वीकार की मुद्रा को मस्तक पर धारण करने वाले नृपतियों द्वारा अनेक चाटुवादों से स्तुत, विश्वामित्र को पराजित करने हेतु जिसने जन्म लिया है ऐसे वशिष्ठ के ध्यान एवं अग्नि के प्रताप से बलशाली परमार त्रिभुवन में विख्यात हुआ ।
५. उस वंश में श्री जगदेव नामक नरेश अपने वंश के नाम से युक्त ( शत्रुहंता) हुआ जिसने वृद्धिंगत अपने भुजश्रम से नरेशों को दिगन्तराली बना दिया ।
जिसका पिता नरेश उदयादित्य था और देव भोजराज चाचा था, विकसित होने वाले जो दोनों शीघ्र ही अपने तेज से वसुधा का अधिपत्य प्राप्त कर प्रतिष्ठित जैसे हुए I
जिसकी सेना के अश्वसमूहों के खुरों से खण्डित भूमि पर मार्ग में लड़खड़ाने वाली, मक्खन के समान कोमल चरणों वाली, पति द्वारा परित्यक्त, आंध्र नरेश की मृगनयनी रानियां समुद्रतट पर ताम्ररंग के पत्तों वाली लतापंक्तियों द्वारा ( मानो) अवलम्बन देकर ले जाई जा रही थीं ।
परमार अभिलेख
-119811
पल्लवाकृति उंगलियां जिसकी मुड़ी हुई हैं ऐसे हाथ में, त्रिपुरों के दहन हेतु सैकड़ों सर्पो द्वारा निर्मित डोरी से युक्त, जहां प्रकाशमान बाण के रूप में विष्णु का शरीर प्रकट होता है, ऐसे धनुष का अवलोकन करने वाले उस भगवान शिव की टेढ़ी भृकुटिचेष्टा आपके कल्याण के लिये हो ।
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८. विनोदपूर्वक जिसने चक्रदुर्ग नरेश को पराजित कर दिया है ऐसे जिस (जगद्देव) की आज्ञा
से नदी व पर्वतों के प्रान्तों की भूमियों में तथा अरण्यों के मध्य में भंवरियां, जीत कर लाये हुए, गजेन्द्रों के मदजलों से लिखित, श्रेष्ठ प्रशस्ति को विभिन्न उच्च कंठस्वरों के
गुंजारवों से सतत पढ़ रही हैं। ९. दोर समुद्र के मध्य में गजेन्द्रों के दन्तरूपी मूसलों द्वारा हत प्रियों की पर्वत शिखर के
समान कपाल पंक्तियों को देख कर प्रत्येक गृहों में शत्रु स्त्रियों के आक्रोश सहित अश्रुजलों से, मलहर नरेश के हृदयान्तर में शूल (वेदना) को पल्लवित कर रही है। ___ जयसिंह के पराक्रम की कथारूपी स्वाध्याय के समय जो संध्याकालीन मेघ की गर्जना के समान प्रसार करने वाले जिस नरेश (जगद्देव) के धनुष की ध्वनि को, आज भी अर्बुद पर्वत की गुफाओं के द्वारों पर रात दिन क्रन्दन करती गुर्जर वीर समूहों की स्त्रियों के आंसुओं की जल लहरियां व्यक्त कर रही हैं, यह आश्चर्य है। (मेघ गर्जन होने से
वेदाध्ययन का अनध्याय होता है-याज्ञवल्क्य स्मृति-टी. एस. एस., भाग १, पृष्ठ १४४)। ११. एक ओर तो अद्भुत युद्धांगण में समस्त शत्रुओं को जीतने वाले जिसका धनुष का संधान
करने में निपुण हाथ कीर्ति को विस्तृत करने में विरत नहीं हो रहा है, दूसरी ओर समुद्र लहरी जिसका अमरपट्ट है ऐसी पृथ्वी पर सैकड़ों सत्कविगण अमृतस्रावि सूक्तियों
से स्तुति करने के लिये भी अक्षम हो रहे हैं। १२. कर्ण नरेश जिसका शरणागत हो गया है ऐसे जिस नरेश का, संसार के समस्त सार
संग्रह में सहपाठी के समान एक ही उचित निर्मित सरोवर के समीप स्थित, सैकड़ों पंडितों के आलापों को सुन कर निःशंक राजहंसों के मधुर गुंजनों से आज भी दिनरात
सतत् विजयोत्सव मनाया जा रहा है। १३. भुवन विजेता नरेश (जगद्देव) का अपने ही प्रताप को मूर्तिस्वरूप, कीर्ति का पात्र, पौरुष
की चरम सीमा रूप, बाल्यावस्था से ही जगतप्रिय, जिसका यश विख्यात है ऐसे दाहिमों
के वंश में श्री लोलार्क अमात्य उत्पन्न हुआ। . १४. जिसका महेन्द्र नामक पितामह एकमेव मनोहर अभिनव सौंदर्य की रेखा से युक्त मुख वाली
शुंगा नामक पत्नि को प्राप्त कर, याज्ञिक कार्यों से समृद्धशाली गजदन्त कुन्द पुष्प श्वेतकमल - के समान कीर्तिपुंजों से पवित्र तेज को आज भी लोक में अभिव्यक्त कर रहा है। १५. उसका पिता श्री गुणराज था, जिसका ब्रह्मा के चारों कमल समान मुखों द्वारा गुणगान
किया गया, जो संसार में अपनी अत्याधिक वीरता द्वारा वीरों में अग्रणी, सहस्रवीर जिसके साथी हैं ऐसे रण में एक ही शूरवीर, अर्जुन समान प्रौढ़ था व उदयादित्य के
प्रताप को विकसित करने वाला (उसका) सदा प्रिय था। १६. लहराते हुए चित्रविचित्र चिन्हों से युक्त ध्वजवस्त्रों से, पंक्तिबद्ध स्थापित श्वेत छत्रों से,
प्रलयकालीन मेघगर्जन के समान नगाड़ों के निनादों से, समूह रूप चंचल अश्वों से, वज्रसमूहों के समान भाले तलवार पाश आदि से अनुराग रखने वाले अश्वारोहियों व
वीरों से जिसकी सेनायें जानी जाती थीं। १७. शाल वृक्ष के समान ऊंचा, चन्द्रसमान मुखवाला, कमल पत्ते के समान विशाल आंखों
वाला, मोटे कंधों लम्बी भजाओं वाला, कनकगिरि की शिला के समान विशाल वक्षस्थल वाला, वह अनेक राजपुत्रों के मध्य भी तेज द्वारा जाना जाता था जिनके कोमल पत्तों समान कान अश्वसमूहों के हिनहिनाने की ध्वनि से बहरे हो जाते थे।
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परमार अभिलेख
१८. शुद्ध वाक्य बोलने वाला, जगदेव के संतोषों से मन से भी पवित्र द्वैत भाव को नष्ट . करने वाला, अर्द्धनारी नटेश्वर शिवजी को बाल्यावस्था से ही नमन करने वाला, डुलने
वाले चामरों के बिना, निश्चल विशाल राज्यलक्ष्मी को धारण करता हुआ द्वेषी नरेशों का. दमन करता है।
रता है। १९. उसकी पद्मावती नामक पत्नी, जो कमलपत्र के समान विशाल दो नेत्रों वाली, कमल के
समान मुख वाली, गौर वर्ण वाली जो तीनों जगत में विख्यात है, ने इस नगर में,
जिसकी कलुषिता दृढ़तापूर्वक हर ली गई, निम्बादित्य का यह प्रासाद (मंदिर) बनवाया। २०. हृदय को स्पर्श करने वाली, सज्जनों पर ही जिसका भार स्थापित है, अश्वत्थामा कवि ___ की ऐसी यह कृति जगत के कानों से समागम को प्राप्त करे।
(४४) उज्जैन का महाराजाधिराज यशोवर्मन् व महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् का
ताम्रपत्र अभिलेख (सं. ११९१ व १२०० = ११३४ व ११४३ ई.) प्रस्तुत अभिलेख एक ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण है जो कुछ अन्य' ताम्रपत्रों के साथ मेजर टाड को १८१२ ई. में उज्जैन से मिला था। इसका उल्लेख ट्रां. रा. ए. सो., भाग १, १८२३, पृष्ठ २६७, २३०-२३९ एवं ४६३--४६६ और मिसलेनियस एस्सेज़, भाग २, पृष्ठ २९७--३१४ पर किया गया । इसका सम्पादन इं. ऐं., भाग १९, १८९०, पृष्ठ ३४५--३५३ पर प्रो. कीलहान ने किया । ताम्रपत्र वर्तमान में ब्रिटिश संग्रहालय, लंदन में रखे हैं ।
अभिलेख का आकार ४२ x २४ सें.मी. है। यह एक ही ताम्रपत्र है जो संपूर्ण अभिलेख का केवल पूर्वाद्ध है । इसमें लेख भीतर की ओर लिखा है । दो छेद बने हुए हैं । किनारे कुछ मोटे हैं एवं भीतर की ओर मुड़े हैं। - अभिलेख २० पंक्तियों का है । अंतिम पंक्ति के बाद एक चिन्ह लगा है जो अभिलेख के दूसरे ताम्रपत्र पर चालू रहने का सूचक है । अभिलेख अत्यन्त घिसा हुआ है जिससे इसको पढ़ने में कुछ कठिनाई होती है । इसके अक्षरों की बनावट १२वीं सदी की नागरी लिपि है । अक्षरों की लंबाई प्रायः ६ सें. मी. है । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है । इसमें ६ श्लोक हैं जिनमें अंतिम अपूर्ण है । शेष गद्य में है।
___ व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, म् के स्थान पर अनुस्वार एवं अनुस्वार के स्थान पर म का प्रयोग किया गया है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा बना दिया है । पंक्ति क्र. ४, ५, ६ में अनावश्यक रूप से दण्ड बना दिये गये हैं । ये संभवतः रिक्त स्थान की पूर्ति हेतु बना दिये गये हैं । कुछ अन्य त्रुटियां भी हैं जो पाठ में सुधार दी गई हैं । इन त्रुटियों को काल व प्रदेश के मान से सामान्य ही कहा जाना चाहिये ।
अभिलेख में दो विभिन्न तिथियों का उल्लेख है । प्रथम तिथि पंक्ति ७ में श्री विक्रम संवत् ११९१ कार्तिक सुदि ८ है जो शनिवार २७ अक्तूबर, ११३४ ई. के बराबर है । दूसरी तिथि पंक्ति १५ में संवत्सर १२०० श्रावण सुदि १५ है । इस दिन चन्द्रग्रहण था । यह बुधवार २८ जुलाई, ११४३ ई. के बराबर है । इस दिन दोपहर ११.४३ बजे पूर्ण चन्द्रग्रहण था।
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उज्जैन अभिलेख
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अभिलेख का ध्येय पहली तिथि को धारा नगरी में स्थित नरेश यशोवर्मन् द्वारा अपने पिता नरवर्मन् की वार्षिकी पर दो ग्राम दान करना, एवं दूसरी तिथि को उसके पुत्र महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् द्वारा उस ग्रामदान की पुष्टि करना है। दान में दिये गये ग्राम महाद्वादशक मंडल के अन्तर्गत राजशयन भोग में सुरासणी से सम्बद्ध बड़ौद ग्राम एवं सवर्ण प्रसादिका से सम्बद्ध उears ग्राम थे | दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण अद्रेलविद्धावरि स्थान से आया, भारद्वाज गोत्री, भारद्वाज आंगिरस बार्हस्पत्य तीन प्रवरों वाला आश्वलायन शाखी, दक्षिण से आया कर्णाट ब्राह्मण द्विवेद ठक्कुर श्री महिरस्वामी का पौत्र, श्री विश्वरूप का पुत्र आवस्थिक श्री धनपाल था ।
पंक्ति २-४ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री उदयादित्य देव, नरवर्मदेव, यशोवर्मदेव एवं लक्ष्मीवर्मदेव के उल्लेख हैं । इनमें से प्रथम तीन नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी है, जबकि अंतिम के नाम के साथ 'समस्त प्रशस्तोपेत समधिगत पंचमहाशब्दालंकार महकुमार' उपाधि लगी हुई है । निश्चित ही यह एक अधीनस्थ उपाधि मानी जाना चाहिये । कम से कम उपर्युक्त राजकीय उपाधियों से कम महत्व की रही होगी । ( पंचमहाशब्द से अभिप्राय संभवत: निम्न प्रकार के घोषों से है-शृंग, तम्मट, शंख, भेरि व जयघंट — विवेक चिन्तामणि, इंडियन ऐंटिक्वेरी, भाग १२, पृष्ठ ९६ । कल्हणकृत राजतरंगिणी के अनुसार काश्मीर में इस उपाधि से युक्त नरेश के अधीन निम्न अधिकारी होते थे- महाप्रतिहार पीड, महासंधिविग्रहिक, महाश्वपाल, महाभाण्डागार एवं महासाधहभाग- अध्याय ४, पृष्ट १४०-१४३ व ६८०; स्टीन का संस्करण, भाग १, पृष्ट १३३ । )
प्रस्तुत अभिलेख में प्रधानतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि नरेश यशोवर्मन् द्वारा ११३४ ई. में दिये गये ग्राम दान का उसके पुत्र महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् द्वारा ११४३ ई. में नवीनीकरण क्यों आवश्यक हो गया। प्रो. कीलहार्न लिखते हैं कि नरेश यशोवर्मन् के तीन पुत्र थे-- जयवर्मन्, अजयवर्मन् व लक्ष्मीवर्मन् । यशोवर्मन् की मृत्यु होने पर जयवर्मन् गद्दी पर बैठा । ११३५ व ११४३ ई. के बीच किसी समय अजयवर्मन् ने जयवर्मन् को गद्दी से उतार दिया एवं पूर्ण राजकीय उपाधियां धारण कर शासन करने लगा । परन्तु लक्ष्मीवर्मन् ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की एवं अपने बाहूबल से मालवा के एक भाग पर शासन स्थापित करने में सफल हो गया। साथ ही उसने जयवर्मन् को मालवा का वास्तविक शासक मानने की घोषणा कर दी । संभवत: इसी कारण लक्ष्मीवर्मन् का पुत्र हरिश्चन्द्र ११७८ ई. के अपने पिपलियानगर ताम्रपत्र अभिलेख ( क्र. ५३ ) में जयवर्मन् की कृपा से शासन करने की घोषणा करता है (इं. ऐं, भाग १९, पृष्ठ ३४८ ) ।
उपरोक्त से सहमत होने में कठिनाइयां हैं । इसका कोई प्रमाण नहीं है कि अजयवर्मन् ने जयवर्मन् को गद्दी से उतारा था । इस के विपरीत ये दोनों एक ही व्यक्ति के नाम हैं । दूसरे, ११९९ ई. के उदयवर्मन् के भोपाल ताम्रपत्र अभिलेख ( क्र. ५७ ) से ज्ञात होता है कि जयवर्मन् के शासन के बाद लक्ष्मीवर्मन् ने अपने हाथ में धारण खड्ग द्वारा राज्य प्राप्त किया था ।
तत्कालीन राजनीतिक स्थिति को कुछ इस प्रकार रखा जा सकता है कि ११३८ ई. में चालुक्य जयसिंह सिद्धराज ने नरेश यशोवर्मन् को हरा कर मालव राज्य पर अधिकार कर लिया तो यशोवर्मन् के पुत्रों जयवर्मन्, लक्ष्मीवर्मन् एवं त्रैलोक्यवर्मन् ने धार त्याग कर भोपाल क्षेत्र में शरण ली । वह क्षेत्र यद्यपि मूलत: परमार राज्य में था, परन्तु इस समय चन्देलों के अधिकार में हो गया । मदनवर्मन् चंदेल के बान्दा ताम्रपत्र अभिलेख से ज्ञात होता है कि भैल्लस्वामी ( भिलसा) में स्थित उसने ११३४ ई. में भूदान दिया था । अतः संभवतः चन्देल नरेश से
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परमार अभिलेख
लक्ष्मीवर्मन् ने वह भूभाग छीनकर वहां अपना राज्य स्थापित कर लिया । उधर चौलुक्य जयसिंह सिद्धराज की मृत्यु पर जयवर्मन् पुनः धार की प्राप्ति कर, पूर्ण राजकीय उपाधियां धारण कर वहां शासन करने लग गया ।
इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख में जयवर्मन् के नाम का उल्लेख होने का कोई मौका ही नहीं था। यहां तो विदिशा - भोपाल क्षेत्र ( महाद्वादशक मण्डल) में यशोवर्मन् द्वारा पूर्व में दिये गये ग्राम दान को उसका पुत्र महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् पुनः पुष्ट करता है । चन्देलों द्वारा इस भूभाग पर आक्रमण और संभवतः कुछ समय के लिये अधिकार करने के फलस्वरूप इन ग्रामदानों की पुष्टि करना आवश्यक हो गया था ।
अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में धार सर्वविदित है । महाद्वादशक मंडल आधुनिक विदिशा - भोपाल क्षेत्र था। राजशयन आधुनिक रायसेन है । सुवासणी रायसेन के पश्चिम की ओर १३ कि. मी. दूर सिवासनी ग्राम है । वड़ौद अनिश्चित है, परन्तु सिवासनी से पश्चिम में २५ कि. मी. की दूरी पर बरो नामक ग्राम से इसकी समता करने का सुझाव है । उथवणक की समता उकावद से करना संभव है जो बरो से उत्तर की ओर ५० कि. मी. दूर है ।
१. ओं । स्वस्ति ।। श्री [ ]जयोभ्युदयश्च ।।
२.
(मूलपाठ)
११.
जयति व्योमकेशोसौ य: सग्र्गाय वि (बि) भ [ ]ति तां (म्) । ऐन्दवीं सि (शि) रसा लेखां जगद्वी ( द्वी) जां कुराकृति ||१|| [ तन्व
परमभट्टारक-म [ह] | राजाधिराज परमेश्वर श्री [ उ] दया
३. दित्यदेव-पादानुध्यात- परमभट्टारक- महाराजाधिराज- परमेश्वर श्रीनरवम्मं देव-पादानुध्यातपरमभट्टारक-म[ह]ाराजाधिराज-परमे [श्व]र
४. श्री यशोवर्म्मदेव- पादानुध्यात समस्त - प्रशस्तोपेत समधिगत- पंच-महाशब्दा (ब्दा) लंकार- विराजमान - महाक[ ] मार-श्री लक्ष्मी - [ ]म्मदेवः ॥ श्री
1
५. म[ह] द्वादशक - मण्डले श्रीराजशय [न] - भोगे सु[ रा ]सणी सम्व (म्ब) द्ध-वडोदग्राम । त [ थ]ा सुव[] []दिका सम्व (म्ब) द्ध-उथवणक- ग्रामयोः सम
न्तु ] वः स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः । कल्पान्त समयोद्दाम तडिद्वलय पि[ग]लाः ||२॥
६. [स्त ] - विषयिक पट्टकिल- जनपदादीन्द्रा (ब्रा) ह्मणोत्तरान्वो ( न्बो) धयत्यस्तु वः संविदित [ ] | य[थ]] श्रीमद्धारायां महाराजाधिराज परमेश्वर श्री
७. यशोवर्म्मदेवेन् श्री विक्रमकालातीत - सम्व (संव) त्सरैकनवत्यधिकशतैकद [ शे]षु कार्तिक -शुदि अष्टम्यां संजात-महाराज श्री [नर]
८. वर्म्मदेव-साम्व (सांव ) त्सरिके तीर्थाम्भोभिः स्नात्वा देव ऋषि मनुष्य- पितृ स्तर्पयित्वा भगवन्तं [भ] वानीपति समभ्यर्च्य स ( शं) मीकु[श ] तिला [न्न]]
९. [य]हुतिभिर्हिरण्यरेतसं हुत्वा भानवे अध्यं विधाय कपिलां तिः प्रदक्षिणीकृत्य संसारस्यासारतां दृष्टवा नलिनी- दलगत -
१०. जललवतरलतरं जीवितं धनं चावेक्ष्य । उक्तं च ।
विभ्रममिदं वसुधाधिपत्य मापातमात्र मधुरो विषयोपभोगः ।
प्रा
[r] स्तृणाग्रजलबिन्दु-समा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने || ३ |
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उज्जैन अभिलेख
____ एवमाकलय्य-अद्वै]ल[f ?]वद्धावरि [स्थ]नि-वि[निर्ग]त-भ[T]र१२. द्वाजगो[व]य भारद्वाजांगिरसवा (बा)हस्पत्य त्रिः (त्रि) प्रवराय-आश्वलायन
. शाखिने दक्षिणा[याता ?] कर्णाट वा (बा)ह्मण-द्विवेद[3]क्कुर- .. १३. श्री [म]हिरस्वामि पौत्र-श्री विश्वरूप-सुत-आवस्थिक-श्रीधनपालाय उपरिलिखित वडोदग्रा. मुथवणकग्रामौ सव१४. क्ष-मालाकुलौ निधिनिक्षेपसहितौ वापीकूपतडागान्वितौ चतुष्कंकटविशुद्धौ [च] द्रार्क
यावदुदकपूर्वकत्या शा१५. सनेन प्रदतौ । सम्व (संवत्सर शतद्वादशकेष[ ] श्रावण-शुदि पंचदश्यां सोमग्रहण-पर्वणि
श्रीमत्पितृ-श्रेय[][] [पुनरेवा१६. स्माभिः एतौ ग्रामी उदकपूर्वकतया शासनेन प्रदतौ । तदनयो[ ] ग्रामय [1] निवासि-समस्त
पट्टकिलादि-लोकस्तथा क१७. र्षक[श्च] याथो]त्पद्यमानकरहिरण्य-भाग-भोगादिकमाज्ञा-श्रवण-विधेयाभूत्वा सर्वममुषमै
समुपनेतव्यम्-सामा१८. [न्यं च] तत्पुण्यफलं वु(बु) वा अस्मद्वंशजैरन्यैरपि भाविभूपतिभिः धर्मादायोय मनामन्तव्यः पालनीयश्चेति । यतो। वहुभि[ ]व्वसुधा भुक्ता
राजभिः सगरादिभिः ।। यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।।४।। स्वदत्तां परदन्तां (तां) वा यो हरेत् वसुन्धराम् ।
षष्टि वर्ष [स]२०. ..
___ हस्राणि विष्टा (ष्ठा)यां जायते कृमिः ।।५।। सनेितान्भाविनः पार्थिवेन्द्रान् भूयो भूयो याचते रामभद्रः । सामान्योयं धर्मसे
(अनुवाद) १. ओं। स्वस्ति । लक्ष्मी व विजय वृद्धि हो । ___ जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, आकाश ही जिनके केश हैं, ऐसे महादेव सर्वश्रेष्ठ हैं ॥१॥
प्रलयकाल में चमकने वाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु, शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें ॥२॥ २. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री ३. उदयादित्य देव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री नरवर्मदेव
के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर ४. श्री यशोवर्मदेव के पादानुध्यायी सब प्रकार की ख्याति से युक्त पांच महाशब्दों के अलंकार
को प्राप्त करनेवाले महाकुमार श्री लक्ष्मीवर्मदेव वराजमान हो श्रीयुत ५. महाद्वादशक मण्डल में श्रीयुत राजशयन भोग में सुरासणी से सम्बद्ध वडोद ग्राम तथा
सुवर्ण प्रासादिका से सम्बद्ध उथवणक ग्राम-~दोनों ग्रामों के
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परमार अभिलेख
६. समस्त विषयकों, पटेलों, ग्रामीणों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों व अन्यों को आज्ञा देते हैं--आप को
विदित हो कि श्रीयुक्त धारा में महाराजाधिराज परमेश्वर श्री । ७. यशोवर्मदेव द्वारा श्री विक्रम संवत् के एक हजार एक सौ इकानवे वर्ष में कार्तिक सुदि
अष्टमी में पड़े महाराज श्री। .८. नरवर्मदेव की वार्षिकी पर तीर्थजल में स्नान कर देव ऋषि मनुष्य व पितरों को संतृप्त
कर भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर समिधा दर्भ तिल अन्न ९. और घी की आहूतियों से अग्नि में हवन कर सूर्य को अर्घ्य देकर कपिला गाय की तीन
प्रदक्षिणा कर संसार की असारता देख कर कमल दल पर १०. गिरे जल बिन्दु के समान चंचलतर जीवन तथा धन को देख कर, और कहा गया है-- - इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषयभोग
प्रारम्भमात्र में ही मधुर लगने वाला है मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले
जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।।३।। ११. ऐसा जानकर अद्रेलविद्धावरि स्थान से आये.. ....... . . १२. भारद्वाज गोत्री, भारद्वाज आंगिरस बार्हस्पत्य तीन प्रवर वाले, आश्वलायन शाखा के,
दक्षिण से आये कर्णाट ब्राह्मण द्विवेद ठक्कुर १३. श्री महिरस्वामी के पौत्र, श्री विश्वरूप के पुत्र आवस्थिक श्री धनपाल के लिये ऊपर लिखे वडोद ग्राम व उथवणक ग्राम
, १४. साथ में वृक्षों की पंक्तियों के समूह, निधि धरोहर सहित बापी कप तडाग से युक्त व
जिसकी चारों सीमायें निश्चित हैं, चन्द्र सूर्य के रहते तक जल हाथ में लेकर १५. शासन (राजाज्ञा) द्वारा दिये गये हैं। संवत्सर बारह सौ की श्रावण सुदि पंद्रह सोम
ग्रहण पर्व पर श्री पितरों के श्रेय के हेतु पुनः ये १६. दोनों ग्राम जल हाथ में लेकर शासन (राजाज्ञा) द्वारा हमारे द्वारा दिये गये हैं। अतः
इन दोनों ग्रामों के निवासियों, समस्त पटेलों, लोगों तथा १७. कृषकों द्वारा उत्पादन कर हिरण्य भाग भोग आदि हमारी आज्ञा मान कर सभी इसके
लिये देते रहना चाहिये। १८. और इसका सबके लिये समान रुप पुण्यफल जान कर हमारे वंश में व अन्यों में भी उत्पन्न
भावी नरेशों द्वारा इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये। क्योंकि-- .. सगरं आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है ।।४।।... ........
जो अपने द्वारा दी गई अथवा दूसरों के द्वारा दी गई भूमि का अपहरण करता है वह साठ हजार वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा बनता है।॥५॥ ___ सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह समान रूप से धर्म का सेतु है .......॥६॥
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शेरगढ अभिलेख
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(४५) शेरगढ़ का जिन-प्रतिमा पादपीठ अभिलेख
(संवत् ११९१= ११३४ ई.) प्रस्तुत अभिलेख जिन-तीर्थंकर की प्रस्तर प्रतिमा के पादपीठ पर उत्कीर्ण है जो १९५३ में खोजा गया। यह शेरगढ़ दुर्ग के बाहर जैन मंदिर में है। यहां शांतिनाथ, कुन्थुनाथ एवं अरनाथ की तीन प्रस्तर प्रतिमायें हैं। अभिलेख मध्यवर्ती प्रतिमा के पादपीठ पर है। इसका विवरण डी.सी. सरकार ने एपि. इं., भाग ३१ पृष्ठ ८१-८६ में छापा।
अभिलेख ८ पंक्तियों का है। इसका आकार ४७-१४ सें.मी. है। पत्थर काफी क्षतिग्रस्त है। प्रथम पंक्ति के अक्षर प्रायः टूट गये हैं। अक्षरों की लंबाई १.५ सें. मी. है। अक्षरों की बनावट १२ वीं सदी की नागरी लिपि है। भाषा संस्कृत है परन्तु त्रुटियों से भरपूर है। इस पर प्राकृत का प्रभाव है। अभिलेख पद्यमय है। इसमें शार्दूलविक्रीडित एवं अनुष्टुभ छन्दो में ५ श्लोक हैं।
____ तिथि संवत् ११९१ वैसाख सुदि ३ मंगलवार है जो श्लोक क्र. ३ के पूर्वार्द्ध में शब्दों में एवं अन्त में अंकों में लिखी है। यह २९ मार्च, ११३४ ई. के बराबर निर्धारित होती है। परन्तु दिन मंगलवार न होकर गुरुवार है। प्रस्तुत एक निजी अभिलेख है जिसका ध्येय उपरोक्त जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना करवाना था। इसमें राज्यकर्ता नरेश का नाम नहीं है, परन्तु उपरोक्त तिथि नरेश नरवर्मन् के शासनकाल में पड़ती है।
अभिलेख के विवरण के अनुसार सूर्याश्रम नगर में खण्डेलवाल कुल के माहिल की पत्नी निवास करती थी। इसके दो पुत्र श्रीपाल व गुणपाल शेरगढ़ में आ कर रहने लगे। श्रीपाल के देवपाल, एवं गुणपाल के शांति नामक पुत्र थे। शांति के नौ पुत्र होने का उल्लेख है जिनमें से पूनि, मर्थ, जन व इहलुक इन चार के नाम हैं। इन सभी ने वहां मंदिर में त्रिरत्न अर्थात् तीन तीर्थंकरों की मूर्तियां बनवा कर प्रतिष्ठापना करवाई। मूर्तियों का निर्माता सूत्रधार दांदि का पुत्र सूत्रधार शिलाश्री था। आगे देवपाल के सात पुत्रों के व कुछ अन्य नाम हैं। ये सभी प्रतिमा स्थापना में सहयोगी रहे।
अभिलेख में उल्लिखित तीन भौगोलिक नाम प्राप्त होते हैं:-सूर्याश्रम, मालव एवं कोशवर्द्धन । सूर्याश्रम का तादात्म्य अनिश्चित है। कोशवर्द्धन आधुनिक शेरगढ़ है जहां से अभिलेख पाप्त आ है। यहां मालवा शब्द महत्वपूर्ण है। कोशवर्द्धन को मालवा में निरुपित किया गया है। मालव जाति चौथी सदी ईसापर्व में पंजाब में वास करती थी। फिर वह धीरे धीरे राजस्थान के जयपुर क्षेत्र में आ बसी और वर्तमान मालव क्षेत्र तक विस्तृत हो गई। प्रस्तुत अभिलेख के समय तक शेरगढ़ क्षेत्र मालवा का ही भाग था। पूर्ववर्णित शेरगढ़ अभिलेख क्र. १४ से भी इसकी पुष्टि होती है।
.
..
रहा
(मूलपाठ) (श्लोक १-३ शार्दूलविक्रीडित; श्लोक ४-५ अनुष्टुभ) --~~-~णेश्रित]~-माहिल्लभार्यान्तिमा -------[श]स्य तिलके सूर्याश्रमे पत्ति]ने ।
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परमार अभिलेख श्रीपालो गुणपालकश्च विपु
ले] खण्डि[ल्लवा]ले कुले सूर्य (र्या) चन्द्रमसाविवाम्व (म्ब)रतले प्राप्तौ क्रमान्मालवे ॥१॥ श्रीपालदिह देवपालत्न (तन)यो दानेन चिन्तामणिः शान्तेः (शांति) श्री] गुणपाल ठकु (क्कु) र सुताद्रूपेण कामोपमात् । पूनीमर्थजनेल्हुकप्रभृव (त)यः पुत्राग्र (श्च) येग्रा नव तेः (तैः) सवरपि कोशवर्द्धनत
ले रत्नत्रयः (यं) कारितं ॥२॥ वर्षे रुद्रशते (ते) र्गतैः सु(शु) भतमैरका (क) नवत्याधिकवैशाख (खे)धवले द्वितीय दिवसे देवान्प्रतिष्ठा
पितान् । वन्दन्ते नतदेवपालतनया माल्हूसधान्वादयः पु(पू)नीसान्तिसुताश्च नेमिभरताः श्रीशन्तिसत्कुन्थ्वरान्
॥३॥ दांदिसूत्रधरोत्पन्नः (न) सी (शि)लाश्री सूत्रधारिणा। शांति[कु]न्थू (थ्व) रनाम (मा)नो जयन्तु घटिता जिनाः ॥४॥ देवपाल सु
तेल्हुकः गोष्ठिवीसल लल्लुकः (काः)। माउकः हरिश्चन्द्रादिः गागास्व (सु) पुत्रः अल्लकः ।।५।। संवत् ११९१ वैसाष (ख) सुदि २ [मं]८. गलदिने प्रतिष्ठा करापिता (कारिता) ॥:॥
(अनुवाद) ......माहिल की अंतिम भार्या . . . .तिलक स्वरूप सूर्याश्रम नगर में....सूर्य चन्द्र के समान विशाल खण्डेलवाल कुल में श्रीपाल व गुणपालक हुए जो क्रम से मालवा में आये ॥१॥
श्रीपाल के देवपाल नामक पुत्र हुआ जो दान देने में चिंतामणि के समान था; गुणपाल ठक्कुर का पुत्र शांति था जो कामदेव के समान था। उससे पूनि, मर्थ, जन, इलहुक आदि नौ पुत्र हुए। उन सब ने कोशवर्द्धन तल में तीन रत्न बनवाये ।।२।। .. ग्यारह सौ में इक्कानवे अधिक शुभ वर्ष में, वैसाख मास के शुक्ल पक्ष में द्वितीया के दिन किये गये हुए, देवपाल के पुत्र मालहु व सधानु आदि पूनी व शांति के पुत्र नेमि भरत आदि प्रतिष्ठापित शांति, कुन्थु व अर देवों की वन्दना करते हैं ॥३॥
दांदि नामक सूत्रधार से उत्पन्न शिलाश्री नामक सूत्रधार ने शांति, कुंथु व अर जिन तीर्थंकरों की मूर्तियां बनवाई। उनकी जय हो ॥४॥
देवपाल के पुत्र इल्हुक, गोष्ठि, वीसल, लल्लुक, माउक, हीर, चन्द्र आदि, गागासु के पुत्र अल्लक ।।५।।
७. संवत् ११९१ वैसाख सुदि २ ८. मंगल (वार) के दिन प्रतिष्ठा करवाई।
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उज्जैन अभिलेख
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(४६) उज्जैन का यशोवर्मदेव का ताम्रपत्र अभिलेख (अपूर्ण)
(संवत् ११९२-११३५ ई.) प्रस्तुत अभिलेख एक ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण है जो पूर्ववणित यशोवर्मन्-लक्ष्मीवर्मन् के ताम्रपत्र (क्र. ४४) के साथ १८१२ ई. में उज्जैन से प्राप्त हुआ था। इसका उल्लेख भी उसी के साथ किया गया। १८९० ई. में प्रो. कीलहान द्वारा इं. ऐं, भाग १९ पृष्ठ ३४५ व आगे पर इसका विवरण दिया गया। वर्तमान में यह ब्रिटिश संग्रहालय लंदन में रखा है।
अभिलेख का आकार ३७.७८ ४ २७ सें.मी. है । यह संपूर्ण अभिलेख, जो संभवत: दो ताम्रपत्रों पर रहा होगा, का उत्तरार्द्ध है। इसमें लेख अग्रभाग पर लिखा है। ऊपर में दो छेद हैं। किनारे मोटे हैं व लेख वाले भाग की ओर मुड़े हैं। इसका वजन २.०७ किलोग्राम है। इसमें नीचे बायें कोने में दोहरी पंक्ति के चतुष्कोण में गरुड़ का राजचिन्ह है। इस की चोंच मुड़ी हुई व नुकीली है। दो पंख हैं एवं वह कुछ झुका हुआ है। बायें हाथ में तीन नाग हैं जिन को दाहिने हाथ से मार कर निगलने के प्रयत्न में है।
अक्षरों की बनावट १२वीं सदी की नागरी लिपि है । अक्षर .८ सें. मी. लम्बे हैं। अभिलेख १४ पंक्ति का है। अन्त में दो अन्य अक्षर उत्कीर्ण हैं जिनकी लम्बाई प्रायः तिगुनी है। अक्षरों की बनावट सुन्दर है। बाद की पंक्तियां कुछ घिसी हुई हैं। भाषा संस्कृत है व गद्य पद्यमय है। इसमें ५ श्लोक हैं, शेष गद्यमय है । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, म् के स्थान पर अनुस्वार बने हैं। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है। पंक्ति ६ में अवग्रह का प्रयोग है। कुछ अन्य त्रुटियां भी हैं जिन को पाठ में सुधार दिया गया है। काल व प्रदेश के मान से ये सामान्य त्रुटियां हैं।
तिथि पंक्ति १२-१३ में अंकों में संवत् ११९२ मार्ग (-शीर्ष) वदि ३ है। दिन का उल्लेख नहीं है। यह सोमवार, २५ नवम्बर, ११३५ ई. बराबर है। इसका प्रमुख ध्येय अप्राप्य प्रथम ताम्रपत्र में रहा होगा। प्राप्त भाग की पंक्ति १ में श्रीमती मोमल देवी की वार्षिकी के अवसर पर भूदान का उल्लेख है। वह संभवतः यशोवर्मन् की माता थी।
__अभिलेख की पंक्ति २-३ में भूदान का विवरण है, परन्तु यहां वाक्य रचना कुछ त्रुटिपूर्ण है जिससे उसका अर्थ करने में कठिनाई है। इसका अर्थ कुछ इस प्रकार लगाया जा सकता है कि क्रमशः लघुवैगणपद्र व अर्द्धठिक्करिका ग्राम-समूहों से संबद्ध देवलपाटक व ठीकरी ग्रामों से माप्यकीय ब्राह्मण द्वारा निर्धारित दो-दो हल भूमि, जो ११ हल भूमि व १७ निवर्तन भूमि से संबद्ध थी, दो व्यक्तियों को दान में दी गई। वास्तव में एक हल भूमि से तात्पर्य इस नाप की खेती योग्य भूमि से है जो एक हल द्वारा एक ऋतु में जोती जा सके। इस प्रकार निवर्तन भूमि का वह नाप है जो २० दण्ड (९६ पर्व या १९२ फीट) के बराबर होता है। माप्यकीय ब्राह्मण ऐसा राजकीय अधिकारी होना चाहिये जो शास्त्र-वर्णित नियमों के अनुसार नाप कर भूमि का निर्धारण करता था।
पंक्ति क्र. १३ में दूतकों के उल्लेख हैं। इनमें पुरोहित ठक्कुर श्री वामन स्वामी, ठक्कुर श्री पुरुषोत्तम तथा महाप्रधान राजपुत्र श्री देवधर हैं। इसके साथ 'आदि' शब्द से अनुमानतः इस सूचि में कुछ अन्य व्यक्ति भी थे। इतने दूतकों के नाम एक साथ रखने का कारण अज्ञात है। सामान्यतः दूतक एक ही होता था। अगली पंक्ति में 'र' अक्षर सामान्य से कुछ बड़ा है।
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परमार अभिलेख
संभवतः यह रचितं का छोटा रूप हो । परन्तु इसके बाद लेखक का नाम नहीं है । अभिलेख के नीचे बड़े अक्षरों में “अधि" शब्द है जिसके साथ श्री लगा है। इसका अर्थ अनिश्चित है । प्रस्तुत अभिलेख निश्चित रूप से परमार नरेश यशोवर्मन् का है जो नरवर्मन् का पुत्र था । वह ११३३ ई. में पिता की मृत्यु पर नरेश बना था ।
भौगोलिक स्थानों में देवलपाटक दो ग्रामों का संयुक्त नाम होना चाहिये । पश्चिमी निमाड़ जिले में भीकनगांव परगना के अन्तर्गत धरमपुरी से 5 कि. मी. उत्तर पश्चिम दिशा में देउल व पाडल्य ग्रामों से इनकी समता की जा सकती है। ठिक्करिका वर्तमान ठीकरी ग्राम है जो धरमपुरी से ११ कि. मी. दक्षिण में बंबई - आगरा मुख्य मार्ग पर स्थित है । लघुवैंगणपद्र आधुनिक वेगन्दा अथवा वेगन्दी है जो ठीकरी से दक्षिण-पूर्व में १० कि. मी. की दूरी पर है। ये सभी ग्राम नर्मदा नदी के दक्षिण में स्थित हैं। यह सारा प्रदेश परमार साम्राज्य में था ।
( मूलपाठ)
१. श्री मोमलदेवी-सांवत्सरि[क] (के) कल्पितत्वाद्भुज्यमान देवलपाटकाद् भूहलद्वयपरिवर्तन (ब्रह्मणमा [य]कीय भूहल
२. द्वयसम्व (ब) द्धे ठीकरिकाग्राम-विभाग- उभयजयद्वाभ्यां भूनिवर्त्तन- सप्तदशकोपेत-भूहलैकादशकसंवधे (बंद्धे) समस्त - उप
३. रिलिखित - लघु वैंगणपद्रग्रामस्तथा
ठिक्करिकाग्रामार्द्धश्च
स्वसीमा-तृण [यू] तिगोचरपर्यन्तः
सवृक्षमालाकुल:
४. सहिरण्य-भागभोगः सोपरिकरः सर्वादायसमेतश्च मातापित्रो - रात्मनश्च पुण्ययशोभिवृद्धये शासनेनोदक
५. पूर्व्वकतया प्रदत्तस्तन्मत्वा यथादीयमान भाग-भोगकर हिरण्यादिकमाज्ञा श्रवण-विधेयैर्भूत्वा सर्व्वमेताभ्यां समुप
६. नितव्यं । सामान्यं चैतत् पुण्यफलं वु (बु) द्ध्वाऽस्मद्वंश - जैरन्यैरपि भावि भोक्तृभिरस्मत्प्रदत्तधर्मादायोयम- नुमन्त
७. व्यः पालनीयश्च । उक्तं च ।
१०.
११.
१२.
(a) हुभिर्व्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।।१।। यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रद्दानानि धर्म्मार्थयशस्कराणि । निर्माल्यवान्ति प्रतिमानि तानि को नाम साधुः पुन
राददीत ॥२॥ अस्मत्कुल क्रममुदारमुदाहरद्भिरन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं । लक्ष्म्यास्तद्विलयवुद्व (बुद्बु) दचं [च]
लाया दानं फलं परयशः परिपालनं च ॥३॥ सर्व्वानेतान्भाविनः पार्थिवेन्द्रान् भूयो भूयो याचते रामभद्रः ।
सामा
न्योयं धर्म्मसेतुर्न पाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ॥ ४ ॥ इति कमलदलम्वु (म्बु ) विन्दुलोलां श्रीयमनुचि [त्य म]
नुष्यजीवितं च । सकलमिदमुदाहृतं च बुध्वा ( बुद्ध वा ) न हि पुरुषः परकीर्तयो विलोप्या ॥ ५॥
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उज्जैन अभिलेख
इति । सम्व (संवत् ११९२ मा[र्ग] व
१३. दि ३ ।। दू ( दूतका : ) राजपुत्र श्री देवधर -प्रभृतयः ॥
१४. मंगलं महाश्री ॥ ( ? )
१५. स्वहस्तोय महाराज श्रीमद् यशोवर्मदेवस्य ।
१६. अधि ( ? ) । श्रीः ॥
पुरोहित-ठक्कुर श्री वामनस्वामि-ठक्कुर श्री पुरुषोत्तम महाप्रधान
(अनुवाद)
१. श्रीमती मोमलदेवी की वार्षिकी पर कल्पित भोगे जा रहे देवलपाटक से दो हल भूमि ( ? ) माप्यकीय ब्राह्मण द्वारा नापी गई दो हल भूमि
२. से संबद्ध ठीकरी ग्राम विभाग से दो व्यक्तियों के लिये सतह निवर्तन भूमि से युक्त ग्यारह हल भूमि
३. ऊपर लिखे समस्त लघुबैंगणपद्र ग्राम तथा आधे ठिक्करिका ग्राम से संबद्ध निज सीमा तृणयुक्त गोचर तक साथ में वृक्ष-समूह की पंक्तियां
४. साथ में हिरण्य भाग भोग उपरिकर और सब प्रकार की आय सहित, माता पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के हेतु शासन द्वारा जल हाथ में ले कर
५. दान दी है। इसको मान कर जिस प्रकार सदा से दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि इस आज्ञा को सुन कर सभी इन दोनों के लिये
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६.
देते रहना चाहिये । और इसका समान रूप फल जान कर हमारे वंश में व अन्यों में उत्पन्न होने वाले भावि भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना ७. व पालन करना चाहिये । और कहा गया है-
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में.. रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है ||१||
यहां पूर्व के नरेशों ने धर्म व यश हेतु जो दान दिये हैं त्याज्य एवं कै के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ||२||
हमारे उदार कुलक्रम को उदाहरण रूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल ( इसका ) दान करना और ( इस से ) परयश का पालन करना ही है || ३ ||
सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है, अत: अपने अपने कालों में आपको इसका पालन करना चाहिये ||४|
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ कर और इन सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ।। ५ ।। १२. संवत् ११९२ मार्ग (शीर्ष)
१३. वदि ३ । दूतक पुरोहित ठाकुर श्री वामनस्वामि, ठक्कुर श्री पुरुषोत्तम, महाप्रधान राजपुत्र श्री देवधर आदि ।
१४. मंगल व श्री वृद्धि हो ।
१५. ये स्वयं महाराज श्रीमत् यशोवर्मदेव के हस्ताक्षर हैं । १६. अधि । श्री ।
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परमार अभिलेख
(४७) झालरापाटन का यशोवर्मन् का प्रस्तर अभिलेख
(सं. ११९९=११४२ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है जो अत्यन्त क्षतिग्रस्त है। इसका सामान्य विवरण प्रो. रि. आ. स. वे. स., १९०५-६, पृष्ठ ५६, क्र. २०९७ पर है। रिपोर्ट के अनुसार अभिलेख में परमार नरवर्मदेव व उस के पुत्र यशोवर्मन् के नाम पढ़े जा सकते हैं। इसके उपरान्त कुछ मंत्रियों का विवरण है। अन्त में तिथि विक्रमांक संवत् ११९९ फाल्गुन सुदि पढ़ने में आती है। यदि यह पूर्णिमा थी तो गुरुवार १२ फरवरी, ११४२ ई. के बराबर निश्चित की जा सकती है। उस दिन चन्द्रग्रहण था।
प्रस्तरखण्ड वर्तमान में कहां है सो अज्ञात है। इसी कारण इसका पूर्ण विवरण नहीं दिया जा रहा है।
भोपाल का महाकुमार लक्ष्मीवर्मदेव कालीन अभिलेख
(तिथि रहित) प्रस्तुत अभिलेख एक वर्गाकार प्रस्तर स्तम्भ पर उत्कीर्ण है जो १९५७ ई. में भोपाल में प्राप्त हुआ था। इसका विवरण ज. म.प्र. इ. प., क्र. २, १९६०, पृष्ठ ३-८ में सन्तलाल कटारे द्वारा छापा गया।
स्तम्भ १७३ सें. मी. ऊंचा है। इसमें अभिलेख तीन ओर खुदा है। चौथी ओर शिवलिंग व नंदि के रेखाचित्र हैं। खुले में पड़े रहने के कारण अभिलेख काफी क्षतिग्रस्त हो गया है। इसमें १५ पंक्तियां हैं। तीनों ओर ५-५ पंक्तियां हैं। प्रथम ओर लेख का आकार २९४ १४ सें. मी., दूसरी ओर २६४ १३ सें. मी. व तीसरी ओर २८४ १५ सें. मी. है। प्रत्येक पंक्ति में प्रायः १५ अक्षर हैं। अक्षरों की बनावट १२ वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षरों की बनावट न सुन्दर है न एक समान । अक्षर गहराई में भी कम है। भाषा संस्कृत है व गद्यमय है। लेखन कला की कोई विशेषता नहीं है। ऐ के लिये पृष्ठमात्रा एवं ओ के लिये अग्र व पृष्ठ मात्राओं का प्रयोग है।
___व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स का प्रयोग किया गया है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है। कुछ अक्षर ही गलत खुदे हैं। इनको पाठ में ठीक कर दिया है। अभिलेख में तिथि का अभाव है, परन्तु इसमें महाकुमार लक्ष्मीवर्मदेव का उल्लेख है। उज्जैन ताम्रपत्र अभिलेख (क्र. ४४) के आधार पर उसकी तिथि संवत् १२०० तदनुसार ११४३ ई. ज्ञात है। अत: प्रस्तुत अभिलेख भी उसी के आसपास होना चाहिये। अभिलेख का ध्येय अनिश्चित है। परन्तु संभव है कि लक्ष्मीवर्मन् के अधीन एक सामन्त द्वारा शत्रु पर विजय प्राप्त करने की स्मृति रूप प्रस्तुत स्तम्भ की स्थापना करना ही इसका ध्येय रहा हो।
__पंक्ति २-३ में परमार वंशीय महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् के शासन करने का उल्लेख है। • अगली पंक्तियों में उसके अधीन अधिद्राणाचार्य नामक वंश के अजयपालदेव, पीथनदेव, तेजोवर्मदेव
के पिता-पुत्र के अनुरूप उल्लेख हैं। इनके नामों के साथ महाराजपुन उपाधि लगी है। पंक्ति
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भोपाल अभिलेख
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८-९ में उत्तरोक्त के छोटे भाई के पुत्र विजयसिंहदेव का नाम है जिसने अपने मित्र व संबंधी राष्ट्रकूट वंशीय राजपुत्र वाद्दिग से मिल कर युद्ध में किसी शत्रु पर विजय प्राप्त की थी। शत्रु का नाम संभवतः आगे की टूटी पंक्तियों में लुप्त हो गया है।
पूर्ववणित अभिलेख क्र. ४४ में हम उन परिस्थितियों का अध्ययन कर चुके हैं जिनके अन्तर्गत लक्ष्मीवर्मन् ने विदिशा-भोपाल क्षेत्र में अपना राज्य स्थापित किया था। परन्तु उसके अधीनस्थ राष्ट्रकूट वंशीय वाद्दिग कौन व कहां का शासक था सो अज्ञात है। दोहद जिले में पिपरिया से प्राप्त पांच सती-स्तम्भ अभिलेखों में से दो में २९ अगस्त, ११४१ ई. को राष्ट्रकूट महामाण्डलिक राणक जयसिंह द्वारा एक राजकुमार हेमसिंह के विरुद्ध युद्ध का वर्णन है। तीसरे में महाराजपुत्र गोपालदेव द्वारा राजकुमार रणशैल के विरुद्ध युद्ध का एवं चौथे में दामोदर द्वारा अन्य चार राजकुमारों के विरुद्ध युद्ध का वर्णन है (लिस्ट ऑफ इंस्क्रिप्शनस इन सी. पी. एण्ड बरार, क्र. ९८, पृष्ठ ५६, सम्पादन रायबहादुर हीरालाल)। उपरोक्त राष्ट्रकूट महामाण्डलिक राणक जयसिंह कया प्रस्तुत अभिलेख के राजपुत्र वाद्दिग से किसी प्रकार से सम्बद्ध था सो अनिश्चित है।
महाकुमार लक्ष्मीवर्मदेव ने वाद्दिग के साथ मिल कर किस शत्रु पर विजय प्राप्त की थी, उसके संबंध में ज्ञात करना सरल नहीं है। एक सुझाव यह है कि वह बल्लाल हो सकता है जिसके एक अभिलेख में उसको अवन्ति, धार व मालव का शासक कहा गया है (एपि. इं., भाग ८, पृष्ठ २०२)। परन्तु इस पर विश्वास करने में कठिनाई है। अभिलेख में किसी भौगोलिक स्थान का उल्लेख नहीं है।
मूलपाठ (प्रथम ओर) १. ओं स्वस्ति । श्रीजयत्यत्युदयश्च । श्री परम (मा)२. रान्वये समस्त-परिक्रिया-विराजमान । ३. महाकुमार श्रीलक्ष्मीवर्मदेव प्रख्यातः ।। ४. श्री अधिद्राणाचार्यान्वये महाराजपु५. व श्री अजयपालदेवपुत्र-महाराजपुत्र
___ (दूसरी ओर) ६. श्री पीथनदेवस्तत्पुत्र-महाराजपुत्र श्री ७. तेजोवर्मदेवस्तत्कनिष्ठ-भ्रातृव्य ८. श्री विजयसिंहेन संहित्य] च संव (ब)ध्य ९. राष्ट्रकूटान्वये राजपुत्र-श्री वाद्दिगे१०. न सह संजातयुद्धस्व (श्व) रि-विजयं (यः) क्र (क)
(तीसरी ओर) ११. तमिति । कृतिरियं रामपुत्र [श्री] विज१२. यसिंहस्य । तदन्वयः---पा-क१३. --कर।---- करा।--- १४. क--धला-----मंडले-- १५. :- क्कां प्र-- से तेन वा (प्रा)प्त ॥
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परमार अभिलेख
अनुवाद (प्रथम ओर) १. ओं । स्वस्ति । लक्ष्मी की जय व उदय हो । श्री परमार २. वंश में समस्त परिक्रिया से विराजमान ३. महाकुमार श्री लक्ष्मीवर्मदेव विख्यात हैं (शासन कर रहे हैं) ४. श्री अधिद्राणाचार्य वंश में महाराजपुत्र ५. श्री अजयपालदेव के पुत्र, महाराजपुत्र
(दूसरी ओर) ६. श्री पीथनदेव के पुत्र, महाराजपुत्र श्री ७. तेजोवर्मदेव, उस के छोटे भाई का पुत्र ८. श्री विजयसिंहदेव ने मित्र व संबंधी ९. राष्ट्रकूट वंशीय राजपुत्र श्री वाद्दिग १०. के साथ शत्रु से हुए युद्ध में विजय
(तीसरी ओर) ११. प्राप्त की। यह कृति राम के पुत्र श्री १२. विजयसिंह की है। इसका वंश. . . १३. ... . कर। .....करा।....। १४. क...धला ...... मंडल में १५. :.... भाग प्र. ... उस को प्राप्त
(४९) उज्जैन का जयवर्मदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
(अपूर्ण व तिथि रहित)
..
प्रस्तुत अभिलेख एक ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण है जो अभिलेख क्र. ४४ एवं क्र. ४७ के साथ १८१२ ई. में उज्जैन से प्राप्त हुआ था, तथा उनके साथ ही इसका उल्लेख किया गया। इसका विवरण एफ. इ. हाल ने ज. अमे. ओ. सो., भाग ७, पृष्ठ ३६ व आगे में छापा। इसका सम्पादन प्रो. कीलहान ने इं. ऐं., भाग १९, १८९० पृष्ठ ४५ व आगे में किया । ताम्रपत्र ब्रिटिश संग्रहालय, लंदन में सुरक्षित है ।।
अभिलेख का आकार २७४ २२ सें. मी. है। परन्तु यह सम्पूर्ण अभिलेख का केवल पूर्वार्द्ध ही है। इसमें लेख भीतर की ओर खुदा हुआ है। नीचे की ओर दो छेद हैं । किनारे मोटे हैं व लेख वाले भाग की ओर मुड़े हैं। ताम्रपत्र का वजन .९१२ किलो है। अभिलेख १६ पंक्तियों का है। अंतिम पंक्ति के अन्त में एक चिन्ह है जो लेख के दूसरे अप्राप्य ताम्रपत्र पर चालू रहने का सूचक है। अक्षरों की बनावट १२वीं सदी की देवनागरी लिपि है। अक्षरों की लम्बाई ८ सें. मी. है। बनावट में अक्षर सुन्दर है। भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है। इसमें ४ श्लोक हैं, शेष गद्य में है।
व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, म् के स्थान पर अनुस्वार बने हैं। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है। अवग्रह का दो स्थानों पर प्रयोग
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उज्जैन अभिलेख
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है। कहीं कहीं अक्षर ही गलत खुदे हैं। उत्कीर्णकर्ता की छेनी के निशानों से व्यर्थ में निशान बन गये हैं जिनके कारण पाठ पढ़ने में भ्रम होता है।
___अभिलेख में तिथि का अभाव है। यह अप्राप्य दूसरे ताम्रपत्र पर रही होगी। दान भूमि वटखेटक ३६. से सम्बद्ध मायमोडक ग्राम में रही होगी, क्योंकि वहीं पर स्थित अधिकारियों व ग्रामीणों के लिये आज्ञा दी गई है। दान देने के समय नरेश चन्द्रपुरी में था (पं. ९), परन्तु दानपत्र निस्सृत करते समय वर्द्धमानपुर में निवास कर रहा था (पं. ३)। दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण राजब्रह्मपुरी दक्षिण देश के अन्तर्गत अद्रियलविदावरी स्थान से मालव राज्य में आया था। अन्य विवरण प्राप्त नहीं हैं।
पंक्ति ४-७ में दानकर्ता नरेश की वंशावली में सर्वश्री उदयादित्यदेव, नरवर्मदेव, यशोवर्मदेव व जयवर्मदेव के उल्लेख हैं। इन सभी के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हैं। पूर्ववणित अभिलेख क्र. ४४ में यशोवर्मन् का पुत्र लक्ष्मीवर्मन् लिखा है जिसके नाम के साथ कनिष्ठ उपाधियां लगी हैं। अतः निश्चित ही नरेश जयवर्मदेव उसका बड़ा भाई व राज्य का अधिकारी था।
यहां प्रमुख समस्या यह है कि नरेश जयबर्मन् द्वारा पहले चन्द्रपुरी में ठहरे, दिये गये भूदान की घोषणा, बाद में वर्द्धमानपुर में निवास करते हुए क्यों की गई ? हमें ज्ञात है कि चन्द्रपुरी भोपाल क्षेत्र में है जबकि वर्द्धमानपुर धार के पास बदनावर है। जयसिंह सिद्धराज चौलक्य द्वारा ११८३ ई. धारा नगरी पर आक्रमण के समय जयवर्मन अपने भाईयों समेत भोपाल क्षेत्र में चला गया। वहीं पर चन्द्रपुरी में स्थित उसने भदान किया। परन्तु कुछ समय पश्चात ही जयसिंह सिद्धराज के अंतिम दिनों में अथवा ११४३ ई. में उसकी मृत्यु के बाद, जयवर्मन् ने अपनी सेना की सहायता से धारा नगरी समेत अपने साम्राज्य को पुनः प्राप्त कर लिया। संभवत: राज्य की पुनर्माप्ति के इस अभियान में विजययुक्त हो वर्द्धमानपुर में आवास करते हुए उसने उस दान की पुष्टि कर दी।
अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में वर्द्धमानपुर वर्तमान बदनावर है जो परगने का मुख्यालय है (यहां से प्राप्त कुछ मध्ययुगीन प्रतिमाओं की पादपीठिका पर उत्कीर्ण अभिलेखों में भी यही नाम खुदा मिलता है। बदनावर से प्राप्त एक अभिलेख के लिये देखिये भण्डारकर सूचि, क्र. ३०६, प्राचीन अवशेषों के लिये देखिये इंडियन कल्चर, भाग ११, पृष्ठ १६६, सेन्ट्रल इंडिया गजेट सीरीज, पृष्ठ ४९४ व ५१३ आदि)। वटखेटक की समता भोपाल से दक्षिण पूर्व दिशा में १० कि. मी. दूर वरखेड़ा अथवा दक्षिण में २७ कि. मी. दूर वरखेड़ी नामक ग्राम से हो सकती है । चन्द्रपुरी भोपाल से दक्षिण-पूर्व में ४३ कि. मी. दूर चान्दपुर है। चान्दपुर से ६ कि. मी. उत्तर में मावोखेड़ा ग्राम संभवतः मायमोडक है।
(मूलपाठ) १. ओं स्वस्ति । श्रीजयोऽभ्युदयश्च ॥ ... जयति व्योमकेशोऽस[1] यः सर्गाय विमत्ति [ता]
ऎदवीं शिरसा लेखां जगद्वीजां कुराकृतिं ।।१।। तन्वन्तु वः स्मराराते: कल्या
णमनिशं जटाः ।। .: कल्पान्तसमयोद्दामतडिद्वलय-पिंगलाः ॥२॥ .
..
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परमार अभिलेख
श्री वर्द्धमान४. पुर-समावासात् परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री उदयादित्यदे५. व-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज परमेश्वर श्री नरवर्मदेव-पादानु६. ध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री यशोवर्मदेव-पादानुध्यात-पर७. मभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीमज्जयवर्मदेवो विजयोदयी। ८. वटखेटक-षतृ (त्रिं) शत्-संव (ब)द्धमायमोडकग्रामे समस्त राजपुरुषान्-ब्राह्मणोत्तरान्प्र९. तिनिवासि-पट्टकिलजनपदादींश्च वो (बो)धयत्यस्तु वः संविदितं यथा । चन्द्रपुरी समावा१०. सितंरस्माभिः स्नात्वा चराचरगुरुं भगवन्तं भवानीपति समभ्यर्च्य संसारस्यासारतां ११. दृष्ट्वा । तथा हि।
वाताभ्रविभ्रममिदि (दं) वसुधाधिपत्य मापातमात्रमधुरो विषयोपभोग
प्राणास्तृणाग्रजलविन्दुसमानराणां धर्म : सखा परमहो परलोकयाने ।।३।।
भ्रमत्संसार-चक्रारधाराधारामिमां श्रियं ।
प्राप्य ये न दुस्तेषां पश्चातापः परं फ१४. .. .
_ लम् ॥४॥ इति जगतो विनस्व (श्व)रं स्वरूपमाकलय्यादृष्ट-फलमंगीकृत्य चन्द्रा१५. र्कातणवक्षिति-समकालं यावत्परया भक्त्या राजव्र (ब) ह्मपुर्या दक्षिणा-देशा१६. न्तःपाति-[द्रि]यलविदावरीस्थान-विनिर्गताय भारद्वाज . . . ..
(अनुवाद) १. ओं। स्वस्ति । लक्ष्मी और जयवृद्धि हो।
____ जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति हेतु मस्तक पर ... धारण करते हैं, मेघ ही जिनके केश हैं, ऐसे महादेव सर्वश्रेष्ठ हैं ॥१॥
.. प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिव की
जटायें तुम्हारा कल्याण करें ॥२॥ ३. श्री वर्द्धमानपूर ४. में आवास करते हुए, परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री उदयादित्य देव ५. के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री नरवर्मदेव के पादानुध्यायी ६. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री यशोवर्मदेव के पादानुध्यायी ७. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री जयवर्मदेव विजययुक्त होकर ८. वटखेटक छत्तीस से संबद्ध मायमोडक ग्राम में समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आस पास के ९. निवासियों, पटेलों व ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं--आपको विदित हो कि चन्द्रपुरी में आवास १०. करते हुए हमारे द्वारा स्नान कर चर व अचर के स्वामी भगवान भवानीपति की
विधिपूर्वक अर्चना कर, संसार की असारता ११. देख कर, तथा--
__ इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाले हैं, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।।३।।
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ग्यारसपुर अभिलेख
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घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ।।४।। १४. जगत का नाशवान स्वरूप जान कर, अदृष्टफल को अंगीकार कर चन्द्र १५. सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ राजब्रह्मपुरी दक्षिणदेश के १६. अन्तर्गत अद्रियलविदावरी स्थान से आये हुए भारद्वाज----
(५०) ग्यारसपुर का महाकुमार त्रैलोक्यवर्मदेव का स्तम्भ अभिलेख
(खडित एवं तिथिरहित) प्रस्तुत अभिलेख विदिशा जिले में वासोदा परगने के अन्तर्गत ग्यारसपुर से प्राप्त एक प्रस्तर स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसका उल्लेख श्री कनिंघम ने आ.स.इं.रि., भाग १०, १८७४-७५ व १९७६-७७ पृष्ठ ३१ व आगे पर; एम बी. गर्दे द्वारा ए. रि. आ. डि. ग., सं. १९७४; एवं ए. रि. ई. ए., १९५२-५३, क्रमांक बी १५१ पर किया गया। इसका सम्पादन के.जी. कृष्णन ने एपि.इं., १९५९-६०, भाग ३३, पृष्ठ ९३-९४ पर किया। स्तम्भ वर्तमान में पुरातत्व संग्रहालय, ग्वालियर में सुरक्षित है ।
स्तम्भ की ऊंचाई ४८ सें.मी. है। इस पर दो अभिलेख खुदे हैं। ऊपर संवत् ९३६ का एक अभिलेख है तथा उसके नीचे प्रस्तुत अभिलेख है । अभिलेख का आकार ४२४८१ सें. मी. है। खले में पड़े रहने के कारण अभिलेख बहुत जर्जर अवस्था में है। इसमें ४ पंक्तियां हैं परन्तु सभी का अंतिम भाग टूट गया है। अक्षरों की बनावट १२वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर सुन्दर है व गहरे खुदे हए हैं। इन की लम्बाई १.२ से १.५ सें.मी. है। भाषा संस्कृत है। सारा गद्यमय है। लेखनकला की दृष्टि से इसमें कोई विशेषता नहीं है । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व को प्रयोग है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया है। ..अभिलेख की तिथि भग्न हो गई है। पंक्ति क्र. ३ में केवल 'नवम्यां' ही शेष है। इस का प्रमुख ध्येय चामुण्डस्वामी की मूर्ति की स्थापना कर उसके निमित्त एक ग्राम दान करने का उल्लेख करना है। दान के समय नरेश हर्षपुर में ठहरा था।
. पंक्ति क्रं. २ में श्री वैलोक्यवर्मदेव का उल्लेख है जिसके नाम के साथ कनिष्ठ राजकीय उपाधियां 'समस्त प्रक्रिया से विराजमान महाकुमार' लगी हैं । अभिलेख खण्डित अवस्था में होते हुए भी महत्वपूर्ण है । महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् का यह प्रथम उपलब्ध अभिलेख है । महाकुमार हरिश्चन्द्रदेव के ११५७ ई. के भोपाल ताम्रपत्न (आगे कं. ५१) में उल्लेख है कि उसने राज्य सिंहासन महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् की कृपा से प्राप्त किया। साथ ही त्रैलोक्यवर्मन् को नरेश यशोवर्मन् का पादानुध्यात निरूपित किया गया है। प्रस्तुत अभिलेख से यद्यपि महाकुमार श्रृंखला में त्रैलोक्यवर्मन् की स्थिति पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता तथापि यह सिद्ध तो होता ही है कि उसने कुछ समय के लिये शासन अवश्य किया था। उसका शासनकाल उपरोक्त अभिलेख की तिथि के आसपास निर्धारित किया जा सकता है। ...., अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में हर्षपुर वर्तमान में निमाड़ जिले में हरसूद है जो इसी नाम के परगने का मुख्यालय है। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् का शासन विदिशा जिले से लेकर पूर्वी निमाड़ जिले तक विस्तृत था। .
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( मूलपाठ )
१. सिद्धं । स्वस्ति || श्री [ ]ज्योभ्युदयश्च । अद्येह श्रीह [ष]पुर स्थितेन समस्त राजा.... २. त समस्त प्रक्रिया - विराजमान - महाकुमार- श्री त्रैलोक्यवदेवेन .
३. नवम्यां श्री चामुण्डस्वामिदेव - कारितं प्रतिष्ठायां पूजा- निमित्ते .
४. भोज्याय - सहितं देवत्रा (ब्रा) ह्मण - भुक्ति - वर्जं ग्रामोयं श्री चामुण्डस्वामि [ने] ...
परमार अभिलेख
(अनुवाद)
१. सिद्धं । स्वस्ति । लक्ष्मी व विजय का उदय हो । आज यहां हर्षपुर में ठहरे समस्त राजा... २. समस्त प्रक्रिया से विराजमान महाकुमार श्री त्रैलोक्यवर्मदेव के द्वारा ....
३. नवीं को श्री चामुण्डस्वामिदेव की प्रतिष्ठा की गई व पूजा निमित्त.
४. भोज के हेतु, साथ में देव ब्राह्मण द्वारा भोगे जा रहे भाग को छोड़ कर यह ग्राम श्री श्री चामुण्डस्वामि के लिये ......
(५१)
भोपाल का महाकुमार हरिचन्द्रदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
(विक्रम सं. १२१४ = ११५७ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो १९३७ ई. में भोपाल नगर में मकान की नींव खोदते समय मिले थे। दैनिक हिदुस्तान टाईम्स दिनांक ३१-१ - १९३७ में इसका विवरण छपा। एन.पी. चक्रवर्ती ने एपि. इं. भाग २४, १९३७ पृष्ठ ३२५- ३४ पर इसका विवरण दिया । हरदत्त शर्मा ने पूना ओरियंटलिस्ट, १९३९, पृष्ठ २२ - २७ में इसका विवरण छापा । वर्तमान
में ताम्रपत्र सेंट्रल सर्कल, पुरातत्व विभाग, भोपाल में रखे हैं ।
ताम्रपत्रों का आकार २९.८५x१९.५ सें. मी. है। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। दोनों में दो-दो छेद बने हैं जिनमें कडियां पड़ी हैं। किनारे मोटे हैं एवं भीतर को मुड़े हैं। वजन २.२६ कि.ग्रा. है । अभिलेख ४१ पंक्तियों का है । प्रथम ताम्रपत्र पर २१ व दूसरे पर २० पंक्तियां हैं। प्रथम ताम्रपत्र की स्थिति अच्छी है, परन्तु दूसरा सामान्य है । प्रथम ताम्रपत्र पर अन्त में कुछ स्थान खाली छूटा है। इसी प्रकार ताम्रपत्र के प्रारम्भ में कुछ भाग अपठनीय है। इसी पर पंक्ति २९-३५ के मध्य एक वर्ग में गरुड़ का रेखाचित्र है जो परमार राजवंश का राजचिन्ह है । अभिलेख के अक्षरों की बनावट १२वीं सदी की नागरी लिपि है । प्रथम ५-६ पंक्तियों
में अक्षरों की लम्बाई प्रायः 5 सें.मी. है, पर बाद में छोटे हैं । अन्त में नरेश के हस्ताक्षर दुगुने बड़े अक्षरों में हैं। भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है। इसमें ९ श्लोक हैं शेष गद्यमय है । व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि ब के स्थान पर व श के स्थान पर स, स के स्थान पर श, म् के स्थान पर अनुस्वार बना दिये गये हैं। कुछ स्थानों पर अनुस्वार, विसर्ग आदि छूट गये हैं । संधि का अभाव भी दृष्टिगोचर है । कहीं शब्द ही गलत उत्कीर्ण हैं । ये सभी उत्कीर्णकर्ता की लापरवाही से हैं ।
अभिलेख की तिथि पंक्ति ९-१० में विक्रम संवत् के व्यतीत १२१४ वर्ष में कार्तिक सुदी पूर्णिमा सोमग्रहण पर्व लिखी हैं । यह शनिवार १९ अक्तूबर, ११५७ ईस्वी के बराबर बैठती है । उस दिन पूर्ण चन्द्रग्रहण था । इसका प्रमुख ध्येय महाकुमार हरिचन्द्रदेव द्वारा महाद्वादशक मण्डल के अन्तर्गत विखिलपद्र द्वादशक से संबद्ध दादरपद ग्राम का दान करने का उल्लेख करना है। दान के समय नरेश श्री भैल्लस्वामी देव के मंदिर में था । दान का अवसर चन्द्र ग्रहण था ।
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भोपाल' अभिलेख
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__पंक्ति क्र. ३-७ में दानकर्ता शासक की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री नरवमदेव, यशोवर्मदेव, त्रैलोक्यवर्मदेव व हरिचन्द्रदेव के उल्लेख हैं। इनमें से प्रथम दो के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर और अंतिम दो के साथ महाकुमार की कनिष्ट उपाधियां लगी हुई हैं। पं. ४० में मुख्यादेश यदि व्यक्ति का नाम है तो वह इस ग्रामदान का दूतक था।
उपरोक्त ग्राम-भूमि को १६ भागों में विभाजित कर १९ ब्राह्मणों में बांट दिया गया। दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मणों का विवरण पंक्ति क्र. १६-२७ में दिया गया है। इसमें उनके गोत्र, पिता का नाम व प्रत्येक को प्राप्त भ-अंशों का उल्लेख है, जो निम्नानुसार है :क्र. नाम पिता का नाम
गोत्र
प्राप्त १. आवसथिक श्रीधर अग्निहोत्री भारद्वाज
सांकृत्य . १ २. विपाठी गर्तेश्वर त्रिपाठी नारायण
भारद्वाज .. ३. द्विवेद उद्धरण द्विवेद क्षीरस्वामिन्
कृष्णानय . ... ४. द्विवेद यशोधवल द्विवेद वत्व (त्स)
अद्वाह ५. पंडित मधुसूदन आवसथिक देल्ह
काश्यप ६. द्विवेद पाहुल द्विवेद सीले
शौनक ७. पंडित सोमदेव आवसथिक देल्ह
काश्यप ८. द्विवेद पाल्हक द्विवेद यशोधवल
अद्वाह .. .. ९. पंडित रणपाल पंडित धामदेव
गौतम ... ... .१. १०. द्विवेद गंगाधर
द्विवेद सोता ११. " लक्ष्मीधर
" क्षीर स्वामिन् ..
कृष्णात्रेय १२. " श्रीधर
" सीले
शौनक १३. ठकुर वा[च्छुक ठकूर वील्हे
भारद्वाज .. .. १ कुलधर
शांडिल्य ....... १ १५. द्विवेद वाल्हुक द्विवेद गोल्हे
गौतम . . . . . . १६. ठकुर रासल ठकुर कुलधर .
शांडिल्य .. १७. " विष्णु पंडित सोण्डल .
काश्यप . . ३ ... १८. वटुक अहड़ ... .. ठकुर कु[ञ्ज]
कौंडिल्य . .३ . १९. वटुक महण... ... . ' विजपाल ... काश्यप
इन दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मणों के विवरण पर विचार करने से ज्ञात होता है कि १३ ब्राह्मणों को प्रत्येक को एक भाग और ६ को प्रत्येक को १ भाग प्राप्त हुआ। दो ब्राह्मण क्र. ४ व ८ पिता व पुत्र रूप में संबंधित थे; क्र. ३ व ११, ५ व ७, ६ व १२ और १४ व १६ भाई रूप में संबंधित थे, जबकि अंतिम दो क्र. १८-१९ विद्यार्थी मात्र थे।
वंशावली में लिखे प्रथम दो नरेश धारा नगरी के परमार राजवंशीय शासक हैं । अगले दो शासक त्रैलोक्यवर्मन एवं हरिचन्द्र परमारवंश की उस शाखा से संबंधित हैं जो अपने अभिलेखों में स्वयं को 'महाकुमार' की उपाधि से विभूषित करते हैं। इस शाखा का प्रारम्भिक शासक महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् था। उज्जैन ताम्रपत्र अभिले
अनुसार यशोवर्मन् द्वारा संवत् ११९१ में अपने पिता की वार्षिकी पर दिये गये दान की पुष्टि संवत् १२०० में महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् द्वारा की गई थी। लक्ष्मीवर्मन् ने यह पुष्टि अपने पिता के
१४. "
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परमार अभिलेख
श्रेय हेतु की थी ( श्रीमत्पितृ श्रेयोर्थं )। लक्ष्मीवर्मन् के पुत्र महाकुमार हरिचन्द्र के संवत् १२३५ के पिपलियानगर ताम्रपत्र अभिलेख (क्र. ५३) के अनुसार उसने नरेश यशोवर्मन के पूत्र नरेश जयवर्मदेव की कृपा से राज्याधिपत्य प्राप्त किया था (एतस्मात्पृष्ठतमप्रभोः प्रसादादवापविजयाधिपत्यः)। दूसरी ओर लक्ष्मीवर्मन् के पौत्र उदयवर्मन् के संवत् १२५६ के भोपाल ताम्रपत्र अभिलेख (क्र. ५७) में लिखा है कि जयवर्मन् का शासन समाप्त होने पर हरिचन्द्र के पिता लक्ष्मीवन् ने अपने शस्त्र बल से . आधिपत्य प्राप्त किया था (निजकरकृत (धृत ?) करवाल प्रसादावाप्त निजाधिपत्य) । स्पष्टत: इन दो विरोधी साक्ष्यों से विदित होता है कि लक्ष्मीवर्मन् एवं उसके पुत्र हरिचन्द्र ने दो विभिन्न प्रदेशों पर राज्य किया था। इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि भोपाल अभिलेख (क्र. ५७) में हरिचन्द्र के पत्र उदयवर्मन का नाम अपने पितामह लक्ष्मीवर्मन् के उत्तराधिकारी के रूप में आया है। इन दोनों के मध्य हरिचन्द का नाम नहीं है। दूसरे, हरिचन्द्र ने अपने पिपलियानगर ताम्रपत्र अभिलेख (क्र. ५३) में अपने पिता लक्ष्मीवर्मन का नाम अपने पूर्वगामी शासक के रूप में लिखा ही नहीं है। उपरोक्त कोई आकस्मिक भूल या त्रुटि नहीं है अपितु सावधानीपूर्वक दिये गये विवरण हैं। ..
यहां प्रमुख समस्या त्रैलोक्यवर्मन् एवं हरिचन्द्र के संबंध निर्धारित करना है। यह तो निश्चित है कि त्रैलोक्यवर्मन् महाकुमारीय शाखा से संबंधित है। अनुमानत: वह लक्ष्मीवर्मन् का छोटा भाई एवं हरिचन्द्र का चाचा था।' यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि जिस समय लक्ष्मीवर्मन् की मृत्यु हुई तब उसका पुत्र हरिचन्द्र अल्पायु रहा होगा। उस समय उसके चाचा ने उसके बालिग होने तक शासन सूत्र संभाला। इस प्रकार शासन की पूर्ण शक्ति संरक्षक के रूप में त्रैलोक्यवर्मन् के हाथ में आ गई। उसने अन्य शासकों की भांति महाकुमार की उपाधि धारण की। बैलोक्यवर्मन् यदि लक्ष्मीवर्मन् का पुत्र एवं हरिचन्द्र का अग्रज होता तो किसी ताम्रपत्र में उसका उल्लेख अवश्य प्राप्त होता। हरिचन्द्र ने शासन सूत्र संभवत: ११५७ ई. से बहुत पहिले नहीं संभाला था, जो प्रस्तुत अभिलेख की तिथि है। इसीलिये वह त्रैलोक्यवर्मन् को अपना पूर्वगामी घोषित करता है जिससे उसने शासन सूत्र प्राप्त किया था।
अभिलेख के निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में महाद्वादशक मंडल के अंतर्गत भिलसा, उदयपुर व रायसेन (राजशयन--इं.ऐ., भाग १९, पृष्ठ ३५२, पंक्ति क्र. ५) का भूभाग रहा होगा । संवत् १२२९ के उदयपुर प्रस्तर अभिलेख में उसको भलस्वामिन् महाद्वादशक मण्डल निरूपित किया गया है (इं.ऐ., भाग १८, पृष्ट ३९७)। वेत्रावती आधुनिक बेतवा है । इसी नदी के किनारे पर स्थित भैल्लस्वामिन के मंदिर से ही आधनिक भिलसा नगर का नामकरण हआ। दादरपद्र ग्राम भी भोपाल क्षेत्र में था। बाद में इसका अपभ्रंश धरपद्रव पदरिया बन गया। वास्तव में इस क्षेत्र में इस नाम के ११ गांव है। इनमें एक पदरिया-राजाधार है । संभव है अभिलेख का दादरपद्र यही ग्राम हो ।
(मूलपाठ) १. ओं। स्वस्ति । श्रीजयोभ्युदयश्च ।
जति व्योमकेशोसौ यः सर्गाय वि (बि) भत्तिताम् । ऎदवी[ ] सि (शि) र
सा लेखा[ ] जगद्वीजा-कुराकृतिम् ॥१॥ १. अन्य संभावनाओं के लिये देखिये डा. गांगुली, परमार राजवंश का इतिहास, पृ. १३०-१३१ ; . . प्रतिपाल भाटिया, दी परमार्स, पृष्ठ १३० ।
U
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भोपाल अभिलेख
२११
तन्वन्तु व[ : ] स्मराराते[ : ] कल्याणमनिसं (शं) जटाः । कल्पान्त समयोद्दामतडी- ..
... द्वलय पिंगलाः ॥२॥ परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेस्व (श्व) र श्री नरवर्मदेव-पादानु[ध्या]४. त-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेस्व (श्व) रं-श्री यशोवर्मदेव-पादानुध्यात-समस्त-प्र५. स (श)स्तोपेत-समधिगत-पंचमहाशन (6) दालंकार-विराजमान-महाकुमार-श्री त्रौ (त्र)लोक्यवर्म- देव-पादा (द)प्र६. सादावाप-विज्ञा (जया) धिपत्ये (त्यः)-समस्त-प्रस (श) स्तोपेत-समधिगत-पंचमहाश०() दालंकार• विराजमान-मा (म)हाकुमार-श्रीहरि७. चन्द्रदेवो महाद्वादशक-मण्डले विखिलपद्र-द्वादशक-संव (ब) द्धः दादरपद्रगाम-निवासिनः प्रतिग्राम
८. वासिन[]च-राजपुरुष-विषयिक-पट्टकिलजनपदादीन् वा (ब्राह्मणोत्तरान्वोधयत्यस्तु वः संविदितं य९. दिह मया श्रीभैलस्वामिदेव पुरस्थिते[न] श्रीमद्विक्रमकालातीत्-चतुईसा (शा)धिक-द्वादशस (श)
तांत[:]पातिसंवत्स१०. रे कात्तिके (क) सुदि पूणिमायां संजातसोमग्रहण सर्वग्रासपर्वणि कलि कशुषहारिणि वेत्रावती
वारिणि स्ना११. त्वा देवर्षिमनुष्यपितॄन् संतH चराचरगुरुं भगवन्तं भवानीपति दपिप]तदनुजेन्द्रनिद्राहरं हरि
च समभ्यर्च्य तिला१२. न्नाज्याहुति[भिहि[र]ण्यरेतसं हुत्वा जगदानन्दायिने शसि (शि)ने अचं विधाय सवत्सकपिलां
त्रिः प्रदक्षिणीकृ१३. त्य आकल[ज्य] (य्य) संसार[स्था]सारतां परिलुलित-कमलदलत लजललवचलमालक्ष्य यौवनं
यौवनमदमत्त-वाणि१४. [न]ीभ्रूभंगभंगुरमवलोक्य द्रविणं द्रविणकणिकानुशरण विवश विषविलासिनी चित (त्त) चञ्च
लमधिगम्य जीविते (तं)। १५. उक्तं च।
वाताभ्रविभ्रममिदं भुवनाधिपत्य मापातमात्र-मधुरो विषयोपह भोगः। प्राणास्तृणाग्रजलविन्दुसमा नराणां
धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ॥३।। सा! ]कृत्यगोत्राय अग्निहोत्रिक-श्रीभारद्वाजसुत-[ता]वस्थि (सथि)क श्रीधराय पद १ भा१७. रद्वाजगोत्राय त्रिपाटि (ठि)नारायणसुत-त्रिपाटि (ठि) गर्तेस्व (श्व) राय पद १ कृष्णात्रेयगोत्राय
द्विवेद-क्षीरस्वामिसुत-द्वि१८. वेदुद्धि]रणाय पद १ अद्वाहगोत्राय द्विवेद व[त्व] (त्स)सुत-द्विवेद यसो (शो)धवलाय पद १
कास्य (श्य)पगोत्राय १९. आवस्थि (सथि) क-देल्हसुत-पं-मधुसूदनाय पद १ शौनक गोत्राय द्विवेदसीलेसुत-द्विवेद-पाहुलाय
पद १ का२०. स्य (श्य)प-गोत्राय अवस्थि (सथि)क दे[ह]-सुत-पं-सोमदेवाय पद १ अद्वाहगोत्राय द्विवेद
यशोधवल-सु२१. त-द्विवेद-पा[ल्ह]काय पद १ [गौत]म-गोत्राय-पं-धामदेवसुत-पं-रणपालाय पद १
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परमार अभिलेख
(दूसरा ताम्रपत्र-अग्रभाग) २२. ... ...द्विवेद-सोतासुत-द्विवेद-गंगाधराय पद १ कृष्णानेय-गोत्राय द्विवेद क्षीर२३. स्वामिसुत-द्विवेद-लश्मी (क्ष्मी)धराय पद १ सौ (शौ) नक-गोत्राय द्विवेद-सीलेसुत-द्विवेद-श्रीधराय
[पद] ३ भारद्वाज-गो२४. वाय-ठकुर-बी[ल्व्हे]सुत-ठकुर-वाच्छुिकाय पद १ सा (शांडिल्य-गोवाय ठकुर-कुलधरसुत
. . ठकुर-वाच्छुकाय पद १ गो (गौ)२५. तमगौ (गो)वाय द्विवेद-गोल्हेसुत-द्विवेद-वाल्हुकाय पद ३ सां (शां) डिल्य-गोवाय-ठकुर-कुलधर.. सुत-ठकुर-रासलाय २६. पद ३ कास्य (श्य) पगोत्राय पं-सो[]डलसुत-ठकुर-विष्णवे पद कौण्डिन्य-मोत्राय ठकुर.... कुज़]सुत-वटुक-अहड़ाय पद २७. [३] कास्य (श्य) पगोत्राय ठकुर-विजपालसुत-वटुक-महणाय पद ३ । तदेवं यथायथं - ब्रा(बा)ह्मण एकोन्न२८. विसतीनाम् (ब्राह्मणानामेकोनविंशते:) पद षोडसांके पद १६ । तदमीषां वा (ब्राह्मणानाम
परिलिखित-ग्रामः पूर्वदक्षिण-तलद्वयोपेतो नि२९. धि-निक्षेप-सहितो नदनदीकूपतड़ागवाटिकाम(काराम)-संयुतश्चराद्यायोपेतः ३०. सर्वाभ्यंतर-सिद्धयोदक-पूर्वकतया शासने[न] प्रदत्तस्तदेतत् (द्) ग्रामनिवासिभिः कर्ष- . ३१. कैश्च करहिरण्यभागभोगादिक[मा]ज्ञाश्रवण-विधेयैर्भूत्वा देवता (बा)ह्मण भु३२. क्तिवर्ज सर्वममीभ्यो वा (ब्राह्मणेभ्यः समुपनेतव्यं । यदुत (क्तं) । व (ब)भिर्वसुधा भु
क्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदाभूमिस्तस्य तदा फलं (लम्) ।।४।। त्रीण्या
हुरतिदानानि गावः पृ[]वी सरस्वती। आश (स)प्तमं पुनंत्येता दोहवाहनिवेद
नै ॥५॥ सर्वानेतान्भाविनः पार्थिवेन्द्रान् भूयो भूयो याचते रामभद्रः । सामान्यो
यं धर्मसे[तु]र्नृपाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ।।६।। स्वदत्तं परदत्तं वा यो हरेद्वस् (सु)धा[ ]नृपः । न तस्य पु
नरावृत्तिनरकात्कुम्भिपाका (क)तः ।।७।। देववा (बा) ह्मण-द्विज-प्रदत्ताभून हर्त्तव्या नृपैर्ये (य)तः । केनापि सह वास्येश्ये]व न
___ गता न चिरं स्थित ।।।। इति पुरातनमुनि-प्रणीत-वचन-परिपाटीश्रवण-समुद्भूतप्रभूत-विवो वे] कोदयेन माता३९. पित्रोरात्मनश्च पुण्यशोभिवृद्धये ॥
इति ज्ञात्वा पर पैरस्मद्वंसो (शो)द्भवे (वै) स्तथा। धर्मोयमिहोन (हनो)
लोप्यो यैः केश्चित् (द्) [धर्म]चिंतकैः ।।९।। दु. मुख्यादेशः ।। शिवमस्तु । मंगल[ ] महाश्रीः । ४१. स्वहस्तोयं महाकुमार श्री हरिचन्द्रदेवस्य ॥श्री[:] ।
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भोपाल अभिलेख
१. ओं । स्वस्ति । लक्ष्मी व विजय का उदय हो ।
जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, बादल ही जिनके केश हैं ऐसे महादेव सर्वश्रेष्ठ हैं ॥१॥
अनुवाद ( प्रथम ताम्रपत्र- पृष्ठ भाग )
७.
३. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री नरवर्मदेव के पादानुध्यायी
४. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री यशोवर्मदेव के पादानुध्यायी सब प्रकार की ५. ख्याति से युक्त पाँच महाशब्दों की उपाधि को प्राप्त करने वाले विराजमान महाकुमार श्री त्रैलोक्यवर्मदेव के चरणों के
२१३
प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें || २ ||
६. प्रसाद से विजय का आधिपत्य प्राप्त करने वाले, सब प्रकार की ख्याति से युक्त पांच महाशब्दों की उपाधि प्राप्त करने वाले महाकुमार श्री
हरिचन्द्रदेव विराजमान हो कर महाद्वादशकं मण्डल में निखिलपद्र द्वादशक से संबद्ध दादरपद्र ग्राम के निवासियों, अन्य ग्रामों के
८.
निवासियों राजपुरुषों विषयिकों पटेलों ग्रामीणों श्रेष्ठ ब्राह्मणों को आज्ञा देते हैं--आप को विदित हो कि
९. यहाँ मेरे द्वारा श्री भैल्लस्वामिदेव के सामने स्थित होने वाले ( मैं ने) श्री विक्रम संवत् के व्यतीत बारह सौ चौदहवें वर्ष में
१०. कार्तिक सुदि पूर्णिमा को हुए सम्पूर्ण सामग्रहण पर्व पर कलियुग की कालिमा को हरण करने वाली वेत्रावती के जल में
११. स्नान करके, देव ऋषि मनुष्य व पितरों को विधिपूर्वक तृप्त करके, चर व अचर के स्वामी भगवान भवानीपति की और गर्वित असुरपति की निद्रा का हरण करने वाले हरि की विधिपूर्वक अर्चना कर तिल
१२. अन्न घी की आहूतियों द्वारा अग्नि में हवन कर संसार को आनन्द देने वाले चन्द्र को अर्घ्य दे कर बछड़े समेत कपिला गाय की तीन प्रदक्षिणा कर,
१३. संसार की असारता को जान कर, यौवन को कमल दल पर गिरे जल के समान अस्थिर मान कर, यौवनमद में मस्त रहने वाली व्यभिचारिणी स्त्री
१४. की भौं की भंगिमा के समान द्रव्य को नाशवान देख कर, द्रव्य के टुकड़े के पीछे विक्स हो विषकन्या के चंचल चित्त के समान जीवन को जान कर,
१५. और कहा गया है-
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषयभोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान हैं, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है || ३ ||
१६. सांकृत्यगोती अग्निहोत्रिक श्री भारद्वाज के पुत्र आवस्थिक श्रीधर के लिए १ पद,
१७. भारद्वाज गोत्री त्रिपाठी नारायण के पुत्र त्रिपाठी गर्तेश्वर के लिए १ पद, कृष्णातेय गोत्री द्विवेद क्षीरस्वामि के पुत्र
१८. द्विवेद उद्धरण के लिये १ पद, अद्वाह गोत्री द्विवेद वत्स के पुत्र द्विवेद यशोधबल के लिए १ पद, काश्यप गोती
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२१४
परमार अभिलेख
१९. आवसथिक देल्ह के पुत्र पंडित मधुसूदन के लिये १ पद, शौनक गोत्री द्विवेद सीले के पुत्र द्विवेद पाहुल के लिये १ पद,
२०. काश्यप गोत्री आवसथिक देल्ह के पुत्र सोमदेव के लिये १ पद, अवाह गोली द्विवेद यशोधवल के
२१. पुत्र द्विवेद पाल्हक के लिये १ पद, गौतम गोत्री पंडित धामदेव के पुत्र पंडित रणपाल के लिये १ पद,
(दूसरा ताम्रपत्र- अग्रभाग )
द्विवेद सोता के पुत्र द्विवेद गंगाधर के लिये १ पद, कृष्णात्रेय गोत्री द्विवेद क्षीर
स्वामि
२३.
के पुत्र द्विवेद लक्ष्मीधर के लिये १ पद, शौनक गोली द्विवेद सीले के पुत्र श्रीधर के लिये ३ पद, भारद्वाज गोती
२४. ठकुर वील्हे के पुत्र ठकुर वाच्छुक के लिये १ पद, शांडिल्य गोत्री ठकुर. कुलधर के पुत्र ठकुर वाच्छुक के लिये १ पद,
२५. गौतम गोत्री द्विवेद गोल्हे के पुत्र द्विवेद वाल्हुक के लिये रे पद, शांडिल्य गोत्री ठकुर कुलधर के पुत्र ठकुर रासल के लिये
२६. ३ पद, काश्यप गोत्री पंडित सोण्डल के पुत्र ठकुर विष्णु के लिये 2 पद, कौण्डिन्य
r
गौली ठकुर कुञ्ज के पुत्र बटुक अहड़ के लिये
२७. पद, काश्यप गोत्री ठकुर विजपाल के पुत्र वटुक महण के लिये रे पद, इस प्रकार जैसा कहा गया है
२८. उन्नीस ब्राह्मणों को सोलह पद अंकों में १६ पद । इन ब्राह्मणों को उपरिलिखित ग्राम पूर्व व दक्षिण दोनों तलों से युक्त गड़े धन
२९. सहित नद नदी कूप तड़ाग वाटिका बगीचे से युक्त और आज तक की समस्त आय से
युक्त
३०. सभी प्रकार की आंतरिक सिद्धि से जल हाथ में लेकर शासन द्वारा दिया गया । अतएव यह ग्रामवासियों व
३१. कृषकों के द्वारा कर हिरण्य भाग भोग आदि आज्ञा मान कर देव ब्राह्मण द्वारा
३२. भोगे जा रहे को छोड़ कर सभी इन ब्राह्मणों के लिये देते रहना चाहिये । क्योंकि कहा गया है-
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिस के अधिकार में रही है तब तब उसी को उस का फल मिला है | || ४ ||
तीन ही मुख्य दान हैं—गाय, पृथ्वी व सरस्वती । इन के दोहन, हल चलाने व निवेदन द्वारा ये सात पीढ़ी तक पवित्र करते हैं ॥ ५ ॥
सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के के लिये समान रूप धर्म का सेतु है । अत: अपने अपने काल में आप को इसका पालन करना चाहिये || ६ |
जो नरेश अपने द्वारा या दूसरे के द्वारा दी गई भूमि का अपहरण करता है वह कुम्भिपाक नरक से फिर कभी वापिस नहीं आता ॥ ७ ॥
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विदिशा अभिलेख
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देव व ब्राह्मण को दी गई भूमि का राजा को हरण न करना चाहिये, क्योंकि वेश्या के समान यह न किसी के साथ जाती है व न ही चिरस्थायी होती है ॥ ८ ॥ ३८. यह प्राचीन मुनियों द्वारा प्रणीत वचनों की परिपाटी सुन कर उससे उत्पन्न विपुल विवेक
के उदय से माता
३९. पिता व स्वयं के पुण्य व यश की अभिवृद्धि के लिये ( दान दिया ) ।
यह जान कर हमारे वंश में तथा अन्यों में उत्पन्न होने वाले किसी भी धर्मचिन्तक नरेशों को इस धर्म (दान) को लुप्त न करना चाहिये || ९ ||
४०. दूतक मुख्यादेश है । कल्याण हो । महालक्ष्मी मंगल करे ।
४१. ये स्वयं महाकुमार श्री हरिचन्द्र देव के हस्ताक्षर हैं । श्री ।।
(५२)
विदिशा का त्रैलोक्यवर्मन् का प्रस्तरखण्ड अभिलेख ( संवत् १२१६ = ११५९ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख विदिशा में जैन मंदिर के सामने एक निवास के मुख्य द्वार पर लगी प्रस्तर शिला पर उत्कीर्ण है । यह काफी खण्डित अवस्था में है। इसका प्रारम्भिक काफी भाग टूट गया है । इसका आकार १२६.५x९० से. मी. है । इसमें ९ पंक्तियां शेष हैं। इनमें भी पंक्ति १ प्रायः ध्वस्त है । पंक्ति २-४ के मध्य में, पंक्ति ६-८ के अन्तिम कुछ भाग क्षति - ग्रस्त हैं । इन क्षतियों के होते हुए भी अभिलेख महत्वपूर्ण है ।
इसके अक्षरों की बनावट १२वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर सुन्दर व गहरे खुदे हैं। इनकी सामान्य लम्बाई १.५ सें. मी. है । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है। पंक्ति ८ में दान वाले भाग व पंक्ति ९ में तिथि वाले भाग को छोड़ कर, सारा अभिलेख पद्यमय है । इसमें १५ श्लोक विभिन्न छन्दों में हैं। सभी श्लोक सुन्दर ढंग से साहित्यिक भाषा में रचे गए हैं। श्लोकों में क्रमांक नहीं हैं ।
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व श के स्थान पर स, ख के स्थान पर ष, म् के स्थान पर अनुस्वार, अनुस्वार के स्थान पर म् का प्रयोग किया गया है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा बना दिया गया है । ये सभी काल व प्रादेशिक प्रभावों को प्रदर्शित करते हैं । तिथि अन्त में संवत् १२१६ चैत्र वदि १२ है । दिन का उल्लेख नहीं है । यह बुधवार 9 अप्रेल, ११५९ ई० के बराबर निर्धारित होती है।
अभिलेख का मुख्य ध्येय नरेश त्रैलोक्यवर्मन् द्वारा विष्णु के सुन्दर मंदिर का निर्माण करवा कर उस हेतु दान का उल्लेख करना है । उपलब्ध खण्ड में प्रथम पंक्ति का प्रायः तीन-चौथाई भाग नष्ट हो गया है। इसमें लिखे जा सकने वाले अक्षरों की गणना करने पर कहा जा सकता है कि प्रथम श्लोक अनुष्टुभ छन्द में रहा होगा । दूसरे श्लोक का प्रथमार्द्ध भी नष्ट हो गया है। उत्तरार्द्ध में किसी नरेश का विवरण प्रतीत होता है । यह भी अनुष्टुभ छन्द में है। श्लोक क्र. ३ में उसी नरेश की प्रशंसा है । अगले दो श्लोकों में उसके द्वारा वराह रूपी मुरारी (विष्णु) के विशाल मंदिर के बनवाने का उल्लेख है । श्लोक क्र. ६ में उसमें विविध आयुधों से युक्त विष्णु की प्रतिमा की स्थापना का उल्लेख है । इन पंक्तियों से यह ज्ञात नहीं होता कि उक्त मन्दिर का निर्माण कहां पर करवाया गया था। फिर भी संभावना यही है कि यह विदिशा में ही कहीं पर था क्योंकि
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परमार अभिलेख
अयले श्लोक में बेत्रावती नदी का उल्लेख है। दूसरे, प्रस्तुत अभिलेख का भारी प्रस्तर खण्ड इसके प्राप्ति स्थान तक कहीं दूर से लाये जाने की संभावना भी न्यून ही है। अगले तीन श्लोकों क्र. ७-९ में मंदिर के पास एक सुन्दर उद्यान के बनाने का विवरण है। अगले दो श्लोकों में नरेश का गुणगान है। श्लोक क्र. १२ में मंदिर के चिरस्थाई होने की कामना है। श्लोक क्र. १३ के पूर्वार्द्ध में नरेश त्रैलोक्यवर्मन् का उल्लेख है, उत्तरार्द्ध नष्ट हो गया है। दान के समय नरेश उत्तरपट्टक में स्थित था। यह नाम कुछ विचित्र लगता है। यदि छन्द की सुविधा हेतु यहां पट या पटक के स्थान पर पट्टक का प्रयोग है, तो कहा जा सकता है कि नरेश उत्तर में किसी शत्रु के विरुद्ध अभियान में वहां शिविर लगाये हुए था।
आगे एक वाक्य गद्य में है। इसमें कहा गया है कि व्यवसायिक वस्तुओं का भार उठाये प्रत्येक बैल (प्रतिवृषभारं) पर एक विसोपक कर लगेगा। यह कर निश्चित ही मंदिर के लाभार्थ लगाया गया था। विंशोपक सिक्का मूल्य में द्रम्म सिक्के के २०वें अंश के बराबर होता था। संभवतः मंदिर के लिये एक गांव भी दान में दिया गया था जिसका नाम श्लोक क्र. १३ के उत्तरार्द्ध में लुप्त हो गया । अगले श्लोक में इस अभिलेख को प्रशस्ति कहा गया है एवं इसकी प्रशंसा की गई है। लेखक का नाम भग्न हो गया है। उत्कीर्णकर्ता सूत्रधार वासुदेव था जिसको बुद्धिमान कहा गया है।
इस प्रकार यह अभिलेख त्रैलोक्यवर्मन् का है जिसको 'नृपति' की उपाधि है। संभवतः टूटे भाग में उसके पूर्वजों एवं वंश का नाम रहा हो। पूर्ववणित ग्यारसपुर अभिलेख (क्र. ५०) में उसको महाकुमार की उपाधि से विभूषित किया गया है। ग्यारसपुर विदिशा से उत्तरपूर्व में ३२ कि.मी. है। इस प्रकार दोनों अभिलेखों के प्राप्ति स्थानों के एक ही भूभाग में स्थित होने से नृपति दैलोक्यवर्मन् की एकात्मकता ग्यारसपुर अभिलेख के महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् से करना युक्तियुक्त है। पूर्ववणित भोपाल ताम्रपत्र (क्र. ५१) में महाकुमार हरिचन्द्रदेव स्वयं का आधिपत्य महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् की कृपा से प्राप्त करने की घोषणा करता है। इन सभी विवरणों के आधार निष्कर्षरूप कहा जा सकता है कि अपने भतीजे हरिचन्द्र के अल्पव्यस्क होने पर उसका चाचा त्रैलोक्यवर्मन् संरक्षक बन, 'महाकुमार' उपाधि धारण कर, शासनसूत्र संभालने लग गया। तभी तो भोपाल ताम्रपत्र में हरिचन्द्रदेव अपने सिंहासन की प्राप्ति 'महाकुमार' त्रैलोक्यवर्मन् की कृपा से होने की घोषणा करता है।
लोक्यवर्मन् का केवल यही एक तिथियुक्त अभिलेख प्राप्त है। प्रस्तुत अभिलेख उसके भतीजे महाकुमार हरिचन्द्रदेव के ११५७ ई. के ताम्रपत्र अभिलेख से दो वर्ष बाद का है। इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हरिचन्द्र को सिंहासन सौंपने के साथ ही त्रैलोक्यवर्मन् की महाकुमार की उपाधि का अन्त हो गया। अब वह 'नपति' की सामान्य उपाधि का उपयोग करने लगा। प्रस्तुत अभिलेख के समय वह किसी शत्रु के विरुद्ध अभियान चला कर साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखने में व्यस्त था।
भौगोलिक स्थानों में वेत्रावती वर्तमान बेतवा नदी है जो विदिशा के पास से बहती है। उत्तरपट्टक यदि किसी स्थान का नाम है तो उसका तादात्म्य संभव नहीं है।
(मूल पाठ) (श्लोक १, २, ५, ६, ८, १३ अनुष्टुभ ; ३,७ शार्दूलविक्रीड़ित; ४ वसन्ततलिका; १०. मन्दाक्रान्ता; ११, १४ शिखरनी; १२ रथोद्धता; ९, १५ आर्या)
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fafter अभिलेख
१.
३.
५.
--11 [१]
-- ये [ नाभू] द्भूभुजा जातोलंकरण ।
पादानज--- [व] दुर्व्वारशोचिः शुचि यं सर्व्वे । युगपद्गुणा गुणनिधि प्राप्य प्रतिष्ठां ययु: ।। [३]
मूलं यशोविटपिनः फलमिन्दिया मान्दिवः प्रवहणं भवसागरस्य । सोचीकरत्कुमुदव (ब) न्धु सव ( ब ) न्धुकान्ति कान्तम्वराहवपुषः सदनं मुरारेः][४] - भानुं [वि] शं ( शन् ) शसी (शी ) । सृ ( शृ ) ङ्गसिंह भय भ्रष्टसारङ्गः इव लक्ष्यते । [५] विविधायुध - विन्यासवस (श) जाताभिधाभिदा : । वि[व] मूर्तेरममूत्ति सो
स्यान्तः प्रत्यतिष्ठिपत् ।। [६]
11
-1
arraarवि विटपैर्व्व (ब) न्धुरं चन्द्रवं (बं) धोरस्ता [भ्या] सैकवेस्म (एम) द्रुम कुसुमरजो [3]द्यानं फुल्लवल्ली परिसर विसरल्लोलरोलंव ( ब ) माला झंकारोद् गारजातस्फुटविकट धनुःस्फारटंकार शंकम् ।। [७] पुष्पवन्ती ( वती ) मपि लतामपि [ शिल]
ष्टमधुव्रतम् । त (त्य ) जन्ति मुनयो यत्र नीरागमनसोज्जटाः ||[ ८ ]
निर्मले । [२]
उन्निद्रकोरकभरस्खलितैरजोभिरापिंजरा सुतरुष ( ख ) ण्डतलस्थलीषु । विश्रा [न्त ] व्यजनगीतमनू गिरन्ति कीरा यदीयमुपरीह यशस्तरुणाम् ||[९]
वक्षः स्फारं स्फुरितरुचिना कौस्तुभे [ ने] व विष्णोश्चंद्रेणे [व] -
स्खलिततमसा [ व्योम] सीमानभिज्ञम् । येनागाधं सर इव [ल]सत्पुण्डरीकेण सो ( शो ) भां लेभे विष्वग्विततयशसा गोतमुन्निद्रगोत्रम् | [१०]
अदाम्ये ( ? ) वेत्त्यर्थान्परिचरति मान्यान कुटिल : क्षमावास ग्रामा जयति गुणवान्यो वितरति । तलपति
दपरमपिनास्य व्यवहितम् ।। [११]
कौस्तुभस्तव (ब) कितं हरेरुर: शंकरस्य विधुवं (बं ) धुरं शिरः । अस्ति यावदिह तावदस्त्व] द: कोलरूपरविभा
त्रैलोक्य व नृपतिः स्थितमुत्तर पट्टके ।
• खदः ।। [१२]
-
।।[१३]
२१७
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२१८
परमार अभिलेख
------प्रति - --ल - --- -- ८. भाण्डं प्रतिवृषभारं विसो (शो) पकमेककञ्च ददौ ।।
अलंकारस्फारां स्फुरितशुचिवृत्ताद्गुणवती प्रस (श) स्तिं सत्कान्तामिव क इह कण्ठे न कुरुते । असौ यस्यामार्यद्विजकुलसि (शि) रोगा- - ---- - - - - - -- - - --॥ [१४] ~~~~~न --- लिखिता [स्था?]न कीत्तिदा । उत्कीर्णा वासुदेवे]
न सूत्रधारेण धीमता ॥ [१५] सम्व[त्] १२१६ चैत्र वदि १२ [1] सिद्धेयं (यम्) [1] शिवमस्तु मङ्गलं महाश्रीः ।।
(अनुवाद) १. ------------ २. . . . . जिस राजा से अलंकार रूप हुआ. . . निर्मल (वंश में) ३. . . . . जिसके शत्रुओं का शोक निवारण नहीं किया जा सकता था, जिस पवित्र व गुणनिधि
को समस्त गुण एकदम प्राप्त होकर प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए थे। ४. उसने वराह अवतार रूपी मुरारी का मंदिर बनवाया जो कीर्तिवृक्ष की जड़ रूप है, लक्ष्मी ___ का फलरूप है, स्वर्ग का मार्गरूप है, (और) संसार सागर के लिये नौका रूप है । (वह
मंदिर) चन्द्र के बन्धु समान दैदीप्यमान कान्तियुक्त है। ५. ऐसा प्रतीत होता है कि मानो (चन्द्रकांति युक्त मंदिर शिखर पर बने) सिंह के भय
से चन्द्र में स्थित हरिण पलायन कर गया हो। ६. विविध प्रकार के आयुधों से युक्त विश्वमूर्ति विष्णु की मूर्ति इस मंदिर के भीतर प्रतिष्ठा
पित की। ७. उसने वेत्रावती के तट पर चन्द्रबन्धु (वसन्त ऋतु) के शस्त्राभ्यास करने का एक भवन
रूप, शाखाओं से जटिल, विकसित लताओं के पुष्पपराग पर मंडराने वाली भ्रमर पंक्ति के गुंजारों से मानों धनुष टंकार की शंका उत्पन्न कर रहा हो ऐसे उद्यान का निर्माण
किया। ८. जहां खूब विकसित हुई लता का भ्रमरों से युद्ध होने के कारण काले मेघों की भ्रान्ति
होने से मुनिगण त्याग कर रहे हैं (अर्थ त्रुटिपूर्ण है)। ९. वृक्षमाला की तलभूमि पर जहां विकसित कलियों के भार से पराग बिखरा है, विश्रान्त
करने वाले तरुणों के द्वारा जिस (राजा). की कीर्ति गाई जाती है उस का अनुगान ऊपर बैठे तोतों द्वारा किया जा रहा है। . . . . ..
जिस प्रकार कौस्तुभ मणि से विष्णु का वक्षस्थल, अंधकार नष्ट करने वाले चन्द्र से आकाश व विकसित काल से अगाध सरोवर सुशोभित है उसी प्रकार चारों ओर फैली
जिस (नरेश) की कीर्ति से वंश सुशोभित हुआ है। ११. सरल स्वभावी जो (नरेश) मान्य श्रेष्ठ व्यक्तियों की परिचर्या करता था व दान देता
था, गुणवान जो क्षमा करने व ग्राम दान करने के कारण जिसका जयकार होता था . . . .
उससे कोई वस्तु छुपी नहीं। १२. जब तक विष्णु के वक्षस्थल पर कौस्तुभ मणि व शिव के मस्तक पर चन्द्र स्थिर है तब
तक यह मंदिर स्थिर रहे।
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पिपलियानगर अभिलेख
२१९
१३. नरेश त्रैलोक्यवर्मन् के उत्तर पट्टक में स्थित . . . . ।
....प्रत्येक वषभार के भांड पर एक विंशोपक दान में दिये। १४. अलंकारों से सुशोभित सदाचार से गुणवती प्रिया के समान सुशोभित इस प्रशस्ति को
कौन कण्ठ में धारण नहीं करेगा। इसे श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में उत्तर. . . . . . । १५. . . . . इस स्थान की कीर्ति को व्यक्त करने वाली यह....के द्वारा लिखी गई।
बुद्धिमान सूत्रधार वासुदेव के द्वारा उत्कीर्ण की गई। ९. संवत् १२१६ चैत्र बदि १२ । सिद्धि हो। कल्याण हो। महाश्री मंगल करे।
(५३) पिपलियानगर का महाकुमार हरिश्चन्द्र देव का ताम्रपत्र अभिलेख
(विक्रम संवत् १२३५=११७८ ई.) प्रस्तुत अभिलेख तीन ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो १८३६ ई. में शाजापुर जिले में स्थित पिपलियानगर में एक किसान को खेत में हल चलाते समय प्राप्त हुए थे। विल्किसन ने इसका विवरण ज. ए. सो. ब., भाग ७, १८३८, पृष्ठ ७३६-७४१ पर दिया। कीलहान की उत्तरी अभिलेखों की सूचि क्र. १७२; भण्डारकर की उत्तरी अभिलेखों की सूचि क्र. ३८३ एवं हरिहर निवास द्विवेदी के ग्रन्थ 'ग्वालियर राज्य के अभिलेख' क्र. ८ पर इसका उल्लेख है। ताम्रपत्र वर्तमान में कहां हैं सो अज्ञात है ।।
ताम्रपत्रों के आकार, वजन, पंक्तियां, गरुड़ चिन्ह, अक्षरों की बनावट, लेख की स्थिति इत्यादि के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है। इसमें १४ श्लोक हैं, शेष गद्यमय है । इसमें दो तिथियां हैं । प्रथम तिथि व्यतीत विक्रम काल १२३५ पौष वदी अमावस्या है। यह सोमवार, ११ दिसम्बर, ११७८ ई. के बराबर है । दूसरी तिथि संवत्सर १२३६ वैसाख पूर्णिमा है जो सोमवार, २३ अप्रैल, ११७९ ई. के बराबर है। .
इसका प्रमुख ध्येय महाकुमार हरिश्चन्द्रदेव (पूर्ववणित अभिलेख क्र. ५१ में हरिचन्द्रदेव) 7 नीलगिरी मण्डल में अमडापद्र प्रतिजागरणक से संबद्ध पलसवाडा ग्राम व सम्मति ग्राम से कुछ भाग और गुणपुर दुर्ग के बाहर पास में बनी दुकानें व अनाज आदि दान में देने का उल्लेख करना है । दान प्राप्तकर्ता दो ब्राह्मण हैं। प्रथम, कात्यायन गोत्री, त्रिप्रवरी, पंडित सिंह का पुत्र पंडित दशरथ शर्मा है जिसको पलसवाडा ग्राम से दो अंश भूमि मिली। दूसरा, पराशर गोत्री, त्रिप्रवरी, पंडित देलू का पुत्र पंडित मालूण शर्मा है जिसको एक अंश प्राप्त हुआ। आगे भी दान का कुछ अन्य विवरण है, परन्तु उसमें अंशों का निर्धारण नहीं है। दोनों दानों का विवरण कुछ इस प्रकार दिया जा सकता है
(१) पलसवाडा अथवा सवाडा ग्राम से ३ अंश भूमि, (२) एक सहस्र गायें, (३) गुणपुर दुर्ग के तल' अर्थात् पास मैदान में बनी दुकानें,
(४) नीलगिरी मण्डल से प्राप्त कुडव के नाप से ४० मानि (मन) धान्य (कोष के अनुसार चौथाई प्रस्थ अथवा १२ मुट्ठी अनाज एक कुडव के बराबर होता है)। परन्तु दोनों ब्राह्मणों को प्राप्त होने वाले अंशों के निर्धारण साफ साफ नहीं दिए गये हैं।
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२२०
परमार अभिलेख
नरेश की वंशावली में सर्वश्री उदयादित्य, नरवर्मदेव, यशोवर्मदेव, जयवर्मदेव एवं हरिश्चंद्र देव के नाम हैं। इनमें प्रथम चार नरेश पिता-पुत्र शृंखला अनुसार हैं। इनके नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हैं। परन्तु अंतिम के नाम के साथ महाकुमार की कनिष्ठ उपाधियां ही लगी हैं। साथ में लिखा है कि हरिश्चन्द्रदेव ने जयवर्मदेव के प्रसाद से राज्य-आधिपत्य प्राप्त किया था। अन्त में उसके पिता का नाम महाकुमार श्री लक्ष्मीवर्मदेव दिया हुआ है। परन्तु पूर्ववणित अभिलेख (क्र. ५१) में हरिश्चन्द्रदेव राज्य की प्राप्ति महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् के चरणों के प्रसाद से प्राप्त करने की घोषणा करता है एवं जयवर्मदेव का कोई उल्लेख ही नहीं करता।
ऐसा प्रतीत होता है कि महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् की मृत्यु के समय उसका पुत्र हरिश्चन्द्र अल्पव्यस्क था। इस कारण उसका चाचा त्रैलोक्यवर्मन् संरक्षक बन कर उसके नाम से शासन सूत्र संभालने लग गया। बाद में जब हरिश्चन्द्र वयस्क हो गया तो उसको राजसिंहासन सौंप कर त्रैलोक्यवर्मन् उसकी सहायता करने लगा। इसी कारण संवत् १२१४ के उपरोक्त अभिलेख (क्र. ५१) में हरिश्चन्द्र राज्य की प्राप्ति हेतु त्रैलोक्यवर्मन् के प्रति आभार प्रदर्शित करता है। जयवर्मदेव धार में राजवंश का सम्राट था और संभवतः त्रैलोक्यवर्मन् के माध्यम से हरिश्चन्द्र ने सम्राट से अपने शासन की अनुमति प्राप्त की थी । परन्तु प्रस्तुत अभिलेख के समय तक त्रैलोक्यवर्मन् की मृत्यु हो चुकी होगी, अतः हरिश्चन्द्र केवल नरेश जयवर्मन् के प्रति आभार प्रदशित करता है। अभिलेख के अन्त में हस्ताक्षर करते समय महाकूमार हरिश्चन को ‘परमार कूलरूपी कमल का सूर्य' घोषित करता है। इससे अनुमान होता है कि महाकुमार शंखला के शासक धार के राजवंशीय नरेशों के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते थे और उनकी सामान्य अनुमति से ही शासन संभालते थे।
दान में दिये गये ग्रामों के आधार पर कहना होगा कि हरिश्चन्द्र ने अपने राज्य को दक्षिण व दक्षिण-पश्चिम की ओर नर्मदा नदी तक होशंगाबाद जिले में विस्तृत करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। वास्तव में तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियां उसके बहुत कुछ अनुकूल बन गई थीं । इस समय त्रिपुरी के कल्चुरि वंश का अन्त हो रहा था। कल्चुरि नरेश गयाकर्ण का पौत्र जयसिंह अथवा परपौत्र विजयसिंह अब गद्दी पर था। इसी प्रकार चन्देलों की ओर से भय भी प्रायः कम हो गया था । क्योंकि चन्देल नरेश परमादिन् (११६६-१२०२ ई.) इस समय उत्तर में व्यस्त था। पश्चिमी चालुक्य भी इस काल में अपने घरेलू झगड़ों में व्यस्त थे। सोमेश्वर चतुर्थ विज्जण के उत्तराधिकारियों से राज्य छीनने में संघर्षरत था। इस कारण सभी ओर से शत्रुओं के आक्रमणों से निश्चिंत होकर महाकुमार हरिश्चन्द्र ने अपने राज्य के विस्तार की योजना बनाकर उसको सफलतापूर्वक कार्यान्वित कर लिया प्रतीत होता है।
अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में नीलगिरी का तादात्म्य आधुनिक नीलगढ़ से किया जा सकता है जो विंध्य के दक्षिण में नर्मदा से उत्तर की ओर १ मील की दूरी पर स्थित है (इंडियन एटलस, शीट क्र. ५५, क्रमांक ए-३) । गुणपुर आधुनिक गोडरपुर है जो नर्मदा के दक्षिणी तट पर स्थित है (वही, क्रमांक ए-४) । पलसवाडा या परसवाडा अथवा सवाडा की समता आधुनिक परसवाडा से की जा सकती है, जो होशंगाबाद जिले में सोहागपुर से दक्षिण पश्चिम की ओर १० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अमडापद्र वर्तमान में छिन्दवाडा जिले में अमरवाडा परगना है।
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पिपलियानगर अभिलेख
२२१
(मूल पाठ) श्रीः। श्रीगणेशायनमः । स्वस्ति जयोभ्युदश्च ।
जयति व्योमकेशोसौ यः सर्गाय विभति तां । ऐंदवी शिरसा लेखां जगद्वीजांकुराकृति ॥१॥ तन्वन्तु वः स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः । कल्पान्तसमयोद्दाम-तडिद्वलयपिङ्गलाः ।।२।।
परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर--श्री-उदयादित्य-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीनरवर्मदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीयशोवर्मदेवपादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीजयवर्मदेव इत्येतस्मात्पृष्ठतमप्रभोः प्रसादावाप्तनिजाधिपत्यःसमस्तप्रशस्तोपेत-समधिगतपञ्च-महाशब्दालंकार-विराजमान-महाकुमार-श्रीहरिश्चन्द्रदेवः नीलगिरिमण्डलेऽमडापद्र-प्रतिजागरणके संबद्धपलसवाडा-ग्रामनिवासि-सम्मतिग्रामनिवासिनश्च समस्त-राजपुरुष-विषयिके पदाकिलजनपदादि ब्राह्मणोत्तरान बोधयत्यस्त वः संविदितं यथाऽस्माभि श्री विक्रमकालातीत १२३५ पञ्चविंशदधिक-द्वादशशत-संवत्सरान्तःपाति-पौष-वदि अमावास्यायां संजात-सूर्यपर्वणि चतुर्मुखमार्कण्डेश्वर देवोपकण्ठे विमलतर-पवित्र-नर्मदातीर्थांभोभिः स्नात्वा सितवाससी परिधाय देवर्षिमनुष्यपितृन् सन्तर्प्य चराचरगुरुं भगवन्तं भवानीपतिं समभ्यर्च्य समित्कुशतिलान्नाद्याहुतिभिर्हिरण्यरेतसं हुत्वा जातवेऽर्थ विधाय कपिलां त्रिः प्रदक्षिणीकृत्योपस्पृश्य गो-सहस्रनाम् महादानं दत्वा च संसारस्यासारतां दृष्ट्वा नलिनीदलगत-जलविन्दुवच्चञ्चलतरं यौवनं वितं चावेक्ष्य । उक्तञ्च ।
वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्य मापातमात्रमधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्तृणाग्रजलबिन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ।।३।।
इत्येवमाकलय्य । मातापित्रोरात्मनश्च पुण्ययशोभिवृद्धये कात्यायन-गोत्राय त्रिप्रवराय पण्डितसिंहसुत-पण्डित-दशरथ-शर्मणे विलिखित-परसवाडा ग्रामस्यांशद्वयमकेश २ तथा १२३६ षदिशदधिक द्वादशशत-संवत्सरान्तःपाति-वैशाखमासि पौर्णमास्यां पराशरगोत्राय त्रिप्रवराय पण्डित देलसुत-पण्डित मालूणे शर्मणे ब्राह्मणयांशमेकम केऽशं १ गुणपुरदुर्गतलहट्टिका-वासनिका-युक्तमित्युभयमंशम् एवमंशबयोपकल्पितो नीलगिरि-मण्डलीय-कुडवमाप्येन चत्वारिंशन्मानिकापरिमित उपरिलिखित सवाडाग्राम: सवृक्षमालाकुलो निधिनिक्षेप-सहितश्चतु:ककट-विश्रुद्धो वापीकूपतडागोपयुक्तः । सर्वाभ्यन्तरसिद्धयाससनेनोदकपूर्वकतया प्रदत्तः। तत्र च ग्रामनिवासि-पट्टकिलादिलोकैस्तथा कर्षकैश्चात्रग्रामे यथेत्पद्यमान भागभोगकर-हिरण्यादिकमाज्ञावाग्विधेयैर्भूत्वा सर्वमनयोः समुपनेतव्यं सामान्यं चैतत्पुण्यफलं बुध्वास्मद्वंशजैरन्यैरपि भाविभोक्तृभिरस्मत्प्रदत्त धर्मादायोयमनुमन्तव्यः पालनीयञ्च ।। यते ।।
बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं ।।४।। भूमि यः प्रतिगृहणाति यश्च भूमि प्रयच्छति । उभौ तौ पुण्यकाणी नियतं स्वर्गगामिनौ ।।५।। शंख-भद्रासनं छत्रं वराश्वं वरवाहनं । भूमिदानस्य चिन्हानि फलमेतत् पुरन्दर ।।६।। हर्ता हारयिता भूमेमन्दबुद्धिस्तमोवृतः । सबद्धो वारुणः पाशस्तिर्यग्योनिः प्रजायते ।।७।। स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेच्च वसुन्धरा । षष्टिवर्ष सहस्राणां विष्ठायां जायते कृमिः ।।८।। सुवर्णमन्नं गामेकां भूमेरप्येकमंगुलं । हरन्नरकमाप्नोति यावदाभूत-संप्लवं ॥९॥ त्रीण्याहुरति दानानि गावः पृथ्वी सरस्वती। आसप्तमं पुनंत्येता दोहवाहनिवेदनैः ।१०।।
यानीह दत्तानि पुराननेन्द्रैदानानि धर्मार्थ यशस्कराणि । .. निर्माल्यवान्ति प्रतिमानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत ॥११॥ . सर्वानेतान् भाविनः पार्थिवेन्द्रान् भूयो भूयो याचते रामचन्द्रः । सामान्योयं धर्मसेतु पाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ।।१२।।
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परमार अभिलेख
मद्वंशजाः परमहीपतिवंशजा वा पापानिवृत्तमनसो भुवि भाविभूपाः ।
ये पालयन्ति मम् धर्ममहीं तु तेषां पादारविन्दयुगलं शिरसा नमामि ।।१३।। इत्यायवचनक्रममवलंव्य ।
इति कमलदलांबुबिन्दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च । सकलमिदमुदाहृतं च बुध्वा न हि पुरुषः परकीर्तयो विलोप्याः ।।१४।।
इति । स्वहस्तोयं महाकुमार-श्री-लक्ष्मीवर्मदेवसुत-महाकुमार-श्री-हरिश्चन्द्रदेव-परमार-कुलकमलबन्धोः । श्रीरस्तु । हस्ताक्षर रामचन्द्रका । . ... ... .. (अनुवाद)
श्री। श्री गणेश को नमस्कार । स्वस्ति । विजय व वृद्धि हो । : १. जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति हेतु मस्तक पर धारण
करते हैं, मेघ ही जिनके केशं हैं ऐसे महादेव सर्वश्रेष्ठ हैं। २. प्रलय काल में चमकनेवाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, काम के शत्रु, शिव की जटायें
तुम्हारा कल्याण करें।
परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री उदयादित्य के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री नरवर्मदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री यशोवर्मदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री जयवर्मदेव, इन सभी में से अंतिम नरेश के प्रसाद से प्राप्त किया है अपना आधिपत्य जिसने, समस्त ख्याति से युक्त, प्राप्त किए हुए पांच महाशब्दों के अलंकारों से शोभायमान महाकुमार श्री हरिश्चन्द्रदेव नीलगिरि मण्डल में अमडापद्र प्रतिजागरणक से संबद्ध पलसवाडा ग्राम और सम्मतिग्राम के निवासियों, समस्त राजपुरुषों, विषयिकों, पटेलों, ग्रामीणों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों आदि को आज्ञा देते हैं--आपको विदित हो कि हमारे द्वारा श्री विक्रम काल के व्यतीत १२३५ बारह सौ पैंतीसवें वर्ष में पौष वदि अमावस्या को हुए सूर्यपर्व पर चतुर्मुख मार्कण्डेश्वर देव के समीप अत्यन्त निर्मल व पवित्र नर्मदा तीर्थ के जल द्वारा स्नान कर, दो श्वेतवस्त्रों को धारण कर, चर व अचर के स्वामी भगवान भवानीपति की अर्चना कर, समिधा कूश तिल अन्न घी का अग्नि में हवन कर, कपिला गाय की तीन प्रदक्षिणा कर, आचमन कर, एक सहस्र गायों का महादान देकर और संसार की असारता देख कर, यौवन एवं धन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल मान कर, और कहा गया है- . .. . ३. इस पथ्वी का आधिपत्य वाय में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय
भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानवप्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान हैं, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है।
ऐसा विचार कर मातापिता व स्वयं के पुण्य व यश की अभिवृद्धि के लिए कात्यायन गोत्री त्रिप्रवरी पंडित सिंह के पुत्र पंडित दशरथ शर्मा के लिए ऊपर लिखे परसवाडा ग्राम के दो अंश, अंकों में अंश २ तथा १२३६ बारह सौ छत्तीस संवत्सर के अन्तर्गत वैसाख मास में पूर्णिमा को पराशर गोत्री त्रिप्रवरी पंडित देलू के पुत्र पंडित मालूण शर्मा ब्राह्मण के लिए एक अंश, अंकों में अंश १ गुणपुर दुर्ग के तल में बनी दुकानों से युक्त ये दोनों अंश, इस प्रकार तीन अंश करके नीलगिरि मंडल द्वारा दिये गये कुडव के नाप से चालीस मानी तेल, साथ में ऊपर लिखा सवाडा ग्राम जिसकी चारों सीमाएं निर्धारित हैं, वृक्षमाला से व्याप्त, निधि निक्षेप सहित वापी कूप तड़ाग से युक्त सभी जो इसके अन्दर प्राप्त है, शासन द्वारा जल हाथ में लेकर
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होशंगाबाद अभिलेख
२२३
दान दिया है और वहां ग्रामवासियों पटेलों लोगों तथा कृषकों द्वारा इस ग्राम में जो उत्पन्न होने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि आज्ञा मान कर सभी कुछ इन दोनों के लिए देते रहना चाहिये । और इस का समान रूप फल जान कर हमारे वंश में व अन्यों में उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिए गये इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये। क्योंकि-- ४. सगर आदि अनेक नरेशों ने भूमि का भोग किया है और जब २ यह भूमि जिसके
अधिकार में रही है तब २ उसी को उसका फल मिला है। ५. जो भूमि को ग्रहण करता है और जो भूमि को देता है, वे दोनों ही पुण्यकर्म करने के
कारण स्वर्ग के भागी होते हैं। हे इन्द्र ! शंख, श्रेष्ठ आसन, छत्र, श्रेष्ठ अश
श्रेष्ठ वाहन ये सभी भूमिदान के फल रूपी चिन्ह हैं। जो मन्द बुद्धि पापों से आवृत होकर भूमि का हरण करता है अथवा हरण करवाता है वह वरुण द्वारा पाश में बांधा जावेगा और तीर्यग योनि में उत्पन्न होगा। जो स्वयं के द्वारा दी गई अथवा अन्य के द्वारा दी गई भूमि का हरण करता है, वह सात हजार वर्ष तक विष्टा का कीड़ा बनता है। एक सुवर्ण (मुद्रा) एक गाय' या एक अंगुल भूमि का जो अपहरण करता है वह प्रलय
होने तक नरक में रहता है। १०. गाय पृथ्वी व सरस्वती के तीन (श्रेष्ठ) दान कहे गये हैं, ये दोहने बाहने व प्रदान
करने से सात पीढ़ियों तक पवित्र करते हैं। __ यहां पूर्व के नरेशों ने धर्म व यश हेतु जो दान दिये हैं वे त्याज्य एवं के के समान जान
कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा। १२. सभी इन होने वाले नरेशों से रामचन्द्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये
समान रूप धर्म का सेतु है । अतः अपने २ समय में आपको इसका पालन करना चाहिये । १३. मेरे वंश में उत्पन्न अथवा अन्य नरेशों के वंशों में उत्पन्न पृथ्वी पर जो भावो नरेश पापनिवृत्त
मन से मेरे भूमिदान को पालन करेंगे, मैं उनके चरण कमलों में अपना सिर नमन करता हूँ । ऋषियों के इन वचनों का क्रम से अवलंबन करें-- ... . १४. इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल
समझ कर और इन सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये । इति । ये हस्ताक्षर स्वयं महाकुमार श्री लक्ष्मीवर्मदेव के पुत्र महाकुमार श्री हरिश्चन्द्रदेव के हैं, जो परमार कुल रूपी कमल' का सूर्य है। लक्ष्मी प्रसन्न हो । रामचन्द्र के हस्ताक्षर ।
होशंगाबाद का महाकुमार हरिश्चन्द्र कालीन प्रस्तर-स्तम्भ अभिलेख
(संवत् १२४३=११८६ ई.) प्रस्तुत अभिलेख एक छोटे चौकोर प्रस्तर-स्तम्भ पर उत्कीर्ण है जो होशंगाबाद में मुख्य डाकघर के पास एक चबूतरे पर स्थापित है। १९७२ ई. में आल इंडिया ओरियंटल कांफ्रेंस के उज्जैन अधिवेशन में हलधर पाठक ने एक लेख में इस का उल्लेख किया। वर्तमान लेखक ने स्थान पर इसका अध्ययन कर नोटस तैयार किये। ..
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२२४
परमार अभिलेख
स्तम्भ कठोर रेतीले पत्थर का बना है एवं चौकोर है । यह ९५ सें. मी. ऊंचा है। प्राप्त अभिलेख ७ पंक्तियों का है। इसका आकार २८x२२ सें. मी. है। इसकी भाषा संस्कृत है। एवं गद्यमय है । अक्षरों की बनावट अभिलेख के समय की नागरी लिपि है, परन्तु बनावट भद्दी है | व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से इसमें कोई विशेषता नहीं है । पंक्ति १ में पौष के स्थान पर पौख उत्कीर्ण किया गया है ।
स्तम्भ के चारों ओर रेखा चित्र बने हैं जिनमें एक व्यक्ति क्रमश: अश्व पर सवार, शस्त्र धारण किए हुए, शिवलिंग की पूजा करते हुए एवं अन्त में एक शय्या पर लेटे हुए दिखाया गया है । उसके पास एक स्त्री, संभवतः उसकी पत्नी, बैठी हुई है। अभिलेख की तिथि अंकों में संवत् १२४३ पौष सुदि ५ गुरुवार दी हुई है। विगत वर्ष पूर्णिमान्त के आधार पर गणना करने पर यह गुरुवार, २८ दिसम्बर, ११८६ ई. के बराबर निर्धारित की जा सकती है । इसका प्रमुख ध्येय महाकुमार हरिश्चन्द्रदेव के अधीन किसी सेनापति की युद्ध में मृत्यु का उल्लेख करना है । इसकी पुष्टि स्तम्भ के चारों ओर बने रेखाचित्रों से होती है ।
अभिलेख का प्रारम्भ उपरोक्त तिथि से होता है जो प्रथम दो पंक्तियों में है। अगली दो पंक्तियों में शासनकर्ता महाकुमार हरिश्चन्द्रदेव का उल्लेख है । अगली तीन पंक्तियों में विजयसिंह के पुत्र बिम्बसिंह द्वारा युद्ध में देवत्व प्राप्त करने का उल्लेख है । परन्तु यह भाग काफी क्षतिग्रस्त है । लगता है इससे आगे भी कुछ उत्कीर्ण है परन्तु यह पूर्णत: टूट गया है । ऐतिहासिक दृष्टि से इसका बहुत महत्व है । इसके आधार पर महाकुमार हरिश्चन्द्रदेव के शासन काल में आठ वर्ष की वृद्धि हो जाती है। उसने ११५७ ई. से ११८६ ई. तक तो निश्चित ही शासन किया था। उसके बड़े पुत्र महाकुमार उदयवर्मन् का अभिलेख ( क्र. ५७ ) ११९९ ई. का प्राप्त होता है ।
अभिलेख में उस शत्रुनरेश अथवा संघर्ष का कोई विवरण प्राप्त नहीं है जिसके विरुद्ध हमारे अभिलेख का वीर देवत्व को प्राप्त हुआ था । परन्तु तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर विचार करने से ज्ञात होता है कि यादव नरेश भिल्लम् पंचम्, जो ११८५ ई. में सिंहासनारूढ़ हुआ था, उत्तर में मालव राज्य पर आक्रमण कर रहा था । संभव है कि परमार नरेश विंध्यवर्मन् (११७५-११९४ ई.) से उसका संघर्ष हुआ हो। इस आक्रमण के समय, साम्राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित महाकुमार हरिश्चन्द्र की सेनाओं ने यादव आक्रमण को रोकने का प्रयत्न किया होगा, जिस युद्ध में प्रस्तुत अभिलेख का वीर देवत्व को प्राप्त हो गया । यादव नरेश भिल्लम् पंचम् के ११८९ ई. के मुगी प्रस्तर अभिलेख से विदित होता है कि वह मालव नरेश के लिए सिरदर्द बन गया था ( बाम्बे गजटीयर, भाग १, उपभाग १, पृष्ठ ५१८ ) । इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख का संबंध उपर्युक्त संघर्ष से स्थापित किया जा सकता है ।
(मूलपाठ)
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
संवत् १२ [४] ३ पौख (ष) शु
दि ५ गुरौ महा कु
मार श्री हरिश्चंद्र
देवराज्ये विजय ( ? ) सीं (सिं) -
हसुत बिम्ब सीं (सिं ) ह
यु[धी]त्य ( युध्वा) देवै :
तालादेव
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भोपाल अभिलेख
२२५
(५५-५६) भोपाल में उदयादित्य (?) के दो अभिलेख (संवत् १२४१=११८४ ई. एवं शक संवत् ११०८=११८६ ई.) फिट्ज़ एडवर्ड हाल ने जर्नल ऑफ अमेरिकन ओरियंटल सोसाईटी (भाग ७, १८६०, पृष्ठ ३५) पर उल्लेख किया है कि तत्कालीन भोपाल स्टेट की राजधानी भोपाल में उनके देखने में दो अभिलेख आए जिनका उस समय तक सम्पादन नहीं हो पाया था। वर्तमान में उन दोनों ही अभिलेखों के संबंध में कोई समाचार नहीं है।
(१) उपलब्ध विवरण के अनुसार प्रथम अभिलेख, जो अनुमानत: किसी प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण था, में उदयादित्य नामक किसी नरेश का उल्लेख है। उसकी तिथि सं. १२४१ तदनुसार ११८४ ईस्वी है। परन्तु बहुत खोज करने पर भी ऐसे किसी प्रस्तरखण्ड की प्राप्ति न हो सकी।
(२) प्राप्त विवरण के अनुसार भोपाल में स्थित विज मंदिर में किसी अन्य प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण अभिलेख का उल्लेख किया गया है। उसमें निम्नलिखित श्लोक लिखा बतलाया गया है
भपाले भमिपालोऽयमंदयादित्य पार्थिव ।
तेनेदं निर्मितं स्थानं वसुपूर्णेश्वरै शके ।। (अर्थात् भोपाल में भूमिपाल उदयादित्य' नामक नरेश हुआ। उसने शक ११०८ में यह स्थान (मंदिर) बनवाया)। इससे ज्ञात होता है उपरोक्त तिथि को भोपाल में उक्त मंदिर उदयादित्य नामक नरेश द्वारा बनवाया गया था। परन्तु बहुत खोज करने पर भी ऐसे किसी अभिलेख की प्राप्ति न हो सकी। १२वीं सदी के उत्तरकाल में उदयादित्य नामक किसी ऐसे नरेश की जानकारी प्राप्त नहीं होती जिसने भोपाल क्षेत्र में राज्य किया हो। . .
भोपाल से प्राप्त महाकुमार उदयवर्मन् के संवत् १२५६ तदनुसार ११९९ ई. (क्र. ५७) के ताम्रपत्र अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने होशंगाबाद - भोपाल क्षेत्र के एक भाग पर राज्य किया था । परन्तु केवल इसी आधार पर उदयवर्मन् का तादात्म्य उदयादित्य से करना तर्क संगत नहीं है। अत: भावी खोज तक प्रतीक्षा करना ही युक्तियुक्त है।
भोपाल का महाकुमार उदयवर्मदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
(विक्रम संवत् १२५६=११९९ई.) प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो १८५० ई. में भोपाल के पास उलजमुन ग्राम में मिले थे। जे. एफ. फ्लीट ने इन का विवरण १८८७ ई. में इं. ऐं., भाग १६, पृष्ठ २५२-२५६ पर दिया। कीलहान द्वारा सम्पादित उत्तर भारतीय अभिलेखों की सूचि क्र. १८९ पर इसका उल्लेख है। बाद में भी समय-समय पर इसका उल्लेख किया जाता रहा।
ताम्रपत्र आकार में ३३४ २५ सें. मी. है। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। इनमें दो-दो छेद हैं। किनारे मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं। ताम्रपत्रों का वजन प्रायः २३
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२२६
परमार अभिलेख
किलो है । अभिलेख ४१ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १९ व दूसरे पर २२ पंक्तियाँ हैं। दूसरा ताम्रपत्र काफी भद्दी हालत में है, इसमें उत्कीर्णकर्ता की छेनी के निशान भी बहुत हैं। इस पर पंक्ति ३५-४१ के बीच दोहरी पंक्ति के चौकोर में गरूड़ का रेखाचित्र है जो दोनों हाथ जोड़े खड़ा है। यह परमार राजकीय चिन्ह है।
अभिलेख के अक्षर १२वीं सदी की नागरी लिपि में हैं। बाद के अक्षर शुरू के अक्षरों से काफी छोटे हैं। भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है। इसमें १५ श्लोक हैं। शेष गद्यमय है। श्लोक १४ के बाद भी एक वाक्य गद्य में है। व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श, म् के स्थान पर अनुस्वार, अनुस्वार के स्थान पर म्, य के स्थान पर ज का प्रयोग किया गया है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है। कुछ अन्य भी अशुद्धियाँ हैं जिनको पाठ में ठीक कर दिया है।
तिथि पंक्ति क्र. ११-१३ में शब्दों व अंकों में लिखी है। यह विक्रम संवत् १२५६ वैसाख सुदि १५, विशाखा नक्षत्र, परिध योग, रविवार, महाविशाखा पर्व है। यह सोमवार १२ अप्रेल, ११९९ ई. के बराबर है।
इसका प्रमुख ध्येय महाकुमार उदयवर्मदेव द्वारा विन्ध्य मण्डल में नर्मदापुर प्रतिजागरणक वोडसिरस्तक ४८ के मध्य गुणौरा ग्राम के दात करने का उल्लेख करना है। दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण गर्ग गोत्री, गर्ग शैन्या आंगिरस तीन प्रवरों वाला, वाजसनेय शाखा का अध्यायी, अग्निहोतृ यज्ञधर का पुत्र द्विवेद पुरोहित मालू शर्मा था।
दानकर्ता नरेश की वंशावली में सर्वश्री यशोवर्मन्, जयवर्मन्, लक्ष्मीवर्मन्, हरिश्चन्द्र व उदयवर्मन् के नामोल्लेख हैं। इनमें से प्रथम दो के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियाँ परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर और शेष तीन नामों के साथ महाकुमार की कनिष्ठ उपाधियां लगी हैं।
अभिलेख से यह तो ज्ञात होता है कि उदयवर्मन् का पिता हरिश्चन्द्र था। परन्तु यह , मालूम करने में कठिनाई है कि वह सिंहासनारूढ़ कब हुआ था। पूर्ववणित अभिलेख क्र. ५४ से
हरिश्चन्द्र की तिथि ११८६ ई. ज्ञात है। अतः उदयवर्मन् उस के बाद प्रस्तुत अभिलेख की तिथि से पूर्व कभी गद्दी पर बैठा होगा। भविष्य में अन्य साक्ष्य की प्राप्ति तक यह प्रश्न अधूरा ही मानना चाहिये।
भौगोलिक स्थानों में रेवा आधुनिक नर्मदा नदी है। नर्मदापुर देवास जिले में नेमावर है जो नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर स्थित है (यहाँ से प्राप्त प्राचीन अवशेषों के लिए देखिये ए. रि. आ. स. वे. स., १९२०-२१, पृष्ठ ९८ व आगे)। गुवाडाघाट नेमावर के पास नर्मदा नदी पर बना घाट है जो वर्तमान में पास के ग्राम गवाडिया के नाम से विख्यात है। गुणौरा ग्राम नेमावर से उत्तर-पूर्व की ओर २५ कि. मी. दूर गनोरा ग्राम है। विन्ध्यमण्डल वह भूभाग है जिसमें नेमावर क्षेत्र स्थित है। इस प्रकार अभिलेख के सभी स्थल देवास जिले में खातेगांव परगना के अन्तर्गत आते हैं।
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भोपाल अभिलेख
२२७
मलपाठ (प्रथम ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग) १. ओं। स्वस्ति जयोभ्युदयश्च ।
जयति व्योमकेसो (शो) सौ यः सग्य वि (बि) भति तां । ऐन्दवीं--
सि (शि) रसा लेखां जगद्वीजांकुराकृति ।।१।। तन्वन्तु वः स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः।
क
ल्पान्त-समयोद्दाम-तडिद्वलयपिंगताः ।।२।। परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमे४. स्व (श्व) र-श्रीमद्यशोवर्मदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेस्व (श्व)५. र-श्रीमज्जयवर्मदेव-राज्ये व्यतीते निजकरकृ (घ) तकरवाल-प्रसादावाप्तनिजाधिप६. तस्य-समस्त-प्रशस्तोपेत-समधिगत-पञ्चमहाशब्दा (ब्दालंकार-विराजमान-महाकुमार-श्रीमल्ल७. क्ष्मीवर्मदेव-पादानुध्यात-समस्त-प्रशस्तोपेत-समधिगत-पञ्चमहाशब्दा (ब्दालंकार-विराजमा८. न-महाकुमार-श्रीहरिश्चन्द्रदेव-सुत-श्रीमदुदयवर्मदेव-विजयोदयी । विन्ध्य-मण्डले ९. नर्मदपुरे प्रतिजागरणक-वोड़सिरस्त्काष्टचत्वारिंशन्मध्ये गुणौराग्राम-निवासि१०. नः प्रतिग्राम निवासिनश्च श (स) मस्त-राजपुरुष-वि (वैषयिक-पट्टकिल-जनपदादीन्
वा (ब्रा)ह्मणोत्त११. रान्वो (बो)धयत्यस्तु वः संविदितं यथा । अस्माभिः श्रीविक्रमकालातीत्-षट्पञ्चासतधिक-द्वाद१२. शस (श)त-संवतसरान्तःप्रा (पा)ति अंके १२५६ वैशाख-सुदि १५ पौर्णमास्यां तिथौ
विसा (शा) खा-नक्षत्रे परिघयो१३. गे रविदिने महावैसा (शा) ख्यां पर्वणि गुवाडाघट्टे रेवायां स्नात्वा सितपवित्रवाससी परिधाय
देव१४. रि(ऋ)षिमनुष्यान्सतर्प्य चराचर गुरुं भगवन्तं भवानीपति समभ्यर्च्य समित्कुस (श)तिला
न्नाष्टा (ज्या) हुतिभिहिर१५. ण्यरेतसं हुत्वा भानवेर्घ विधाय त्रिः प्रदक्षिणाकृत्योपस्पृस्य (श्य ) च संसारस्यासारतां दृष्ट्वा
नलिनी१६. दलगतजललवतरलतरंज नं धनं जीवितं चावेकष्य । उक्तं च। वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिप
___ त्य मापातमात्रमधुरो विषा (ष)योपभोगः । प्राणास्तृणाग्रजलबिन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परम
हो परलोकयाने ।।३।। भ्रमत्संसारचक्रामधाराधारामिमां श्रियं । प्राप्ये ये न ददुस्तेषां पस्चा (श्चात्तापः परं फ
लं ।।४।। इति जगतो विनस्व (श्व) ररूपम्मा (पमा ) कलष्ट (य्य) मातापित्रोरात्मनश्च यसः (शः) पु
(द्वितीय ताम्रपत्र-अग्रभाग) २०. ण्य-विवृद्धये तिलयवकुशोदक-पूर्वं गगंगोत्राय गर्गस (शै) न्याङ्गिरसेति
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परमार अभिलेख
२१. त्रि: (त्रि) प्रवराय वाशि (ज) सवे (ने)य-सा (शा)खिने अग्निहोतृ-यज्ञधर-सुत-द्विवेद-पुरोधास
मालू (ल्हू ?) २२. शर्मणे वा (ब्रा) ह्मणाय उपरिलिखित-गुणौराग्रामो निधि-निक्षेप-कल्याण-धनसहितः सवृक्ष
माला२३. कुलो चतुष्कम्कट (कंटक)-विसु (शु) द्धो वापीकु ( कू) पतड़ागारामनदीश्चो (श्चा)त्र-वाड
(वीड़)-वाटिकाथुपयुक्तः सर्वाभ्यन्तर-सिद्धया २४. श (स)ह यावच्चन्द्रदिवाकर समुद्रसरे (रि) दष्टकुलनागाष्टौ (प्ट)दिग्त (ग्ग)जेच्चउ (जेन्द्रो)
पेन्द्रसिद्धविद्याधरादि२५. भिः सहिता वसुमती तिष्ट (ष्ठ) ति तावच्छासनीकृत्य प्रदत्तः । तदत्र ग्रामनिवासि-पट्टकिलादिलो
कस्त२६. था कर्षकैश्च यथोत्पद्यमान-भागभोगकरहिरण्याधि (दि) के आज्ञा श्रवण-विधेयैर्भूत्वात्र ग्रामीयं - सर्वम२७. स्मै प्रदातव्यं । सामान्यं चैतत्पुण्यफलं वु (बु)द्ध वा अस्मद्वंशजैरन्यैरपि भावि-भोक्तृभिरस्मत्प्रदत्त
धमा (मी) दाये (यो)२८. यमनुमन्तव्यः पालनीयश्चा (श्च ) । यतो।
वब) हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः। यस्य यस्य यदा भू
. . मिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्) ।।५।। भूमि यः प्रतिगृहाणा]ति यस्तु भूमि प्रय[छति । उभौ तौ पुण्यकाणौ नियतौ (तं) स्व
र्ग-गामिनौ ।।६।। शंखं भद्रासनं च्छत्रं वरास्व (श्वो) वरवाहनं । भूमिदानस्य चिन्हानि फलमेतत् पुरन्दर ।।७।। हर्ता हा
रयिता भूमि मन्दवुधि (बुद्धि) स्तमोवृतः । स व (ब)द्धो वारुणः पासे (0)स्तिर्यग्योने: प्रजायते ॥८॥ स्वदत्तां परदत्तां चा (वा) या (यो) हरेत् वसुन्ध
रां। षष्टि वर्षसहस्राणा (णि) विष्टी (ष्ठा) यां जायते कृमिः ॥९॥ सुवर्णं एक गामेकं भूमेरप्येकमङगुलं (लम्) । हरन्वरकशाप्तते (नरकमाप्नोति) यावदाभू
तसम्(सं)प्लवा (वम्)॥१०॥ वीण्याह (हु) रति दानानि गावः पृथवी सरस्वती । आसप्तमं पुनत्त्ये (त्ये)ता दोहवाहनिवेदनैः ।।११।। यानीह दत्तानि पुरा नरें
. द्वैर्दानानि धथियस (श)स्कराणि । निर्माल्यवांति (त) प्रतिमानि तानि को नाम साधुः पु
नराददीत ॥१२॥
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भोपाल अभिलेख
सर्वानेतान्भाविनः पार्थिवेन्द्रान भूयो भूयो याचते रामभद्रः। सामा
न्योयं धर्मसेतु पाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ॥१३॥ मद्वंसज्ञाः (जा) परम
हीपति-वस (वंश)जा वा पापानिवृत्तमनसो भुवि भुवि भूपाः । ये पालया (य) न्ति मम
धर्ममहं तु तेषां पादारविन्दयुगलं सि (शि) रसा नना (मा)मि ॥१४॥ इत्यायवचनक्र३९. ममवगम्य ।
कमलदलाम्वु (बु) बिन्दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च ।
___ कलमिदमुदाहृतं च वद्वा (बुद्धवा) न हि पुरुषैः परकीर्तयो विलोप्या ॥१५।। इति ।। स्वहस्तो४१. यं महाकुमार श्री उदयवर्मदेवस्य ।। दू श्री मण्डली (लि) क क्षेम्व (म) राजः ॥श्री।।
__ अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र-पृष्ठभाग) १. ओं । स्वस्ति । जय व उदय हो।
__ जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, मेघ ही जिनके केश हैं ऐसे महादेव सर्वश्रेष्ठ हैं ॥१॥
प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिवजी की जटायें तुम्हारा कल्याण करें ।।२।। ३. परमभट्टारक महाराजाधिराज ४. परमेश्वर श्रीमत् यशोवर्मदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर ५. श्रीमत् जयवर्मदेव के राज्य के व्यतीत होने पर अपने हाथ में पकड़ी तलवार के प्रसाद
से प्राप्त स्वयं का आधिपत्य । ६. समस्त ख्याति से युक्त पांच महाशब्दों के अलंकारों से शोभायमान महाकुमार श्रीमत् ७. लक्ष्मीवर्मदेव के पादानुध्यायी समस्त ख्याति से युक्त पांच महाशब्दों के अलंकारों से
शोभायमान ८. महाकुमार श्री हरिश्चन्द्रदेव के पुत्र श्रीमत् उदयवर्मदेव विजय द्वारा उदयीमान होकर
विंध्यमंडल में ९. नर्मदापुर प्रतिजागरणक वोडसिरस्तक अड़तालीस के मध्य में गुणौरा ग्राम के निवासियों १०. और आस पास के ग्राम के निवासियों, समस्त राजपुरुषों विषयिकों पटेलों ग्रामीणों
विशिष्ट ब्राह्मणों को ११. आज्ञा देते हैं--आपको विदित हो कि हमारे द्वारा श्री विक्रम काल के बारह सौ
छप्पनवें १२. अंकों में १२५६ वर्ष में बैसाख सुदि १५ पूर्णिमा तिथि को विशाखा नक्षत्र परिघ योग १३. रविवार महाविशाखा पर्व पर रेवा नदी के गुवाड़ा घाट पर स्नान कर पवित्र श्वेत
वस्त्र पहिनकर देव
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२३०
परमार अभिलेख
१४. ऋषि तथा मनुष्यों को संतृप्त कर चर व अचर के स्वामी भगवान भवानीपति की विधि
पूर्वक अर्चना कर समिधा कुश तिल अन्न घी की आहूतियों से १५. अग्नि में हवन करके सूर्य को अर्घ्य दे कर तीन प्रदक्षिणा कर, आचमन कर, संसार की
असारता देख कर १६. और यह जान कर कि यौवन धन व जीवन कमल के पत्ते पर गिरे जल के समान
क्षण भंगुर है। और कहा गया है. इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ॥३॥ __ घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी
को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥ १९. इस जग का नाशवान रूप मान कर माता पिता व स्वयं के यश व
(दूसरा ताम्रपत्र-अग्रभाग) २०. पुण्य की वृद्धि के लिये तिल' यव कुश व जल हाथ में लेकर गर्ग गोत्री शैन्या आंगिरस २१. तीन प्रवरी वाजसनेय शाखी अग्निहोत यज्ञधर के पुत्र द्विवेद पुरोहित मालू २२. शर्मा ब्राह्मण के लिये ऊपर लिखा गुणौरा ग्राम गडे धन व कल्याण धन के साथ
वक्षों की पंक्तियों से २३. युक्त, चार प्रकार के कंटकों से शुद्ध, वापी कूप तड़ाग बगीचा नदी और यहां वीड़ वाटिका
से उपयुक्त सभी प्रकार की आंतरिक सिद्धि २४. सहित, जब तक चन्द्र सूर्य समुद्र सरिता नागों के आठकुल, आठ दिग्गज, उपेन्द्र, सिद्ध
विद्याधर आदि २५. के साथ पृथ्वी जब तक स्थिर है तब तक शासन द्वारा दान दिया गया। अतः यहां के
ग्रामवासियों पटेलों लोगों २६. तथा किसानों द्वारा जिस प्रकार उत्पादन के अनुसार भाग भोग कर हिरण्य आदि आज्ञा
___मान कर ग्राम संबंधी सभी कुछ २७. इसके लिये देते रहना चाहिये। और इसका समान रूप फल जान कर हमारे वंश में व
अन्यों में भी उत्पन्न होने वाले नरेशों को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को २८. मानना व पालन करना चाहिये। क्योंकि--
__सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब तब उसी को इसका फल मिला है ।।५।। ___ जो भूमि को ग्रहण करता है और जो भूमि को देता है वे दोनों ही पुण्यकर्म में नियुक्त होने से स्वर्गवासी होते हैं ।।६।। ___ हे इन्द्र ! शंख, श्रेष्ठ आसन, छत्र, श्रेष्ठ अश्व, श्रेष्ठ वाहन, ये सभी चिन्ह भूमिदान
के फलरूप हैं ॥७॥ ___ जो मन्द बुद्धि पापों से आवृत्त हो कर भूमि का हरण करता है अथवा हरण करवाता है, वह वरुण द्वारा पाश में बांधा जावेगा और तिर्यग योनि में उत्पन्न होगा ।।८।। - जो स्वयं के द्वारा दी गई अथवा अन्यों के द्वारा दी गई भूमि का हरण करता है वह साठ हजार वर्ष तक विष्टा का कीड़ा बनता है ।।९।।
.
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मांडू अभिलेख
२३१
एक सुवर्ण (मुद्रा) एक गाय या एक अंगुल भूमि का जो हरण करता है वह संप्लव के होने तक नरक को प्राप्त करता है ।।१०।। ___ गाय पृथ्वी व सरस्वती के तीन दान कहे गये हैं जो दोहने बाहने व प्रदान करने से सात पीढ़ियों तक पवित्र करते हैं ॥११॥
यहां पूर्व के नरेशों ने धर्म व यश हेतु जो दान दिये हैं, वे त्याज्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ॥१२॥
सभी उन होने वाले नरेशों से रामभद्र बारबार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समानरूप धर्म का सेतु है। अत: अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिये ।।१३।।
मेरे वंश में उत्पन्न अथवा अन्य नरेशों के वंशों में उत्पन्न पथ्वी पर जो भावी नरेश पापनिवृत्त मन से मेरे भूमिदान को पालन करेंगे, मैं उनके चरणकमलों में अपना सिर नमन
करता हूं ॥१४॥ ३८. ऋषियों के इन वचनों का क्रम से अवलम्बन कर
___ इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ
कर और इन सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥१५॥ ४०. इति । ये हस्ताक्षर ४१. स्वयं महाकुमार श्री उदयवर्मदेव के हैं। दूतक श्री मण्डलीक क्षेमराज । श्री ।।
(५८) मांडू से प्राप्त विंध्यवर्मन् कालीन प्रस्तरखण्ड अभिलेख
(विल्हण विरचित विष्णु प्रशस्ति)
प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है जो मांडू के अवशेषों में १९०० ई. के आस पास प्राप्त हुआ था। इसका उल्लेख के. के. लेले ने १९३० में ए. भ. ओ. रि. इं., भाग ११ पृष्ठ ४९-५३ पर किया। अभिलेख भगवान विष्णु की स्तुति है । प्रस्तर खण्ड अत्यन्त जीर्ण अवस्था में है। आधे से अधिक भाग भग्न हो गया है। प्राप्त भाग का आकार ६७४ २४ सें. मी. है। अभिलेख पद्यमय है। सभी श्लोक अनुष्टुभ छन्द में हैं। परन्तु श्लोकों में क्रमांक न होने से, यह कहना कठिन है कि प्रस्तर खण्ड में कितने श्लोक थे। इसमें १७ पंक्तियां शेष हैं। प्रत्येक पंक्ति ८५ अक्षर हैं। सभी पंक्तियां क्षतिग्रस्त हैं।।
प्राप्त खण्ड में सभी श्लोक भगवान विष्णु के विभिन्न अवतरणों से संबंधित हैं। श्लोक उच्चकोटि के हैं। पंक्ति १६-१७ में इसका रचयिता विल्हण कवि लिखा है जिसने विष्णु को अर्पण करने हेतु श्रेष्ठतम श्लोकों की प्रस्तुत माला गूंथी। कवि विल्हण नरेश विंध्यवर्मन् (११७५११९४ ई.) का अत्यन्त प्रिय सांधिविग्रहिक मंत्री था। विंध्यवर्मन् के पुत्र सुभटवर्मन् (११९४१२०९ ई.) ने विष्णु के देवालय के लिये दो वाटिकायें दान में दीं।
परमार राजवंश साहित्य एवं ललित कलाओं के विकास के लिये सर्व विख्यात है। पूर्वकालीन सभी नरेशों के समय में इन क्षेत्रों में अभूतपूर्व उन्नति हुई। विंध्यवर्मन् के समय में उज्जैन, धार, नालछा (नलकच्छपुर) एवं मांडू (मंडपदुर्ग) साहित्य के प्रमुख केन्द्र थे। सुल्तान मुहम्मद गौरी ने जब अजमेर का भूभाग अपने अधीन कर लिया, तो बहुसंख्यक ब्राह्मण व जैन
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परमार अभिलेख
विद्वान उस क्षेत्र को त्याग कर मालवा में आ बसे। इनमें एक जैन विद्वान आशाधर भी था, जिसने अनेक ग्रन्थों की रचना की। इनके आधार पर तत्कालीन अनेक घटनाओं के तिथिवार ब्योरे प्राप्त होते हैं। आशाधर ने पांच परमार नरेशों का राज्यकाल देखा था जिनमें विध्यवर्मन (११७५-११९४ ई.), सुभटवर्मन् (११९४-१२०९ ई.) अर्जुनवर्मन् प्रथम (१२०९-१२१७ ई.), देवपालदेव (१२१८-१२३९) तथा जयतुगिदेव (१२३९-१२५५ ई.) थे।
नाथुराम प्रेमी रचित 'विद्वत्-रत्नमाला" में आशाधर द्वारा रचित किसी एक ग्रन्थ से निम्न श्लोक उद्धृत किया गया है--
. . इत्युपश्लोकितो विद्वद्विल्हेणन कवीशिना।
- श्री विन्ध्य भूपति महासांधिविग्रहिकेन यः ।। . (इस प्रकार से कवियों में श्रेष्ठ, विंध्य नरेश के महासांधिविग्रहिक, विद्वान विल्हण द्वारा यह प्रस्तुत किया गया)।
इस उद्धरण से प्रस्तुत अभिलेख के कथन की पुष्टि होती है। इस काल में विल्हण की गणना राज्य के श्रेष्ठ कवियों में होती थी। उसने अपने समय के राज्याधिकारी नरेशों से भी यथायोग्य सम्मान प्राप्त किया था।
(मूल पाठ) १. पुंसाकारमैक्यंगतंक. . . . पतनमाम्यर्कबिम्ब ।। . . . . २. सूक्तिः प्रथयति न चतुर्वर्गमर्कप्रसादात् लक्ष्मी वक्षसि . . . . तामनव समानयेति विमुखीनाभि
स्वयंभू-स्पृशा येनैकहृदा३. यं ममेति विहिता पुष्टा स मां रक्षतु ।। उत्फुल्लांबुज . . . . ननु वेत्सि किं न विदितं मालेति
तेजल्पतस्तद्दामेति सहासयाकम४. लयाश्लिष्टो हरिः पातु वः ।। धर्मध्वंसकराम . . . . मत्स्येंद्र तलादशेष जलधिव्यापिव्युदस्ताम्भसि।
जायते व्रज नाम वारिधिपदव्योमैन्दुतां भास्करः शब्दज्योतिरगाच्चतुर्मुखमदः पा५. यादपायात्स मां ।। मज्जत्साद्रिमहीतरोहदिकृतः श्रीमद्वराहाकृतेर्वारं कुक्षिविलीनसर्व भुवनस्याधः
पदान्यस्यतः सप्ताम्भोधितलावरोधि कमठाकारेति पृष्ठे वहन् जज्ञे यो ननु यादसां भ्रमवशात्सोति
हता६. न्मेच्युतः ॥ क्रीडामात्रकमेव मज्जति महीचक्रे वराहाकृते सद्भावं कृतकेतुविभ्रमकृता
यस्यो... .ते दंष्ट्रया अप्यैक्यं गतमर्णवाम्वनसहं यद्रोमकूपा भवेत् . . . . सवातिद्य (ति ह)
तात् ।। कल्पांताभ्र७. रव: शिखग्निनयनः प्रक्षिप्ततारोत्सवः प्रल्हादावनयः. . . . द्रुतमय: श्रीमद्वराहाकृतिः प्रव्हीं
द्रोद्रुतकंधरस्य विलसद्धिद्युत्सजिव्होज्वलद्देवः क्रूधनख . . . . जिद्दक्षाहत्तान्मेभयं ॥ भक्तेनिः
फलतानतावदु. . . . ८. चितास्वभुमिराज्यः श्रियः . . . . पाताललोकं......श्रीमान्भक्तपरायणः . . . . . करालनील
जलदप्रोद्दाम संघोघ९. नः सर्वाशागगनावरोधनस. . . . मनोरमवन. . . . स्यामले गुंजागुच्छककर्णपूररु१०. चिरे गोपीदृशां दोहृदे बर्दापीडितशेखरे . . . . कालिंदी वनगोचरे विहरति श्यामाभ्र को. . . .
ग... .द्यः प्रीणन . . . .सत्यानमग्नात्मनि. . . . ११. दुत्सुकमिलद्गोपीजनप्रावृते श्रीकृष्णे. . . . वहिमे . . . . वा. . . . पेत्यदुर्बहगिरिप्रायस्तनी
भिमिषा....
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मांडू अभिलेख
१२. हस्य वृतोत्पराभिरुरसा श्रीगोप... सादशक्तोसि नः एकान्ते परिरभ्यकापि मुदिता गोपीभिरिथ्थं स्फुरद्रोमांचे ननिरस्त शैशवमिषं...
१३. पातु वः ।। आपादान्त विलम्बिनीम. . नाभिहृदं . . . कालियं सयमुनं सख्यः क्वयास्यामया अत्युग्रेपि मुखीकृतकम पियो.... . दधत्याहसन् गोप्या गोपजनार्दन: सहरतां मह्यं सुखं यच्छतु ।। क्षीराब्धे ..
१४. वृत भृतात्सौवर्णकुम्भानिमान्विन्यासाः पुरतः पयोधरमिवोवृदावने किंस्थिताः ।। सख्यो धर्म.. हारिहृदयं गोपालचौरेण मे अप्येवं परितजितो पि विहसन् कृष्णः शिवायास्तुवः ॥ यो रक्षकरसे मुखेषु विषयप्राप्येष्वना..
तम...
१५. रिमाहना परिचिते कृष्णे कथं रम्यते सख्योऽयं म्रियते हटात्तदधिनो सोद्यानिकं सोमुना गोपीनामुपकर्णयन्निति समुद्दाणीः श्रियेमेस्तु सः । श्रीशः श्रीर्भवदेक हृन्निलयिनी तस्याः प्रभां शैस्ततै स्पृष्टाये विहरन्ति कर्म ......
. तैख्यात्मन त्वदेकचरणध्यानैः पुरात्मा कृतः पात्रं पुण्यसुखश्रियां नियतोप्येषां भयं कीदृशं ।। विरचितमिह विष्णोर्दाम वाक्य प्रसूनैश्चरणसततपूजा वाक्कृता विल्हणेन । निरवधि कविसार्थैः कोटिश :
१६.
२३३
१७.
१.
२.
. विन्ध्यवर्मनृपतेः प्रसादभूः सांधिविग्रहिकविल्हण कविः ।। भौतिकं वपुरवेक्ष्य भुंगुरं निर्ममेऽमरमयं सुवाङ्मयं । विध्यवतनयेन राजता मानितः सुभट भुभुजा वाटिकाद्वयमकारि [सुन्दरम् ] .
1
(अनुवाद)
. पुरुषाकार एैक्य को प्राप्त हुआ.... . सूर्य के बिम्ब में मैं प्रणाम करता हूं ।
सूक्ति प्रसिद्ध नहीं करती, चतुवर्ग सूर्य के प्रसाद से, लक्ष्मी हृदय पर.. उसको ही यहां ले आ, इस प्रकार विमुख हुई, स्वयंभू के द्वारा स्पर्श की गई हुई, जिस एक हृदय से
३. यह मेरी है इस प्रकार से कही गई, पुष्ट होने वाली वह (सरस्वती) मेरा रक्षण करे । विकसित . निश्चय से जानता है, क्या ज्ञात नहीं कि यह माला है, ऐसे बोलने वाले के प्रति हास्य करने वाली
कमल...
४. लक्ष्मी के द्वारा आलिंगित हरि तुम्हारा पालन करे । धर्म का नाश करने वाले... मत्स्यराज
के तल से, और समस्त समुद्र का व्याप्त जल जब क्षुब्ध हो गया था । समुद्र के पद रूपी आकाश में सूर्य चन्द्रता को प्राप्त हुआ, चतुर्मुख ब्रह्मदेव के मुख से उद्भूत हुई शब्द ज्योति
५. संकट से मेरा रक्षण करे। पर्वत, धरती एवं वृक्षों सहित डूबने वाली पृथ्वी को हृदय पर स्थापित करने वाले, जिनकी कोख में समस्त भुवन विलीन हो गये, पाताल में चरणों को स्थापित करने वाले, सप्त समुद्रतल को घेरने वाले, ऐसी वराहाकृति कूर्माकार से अपनी पीठ पर वहन करता हुआ, भ्रांतिवश जो जलचरों में उत्पन्न हुआ। वह
६. अच्युत (विष्णु) मेरी पीड़ा को दूर करे। भूमण्डल जब डूब रहा था तब एक क्रीड़ा के बहाने से वराह अवतार ने उसका उद्धार किया, कीर्ति को निर्देशित करती हुई जिसके दांतों पर स्थित रही वह पृथ्वी जिसके रोम रोम में स्थित है ऐसा वराह आपकी पीड़ा को दूर करे | कल्पान्तकालीन मेघ
७
के समान जिसकी गर्जन है, अग्निज्वाला के समान जिसके नेत्र हैं, जिसने आकाश के तारों को विखेर दिया, प्रल्हाद के रक्षण के हेतु . . अद्भुत स्वरूप श्री वराह की आकृति वाला, जिसने ऊपर गर्दन उठाई (हिरणकशिपु) . . जिसकी बिजली के समान चमकने वाली जिव्हा है,
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परमार अभिलेख
१३. तुम्हास
ऐसा वह देव (नृसिंह) क्रोधितनखों से . . . .जीतने वाला, मेरे भय को नष्ट करे । भक्ति की
निष्फलता तब तक ८. उचित नहीं, अपनी भूमि की राज्यलक्ष्मी का . . . . पाताल लोक . . . .श्रीमान् भक्त पर अनु
रक्त . . . .घने नीले मेघ के अत्याधिक संघ समूह ९. हमारा सब प्रकार का आशारूपी गगन अवरुद्ध करता . . . . मनोरम वन. . . . काले रत्तिका
के गुच्छे कर्णफूलों से १०. सुन्दर गोपिकाओं की दृष्टि के मनोरथ स्वरूप, जिनका मुकुट मोरपुच्छ से ग्रथित है. . . .
कालिंदी के वन में विहार करने वाले काले मेघ . . . . प्रसन्न . . . . सत्य मनुष्य मग्न है आत्मा
जिसकी.... ११. उत्कंठित मिलने वाली गोपी समूह से घिरे हुए श्रीकृष्ण में . . . .तुम्हारा. . . .प्राप्त होकर
अत्यन्त भारी पर्वतप्रायः स्तनवालियों के द्वारा, बहाने से १२. घिरा हुआ उत्कंठित छाती से श्री गोप... .अशक्त है, हमारा एकान्त में आलिंगन करके
कोई तो भी आनंदित हई गोपियों द्वारा इस प्रकार रोमांचों से तिरस्कृत, बचपने के बहाने.... तम्हारा रक्षण करे। चरणपर्यन्त लटकने वाली....नाभि व हृदय. . . .कालिय को यमना
सहित सखियों ने, अति उग्र होने पर भी सन्मुख कर लिया है . . . .हंसते हुए गोपी से धारण करता .. हो, वह गोप-जनार्दन हरण करे व मेरे को सुख प्रदान करे । क्षीर समुद्र में १४. घिरा हुआ इन सुवर्ण के कलशों का भरण करे, आगे मेघ के समान वृन्दावन में धरोहररूप क्यों
स्थित है । सखियां.. . . मेरे हृदय का हरण करने वाला, अपमानित करने पर भी हंसता हुआ चोर गोपाल तुम्हारा कल्याणकारी हो । रक्षा ही जिसका रस है, उस विषय में प्राप्त होने योग्य
सुखों में.... १५. ... .परिचित कृष्ण में कैसे रमा जाता है, हटात् सखियां यह घोषित करती हैं, इस प्रकार
गोपियों द्वारा जो संबोधित किया जाता है वह मेरी समृद्धि के लिये हो। लक्ष्मीपति श्रीरूप से हृदय में एकमात्र निवास करने वाली उसकी कांति के अंशों से व्याप्त जो स्पर्श किये गये
विहार करते हैं . . . . . १६. . . . . रक्षण करे, तेरे एक चरण के ध्यान द्वारा आत्मा को परिपूर्ण करके जो पुण्य, सुख व
लक्ष्मी के पात्र बनते हैं उनको भय कैसा । विल्हण ने वाणिरूपी पुष्पों की माला से विष्णु के
चरणों में सतत् पूजा की । असीमित कोटिशः कविसमूहों ने. . . . १७. . . . . विंध्यवर्मन् नरेश का कृपापात्र सांधिविग्रहिक विल्हण कवि। यह भौतिक शरीर क्षण
भंगुर है ऐसा देखकर अविनाशी वाङमय का निर्माण किया। विध्यवर्मन् के पुत्र ने राज्य से सम्मानित सुभट नरेश ने सुन्दर दो वाटिकायें बनवाई . . . . ।
(५९) पिपलियानगर का अर्जुनवर्मन् प्रथम का ताम्रपत्र अभिलेख
(संवत् १२६७ = १२१० ई.) प्रस्तुत अभिलेख, प्राप्त विवरण के अनुसार, तीन ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो पूर्वकालीन अभिलेख क्र. ५३ के समान शाजापुर जिले में पिपलियानगर से एक किसान को प्राप्त हुए थे। एल. विल्किसन ने इसका विवरण ज. ए. सो. बं., भाग ५, १८३६, पृष्ठ ३७७-३८२ पर दिया । कीलहान की उत्तरी अभिलेखों की सूचि क्र. १९५; भण्डारकर की उत्तरी अभिलेखों की सूचि क्र. ४५७ एवं
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पिपलियानगर अभिलेख
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हरिहरनिवास द्विवेदी द्वारा सम्पादित ग्रन्थ 'ग्वालियर राज्य के अभिलेख' क्र. ९५ पर इसका उल्लेख है । ताम्रपत्र वर्तमान में अज्ञात है ।
ताम्रपत्रों के आकार वजन, पंक्तियां, गरूड़ चिन्ह, अक्षरों की स्थिति व बनावट आदि के बारे कुछ भी ज्ञात नहीं है । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है । इसमें २३ श्लोक हैं, शेष गद्य में है । अभिलेख की तिथि मध्य में दो बार शब्दों व अंकों में, एवं अन्त में पुनः अंकों में इस प्रकार तीन बार लिखी हुई है । यह संवत् १२६७ फाल्गुन सुदि १० गुरूवार है, जो गुरूवार, २४ फरवरी, १२१० ईस्वी के बराबर है । इसका मुख्य ध्येय अर्जुनवर्मन् द्वारा शकपुर प्रतिजागरणक में पिडिविडिग्राम के दान करने का उल्लेख करना है। दान के समय नरेश मंडप दुर्ग में स्थित था । दान का अवसर अभिषेक पर्व था । दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण मुक्तावसु स्थान से आया, वाजसनेय शाखा का अध्यायी, काश्यप गोत्री,
सार ध्रुव तीन प्रवरवाला, आवसथिक देलण का प्रपौत्र, पंडित सोमदेव का पौत्र, पंडित जैसिंह का पुत्र पुरोहित गोविन्द शर्मा था ।
दानकर्ता नरेश की वंशावली १५ श्लोकों में वर्णित है । इनमें भोजदेव, उदयादित्य नरवर्मन्, यशोवर्मन्, अजयवर्मन् तथा विध्यवर्मन् की प्रशंसा है । श्लोक १२ में विध्यवर्मन् द्वारा गुर्जर नरेश को हराने का उल्लेख है । श्लोक १४-१५ में सुभटवर्मन् की प्रशंसा व श्लोक १५ में उसके गुर्जरपत्तन को आतंकित करने का उल्लेख है । श्लोक १६-१९ में अर्जुन (वर्मन् ) की प्रशंसा एवं श्लोक १७ में उसके द्वारा जयसिंह (चौलुक्य) को हराने का उल्लेख है । इस प्रकार गुजरात के नरेशों से संघर्षों के अतिरिक्त अन्य ऐतिहासिक तथ्य न होकर, सभी नरेशों की अलंकारिक भाषा में सामान्य प्रशंसा है । नरेशों के नामों के साथ कोई राजकीय उपाधियां नहीं हैं । परमार राजवंश का उल्लेख श्लोक क्र. ५ में है ।
अभिलेख महापण्डित श्री विल्हण की सम्मति से राजगुरू मदन द्वारा रचा गया । महापण्डित विल्हण नरेश अर्जुनवर्मन् का सांधिविग्रहक सचिव था ( आगे अभिलेख क्र. ६० ) । कवि आशाधर कृत धर्मामृत के अन्त में विल्हण को श्री विध्यभूपति का सांधिविग्रहक लिखा है ( सन् १८८३- ८४ में संस्कृत हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज संबंधी डा. भण्डारकर की रिपोर्ट, पृष्ठ ३९१ ) जो अर्जुनवर्मन् का पितामह विंध्यवर्मन् था । इस प्रकार नरेश विध्यवर्मन् व अर्जुनवर्मन् दोनों के समय में विल्हण सांधिविग्रहक के पद पर आसीन था । राजगुरू मदन द्वारा रचित पारिजातमंजरी नाटिका धार में एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण प्राप्त हुई है । इस प्रकार वह अर्जुनवर्मन् के सभी प्राप्त अभिलेखों का रचयिता था । परन्तु प्रस्तुत अभिलेख के कुछ प्रारम्भिक श्लोक ही उसके द्वारा लिखे गये प्रतीत होते हैं, क्योंकि अर्जुनवर्मन् के अन्य अभिलेखों एवं देवपालदेव के अभिलेखों में प्राय: इन ही श्लोकों की पुनरावृत्ति की गई है ।
ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत अभिलेख का पर्याप्त महत्व है । प्रथमतः इसके माध्यम से अर्जुनवर्मन् तक की परमार राजवंशावली ज्ञात होती है । दूसरे, इसमें उल्लिखित महापण्डित विल्हण एवं राजगुरू मदन के समकालीन ग्रन्थों में भी उल्लेख प्राप्त होते हैं जिनके आधार पर उनके महत्व व विद्वत्ता पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। साथ ही श्लोक क्र. १८ में अर्जुनवर्मन् के साहित्य प्रेम व विद्वानों को आश्रय प्रदान करना भी प्रमाणित होता है। तीसरे, यह भी ज्ञात होता है कि इस समय तक परमार नरेश न केवल मालव राज्य की पुनर्प्राप्ति में सफल हो गये थे, वरन् गुजरात के कतिपय भागों पर सफल आक्रमण भी कर रहे थे। गुजरात में चौलुक्य शक्ति का ह्रास ११७२ ई. में कुमारपाल की मृत्यु से शुरु हो गया । उसका उत्तराधिकारी उसका भतीजा अजयपाल ( ११७२ - ७६ ई.) हुआ । परन्तु उसने चहूं ओर शत्रु पैदा कर लिये, इस कारण उसका वध कर दिया गया। फिर मूलराज द्वितीय
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परमार अभिलेख
(११७६-७८ ई.) ने अल्पायु में गद्दी संभाली। राज्य के शत्रुओं के लिये यह सुनहरा अवसर था ऐसे समय परमार भी चूकने वाले न थे ।
विध्यवर्मन् (११७५-९४ ई.) ने मालव राज्य से चौलुक्यों को ११९० ई. से पूर्व निकाल बाहर किया। उस के राजकवि सुल्हण ने इसी वर्ष वृत्तरत्नाकर पर वार्तिका पूर्ण की। उसमें विध्यवर्मन् को अवन्तिनृपति, धाराधिनाथ, मालवक्षितीश एवं शक्तिशाली चौलुक्य नरेश को पराजित करने वाला निरूपित किया है ( प्रो. इं. हि. कां., १९६०, सुल्हण एण्ड विंध्यवर्मन् -- प्रो. वालेंकर) । देवपालदेव के संवत् १२८२ के मांधाता अभिलेख ( क्र. ६५ ) से विध्यवर्मन् द्वारा धारा नगरी की मुक्ति प्रमाणित है। जैन आचार्य आशाधर के मालव क्षेत्र में शरण लेने के समय विंध्यवर्मन् वहां का नरेश था ( धर्मामृत, पृष्ठ १ ) । श्लोक क्र. १५ में सुभटवर्मन् ( ११९४१२०९ ई.) द्वारा गुजरात अभियान का उल्लेख है । इस नरेश का स्वतंत्र अभिलेख अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है । परन्तु देवपालदेव व जयवर्मदेव द्वितीय के मान्धाता अभिलेखों ( क्र. ६५ व ७२ ) से इसकी पुष्टि होती है । साहित्यिक साक्षों से भी इसकी पुष्टि होती है ।
-
श्लोक १७ में अर्जुनवर्मन् ( १२१०-१२१६ ई.) द्वारा गुजरात नरेश जयसिंह पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख है । १३१० ई. से पूर्व गुजरात में आंतरिक संघर्ष उभर आया । जयसिंह ने भीम द्वितीय से राज्य छीन लिया। परन्तु सभी प्रांतपतियों ने उसकी सत्ता स्वीकार नहीं की । ऐसे समय अर्जुनवर्मन् ने गुजरात पर आक्रमण किया । पर्व गिरि की उपत्यका में जयसिंह से उसकी मुठभेड़ हुई। जयसिंह हार गया व उसकी सेना प्लायन कर गई। बाद में जयसिंह ने अपनी पुत्री विजयश्री का विवाह अर्जुनवर्मन् से कर दिया । इस विजय का उल्लेख देवपालदेव व जयवर्मन् द्वितीय के मांधाता अभिलेखों ( क्रं. ६५ व ७२ ) में प्राप्त होता है। धार से प्राप्त पारिजातमंजरी नाटिका भी इसी विजय को को लेकर रची गई ।
भौगोलिक स्थानों में मण्डप दुर्ग आधुनिक मांडू है जो धार से २२ मील दूर एक विख्यात पर्यटक स्थल है । शकपुर प्रतिजागरणक की समता गांगूली ने शाजापुर जिले में शुजालपुर परगने से की। परन्तु अन्य सुझाव सल्कनपुर ग्राम से इसका तादात्म्य करने का है जो मांडू से ९ मील उत्तर की ओर स्थित है । पिडिविडिग्राम की समता गांगुली ने पिपलियानगर से की है । परन्तु अन्य सुझाव सल्कनपुर से उत्तर पश्चिम में ४ मील की दूरी पर पालिया ग्राम से करने की है । मुक्तावसु की समता वर्तमान में सरल नहीं है ।
(मूलपाठ)
ओं नमः पुरुषार्थचूडामणये धर्माय ॥
प्रतिबिंबतया भूमेः कृत्वा साक्षात्प्रतिग्रहं । जगदाल्हादयन् दिश्याद्द, विजेंद्रो मङ्गलानि वः ||१|| जीयात्परशुरामोसौ क्षत्रः क्षुण्या (ण्णा) रणाहतैः । संध्या बिबमेयोर्वी दातुर्य्यस्यैति ताम्रतां ॥२॥ येन मंदोददीबाष्पवारिभिः शमितो मृधे । प्राणेश्वरी - वियोगाग्निः स रामः श्रेयसेऽस्तु वः ।। ३ । भीमेनापि धृतौ मूर्द्धनि यत्पादौ स युधिष्ठिरः । वंशाद्ये ( शोये ) तेंदुना जीयात्स्वतुल्य इव निर्मितः ॥ ४ ॥ परमारकुलोत्तंसः कंसजिन्महिमा नृपः । श्रीभोजदेव इत्यासीदासीमक्रांतभूतलः ।। ५ ।। यद्यशश्चंद्रिकोदेति दिगुत्संगतरंगिते । द्विषन्नृपयशः पुंजपुंडरीकैर्निमिलितं ।। ६ ।। ततोभूदुदयादित्यो नित्योत्साहक कौतुकी । असाधारण वीरश्रीरश्रीहेतुविरोधिनां ॥ ७ ॥ महाकलहुकलपांते यस्योद्दामभिराशुगैः । कति नोन्मूलितास्तुंगा भूभृतः कंटकोल्वणाः ||८|| तस्माद् छिन्नद्विषन्मर्मा नरवर्मा नराधिपः । धर्माभ्युद्धरणे धीमानभूत्सीमा महीभुजां ।। ९ ।। प्रतिप्रभातं विप्रेभ्यो दतैग्रमपदैः स्वयं । अनेकपदतां निन्ये धर्मो येनैकपादपि ॥१०॥
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पिपलियानगर अभिलेख
२३७
तस्याजनि यशोवर्मा पुत्रः क्षत्रिय शेखरः । तस्मादजयवर्माभूज्जयश्रीविश्रुतः सुतः ।।११।। तत्सूनुर्वीरमर्धन्यो धन्योत्पति (त्ति) रजायत । गुर्जरोछेदनिबंधी विध्य वर्मा महाभुजः ।।१२।। धारयोद्धतया सार्द्ध दधाति स्म त्रिधारतां । सांयुगीनस्य यस्यासिस्त्रातुं लोकत्रयीमिव ।।१३।। तस्यामुष्यायणः पुत्र: सुत्रामश्रीरथाशिषतः । भूपः सुभटवर्मेति.धर्मे तिष्ठन्महीतलं ।।१४।। यस्य ज्वलति दिग्जेतु: प्रतापस्तपनद्युतेः । दावाग्नि सुमनाऽद्यापि गर्जन्गुर्जरपत्तने ।।१५।। देवभूयं गते तस्मिन्नंदनोऽर्जुनभूपतिः । दोष्ना धत्तेऽधनुना धात्री वलयं वलयं यथा ।।१६।। वाललीलाहवे यस्य जयसिंहे पलायिते । दिकया (क्पा) लहासव्याजेन यशो दिक्षु विजृम्भितं ।।१७।। काव्यगांधर्वसर्वस्वनिधिना येन सांप्रतं । भारावतरणं देव्याश्चक्रे पुस्तकवीणयोः ।।१८।। तेन विविधवीरेण त्रिधा पल्लवितं यशः । धवलत्वं दधुस्त्रीणि जगंति कथमन्यथा ।।१९।।
स एव नरनायकः सीभ्युदयीशकपुर-प्रतिजागरणके पिडिविडि-ग्रामे समस्त-राजपुरुषान् ब्राह्मणोत्तरान् प्रति निवासि-पट्टकिल-जनपदादींश्च बोधयत्यस्तु वः संविदितं यथा मंडपदुर्गावस्थितरस्माभिः सप्तषष्ट्याधिक-द्वादशशत-संवत्सरे फाल्गुणे १२६७ शक्लदशाम्यामभिषेक-पर्वणि स्नात्वा भगवन्तं भवानीपतिमभ्यच्य संसारस्यासारतां दृष्ट्वा । तथाहि ।
वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्य मापातमात्रमधुरो विषयोपभोगः ।
प्राणास्तृणाग्रजलबिन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहों परलोकयाने ।।२०।।
इति सर्वं विमृश्यादृष्टफलमंगीकृत्य मुक्तावसु-स्थान-विनिर्गताय वाजसनेय-शाखाध्यायिने काश्यपगोत्राय काश्यपवत्सारनैध्रुव-त्रिप्रवराय अवसावि (सथि) कदेलणम-प्रपौत्राय-पंडित-सोमदेवपौत्राय पंडित-जैत्रसिंह-पुत्राय पुरोहित-गोविन्दशर्मणे ब्राह्मणाय समस्तोपिग्रामश्चतु :कंकट-विश्रुद्धः सवृक्षमालाकुल : सहिरण्यभागभोगः सोपरिकरः सर्वदाय-समेतः सविनिक्षेपो मातापित्रोरात्मनश्च पुण्य यशोऽभिवृद्धये चंद्रार्णिव क्षितिसमकालं यावत्परया भक्तया शासनेनोदकपूर्व प्रदत्त : तन्मत्वा तन्निवासि-पट्टकिलजनपदैर्यथा दीयमान-भागभोगकरहिरण्यादिकं देवब्राह्मणभुक्ति-वर्जमाजाविधेयैर्भूत्वा सर्वममुष्मै दातव्यं सामान्यं चैतत्पुण्यफलं बुध्वाऽस्मद्वंशजैरन्यैरपि भाविभोक्तृभिरस्मत्प्रदत्त-धर्मादायोऽयमनुमंतव्य: पालनीयश्च । उक्तं च।
बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं ।।२१।। स्वदतां परदत्तां वा यो हरेत वसुंधरां । स विष्ठायां क्रि (कृ) मिर्भूत्वा पितृभिः सह मज्जति ।।२२॥ इति कमलदलांबविन्दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च ।
सकल मिदमुदाहृतं च बुध्वा न हि पुरुषैः परकीत्तियो विलोप्याः ।।२३।। संवत् १२६७ फाल्गुणशुद्ध १० गुरौ रचितमिदं महापंडित श्रीविल्हणसंमतेन राजगुरुणा मदनेन।
(अनुवाद) ओं। पुरुषार्थों में सर्वोत्कृष्ट धर्म को नमस्कार। १. समस्त पृथ्वी के प्रतिबिंब स्वरूप भूमि को ग्रहण कर जो संसार को आनन्दित करते हैं
ऐसे द्विजेन्द्र आपका कल्याण करें। २. रण में हत क्षत्रियों के रक्त से व्याप्त अस्त होते सूर्य के प्रतिबिंब के समान पृथ्वी
जिस दानदाता के लिए लालिमा को धारण किये हुए है उस परशुराम की जय हो। ३. जिसने अपनी प्राणेश्वरी (सीता) की वियोगाग्नि को युद्ध में मंदोदरी के अश्रुजल से बुझाया
वह राम आप को श्रेय प्रदान करे ।
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परमार अभिलेख
४. भीम के द्वारा जिस के चरण अपने मस्तक पर धारण किये गये, जिसने वंश को चन्द्र
के समान (निर्मल) बनाया, वह युधिष्ठिर सदा विजयी हो। ५. परमार कुल में सर्वश्रेष्ठ, कंस को जीतने वाले की महिमा वाला नरेश श्री भोजदेव
नामक हुआ जिसने सीमाओं तक पृथ्वी को विजित किया। दिशाओं की गोद तरंगित होने पर जिसकी यशचंद्रिका उदित हो रही है (वैसे) शत्रु
नरेशों का यश कमलों के समान मुरझा गया। ७. उसके (पश्चात् ) उदयादित्य हुआ जो सदा उत्साह में कुतुहलपूर्ण, असाधारण वीर व
श्रीयुक्त था, और जो विरोधियों की अलक्ष्मी का कारण था । ८. कल्पान्त के तुल्य महायुद्धों के होने पर जिस के तीखे बाणों द्वारा कितने अत्यन्त उब्ध नरेश
शक्तिशाली सेनाओं सहित उन्मूलित नहीं किये गये ? (महाप्रलय काल में वायु द्वारा कितने महापर्वत नहीं उखाड़े गये) उससे नरवर्मन् नरेश हुआ जिसने अपने शत्रुओं के मर्मस्थल छिन्न कर दिये। बुद्धिमान
जो धर्म के उद्धार करने में व राजाओं के लिए सीमा स्वरूप था। १०. प्रतिदिन प्रातःकाल स्वयं ब्राह्मणों के लिए ग्रामपद देने से उसने एक पांव वाले धर्म को
अनेक पांव प्रदान कर दिये। ११. उसका पुत्र यशोवर्मन् हुआ जो क्षत्रियों में मुकुट रूप था। इसका पुत्र अजयवर्मन् था
जो विजय व लक्ष्मी के लिए विख्यात था । १२. उसका पुत्र विन्ध्यवर्मन् था जिसकी उत्पत्ति द्वारा (वंश) धन्य हुआ, जो वीर शिरोमणि
था और गुर्जर (नरेश) को हराने में इस महाभुज ने (शक्ति) लगाई। १३. रणकुशल जिसका खड्न मानो तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए ही धारा नगरी के
उद्धार करने के साथ ही विधारता को धारण कर रहा है। १४. उसी के गुणधर्म वाला, इन्द्र के समान शोभायुक्त पुत्र सुभटवर्मन् भूतल पर धर्म में
आरूढ़ हुआ। १५. सूर्य की कांति वाले दिग्विजयी जिसका प्रताप जलते हुए गुर्जरनगर में दावानल के
बहाने से आज भी गर्जना कर रहा है। (इसके) स्वर्गलोक को जाने पर उसका पुत्र अर्जुन नरेश आज भी पृथ्वी मण्डल को
अपने बाहु पर कंकण के समान धारण कर रहा है। १७. बाललीला के समान युद्ध में जयसिंह के पलायन करने पर जिसक। यश दिक्पालों के
हास्य के बहाने से दिशाओं में फैल रहा है। १८. साहित्य एवं गायन विद्या के सर्वस्व निधि जिसने मानो सरस्वती देवी का पुस्तक व
वीणा का भार ही उतार लिया हो। १९. तीन प्रकार के वीर (दयावीर, दानवीर, युद्धवीर) जिसने अपनी कीर्ति तीन प्रकार से
विकसित की, जगत को तीन प्रकार से पवित्र करने में इसके अतिरिक्त अन्य कौन ?
वह ही नरनायक सब प्रकार से उदयशील हो कर शकपुर प्रतिजागरणक में पिडिविडि ग्राम में समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के निवासियों, पटेलों और ग्रामीणों को आज्ञा देता है-आपको विदित हो कि मंडपदुर्ग में ठहरे हुए हमारे द्वारा बारह सौ सड़सठ संवत्सर के फाल्गुन में १२६७ शुक्ल दशमी को अभिषेक पर्व पर स्नान कर, भगवान भवानीपति की अर्चना कर, संसार की असारता देख कर, तथा
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२०. इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषयभोग
प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है।
यह सभी विचार कर, अदृष्ट फल को स्वीकार कर, मुक्तावसु स्थान से आये वाजसनेय शाखा के अध्यायी, काश्यप गोत्री, काश्यप वत्सार नैध्रुव त्रिप्रवरी अवसाविक (अवसाथिक) देलण के प्रपौत्र, पंडित सोमदेव के पौत्र, पंडित जैनसिंह के पुत्र पुरोहित गोविन्द शर्मा ब्राह्मण के लिए सारा ही ग्राम चारों निर्धारित सीमा सहित, साथ में वृक्षमाला से व्याप्त, साथ में हिरण्य भाग भोग उपरिकर, सभी आय समेत, साथ में गड़ा धन, माता-पिता व स्वयं के पुण्य व यश की अभिवृद्धि के लिए चन्द्र सूर्य समुद्र पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ शासन द्वारा जल हाथ में ले कर (दान) दिया गया है। उसको मान कर वहां के निवासियों पटेलों व ग्रामीणों द्वारा जो भी दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि देव और ब्राह्मण द्वारा भोगे जाने वाले को छोड़ कर आज्ञा सुन कर सभी इसके लिए देते रहना चाहिये और इसका समान रूप फल मान कर हमारे वंश में व अन्यों में उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्म-दान को मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है-- २१. सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार
में रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है। २२. जो अपने द्वारा दी गई अथवा दूसरे के द्वारा दी गई भूमि का हरण करेगा वह अपने
पितरों के साथ विष्टा का कीड़ा बनता है। २३. इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमल दल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल
समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये।
संवत् १२६७ फाल्गुण सुदि १० गुरुवार । यह महापंडित श्री विल्हण की सम्मति से राजगुरु मदन द्वारा रचा गया।
सीहोर का अर्जुनवर्मन् का तापत्र अभिलेख
(सं. १२७० = १२१३ई.) प्रस्तुत अभिलेख, प्राप्त विवरण के अनुसार, तीन ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो एफ. ई. हाल ने १८५९ ई. में सीहोर के बेगम स्कूल में देखे थे। इसका विवरण ज. अमे. ओ. सो., भाग ७, १८६०, पृष्ठ २४ व आगे में दिया गया। कीलहान की उत्तरी अभिलेखों की सूची क्र. १९७; भण्डारकर की उत्तरी अभिलेखों की सूची क्र. ४६० पर इसका उल्लेख है। ताम्रपत्र वर्तमान में अज्ञात है।
ताम्रपत्रों के आकार, वज़न, पंक्तियाँ, गरूड़ चिन्ह, अक्षरों की बनावट व लेख की स्थिति आदि के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है। इसमें २४ श्लोक हैं, शेष गद्यमय है। इसके २३ श्लोक पूर्ववर्णित अभिलेख क्र. ५९ के समान हैं।
इसमें दो विभिन्न अवसरों पर दो भूदानों के लिए दो अलग अलग तिथियों का उल्लेख है। प्रथम दान महाकाल नगर में दिया गया जिसकी तिथि आषाढ वदि १५ सोमवार है। इसमें वर्ष का उल्लेख नहीं है। दूसरा दान भगकच्छ में ठहरे हए दिया गया जिसकी तिथि शब्दों में संवत् १२७० बैसाख वदि अमावस्या सूर्यग्रहण पर्व हैं। यही तिथि अन्त में अंकों में लिखी
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परमार अभिलेख
है। यह सोमवार, २२ अप्रेल, १२१३ ई. के बराबर है। उस दिन सूर्यग्रहण लगा था। इस आधार पर महाकाल नगर के दान तिथि यदि इसी वर्ष की है तो वह गुरुवार, २० जून १२१३ है।
अभिलेख का प्रमुख ध्येय नरेश अर्जुनवर्मन् द्वारा भृगुकच्छ में ठहरे सावइरि सोल (ह) से सम्बद्ध उत्तरायण ग्राम, एवं महाकाल नगर में भूदान करने का उल्लेख करना है। इस दूसरे दान की भाषा कुछ त्रुटिपूर्ण प्रतीत होती है जिस कारण उसका अर्थ लगाने में कठिनाई है। इसमें लिखा है कि सोमवती तीर्थ में स्नान कर श्री अर्जुनवर्मदेव द्वारा महाकालपुर के मध्य दण्डाधिपति वास को छोड़ कर गली के भवन की सीमा तक दान में दिया। इसका अर्थ यह हो सकता है कि महाकाल नगर के मध्य में दण्डाधिपति (शिव) के मंदिर के लिए मुख्य गली में स्थित मंदिरों की सीमा तक का भूभाग दान में दिया। डी.सी. गांगुली ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है कि महाकाल नगर के दण्डाधिपति के मंदिर को अपने कुल पुरोहित गोविन्द को प्रभार में सौंपा (प. रा. इ. गां., पृष्ठ १४५) ।
__दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण पूर्ववणित अभिलेख क्र. ५९ का पुरोहित पंडित गोविन्द शर्मा है। आगे का प्रायः सारा विवरण भी उसी के समान है। प्रस्तुत अभिलेख का अत्यधिक महत्व है। पूर्ववणित अभिलेख में गुजरात के कुछ क्षेत्र पर परमार नरेशों के आक्रमणों का वर्णन किया जा चुका है। प्रस्तुत अभिलेख के आधार पर गुजरात के भडोच क्षेत्र में अर्जुनवर्मन् की उपस्थिति एवं वहाँ ग्रामदान करने से यह तथ्य सामने आता है कि वह क्षेत्र परमार नरेशों ने न केवल विजित कर लिया था अपितु उस पर पूर्णतः अधिकार कर वहाँ ग्रामदान देना शुरू कर दिया था।
भौगोलिक स्थानों में सावइरि सोलह संभवतः १६ ग्रामों के समूह का नाम था। गांगूली के अनुसार यह खानदेश में ताप्ती नदी के उत्तर में सव्दग्राम है। भृगुकच्छ वर्तमान भडौच है। महाकालपुर आधुनिक उज्जैन है जो आज भी 'महाकाल की नगरी' के नाम से विख्यात है। उत्तरायणी ग्राम का संभवतः अब कोई अस्तित्व नहीं है, परन्तु वह खानदेश भूभाग में ही स्थित होना चाहिये।
(मूलपाठ) ओं नम: पुरुषार्थचूडामणये धर्माय । प्रतिबिम्बनिभाद् भूमेः कृत्वा साक्षात् प्रतिग्रहम् । जगदाल्हादयन् दिश्याद् द्विजेन्द्रो मङ्गलानि वः ।।१।। जीयात् परशुरामोऽसौ क्षत्रः क्षुणं रणाहतैः । सन्ध्यार्कबिम्वमेवोर्वी दातुर्यस्यति ताम्रताम् ।।२।। येन मन्दोदरी-वाष्पवारिभिः शमितो मृधे। प्राणेश्वरी-वियोगाग्निः स रामः श्रेयसेऽस्तु वः ।।३।। भीमेनाऽपि धृतौ मूनि यत्पादौ स युधिष्ठिरः । वंशाद्ये (शोये )नेन्दुना जीयात् स्वतुल्य इव निर्मितः ।।४।। परमार कुलोत्तंसः कंसजिन्महिमा नृपः । श्रीभोजदेव इत्यासीत् नासीर (सीदासीम) क्रान्त-भूतलः ।।५।। यद्यशश्चन्द्रिकोद्योते (देति) दिगुत्सङ्गतरङ्गिते। द्विषन्नृपयशःपुञ्जपुण्डरीकनिमीलितम् ।।६।। ततोऽभूदुदयादित्यो नित्योत्साहैककौतुकी। असाधारणवीरश्रीरश्रीहेतुर्विरोधिनाम् ।।७।। महाकलहकल्पान्ते यस्योद्दामभिराश्रु (शु) गैः । कति नोन्मूलितास्तुङ्गा भूभृतः कटकोल्बणाः ।।८।। तस्माच्छिन्न द्विषन्म िनरवर्मा नराधिपः । धर्माभ्यद्धरणे धीमानभूत सीमा महीभुजाम् ।।९।। प्रतिप्रभातं विप्रेभ्यो दत्तामपदैः स्वयम् । अनेकपदतां निन्ये धर्मो येनैकपादपि ।।१०।। तस्याऽजनि यशोवर्मा पुत्रः क्षत्रियशेखरः । तस्मादजयवर्माऽभूद् जयश्रीविश्रुतः सुतः ।।११।। तत्सूनुर्वीरमूर्धन्यो धन्योत्पत्तिरजायत । गुर्जरोच्छेदनिर्बन्धी विन्ध्यवर्मा महाभुजः ।।१२।। धारयोद्धृतया साधं दधाति स्म त्रिधारताम् । सांयुगीनस्य यस्याऽसिस्त्रातुं लोकत्रयीमिव ।।१३।। तस्याऽऽमुष्यायणः पुत्रः सुत्रामश्रीरथाऽशिषतः । भूपः सुभटवर्मेति धर्मे तिष्ठन् महीतलम् ।।१४।।
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यस्य ज्वलति दिग्जेतुः प्रतापस्तपनद्युतेः । दावाग्निच्छद्मनाऽद्याऽपि गर्जन् गुर्जरपत्तने ॥ १५ ॥ देवभूयं गते तस्मिन् नन्दनोऽर्जुनभूपतिः । दोष्णा धत्तेऽधुना धात्रीवलयं वलयं यथा ||१६|| बाललीलाहवे यस्य जयसिंहे पलायिते । दिक्पालहासव्याजेन यशो दिक्षु विजृम्भितम् ||१७|| काव्यगान्धर्वसर्वस्वनिधिना येन साम्प्रतम् । भारावतारणं देव्याश्चक्रे पुस्तकवीणयोः ।। १८ ।। येन विविधवीरेण त्रिधा पल्लवितं यशः । धवलत्वं दधुस्त्रीणि जगन्ति कथमन्यथा || १९ ॥
स एष नरनायकः सर्वाभ्युदयी सावइरिसोले - सम्बद्ध - उत्तरायणोग्रामे उभुवोसह समस्तराजपुरुषान् ब्राह्मणोत्तरान् प्रतिनिवासी पट्टकिल- जनपदादीश्च बोधयति । अस्तु व: आषाढवदि १५ सोमे सोमवतीतीर्थे स्नात्वा श्रीमदर्जुनवर्मदेवेन सुपुरोधसे पण्डितगोविन्दाय महाकालपुरमध्ये दण्डाधिपतिवासविग्रहमुदकपूर्वं प्रदत्तं प्रतोलीप्रागार - सीमापर्यन्तम् । संविदितं यथा श्रीभृगुकच्छसमावासितैरस्माभिः सप्तत्यधिकद्वादश - शत- संवत्सरे वैशाखवदि अमावस्यायां सूर्यग्रहणपर्वणि स्नात्वा भगवन्तं भवानीपतिमभ्यर्च्य संसारस्याऽसारतां दृष्ट्वा । तथाहि ।
वाताभ्रविभ्रमिदं वसुधाधिपत्यमापातमात्रमधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्तृणाग्रजलबिन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ॥२०॥
इति सर्व विमृश्यादृष्टफलमङ्गीकृत्य मुक्तावस्थुस्थान - विनिर्गताय वाजसनेयशाखाध्यामि काश्यपगोत्राय काश्यपावत्सारनैधुवेति त्रिप्रवरायाऽऽवसथिकदेल्ह-प्रपौत्राय पण्डित - सोमदेवपौत्त्राय पण्डित - जैनसिंह- पुत्राय पुरोहित-गोविन्दशर्मणे ब्राह्मणाय समस्तोऽपि ग्रामश्चतुः कङ्कटविशुद्धः सवृक्षमालाकुलः सहिरण्यभागभोगः सोपरिकरः सर्वादायसमेतः सनिधिनिक्षेपो मातापित्रोरात्मनश्च पुण्ययशोभिवृद्धये चन्द्रार्कार्णवक्षितिसमकालं यावत् परया भक्त्या शासनेनोदकपूर्वं प्रदत्तः । तन् तन्निवासिपट्टकिलजनपदैर्यथादीयमान भागभोगकर - हिरण्यादिकं देवब्राह्मणभुक्तिवर्जमाज्ञाविधेयैर्भूत्वा सर्वममुष्मै दातव्यम् । सामान्यं चैतत्पुण्यफलं बुध्वाऽस्मद्वंशजैरन्यैरपि भाविभोक्तृभिरस्मत्प्रदत्त-धर्मादायोऽयमनुमन्तव्यः पालनीयश्च । उक्तं च ।
मत्वा
बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ||२१|| स्वदत्ता परदत्तां वा यो हरेत् वसुन्धराम् । स विष्टायां कृमिभूत्वा पितृभिः सह मज्जति ॥ २२ ॥ | सर्वानेवं भाविनो भूमिपालान् भूयो भूयो याचते रामचन्द्रः । सामान्योऽयं धर्मसेतुर्नराणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ||२३|| इति कमलदलम्बु बिन्दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च । सकलमिदमुदाहृतं च बुध्वा न हि पुरुषः परकीर्तयो विलोप्याः ॥ २४ ॥
इति संवत् १२७० वैशाख वदि १५ सोमे ॥ दू । श्री मु ३ ।। रचितमिदं महासांधि- पंश्रीबिल्हणसम्मतेन राजगुरुणा मदनेन् । स्वहस्तोऽयं महाराज - श्रीमदर्जुनवर्मदेवस्य । उत्कीर्ण पण्डित -
देवेन ।
(अनुवाद)
ओं । पुरुषार्थों में सर्वोत्कृष्ट धर्म को नमस्कार ।
१.
समस्त पृथ्वी के प्रतिबिंब स्वरूप भूमि को ग्रहण कर जो संसार को आनंदित करते हैं। ऐसे द्विजेन्द्र आप का कल्याण करें ।
२.
रण में हत क्षत्रियों के रक्त से व्याप्त अस्त होते सूर्य को प्रतिबिम्ब के समान पृथ्वी जिस दानदाता के लिये लालिमा को धारण किये है उस परशुराम की जय हो ।
जिसने अपनी प्राणेश्वरी (सीता) की वियोगाग्नि को युद्ध में मंदोदरी के आश्रुजल से बुझाया वह राम आपको श्रेय प्रदान करे ।
३.
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४. भीम के द्वारा जिसके चरण अपने मस्तक पर धारण किये गये, जिसने वंश को चन्द्र
के समान (निर्मल) बनाया, वह युधिष्ठिर सदा विजयी हो।। ५. परमार कुल में सर्वश्रेष्ठ, कंस को जीतने वाले की महिमा वाला नरेश श्री भोजदेव नामक
हुआ जिसने सीमाओं तक पृथ्वी को विजित किया। ६. दिशाओं की गोद तरंगित होने पर जिसकी यशचंद्रिका उदित हो रही है, (वैसे) शत्रु
नरेशों का यश कमलों के समान मुरझा गया। ७. उसके (पश्चात्) उदयादित्य हुआ जो सदा उत्साह में कुतुहलपूर्ण, असाधारण वीर व
श्रीयुक्त था, और जो विरोधियों की अलक्ष्मी का कारण था। ८. कल्पान्त के तुल्य महायुद्धों के होने पर जिसके तीखे बाणों द्वारा कितने अत्यन्त उच्च
नरेश शक्तिशाली सेनाओं सहित उन्मूलित नहीं किये गये? (महाप्रलय काल में वायु द्वारा कितने महापर्वत नहीं उखाड़े गये) उससे नरवर्मन् नरेश हुआ जिसने अपने शत्रुओं के मर्मस्थल छिन्न कर दिये। बुद्धिमान जो धर्म के उद्धार करने में व राजाओं के लिये सीमा स्वरूप था। प्रतिदिन प्रातःकाल स्वयं ब्राह्मणों के लिये ग्रामपद देने से उसने एक पांव वाले धर्म को
अनेक पांव प्रदान कर दिये। . ११. उसका पुत्र यशोवर्मन् हुआ जो क्षत्रियों में मुकुट रूप था। उसका पुत्र अजयवर्मन् था जो
विजय व लक्ष्मी के लिये विख्यात था। १२. . उसका पुत्र विंध्यवर्मन् था जिसकी उत्पत्ति द्वारा (वंश) धन्य हुआ जो वीर शिरोमणि
था, और गुर्जर (नरेश) को हराने में इस महाभुज ने (शक्ति) लगाई।। १३. रणकुशल जिसका खड्ग मानो तीन लोकों की रक्षा करने के लिये ही धारा नगरी के
उद्धार करने के साथ ही त्रिधारता को धारण कर रहा है १४. उसी के गुण धर्म वाला, इन्द्र के समान शोभायुक्त पुत्र सुभटवर्मन् भूतल पर धर्म में
आरूढ़ हुआ। सूर्य की कांति वाले दिग्विजयी जिसका प्रताप जलते हुए गुर्जरनगर में दावानल के बहाने से आज भी गर्जना कर रहा है। (उसके) स्वर्गलोक को जाने पर उसका पुत्र अर्जुन नरेश आज भी पृथ्वी मण्डल को अपने बाहु पर कंकण के समान धारण कर रहा है। बाललीला के समान युद्ध में जयसिंह के पलायन करने पर जिसका यश दिक्पालों के
हास्य के बहाने से दिशाओं में फैल रहा है। १८. साहित्य एवं गायन विद्या के सर्वस्व निधि जिसने मानों सरस्वती देवी का पुस्तक व वीणा
का भार ही उतार लिया हो। १९. तीन प्रकार के वीर जिसने अपनी कीत्ति तीन प्रकार से विकसित की, जगत को तीन
प्रकार से पवित्र करने में उसके अतिरिक्त अन्य कौन ?
वह ही नरनायक सब प्रकार से उदयशील होकर सावइरि सोल (ह) से सम्बद्ध उत्तरायण ग्राम में इकट्ठे हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आस पास के निवासियों, पटेलों और ग्रामीणों को आज्ञा देता है--आपको (विदित हो) कि आषाढ़ वदि १५ सोमवार को सोमवती तीर्थ में स्नान कर श्रीमान् अर्जुनवर्मदेव द्वारा उत्तम पुरोहित पण्डित गोविन्द के लिये महाकालपुर के मध्य दण्डाधिपति वास को छोड़ कर गली के भवन की सीमा तक (मूल पाठ त्रुटिपूर्ण प्रतीत
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होता है) जल हाथ में ले कर दान दिया। विदित हो कि श्री भृगुकच्छ में वास करते हुए हमारे द्वारा बारह सौ सत्तर संवत्सर की वैशाख वदि अमावस्या को सूर्यग्रहण के पर्व पर स्नान कर, भगवान भवानीपति की पूजा कर, संसार की असारता देख कर तथा२०. इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग
प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाली जल बिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।
यह सभी विचार कर, अदृष्टफल को स्वीकार कर, मुक्तावस्थु स्थान से आये वाजसनेय शाखा के अध्यायी, काश्यप गोत्री, काश्यप वत्सार नैध्रुव इन तीन प्रवरों वाले, अवसथिक देल्ह के प्रपौत्र, पण्डित सोमदेव के पौत्र, पण्डित जैनसिंह के पुत्र, पुरोहित गोविन्द शर्मा ब्राह्मण के लिये सारा ही ग्राम चारों निर्धारित सीमा सहित, साथ में वृक्षों की पंक्तियों के समूह से व्याप्त, हिरण्य भाग भोग उपरिकर, सभी आय समेत, साथ में निधि व गड़ा धन, माता पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिये, चन्द्र सूर्य समुद्र पृथ्वी के रहते तक, परमभक्ति के साथ शासन द्वारा जल हाथ में लेकर दान दिया है। उसको मान कर वहां के निवासियों, पटेलों, ग्रामीणों द्वारा जिस प्रकार दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि, देव व ब्राह्मण के द्वारा भोगे जाने वाले को छोड़ कर, आज्ञा सुन कर सभी इसके लिये देते रहना चाहिये । और इसका समान रूप फल मान कर हमारे वंश में व अन्यों में उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को मेरे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है२१. सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह भूमि जिसके अधिकार
___ में रही है तब २ उसी को उसका फल मिला है ।। २२. अपने द्वारा दी गई अथवा दूसरे के द्वारा दी गई भूमि का जो हरण करता है वह अपने
पितरों के साथ विष्टा का कीड़ा बनता है। २३. सभी इन होने वाले नरेशों से रामचन्द्र बार २ याचना करते हैं कि यह सभी व्यक्तियों के लिये
समान रूप धर्म का सेतु है अत: आपको अपने २ काल में इसका पालन करना चाहिये। २४. इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल
समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये।
संवत् १२७० वैशाख वदि १५ सोम (वार) । दू । श्री मु ३। यह महासांधिविग्रहक पं. श्री बिल्हण की सम्मति से राजगुरु मदन द्वारा रचा गया । ये हस्ताक्षर स्वयं महाराज श्रीमत् अर्जुनवर्मदेव के हैं। पंडित वाप्यदेव द्वारा उत्कीर्ण किया गया।
(६१) सीहोर का अर्जुनवर्मन् का ताम्रपत्र अभिलेख
(सं. १२७२=१२१५ ई.) प्रस्तुत अभिलेख तीन ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो पूर्ववणित अभिलेख क्र. ६० के साथ एफ. इ. हाल ने सीहोर में देखा था तथा इसका विवरण उसी के साथ छापा था। कीलहान के उत्तरी अभिलेखों की सूचि क्र. १९८, भण्डारकर की सूचि क्र. ४६६ पर इसका उल्लेख है। ताम्रपत्र वर्तमान में कहां है सो अज्ञात है। इसी प्रकार इनके विवरण के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है । इसकी भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है। इसमें अभिलेख ऋ. ६० के समान २४ श्लोक हैं, शेष गद्य में है। .
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परमार अभिलेख
. इसकी तिथि मध्य में शब्दों में व अन्त में अंकों में है। यह संवत् १२७२ भाद्रपद सुदि १५ बुधवार चन्द्रोपरागपर्व है। यह बुधवार ९ सितम्बर, १२१५ ई. के बराबर है। उस दिन चन्द्रग्रहण था। इसका प्रमुख ध्येय नरेश अर्जुनवर्मन द्वारा पगारा प्रतिजागरणक में नर्मदा के उत्तरी तट पर स्थित हथिणावर ग्राम के दान करने का उल्लेख करना है । दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण उसका पुरोहित पंडित गोविन्द शर्मा था। पूर्व के दोनों अभिलेखों का दान प्राप्तकर्ता भी वही था। अभिलेख के पाठ से ज्ञात होता है कि महासांधिविग्रहक के पद पर अब राजा सलखण नियुक्त था। - भौगोलिक स्थानों में नर्मदा सुविख्यात नदी है। उसको रेवा भी कहा जाता था। कपिला नदी अमरेश्वर तीर्थ के पास नर्मदा से मिलने वाली कोलार नदी है। नरवर्मन् के देवास अभिलेख क्र. ३२ में इसका नाम कुविलारा लिखा है। अमरेश्वर तीर्थ नर्मदा नदी के दक्षिणी तट पर मान्धाता के पास विख्यात तीर्थ स्थल है। हथिणावर धार जिले के मनावर परगने में धरमपुरी से ३ कि.मी. पश्चिम में हत्नावर ग्राम है। पगारा की समता गांगुली ने होशंगाबाद जिले में पगर से की है। परन्तु धार जिले में धरमपुरी के पास एक पगारा ग्राम है। अतः अन्य स्थानों के इसी क्षेत्र में स्थित होने से यही समता ठीक मानना चाहिये ।
(मूलपाठ) ओं । नम: पुरुषार्थचूडामणये धर्माय । प्रतिबिम्बनिभाद् भूमेः कृत्वा साक्षात् प्रतिग्रहम् । जगदाल्हादयन् दिश्याद् द्विजेन्द्रो मङ्गलानि वः ॥१॥ जीयात् परशुरामोऽसौ क्षत्रः क्षुणं रणाहतः । सन्ध्यार्क-बिम्बमेवोर्वीदातुर्यस्यति ताम्रताम् ।।२।। येन मन्दोदरीबाष्पवारिभिः शमितो मृधे। प्राणेश्वरी-वियोगाग्निः स रामः श्रेयसेऽस्तु वः ॥३॥ भीमेनाऽपि धृतामूनि यत्पादौ स युधिष्ठिरः । वंशावे(शोये)नेन्दुना जीयात् स्वतुल्य इव निर्मितः ।।४।। परमारकुलोत्तंसः कंसजिन्महिमा-नृपः । श्रीभोजदेव इत्यासीन् ना सरि (सीदासीम) क्रान्तभूतलः ।।५।। यद्यशश्चन्द्रिकोद्योते (देति) दिगुत्सङ्गतरङ्गिते। द्विषन्नृपयशः पुञ्जपुण्डरीनिमीलितम् ।।६।। ततोऽभूदुदयादित्यो नित्योत्साहैककौतुकी। असाधारणवीर-श्रीरश्रीहेतुविरोधिनाम् ।।७।। महाकलहकल्पान्ते यस्योद्दामभिराश्रु (शु)गैः। कति नोन्मूलितास्तुङ्गा भूभृतः कटकोल्बणाः ॥८॥ तस्माच्छिन्नद्विषन्मर्मा नरवर्मा नराधिपः । धर्माभ्युद्ध रणे धीमानभूत सीमा महीभुजाम् ।।९।। प्रतिप्रभातं विप्रेभ्यो दत्तामपदैः स्वयम् । अनेकपदतां निन्ये धर्मो येनैकपादपि ॥१०॥ तस्याऽजनि यशोवर्मा पुत्र: क्षत्रियशेखरः। तस्मादजयवर्माऽभूद् जयश्रीविश्रुतः सुतः ॥११॥ तत्सूनुर्वीरमूर्धन्यो धन्योत्पत्तिरजायत । गुर्जरोच्छेदनिर्बन्धी विन्ध्यवर्मा महाभुजः ॥१२॥ धारयोद्धृतया सार्धं दधाति स्म त्रिधारताम् । सांयुगीनस्य यस्याऽसिस्त्रातुं लोकत्रयीमिव ॥१३॥ तस्याऽऽमुष्यायणः पुत्रः सुत्रामश्रीरथाऽशिषत् । भूपः सुभटवर्मेति धर्मे तिष्ठन् महीतलम् ।।१४।। यस्य ज्वलति दिग्जेतुः प्रतापस्तपनद्युतेः । दावाग्निच्छद्मनाऽद्यापि गर्जन् गुर्जरपत्तने ॥१५॥ देवभूयं गते तस्मिन् नन्दनोऽर्जुनभूपतिः। दोष्णा धत्तेऽधना धात्री वलयं वलयं यथा ॥१६॥ बाललीलाहवे यस्य जयसिंहे पलायिते । दिक्पालहासव्याजेन यशो दिक्षु विजृम्भितम् ॥१७॥ काव्यगान्धर्व-सर्वस्वनिधिना येन साम्प्रतम्। भारावतारणं देव्याश्चक्रे पुस्तकवीणयोः ॥१८॥ येन विविधवीरेण विधा पल्लवितं यशः। धवलत्वं दधुस्त्रीणि जगन्ति कथमन्यथा ॥१९॥
स एष नरनायकः सर्वाभ्युदयी पगाराप्रतिजागरणके नर्मदोत्तरकूले हथिणावरग्रामे पूर्वराजदत्ता वशिष्टायां भूमौ समस्तराजपुरुषान् बाह्मणोत्तरान् प्रतिनिवासिपट्टकिलजनपदादींश्च बोधयति । अस्तु वः
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सीहोर अभिलेख
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संविदितं यथा श्रीमदमरेश्वरतीर्थावस्थितरस्माभिद्विसप्तत्याधिक-द्वादशशत-संवत्सरे भाद्रपदपौर्णमास्यां चन्द्रोपरागपर्वणि रेवाकपिलयोः सङ्गमे स्नात्वा भगवन्तं भवानीपतिमोङकारं लक्ष्मीपतिं चक्रस्वामिनं चाऽभ्यर्च्य संसारस्याऽसारतां दृष्ट्वा । तथा हि।
वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्यमापातमात्रमधुरो विषयोपभोगः ।
प्राणास्तृणाग्रजलबिन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ॥२०॥ - - इति सर्व विमृश्याऽदृष्टफलमङ्गीकृत्य मुक्तावस्थूस्थानविनिर्गताय वाजसनेयशाखाध्यायिने काश्यप गोत्राय काश्यपावत्सारनैध्रुवेति त्रिप्रवरायाऽऽवसथिक-देल्ह-प्रपौत्राय पण्डित-सोमदेव-पौत्राय पण्डितजनसिंहपुत्राय पुरोहित-पण्डित-श्री-गोविन्दशर्मणे ब्राह्मणाय भूमिरियं चतु:कङकट-विशुद्धा सवृक्षमालाकुला सहिरण्यभागभोगसोपरिकर-घट्टादायलवणादायोत्यादि-सर्वादायसमेता सनिधिनिक्षेपा मातापित्रोरात्मनश्च पुण्ययशोभिवृद्धये चन्द्रार्णिवक्षिति समकालं यावत् परया भक्त्या शासनेनोदकपूर्वं प्रदत्ता। तन्मत्वा तन्निवासि-पट्टकिलजनपदैर्यथादीयमानभागभोगकरहिरण्यादिकमाजाविधेयैर्भूत्वा सर्वममुष्म दातव्यम् । सामान्यं चैतत्पुण्यफलं बुध्वाऽस्मद्वंशजैरन्यैरपि भाविभोक्तृभिरस्मत्प्रदत्तधर्मादायोऽयमनमन्तव्यः पालनीयश्च । उक्तं च ।
बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।।२१॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत् वसुन्धराम् । स विष्टायां कृमिर्भूत्वा पितृभिः सह मज्जति ।।२२।। सर्वानेवं भाविनो भमिपालान भयो भयो याचते रामचन्द्रः । सामान्योऽयं धर्मसेतुर्नराणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ॥२३॥ इति कमलदलाम्बुबिन्दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च।
सकलमिदमुदाहृतं च बुध्वा न हि पुरुषैः परकीर्तयो विलोप्याः ॥२४॥ इति । संवत् १२७२ भाद्रपदसुदि १५ बुधे । दू । श्री मु ३। रचितमिदं महासांधिविग्रहक-राजा सलखणसम्मतेन राजगुरुणा मदनेन । स्वहस्तोऽयं महाराज-श्री-अर्जुनवर्मदेवस्य । उत्कीर्णं पं वाप्यदेवेन।
(अनुवाद) ओं। पुरुषार्थों में सर्वश्रेष्ठ धर्म को नमस्कार । १. समस्त पृथ्वी के प्रतिबिंब स्वरूप भूमि को ग्रहण कर जो संसार को आनन्दित करते हैं
ऐसे द्विजेन्द्र आपका कल्याण करें। २. रण में हत क्षत्रियों के रक्त से व्याप्त अस्त होते सूर्य के प्रतिबिम्ब के समान पृथ्वी
जिस दानदाता के लिए लालिमा को धारण किए हुए है उस परशुराम की जय हो।... ३. जिसने अपनी प्राणेश्वरी (सीता) की वियोगाग्नि को युद्ध में मंदोदरी के अश्रुजल से
बुझाया वह राम आप को श्रेय प्रदान करे। ४. भीम के द्वारा जिसके चरण अपने मस्तक पर धारण किये गये, जिसने वंश को चन्द्र
के समान (निर्मल) बनाया, वह युधिष्ठिर सदा विजयी हो। ५. परमार कुल में सर्वश्रेष्ठ, कंस को जीतने वाले की महिमा वाला नरेश श्री भोजदेव
नामक हुआ जिसने सीमाओं तक पृथ्वी को विजित किया।
दिशाओं की गोद तरंगित होने पर जिसकी यशचंद्रिका उदित हो रही है (वैसे) शत्रु ... नरेशों का यश कमलों के समान मुरझा गया।
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२४६
परमार अभिलेख
१२. उसका
७. उसके (पश्चात्) उदयादित्य हुआ जो सदा उत्साह में कुतुहलपूर्ण, असाधारण वीर व
श्रीयुक्त था और जो विरोधियों की अलक्ष्मी का कारण था। ८. कल्पान्त के तुल्य महायुद्धों के होने पर जिसके तीखे बाणों द्वारा कितने अत्यन्त उच्च
नरेश शक्तिशाली सेनाओं सहित उन्मूलित नहीं किये गये ? (महाप्रलय काल में वायु
द्वारा कितने महापर्वत नहीं उखाड़े गये) ९. उससे नरवर्मन् नरेश हुआ जिसने अपने शत्रुओं के मर्मस्थल छिन्न कर दिये। बुद्धिमान
जो धर्म के उद्धार करने में व राजाओं के लिए सीमा स्वरूप था। १०. प्रतिदिन प्रातःकाल स्वयं ब्राह्मणों के लिए ग्रामपद देने से उसने एक पांव वाले धर्म को
अनेक पांव प्रदान कर दिये। ११. उसका पुत्र यशोवर्मन् हुआ जो क्षत्रियों में मुकुट रूप था। उसका पुत्र अजयवर्मन् था
जो विजय व लक्ष्मी के लिए विख्यात था। उसका पुत्र विध्यवर्मन् था जिसकी उत्पत्ति द्वारा (वंश) धन्य हुआ, जो वीर शिरोमणि
था और गुर्जर (नरेश) को हराने में इस महाभज ने (शक्ति) लगाई। १३. रणकुशल जिसका खङ्ग मानो तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए ही धारा नगरी के
उद्धार करने के साथ ही विधारता को धारण कर रहा है। १४. उसीके गुणधर्म वाला, इन्द्र के समान शोभायुक्त पुत्र सुभटवर्मन् भूतल पर धर्म में
आरूढ़ हुआ। १५. सूर्य की कांति वाले दिग्विजयी जिसका प्रताप जलते हुए गुर्जरनगर में दावानल के
बहाने से आज भी गर्जना कर रहा है। (उसके) स्वर्गलोक को जाने पर उसका पुत्र अर्जुन नरेश आज भी पृथ्वी मंडल को अपने
बाहु पर कंकण के समान धारण कर रहा है। १७. बाललीला के समान युद्ध में जयसिंह के पलायन करने पर जिसका यश दिक्पालों के
हास्य के बहाने से दिशाओं में फैल रहा है। १८. साहित्य एवं गायन विद्या के सर्वस्व निधि जिसने मानो सरस्वती देवी का पुस्तक व
वीणा का भार ही उतार लिया हो। १९. तीन प्रकार के वीर जिसने अपनी कीर्ति तीन प्रकार से विकसित की, जगत को तीन
प्रकार से पवित्र करने में उसके अतिरिक्त अन्य कौन ? __वह ही नरनायक सब प्रकार से उदयशील हो कर पगारा प्रतिजागरणक में नर्मदा के उत्तरी तट पर स्थित हथिणावर ग्राम में, पूर्व नरेशों द्वारा दी गई भूमि में से शेष, समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के निवासियों, पटेलों व ग्रामीणों को निर्देश देते हैं-आप को विदित हो कि श्रीयुक्त अमरेश्वर तीर्थ में ठहरे हुए हमारे द्वारा बारह सौ बहत्तर संवत्सर की भाद्रपद पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण पर्व पर रेवा व कपिला के संगम पर स्नान कर, भगवान भवानीपति व ओंकार लक्ष्मीपति चक्रस्वामी (विष्णु) की अर्चना कर, संसार की असारता देख कर, तथा-- २०. इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषयभोग
प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानवप्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।
इस सब पर विचार कर, अदृष्टफल को अंगीकार कर, मुक्तावस्थु स्थान से आये वाजसनेय शाखा के अध्यायी, काश्यपगोत्री, काश्यप क्त्सार नैध्रुव इन तीन प्रवरों वाले, आवसथिक देल्ह के प्रपौत्र,
१६.
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धरमपुरी अभिलेख
२४७
पंडित सोमदेव के पौत्र, पंडित जैनसिंह के पुत्र पुरोहित पंडित श्री गोविन्द शर्मा ब्राह्मण के लिए यह
भूमि, जिसकी चारों सीमाएँ निश्चित हैं, साथ में वृक्षों की पंक्तियों के समूह से व्याप्त, हिरण्य - भाग भोग उपरिकर, घाटों का कर, नमक कर आदि सब कर समेत, साथ में निधि व मड़ा धन, माता-पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिए, चन्द्र सूर्य समुद व पृथ्वी के रहते तक, परम भक्ति के साथ शासन द्वारा जल हाथ में ले कर दान में दी गई है। उसको मान कर वहाँ के निवासियों, पटेलों व ग्रामीणों के द्वारा जिस प्रकार दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि आज्ञा सुन कर सभी उसके लिए देते रहना चाहिये और इसका समान रूप फल जान कर हमारे वंश में व अन्यों में उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये। और कहा गया है-- .. २१. सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब-जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब-तब उसी को उसका फल मिला है।
... २२. अपने द्वारा दी गई अथवा दूसरे के द्वारा दी गई भूमि का जो हरण करेगा वह अपने
पितरों समेत विष्टा का कीड़ा बनता है। २३. सभी इन होने वाले नरेशों से रामचन्द्र बार-बार याचना करते हैं कि यह सभी व्यक्तियों
के लिए समान रूप धर्म का सेतु है, अतः आपको अपने-अपने काल में इसका पालन करना
चाहिये। २४. इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल
समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये।
संवत् १२७२ भाद्रपद सुदि १५ बुधवार । दूतक । श्री मु ३ । यह महासांधिविग्रहक राजा सलखण की सम्मति से राजगुरु मदन द्वारा रचा गया। ये हस्ताक्षर स्वयं महाराज श्री अर्जुनवर्मदेव के हैं। यह वाप्यदेव के द्वारा उत्कीर्ण किया गया।
(६२) धरमपुरी का अर्जुनवर्मन् कालीन भवानीमाता मंदिर अभिलेख ...
__ (संवत् १२७३ व शक ११३८== १२१६ ई.) प्रस्तुत अभिलेख धरमपुरी में भवानीमाता मंदिर में एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण बतलाया जाता है। लेखक ने इसकी खोज की परन्तु यह दिखलाई नहीं पड़ा। इस का विवरण लेले कृत धार स्टेट में परमार अभिलेख, १९४४, पृष्ठ ८८ पर दिया हुआ है। -
अभिलेख में ७ पंक्तियाँ हैं। सभी पंक्तियाँ अत्याधिक जीर्ण अवस्था में हैं। इस कारण इसका प्रमुख ध्येय अनिश्चित है। अनुमानतः उक्त मंदिर में पंडित केवश आदि की नियुक्ति की गई थी। - अभिलेख में विक्रम एवं शक संवतों में तिथि लिखी है। ऐसा परमार अभिलेखों में देखने में नहीं आया है। विक्रम संवत् में यह १२७३ वर्ष है। अन्य विवरण नहीं है। शक संवत् में यह ११३८ भाद्रपद वदि.....शुक्रवार है। ये दोनों ही तिथियाँ शुक्रवार १९ (अथवा २६) अगस्त, १२१६ ई. के बराबर निर्धारित होती हैं।
अभिलेख में अर्जुनदेव के राज्य करने का उल्लेख है। इसके प्राप्तिस्थल व तिथि को दृष्टिगत रखते हुए, इस नरेश का तादात्म्य इसी नाम के परमार राजवंशीय नरेश से किया जा सकता है।
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२४८
परमार अभिलेख
पर्व वणित अभिलेखों के आधार पर अर्जुनवर्मन् के शासन की अवधि १२१०-१२१५ ई. ज्ञात होती है। प्रस्तुत अभिलेख के आधार पर यह अवधि एक वर्ष और अर्थात् १२१६ ई. तक बढ़ाई जा सकती है। अगले अभिलेख (क्र. ६३) से ज्ञात होता है कि १२१८ ई. में देवपालदेव राजसिंहासन पर आरूढ़ था। अतः अर्जुनवर्मन् के शासन का अन्त १२१६ एवं १२१८ ई. के मध्य किसी समय हो गया होगा। - अभिलेख में किसी भौगोलिक स्थान का उल्लेख नहीं है।
(मूलपाठ) १. ओं । स्वस्ति । संवत् १२७३ वर्षे शा२. के ११३८ भाद्रपद वदि . . . . . ३. शुक्रे.... . . . . . . . . ४. ... ... ........श्री म. . ५. अर्जुनदेव विजयराज्ये ......!
६. नियुक्त पं श्री केशव प्रश-- . ७. ति
(६३)
हरसूद का देवपालदेव कालीन प्रस्तरखण्ड अभिलेख
(सं. १२७५ = १२१८ ई.) प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है जो १८५० ई. में पूर्वी निमाड़ जिले में हरसूद में एक ध्वस्त मंदिर में प्राप्त हुआ था। इसके उल्लेख क्रमशः एफ. इ. हाल ने ज. ए. सो. बं., १८५९, भाग २८, पृष्ठ १-८; रि. आ. स. वे. स., भाग १०, पृष्ठ १११-१२; ज. अमे. ओ. सो., भाग ६, पृष्ठ ५३६-३७, कीलहान ने इं. ऐं., १८९१, भाग २०, पृष्ठ ३१०-१२; उत्तर भारतीय अभिलेखों की सूचि क्र. २०३ पर किया। प्रस्तरखण्ड वर्तमान में अमेरिकन ओरियंटल सोसाईटी ग्रन्थालय, न्य हेवन, अमेरिका में सुरक्षित है।
__ अभिलेख का आकार ३३.५४ ३१ सें. मी. है। इसमें १८ पंक्तियां हैं। प्रस्तर खण्ड हरे रंग की चिकनी कठोर शिला है। लेख के नीचे मध्य में दोहरी पंक्तियों के चतुष्कोण में शिव का रेखाचित्र बना है। इसके दाहिनी ओर चार व बांई ओर तीन स्त्री-पुरुषों के रेखाचित्र हैं जो सभी हाथ जोड़े खड़े हैं। संभवत. ये सभी मंदिर-निर्माता कुटम्ब के सदस्य हैं।
... अक्षरों की बनावट १३ वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर सुन्दर गहरे खुदे हैं । अभिलेख की स्थिति अच्छी है। अक्षरों की लम्बाई १ से १॥ सें. मी. है। भाषा संस्कृत है एवं गद्य-पद्यमय है। इसमें विभिन्न छन्दों में १४ श्लोक हैं। शेष गद्य में है। यह एक प्रशस्ति है, परन्तु त्रुटियों से भरपूर है। इसका लेखक देवशर्मन् कोई विशिष्ट कवि नहीं था।
____ व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से व के स्थान पर व, स के स्थान पर श, श के स्थान पर स, म् के स्थान पर अनुस्वार, ख के स्थान पर ष बना दिये गये हैं। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है। कुछ अन्य भी त्रुटियां हैं. जो पाठ में सुधार दी हैं।
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"हरसूद अभिलेख
२४९
अभिलेख की तिथि गद्य व पद्य में अंकित है जो संवत् १२७५ मार्गशीर्ष सुदि ५ शनिवार है । यह शनिवार २४ नवम्बर, १२१८ ई. के बराबर है । इसका प्रमुख ध्येय धारा नगरी में शासनकर्ता नरेश देवपालदेव के राज्य में हर्षपुर में केशव नामक एक व्यापारी द्वारा शिव मंदिर के निर्माण करवाने का उल्लेख करना है । यद्यपि यह एक निजि अभिलेख है, तथापि राजकीय अनुमति प्राप्त कर के ही निस्सृत किया गया होगा ।
पंक्ति ४-५ में धारा नगरी में देवपालदेव के राज्य करने का उल्लेख है जिसके नाम के साथ अत्यन्त लम्बी राजकीय उपाधियां लगी हैं -- " समस्त ख्याति से युक्त, प्राप्त किये हुए पांच महाशब्दों के अलंकारों से शोभायमान, परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर, परममाहेश्वर श्री लिम्बर्य के प्रसाद एवं वरदान से प्रताप को प्राप्त करने वाला ।"
श्लोक क्र. ६-९ में दानकर्ता व्यक्ति के वंश का ब्यौरा है । इसमें उन्दपुर के निवासी दोसि विल्हण एवं ढल पिता-पुत्र श्रृंखला में लिखे हैं । ढल के छोटे भाई केशव ने वहां शिव मन्दिर एवं तालाब बनवाया। उसके पास हनुमान, क्षेत्रपाल, गणेश, कृष्ण, नकुलीश व अम्बिका की प्रतिमायें स्थापित की।
अभिलेख अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यह देवपालदेव का प्रथम प्राप्त अभिलेख है । इसमें यद्यपि उसके वंश का उल्लेख नहीं है, परन्तु इसकी तिथि, प्राप्ति स्थल एवं नरेश की उपाधियों के आधार पर इसको परमार राजवंशीय नरेश देवपालदेव माना जा सकता है। उसका पिता महाकुमार हरिश्चन्द्रदेव एवं बड़ा भाई महाकुमार उदयवर्मन् था। प्रतीत होता है कि उदयवर्मन् निःसंतान मर गया । अतः देवपालदेव उसका उत्तराधिकारी बना। इस प्रकार वह भोपालहोशंगाबाद - निमाड़ क्षेत्र का स्वामी बन गया। इसी बीच संभवतः संवत् १२७३ तदनुसार १२१६ ई. में धार में राजवंशीय नरेश अर्जुनवर्मन् की भी निःसंतान मृत्यु हो गई । अन्य कोई उत्तराधिकारी न होने के कारण, देवपालदेव को राजसिंहासन सौंप दिया गया। इस प्रकार संयोगवश देवपालदेव द्वारा परमार राजवंश की दोनों शाखाओं को मिलाकर एक कर दिया गया ।
इस संभावना की पुष्टि अभिलेख में देवपालदेव की लम्बी उपाधि से होती है। यहां देवपालदेव अपने पिता व बड़े भाई की महाकुमारीय कनिष्ट उपाधि 'समस्त प्रशस्तोपेत समधिगत पञ्चमहाशब्दालंकार' को धारण कर विराजता है, और इसके साथ ही राजवंशीय उपाधि 'परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' से भी अपने को विभूषित करता है। इसके अतिरिक्त वह स्वयं को 'परममाहेश्वर' घोषित करता है। साथ ही यह भी कि उक्त सभी "देवी लिम्बार्य के प्रसाद व वरदान से" प्राप्त हुआ। प्रभाचन्द रचित प्रभावक चरित् में लिम्बजा ( लिम्बार्य ) को नरेश की वंश-देवी लिखा है (सम्पादन मुनि जिनविजयजी, पृष्ठ १४३ ) । यह देवपालदेव का प्रथम प्राप्त अभिलेख है । अगले १२२५ ई. के मांधाता अभिलेख (क्र. ६५) में वह केवल राजवंशीय उपाधि ही धारण करता है। कनिष्ठ उपाधि त्याग देता है ।
भौगोलिक स्थानों में धार सुविख्यात है । हर्षपुर आधुनिक हरसूद है जहां से अभिलेख प्राप्त हुआ था। उन्दपुर छोटी तवा पर स्थित उन्दवा ग्राम है जो हरसूद से पश्चिम को ८ कि. मी. है।
( मूलपाठ )
१. ओं नमः शिवाय ॥
२.
सर्व्वकर्म समारम्भे गीर्व्वाणैर्यो नमस्कृतः । सं मया पार्व्वतीपुत्रो हेरंव: ( ब ) स्तूय -
तेऽनिशं ॥१॥
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२५०
४. संवत् पञ्चसप्तत्यधिक- द्वादशशतां (तें) के १२७५ मार्ग सुदि ५ स ( श ) नौ । स्वस्ति । श्रीमद्धारा (यां) समस्त प्रशस्तोपेत
१०.
५. सं (सम) धिगत पञ्चमहाशब्दा (ब्दा ) लंकार- विराजमान परमभट्टारक महारा [जा]धिराजपरमेस्व ( श्व) र परममाहेस्व ( श्व) र-श्री
११.
१२.
६. लिम्बा (म्बा ) र्य - प्रसाद-वरलब्ध (ब्ध ) प्रताप- श्रीमद्देवपालदेव चरणानां महीप्रवर्द्धमान-कल्याणविजयराज्ये सति
१३.
१४.
१५.
भारती भवतां भूयाद्वागुल्लासविका [ स ( श ) ] दा । जगज्जयं (य) - तमोधस्तात्कूर्व्वती भा रवेरिव ॥ २॥ |
१६
कैशा : ( क अ ईशा : ) कज्जालिकाशाभा - हुंकारारि-पिनाकिनः । fafariana दधुः शं वोम्बुजाम्दु (म्बु) नगौकसः || ३||
१७.
11
अधि पञ्च साह (सप्त) त्या द्वादशाब्द (ब्द ) शते शके । वत्सरे चित्रभानौ तु मार्गशीर्षे सिते दले ||४||
पञ्चम्यंतकसं
योगे नक्षत्रे विष्णुदैवते । योग (गे) हर्षणसंज्ञे तु तिद्ध- धातृदेवते ||५|| श्रीमदपुरेस (पू) र्व्वमासीद्दोसीति
पुरुषः । ख्यातः सर्व्वगुणैर्लोके वि (त्रि) लोके सम्मतः सताम् || ६ || तदौरसः शुद्धमतिर्व्व ( ब ) भूव श्री वि (बि) ल्ह -
नङ्गसमानमूर्तिः । तस्यात्मजोभूद्वणिजां महात्मा श्री ढ़लनामा महनीय - कीर्तिः ॥ ७ ॥ तस्यानुजः केशवनामधेयो वणिक्पथे शुद्धमतिर्ज्जने रतिः (तः ) । आशी (सी) तदा धर्मनिकेतनः (नं) सदा भूदेवभक्तः स्वजनेतिरक्तः
||५||
नाकार मनोध केशवेन सुजन्मना । नलिनीदल नीरेण -
पश्यता सदृशं वपुः ॥ ९॥
हर्षवत्पुरादेशे विभागे लोकनन्दनं । चकारायतनं शम्भोरं भो-निधि
समं सरः ॥ १० ॥
परमार अभिलेख
तत्सन्निधाने हनुमतृ क्षे] त्रपालगणेश्वरान् । स्थापयामास कृष्णादीन्नकुलीशम [था] -
वि (बि) काम् ॥११॥
लोकानुराग-तस्यागाद्विप्र-सन्तर्पणात्सदा । देवाच्चैनाग्नि- होमाभ्यामज्जितं सुमह
द्यशः ।।१२।।
लो ब्रू (ब्रू) ते केशवः सत्यवाक्यं मत्प्रासाद यो नरः पश्यतीमं (मम् ) । तासं मां भूतले सुप्र
सिद्धं जानन्त्वेते सज्जनाः] सर्व्वदैव ||१३||
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१८.
हरसूद अभिलेख
२५१ - महाजनानुर (रा)गेण [श्रीयो मम वितन्वतां (ता)। कृता श
___स्ता प्रशस्तै (शंसे) यं धीमता देवशर्मणा ॥१४॥ शुभं भवतु लेष (ख) क पाठकयोः सव्वे (सर्व) दैव ।। शिवमस्तु ।
(अनुवाद) १. ओं। शिव को नमस्कार।
प्रत्येक कार्य के आरम्भ में देवताओं के द्वारा जो नमस्कृत किया जाता है उस पार्वतीपुत्र गणेश की मेरे द्वारा सदा स्तुति की जाती है ।।१।।
सूर्य की कांति जिस प्रकार अंधकार को नष्ट करती है, उस प्रकार वह सरस्वती देवी जगत की जड़ता को नष्ट करते हुए आपकी वाणी का विकास कर सदा उल्लास प्रदान करे ॥२॥ ___ कमल भ्रमर एवं काशपुष्प के समान कांति वाले, हुंकार चक्र एवं पिनाक नामक धनुष को धारण करने वाले, हंस गरुड़ एवं नन्दि द्वारा संचार करने वाले, कमल क्षीरसमुद्र
एवं कैलाश पर्वत पर निवास करने वाले ब्रह्मा विष्णु महेश आपका कल्याण करें॥३।। ४. संवत् बारह सौ पचत्तर १२७५ मार्ग सुदि ५ शनिवार। स्वस्ति । श्रीयुक्त धारा में समस्त
ख्याति से युक्त ५. प्राप्त किये हुए पांच महाशब्दों के अलंकार से शोभायमान, परमभट्टारक महाराजाधिराज
परमेश्वर परममाहेश्वर श्री ६. लिम्बार्य के प्रसाद व वर से प्रताप को प्राप्त करने वाले श्रीमान् देवपालदेव के चरणों
के द्वारा पृथ्वी के वृद्धिंगत होने से कल्याण (युक्त) विजय राज्य में ___ संवत्सर के बारह सौ पचत्तरवें वर्ष में मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष में चित्रमान नामक संवत्सर में ॥४॥
पंचमी तिथि शनिवार के संयोग में, विष्णु दैवत (श्रवण) नक्षत्र में, हर्षण नामक योग में, धात दैवत करण में ॥५॥
श्रीयुक्त उन्दपुर में पहिले दोसि नामक व्यक्ति था जो लोक में व त्रैलोक्य में सर्वगुणों से विख्यात था व सज्जनों को मान्य था।६।। .
उससे उत्पन्न पुत्र श्री विल्हण शुद्धबुद्धि वाला हुआ जो कामदेव के समान सुन्दर था। उसका पुत्र श्री ढ़ल नामक था जो व्यापारियों में महात्मा व महान कीर्तियुक्त था ।।७।।
उसका छोटा भाई केशव नामधारी था जो व्यापार में शुद्धमति, धर्म का निकेतन, ब्राह्मण-भक्त और सदा स्वजनों व अन्यजनों में अनुराग रखने वाला था ॥८॥ --
सुजन्मे उस केशव ने इस सुन्दर शरीर को कमलदल पर पड़े जल के समान (क्षण भंगर) देख कर अपना मन धर्म में लगाया ॥९॥ ____ उसने हर्षपुर में लोगों को आनन्द देने वाला शिव का मंदिर व समुद्र के समान एक सुन्दर तालाब बनवाया ॥१०॥ ___ उसके पास श्रेष्ठ हनुमान, क्षेत्रपाल, गणेश, कृष्ण, नकुलीश व अम्बिका की मूर्तियां . स्थापित करवाईं ॥११॥ ___ब्राह्मणों को सदा संतुष्ट करने से लोकानुराग प्राप्त करने वाले, देवपूजा व अग्नियज्ञों के करने से उसने बहुत अधिक यश की प्राप्ति की ॥१२॥
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२५२
परमार अभिलेख
लोक में केशव यह सत्यवाणी कहता है कि मेरे इस मंदिर को जो व्यक्ति देखता है, भूतल पर सो कर सिद्धि को प्राप्त हुए (अर्थात दिवंगत हुए) मुझ को सज्जन अपना दास सदा मानता रहे ॥१३।।
महापुरुषों के प्रति अनुराग से मेरे कल्याण को विस्तृत करने की इच्छा रखने वाले
बुद्धिमान देवशर्मा ने यह सुन्दर प्रशस्ति निर्मित की ।।१४॥ १८. सभी देवता लेखक व पाठकों के लिये शुभ हों। कल्याण हो।
(६४) कर्णावद का देवपालदेव का मंदिर स्तम्भ अभिलेख
(सं. १२७५ = १२१८ ई.) । प्रस्तुत अभिलेख उज्जैन जिले में कर्णावद ग्राम में कर्णेश्वर मंदिर में एक प्रस्तर स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसका उल्लेख ए. रि. आ. डि. ग., संवत् १९७४, क्र. ३४; द्विवेदी कृत ग्वालियर राज्य के अभिलेख क्र. ९६ पर किया गया है।
प्राप्त विवरण के अनुसार अभिलेख ६ पंक्तियों का है। भाषा संस्कृत है। वर्तमान में यह बहुत क्षतिग्रस्त हो गया है। इसमें देवपालदेव के शासनकाल के एक दान का उल्लेख है।
विशेष-[हरिहर निवास द्विवेदी ने अपने ग्रन्थ में क्र. ७८ पर कर्णावद से प्राप्त देवपाल परमार नामयुक्त एक अन्य अभिलेख का उल्लेख किया है। उसकी तिथि संवत् १२१५ (?) तदनुसार ११५८ ई. दी है। यह तिथि अशुद्ध प्रतीत होती है। संभवतः यह संवत् १२७५ रही होगी। संवत् १२१५ देवपालदेव के शासनकाल से काफी पूर्व है। अन्य संदर्भ भण्डारकर की उत्तरी अभिलेखों की सूची क्र. १९१२ दिया है ।
. .मान्धाता का देवपालदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
__ (सं. १२८२=१२२५ ई.) का प्रस्तुत अभिलेख ३ ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण हैं जो १९०५ ई. में मान्धाता में पत्थर की एक पेटी में मिले थे। इनका उल्लेख ज्ञान प्रकाश, पूना एवं १९०७ में सुबोधसिंधु, खण्डवा में किया गया। कीलहान ने इनका सम्पादन एपि. इं., भाग ९, पृष्ठ १०३-११७ पर किया। ये केन्द्रीय संग्रहालय, नागपुर में सुरक्षित हैं।
ताम्रपत्र आकार में ४५ x ३१ सें. मी. । अभिलेख प्रथम व तीसरे ताम्रपत्र पर एक ओर व दूसरे पर दोनों ओर उत्कीर्ण है। इनमें दो-दो कड़ियां पड़ी हैं। अभिलेख ८० पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १९, दूसरे पर १९ व २१ एवं तीसरे पर २१ पंक्तियां हैं । अक्षर सुन्दर हैं, परन्तु बाद में कहीं कहीं पर काट कर या मिटा कर ठीक किये गये हैं। इस कारण छेनी के कुछ व्यर्थ के निशान बन गये हैं। ऐसे निशान तीसरे ताम्रपत्र पर अधिक हैं। इसी पर नीचे दाहिनी ओर गरुड़ का रेखाचित्र बना है। वह हाथ जोड़े है एवं उसके दोनों ओर फन फैलाये दो नाग बने हैं।
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मान्धाता अभिलेख
२५३
अक्षरों की बनावट १३ वीं सदी की नागरी लिपि है । ये प्रायः १.२ सें. मी. लम्बे हैं । पंक्ति क्र. ४० व ५४ में कुछ अक्षर पंक्ति के ऊपर छोटे आकार में बाद में जोड़े गये हैं । श्लोकों के क्रमांक हैं। पंक्ति २८, ३४, ४९ व ५० में आधा अंक दो खड़े दण्ड द्वारा बनाया गया है । भाषा संस्कृत है एवं गद्य-पद्यमय है । इसमें २७ श्लोक हैं । शेष गद्य में हैं । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है । अनुस्वार का प्रयोग सभी स्थलों पर है। संधि की त्रुटियां भी हैं । कुछ शब्द ही गलत हैं । इन सभी को पाठ में ठीक कर दिया है।
अभिलेख की तिथि मध्य में शब्दों में व अन्त में अंकों में संवत् १२८२ भाद्रपद सुदि १५ गुरुवार सोमपर्व लिखी है जो १९ अगस्त १२२५ई. के बराबर है । उस दिन चन्द्रग्रहण था । परन्तु दिन गुरुवार न होकर मंगलवार था । इसका प्रमुख ध्येय नरेश देवपालदेव द्वारा महुअड प्रतिजागरणक में सतजुणा ग्राम के दान करने का उल्लेख करना है । इस ग्राम को ३२|| भागों में विभाजित कर ३२ ब्राह्मणों में बांटा गया था।
दानकर्ता नरेश की वंशावली में क्रमश: भोजदेव, उदयादित्य नरवर्मन्, यशोवर्मन्, अजयवर्मन् विध्यवर्मन् सुभटवर्मन्, अर्जुनवर्मन् एवं देवपालदेव हैं । इनके परमार वंश का उल्लेख भी है । पंक्ति क्र. २२-७१ में दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मणों का विवरण है। इनमें से २६ को एकएक भाग, ३ को आधा-आधा भाग, दो को डेढ़-डेढ़ भाग व एक को २ भाग प्राप्त हुए। प्रत्येक ब्राह्मण के गोत्र, प्रवर, उसके पितामह व पिता का नाम एवं उसके मूल स्थान का उल्लेख । इनके नामों के साथ उपाधि अथवा उपनाम है जो प्रायः उसके धार्मिक कृत्यों को प्रदर्शित करते हैं । ये उपनाम संकेत रूप केवल प्रारम्भिक अक्षर लिख कर दर्शाये गये हैं जैसे: अग्नि- अग्निहोत्रिन्; आव – आवसथिक; उपा—- उपाध्याय; च - चतुर्वेदिन् ; ठ -ठक्कुर; त्रि — त्रिवेदिन्; दी -- दीक्षित ; द्वि-द्विवेदी ; पं या पंडि— पंडित; पाठ — पाठक; याग्नियाग्निक शु – शुक्ल; श्रोत्रि — श्रोत्रिय । इनके अतिरिक्त एक ब्राह्मण की राजन् (पं. ३७) व अन्य की महाराज पंडित (पंक्ति ३९ ) उपाधि है । पंक्ति क्र. ७१ में एक ब्राह्मण को पञ्च उपाधि है जो पंचकुल, पंचकल्पित अथवा पंचोली हो सकती है। इसके अतिरिक्त २० ब्राह्मणों की तीनों पीढ़ियों की उपाधि एक समान है; सात के पितामह व पिता की उपाधियां एक समान है, परन्तु स्वयं की भिन्न है। एक ब्राह्मण के पितामह की उपाधि भिन्न है, परन्तु पिता व स्वयं की एक है, जबकि चार ब्राह्मणों के पितामह, पिता व स्वयं के उपनाम पूर्णतः भिन्न हैं। आगे इन ब्राह्मणों की सूचि दी जा रही है ।
प्रस्तुत अभिलेख का महत्व अत्याधिक है । इससे निश्चित होता है कि देवपालदेव राज - सिंहासन पर अर्जुनवर्मन् का उत्तराधिकारी बना था । उसका पिता हरिश्चन्द्र भोपाल क्षेत्र में महाकुमारीय शाखा से संबद्ध था, जहां उसका बड़ा भाई गद्दी पर आसीन था । संभवत: उसके निस्संतान मरने पर छोटा भाई देवपालदेव भोपाल क्षेत्र में सिंहासनारूढ़ हुआ । इसी बीच संभवत: संवत् १२७३ तदनुसार १२१६ ई. के आसपास धार के राजवंशीय नरेश अर्जुनवर्मन् का भी निधन हो गया। कोई अन्य उत्तराधिकारी न होने के कारण देवपालदेव को वह सिंहासन भी सौंप दिया गया। इस प्रकार संयोगवश देवपालदेव ने परमार वंश की दोनों शाखाओं को मिला कर पुनः एक कर दिया ।
भौगोलिक स्थानों में माहिष्मती नर्मदा के किनारे पर आधुनिक माहेश्वर है । सताजुणा ग्राम मान्धाता से दक्षिण पश्चिम में १३ मील दूर सतजन ग्राम है । महुअड ग्राम सतजन से २५
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क्र. अभिलेख
की पंक्ति
मूल स्थान
वेद अध्ययन गोत्र की शाख
प्रवर
३
पितामह
पिता
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण का नाम
प्राप्त । भाग
१. २२-२४
आश्रम स्थान वाजिमाध्यंदिन पराशर
२. २४-२६ महावन स्थान
आश्वलायन, पवित्र
औदल्य
३. २६-२७ ४. २७-२८ ५. २९-३० ६. ३०-३१ टकारी स्थान
माध्यंदिन सामवेद कौथुम
कात्यायन भारद्वाज
माध्यंदिन
भारद्वाज
७. ३१-३३ ८, ३३-३४ त्रिपुरी स्थान ९. ३४-३६ मुतवथू
पराशर शक्तृ श्रोत्रि. दामोदर श्रोत्रि. ब्रह्म श्रोत्रि. गंगाधर शर्मा १ वसिष्ट गार्गय गौरि दी. गंगाधर आवस्थिक शुक्ल भद्रेश्वर शर्मा १ वीतांगिरस
महादित्य दी. सिंहकण्ठ शु. मधुकण्ठ शु. चन्द्रकण्ठ शर्मा १ दी. पद्मस्वामि दी. त्रिलोचन दी. नारायण शर्मा १॥
त्रि. रामेश्वर त्रि. जसोधर त्रि. सूर शर्मा १ भारद्वाज आंगिरस त्रि. डालण त्रि. आशाधर त्रि. विश्वेश्वर शर्मा १ वार्हस्पत्य
दी. केल्हण दी. मधु दी. राम शर्मा पं. हरिधर पं. महीधर पं. भृगु शर्मा
१॥ काश्यप वत्सार च. पृथ्वीधर च. आशाधर अग्नि. नारायण शर्मा १ नैध्रुव परावसु कांकायन ठ. भरतपाल ठ. डाल्लण राज. गोसल शर्मा १ कैकस काश्यप वत्सार चतुर्वेद जनार्दन चतुर्वेद धरणीधर महाराज पंडित २ वसिष्ठ
श्री गोसे शर्मा भार्गव च्यवन च. ... च. विष्णु च. रामेश्वर शर्मा आप्नुवान और्च जामदग्नी
आश्वलायन
काश्यप
१०. ३६-३७ अकोला
परावसु
११. ३७-३९ मथुरा
आश्वलायन
वसिष्ठ
१२. ३९-४१ मथरा स्थान
आश्वलायन
भार्गव
परमार अभिलेख
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क्र. अभिलेख मूल स्थान
की पंक्ति
वेद अध्ययन की शाखा
गोत्र
प्रवर.
पिता
पितामह
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण का नाम
प्राप्त भाग
मांधाता अभिलेख
१३. ४१-४२ मथुरा स्थान
आश्वलायन
काश्यप
च. गदाधर शर्मा
१४. ४३-४४
भार्गव
च. गर्भेश्वर शर्मा
१५. ४४-४६
काश्यप
च. लोहट शर्मा
"
१
गौतम
च. पुरुषोत्तम शर्मा
१
१६. ४६-४७ डिम्डवानक शांखायन
स्थान १७. ४७-४९ मुतावथू स्थान माध्यंदिन
-
काश्यप
द्वि. गदाधर शर्मा
काश्यप वत्सार च. समुद्धर
च. देवधर नैध्रुव भार्गव वैतहव्य च. पवित्र च. धरणीधर सावेतस काश्यप वत्सार च. समुद्धर
च. देवधर नैध्रुव गौतम आंगिरस च. धरणीधर च. ब्रह्म औतत्थ्य काश्यप वत्सार द्वि. गोविन्द द्वि. वासधर नैध्रुव
दी. गंगाधर दी. केशव गौतम आंगिरस पं. मदन प. कन्हड़
औतत्थ्य भार्गव च्यावन त्रि. जनार्दन त्रि. नरसिंह आप्नुवान और्व जामदग्न्य आंगिरस भर..स अग्नि. छीतू अग्नि. धरणीधर मुद्गल शांडिल्य अशित याग्नि. नागदेव याग्नि. कृष्ण देवल
-
४९-५० १९. ५०-५२ महावन स्थान कौथुम
(?) उदै शर्मा पं. कुलधर शर्मा
गौतम
१
२०. ५२-५३ टकारी स्थान
वत्स
आव. अभिनन्द शर्मा
१
२१. ५३-५५ मध्यदेश
माध्यंदिन
मुद्गल
अग्नि. अनन्त शर्मा
१
२२. ५५-५६
,
,
शांडिल्य
याग्नि. स्थानेश्वर
१
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क्र.
अभिलेख की पंक्ति
२३. ५६-५८
२४. ५८-५९
२८. ६४-६५
मूल स्थान
२५. ६०-६१
२६. ६१-६२ सरस्वती
२९. ६६-६७
मथुरा
३०. ६७-६९
11
२७. ६३-६४ मध्यदेश
13
"
"
३१. ६९-७०. मथुरा
३२. ७०-७१ हस्तिनुपुर
वेद अभ्ययन गोल
की शाखा
आश्वलायन धौम्य
राणायिनी
"1
कठ
माध्यंदिन
"
"
36
आश्वलायन
कौथुम
भारद्वाज
""
काश्यप
त्रि. ऋषि हरितकुत्स आंगिरस अंबरीष च विजयी यौवनाश्व
शांडिल्य
मार्कण्डेय
भारद्वाज
कौत्स
प्रवर
पराशर
काश्यप वत्सार च. विष्णु
नैध्रुव
आंगिरस वार्हस्पत्य त्रि. माधव
भारद्वाज
"1
पितामह
17
काश्यप वत्सार उपा. नारायण
नैध्रुव
अशित देवल
शांडिल्य
भार्गव च्यवन आप्नुवान और्व्व
जामदग्न
अग्नि. कटुक
अग्नि. छीतू
आंगिरस वार्हस्पत्य द्वि. नारायण
भारद्वाज
आंगिरस अम्बरीष च. हरि
यौवनाश्व
पराशर शक्तृ पञ्च. कालड़
वसिष्ठ
पिता
च. साधारण
त्रि. सोमेश्वर
त्रि. मार्कण्ड
च. अजयी
अग्नि. जसदेव
दी. पुरुषोत्तम
उपा. दामोदर
द्वि. पद्मनाभ
च. जनार्द्दन
पञ्च. कुमर
दान प्राप्तकर्ता
ब्राह्मण का नाम
च. उधर शर्मा
त्रि. कुलधर शर्मा
त्रि. मधुसूदन शर्मा
च. अल्लि शर्मा
दी. लोहड़ शर्मा
आव. नरसिंह शर्मा
आव. मार्कण्डेय शर्मा
पाठ. वायुदेव शर्मा
च. राजे शर्मा
पंडि. कुसुमपाल शर्मा
प्राप्त
भाग
१
१
१
१
१
१
१
१
१
२५६
परमार अभिलेख
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मांधाता अभिलेख
२५७
मील दक्षिण की ओर मोहोड ग्राम है । दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मणों के मूल निवास स्थलों में महावन स्थान उत्तरप्रदेश के मथुरा जिले में वर्तमान महावन है। त्रिपुरी स्थान जबलपुर से ६ मील पश्चिम में वर्तमान तेवर है । मथुरा स्थान वर्तमान मथुरा है । डण्डवानक स्थान संभवत: जोधपुर के पास दिवान है | मुतावथ स्थान अर्जुनवर्मन् के अभिलेखों में उल्लिखित मुक्तावस्थु स्थान अथवा मुक्तावसु स्थान है । हस्तिनुपुर संभवतः नर्मदा के किनारे पगारा प्रतिजागरणक के अन्तर्गत afaणावर था । टकारी स्थान, आश्रम स्थान व सरस्वती स्थान का ठीक-ठीक समीकरण सरल नहीं है । मध्यदेश देश का मध्यवर्ती भूभाग था ।
१. ओं । ओं नमः पुरुषार्थ - चूडामन्ये (णये ) धम्मीय |
३.
४.
५.
६
७.
मूलपाठ ( प्रथम ताम्रपत्र- पृष्ठ भाग )
प्रतिविवि (बिम्ब ) - निभाद्भूमेः कृत्वा साक्षात् प्रतिग्रहं । जगदाव्हा (हला) दयन् दिश्या [द्] द्विजे म् (जें ) -
द्रो मङ्गलानि वः || १॥
जी (या) परशुरामोसौ क्षत्रः क्षुण्णं रणाहतैः । सन्ध्या कर्क - वि (बि) म्बं एवोर्ध्वो दातुर्यस्य ऐति ताम्त्र ( म्र) ताम् ||२||
येन मन्दोदरीवाष्प - वारिभिः स (श) मितो मृधे ।
प्राणेस्व ( श्व) री-वियोगाग्निः सः रामः श्रेयसेस्तु वः ॥ ३ ॥
भीमेनापि
'धृता मूर्द्धनि यत्पादा:
युधिष्ठिर:
ir (शा) द्येनेन्दुना जीयात्सु ( त्स्व ) तुल्य इव निर्मितः || ४ || परमार कुलोत्तंसः कंसजिन्महिमा नृपः ।
श्री भोजदेव इत्या
सीन्नासीर-क्रान्त भूतल ः ||५||
यद, यशश्चन्द्रिकाद्योते (कोदेति) दिगुत्सङ्ग तरंगिते । द्विषन्नृप यश: पुञ्जपुंडी ( डरी ) कैनिमीलितं ॥ ६ ॥
ततोभूद् उदयादित्य नित्योत्साहक कौतुक (की) । असाधारण - वीर श्रीरश्रीहेतुविरोधिनाम् ॥७॥ महाकलः (लह) - कल्पान्तो (न्ते ) यश्योद्दामभिरासु (शु) - गैः ।
कति नोन्मूलितास्तुङ्गा भूभतः कटकोल्वणाः ॥ ८ ॥ तस्माच्छिन्न- द्विषन्मर्मा नरवर्मा नराधिपः । धर्मो (र्माभ्युद्धरणे धीमानभूत्सीमा
महीभुजाम् ।।९।। प्रतिप्रभातं विप्रभ्योदते (त्तै) ग्रम- पादैः (पदैः) स्वयं । aayari निन्ये धर्मो येनैकपादपि ॥१०॥
तत्या (स्या ) जनि यशोवर्मा
पुत्रः क्षत्रिय शेखरः । तस्मादजयवर्माभूज्जयश्रीविश्रुतः शु (सु) तः ॥ ११ ॥
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परमार अभिलेख
1
.
तत्सूनुर्वीर-मूर्धन्यो धन्योत्पति (त्ति) रजायत । गूर्जरोच्छेद
निव्व (ब)धी विन्ध्यवर्मा महाभुजः ।।१२।। धारयोद्ध तया साद दधाति स्म त्रिधारतां । सांयुगीनस्य यस्यासिस्त्रात् लोकत्रयीमिव ।।१३।। तस्यामुष्यायणः पुत्रः सुत्राम-श्रीरथाशिषत् । भूपः सुभटवर्मेति धर्मे तिष्ठा (ठ)न्महीतलं (लम्) ।।१४।। यस्य ज्वलति दिग्जेतुः प्रतापस्तपन-धु
तेः। दावाग्निच्छद्मनाद्यापि गज्जर्द (र्न ) गुज्ज (ज) र-पत्तने ।।१५।। देवभूयं गते तस्मिन्नन्दनोज्जन-भूपत्तिः (तिः)। दोष्णा धत्तेधुना-धात्रीवलयं वलय
यथा ।।१६।। वा (बा)ललीलाहवं यस्य जयसिंहे पलायिते । दिक्पालहासव्याजेन यशो दिक्षु विजृ भितं (तम्) ।।१७।। काव्यगांधर्व-सर्वस्वनिधिना
... येम (न) साम्प्रतं । भारावतरणं देव्याश्चक्रे पुस्तकवीणयोः ।।१८।। येन विविध-वीरेण विघा पल्लवितं यशः । धवलत्वं दधुस्त्रीणि ज
. गंति कथमम्य (न्य ) था ।।१९।। अथाथिनामपुण्येन पुण्येन स्वर्ग-सुभ्रवां । सोऽद्भू (भु)तत्यागशीलश्च शृि(0) गारी च दिवं गतः ।।२०।।
तः परमारचन्द्रस्य हरिश्चन्द्रस्य नन्दनः । ररक्ष मालवक्षोणी देवपाल: प्रतापवान् ।।२१।। पवित्र-करपद्मश्य (स्य) दानवारि-विजि
भितः । न विद्मो देवपालस्य देवपालस्य चान्तरम् ।।२२।।। स एष नरनायक: सर्वाभ्युदयी महअड़-प्रतिजागरणके सता१८. जुणाग्रामे समस्त-राजपुरुषान्वा (ब्राह्मणोत्तरान्प्रति-निवाशि (सि) पट्टकिल-जनपदादींश्च
वो (बो)धयत्यस्तु वः संविदि१९. तं यथा श्री माहिष्मती-स्थिरैरस्माभिह (भिः) -द्वयशि (शी) त्यधिक-द्वादशशत सम्व (संव) त्सरे भाद्रपदे मासे पौर्णमास्यां सो
(द्वितीय ताम्रपत्र- अग्रभाग) २०. म पर्वणि रेवायां स्नात्वा श्रीदैत्यसूदन-सन्निधौ भगवन्तं भवानीपति समभ्यर्च्य संसारस्यासारतां दृष्ट्वा । तथा हि ।
ताम्रविभ्रममिदं वशुधौ (सुधा) धिपत्य मापातमात्रमधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्त्रि (स्तृ) णाग्रजल-विन्दुसमा नराणां ध
• र्मः सखा परमहो परलोकयाने ।।२३।।
वा
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मान्धाता अभिलेख
इति सर्व्वं विमृश्यादि (दृ) ष्ट-फलमङ्गि (ङ्गी) कृत्य आश्रमस्थान-विनिर्गताय वाजिमाध्यंदिन
शा
२५९
२३. खाध्यायिने पराश[र] गोत्राय पराशाशकृ ( शरशक्त) - वशिष्ठेति विप्रवराय श्रोति दामोदरपौत्राय श्रोत व ( ब्रह्मपुत्राय श्रोत्रि गंगाध -
२४. रं स ( श) र्म्मणे व्रा (ब्रा) ह्मणाय वंटकमेकं १ महावनस्थान विनिर्गताय पवित्रगोत्राय गग्ग - गौरिवीतांगिरसेति त्रिप्रवराय आश्व
२५. लायन - शाखाध्यायिने दी गंगाधर पौवाय आवश (स) थिक महादित्य-पुत्राय शुक्ल भद्रेस्व ( श्व) रस (श) र्म्मणे व्रा (ब्रा) ह्मणाय वटकमे
२६. कं १ महावनस्थान - विनिर्गताय पवित्रगोत्राय गाय गौरिवीतांगिरसेति त्रिप्रवराय आश्वलायन - शाखाध्यायिने दी शि ( सि ) ह -
२७. कण्ठ-पौत्राय शु मधुकण्ठपुत्राय शु चन्द्रकण्ठस (श) र्म्मणे व्रा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १ महावनस्था[न]-विनिर्गताय औदल्यगोवाय मा
२८. ध्यंदिन - शाखाध्यायिने दी पद्मस्वामि-पौत्राय दी त्रिलोचनन्पुत्राय दी नारायणस (श) म्र्मणे व्रा (ब्रा) ह्मणाय सार्धं वष्टकमेकं १३ म
२९. हावनस्थान - विनिर्गताय कात्यायन - गोत्राय श ० ( सा ) मवेदाध्यायिने त्रि रामेस्व ( श्व) रपौत्राय त्रि जसो ( यशो ) धर-पुत्राय त्रि सू ( शू) र शर्म्मणे व्रा (ब्रा) ह्मणाय वण्टेकमे
३०.
कं १ टकारस्थान - विनिर्गताय भाद्व (र) द्वाज गोत्राय भारद्वाजाङ्गिरस -वा (बा) र्हस्पत्येति faraराय कौथुमशाखाध्यायि
३१. ने त्रि डालणपौत्राय वि आशाधर पुत्राय त्रि विस्वस्व ( श्वेश्व) र शर्म्मणे वा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम १ टकारस्थान - विनिर्गताय भारद्वा
३२. ज-गोत्राय भारद्वाजाङ्गिरस -वा (बा) र्हस्य ( स्प ) त्येति त्रिप्रवराय माध्यंदिन शाखाध्यायिने दी केल्हणपौत्राय दी मधुपुत्राय दी रा
३३. म स (श) म्र्मणे व्रा (ब्रा) ह्मणा [य] वण्टकमेकम् १ त्रिपुरीस्थान - विनिर्गताय भारद्वाज-गोत्राय भारद्वाजाङ्गिरसवा (बा) र्हस्पत्येति त्रिप्रव
३४. राय पं हरिधरपौत्त्राय पं महीधरपुत्राय पं भृगुशर्मणे वा (ब्रा) ह्मणाय सार्द्धं वण्टकमेकम् १३ मुत (ता) वथू (थु ) स्थान-विनिर्गताय
३५. काश्यपगोत्राय काश्यपावत्सारनैध्रुवेति त्रिप्रवराय आश्वलायन - शाखाध्यायिने च पि ( पृ ) थ्वीधर - पौत्राय च आसा (शा) धर पु
३६. वाय अग्नि नारायणशर्मणे व्रा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १ अकोला स्थान-विनिर्गताय पशु (सु) - गोत्राय परावशु (सु) काङकाय
३७. न-कैकशेय (सेति ) त्रिप्रवराय ठ भरतपाल पौत्राय ठ डाल्लणपुत्राय राजगोश (स) ल शर्मणे व्रा (ब्रा)ह्मणाय वण्टकमेकम १ मथुरास्था
३८. न - विनिर्गताय आश्वलायन - शाखाध्यायिने वशि (सि) ष्ठ- गोत्राय काश्यपावत्सार - वाशि (सि) ष्ठेति त्रिप्रवराय चतुर्वेद-जनार्दनपौत्रा
( द्वितीय ताम्रपत्र - पृष्ट भाग )
३९. य चतुर्वेद- धरणीधरपुत्राय महाराजपंडित - श्री गोसेशर्म्मणे ब्रा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकद्वयं २ मथुरास्थान - विनिर्गताय आ
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२६०
परमार अभिलेख
४०. श्वलायन - शाखाध्यायिने भार्गवगोत्राय भार्गवच्यवन-आप्नु (प्न) वान् और्व्वजामदग्न्येति पंचप्रवराय च... . पौत्राय च
४१. विष्णुपुत्राय च रामेस्व ( श्व) रस (श) र्म्मणे व्रा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १ मथुरास्थानविनिर्गताय श्वला [य]न शाखाध्यायिने काश्यपगोता
४२. य-काश्यपावत्सार - नैध्रुवेति विप्रवराय च समुद्धरपौत्राय च देवधरपुत्राय च गदाधरस (श) - र्मणे वा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १म
४३. थुरास्थान - विनिर्गताय आश्वलायन शाखाध्यायिने भार्गव -गोत्राय भार्गव-वैतहव्यसावेत सेति faraराय च पवित्रपौता
४४. य च धरणीधर - पुत्राय च गर्भस्व ( श्व) रशर्मणे व्रा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १ मथुरास्थानविनिर्गताय आश्वलायन - शाखाध्यायि
४५. ने काश्यप गोत्राय काश्यपावत्सारनै ध्रुवेति त्रिप्रवराय च समुद्धरपौत्राय च देवधरपुत्राय च लोहटणे व्रा (ब्रा) ह्मणा
४६. य वण्टकमेकम् १ डिम्डवानकस्थान - विनिर्गतायं शांक्षा (खा ) यन - शाखाध्यायिने गोतमगोत्राय मङ्गिरस तत्थ्येति विप्रव
४७. राय च धरणीधरपौत्राय च व ( ब्र) ह्मपुत्राय च पुरुषोत्तमशर्म्मणे व्रा (ब्रा)ह्मणाय वण्टकमेकं १ मुतावथू (थु) स्थान - विनिर्गताय माध्यं
४८ दिन - शाखाध्यायिने काश्यपगोत्राय काश्यपावत्सारनंध्रुवेति त्रिप्रवराय द्वि गोविन्दपौत्राय द्वि वासधरपुत्राय द्वि गदा
४९. धरणे व्रा (ब्रा) ह्मणाय वंटकार्द्ध ३ मुतावथुस्थान - विनिर्गताय माध्यंदिनशाखाध्यायिने काश्यप गोत्राय काश्यपावत्सारनंधु
५०. वेति त्रिप्रवराय दी गां (गं ) गाधर - पौत्राय दी केशवपुत्राय उदेशर्म्मणे ब्रा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकार्द्ध ३ महावना (न) स्था[न] विनिर्गताय को
५१. थुमशाखाध्यायिने गौतमगोत्राय गौतमाङ्गिरस - औतत्थ्येति त्रिप्रवराय पं मदनपौत्राय पं कन्हड़पुत्राय पं कुलधरस (श) र्म्मणे
५२. व्रा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १ टकारस्थानं (न) - विनिर्गताय कौथुमशाखाध्यायिने वत्स - गोवा भार्गवच्यावनानवान् और्व्वजामदग्न्ये५३. ति पञ्चप्रवराय वि जनार्द्दन पौत्राय त्रि व्रा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १ मध्यदेश-विनिर्गता५४. य माध्यंदि[न] शाखाध्यायिने
नरशि (सिं) ह-पुत्राय आव अभिनन्दशर्मणे
मुद्गला (ल) गोवाय आंगिरश ( स ) - भर. . समुद्गलेति त्रिप्रवराय अग्नि च्छी (छी) तू-पौत्राय अग्नि धरणीधर-पुत्रा५५. य अग्नि अनन्तशर्मणे ब्रा (ब्रा)ह्मणाय वण्टकमेकम १ मध्यदेश - विनिर्गताय माध्यंदिनशाखाध्यायिने शांडित्यगोत्राय शांडिल्य - अशि (सि) त
५६. देवलेति त्रिप्रवराय चाग्नि (ज्ञि) नागदेव - पौत्राय
याग्नि (ज्ञि ) कृष्णपुत्राय याग्नि (ज्ञि) स्थानेस्व ( श्व) र शर्मणे ब्रा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १ मथुरास्थान - विनि
५७. ताय आश्वलायन शाखाध्यायिने धौम्यगोत्वाय काश्यपावत्सार [न] ध्रुवेति त्रिप्रवराय च
विष्णुपताय च साधारण-पुत्री
५८. य च उध [र] शर्मणे ब्रा (ब्रा)ह्मणाय ६ण्टकमेकम् १ मथुरास्थान - विनिर्गताय राणायिनी ( रानायनीय ) - शाखाध्यायिने भारद्वाजगोत्राय आंगि
५९. रस वा (बा) र्हस्पत्य - भारद्वाजेति त्रिप्रवराय वि माधवपौत्राय त्रि सोमेस्व ( श्व) र-पुत्राय त्रि कुलधर शर्म्मणे ब्रा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १
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मान्धाता अभिलेख
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(तृतीय ताम्रपत्र-अग्न भाग) ६०. मथुरास्थान-विनिर्गताय राणायिनी (रानायनीय)-शाखाध्यायिने भारद्वाज-गोत्राय आंगिरस
वा (बा) र्हस्पत्य-भारद्वाजेति त्रिप्रवराय त्रि रि (ऋ) षिपौत्राय त्रि ६१. मार्कण्डपुत्राय त्रि मधुसूदनशर्मणे वा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १ सरस्वतीस्थान-विनि
गर्गताय कठशाखाध्यायिने [हरितकुत्स६२. गोत्राय आंगिरिश (रस)-अंक (ब)रिष-यौवनास्वे (श्वे)ति त्रिप्रवराय च विजयी-पौत्राय
च अजयीपुत्राय च अल्लि शर्मणे वा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १ .. ६३. मध्यदेश-विनिर्गताय माध्यंदिन-शाखाध्यापिने काश्यप-गोत्राय काश्यपावत्सारनैध्रुवेति
त्रिप्रवराय उपा नारायणपौत्राय अग्नि ६४. जस (यशो) देव-पुत्राय दी लो(ला) हड़शर्मणे ब्रा (ब्रा)ह्मणाय वण्टकमेकम् १ मध्यदेश
विनिर्गताय माध्यंदिन-शाखाध्यापिने शांडिल्य-गोत्राय अ६५. शि (सि)तदेवल-सां (शां) डिल्येति त्रिप्रवराय अग्नि कटुक-पौत्राय दी पुरुषोत्तम-पुत्राय
आव नरसिंहशर्मणे वा (ब्रा)ह्मणाय बण्टकमेकम् १ म६६. ध्यदेश-विनिर्गताय माध्यंदिन-शाखाध्यायिने मार्कण्डेय-गोत्राय भार्गवच्यवनाप्नुवान
और्वजामदग्न्येति पञ्च-प्रवराय अग्नि च्छी (छी)तू-पौ६७. बाय उपा दामोदरपुत्राय आव मार्कण्डेय शर्मणे वा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १ मध्यदेश
विनिर्गताय माध्यंदिन-शाखाध्यायिने भारद्वाज-गो६८. वाय आंगिरिश (रस)-वा(बा) हस्पत्य-भारद्वाजेति त्रिप्रवराय द्वि नारायण-पौत्राय द्वि
पद्मनाभ-पुत्राय पाठ वायुदेवशर्मणे वा (ब्रा) ह्मणाय वण्टक६९. मेकं १ मथुरास्थान-विनिर्गताय आश्वलायन-शाखाध्यायिने कौत्सगोत्राय आंगिरश (स)
अम्बरीष-यौवनास्वे (श्वे)ति त्रिप्रवराय च हरिपौ७०. नाय च जनाईनपुत्राय च राजे (ज) शर्मणे ब्रा (ब्राह्मणाय वण्टकमार्द्धम् १ हस्तिनुपुर
विनिर्गताय कौथुमशाखाध्यायिने परास (श) र-गोत्रा७१. य परास (श)र-शक (क्तृ)-वशि (सि)ष्ठेति त्रिप्रवराय पञ्च काह न (न्ह) ड़पौत्राय पञ्च
कुमरपुत्राय पंडि कुसुमपाल-शर्मणे वा (ब्रा) ह्मणाय वण्टकमेकम् १ ७२. संस्तो (समस्तो) पि ग्रामश्चतुःकं (तुष्क) कट-विसु (शु)द्धः सवि(वृ)क्षमालाकुलः सहिरण्य
भागभोगः सोपरिकर : सह्यदायसमेतः सनिधिनिक्षेपः ष७३. म्ह (इह) लातम (त्म) [क]-समन्वितो मातापित्रोरात्मनश्च पुण्यजसो (यशो) भिवृि (वृ)
द्धये चन्द्राकार्णवक्षिति-समकालं यावत्परय (या) भक्तया शासा (स) नेनोदकपूर्व प्रदत्तः तन्म७४. त्वा तन्निवाशि (सि)-पाट्टकिल-जनपदैर्यथा दीयमानभागभोगकरहिरण्यादिकं देवव्रा (ब्रा) ह्मण
भुक्ति-वर्जमाशा विधेयर्भूत्वा सर्वमेभ्यो ब्रा (ब्रा)ह्मणेभ्यो दातव्यम् ७५. सामान्यं चैतत्पुण्यफलं व (बुद्ध)वा अस्मद्वेशजैरन्यैरपि भाविभोक्तृि (क्तृ) भिरस्मत्प्रदत्त धर्मादायो-अयमनुमन्तव्य: पालनीयश्चं (च)। उक्तं च। व (ब) हुभिर्वशु (सु)धा
भक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्) ।।२४।। स्वदत्तं (त्तां) परदत्तं (त्तां) वा यो हरेत् वसुन्धरां (राम् )। स विष्टायां कि (कृ) मिर्भूत्वा पिति (त) भिः सह
मज्जति ॥२५॥
७६.
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परमार अभिलेख सर्वानेवं भाविनो भूमि पालान् भूयो भूयो याचते रामभद्रः । सामान्योयं धर्मसेतुन पाणां काले काले पालनी
___ यो भवद्भिः ।।२६।। इति कमलदलावु (बु)विन्दु लोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च । सकलमिदं उदाहृतं च बुध (बुद्ध) वा न हि पु
रुपैः परकीर्तयो विलोप्या ।।२७।। इति । संवत १२८२ वर्षे भाद्रसुदि १५ गुरौ । दू । श्री मु ३ । रचितमिदं महासांधि८०. विग्रहिक पंडित श्री वि (बि) ल्हण-सम्मतेन राजगुरुणा मदनेन् । स्वहस्तोयं महाराजश्री
देवपालदेवस्य । मङ्गलं महाश्रीः ।।
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र – पृष्ठ भाग) .१. ओं। ओं। पुरुषार्थों में सर्वश्रेष्ठ धर्म को नमस्कार ।
___ समस्त पृथ्वी के प्रतिबिंब स्वरूप भूमि को ग्रहण कर जो संसार को आनन्दित करते हैं ऐसे द्विजेन्द्र आपका कल्याण करें ।।१।।
रण में हत क्षत्रियों के रक्त से व्याप्त अस्त होते सूर्य के प्रतिबिम्ब के समान पृथ्वी जिस दानदाता के लिए लालिमा को धारण किए हुए है उस परशुराम की जय हो ।।२।।
जिसने अपनी प्राणेश्वरी (सीता) की वियोगाग्नि को युद्ध में मंदोदरी के अश्रुजल से बुझाया वह राम आप को श्रेय प्रदान करे ।।३।।
भीम के द्वारा जिसके चरण अपने मस्तक पर धारण किये गये, जिसने वंश को चन्द्र के समान (निर्मल) बनाया, वह युधिष्ठिर सदा विजयी हो ।।४।।
परमार कुल में सर्वश्रेष्ठ, कंस को जीतने वाले की महिमा वाला नरेश श्री भोजदेव नामक हआ जिसने सीमाओं तक पथ्वी को विजित किया ।।५।।
दिशाओं की गोद तरंगित होने पर जिसकी यशचंद्रिका उदित होते ही शत्रु नरेशों का यश कमलों के समान मुरझा गया ।।६।।
उसके (पश्चात्) उदयादित्य हुआ जो सदा उत्साह में कुतूहलपूर्ण, असाधारण वीर व श्रीयुक्त था और जो विरोधियों की अलक्ष्मी का कारण था ।।७।।
कल्पान्त के तुल्य महायुद्धों के होने पर जिसके तीखे बाणों द्वारा कितने अत्यन्त उच्च नरेश शक्तिशाली सेनाओं सहित उन्मूलित नहीं किये गये ? (महाप्रलय काल में वाय द्वारा कितने महापर्वत नहीं उखाड़े गये) ॥८॥ ..
उससे नरवर्मन् नरेश हुआ जिसने अपने शत्रुओं के मर्मस्थल छिन्न कर दिये । बुद्धिमान जो धर्म के उद्धार करने में व राजाओं के लिए सीमा स्वरूप था ।।९।।
प्रतिदिन प्रातःकाल स्वयं ब्राह्मणों के लिए ग्रामपद देने से उसने एक पांव वाले धर्म को अनेक पांव प्रदान कर दिये ।।१०।। ___ उसका पुत्र यशोवर्मन् हुआ जो क्षत्रियों में मुकुट रूप था। उस का पुत्र अजयवर्मन् था जो विजय व लक्ष्मी के लिए विख्यात था ।।११।। ___ उसका पुन विंध्यवर्मन् था जिसकी उत्पत्ति द्वारा (वंश) धन्य हुआ, जो वीर शिरोमणि था और गुर्जर (नरेश) को हराने में इस महाभुज ने (शक्ति) लगाई ।।१२।।
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मान्धाता अभिलेख
रणकुशल जिसका खग मानो तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए ही धारा नगरी के उद्धार करने के साथ ही त्रिधारता को धारण कर रहा है।॥१३॥
उसी के गणधर्म वाला, इन्द्र के समान शोभायक्त पत्र सभटवर्मन भतल पर धर्म में आरूढ़ हुआ।।१४।।
सूर्य की कांति वाले दिग्विजयी जिसका प्रताप जलते हुए गुर्जर नगर में दावानल के बहाने से आज भी गर्जना कर रहा है ।।१५।।
(उसके) स्वर्गलोक को जाने पर उसका पुत्र अर्जुन नरेश आज भी पृथ्वी मंडल को अपने बाहु पर कंकण के समान धारण कर रहा है ।।१६।। -- बाललीला के समान युद्ध में जयसिंह के पलायन करने पर जिसका यश दिक्पालों के हास्य के बहाने से दिशाओं में फैल रहा है ।।१७।।
साहित्य एवं गायन विद्या के सर्वस्व निधि जिसने मानो सरस्वती देवी का पुस्तक व वीणा का भार ही उतार लिया हो।।१८।।
तीन प्रकार के वीर जिसने अपनी कीत्ति तीन प्रकार से विकसित की, जगत को तीन प्रकार से पवित्र करने में उसके अतिरिक्त अन्य कौन ।।१९।। __ उसके पश्चात् अद्भुत त्यागशील एवं शृंगारी वह याचकों के दुर्भाग्य से एवं स्वर्ग रमणियों के पुण्य से स्वर्गलोक को गया ॥२०॥
उसके पश्चात् परमारवंश के चन्द्र हरिश्चन्द्र के पुत्र प्रतापवान देवपाल ने मालवभमि की रक्षा की ।।२१।।
करकमलों द्वारा दान के पवित्र जल को सर्वत्र व्याप्त करने से (नरेश) देवपाल व (इन्द्र)
देवपाल में कोई अन्तर विदित नहीं होता है ।।२२।। १७. यह नरनायक सब प्रकार से उदयशील होकर महुअड प्रतिजागरणक में १८. सताजुणा ग्राम में आये समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों आसपास के निवासियों, पटेलों
व ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं-आपको विदित हो १९. कि श्रीयुक्त माहिष्मती में ठहरे हुए हमारे द्वारा संवत्सर बारह सौ बयासी के भाद्रपद मास की पूर्णिमा को
(दूसरा ताम्रपत्र-अग्रभाग) २०. सोमपर्व पर रेवा में स्नान कर, श्री दैत्यसूदन (विष्णु के मंदिर) के पास भगवान
भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर, संसार की असारता देख कर, तथा__ इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषयभोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाले हैं, मानवप्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले
जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।।२३।। २२. इस सब पर विचार कर, अदृष्ट फल को स्वीकार कर, आश्रम स्थान से आये वाजि
माध्यंदिन शाखा २३. के अध्यायी, पराशर गोत्री, पराशर शक्तृ वशिष्ठ त्रिप्रवरी श्रोत्रिय दामोदर के पौत्र,
श्रोत्रिय ब्रह्म के पुत्र श्रोत्रिय गंगाधर २४. शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; महावनस्थान से आये पवित्र गोत्री, गर्ग गौरि वीतां
गिरस त्रिप्रवरी
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परमार अभिलेख
२५. आश्वलायन शाखा के अध्यायी दी क्षित गंगाधर के पं.त्र आवसथिक महादित्य के पुत्र
शुक्ल भद्रेश्वर शर्मा ब्राह्मण के लिये २६. एक १ भाग; महावनस्थान से आये पवित्र गोत्री, गर्ग गौरि वीतांगिरस त्रिप्रवरी,
आश्वलायन शाखा के अध्यायी दीक्षित सिंहकण्ठ २७. के पौत्र, शुक्ल मधुकण्ठ के पुत्र, शुवल चन्द्रकण्ठ शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ अंश;
महावनस्थान से आये औदित्य गोत्री २८. माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, दीक्षित पद्मस्वामि के पौत्र, दीक्षित त्रिलोचन के पुत्र, दीक्षित
नारायण शर्मा ब्राह्मण के लिये डेढ़ १३ भाग; २९. महावनस्थान से आये, कात्यायन गोत्री, सामवेद के अध्यायी, त्रिवेद रामेश्वर के पौत्र,
त्रिवेद यशोधर के पुत्र, त्रिवेद सूरशर्मा ब्राह्मण के लिये ३०. एक १ भाग; टकारीस्थान से आये, भारद्वाज गोत्री, भारद्वाज आंगिरस वार्हस्पति त्रिप्रवरी,
कौथुम शाखा के अध्यायी, ३१. त्रिवेद डालण के पौत्र, त्रिवेद आशाधर के पुत्र, त्रिवेद विश्वेश्वर शर्मा ब्राह्मण के लिये
एक १ भाग; टकारीस्थान से आये, भारद्वाज । ३२. गोत्री, भारद्वाज आंगिरस वार्हस्पत्य त्रिप्रवरी, माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, दीक्षित
केल्हण के पौत्र, दीक्षित मध के पत्र, दीक्षित राम ३३. शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; त्रिपुरी स्थान से आये, भारद्वाज गोत्री, भारद्वाज
आंगिरस वार्हस्पत्य त्रिप्रवरी ३४. पंडित हरिधर के पौत्र, पंडित महीधर के पुत्र, पंडित भृगु शर्मा ब्राह्मण के लिये डेढ़
१३ भाग; मुतवथू स्थान से आये ३५. काश्यप गोत्री, काश्यप अवत्सार नैध्रुव त्रिप्रवरी, आश्वलायन शाखा के अध्यायी, चतुर्वेद
. पृथ्वीधर के पौत्र, चतुर्वेद आशाधर ३६. के पुत्र, अग्निहोत्र नारायण शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; अकोला स्थान से आये,
परावसु गोत्री, परावसु कांकायन ३७. कैकस त्रिप्रवरी, ठक्कुर भरतपाल के पौत्र, ठक्कुर डाल्लण के पुत्र, राजन गोसल शर्मा ब्राह्मण
के लिये एक १ भाग; मथुरा स्थान ३८. से आये, आश्वलायन शाखा के अध्यायी, वसिष्ठ गोत्री, काश्यप आवत्सार वसिष्ठ त्रिप्रवरी, चतुर्वेद जनार्दन के पौत्र
(द्वितीय ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग) ३९. चतुर्वेद धरणीधर के पुत्र, महाराज पंडित श्री गोसे शर्मा ब्राह्मण के लिये दो २ भाग;
मथुरा स्थान से आये, ४०. आश्वलायन शाखा के अध्यायी, भार्गव गोत्री, भार्गव च्यवन आप्नवान और्ष जामदग्न्य
पंचप्रवरी, चतुर्वेद . . . . . . के पौत्र, चतुर्वेद ४१. विष्णु के पुत्र, चतुर्वेद रामेश्वर शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; मथुरा स्थान से
आये, आश्वलायन शाखा के अध्यायी, काश्यप गोत्री, ४२. काश्यप आवत्सार नैध्रुव त्रिप्रवरी, चतुर्वेद समुद्धर के पौत्र, चतुर्वेद देवधर के पुत्र, चतुर्वेद
गदाधर शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग;
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मान्धाता अभिलेख
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४३. मथुरा स्थान से आये, आश्वलायन शाखा के अध्यायी, भार्गव गोत्री, भार्गव वैतहव्य
सावेतस, त्रिप्रवरी, चतुर्वेद पवित्र के पौत्र, ४४. चतुर्वेद धरणीधर के पुत्र, चतुर्वेद गर्भश्वर शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; मथुरा
___ स्थान से आये, आश्वलायन शाखा के अध्यायी ४५. काश्यप गोत्री, काश्यप आवत्सार नैध्रुव त्रिप्रवरी, चतुर्वेद समुद्धर के पौत्र, चतुर्वेद देवधर
के पुत्र, चतुर्वेद लोहट शर्मा ब्राह्मण ४६. के लिये एक १ भाग; डिम्डवानक स्थान से आये, शांखायन शाखा के अध्यायी, गौतम
गोत्री, गौतम आंगिरस औचत्थ त्रिप्रवरी, ४७. चतुर्वेद धरणीधर के पौत्र, चतुर्वेद ब्रह्म के पुत्र, चतुर्वेद पुरुषोत्तम शर्मा ब्राह्मण के लिये
एक १ भाग; मुताक्थु स्थान से आये माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, काश्यप गोत्री, काश्यप आवत्सार नैध्रुव त्रिप्रवरी, द्विवेद
गोविन्द के पौत्र, द्विवेद वासधर के पुत्र, द्विवेद गदाधर ४९. शर्मा ब्राह्मण के लिये आधा ३ भाग; मुतावथु स्थान से आये, माध्यंदिन शाखा के
अध्यायी, काश्यप गोत्री, काश्यप आवत्सार नैध्रुव ५०. त्रिप्रवरी, दीक्षित गंगाधर के पौत्र, दीक्षित केशव के पुत्र, उदै शर्मा ब्राह्मण के लिये
आधा ३ भाग; महावनस्थान से आये ५१. कौथुम शाखा के अध्यायी, गौतम गोत्री, गौतम आंगिरस औतथ्य त्रिप्रवरी, पंडित मदन के
पौत्र, पंडित कन्हड के पुत्र, पंडित कुलधर शर्मा ५२. ब्राह्मण के लिये एक १ भाग ; टकारी स्थान से आये कौथुम शाखा के अध्यायी, वत्स
गोत्री, भार्गव च्यवन आप्नुवान और्व जामदग्न्य ५३. पंचप्रवरी, त्रिवेद जनार्दन के पौत्र, त्रिवेद नरसिंह के पुत्र, आवसथिक अभिनन्द शर्मा
ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; मध्यदेश से आये। ५४. माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, मुद्गल गोत्री, आंगिरस . . . मुद्गल त्रिप्रवरी, अग्निहोत्र
छीतू के पौत्र, अग्निहोत्र धरणीधर के पुत्र, ५५. अग्निहोत्र अनन्त शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; मध्यदेश से आये, माध्यंदिन शाखा
के अध्यायी, शांडिल्य गोत्री, शांडिल्य असित ५६. देवल त्रिप्रवरी, याज्ञिक नागदेव के पौत्र, याज्ञिक कृष्ण के पुत्र, याज्ञिक स्थानेश्वर शर्मा
ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; मथुरा स्थान से ५७. आये आश्वलायन शाखा के अध्यायी, धौम्य गोत्री, काश्यप आवत्सार नैध्रुव त्रिप्रवरी,
चतुर्वेद विष्णु के पौत्र, चतुर्वेद साधारण के पुत्र ५८. चतुर्वेद उधर शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; मथुरा स्थान से आये, रानायनीय शाखा
के अध्यायी, भारद्वाज गोत्री, आंगिरस ५९. वाहस्पत्य भारद्वाज त्रिप्रवरी, त्रिवेद माधव के पौत्र, त्रिवेद सोमेश्वर के पुत्र त्रिवेद कुलधर शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; ।
(तृतीय ताम्रपत्र-अग्र भाग) ६०. मथुरा स्थान से आये, रानायनीय शाखा के अध्यायी, भारद्वाज गोत्री, आंगिरस वार्हस्पत्य
भारद्वाज त्रिप्रवरी, त्रिवेद ऋषि के पौत्र, त्रिवेद
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परमार अभिलेख
६१. मार्कण्ड के पुत्र, त्रिवेद मधुसूदन शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; सरस्वती स्थान से
आये, कठ शाखा के अध्यायी, हरितकुत्स ६२. गोत्री, आंगिरस अम्बरिष यौवनाश्व तीन प्रवरी, चतुर्वेद विजयी के पौत्र, चतुर्वेद अजयी
के पुत्र, चतुर्वेद अल्लि शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; ६३. मध्यदेश से आये, माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, काश्यप गोत्री, काश्यप आवत्सार नैध्रुव
तीन प्रवरी, उपाध्याय नारायण के पौत्र, अग्निहोत्र ६४. जसदेव के पुत्र, दीक्षित लाहड़ शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; मध्यदेश से आये,
माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, शांडिल्य गोत्री, ६५. असित देवल शांडिल्य तीन प्रवरी, अग्निहोत्र कटुक के पौत्र, दीक्षित पुरुषोत्तम के पुत्र,
आवसथिक नरसिंह शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; ६६. मध्यदेश से आये, माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, मार्कण्डेय गोत्री, भार्गव च्यवन आप्नवान
और्व जामदग्न्य पांच प्रवरी, अग्निहोत्र छीतू के ६७. पौत्र उपाध्याय दामोदर के पुत्र, आवसथिक मार्कण्डेय शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग;
मध्यदेश से आये, माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, भारद्वाज गोत्री, ६८. आंगिरस वार्हस्पत्य भारद्वाज तीन प्रवरी, द्विवेद नारायण के पौत्र, द्विवेक पद्मनाभ के
पुत्र, पाठक वायुदेव शर्मा ब्राह्मण के लिये ६९. एक १ भाग; मथुरा स्थान से आये, आश्वलायन शाखा के अध्यायी, कौत्स गोत्री, आंगि
रस अम्बरीष यौवनाश्व तीन प्रवरी, चतुर्वेद हरि के ७०. पौत्र, चतुर्वेद जनार्दन के पुत्र, चतुर्वेद राज शर्मा ब्राह्मण के लिये आधा १ भाग; हस्तिनुपुर
से आये, कौथुम शाखा के अध्यायी, पराशर गोत्री, ७१. पराशर शक्तृि वसिष्ठ तीन प्रवरी, पंचकल्पि कान्हड के पौत्र, पंचकल्पि कुमार के पुत्र,
पंडित कुसुमपाल शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; ७२. सारा ही ग्राम विशुद्ध रूप से निर्धारित चारों सीमाओं सहित, साथ में वृक्ष पंक्तियों
के समूह से व्याप्त, हिरण्य भाग भोग कर उपरिकर, सभी आय समेत, साथ में निधि
व गड़ा धन ७३. छः हल योग्य भूमि से युक्त (?) माता पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के
लिये चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ शासन द्वारा जल हाथ
में लेकर दान दिया है, उसको ७४. मान कर वहां के निवासियों, पटेलों, ग्रामीणों द्वारा जो भी दिया जाने वाला भाग भोग कर
हिरण्य आदि, देव व ब्राह्मण द्वारा भोगे जा रहे को छोड़कर, आज्ञा सुनकर, सभी इन
ब्राह्मणों के लिये देते रहना चाहिये ७५. और इसका समान रूप फल मानकर हमारे व अन्य वंशों में उत्पन्न होने वाले भोक्ताओं
को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्म दान को मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है--
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब २ उसी को उसका फल मिला है ।।२४॥ __ अपने द्वारा दी गई अथवा अन्य के द्वारा दी गई भूमि का जो हरण करता है वह पितरों के साथ विष्ठा में कीड़ा बन कर रहता है ॥२५।।
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उदयपुर अभिलेख
सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है, अतः अपने २ काल में आपको इसका पालन करना चाहिये || २६ ॥
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमल दल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥ २७॥ ७९. संवत् १२८२वें वर्ष में भाद्र सुदि १५ गुरूवार । दूतक । श्री मु ८०. महासांधिविग्रहिक पंडित विल्हण की सम्मति से राजगुरु मदन हस्ताक्षर स्वयं महाराज श्री देवपालदेव के हैं । मंगल व महालक्ष्मी ।
| यह
द्वारा लिखा गया । ये
(६६)
उदयपुर का देवपालदेव कालीन मंदिर स्तम्भ अभिलेख ( संवत् १२८६ = १२२९ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख विदिशा जिले में उदयपुर के शिवमंदिर के पूर्वी द्वार के दाहिनी ओर एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण । इसका उल्लेख १८८९ में इं. ऐं, भाग १८, पृ. ३४२; भाग २०, पृष्ठ ८३, क्र. २; ए. रि. आ. डि. ग. सं. १९७४ क्र. १२१; भण्डारकर के उत्तरी अभिलेखों की सूचि में क्र. ४८३; कीलहार्न की सूचि, क्र. २०७; ग. रा. अभि.द्वि., क्र. १०२ पर किया गया है ।
अभिलेख १४ पंक्तियों का है । इसका क्षेत्र ३८.१०५०.८ से. मी. है । स्तम्भ पर लगा। प्रस्तरखण्ड बीचोबीच टूट गया है, परन्तु इसस अक्षर क्षतिग्रस्त नहीं हुए हैं । प्रथम पंक्ति में भी ऊपर का कोना टूट जाने से तिथि का अन्तिम भाग लुप्त हो गया है ।
अभिलेख के अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी है । अक्षरों की सामान्य लबाई २ से ३ सें. मी. है । बनावट में भी ये काफी भद्दे हैं। जर्जर हो जाने के कारण कुछ स्थलों पर पाठ साफ नहीं है । भाषा संस्कृत है एवं गद्य में है, परन्तु त्रुटियां से भरपूर है । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से श के स्थान पर स ख के स्थान पर ष का प्रयोग किया गया है। कुछ स्थानों पर अनावश्यक दण्ड लगे हैं । इनको पाठ में ठीक करने का प्रयत्न किया गया है ।
तिथि शुरू में संवत् १२८६ कार्तिक सुदि. . शुक्रवार लिखी है। इसमें तिथि का अंतिम भाग टूट गया है । संभवतः वह पूर्णिमा थी । इस प्रकार यह शुक्रवार २ नवम्बर, १२२९ ई. के बराबर बैठती है । इसका मुख्य ध्येय नरेश देवपालदेव के शासनकाल में राजकोष अधिकारी धामदेव द्वारा उदयेश्वर देव के मंदिर के निमित्त ४ बिस्वे भूमि के दान का उल्लेख करना है । अभिलेख का महत्व इस कारण है कि यद्यपि देवपालदेव प्रस्तुत अभिलेख की तिथि से बहुत पहले ही धार के राजसिंहासन पर आरूढ़ होकर पूर्ण राजकीय उपाधियों का उपयोग करने लग गया था, तथापि भोपाल क्षेत्र में, जहां से उसने अपने शासन का श्रीगणेश किया था, अब भी कनिष्ट महाकुमारीय उपाधि से विख्यात था। दूसरे, प्रस्तुत अभिलेख से उसके शासन की अगली तिथि ज्ञात होती है। तीसरे, प्रदत्त भूमि का प्रमाण ४ बिस्बे लिखा है जो वर्तमान में एक बीघा भूमि का बीसवां भाग होता है । अतः मानना होगा कि यह प्रमाण भोपाल क्षेत्र में स्थानीय रूप से चालू था ।
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परमार अभिलेख
(मूलपाठ)
१. ओं [11] संवत् १२८६ वर्षे] काति[क] सु(शु) दि... २. सु(शु) के दे[व] श्री उदल्मे (ये) स्व (श्व) र३. सनि (नि) [धे (धौ)] समस्त प्र[श]स्तोपेत्र (त)४. सम[धि] गत पंन्राह्वलंका (पंचशब्दालंका)
र विराजमान-महाराज६. श्री दे[व]पालदेव-कल्या७. ण-विजयराज्ये महामुद्रा व्या]८. पारे पंचकुल स्री (श्री) धामदेय (वे ? ) । [वितन्त्र]९. ति ।। ख--ही ग्रामे । त्र ( ? ) तो मधे (ध्ये) दा१०. -- आत्मीय-विभागमधे (ध्ये)। राय११. कूके उदकपूर्वके (कं) । वि (बि)स्वे ४ प्रदत १२. इत्यर्थे (थं) पंचमुष (ख) वांटण मिलित्वा १३. ------- प्रम (मा) णमितिः (ति) [1] १४. मंगलं माह (महा) श्री[ : ।]
(अनुवाद) १. सिद्धि हो । संवत् १२८६ वर्ष में कार्तिक शुदि... २. शुक्रवार को देव श्री उदयेश्वर ३. के सामने समस्त ख्याति से युक्त ४. पांच शब्दों के अलंकार को प्राप्त करने वाले ५. विराजमान महाराज ६. श्री देवपालदेव के कल्याण (कारी) ७. विजय (युक्त) राज्य में महामुद्रा के ८. व्यापार में पंचकुल (क) श्री धामदेव . . . (?) ९. ख. . ही ग्राम में.. . मध्य में १०. .. . स्वयं के विभाग के मध्य में ११. रायकूक के लिये (?) जल (हाथ में) लेकर ४ बिस्वे दान की। १२. इस हेतु पंचमुख पत्तन वाटण (?) मिला कर १३. ... ... .प्रमाण में १४. महाश्री मंगल करे।
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उदयपुर अभिलेख
२६९
(६७) उदयपुर का देवपालदेव का मंदिर स्तम्भ अभिलेख
(संवत् १२८९=१२३२ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख पूर्ववणित अभिलेख (क्र. ६६) के पास पूर्वी द्वार के दाहिनी ओर एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसका उल्लेख इं. ऐं., भाग २०, पृष्ठ ८३; ए. रि. आ. डि. ग., सं. १९७४, क्र. १२०; भण्डारकर की सूची क्र. ५०८; कीलहान की सूचि क्र. १२४; ; ग. रा. अभि. द्वि., क्र. १०४ पर किया गया।
अभिलेख १५ पंक्तियों का है। इसका क्षेत्र ३०.१४४०.८ सें. मी. है। इसके अक्षर अत्याधिक क्षतिग्रस्त हैं। अंतिम दो पंक्तियां तो पढ़ने में ही नहीं आतीं। इसके अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नगरी है। अक्षरों की सामान्य लंबाई २१ से ३ सें. मी. है। भाषा संस्कृत है एवं गद्य में है, परन्तु त्रुटियों से भरपूर है। व्याकरण के वर्ण-विन्यास की दृष्टि से श के स्थान पर स, ख के स्थान पर ष का प्रयोग है। कुछ शब्द ही गलत हैं। इन सभी को पाठ में ठीक कर दिया है।
तिथि प्रारम्भ में संवत् १२८ (९) मार्गवदि ३ गुरुवार है। तिथि में इकाई का अंक कुछ क्षतिग्रस्त है। लगता है लेखक ने भी इसमें परिवर्तन किया है। शुरु में यह ३ या ४ था, बाद में काट कर ९ कर दिया। यह गुरुवार, २ दिसम्बर, १२३२ ई. के बराबर है। इस का ध्येय नरेश देवपालदेव के शासनकाल में कुछ ग्रामों में भूदान करने का उल्लेख करना है। परन्तु अभिलेख के क्षतिग्रस्त होने के कारण ग्रामों के नामों का सही ज्ञान नहीं हो सकता है।
प्रस्तुत अभिलेख का कई कारणों से महत्त्व है। इसमें शासनकर्ता नरेश के लिए राजकीय उपाधियों “परमभट्टारक महाराजाधिराज' का प्रयोग किया गया है । इससे पूर्व के अभिलेखों में उसके लिए कनिष्ट उपाधियों समेत उल्लेख किया गया है। दूसरे, यद्यपि यह देवपालदेव का अंतिम प्राप्त अभिलेख है, परन्तु अन्य साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उसने इसके उपरान्त भी शासन किया था। उदाहरणार्थ, मुस्लिम साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि दिल्ली सुल्तान इल्तमिश (१२१०--१२३५ई.) ने प्रायः १२३३-३४ ई. में मालवा पर आक्रमण कर आसपास के क्षेत्र को लूटा तो देवपालदेव ने मुस्लिम प्रांतपति को भैल्लस्वामीपुर (भिलसा) के पास युद्ध में मार डाला एवं अपना सारा प्रदेश उस से स्वतंत्र करवा लिया। यह तथ्य उसके द्वितीय पुत्र जयसिंह-जयवर्मन द्वितीय के मांधाता ताम्रपत्र अभिलेख (क्र. ७६) के श्लोक क्र. ४८ से उजागर होता है।
भौगोलिक स्थानों में पंक्ति ८ में भगोरी का उल्लेख है। इसी स्थान से प्राप्त ११७२ ई. के एक अन्य अभिलेख में, जिसके माध्यम से देव बैद्यनाथ के लिए लूणपसाक नामक ग्राम दान में दिया गया था, इसको भृगारिका लिखा है (इं. ऐं., भाग १८, पृष्ठ ३४७)। उस अभिलेख में इसको पथक निरूपित किया गया है, जबकि प्रस्तुत अभिलेख में इसको “चौसठ ग्राम-समूह" का मुख्यालय लिखा है। देवसमपुरी (देवधर्मपुरी?) संभवतः उदयपुर का ही अन्य नाम है। परन्तु यह भी संभव है कि यह नीलकंठेश्वर मंदिर के नाम पर ही कहीं आसपास कोई पत्तन (बड़ा ग्राम) रहा हो। अन्य दो ग्रामों के नाम पढ़ने में नहीं आ रहे हैं ।
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२७०
परमार अभिलेख
(मूलपाठ) १. ओं [11] संवतु (त्) १२८[९] वर्षे २. मार्ग वदि ३ गुरौ अद्ये]३. ह उदयेस्व (श्व) रे समस्त राजा७. वलीमाला [लंकृ]त परम भ५. टा (ट्टा) र[क] महाराजाधिरा६. ज श्री देवपालदेव राज्ये७. [पारी?] उ[म]रत [प्र]दा (द)त्तः । . . . ८. [ल: ?]. . . . भृङ्गोरी च[तुः]९. षष्टिमधेः (ध्ये)-रे ? ही ग्रामे [इह ?] १०. . . . . . सवित्यां ४ . . . . . देवसम ११. पुरयां [-] ग्रा[मे]त्र . . . . . . . १२. . . . पंचमुष (ख)पत्तने व्राम्ह (ब्राह्मणानां से१३. . . .णां प्रमाणमि ति] . . . . .
१५. . . . . .
(अनुवाद) १. सिद्धम् । संवत् १२८ (९) वर्ष में २. मार्ग वदि ३ गुरुवार आज ३. उदयेश्वर में समस्त नरेशों ४. के समूह से अलंकृत परम ५. भट्टारक महाराजाधिराज ६. श्री देवपालदेव के राज्य में
.......दिया गया। • . . . . . . . . . . . . .और भङोरी ९. चौसठ के मध्य-रेही ग्राम में यहाँ १०. . . . सवित्या ४ देवसम ११. पुरी में ग्राम में यहाँ . . . . . . १२. . . . पंचमुखपत्तन में ब्राह्मणों का . १३. . . . . . . . . . . . . . . . . .प्रमाण से...
८.
• •
१४. . . . . . . . . . .
१५. ...
।
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उदयपुर अभिलेख
(६८)
उदयपुर का जयसिंह द्वितीय का उदयेश्वर मंदिर अभिलेख (अपूर्ण)
( संवत् १३११ =
- १२५५ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख भिलसा जिले में उदयपुर में उदयेश्वर मंदिर की पूर्वी दीवार में लगे एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है। इसके उल्लेख ई. ऐं. भाग १८, पृष्ठ ३४१ भाग २०, पृष्ठ ८४ भण्डारकर की उत्तरी अभिलेखों की सूचि क्र. ५५०; ए. रि. आ. डि. ग. सं. १९८०-८८; ग. रा. अभि.द्वि., क्र. ११७ पर हैं।
अभिलेख १२ पंक्तियों का है, परन्तु अत्यन्त क्षतिग्रस्त होने से इसका मूल नहीं दिया जा रहा है । तिथियुक्त भाग इस प्रकार है -- "संवत् १३११ वर्षे माघवदि १२ सुक्रे" । यह शुक्रवार ८ जनवरी १२५५ ई. के बराबर है। अन्य विवरण उपलब्ध नहीं है ।
(६९)
राहतगढ़ का जयसिंह - जयवर्मदेव द्वितीय का प्रस्तर अभिलेख
( संवत् १३१२ = १२५६ ई.)
२७१
प्रस्तुत अभिलेख कालिमायुक्त लाल प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है जो सागर जिले में राहतगढ़ दुर्ग के पास १८७० ई. में कनिंघम को मिला था। इसके उल्लेख आ. स. रि., १६७४-७५ व १८७६–७७, भाग १०, पृष्ठ ३०-३१; इं. ऐ., भाग २०, पृष्ठ ८४; इं. सी. पी. एण्ड बरार, १९१६ पृष्ठ ४४-४५; कीलहार्न की उत्तरी अभिलेखों की सूचि क्र. २२३ पर है । प्रस्तरखण्ड वर्तमान में पुरातत्व विभाग, सागर विश्वविद्यालय में सुरक्षित है ।
अभिलेख का आकार ९१x६६ सें. मी. है। इसमें १४ पंक्तियां हैं। परन्तु सभी अत्यन्त क्षतिग्रस्त हैं। शुरू की केवल ५ पंक्तियाँ ही कुछ ठीक हैं। अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी है। अक्षर १३ से २ सें. मी. लम्बे हैं, एवं लापरवाही से खोदे गये हैं। भाषा संस्कृत है। पढ़ा गया पाठ गद्य में है । व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से कुछ भी विचारणीय नहीं है ।
तिथि प्रारम्भ में संवत् १३१२ भाद्रपद शुदि ७ सोमवार है जो सोमवार २८ अगस्त, १२५६ ई. के बराबर है। इसका प्रमुख ध्येय किसी राजकीय आज्ञा को निस्सृत करना है जिसका विवरण स्पष्ट नहीं है ।
अभिलेख यद्यपि अपूर्ण है, परन्तु महत्त्वपूर्ण है। यह धार नरेश जयसिंह जयवर्मदेव द्वितीय के शासनकाल का है। नरेश का नाम, जिसके कुछ अक्षर पंक्ति २ के अन्त में हैं व शेष पंक्ति ३ में चालू हैं, कुछ शंकास्पद बन गया है। कनिंघम ने इसको जयवर्मदेव पढ़ा है जबकि
हार्न जयसिंहदेव पढ़ते हैं । परन्तु नाम का अन्त वर्मदेव अथवा सिंहदेव होने से कोई अन्तर इसलिए नहीं पड़ता कि ये दोनों एक ही नरेश के दो नामान्त हैं । जयसिंहदेव अपरनाम जयवर्मदेव नरेश देवपालदेव का दूसरा पुत्र एवं जयतुगिदेव का छोटा भाई था । जयतुगिदेव के शासनकाल की दो तिथियाँ साहित्यिक आधारों से ज्ञात हैं । आशाधर ने सागर धर्मामृत ग्रन्थ विक्रम संवत् १२९६ तदनुसार १२३९ ई. में एवं अंगार धर्मामृत ग्रन्थ विक्रम संवत् १३०० तदनुसार
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२७२
परमार अभिलेख
१२४३ ई. में नरेश जयतुगिदेव के शासनकाल में पूर्ण किये थे । इस प्रकार जयसिंह - जयवर्मन् द्वितीय १२४३ई. व १२५५ ई. के मध्य किसी समय मालव राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ होगा । उसके बड़े भाई जयतुगिदेव के समय मालवराज्य पर तीन ओर से -- दक्षिण में यादव कृष्ण, पश्चिम में वघेल नरेश एवं उत्तर में बलबन के आक्रमण हुए थे । परन्तु प्रस्तुत अभिलेख से अनुमान होता है कि जयसिंह - जयवर्मन् साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखने में सफल हो सागर क्षेत्र को अपने राज्य में मिला सका । यह क्षेत्र संभवत: चन्देलों से प्राप्त किया था (मिराशीका. ई. ई., भाग ४, पृष्ठ १०८ ) । प्रस्तुत अभिलेख जयसिंह जयवर्मन् का प्रथम प्राप्त अभिलेख है । भौगोलिक स्थानों में उपरिहाडा मंडल संभवत: राहतगढ़ के आसपास का प्रदेश रहा होगा । अन्य कोई नाम पढ़ने में नहीं आता ।
(मूलपाठ)
१.
२.
सिद्धि: ।। संवत् १३१२ वर्षे भाद्रपद सु ७ सो [ मे श्री [द्वारायां] महाराजाधिराज श्री मज्जय[सं] ३. [ह]देव विजयराज्ये उपरिहाडा मं[ड]ले राज श्री. ४. . हा व्यापारे तस्मिन् काले वंदना ( ? ) धिकारे ५. [तमिर्जी ?] दितपत्रकं समभिलिख्यते यथा
६.
( ७० )
अनु का जयसिंहदेव द्वितीय का मंदिर स्तम्भ अभिलेख
( संवत् १३१४ = १२५७ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख राजस्थान के कोटा जिले में अनु कस्बे में गङ्गच्छ मंदिर में एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है । इसका उल्लेख प्रो. रि. आ. स. इं. वे. स. १९०५ -६, पृष्ठ ५९ तथा भण्डारकर की उत्तरी अभिलेखों की सूचि क्र. ५५४ पर है ।
अभिलेख में ६ पंक्तियां उत्कीर्ण है । इसका आकार ३१२३ सें. मी. है । इसके ऊपर तीन आकृतियां एवं नीचे स्त्री व गर्दभ की आकृतियां बनी हैं। अंतिम पंक्ति एक-तिहाई है । अभिलेख की स्थिति ठीक है परन्तु लापरवाही से उत्कीर्ण है ।
अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी है । अक्षर ३ से ३३ सें. मी. लम्बे हैं । भाषा संस्कृत एवं गद्य में है । इस पर बोलचाल की भाषा का प्रभाव है । शब्द विन्यास की दृष्टि से श के स्थान पर स ह के स्थान पर घ, यो के स्थान पर जो उत्कीर्ण है । कुछ शब्द ही गलत हैं । माता शब्द में विभक्ति का लोप है । कुछ ऐसे क्रियापद हैं जो संस्कृत भाषा में ज्ञात नहीं हैं । इसका लेखक कोई निकृष्ट कोटि क व्यक्ति था ।
तिथि किसी विवरण के बगैर संवत् १३१४ लिखी है जो १२५७ ई. के बराबर है । अभिलेख जयसिंहदेव द्वितीय के शासन काल का है जो परमार वंशीय नरेश है । इसका ध्येय महाकवि नारायण को पंवीठ प्रतिपत्ति के अन्तर्गत म्हैसड़ा ग्राम दान में देने का उल्लेख करना है । इसके नाम के साथ चक्रवर्ती ठाकुर उपाधियां लगी हैं ।
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अत्रु अभिलेख
२७३
पंक्ति ५ में ग्राम दान को भग्न करने के लिये शाप है । शाप कया वस्तुतः गाली ही है । इससे विदित होता है कि भूदान को सुरक्षित रखने हेतु किस प्रकार प्रयत्न किये जाते थे । संभवतः भूदान अपहरण अधिक मात्रा में होता रहा होगा । पूर्ववर्णित समस्त अभिलेखों में भूदान को सुरक्षित रखने हेतु शापयुक्त श्लोकों, राजाज्ञाओं, भावी नरेशों से विनतियां आदि के माध्यमों का सहारा लिया गया है।
- अभिलेख में दानकर्ता नरेश जयसिंहदेव के वंश अथवा पूर्वजों के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है । परन्तु यह विश्वास करने के कारण हैं कि वह धार का परमार वंशीय नरेश था । इसकी उपाधि महाराजाधिराज से यह निश्चित है कि वह प्रभुसत्ता सम्पन्न नरेश था । उसके पूर्वज उदयादित्य के शासन काल में परमार साम्राज्य की उत्तरी सीमायें राजस्थान में झालरापाटन व शेरगढ़ तक विस्तृत थीं (अभिलेख क्र. २८, २९, ४५ आदि) । अत्रु इन स्थानों से बहुत दूर नहीं है । शेरगढ़ से तो यह उत्तरपूर्व में २० कि. मी. ही है। इस प्रकार यह मानना चाहिये कि इस समय परमार राज्य की उत्तरी सीमा चंबल नदी के दक्षिणी किनारे तक विस्तृत थी।
परमार नरेश जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय के समय में चाहमान राजसिंहासन पर जैनसिंह आसीन था । उसके उत्तराधिकारी हम्मीर चाहमान के संवत् १३४५ के बाल्वन अभिलेख (एपि. ई., भाग १९, पृष्ठ ४५) से ज्ञात होता है कि जैवसिंह ने मंडपदुर्ग में स्थित परमार नरेश जयसिंह का विरोध किया एवं झम्पैथघट्ट के रणक्षेत्र में सैकड़ों मालव सनिकों को बंदी बना रणथमभोर भेज दिया । दशरथ शर्मा ने झम्पैथघाट का तादात्म्य चम्बल नदी पर स्थित झपैतघाट से किया है जो कोटा-सवाई माधोपुर रेललाईन पर लाखेरी स्टेशन के पास है । अतः यह निश्चित हो जाता है कि उपरोक्त स्थान परमार साम्राज्य की उत्तरी सीमा पर स्थित था। इसके अतिरिक्त हमारे अभिलेख के जयसिंह का तादात्म्य किसी भी प्रकार जैनसिंह चाहमान से नहीं किया जा सकता । इसका राजस्थानी रूप जेतसी या जैतसी होगा, जयसिंह नहीं हो सकता।
भौगोलिक स्थानों में म्हैसडा अत्रु से ६ कि. मी. दूर भनैरा ग्राम है । भनैरा से ६० कि. मी. उत्तर पूर्व की ओर पेन्टा ग्राम है। इसकी शाहबाद तहसील अत्रु क्षेत्र से मिलती है। इस आधार पर अभिलेख के पंवीठ का समीकरण पेन्टा से करने का सुझाव है ।
(मूलपाठ) १. महाराजाधिराज श्री जयसिं.. २. घ(ह) देवेने (न) पंवीठ प्रतिपतौ (त्तौ) महा
३. कवि चक्रवत्ति ठकुर श्री नाराय४. ण(णाय) म्हैसड़ाग्राम (मः) सा (शा)सने (नेन) प्रदत्त (त्तः) [1] जो (यो) लो५. पयति तस्य माता (मातरं) गर्दभो (भः) चोदति [1] ६. सं १३[१४] वर्षः (वर्षे) [[]
(अनुवाद) १. महाराजाधिराज श्री जयसिंह- .. २. देव के द्वारा पंवीठ प्रतिपत्ति में . ३. महाकवि चक्रवर्ती ठकुर श्री नारायण ..
के लिये म्हैसड़ा ग्राम शासन द्वारा दिया गया ५. हरण करेगा उसकी माता को गर्दभ रमण करेगा। ६. संवत् १३१४ वर्ष में ।
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२७४
(७१)
मोड़ी का जयवर्मदेव द्वितीय का प्रस्तर खण्ड अभिलेख (अपूर्ण)
( संवत् १३१४ = १२५८ ई.)
परमार अभिलेख
प्रस्तुत अभिलेख दो प्रस्तरखण्डों पर उत्कीर्ण है जो १९०० ई. में मंदसौर जिले की भानपुरा तेहसील में मोड़ी ग्राम से प्राप्त हुए थे । प्रारम्भ में ये चार खण्ड थे किन्तु वर्तमान में केवल दो खण्ड ही प्राप्त हैं । इनका उल्लेख प्रो. रि. आ. स. इ. वे. सं. १९१२-१३, पृष्ठ ५६; १९१९-२०; पृष्ठ ९४ पर है । प्रस्तरखण्ड पुरातत्व संग्रहालय, इन्दौर में सुरक्षित हैं ।
प्रथम प्रस्तरखण्ड पर २८ पंक्तियों एवं दूसरे पर २३ पंक्तियों का अभिलेख है । प्रस्तरखण्ड आकार में एक समान नहीं है अपितु आड़े टेढ़े हैं । अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी है । अक्षरों की सामान्य लंबाई १.२ से १.५ सें. मी. है । भाषा संस्कृत है एवं गद्यपद्यमय है । परन्तु खण्डित अवस्था में होने के कारण कोई भी पंक्ति पूर्ण नहीं है । श्लोकों में क्रमांक दिये हुए हैं ।
- व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर ब ख के स्थान पर ष का प्रयोग है र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है । सभी स्थानों पर अनुस्वार का प्रयोग है । पुष्ट मात्राओं व अवग्रहों का प्रयोग भी है । कुछ शब्द ही तुटिपूर्ण हैं । इन सभी को पाठ में ठीक किया गया है । इनमें से कुछ त्रुटियां काल व प्रादेशिक प्रभावों को प्रदर्शित करती हैं । तिथि पंक्ति ३६ में अंकों में संवत् १३१४ माघ वदि १ लिखी है । इसमें दिन का उल्लेख नहीं है । यह मंगलवार २३ जनवरी, १२५८ ई. के बराबर | अभिलेख परमार नरेश जयवर्मदेव द्वितीय के शासन काल का है। इसका उद्देश्य मोड़ी में विभिन्न देवालयों के लिये अनेक व्यक्तियों द्वारा: ग्राम, भूमि व धन प्रदान करने का उल्लेख करना है। द्वारा कुछ मंदिरों के निर्माण करवाने का उल्लेख करना भी है ।
साथ ही एक ऋषि मल्लिकार्जुन
अभिलेख को मोटे रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है । प्रारम्भिक भाग में परमार राजवंश की प्रशंसा में श्लोकों के होने से उसे प्रशस्ति कहा जा सकता है । पंक्ति ५१ में प्रशस्ति शब्द का प्रयोग भी है। दूसरा भाग दान विवरणयुक्त है। पंक्ति ८ तक परमार वंश की पौराणिक उत्पत्ति रही होगी। इसके उपरान्त वैरिसिंह, सीयक, वाक्पतिराज, सिंधुराज आदि के उल्लेख पढ़ने में आते हैं । दूसरे प्रस्तरखण्ड में पंक्ति ३० में त्रिविधप्रवीर का उल्लेख है जो अजुर्नवर्मन् की उपाधि थी। इससे आगे, जो श्लोक ५४ का अंतिम भाग है, में एक नरेश द्वारा यदुनरेश को भयभीत करने का उल्लेख है। संभवतः यह विवरण देवपाल से संबंधित है । भीम द्वितीय चौलुक्य के समय देवपालदेव ने यादव नरेश सिंघण के साथ गुजरात पर आक्रमण करने हेतु एक संघ का निर्माण किया था ( जयसिंह सूरि कृत हम्मीर मर्दन, अंक १) । पंक्ति क्र. ३८ व ४० में शासनकर्ता नरेश जयवर्मन द्वितीय के उल्लेख हैं । यहीं प्रशस्ति का अन्त होता है ।
इससे पूर्व पंक्ति ३३ में अवन्ति निवासी पाशुपत ऋषि श्री मल्लिकार्जुन का उल्लेख है। जिसका प्रयोजन अनिश्चित है । परन्तु इसके तुरन्त बाद पंक्ति ३५ - ५२ में विभिन्न देवताओं के लिये दानों के विवरण हैं । अतः संभव है कि उसने अभिलेख के प्राप्ति स्थान पर मंदिर बनवाकर विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित करवाई होंगी । दानों का विवरण इस प्रकार है:
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मोडी अभिलेख
२७५
१०
३८-४०
(आ) अजयेश्वर
11
५२
दानकर्ता
पद दान का विवरण देवमूर्ति पंक्ति क्रमांक १. . . . देव मण्डलीक गुवासा ग्राम
एकल्लदेव... ३५-३६ २. श्री हर... ठकुर सर्वादाय समेत ३ ग्राम ३. श्री हरदेव
ठकुर अपने भाग से सर्वादाय
समेत ग्राम (?) ४. चादुरि
महाप्रधान सर्वादाय समेत ग्राम (?) वैद्यनाथ ४०-४१ ५. अरिसिंहदेव राजपुत्र का
(अ) वैद्यनाथ ४२-४३ पौत्र ६. अर्जुन कायस्थ पंडित एकहल भूमि
४५ ७. बालसिंह ग्रामाध्यक्ष
४६-४७ एक द्रम्म
४८ - दो दुकानें, एक घर १०. कंबलसिंह पुत्र डोडराज ११. ४ जौहरी
राउता ग्राम में भूमि उपरोक्त के अतिरिक्त पंक्ति ४० में नरेश के महाप्रधान चादुरि का उल्लेख है । पंक्ति ४२ में राजपुत्र गोविन्दराज के पौत्र राजश्री अरिसिंहदेव का नाम है । एकल्लदेव संभवतः एक स्थानीय देवता था, जिसकी प्रतिमा वैद्यनाथ, अजयेश्वर व अन्य देवप्रतिमाओं सहित मौड़ी के कुछ देवालयों में स्थापित की गई थी। भण्डारकर एवं बनर्जी ने अपनी उपरोक्त रिपोर्ट्स में इन देवताओं का विषद् विवरण दिया है । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस प्रकार का महत्वपूर्ण अभिलेख अत्यन्त खण्डित अवस्था में ही प्राप्त है ।
भौगोलिक स्थानों में मौड़ी वर्तमान में मंदसौर जिले में गांधी सागर की डूब में आ गया है। वहां से प्राप्त अवशेष इन्दौर व अन्य संग्रहालयों में ले जाये गये हैं। घरटोड (पं. ४६) मौड़ी से पश्चिम में १२ किलोमीटर की दूरी पर घड़ोद है । वह भी डूब में आ गया है । राउता (पं. ५२) मौड़ी से पश्चिम में १८ कि. मी. रावतपुर है । यह रामपुर के वन प्रदेश में निर्जन गांव है । गुवासा (पं. ३५) का संभवतः अब अस्तित्व नहीं है ।
(मूलपाठ) १. हतहृदि विदधसिद्धि दत्तावलंबो (बो) हेरंवो (बो) वो विवेकं वितरतु मधुनापादिते. .... २. निहंति सततं सव (ब) ह्मका निर्जराः साक्षादेव स एष सिद्धनगरी नाथाञ्चितो. ..... ३. विशंति चकिताः खिद्योतपंजा इव ॥४॥ उत्तंकाय महीध्रदर्पदलनश्च..... ४. []तं भुजमिवान्तकोजसा पश्चिमे सिंधौ तिष्ठति नंदिवर्द्धनगिरिर्भ ..... . ५. त्ययं (यम्)। क्रीडाभिश्च निदर्शयति गगनेऽध्वा यत्र भूमौ स्थितिळ शि..... ६. सनाथं प्रमारः प्रसिद्धस्तद्वंश्यं यद्भविष्यत्यपरनृपशतं तद्भविष्यत्य..... ७. . . . . . . डुकल्पो निधिरिव महसां मुंदको नाम यज्वा । तापेनार्ता धरित्री विचलति
व[सुधा] . . . . . ८. . . . . .न सह[वि]श्चक्रे धरित्रीधवः ॥१४॥ वंशे तस्य महारथः समजनि श्रीदर्प विश्चं
(श्वं) भरः संवर्ता[f] ...... ९. रणकपाद विजयी कोपि प्रभुण्यसामे तस्मिन्न जनिष्ट दुष्टभिदुरः कायस्थिरश्चान्वये ॥१....
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२७६
परमार अभिलेख
१०. नायाचितो गूढं मंत्रि [ज]नस्य सोतिनियते य [ द्वा]यसंकेतितः । सत्यं पश्यत् राजराजभु[दधौ ? ]..
११. धाः ।।१९।। आधाने यस्य हेतुः स्वमुखवि (बि) लविशत्स्वप्रभावे सवित्रीं विवा (बिबा ) - त्प्रद्योतनस्य (च्यु ) तम.....
१२. खातधूली प्रव ( ब ) लतरतमोव्यस्त मात्तंड विवं (बिबं ) शंके संतप्त [ गातं ] करकमल- पुटेनेव कृष्टं -र्धा [रल्यां (व्याम् ) । ].....
१३. षं (खं) डे यतिनगसरितां पुण्यतीर्थान्यभूवं हेम्नां श्रीवैरिसिंहस्ततितंतिनुलाः संददीस्व.... १४. हते क्षिप्तः शवेंहि (घि) क्रमः । हृन्नालीकमनो मिलल्लयममुं सीयाकमीशप्रिया प्रीता प्रेतत ... १५. २६ ।। हूणानां रुधिराक्तमालवमहीं रक्तोदकेनोक्षितां सीयाकोवु (बु) भुजेऽयुतानि सुभट व्रा [त] .. १६. तन्नाम्ना स्वयशः स्थलक्षितितले व्यक्तं समुत्पाद्यतां । इत्युकत्वा परमेश्वरेण वड़जानाथेन स . . १७. रः ।। ३० ।। यस्य वाक्पतिराजेति नाम होरा परिस्फुरन् । स मुंजो यशसां पुंज: पंचान [न].. १८. मा ( ? ) रविना ( ? ) नासांगेऽनुभवः परो मृगशिशुक्रीडास्फुरच्चक्षुषां । ता म्लानाः किरणैः. १९. रकुलं तस्मिन्कथा भूमयः || ३४ ।। तद्भ्राता सिंधुराजोऽभवदिह वसुधाप्रेम. २०. रः ।। ३६ ।। नाम्ना यच्चतुरुत्तरं शतमियन्मेरू त्रिकूटादयः प्रासादा जल . २१. [ ? ]वरोधष्णुतश्चैद्यो भीमपराक्रमस्य पुरतः के नाम रंका नृपाः । ३. २२. पंच[श-] ससर्ज्ज सदृशः श्रीकार्त्तवीर्येण वा कोदंडश्रुति निर्गता:..
२३.
. सवस्याधिकं (कम् ) ||४१ || योनीद्देव कुलस्य दर्शय [ति] यः प्रावर्षयत्यं . २४. हर्यक्षस्थाम्नि पीठे कृमय इव नृपा यस्य कृत्यानि दृष्ट्वा श्रुत्वा . . गे प्रतापैरिव नगरी ग्रामदाह प्रसर्प्यज्जवालाभिः पूर्ण [मेनं ] . २६. याप्येकदा संग्रामे तुल्यां न चक्रुरसकृद्भम्या वृषस्य [द्धि].... २७. भूभृतां च जनको भूयो व (ब) भूव क्षितौ ।। सुश्लक्ष्णायदु[वं ]..
२५.
२८.
७. प्राणा..
१. ज्ञानचारा.
२९.
३०. [दा]वरीशाङ्गिणा याट्टग्स त्रिविधप्रवीरमुकु . ३१. णत्यो यदुनृपतिरभूत्कांदिसी (शी ) कोतिदीनः ॥ ५४ ॥ क.. ३२. [म] रुचिः सत्यः सतां सम्मतः । एतस्मिन्नपि शूलपाणि[र] . ३३. : पाशुपतोऽवं [त्य] ऋषि: श्री मल्लिकार्जुनः । कर्को..... ३४. मंडले स्वभुक्तौ मंडलीकयमदंडर [ [ जितश्री] एकल्लदेवा [य].... ३५. द[ ]वेन प्रदत्तमिति ।। इति गुवासाग्रामस्य [दा]नं ।। वारिहिगा [उ]. ३६. कल्लदेवः क्षितौ ।। १ ।। सम्वत् १३१४ वर्षे माघवदि १ अह. ३७. त्रयमात्रं सवृक्षमालाकुलं सर्व्वादायसहितं ठकुर श्री हर.. ३८. श्रीमज्जय [ वर्म्म] देवकल्याण राज्ये । ठकुर श्रीहरदेवेस. ३९. यदे [वपरिगृहीतः स्वभुक्तावायातं च मत्वा सवृक्षमालाकु[लं ]. ४०. म अद्येह श्रीमज्जयवर्म्मदेवराज्ये महाप्रधानचा [दुरि].. ४१. क्ष मालाकुलं सर्व्वादायसहितं देव श्री वैद्यनाथायोद.. ४२. . राजपुत्र श्री गोविंदराज पोत्रेण राजश्री अरिसिंहदे [वेन ? ]. ४३. ।। अर्द्ध देवश्रीवैद्यनाथाय ।। अर्द्ध श्री अजयेश्वराय च.....
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मोड़ी अभिलेख
४४ ॥ उदकेन प्रदत्त इति ।। मौड़ी मंडले पत्तनादाग्नेयां दिशि ] · ४५. नैगमकायस्थ पं श्री अर्जुनेन हर्लकस्य भूमी प्रदत्ता ।।....
४६. ग्रामे ।। घरटीदग्रामेधिप । राज ( विषाराज ? ) । वा (बा) ल सी (सिं) हेन ग्रामाद्दक्षिण देवेन हलैकस्य भूमी प्रदत्ता । ग्रामादीशान्यां दिशि ।। वु (बु) द्ध ( ? ) ४८. कादायान्मासं मासं प्रतिद्रम्म १ प्रदत्तः । तथादायानुदिनं प्र
४७.
४९. मध्य हट्टद्वयं ।। गृहैकं च ।। डोडराज । कम्व ( ब ) लसी (सिं) ह सुतेन
५०. नीयो भवद्भिः । अष्टाविंशति कोटयस्तु म ( न ) रकाणां च दारुणा: ' ५१. • यनविप्रेण विदुषा वामनेन वै । प्रशस्तिः सदलंका [णां] कृतेह ५२. भूमि: मणिवाय ४ ग्रामपश्च ( श्चि) म दिशायां प्रदत्ता महिराउता ग्रामे शु ( शुभमस्तु )
(अनुवाद)
१- ३. जिसका हृदय अशक्त हो रहा है उसकी कार्यसिद्धि को अवलम्बन देने वाले, मधु नामक दैत्य के विघ्न को नष्ट करके - जिनमें विघ्नयुगल के झुण्ड के समान भ्रान्त होकर नष्ट हो जाते हैं, सिद्ध नगरी के स्वामी एवं ब्रह्मा आदि देवगणों द्वारा साक्षात अर्चित ऐसे हेरम्ब ( गणेश) आपको विवेक प्रदान करें ॥४॥
• उत्तंक के लिये पर्वतों के दर्प का दलन करने वाला
३.
४.
'उठाया हुआ । सिंधु के पश्चिम में नंदिवर्द्धन नाम का पर्वत स्थित है, यमराज के तेजों की भुजा के समान...
५.
• ' गगन में विचरण करते हुए क्रीड़ा करने वाले भूमि पर स्थिति को निदर्शन करते हैं'
६.
७.
८.
१०.
११.
याचना न किया गया हुआ, गुप्त मंत्रिजन का वह अति निश्चित संकेत किया सत्य ही देखो समुद्र में कुवेर को
हुआ
।। १९ । । गर्भाधान में जिसका कारण अपने मुख रूपी बिल में प्रवेश के प्रभाव में जन्म देने वाली (सविती) प्रद्योतन (सूर्य) के प्रतिबिंब से गिरा हुआ
१२.
• उखाड़ी गई हुई धूली के उड़ने से प्रबल अंधकार में छुप गया हुआ सूर्यबिंब की शंका करता हूं कि तपे हुए शरीर को करकमल रूपी पुट से मानो धरती पर खींच लिया हो'
२७७
परमार नामक नरेश प्रसिद्ध हुआ, उसके वंश में बाद में सैकड़ों नरेश होंगे नक्षत्र तुल्य, तेज के भंडार के समान, मुंदक ऋषि जिसके ताप से पीड़ित पृथ्वी विचलित होती है
• पृथ्वीपति ने ( उद्धार किया) || १४ | उसके वंश में एक वीर उत्पन्न हुआ जो लक्ष्मी के दर्प से जगत का परिपालन करने वाला था ..
१३.
• एक पांव से रण में विजयी होने वाला कोई तो भी उसमें उत्पन्न हुआ, दुष्टों का दमन करने वाला, शरीर से स्थिर इस वंश में 19
...
• खण्ड में सन्यासी पर्वत एवं नदियों के पुण्यतीर्थ हुए श्री वैरिसिंह ने सुवर्णों की तुलाओं का दान दिया
१४.
• मारने पर शव पर चरण रखा । हृदय में जिसका समावेश हो रहा है ऐसे इस सीयक पर ईशप्रिया (पार्वती) प्रसन्न हुई
१५. · · · ।।२६।। हूणों के उदक से सिंचित करके
रूधिरों से भीगी हुई यह मालव भूमि जिसको सीयक ने रक्तरूपी भोगी एवं दस हजार योद्धाओं के समूह
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परमार अभिलेख
१६. • • • उसके नाम से अपनी कीति के स्थल भूतल पर स्पष्ट रूप से उत्पन्न कीजिये ।
ऐसा कह कर परमेश्वर वडजानाथ ने . . · · ॥३०॥ जिसका वाक्पतिराज ऐसा नाम दिनरात फैल रहा था, वह मुंज कीतियों का पुंज पंचमुखी . . . .
· नेत्रों को मृग शिशु की क्रीड़ा के समान चंचल प्रतीत होता था । वह किरणों से
म्लान • .. १९. . . 'कुल उसमें कथा की भूमियां ॥३४।। उसका भाई सिंधुराज हुआ जो वसुधा पर प्रेम
करने वाला था.. २०. . . ॥३६॥ जिसके नाम से एक सौ चार मेरू त्रिकुटा आदि नामक प्रासाद . . . २१. . . 'भयंकर पराक्रम वाले जिसके सन्मुख इन क्षुद्र नरेशों की क्या स्थिति ॥३... २२. . . 'श्री कार्तवीर्य के समान निर्माण किया अथवा धनुष की ध्वनि से निकले हुए... २३. . . अपने मित्र से भी अधिक ॥४१॥ जो देवकुल के वंश का निदर्शन करता है व वर्षा
करता है। .. २४. · · ·यक्षस्थान पीठ पर कीड़े के समान नरेश जिसके कृत्यों को देखकर सुनकर . . . २५. . . 'प्रतापों के समान नगरी ग्रामों के दहन में फैलने वाली ज्वालाओं से पूर्ण इसको .. २६. . . 'जो एक बार युद्ध में इसकी समता नहीं कर सके बार २ रमणीय वृषभ के . . . २७. • • 'नरेशों को जन्म देने वाला पुनः पृथ्वी पर हुआ । अच्छे लक्षणवाली यदु वंश में .. २८.
३०. . . 'विष्णु के समान वह त्रिविधवीर मुकुटों से. . . ३१. . . 'अतिदीन यदुनरेश को भय के कारण दिशाज्ञान नहीं हो पाया ।।५४।।... ३२. · · 'रूचि रखने वाला सत्य पालन करने वाला, सज्जनों को मान्य । इस पर भी भगवान
शंकर' .. ३३. . . शिवजी का उपासक श्री मलिकार्जुन नामक अवंति वासी ऋषि । . . . ३४. . . 'अपने द्वारा भोगे जा रहे मंडल में मंडलीक के द्वारा एकल्लदेव के लिये . . ३५. . . 'देव ने यह प्रदान किया । इस प्रकार गुवासा ग्राम का दान. . . ३६. . . 'एकल्लदेव पृथ्वी पर ।।... ॥ सम्वत् १३१४ वर्ष में माधवदि १ आज यहां . . ३७. · · ·तीन मात्रा वृक्षपंक्ति से व्याप्त सभी आय समेत ठकुर श्री हर . . .
· · · श्रीमत् जयवर्मदेव के कल्याण राज्य में । ठकुर श्री हरदेव . . . • • 'देव के द्वारा ग्रहण किया हुआ, अपने भोगने के लिये प्राप्त हुआ है ऐसा मानकर
वृक्षमालाओं से व्याप्त . . . ४०. · · · आज यहां श्री जयवर्मदेव के राज्य में महाप्रधान चादुरि . . . ४१. . . 'वृक्षमाला से व्याप्त, सब प्रकार की आय समेत, देव श्री वैद्यनाथ के लिये . . . ४२. · · · राजपुत्र श्री गोविन्दराज के पौत्र द्वारा राजश्री अरिसिंह देव ने ४३. ॥ आधा श्री वैद्यनाथ के लिये । आधा श्री अजयश्वर के लिये और ' . . ४४. जल संकल्पपूर्वक दिया । मौड़ी मंडल में नगर से आग्नेय (पूर्व-दक्षिण) दिशा... ४५. . . 'निगम कायस्थ पंडित श्री अर्जुन ने एक हल भूमि दी। .. ४६. गांव में । घरटौद ग्राम के स्वामी । - ‘बालसिंह ने ग्राम से दक्षिण . .
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मांधाता अभिलेख
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४७. . . 'देव ने एक हल भूमि दी, ग्राम के ईशान (उत्तर पूर्व) दिशा में । बुद्ध' ..." ४८. • • 'आय से प्रति मास १ द्रम्म दिया । इस प्रकार से दिया गया प्रतिदिन ..... ४९. . . 'मध्य की दो दुकानें । एक घर । डोडराज। कम्बलसिंह के पुत्र ने... .. ५०. · · ·आपको इसे मानना चाहिये । अट्ठाईस करोड़ भयंकर नरकों का. . . ५१. . . 'विद्वान वामन ब्राह्मण ने निश्चय से यह प्रशस्ति अच्छे अलंकरण हेतु लिखी. . . ५२. . . 'चार जौहरियों द्वारा ग्राम की पश्चिम दिशा में राउता ग्राम में भूमि दी. . .
(७२) मांधाता का जयवर्मदेव द्वितीय का ताम्रपत्र अभिलेख
___ (सं. १३१७=१२६० ई.) प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो १९०४ में नर्मदा के किनारे मांधाता के पास प्राप्त हुए थे। इसका उल्लेख स्थानीय समाचार पत्रों; धार स्टेट के पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट्स; एपि. इं., भाग ९, १९०७-८, पृष्ठ ११७ व आगे पर किया गया। वर्तमान में ये केन्द्रीय संग्रहालय, नागपुर में सुरक्षित हैं।
ताम्रपत्रों का आकार ४३.५४ २७.३ सें. मी. है। इनमें लेख प्रथम ताम्रपत्र पर एक ओर एवं दूसरे पर दोनों ओर खुदा है। दोनों में दो-दो छेद हैं जिनमें तांबे की कड़ियां पड़ी हैं। अभिलेख ५३ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १९ व दूसरे पर क्रमशः २० व १४ पंक्तियां उत्कीर्ण हैं। दूसरे ताम्रपत्र पर अन्त में दोहरी पंक्ति के चौकोर में गरुड़ का रेखाचिन है। इसका शरीर मानव का एवं मुखाकृति पक्षी की है। इसका शरीर बाई ओर झुका है। मुख दाहिनी ओर है। चार हाथ हैं। दो अभिवादन की मुद्रा में हैं। तीसरा हाथ ऊपर उठा है। चौथे में फण उठाये एक नाग है। गरुड़ के बाल खड़े हैं। दाढ़ी है। आभूषण पहने हैं। वस्त्र उड़ रहे हैं। यह परमार वंश का राजचिन्ह है। _ अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी है। अक्षरों की लम्बाई .८ सें. मी. है। अक्षर सुन्दर हैं व ध्यान से खुदे हैं। भाषा संस्कृत है एवं गद्यपद्यमय है। इसमें ३१ श्लोक हैं, शेष गद्य में है। व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा, म् के स्थान पर अनुस्वार बना है। कुछ स्थानों पर संधि का अभाव है। कुछ शब्द ही गलत हैं जिनको पाठ में सुधार दिया गया है। इनमें कुछ अशुद्धियां काल व प्रादेशिक प्रभाव को प्रदर्शित करती हैं।
अभिलेख में तीन तिथियां हैं। पंक्ति २५ में वर्ष संवत् १३१७ केवल शब्दों में है। पंक्ति २८-२९ में अंकों में संवत् १३१७ अग्रहण शुक्ल ३ रविवार नक्षत्र एवं योग सहित है। पंक्ति ४९ में अंकों में संवत् १३१७ ज्येष्ठ सुदी ११ गुरूवार है। इनमें दूसरी तिथि को भूदान की घोषणा की गई थी एवं अंतिम तिथि को शासन पत्र लिखवा कर निस्सृत किया गया। इस प्रकार अग्रहण मास ज्येष्ठ मास से पहले पड़ा था। अतः यह व्यतीत वर्ष कार्तिकादि विक्रम संवत् से संबद्ध है। इस आधार पर भूदान घोषित करने की तारीख रविवार ७ नवम्बर, १२६० ई., एवं शासन पत्र निस्सृत करने की तारीख गुरुवार १२ मई, १२६१ ई. के बराबर है।
इसका प्रमुख ध्येय जयवर्मदेव द्वितीय द्वारा प्रतिहार श्री गंगदेव से महुअड़ पथक में स्थित बड़ौद ग्राम लेकर, इसके ६ भाग कर, ३ ब्राह्मणों को दान करने का उल्लेख करना है । प्रतीत
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परमार अभिलेख
होता है कि पंक्ति २८ में मंगदेव का नाम उत्कीर्णकर्ता की भूल से दोहरा दिया गया है। यदि दानकर्ता गंगदेव था तो उससे ग्राम लेने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। दूसरे, उस स्थिति में राजकीय शासन पत्र की आवश्यकता नहीं होती, सामान्य दानपत्र ही पर्याप्त होता ।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मणों का विवरण पंक्ति ३१-३६ में है--(१) नवगांव से आया, भार्गव गोत्री, भार्गव-च्यवन-आप्नवान-और्व-जमदाग्नि पांच प्रवरों वाला, माध्यंदिन शाखा का अध्यायी, द्विवेद वेद का पौत्र, पाठक हरिदर्शन का पुत्र अग्निहोत्रि माधव शर्मा ब्राह्मण के लिये ४ भाग; (२) टकारी स्थान से आया, गौतम गोत्री, गौतम-अंगिरस-औचथ्य तीन प्रवरों वाला, आश्वलायन शाखा का अध्यायी, द्विवेद लाषु का पौत्र, द्विवेद लीमदेव का पुत्र, चतुर्वेद जनार्दन शर्मा ब्राह्मण के लिए १ भाग; (३) घटाउपरि से आया, भारद्वाज गोत्री, अंगिरस-वार्हस्पत्य-भारद्वाज तीन प्रवरों वाला, माध्यंदिन शाखा का अध्यायी, दीक्षित केक का पौत्र, दीक्षित दिवाकर का पुत्र, दीक्षित धामदेव शर्मा ब्राह्मण के लिये १ भाग। इस सूचि में प्रथम ब्राह्मण, उसके पिता व पितामह की उपाधियां भिन्न हैं। दूसरे ब्राह्मण की उपाधि अपने पिता व पितामह से भिन्न है, जबकि तीसरे की एक समान है। प्रथम ब्राह्मण कुछ विशिष्ट रहा होगा क्योंकि उसको सबसे अधिक अंश दान में मिले थे।
दानकर्ता नरेश की वंशावली में क्रमश : भोजदेव, उदयादित्य, नरवर्मन्, यशोवर्मन्, अजयवर्मन्, विंध्यवर्मन्, सुभटवर्मन्, अर्जुनवर्मन्, देवपालदेव, उसका पिता हरिश्चन्द्र, बड़े पुत्र जयतुगिदेव एवं छोटे पुत्र दानकर्ता जयवर्मन् के उल्लेख हैं। सभी विवरण अलंकारिक भाषा में हैं। परमार वंश का उल्लेख श्लोक ५ में हैं। आगे कुछ अन्य विवरण भी हैं। अभिलेख नरेश द्वारा नियुक्त सांधिविग्रहिक पंडित श्री मालाधर की सम्मति से रचा गया। इसका लेखक श्रेष्ठ पंडित गविश पुत्र विद्वान हर्षदेव था। इसका संशोधक विद्वानों में श्रेष्ठ गोसेक का शिष्य स्मृतिशास्त्र का ज्ञाता एवं व्याकरण शास्त्र में पारंगत आमदेव था। यहां यह विचारणीय है कि प्रस्तुत अभिलेख के प्रायः सभी प्रारम्भिक श्लोक पूर्ववणित अर्जुनवर्मन् एवं देवपालदेव के अभिलेखों में ज्यों के त्यों मिलते हैं जो महाकवि मदन द्वारा रचे गये थे।
___ अभिलेख का ऐतिहासिक महत्व अत्यधिक है। दान के समय नरेश मंडपदुर्ग में स्थित था। संभवतः उसने अपनी राजधानी धार से हटा कर मंडपदुर्ग में बना ली थी। तत्कालीन राजनीतिक स्थिति के अध्ययन से इस परिवर्तन का कारण समझ में आ जाता है। १२५० ई. के पश्चात् दिल्ली सुल्तान नासिरुद्दीन के सेनापति बलबन ने चन्देरी व नरवर तक सफल आक्रमण किये थे जो परमार राज्य के उत्तरी छोर पर स्थित थे। दूसरी ओर यादव नरेशों के आक्रमण शुरू हो गये थे। यादव नरेश कृष्ण के अनेक अभिलेखों में मालवों पर आक्रमणों के विवरण मिलते हैं (एपि. इं., भाग २१, पृष्ठ २३ व पृष्ठ ३३२ आदि)। गुजरात के बाघेला बीसलदेव ने भी इसी समय धारा नगरी पर आक्रमण किया था (इं. ऐं., भाग ११, पृष्ठ १०७)। इस प्रकार निरन्तर अक्रिमणों से त्रस्त हो जयवर्मन् द्वितीय अथवा उसके अग्रज जैतुगिदेव ने राजधानी परिवर्तित कर मंडपदुर्ग में बना ली। सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से पहाड़ियों से घिरा मंडपदुर्ग (मांडवगढ़) अधिक उपयोगी था।
भौगोलिक स्थानों में धार, मंडपदुर्ग व मालवा सर्व विख्यात है। रेवा नर्मदा का अन्य नाम है। कपिला इसकी एक सहायक नदी है। महुअड़ का उल्लेख पूर्ववणित सं. १२८२ के मांधाता अभिलेख (क्र. ६५) में प्रतिजागरणक के रूप में आ चुका है। बड़ौद आधुनिक बुरुड ग्राम है जो मांधाता से प्रायः १५ कि. मी. दूर है। अमरेश्वर तीर्थ मांधाता में है। दानप्राप्तकर्ता
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मान्धाता अभिलेख
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ब्राह्मणों के मूल निवास स्थानों में टकारी का उल्लेख देवपालदेव के उपरोक्त अभिलेख में भी है। नवगांव चान्दा जिले में इसी नाम का कस्बा है। घटाउपरि का तादात्म्य कठिन है।
मूलपाठ (प्रथम ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग) १. ओं नमः पुरुषार्थचूडामण्ये धर्माय ।
प्रतिविम्व (बिम्ब) निभाद्भूमेः कृत्वा साक्षात् प्रतिग्रहं । जगद् आ--
ल्हादयन् दिश्या[द्] द्विजेंद्रो मङ्गलानि वः ।।१।। जीयात् परशुरामोसौ क्षत्रः क्षुण्णं रणाहतः । सन्ध्यार्क विवं (बिंबं)ए
वोर्वीदातुर्यस्यति ताम्रताम् ।।२।। येन मन्दोदरीवाष्पवारिभिः शमितो मि (म) धे। प्राणेश्वरी-वियोगाग्निः स
रामः श्रेयसेऽस्तु वः।।३।। भीमेनापि धृता मूर्धनि यत्पादाः स युधिष्ठिरः । वंशायेनेंदुना जीयात्स्वतुल्य इ
व निर्मितः ।।४।। परमारकूलोत्तंस: कंसजिन्महिमा नपः। श्रीभोजदेव इत्यासीन्नासीरक्रान्त-भूल (त)ल:
॥५॥ यद्यशश्चन्द्रिकोद्यों (यो)ते दिगुत्संगतरंगिते । द्विषन्नृपायशपुञ्जपुण्डरीकैनिमीलितम् ॥६॥ ततोऽभूद् उ
दयादित्यो नित्योत्साहैककौतुकि (की)। असाधारण-वीरश्रीर-श्रीहेतुविरोधिनाम् ॥७॥ महाकलहकल्पा
न्ते यस्योद्दामभिराश गैः । कति नोन्मूलितास्तुन्गा (ङ्गा) भूभृतः कटकोल्वणा :।।८।। तस्माच्छिन्नद्विषन्मा नरव
र्मा नरधिपः । धर्माभ्युद्धरणे धीमानभूत्सीमा महीभुजाम् ।।९।। प्रतिप्रभातं विप्रेभ्यो दत्तै मपदैः स्वयमनेकपदतां निन्ये धम्मो येनैकपादपि ॥१०॥ तस्याजनि यशोधर्मा पुनः क्षत्रियशेखरः । तस्मादजयव
आभूज्जयश्री-विश्रुतः सुतः ।।११।। तत्सूनुर्वी (वीर मू) द्धन्यो धन्योत्पत्तिरजायत । गुर्जरोच्छेदनिर्व्व (ब)न्धी विन्ध्यवर्मा महा
भुजः ॥१२॥
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परमार अभिलेख
धारयोद्धतया साधं दधाति स्म त्रिधारतां। सांयुगीनस्य यस्यासिस् वातुं लोकत्रयीमिव ।।१३॥ - तस्या
मुष्यायणः पुत्रः सूत्रामशरीरथाशिषत् । भूपः सुभटवर्मेति धर्मे तिष्ठा (ष्ठ)न्महीतलम् ।।१४।। यस्य ज्वलति द(दि)ग्जे
तुः प्रतापस्तपनाते (तेः)। दावाग्निच्छया (अ)नाद्यापि गर्ज़द् गू(गु)जरपत्तने ।।१५।। देवभूयं गते तस्मिन्नंदनोर्जुन भूपति :। दोष्णा धत्तेऽधुना धात्रि (त्री) वलयं वलयं यथा ।।१६।। वा (बा) ललीलाहवे यस्य जैवसिन्हे (सिंहे) पलायिते । दिकपा (क्पा) लहा
- सव्याजेन यशो दिक्षु विजृभि (म्भि)तम् ॥१७॥ काव्यगान्धर्व सर्वस्वनिधिना येन साम्प्रतं । भारावतरणं देव्याश्चक्रे
पुस्तकवीणयोः ।।१८।। येन त्रिविधवीरेन (ण) त्रिधा पल्लवितं यशः । धवलत्वं दधुस्त्रीणि जगन्ति कथमन्यथा
॥१९॥ अथार्थिनामपुण्येन पुण्येन स्वर्गसुध्रुवां । सोऽद्भुतत्यागशीलश्च शृंगारी च दिवं गतः
॥२०॥
तत: परमारचन्द्रस्य हरिश्चन्द्रस्य नन्दनः । प्रशास्ति मालवक्षोणी देवपाल: प्रतापवा
(द्वितीय ताम्रपत्र-अग्रभाग)
न् ॥२१॥ तस्मिन्नन्द्रपदं मुदाश्रितवति श्री देवपाले नृपे तत्सूनुद्विषदंतको निजगुणैर्लोका
न् सदा रञ्जयन् । धीमान् जैतुगिदेव एष नृपतिः श्रीमालवाखन्ड (ण्ड)लः शास्ति क्षोणिमिमामुदार च-...
रितैः स्वैर्वा (|)लनारायणः ॥२२।। भुक्त्वा राज्यसुखं तस्मिन् प्राप्ते त्रिदशमंदिरं । शास्ति तस्यानुजः क्षोणी जय
वर्मा जनाधिपः ॥२३॥ स एष नरनायकः सर्वाभ्युदयी महुअड़पथके बड़ौदग्रामे समस्त राजपुरुषान् वा (ब्रा)२४. ह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि-पट्टकिल-जनपदादीश्च वो (बो) धयत्यस्तु वः संविदितं यथा श्रीमन्मण्डप
दुर्ग-स्थितैर
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मान्धाता अभिलेख
२५. स्माभिः सप्तदशाधिकत्रयोदशस (श) त-संवत्सरे संसारस्यासारतां दृष्ट्वा । तथा हि । वाताभ्रविभ्रममिदं वसु
२६.
२७.
परलोकयाने ॥ २४ ॥
इति सर्व्वं विमृश्य दानादृष्टफलमङ्गि (ङ्गी) कृत्य प्रती श्रीगङ्गदेव-पावत ( द्) वड़ौदग्रामोयं २८. त्रिभ्यो व्रा (ब्रा) ह्मणेभ्यो दापितः तेन च प्रती श्रीगाङ्गदेवेन सम्म (स्व) त् १३१७ आग्रहायणशुक्ल तृतीयायां तिथौ
२९. रविवासरे पूर्व्वाषाढ़ा नक्षत्रे शूलनाम्नि योगे श्रीमद्-अमरेश्वर-क्षेत्रे रेवाया दक्षिणे कूले रेवा - कपिला
धाधिपत्य मापातमा मधुरो विषयोपभोगा: (गः) । प्राणस्तृणाग्रजलविन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो
३०. संगमे स्नात्वा भगवन्तं चराचरगुरुं श्रीमद् अमर ( रे ) श्वरदेवं पंचोपचारैः समभ्यर्च्य जीवितं विद्युच्चञ्चलं ज्ञात्वा
३१. नवगाव (गांव) स्थान - विनिर्गताय भार्गवसगोत्राय भार्गवच्या (य) वन-आप्नवानौर्वजामदग्न्येति पंचप्रवराय माध्यं
३२. दिनशाखाध्यायिने द्विवेदी ( पौ) ताय पा हरिशर्म्मपुत्राय अग्नि माधवशर्मणे ब्रा (ब्रा) ह्मणाय पदानि चत्वारि
३३. ४ टकारस्थान - विनिर्गताय गौतमसगोत्राय गौतमाङ्गिरस - औचत्थ्येति त्रिप्रवराय आश्वलायन शाखाध्या
३४. यिने द्विलाषूपौत्राय द्वि लीमदेवपुत्राय च जनार्ज (ई ) न-शर्मणे ब्रा (ब्रा) ह्मणाय पदमेकं १ घटाउपरिस्था
३५. न-विनिर्गताय भारद्वाज - सगोत्राय आंगिरस -वा (बा) र्हस्पत्य-भारद्वाजेति त्रिप्रवरायं माध्यंदिशाखाध्यायिने
३६. दी केकूपौत्राय दी दिवाकर- पुत्राय दी धामदेवशर्मणे ब्रा (ब्रा) ह्मणाय पदमेकं १ एवं एम्य: स (यस् ) त्रिभ्यो
३७. व्रा (ब्रा) ह्मणेभ्यः षट्भि (द्भि ) रव्य ( व्यं) टकैर्व्वौदग्रामोयं समस्तोपि चतुः क (तुष्क) ङ्कटविशुद्धः सवृक्षमालाकुलः सहिरण्य-भा
२८३
३८. गभोगः सोपरिकरः सर्व्वादायसमेतः सनिधे (धि ) निक्षेपो माता - पितो [ रा ] त्मनश्च पुण्ययशोऽभिवृद्धये
३९. चन्द्रार्कार्णव-[क्षि]ति - समकालं यावत् परया भक्तया देवत्रा (ब्रा) ह्मणभुक्तिवज्जं शासनेनोदक-पू
( द्वितीय- ताम्रपत्र- पृष्ठ भाग )
४०. र्व्वं प्रदत्तः तन्मत्वा तन्निवासि पट्टकिल - जनपदैर्यथा दीयमानभागभोगकर-हिरण्यादिकमाज्ञाविधे
४३.
४१. यैर्भूत्वा सर्व्वमेतेभ्यः समुपनेतव्यम् सामान्यं चैतद्धर्म्मफलं वु (बु) वास्मद्वंशजैरपि भावि - भोक्तृभिर
४२. स्मत्प्रदापित धर्मादायोऽयमनुमन्तव्यः पालनीयश्च । उक्तं च । (ब) हुभिर्व्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादि
भि: यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्यतस्य तदा फलं (लम् ) ||२५||
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परमार अभिलेख
स्वदतां परदत्तां वा यो हरेत् वसुन्धरां (राम्)। विष्टायां स कृमिर्भूत्वा पितृभिः सः (सह) मज्जति ॥२६॥ षष्टि वर्षसहस्राणि स्वर्गे तिष्ठति भूमिदः । आच्छेत्ता चानुमत्ता (मन्ता) च तान्येव नरके वसेत् ।।२७॥ सर्वानेवं भाविनो भूमिपालान् भूयो भू
यो याचते रामभद्रः । सामान्योऽयं धर्मसेतु पाणां काले काले पालनीयो
भवद्भिः ॥२८॥ इति कमलदलाम्बु (म्बु) वि (बि)न्दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितञ्च । सक
____ लमिदमुदाहृतं च बुद्धा (बुवा) न हि पुरुषः परकीर्तयो विलोप्याः ।।२९।। - इति । संवत् ४९. १३१७ ज्येष्ठशुदि ११ गुरावयेह श्री-मण्डपदुर्गे महाराजाधिराज-श्रीमज्जयम५०. देव-नियुक्तेन संधिविग (ग्र) हिक पं श्रीमालाधर-सम्मतेन ।
पंडितेन्द्र गवि (वी) शस्य सु(सू) नुना विदुषा स्पु (स्फु)टं । हर्षदेवाभिधेनेदं ले (लि) खितं राजशासनम् ।।३०।।। यो वेत्त्यपारं स्मृतिशास्त्रसारं गोसेक-नाम्नो वु(बु)धपुंगव
शिष्यः सुधीः शाब्दि (ब्दि) क आमदेवो भूपस्य लेख्यं समशोधि तेन ॥३१।। - उत्कीर्णमिदं रु (रू) पकार-कान्हड़ेन । ५३. दूतो महाप्रधान-राजश्री-अजयदेवः । स्वहस्तोयं महाराजस्य ।
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग) १. ओं । पुरुषार्थों में सर्वश्रेष्ठ धर्म को नमस्कार ।
समस्त पृथ्वी के प्रतिबिंब स्वरूप भूमि को ग्रहण कर जो संसार को आनन्दित करते हैं ऐसे द्विजेन्द्र आपका कल्याण करें ।।१।।
रण में हत क्षत्रियों के रक्त से व्याप्त अस्त होते सूर्य के प्रतिबिंब के समान पृथ्वी जिस दानदाता के लिये लालिमा धारण किये हुए है उस परशुराम की जय हो ।।२।।
जिसने अपनी प्राणेश्वरी (सीता) की वियोगाग्नि को युद्ध में मंदोदरी के अश्रुजल से बुझाया वह राम आपको श्रेय प्रदान करे ॥३॥
भीम के द्वारा जिसके चरण अपने मस्तक पर धारण किये गये हैं, जिसने वंश को चन्द्र के समान (निर्मल) बनाया, वह युधिष्ठिर सदा विजयी हो ॥४॥
परमार कुल के सर्वश्रेष्ठ, कंस को जीतने वाले की महिमा वाला नरेश श्री भोजदेव नामक हुआ जिसने सीमाओं तक पृथ्वी को विजित किया ॥५॥
दिशाओं की गोद तरंगित होने पर जिसकी यश चन्द्रिका उदित होते ही, शत्रु नरेशों का यश कमलों के समान मुरझा गया ।।६।।
उसके (पश्चात्) उदयादित्य हुआ जो सदा उत्साह में कुतुहलपूर्ण, असाधारण वीर व श्रीयुक्त था, और विरोधियों की अलक्ष्मी का कारण था ॥७॥
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पान्धाता अभिलेख
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कल्पान्त के तुल्य महायुद्धों के होने पर जिसके तीखे बाणों द्वारा कितने अत्यन्त उच्च नरेश शक्तिशाली सेनाओं सहित उन्मूलित नहीं किये गये ? ( महाप्रलय काल में वायु द्वारा कितने महापर्वत नहीं उखाड़े गये) ॥८।। ___ उससे नरवर्मन् नरेश हुआ जिसने अपने शत्रुओं के मर्मस्थल छिन्न कर दिये । बुद्धिमान जो धर्म के उद्धार करने में व राजाओं के लिये सीमा स्वरूप था ॥९॥
प्रतिदिन प्रातःकाल स्वयं ब्राह्मणों के लिये ग्रामपद देने से उसने एक पांव वाले धर्म को अनेक पांव प्रदान कर दिये ॥१०।।
उसका पुत्र यशोवर्मन् हुआ जो क्षत्रियों के मुकुटरूप था। उसका पुत्र अजयवर्मन् था जो विजय व लक्ष्मी के लिये विख्यात था ॥११॥
उसका पुत्र विध्यवर्मन् था जिसकी उत्पत्ति द्वारा (वंश) धन्य हुआ जो वीर शिरोमणि था और गुर्जर (नरेश) को हराने में उस महाभुज ने (शक्ति) लगाई ॥१२॥ __रणकुशल जिसका खङ्ग मानो तीनों लोकों की रक्षा करने के लिये ही धारा नगरी के उद्धार करने के साथ ही त्रिधारता को धारण कर रहा है ॥१३॥
उसी के गुणधर्मवाला इन्द्र के समान शोभायुक्त पुत्र सुभटवर्मन् भूतल पर धर्म में आरूढ़ हुआ ॥१४॥
सूर्य की कांति वाले दिग्विजयी जिसका प्रताप जलते हुए गुर्जर नगर में दावानल के बहाने से आज भी गर्जना कर रहा है ॥१५।।
(उसके) स्वर्गलोक को जाने पर उसका पुत्र अर्जुन नरेश आज भी पृथ्वीमंडल को अपने बाहू पर कंकण के समान धारण कर रहा है ।।१६।। __ बाललीला के समान युद्ध में जैनसिंह (जयसिंह) के प्लायन करने पर जिसका यश दिक्पालों के हास्य के बहाने से दिशाओं में फैल रहा है ।।१७।। __ साहित्य एवं गायन-विद्या के सर्वस्व निधि जिसने मानो सरस्वती देवी का पुस्तक व वीणा का भार ही उतार लिया हो ॥१८॥
तीन प्रकार के वीर जिसने अपनी कीर्ति तीन प्रकार से विकसित की, जगत को तीन प्रकार से पवित्र करने में उसके अतिरिक्त अन्य कौन ॥१९।। ___ उसके पश्चात् अद्भुत त्यागशील एवं शृंगारी वह याचकों के दुर्भाग्य से एवं स्वर्ग-रमणियों के पुण्य से स्वर्गलोक को गया ॥२०॥ ___ उसके पश्चात् परमार वंश के चन्द्र हरिश्चन्द्र का पुत्र प्रतापवान देवपाल मालव भमि पर शासन करता है ॥२१॥
(द्वितीय ताम्रपत्र-अग्रभाग) जब वह नरेश देवपालदेव आनन्दपूर्वक इन्द्र के निवास को चला गया, तो उसका पुन बुद्धिमान जयतुगिदेव मालव-खण्ड का नरेश हुआ जो शत्रुओं के लिये काल है, अपने गुणों द्वारा प्रजा का सदा मनोरंजन करता है और अपने उदार चरित्रों से बालनारायण के समान इस पृथ्वी पर शासन करता है ॥२२॥
राज्यसुख भोगकर उसे स्वर्ग प्राप्त करने पर उसका छोटा भाई नरेश जयवर्मन् पृथ्वी पर शासन करता है ॥२३॥ २३. वह ही नरनायक सब प्रकार से उदयशील होकर महुअड़ पथक में वड़ौद ग्राम में (आये)
सभी राजपुरुषों
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२८६
परमार अभिलेख
२४. श्रेष्ठ ब्राह्मणों, वहां के निवासियों, पटेलों और ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं कि आपको विदित हो कि श्री मण्डप दुर्ग में ठहरे हुए
२५. हमारे द्वारा संवत्सर तेरह सौ सतह में संसार की असारता को देखकर, उसी प्रकार
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषयभोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले • जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है || २४||
२७. इस सब पर विचार कर दान के अदृष्टफल को स्वीकार कर, प्रतिहार श्री गंगदेव के
पास से ( लेकर ) यह बड़ौद ग्राम
२८. तीन ब्राह्मणों के लिये दिया गया और उस प्रतिहार श्री गंगदेव के द्वारा संवत १३१७ अग्रहण शुक्ल तृतीय तिथि को
२९. रविवार को पूर्व आषाढ़ नक्षत्र में, शूल नामक योग में, श्री अमरेश्वर क्षेत्र में रेवा के दक्षिणी तट पर रेवा व कपिला के
३०. संगम पर स्नान कर चर व अचर के स्वामी भगवान श्री अमरेश्वर देव की पंचसामग्री द्वारा विधिपूर्वक अर्चना कर, जीवन को बिजली के समान चंचल जानकर
३१. नवगांव स्थान से आये, भार्गव गोली, भार्गव च्यवन आप्नवान और्व जमदाग्नि पांच प्रवरों वाले, माध्यंदिन
३२. शाखा के अध्यायी, द्विवेद वेद के पौत्र, पाठक हरिदर्शन के पुत्र अग्निहोत्र माधव शर्मा ब्राह्मण के लिये चार
३३. ४ भाग, टकारी स्थान से आये गौतम गोत्री, गौतम आंगिरस औचथ्य इन तीन प्रवरों वाले, आश्वलायन शाखा के अध्यायी
३४. द्विवेद लाषू के पौत्र, द्विवेद लीमदेव के पुत्र चतुर्वेद जनार्दन शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ 'भाग, घटाउषरि स्थान
३५. से आये भारद्वाज गोत्री, आंगिरस वार्हस्पत्य भारद्वाज तीन प्रवरी, माध्यंदिन शाखा के अध्यायी
३६. दीक्षित केकु के पौत्र, दीक्षित दिवाकर के पुत्र दीक्षित धामदेव शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग, इस प्रकार इन तीनों
३७. ब्राह्मणों के लिए छह भाग इस बड़ौद ग्राम (में), सभी चारों सीमाओं से शुद्ध, वृक्षमाला से व्याप्त, हिरण्य भाग
३८. भोग उपरिकर सभी आय समेत साथ में निधि व गड़ाधन माता पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिये
३९. चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ देव व जा रहे को छोड़कर, शासन द्वारा जल हाथ में लेकर
(द्वितीय ताम्रपत्र- पृष्ठभाग )
४०. दान दिया है । उसको मानकर वहां के निवासियों पटेलों व ग्रामीणों द्वारा जो भी दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि आज्ञा सुनकर
ब्राह्मण द्वारा भोगे
४१. सभी इनके लिये देते रहना चाहिये और इसका समान रूप से धर्मफल जानकर हमारे व अन्य वंशों में उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को
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भिलसा अभिलेख
२८छ
४२. हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये । और कहा
गया है... सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके आधिपत्य में रही है
तब २ उसी को उसका फल मिला है ॥२५॥ .. स्वयं के द्वारा दी गई अथवा दूसरे के द्वारा दी गई भूमि का जो हरण करता है वह
पितरों के साथ विष्टा का कीड़ा बन कर रहता है ।।२६।। १६. भूमि का दाता साठ हजार वर्षों तक स्वर्ग में रहता है। उस का हरण करने वाला और
हरण करने की स्वीकृति देने वाला उतने ही वर्ष नरक में वास करता है ॥२७॥ - सभी उन भावी नरेशों से रामभद्र बार २ याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है । अत: अपने २ कालों में आपको इसका पालन करना चाहिये ।।२८।। __ इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल
समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ।।२९।। ४९. संवत् १३१७ ज्येष्ठ सुदि ११, गुरुवार आज श्री मंडपदुर्ग में महाराजाधिराज श्रीमान् जयवर्म५०. देव द्वारा नियुक्त सांधिविग्रहिक पंडित श्री मालाधर की सम्मति से ...
श्रेष्ठतम पंडित गविश के पुत्र हर्षदेव नामक विद्वान द्वारा यह विशुद्ध राजशासन लिखा ::: गया ॥३०॥ .
- विद्वानों में श्रेष्ठ गोसेक नामक (गुरु के) शिष्य आम देव, जो अपार स्मृति शास्त्र के
ज्ञाता, व्याकरण शास्त्र के विद्वान हैं, द्वारा नरेश के इस लेख का संशोधन किया गया ॥३१॥ ५२... यह शिल्पी कान्हड़ द्वारा उत्कीर्ण किया गया। ५३. इसका दूतक महाप्रधान राजश्री अजयदेव है । ये हस्ताक्षर स्वयं महाराज के हैं ।
भिलसा का जयसिंहदेव द्वितीय का पुरातत्व संग्रहालय प्रस्तर अभिलेख
(संवत् १३२० = १२६३ ई.) .. प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है, जिसकी खोज १९५८ में हुई थी। इसका उल्लेख एपि. इं., भाग ३५, पृष्ठ १८७ पर किया गया । प्रस्तर 'खण्ड बर्तमान में पुरातत्व संग्रहालय, भिलसा में सुरक्षित है। वर्तमान में भिलसा का नाम बदल कर विदिशा कर दिया गया है, यद्यपि विदिशा वास्तव में आधुनिक बेसनगर है। बेसनगर बेतवा नदी के दूसरे किनारे पर भि (भी) लसा के सामने स्थित है । भिलसा का प्राचीन नाम भी भल्लस्वामिन् था जो वहीं पर प्रमुख रूप से अचित सूर्यदेव का अपर नाम था । यह नाम ९वीं सदी के एक अभिलेख में लिखा प्राप्त होता है (एपि. इं., भाग २०, पृष्ठ २१० व आगे) । विदिशा पृथक रूप से एक प्रमुख नगर था जो प्राचीन आकर (दशार्ण) प्रदेश की राजधानी था।
अभिलेख कुल १० पंक्तियों का है। इसका आकार ४९X २९ से. मी. है। इसकी प्रथम दो पंक्तियां पूरी लम्बाई की है। इनमें प्रत्येक में प्रायः २० अक्षर उत्कीर्ण हैं। इनके नीचे बाई ओर आधे भाग में एक स्त्री व गदर्भ के रेखा चित्र बने हैं। शेष आधे दाहिने भाग में बाकी अभिलेख उत्कीर्ण है। इसमें पंक्ति क्र. २ में ८ अक्षर हैं एवं अंतिम पंक्ति में केवल २ ही अक्षर हैं।
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परमार अभिलेख
___ अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी लिपि है । अक्षरों की लम्बाई प्रायः २.५ सें. मी. है। अक्षर बनावट में अच्छे नहीं हैं। इसकी भाषा संस्कृत है परन्तु अत्यन्त त्रुटिपूर्ण है। इस पर बोलचाल की भाषा का प्रभाव साफ दिखाई देता है। सारा अभिलेख गद्य में है। वर्ण विन्यास की दृष्टि से ख के स्थान पर ष एवं य के स्थान पर ज का प्रयोग है। क्रियापद में वर्तमान काल का प्रयोग है। माता शब्द में विभक्ति का लोप है। इसका लेखक कोई सामान्य व्यक्ति था।
तिथि प्रारम्भ में केवल अंकों में संवत् १३२० वैसाख सुदि ३ गुरुवार है। यह गुरुवार १२ अप्रेल, १२६३ ई. के बराबर निर्धारित होती है।
अभिलेख जयसिंहदेव द्वितीय के शासन काल का है जो परमार राजवंश का नरेश था। इसका प्रमुख ध्येय पुमानि के नायक मदनसिंह देव के श्रेय हेतु (उसकी पत्नी) देवी सानुमति द्वारा दान देने का उल्लेख करना है।
पंक्ति २ में नरेश जयसिंहदेव द्वितीय के राज्य में भैलस्वामिदेवपुर (भिलसा) का उल्लेख है। आगे कुप्तका में ठहरी अथवा कुप्तका की निवासिनी देवी सानुमति द्वारा मनदसिंहदेव के श्रेय के निमित्त दान का विवरण है। यहां मदनसिंहदेव की उपाधि पंडित ठकुर दी हुई है। उस को पुमानि का नायक कहा गया है। अत: वह पुमानि नामक प्रदेश का प्रान्तपति रहा होगा। देवी सानुमति संभवतः उसकी पत्नी थी। दान में द्वोर्मेल दिया गया था जो संभवतः किसी स्थान का नाम रहा होगा। दान संभवतः उसी देवता के लिए था जिसके मंदिर में प्रस्तुत प्रस्तर खण्ड लगा हुआ था। वह देवता संभवत: भलस्वामिदेव ही रहा होगा। आगे उक्त दान को भंग करने की स्थिति में गदर्भ-शाप है। परन्तु इस भाग की भाषा कुछ त्रुटिपूर्ण है।
__ अभिलेख का महत्व इस तथ्य में है कि १२६३ ई. में भैलस्वामिपुर नगर का नरेश जयसिंहदेव के साम्राज्य के अन्तर्गत होने का उल्लेख किया गया है । इसमें कोई शंका ही नहीं है कि यह नरेश परमार राजवंशीय जयसिंह-जयवर्मन द्वितीय है जिसके १२५५ ई. एवं १२७४ ई. के मध्य अनेक अभिलेख प्राप्त होते हैं। इससे पूर्व दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश ने १२३३३४ ई. में भिलसा पर आक्रमण कर वहां के दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। संवत् १३३१ के मांधाता अभिलेख (क्र. ७६) के श्लोक ४८ से ज्ञात होता है कि जयसिंहदेव के पिता देवपालदेव ने भैल्लस्वामिपुर के पास युद्ध में एक म्लेच्छाधिप को मारा था । यह संभवतः वह मुसलिम प्रान्तपति था जो इल्तुतमिश द्वारा भिलसा क्षेत्र में नियुक्त किया गया था। १२३९ ई. में अपनी मृत्यु से पूर्व देवपालदेव ने इस भूभाग को स्वतंत्र करवा लिया था। इसके बाद अर्द्धशती तक भिलसा क्षेत्र परमारों के अधिकार में रहा। बल्बन ने नरवर के जजपेल्ल पर आक्रमण किया था, परन्तु इस भूभाग तक नहीं आया। परन्तु १३०५ ई. में अलाऊद्दीन खिल्जी (१२९६-१३१६ ई.) ने समस्त मालव प्रदेश के साथ इस भूभाग पर आक्रमण कर अपने अधिकार में कर लिया।
भौगोलिक स्थानों की पहचान वर्तमान में सरल नहीं है। परन्तु ये सभी स्थल भिलसा से बहुत दूर स्थित नहीं रहे होंगे।
(मूलपाठ) १. ओं। संवत् १३२० वर्षे वैशाष (ख) सुदि [३] गुर[1] अद्येह) २. [श्री भै]लस्वामिदेवपुरे श्रीजयसिंहदे[व] राज्ये पुमा३. नि] न्ना (ना)यक पंठ मदनसी (सिं).
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भिलसा अभिलेख
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४. हादे]व श्रेय (यो) निमितं कु५. प्तका[स्थ] देवी सानु६. मति (त्या) द्वोर्मेलं प्र७. दत्तं यो न द८. दाति तस्य मा९. ता (तरं) गर्दभो ज१०. भाति (यभति) [1]
(अनुवाद १. सिद्धि हो। संवत् १३२० वर्ष में वैशाख सुदि ३ गुरुवार आज यहां.....
२. श्री भैलस्वामिदेवपुर में श्री जयसिंहदेव के राज्य में ३-४. पुमानि के नायक पंडित ठकुर मदनसिंहदेव के श्रेय के निमित्त ५-७. कुप्तका में ठहरी देवी सानुमति के द्वारा द्वोर्मेल का दान दिया है। जो (इस दान को
____ मान्यता) नहीं ८-१०. देता उसकी माता के साथ गर्दभ कुकर्म करता हैं (करेगा)।
(७४)
वलीपुर (अमझेरा) का जयसिंह द्वितीय का स्मारक-स्तम्भ अभिलेख .
(संवत् १३२४=१२६७ ई.) प्रस्तुत अभिलेख धार जिले में अमझेरा के पास वलीपुर में एक स्मारक स्तम्भ पर उत्कीर्ण कहा जाता है। इसका उल्लेख श्री डफ द्वारा सम्पादित अभिलेखों की सूचि में पृष्ठ १९८ पर; ए. रि. आ. डि. ग., संवत् १९७३, क्र. ९८ पर; एवं ग. रा. अभि. द्वि., क्र. १२६ पर किया गया है। परन्तु स्तम्भ का इस समय कोई पता नहीं है।
प्राप्त विवरण के अनुसार अभिलेख ५ पंक्तियों का है। इसकी भाषा संस्कृत है। इसमें परमार नरेश जयसिंह का उल्लेख है। अभिलेख की तिथि संवत् १३२४ लिखी है।
(७५) पठारी का जसिंहदेव द्वितीय का प्रस्तर खण्ड अभिलेख
.: (संवत् १३२६=१२६९ ई.) ___ प्रस्तुतं अभिलेख एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है जो विदिशा जिले के अन्तर्गत कुरवाई केथोरा परगने में पठारी नामक स्थान में एक तालाब के पूर्वी किनारे पर लगा है। इसकी खोज १८७६ ई. में कनिंघम ने की थी। इसके उल्लेख आ. स. रि, भाग १०, पृष्ठ ३१; प्रो. रि. आ. स. वे. स., १९१३-१४, पृष्ठ २६, क्र. २६४४ ; भण्डारकर की उत्तरी अभिलेखों की सूचि क्र. ५७५; कीलहान की सूचि क्र. २३२; ग. रा. अभि. द्वि., क्र. १२७; ए. रि. ई. ए., १९६३-६४, क्र. सी २०३१ पर किए गये हैं।
अभिलेख ७ पंक्तियों का है जिसमें अंतिम पंक्ति शेष की आधी है। इसका आकार ३७४३० सें. मी. है। इसके अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षरों की
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परमार अभिलेख
लम्बाई २३ से ३ सें. मी. है, परन्तु बनावट में अत्यन्त भद्दे हैं। उत्कीर्णकर्ता ने अपना कार्य अत्याधिक शीघ्रता में घसीट कर सम्पादित किया प्रतीत होता है।
भाषा संस्कृत है व गद्यमय है। परन्तु त्रुटियों से भरपूर है। वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, ख के स्थान पर ष, घ के स्थान पर द्ध, ह के स्थान पर घ एवं म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है । संधि का लोप भी है। इनमें कुछ त्रुटियां काल व प्रादेशिक प्रभाव की द्योतक हैं एवं कुछ लेखक व उत्कीर्णकर्ता की असावधानी से बन गई हैं।
तिथि प्रारम्भ में संवत् १३२६ वैशाख सुदि ७ बुधवार पुष्प नक्षत्र लिखी है। यह बुधवार १० अप्रेल, १२६९ ई. के बराबर है । प्रमुख ध्येय जयसिंहदेव द्वितीय के शासनकाल में गौडवंशीय पंडित रणसिंह द्वारा वडोव्यपत्तन में एक वाटिका का उद्यापन करवाने हेतु कुछ भूमि के दान करने का उल्लेख करना है।
अभिलेख का प्रारम्भ ओं से होता है जो एक चिन्ह द्वारा अंकित है । पंक्ति २-३ में समस्त राजावली समेत जयसिंहदेव के शासन करने का उल्लेख है । पंक्ति ४-६ में गौड वंश में उत्पन्न पंडित दोदे के पौत्र, पंडित महणसिंह के पुत्र पंडित रणसिंह द्वारा वाटिका के उद्यापन हेतु भूदान का विवरण है। यह वाटिका वडोव्यपत्तन में स्थित थी। कल्याणसूचक 'श्री' के साथ अभिलेख का अन्त होता है।
अभिलेख का महत्व इस तथ्य में है कि इसमें नरेश जयसिंहदेव का अपने अधीन राजाओं के साथ उल्लेख किया गया है। वह १२६९ ई. में शासन कर रहा था। अभिलेख का प्राप्तिस्थल उसके साम्राज्य में सम्मिलित था। परन्तु इसमें उसके वंश अथवा पूर्वाधिकारी का कोई उल्लेख नहीं है। इस कारण उसके समीकरण में कुछ शंका उपस्थित की गई है। वास्तव में पूर्ववणित अभिलेखों के साक्ष्य के आधार पर हमें ज्ञात है कि उदयपुर (भोपाल) का सारा ही भूभाग उदयादित्य के समय से ही परमार-साम्राज्य के अन्तर्गत रहा है। पठारी उदयपुर से केवल ११ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। जयसिंहदेव द्वितीय के पूर्वज देवपालदेव के भी उदयपुर से दो अभिलेख (क्र. ६६-६७) प्राप्त हुए हैं। "समस्त राजावली सहित" वाक्यांश पूर्वकालीन अनेक परमार अभिलेखों में प्राप्त होते हैं। इन सभी तथ्यो के आधार पर यह स्वीकार करना युक्तियुक्त है कि प्रस्तुत अभिलेख का जयसिंहदेव वास्तव में परमार वंशीय नरेश जयसिंह (द्वितीय) ही है।
दानकर्ता रणसिंह, पिता महणसिंह एवं पितामह दोदे के नामों के पूर्व 'पं' अक्षर लगा है। ए.रि. ई. ए., १९६३-६४, क्र. सी-२०३१ में "पं" को पंथी का संक्षिप्त रूप माना है। परन्तु दानकर्ता स्वयं को गौड़ वंशीय घोषित करता है जिससे उसका ब्राह्मण होना प्रमाणित होता है। ब्राह्मणों में उस युग में 'सिंह' नामान्त पाया जाता है। अतः यहां 'पं' अक्षर को पंडित का ही संक्षिप्त रूप मानना युक्तियुक्त है।
दान के विवरण में उल्लेख है कि वाटिका के उद्यापन हेतु यह कीर्तिस्थल (दिया गया)। निश्चित ही यहां दान भूमि को कीर्ति स्थल निरूपित किया गया है । परन्तु उपरोक्त ए.रि. इं. ए. में 'कीर्ति' को अभिलेख रूप में माना गया है। वास्तव में कीर्तिस्थल का भाव होता है--"जन सामान्य के उपयोग हेतु स्थान जिससे दानकर्ता को कीर्ति प्राप्त होती है" (देखिए-- का ई. ई., भाग ३, पृष्ठ २१२, पाद. ६)। इस प्रकार यहां वाटिका को कीर्तिस्थल के रूप में प्रदर्शित किया गया है।
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मान्धाता अभिलेख
२९१ भौगोलिक स्थानों में वडोव्यपत्तन का तादात्म्य पठारी के पास वडोह ग्राम से किया जा सकता है।
(मूलपाठ) १. ओं [1] सं १३२६ वर्षे वैसाष (शाख) शु ७ बुद्ध (बुध) दिने २. [पुष्य]नक्षत्रे अद्ये (द्य)ह वडोव्यपत्त ने] सम[स्त] राजा३. वली सहित (ते) जैसिंघ (ह) देव राज्ये तस्मिन्का४. ले वर्त (त) माने गौडान्वये पं दोदे [सुत ५. प्रं (पं) महणसी (सिं)ह सुत पं रणसी (सिं) हेन ६. वाटिका उद्यापनार्थे कीर्तिस्थलो- . ७. यं (लमिदं) [1] अलं भवत (तु) श्री[:] [1]
(हिन्दी अनुवाद) १. सिद्धि हो । संवत् १३२६ वर्ष में वैशाख सुदि ७ बुधवार को २. पुष्य नक्षत्र में आज वडोव्य पत्तन में समस्त श्रेष्ठ राजाओं ३. सहित जयसिंहदेव के राज्य में उस काल में ४. वर्तमान गौड वंश में पंडित दोदे के पुत्र (पौत्र) ५. पंडित महणसिंह के पुत्र पंडित रणसिंह के द्वारा ६. वाटिका के उद्यापन हेतु यह कीर्ति स्थल (प्रदान किया गया) ७. पर्याप्त हो। श्री।
(७६) मान्धाता का जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय का ताम्रपत्र अभिलेख
(संवत् १३३१=१२७४ ई.) प्रस्तुत अभिलेख चार ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो १९२२ ई. में मान्धाता में काशीविश्वेश्वर मंदिर के पास भूमि ठीक करते हुए प्राप्त हुए थे। ये वहां के रावसाहेब के पास सुरक्षित हैं । इनका उल्लेख ऊषा मासिक पत्रिका के नवम्बर १९५३ के दीपावली विशेषांक में किया गया । इसी पत्रिका के विभिन्न अंकों जनवरी-फरवरी, १९५३, पृष्ठ ४६; मार्च '५३, पृष्ठ १४; नवम्बर '५३, पृष्ठ ४४; दिसम्बर '५३, पृष्ट ११; फरवरी' ५४, पृष्ठ २४; मार्च ५४, पृष्ठ ९; अगस्त '५४, पृष्ठ २७-२८; अक्टूबर-नवम्बर' ५४, पृष्ठ ४१-४२ में थोड़ा २ करके इसका मूल पाठ छपा । परन्तु वह अत्यन्त अशुद्ध है। इसका सम्पादन एपि. इं., भाग ३२, पष्ठ १३९--५६ पर किया गया।
अभिलेख आकार में ४४४३४ सें. मी. है । लेख प्रथम ताम्रपत्र पर एक तरफ भीतर की ओर व अन्य तीनों पर दोनों ओर खदा हआ है। सभी ताम्रपत्रों में दो-दो छेद बने हैं जिनमें तांबे की कड़ियां पड़ी हैं । इनके किनारे कुछ मोटे हैं । जिससे ताम्रपत्रों की आपसी रगड़ के कारण अभिलेख को क्षति न हो । कड़ियों समेत चारों ताम्रपत्रों का वजन १६ किलो ४५० ग्राम है ।
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परमार अभिलेख
- अभिलेख १४० पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर २१ पंक्तियां, दूसरे पर २२ व २३, तीसरे पर २३ व २३ एवं चौथे पर २३ व ५ पंक्तियां उत्कीर्ण हैं । अभिलेख के अक्षर सुन्दर हैं एवं सावधानीपूर्वक खोदे गये हैं । सारा अभिलेख ठीक से सुरक्षित है। केवल तीसरे ताम्रपत्र के अग्रभाग पर ६३ सें. मी. लंबी एक दरार पड़ी है । परन्तु इसके अक्षर संदर्भ में जोड़े जा सकते हैं। अभिलेख के अन्त में दोहरी पंक्ति के चौकोर में गरूड़ का रेखाचित्र है। इसका शरीर मानव का एवं मुखाकृति पक्षी की है । इसके चार हाथ हैं । दो हाथ अभिवादन की मुद्रा में जुड़े हैं । तीसरे हाथ में फणदार सर्प है व चौथा उसको मारने हेतु ऊपर उठा है। गरूड़ आभूषण पहने हैं एवं एक मंदिर के भीतर है। यह परभार वंश का राजचिन्ह है।
अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी लिपि है । अक्षर प्रायः १.२ सें. मी. लंबे हैं एवं ढंग से गहरे खोदे गये हैं। छूटे हुए अक्षरों को पंक्ति के ऊपर बारीकी से बना दिया गया है। कुछ अक्षरों को मिटाकर अथवा काट कर ठीक करने का प्रयत्न किया गया है।
भाषा संस्कृत है एवं गद्यपद्यमय है। इसमें ७३ श्लोक हैं जिनमें क्रमांक दिये हैं । परन्तु उत्कीर्णकर्ता की भल से श्लोक २१ को क्रमांक देना रह गया । इस कारण कूल ७३ न होकर ७२ दी हई है। ये सभी श्लोक विभिन्न छन्दों में सुन्दर भाषायुक्त हैं । शेष अभिलेख गद्य में है, परन्तु यह भाग थोड़ा ही है । श्लोकों में क्रमांक से उस काल की अंकलेखन शैली ज्ञात होती है।
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, स के स्थान पर श, श के स्थान पर ह, ण के स्थान पर न, ख के स्थान पर ष, म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है । अनेक स्थलों पर शब्द त्रुटिपूर्ण लिखे हैं जिनके लिये उत्कीर्णकर्ता उत्तरदायी है। इसमें काल व प्रादेशिक प्रभाव भी उजागर होता है।
तिथि पंक्ति ९१-९२ में शब्दों में प्रमाथिन् संवत्सर १३३१ भाद्रपद शुक्ल ७, शुक्रवार मैत्री नक्षत्र है । यह शुक्रवार १० अगस्त, १२७४ ई. के बराबर है । प्रमुख ध्येय पंक्ति ८७ व आगे में वर्णित है । इसके अनुसार धारा नरेश जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय द्वारा आज्ञापित साधनिक अनयसिंहदेव द्वारा चार ग्रामों में स्थित भूमि को ब्रह्मपुरी (मांडव) की ब्राह्मणबस्ती एवं मांधाता में निवसित विभिन्न ब्राह्मणों को दान में देने का उल्लेख करना है।
__ अभिलेख का प्रारम्भ ओं से होता है जो एक चिन्ह द्वारा अंकित है। प्रथम ११ श्लोकों में विभिन्न देवताओं की अर्चनायुक्त प्रशंसा है। श्लोक १२-१४ में परमार वंश की उत्पत्ति से संबंधित पौराणिक विवरण है । श्लोक १५ में इसको राजन्य (क्षत्रिय) वंश कहा गया है । श्लोक १६ से ५८ तक में राजवंशीय नरेशों की जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय तक उनके सामान्य प्रशंसायुक्त विवरणों सहित वंशावली दी हुई है । इस सूचि में २४ शासकों के नाम हैं । परन्तु इनमें प्रथम नौ नाम काल्पनिक प्रतीत होते हैं। जैसे कमंडलुधर धाराधीश (श्लोक १६), तत्पुत्र धूम्रराज (श्लोक १७-१८), तत्पुत्र देवसिंहपाल (श्लोक १९), तत्पुत्र कनकसिंह (श्लोक २०), तत्पुत्र श्री हर्ष (श्लोक २० अ), जगद्देव (श्लोक २१-२२), स्थिरकाय (श्लोक २३), बोशरि धाराधिपति (प्रलोक २४), तत्पुत्र वीरसिंह (श्लोक २५)।
ये सभी नरेश, जो एक समूह के रूप में प्रतीत होते हैं, परमार राजवंशावली में प्रस्तुत अभिलेख के माध्यम से प्रथम बार जुड़े हैं। वैसे धूम्रराज का नाम संभवतः अर्बुद शाखा से लिया गया है । इस नाम के एक नरेश का ताम्रपत्र अभिलेख आबू से प्राप्त होता है (एपि. इं., भाग ३२, पृष्ठ १३५)। श्लोक २५ में उल्लिखित वीरसिंह, जो काल्पनिक नरेश वोशरि का पुत्र
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मान्धाता अभिलेख
२९३
कहा गया है, शायद वैरिसिंह का रूपान्तर हो । वह वाक्पति प्रथम का पिता था जिसका उल्लेख आगे श्लोक २६ में है । श्लोक २१-२२ में जगद्देव का परमार वंशावली उल्लेख अवश्य है परन्तु वह बहुत बाद में हुआ। वह उदयादित्य का पुत्र था एवं उसके दो अभिलेख क्र. ४२-४३ प्राप्त होते हैं । चारणों के विवरण से ज्ञात होता है कि संवत् ११५४ तदनुसार १०९७ ई. में उसने देवी काली को अपना मस्तक अर्पण कर दिया था ( डी. आर. भण्डारकर, सूचि क्र. ३९७) । श्लोक २० अ में श्री हर्ष, जो कनकसिंह का पुत्र व उत्तराधिकारी था, का भी ज्ञात परमार वंशावली में कोई उल्लेख नहीं मिलता । नरेश सीयक उपनाम श्रीहर्ष अपने पिता वैरिसिंह उपनाम वज्रट के बाद राज्याधिकारी बना था, परन्तु उसका उल्लेख प्रस्तुत अभिलेख के श्लोक २७ में है । इस प्रकार यहां वर्णित वंशावली में कल्पना एवं भ्रम दोनों का ही समावेश किया गया है ।
आगे श्लोक २६ से ५६ तक में परमार वंश के १५ नरेशों का उल्लेख है । परन्तु इसमें कुछ ज्ञात नरेशों के नाम छोड़ दिये गये हैं । श्लोक २६ में वाक्पति प्रथम का उल्लेख है जो प्राकृत की सूक्तियों के लिए विख्यात कहा गया है। प्रतीत होता है कि उसके प्रपौत मुंज उपनाम वाक्पति द्वितीय, जिसका उल्लेख श्लोक २८-२९ में है, की प्रशंसा प्रस्तुत श्लोक में कर दी गई है । श्लोक २७ में वाक्पति प्रथम के पौत सीया अर्थात् सीयक द्वितीय उपनाम श्री हर्ष का उल्लेख है, परन्तु उसके पुत्र वैरिसिंह द्वितीय उपनाम वज्रटस्वामी को छोड़ दिया है । श्लोक २८-२९ में मुंज अपरनाम वाक्पति द्वितीय का उल्लेख है । परन्तु उसके पिता सीयक द्वितीय से उसका संबंध नहीं दर्षाया गया है। श्लोक ३०-३१ में सिंधुराज का उल्लेख है परन्तु यहां भी उसके अग्रज व पूर्वाधिकारी से उसका संबंध उजागर नहीं किया गया है। श्लोक ३२-३५ में भोजराज के राज्याधिकारी होने व उसकी उपलब्धियों का सामान्य विवरण है, परन्तु सिंधुराज से उसके संबंध स्पष्ट नहीं किए गये हैं। उसके उत्तराधिकारी जयसिंह प्रथम (१०५५-१०७० ई.) को पूर्णतः छोड़ दिया है ।
श्लोक ३६ में भोज के बाद उदयादित्य ( १०७०-१०९४ ई.) के राज्याधिकारी होने का उल्लेख है परन्तु दोनों के संबंध स्पष्ट नहीं किए गये हैं। यहां उसके गुर्जर नरेश से राज्य की पुनर्प्राप्ति का उल्लेख है। श्लोक ३७-३८ में उसके पुत्र नरवर्मन् का उल्लेख है । श्लोक ३९ में यशोवर्मन् का उल्लेख है परन्तु पूर्व नरेश से उसके संबंध उजागर नहीं किए गए हैं। श्लोक ४०-४१ में उसके बाद जयवर्मन् प्रथम का विवरण है। श्लोक ४२ में उसके पुत्र विंध्यवर्मन् एवं श्लोक ४३ में उसके पुत्र सुभटवर्मन् के उल्लेख हैं । परन्तु इनके संबंधों को दर्षाया नहीं गया है। श्लोक ४४-४५ में अर्जुनवर्मन् एवं श्लोक ४६-४८ में देवपालदेव के उल्लेख हैं परन्तु यहां भी इनके संबंधों को उजागर नहीं किया है। हमें अन्य अभिलेखों के साक्ष्य से ज्ञात है कि देवपालदेल परमारों की महाकुमारीय शाखा से संबंधित था । वह महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् ( ११४४ ई.) का पौत्र था जो स्वयं नरेश अजयवर्मन् का अनुज था । यह शाखा भोपाल- होशंगाबाद - नीमाड़ - खानदेश भूभाग पर शासन करती थी । लक्ष्मीवर्मन् के बाद उसका पुत्र महाकुमार हरिश्चन्द्र ( ११७९-८१ ई.), फिर उसका पुत्र महाकुमार उदयवर्मन् (१२०० ई.) उक्त प्रदेश के राज्याधिकारी बने । उसके बाद उसका छोटा भाई देवपालदेव सिंहासनारूढ़ हुआ । उधर मुख्य राजवंश में नरेश अर्जुनवर्मन् के पुत्र न होने से देवपालदेव राजवंशीय सिंहासन का भी अधिकारी बना। इस प्रकार परमारों के दोनों घराने पुनः एक हो गये । श्लोक ४८ में महत्वपूर्ण उल्लेख
। इसमें देवपालदेव द्वारा भैल्लस्वामिन् नगर के पास एक म्लेच्छाधिप के युद्ध में मारे जाने का विवरण है। इस घटना का संबंध दिल्ली के गुलाम वंशीय सुल्तान इल्तुतमिश ( १२११
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परमार अभिलेख
१२३६ ई.) के आक्रमण से है। मुसलिम इतिहासकारों के अनुसार हिजरी सन् ६३२ तदनुसार १२३३-३४ ई. में इल्तुतमिश ने मालवा पर आक्रमण कर भिलसा के दुर्ग पर अधिकार कर वहां एक मुसलिम गवर्नर नियुक्त कर दिया था (तारीखे फरिश्ता, ब्रिग्ज का अनुवाद, भाग १, पष्ठ २११: तबकाते नासिरी, रेवटी का अनुवाद, भाग १, पृष्ठ ६२२; इलियट व डाऊसन, हिस्ट्री ऑफ इंडिया, भाग २, पृष्ठ ३२८)। प्रस्तुत श्लोक ४८ में देवपालदेव के कृत्य से ऐसा प्रतीत होता है कि परमार नरेश ने मुसलिम प्रान्तपति को युद्ध में परास्त कर मार डाला एवं भिलसा का प्रदेश मुसलमानों से स्वतंत्र करवा लिया। प्रायः अर्द्धशती पश्चात् दिल्ली सुल्तान अलाऊद्दीन खिल्जी ने इस नगर पर पुनः अधिकार कर लिया (तारीखे फरिश्त पृष्ठ ३०३-४)।
श्लोक ४९ में देवपालदेव के बाद जयतगिदेव के शासनाधिकारी होने का उल्लेख है। श्लोक ५०-५६ में दानकर्ता नरेश का विवरण है। परन्त दोनों के आपसी संबंध के बारे में कुछ भी इंगित नहीं किया गया है। यहां यह जानना रोचक है कि श्लोक ५४, ५६ एवं पंक्ति
रेश का नाम जयवर्मन लिखा है, परन्तु श्लोक ५१-५२ में उसको जयसिंह कहा गया है। इसके अतिरिक्त श्लोक ५२ में एक अन्य रोचक उल्लेख है कि राजसिंहासन पर आरूढ़ होने के विषय में जयसिंह-जयवर्मन् एक साथ पौत्र (पुत्र का पुत्र) एवं दौहित्र (पुत्री का पुत्र) था। परमारों की एक शाखा से संबद्ध देवपालदेव ने राजवंशीय नरेश अर्जुनवर्मन् का राजसिंहासन प्राप्त किया था। इस कारण इसका भाव यह लगाया जा सकता है कि चूंकि जयसिंह-जयवर्मन् स्वयं को नरेश अर्जुनवर्मन् का एक साथ पौत्र एवं दौहित्र मानता है तो देवपालदेव को जामाता एवं उत्तराधिकारी के रूप में अर्जुनवर्मन् के राजसिंहासन पर आरूढ़ होने वाला स्वीकार करना उचित है।
श्लोक ५४ में जयसिंह-जयवर्मन् (द्वितीय) द्वारा विध्य के दक्षिण की ओर किसी दाक्षिणात्य नृपति पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख है। यह दाक्षिणात्य नृपति संभवतः यादव नरेश रामचन्द्र था। इस घटना से दो वर्ष पूर्व ही उसके मालव राज्य पर सफल आक्रमण का उल्लेख उसके शक संवत् ११९४ तदनुसार १२७२ ईस्वी के थाना ताम्रपत्र से प्राप्त होता है (एपि. इं., भाग १३, पृष्ठ २०२-३) । अतः यह संभव है कि यादव नरेश से बदला लेने के अभिप्रायः से जयसिंह-जयवर्मन् (द्वितीय) ने उस पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की है। अगले वर्ष इस परमार नरेश की मृत्यु हो जाने पर अर्जुनवर्मन् (द्वितीय) परमार सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। यादव नरेश ने पुनः परमार राज्य पर आक्रमण कर अर्जुनवर्मन् पर विजय प्राप्त की जैसा उसके शक संवत् ११९८ तदनुसार १२७६ ई. के उदारी प्रस्तर अभिलेख से विदित होता है (ए. रि. आ. स. मैसूर, १९२९, पृष्ठ १४३)।
. आगे श्लोक ५७-६६ में परमारों के अधीन चाहमान वंशीय मांडलिकों का वर्णन है। श्लोक ५७ में राटो राउत (रावत, संस्कृत-राजपुत्र), श्लोक ५८ में उसके पुत्र पल्हणदेव के उल्लेख हैं जिन्होंने अपने स्वामी की राजलक्ष्मी को स्थिर किया । श्लोक ५९-६० में उसके पुत्र सलखणसिंह का उल्लेख है जिसने अपने स्वामी अर्जुनदेव को युद्धों में सहायता की थी। अर्जुनदेव प्रथम (१२१०-१२१६ ई.) के अभिलेखों में उसके सांधिविग्रहिक राजा सलखण का उल्लेख मिलता है। वह जैन विद्वान आशाधर का पिता कहा जाता है।
. श्लोक ६१-६६ में सलखसिंह के पुत्र अनयसिंह के कार्यों का विवरण हैं। वह प्रस्तुत दान का दानकर्ता था उस ने देपालपुर में एक शिवमंदिर व एक तड़ाग, शाकपुर में अम्बिका का मंदिर, ओंकार (ओंकारेश्वर) मंदिर के पास जम्बुकेश्वर शिव का मंदिर, मंडपदुर्ग के मध्य एक
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मान्धाता अभिलेख
२९५
सरोवर बनवाया। श्लोक ६६ के अनुसार मंडपदुर्ग में नरेश की अनुमति प्राप्त कर ब्राम्हणों को एक उपनगरी दान में दी जिस के चारों ओर परकोटा, राजमार्ग सहित सुवर्ण कुंभकलश युक्त ऊंचे विशाल सभाकक्ष युक्त १६ मंदिरों का निर्माण करवाया गया जो जलकुण्डों से युक्त थे। यह उपनगरी संभवतः पंक्ति ९५ में उल्लिखित ब्रम्हपुरी थी। इस प्रकार के निर्माण कार्य मान्धातृ दुर्ग में भी करवाये गये।
दान में दिये गये ग्राम वर्द्धनापुर प्रतिजागरणक में कुम्भाडाउद ग्राम व वालौदा ग्राम, सप्ताशीति प्रतिजागरणक में वघाडी ग्राम एवं नागद्रह प्रतिजागरणक में नाटिया ग्राम थे।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मणों का विवरण संलग्न सूचि के अनुसार है। प्रत्येक ब्राह्मण, उसके पिता व पितामह के नामों के साथ उपाधि अथवा उपनाम हैं जो उसके अध्ययन या धार्मिक कृत्यों को प्रदर्शित करते हैं। यह उपनाम कभी दृढ़ न होकर परिवर्तनशील थे। यहां अनेक स्थलों पर पितामह, पिता व दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण की उपाधियां एक समान न होकर भिन्न-भिन्न हैं। क्रमांक १ में पितामह चतुर्वेदिन्, पिता अवस्थिन् एवं दान प्राप्तकर्ता दीक्षित हैं। इसी प्रकार कुछ अन्य भी हैं। पंक्ति १२७ में दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मणों की संख्या १६ लिखी है जबकि सूचि में केवल १४ ब्राह्मणों को एक-एक अंश दान में दिये गये। दो भाग दानकर्ता अनयसिंह ने अपने पास रख लिये । अतः संभव है कि चारों ग्रामों से १६ भाग कुल १६ ब्राह्मणों को देने का निश्चित था। परन्तु बाद में सूचि में परिवर्तन कर दिया गया। यह परिवर्तन नरेश की अनुमति से किया गया होगा। भूदान नरेश द्वारा आज्ञापित अनयसिंहदेव द्वारा अपने पुत्रों कमलसिंह, धारासिंह, जैनसिंह व पद्मसिंह सहित मंडप दुर्ग में नरेश के साथ ठहरे हुए दिया गया था ।
अनयसिंहदेव चाहमान वंशीय क्षत्रिय था। उसकी उपाधि साधनिक थी। उसके पिता व पितामह भी इसी पद को सुशोभित करते थे। अभिलेख उसी के द्वारा निस्सृत किया गया था। इससे परमार राजसभा में उसकी शक्ति व प्रतिष्ठा का आभास होता है । साधनिक का प्राकृत रूप साहणिअ अर्थात् सेनाओं का प्रमुख सेनापति होता है (आधुनिक वंश नाम साहनी से मिलान कीजिये)। अन्य स्थल पर इसका भाव मंडलाधिप अथवा सैनिक प्रान्तपति भी है।
___ अभिलेख में नरेश को धाराधिप निरूपित किया गया है (पंक्ति ८७)। परन्तु प्रतीत होता है कि अब उसने राजधानी अथवा द्वितीय राजधानी मंडपदुर्ग में परिवर्तित कर ली थी। तात्कालीन राजनीतिक स्थिति पर विचार करने से यह परिवर्तन स्पष्ट हो जाता है।
_ निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में अनेक स्थान आज भी विद्यमान हैं, जैसे रेवा व कावेरी नदियां, मान्धाता, धारा, मंडपदुर्ग, भल्लस्वामिपुर (भिलासा), देवपालपुर (देपालपुर) आदि । दाक्षिणात्य संभवतः देवगिरि के यादव साम्राज्य को इंगित करता है। शाकपुर आधुनिक शुजालपुर है। वर्धनापुर वर्तमान वदनावर है। कुम्भाडाऊद ग्राम धार जिले में कडोद ग्राम है। वालौद उसी के पास वालौदा है । सप्ताशीति प्रतिजागरणक धार जिले में ८७ ग्रामों के समूह का नाम रहा होगा । नागद्रह आधुनिक नागदा है जो धार जिले में है। परन्तु अन्य सुझाव उज्जैन जिले में स्थित नागदा से समता करने का है। नाटिया ग्राम उज्जैन के पास नावटिया ग्राम है । टकारी स्थान का उल्लेख पूर्ववणित अभिलेखों में किया जा चुका है। लखणपुर संभवतः पश्चिमी निमाड़ जिले में लखनगांव है । तोलपौह अनिश्चित् है, परन्तु पश्चिमी निमाड़ जिले में टुल्या व तौलकपुर और उज्जैन जिले में तोलियाखेड़ी व तिलावर ग्रामों के नाम इससे मिलते जुलते हैं । टेणी भी अनिश्चित् है परन्तु उज्जैन जिले में टुमनी, टुमणी, तारनोद ग्रामों के नाम इससे मिलते जुलते हैं ।
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ऋ. मूल स्थान :
गोत्र
प्र वर
अध्ययन :: पितामह .. की शाखा
पिता
दान प्राप्तकर्ता प्राप्त ब्राह्मण हुए अंश
१. टकारी स्थान गौतम आंगिरस औवथ्य गौतम ऋग्वेद . चतुर्वेद कमलाधर अवस्थिन् विद्याधर दीक्षित पद्मनाभ शर्मा १ २. टकारी स्थान गौतम आंगिरस औवथ्य गौतम ऋग्वेद .. चतुर्वेद कमलाधर अवस्थिन् विद्याधर चतुर्वेद माधव शर्मा १ ३. टकारी स्थान · भारद्वाज . आंगिरस वार्हस्पत्य ऋग्वेद : मिश्रधर्म शर्मा . ' पंचपाठी मिश्र पंडित श्रीकण्ठ शर्मा १ भारद्वाज .
उद्धरण शर्मा ४. लखणपुर काश्यप, काश्यप अवत्सार नैध्रुव . ऋग्वेद चतुर्वेद भूपतिशर्मा : पंडित विद्यापति शर्मा द्विवेद गोवर्द्धन शर्मा १ ५. तोलापौह स्थान चंद्रात्रेय आत्रेय गाविष्टर माध्यंदिन दीक्षित श्रीवत्स दीक्षित देव शर्मा दीक्षित वामन शर्मा १. पूर्वातिथ
शर्मा ६. टकारी स्थान वसिष्ठ , कसिष्ठ शक्तृि पराशर . माध्यंदिन बालभद्र शर्मा साधारण शर्माः . अवस्थिन आनन्द शर्मा १ ७. टकारी स्थान . भारद्वाज आंगिरस वार्हस्पत्यः माध्यंदिन शुक्ल प्रद्युम्न शर्मा . द्विवेद सोलूण शर्मा द्विवेद हरीश शर्मा
भारद्वाज ८. टेणी स्थान काश्यप काश्यप अवत्सार नैध्रुव : माध्यंदिन उपा. देव शर्मा उपाध्याय वैजू शर्मा द्विवेद महादेव शर्मा १ ९. टकारी स्थान कात्यायन विश्वामित्र कात्य किल. माध्यंदिन पाठिन् कूल्हण शर्मा अवस्थिन् आलदेव. द्विवेद हरिदेव शर्मा . १
शर्मा १०. टकारी स्थान , भारद्वाज । आंगिरस वार्हस्पत्य माध्यंदिन द्विवेद गजाधर शर्मा अवस्थिन् वीकूदेव. द्विवेद अनन्त शर्मा १. भारद्वाज
शर्मा ११. टकारी स्थान . आत्रेय . . आत्रेय गविष्ठिर माध्यंदिन पाठक कृष्ण शर्मा पाठक अत्रि शर्मा पाठक योगेश्वर शर्मा १
पातिथ . १२. टकारी स्थान · वशिष्ठ . वशिष्ठ आभरद्वस्व' कौथुम समुद्धरण शर्मा त्रिवेद दामोदर त्रिवेद नारायण शर्मा १ इन्द्रप्रमद..
. शर्मा १३. टकारी स्थान सावणि . भार्गव च्यवन आप्नवान• कौथुम चतुर्वेद वासुदेवशर्मा चतुर्वेद लक्ष्मीधर त्रिवेद पुरुषु शर्मा १
और्व जामदग्नि - १४. टेणी स्थान शांडिल्य. शांडिल्य असित दैवल कौथुम त्रिवेदी विश्वेश्र. त्रिवेदी महेश्वर - त्रिवेदी बाऊ शर्मा १
: शर्मा . . शर्मा १५-१६. (चाहमान कुल) वत्स : भार्गव च्यवन आप्नवान -- साधनिक पल्हणदेव साधनिक सलखण- साधनिक अनयसिंह २ . और्व जामदग्न्य
सिंह वर्मा
वर्मा क्षत्रीय
शर्मा
परमार अभिलेख
वर्मा
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मान्धाता- अभिलेख
(मूलपाठ) [छन्द श्लोक १.३९ उपजाति; २.५. ९. १०. २२. २९. ३१. ३८.४५. ४७. ४८. ५२. ५४. ५५. ६० शार्दूलविक्रीडित; ३. १८. १९. ४४. ६३ गीति; ४: १३. १६. १७. २०. २३. २४. २५. २७. ३२. ३४. ३५. ३७. ४०.४२. ४६. ४९. ५०. ५१.५३. ५६.५७: ६१.६२.६८. ६९. ७२ अनुष्टुभ ; ७. ३३. ४१. ४६. ७२ स्रग्धरा; ६.६.२६.५८. ६४ आर्या; ११. ३६. हरिणी; १२ शिखरिणी; १४. २८. ६५. ६७ वसन्ततिलका; १५. २०. २१.४३. मालिनी; ३० उपेन्द्रवज्रा; ५९ उपजाति; ७० शालिनी; ७ पताग्रा]. ...................
(प्रथम ताम्रपत्र--पृष्ठ भाग) १. ओं नमः पुरुषार्थचूडामणये धर्माया (य)।
प्रतिग्रहं यो विरचय्य लक्ष्मीमुदीर्णवर्णो जगदुज्जिहानः । आनन्द-
: यत्येतदुरुप्रसादः स यज्वनामस्तु पतिः प्रियाय ॥१॥ कृत्वा लेखनिकां कुठारमुदयद्वारं नियुद्धास्वरो (खाध्वरे)..... यः क्षत्रक्ष
तजातजातसुमखीं (षीं) मेलवम (लाम्बु अं)भोनिधि । . पत्रं दिग्वलयं स्वमक्षरचणं निर्वत्तयन्शासनं . विप्रेभ्यः पृथिवीमदा
दुदयिनी रामाय तस्मै नमः ।।२।। [अ]श्रांतास्रं (स्र)पयोभिर्लंघनवं (बं)धाभिमानजां जलधेः । .. कृशतां शमयितुमिव यो
रक्षास्यवधीनमामि तं रामं (मम्) ॥३॥ शरीभूय हरिः कुक्षिनिक्षिप्तभुवनत्रयः । यदंगुलिदले तस्थौ नमस्तस्मै
पुरद्रुहे ॥४॥ भूमि भूतिमयीपतः सुरसरिद्रूपास्तृतीयेक्षणज्वालाभं ज्वलनं भुजस्थभुजगश्वासात्मकं मा
: रूतं (तम्) । ... खं रंधेषु कपालदाम्नि नयनद्वैतच्छलात्पूषणं चन्द्रं स्वं यजमानमित्यवतु वः शर्वोष्ट विभ्रन्तनु (तनूः) ॥५॥ देवानां
वेदानां त्रयस्य यो जातवेदसां जगतां (ताम्)। ...... लेभे नामादिम इति नमामि देवं तमोंकारं (रम्) ॥६।। शंभोरंभोभिरस्य
स्नपनविधिवसा (शा) दप्यहं मूर्द्धनी (नि) द्वे संधानं (ने) संविधास्ये ध्रुवमिति विधुरा स्वधुनीस्पर्द्धयेव। रेवासेवानुषंगादि
व चरणतलालंवि (बि)नी यस्य भाति प्रासादोभ्रंलिह श्रीजयं (र्जय)ति पसु (शु) पतेः सोयमोंकारनाम्ना ॥७॥
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परमार अभिलेख
११.
यत्प्रासादाग्र
[क]लसताडितपुरा सुरापगा मुखरा। रेवानुषंगरोष (षा)दिव गंगाधरमुपालभते ।।८।। नो गम्योयमकिंकरैर्न दु
रितैरासादनीयो न वा धृष्यो मोहमहोम्भिभिन्न कालिना चैष प्रवेष्टुं क्षमः । मत्वा कुण्डलनामिवेति परितः
__संप्रापितो रेक्या कावेर्या च पितामहेन सुमहान्मांधातृधात्रीधरः ।।९।। मुक्तौ (क्त)र्यास्यति कुत्रचिद्वसुमती दंष्ट्राग्र
__ संश (स) ग्गिणी कुक्षौ क्षोभमवाप्स्यति त्रिभुवनं रुद्धरमीभिभृशं (शम्) । इत्यस्वल्पविकल्पमीलितमतेः कंठे कुंठत्
१३.
१४.
कोलाकारधरस्य मै (क)टभजितः श्वासोर्मयः पातु वः ।।१०।। निगमवदनां वेदांगांगी पुराणम[य]तर
१६.
१७..
१८.
दवयवां वक्रत्वोक्तिं कवित्वतनूरूहां । पदपदवतीं वाक्यात्मानं प्रमाणमयाशयां तनुमिति नवां वि(बि) भ्रद्धांति
__ भिनत्तु पितामहः ।।११॥ सनाभेः संभूय स्वयमिह मुरारेजगदिदं ससर्ज प्राधान्यात्कियदपि ततः स्रष्टु
मपरम् । मुनीन्मान्यान्सप्त व्यरचयदयं स्वीयमनसो वसिष्टा (टो)ऽभूदेषां तपसि कृतनिःकं (निष्क)पनियमः ।।१२।। स यदा [ना]
करोत्कोपमपि पुत्रशते हते। तदाभ्यषेणयद्रष्टुं तपोस्य किल कौशिकः ।।१३॥ तेनाथ मारय परानि
ति जल्पतायत् सृष्टस्तदा मुनिवरेण कृशानुकुंडात् । धर्माद्रु (मंद्रु) हां विशसनादिह योग
तोपि ख्यातस्ततः समभवत्परमारनामा ।।१४।। समजनि [किल तस्मादेष राजन्य
२०.
२१.
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मान्धाता अभिलेख
(द्वितीय ताम्रपत्र--अप्रभाग)
वंशः सकलधरणिधु[]प्रांसु (शु) वंशावतंशः (सः)। अवतरित न यस्मिन्जातु विष्णोरनंशः परध
रणिभुजां वा मानसे यो न हंशः (सः) ॥१५॥ कमंडलुधरो धाराधीशस्तत्र क्रमाद[भूत] । यशोभिः शोभि
ते यस्य स्वस्थोभूद्भूतले विधुः ।।१६।। ताते तत्र प्रपन्नेथ नाकि नायकवैभवं । धूमराजोभवद्राजा प्रतापैस्तपन
प्रभः ॥१७॥ दहति प्रत्यहमुच्चैः प्रतीपनृपपुरपरंप[रा]मिति यः। धूमध्यामरुदितो गगनचरै●मराज इति
नाम्ना ॥१८॥ अथ देवसिंहपालस्तस्मादस्मिन्नभून्नृपो भुवने । यस्य प्रतापतफ्नः प्रतिनृपतितम : क्षयंक्षणादन
यत् ।।१९।। स्वरधिवसति धारातीर्थगत्या स्वताते जयति कनकसिंहस्तत्र राज्योक्रमेण । भवति किल तलेस्य स्व:पिता
मे प्रसंगादिति . खलु वितरन्योधोव्यधात्कल्पवृक्षं ॥२०॥ श्रीहरषो (हर्षो) भून्नृपस्तस्मादथ प्रथितपो (पौ)रुषः ।। दानवानकरोत्स
___न्सुिखिनो वैष्णो (णवो) पि यः ।।२०अ (२१)।। स्वपदविनिमयेन स्वस्तमासज्य राज्ये क्षितितलविजिहीर्षाकौतुकान्नाकिनाथः । अ[भ]
वद[थ] जगद्देव इत्याख्ययोद्यत् करकृतकरवालो मालवक्षोणिखण्डे ॥२१(२२)॥ कर्णः कर्णकटुः शिविर्ण (न) सि (शि) वदो बै
रोचने नोचिता --- यवनीपके विनयते चितां न चिन्तामणिः । स्वल्पः कल्पतरुन कामसुरभिः कामप्रपूत्यै पुरो यस्मिन् सस्मितमाथिसार्थमनसामिच्छाधिकं यच्छति ॥२२ (२३)। स्थिरधी स्थिरकायोथ प्राज्यं राज्यं प्रपन्नवन् (वान्) । स्थिरकायो
स्य [तु] युद्ध (द्धे )ष्विति सार्थकसंज्ञया ।।२३ (२४)।।
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३००
परमार अभिलेख
३४.
३५.
३७.
३८.
३९.
ततो वोशरिरित्यासीद्दा (धा) राधिपतिरुद्धतः । येन युद्धे हतर्वीरैः सम्वा (बा)धा
द्योग (न) वामरैः ।।२४(२५)। वीरसिंहस्ततो वीररसिक (को) रसिकाशयः। . . . पितुर्यो राज्यमासाद्य जिगाय जगतीमिमां ।।२५(२६)। वाक्पतिराजो राज्ये तस्मिन्नासीन्महीतले महतिः। . यस्य प्राकृतसूक्तिभिररज्यत.प्राकृतो लोकः ।।२६ (२७)।। . चतुरं
चतुरंभोधिपरिधेरधिपं भुवः । . . . सियानामानमत्राथ साम्र (म्रा)ज्यश्रीरशिश्रियत् ॥२७ (२८)। उज्या (ज्ज्वा)लतेजसि यशो विशे (श) दे- ..
थ वंशे तस्मिन्महानजनि मुंज इति क्षितिक्षितीशः ।। स्पर्धावसा (शा) दिव मिथः समितौ कृपाणः.... पाणिश्च दानम
___ तनोदधिकं यदीयः ।।२८ (२९)। गायत्यंतरमंदसंमदभरा विस्रा (श्रां) तह श्रुभिः पुण्णांचत्पुटर्लो (लो) चनांचलतया ना
लोक्य कान्तं पुरः। मंदारस्तवकावतंश (स) विलसद्रोलंव (ब)कोलाहल- . . . . . स्फायन्नादमुदित्वरं सुरवधूः कीर्ति यदीयां- . . . . . . ...
. दिवि ।।२९(३०)।।.. ततः स्फुरत्संगरसं[गारंगमभंगुरांगं किल सिंधुराजं । सदोदितं सादरमाससाद प्रभुत्वलक्ष्मीः प्रततप्रता
पं॥३० (३१)॥ यं सारस्वतमादधानममृतं प्रख्यातरत्नोत्करं ... . सत्पक्षक्षितिभृच्छरण्यमुदितं प्रायः प्रशा (सा) दास्पदं । सन्मर्याद
मगाधमायतपदं व्याप्तक्षमामंडलं सत्यं जल्पति सिंधुराजमखिलः प्रोद्यद्विजोल्लासितं ॥३१(३२)। सिंधुराजाद
भूत्तस्मात्कलानां पानमुद्यतः। भासयन्कुमुदं भोजराजो राजा प्रसादभूः ।।३२ (३३)।। अर्थिप्रत्यर्थिसार्था (र्थ) स्थित(द्वितीय ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग)
करनिकरोपात्त[संन्यस्तम[त्त]प्राज्यप्रोद्दामंदताव (ब)लव (ब) हल-गलद्दानतोयोद्भविष्णुः । यद्द्वारि द्वास्थमुख्य-क्षणधृत
* धरणीपाल-निश्वासराशि स्फूर्जद्वात्या-प्रतानः प्रचुरमपि पुनि]: शुष्कतामेति पंकः ॥३३ (३४)।।
४१.
४३.
४४
४५.
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मान्धाता अभिलेख
शंव (ब) रारिशरैः पूर्वजन्मनी
ह निजेषुणा। राधां विव्याध यः प्रायः प्रथयन्नच्युतात्मतां ।।३४ (३५)।। यः कुर्वन्मार्गणान्राज्ञः परान्राज्ञश्च मार्गणन् (णान्)। सर्व___ स्व-त्याग-योगेन परिवर्तकतां दधौ ।।३५(३६)।। उदयंउ (यमु) दयादित्यः प्राप प्रताप-निधिस्त तो] ...... रिपुनृपतमस्तोमानस्तं नय
न विलसत्करः। उदहरत यो दोर्दष्ट्राभ्यां सज्जित-गूर्जर क्षितिप-जलधौ मग्नामेतां वा (व) राह इवावनिम् ॥३६ (३७)।। नरवर्मा त
तो राजरत्न रत्नाकरान्नृपः जात]: स्वतेजसाक्रांत-सर्बोझैभर्तृभूषणे (णः) ।।३७ (३८) ।। उत्खाताः परभूमयः पुनरमूरात्तास्ततो
भ्युद्धता द्राङनिःकटंकिताः करैः परिचिताश्चक्रे निजे रोपिताः । . . पात्रार्थ घटिताः स्वसूत्रकलिताः स्निग्धीकृता यत्नतो ....... .. येनेति प्रकटं कुलालचरित-क्रीडासु न वीडीतं ।।३८ (३९)। ततो यशोवर्मा (म)नृपो व (ब) भूव प्रचंडदोर्दडलसज्जयश्रीः । मा
त्यर्धमाद्यं न किल त्रिलोक्यां द्वितीयमंगे युधि यस्य नाम्नः ।।३९(४०).. तस्मादजयवर्माभूद्भात]ले भूमिवल्लभः । प्रता
पतपनो यस्य कमलोल्लासनोल्वणः ।।४० (४१)। प्रभ्रस्य (श्य)न्मुंडमालं स्खलितगजमुखं व्यग्रजाग्रच्छिवास्यं : व्याकीर्णास्थिप्रकारं
' धुतविधुर-महासेनमुभ्रान्तभूतं । ध्वस्तोच्चःकृत्तिखण्डं प्रपतित-नयन श्रोत्रमुग्रोग्र भावं] यत्ष (ख)ड्गेन व्यधायि प्रवन (ण)म
. नुदिनं रंगमूभैरवस्य ।।४१ (४२)। विंध्यवाभवत्तस्मादस्मिन्नुर्वीतलेखिले । यो विध्यगिरि-वद्वैरिनृपोपायन-दंतिभिः
॥४२(४३)॥ अजनि सुभटवर्मा संगरे क्रूरकर्मा क्षतरिपुनृपवर्मा संसदि-प्राप्तशर्मा । त्रिदस (श) पति सधर्माथाङ्गनो
द्गीतना रुचितरु चिरवा मार्गणप्राप्तखा ।।४३ (४४)।। अर्जुनदेवस्तमादर्जुन इव कर्णजित्वरोदाने। ... भारतभूषा
भावी कृष्णकरतिर्व (4) भूव भूभर्ता ॥४४ (४५) ।।
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परमार अभिलेख
सत्व (प)क्षक्षिति-भृज्जयव्यसनितां श्रुत्वास्य नामान्वया न्मनाकप्रमुखाः प्रकंपम
दधुमाध्येबु भीताध्रुवं । श्रीसोमेस्वर (श्व) र पभृ (द)बंध समये प्रक्षुत्य (भ्य)तोंभोनिधे रुत्कल्लोल-तयावनौ यदभवत्संवत-को
लाहलः ।।४५ (४६) ।। देवपालस्ततः प्राप प्राज्यं राज्यं धराधिपः । सुमनः संसदि प्रीतः कल्पवृक्षादि-मध्यगः ।।४६ (४७)।। स्फार____ रुल्लिखिते तुरंगमरवुरैः प्रौढ़प्रतापानलरूद्दीप्तेरिवधू-विलोचनजलैलिप्ते गलत्कज्जलैः । यत्काष्ठावि
__ जये वृषः खलु कलावेकांहि (घ्रिणा संचरन्पूतत्वाच्चरणश्चतुर्भिरधुना भूमंडले ख (खे) लति ।।४७ (४८)। धावद्वाजि
खुराग्र-धूतवसुधापृष्ठ-स्फुरद्धूलिजध्वांताक्रांतदिगंतराल-विषय-व्यर्थीकृताहस्करं । भैलस्वामिपुरोप
कंठसमरे म्लेच्छाधिपं दुर्धरं यः क्रोधात्तरवारिणव सहसा द्वेधा व्यधादुद्धतं ।।४८ (४९)।। तस्माज्जैतुगिदेवोभूत्पा
थिवः पृथिवीतले। धरामुद्धरता येन श्रीमता श्रीधवायितम् ।।४९(५०)।। ततः श्रीजयवर्माणं शिश्रि
ये श्रीः स्फुरद्भू (भु)जं। श्रीर्द द्वर्यशो यमासाद्य तत्याज चपलेत्यलं ।।५० (५१)॥ युगयोगादतिक्षीणं वृष
. (तृतीय ताम्रपत्र-अग्रभाग)
मेव पुपोष यः ।। जयसिंहस्तृणं चक्रे सर्वस्वं स्वयमेव सः ।।५१ (५२)। उदंडो ददतांपटुः प्रवदतामु
ज्जागरो जानता भावी श्रीजयसिंह इत्यवनिपो धमकव (ब)द्धव्रतः । दौहित्रोत्र कुले विपश्चि
दुचितः पौत्रोत्र पात्रंश्रिवो (यो) मत्वेत्थं खलु शंभुरिंदुमनलं प्रोत्योत्तमांगे दधौ ।।५२ (५३)। पौलस्त्यमस्तकभ्रस्यदत्रवि
स्रा जटाटवी। कर्परपूरणैर्येन पुरारेः सुरभिः कृता ॥५३ (५४)।।
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मान्धाता अभिलेख
३०३
विध्याद्रेवलयं विलंघ्य परितो दिक्कूल-सक्खे (षे) सै
न्ये श्रीजयवमणः क्षितिपतेर्यस्यालमास्कंदति । कान्ताभिः खलु दाक्षिणात्य-नृपतेः कोपादगस्त्यं प्रति क्षि
प्राः (प्ता:) प्रक्षितकांदिशीकपतिभिः क्रूरा. कटाक्षच्छटाः ।।५४ (५५)। सु(शु)भ्रालिहहेमकुंभशिरसो देवा]लयान्कारयन् विप्रे
भ्यो वितरन्पुराणि कनकं धेनुः सु(शु)भाः कोटिशः । आरामानिह रोपयन्सरस-यन्नुच्चस्तडा-गौत्तमैः क्षोणीमंडल
____ मुज्जवलं स्थिरमतिर्योद्यापि न श्राम्यति ।।५५(५६)। इत्थं पृथ्वीमवत्यस्मिन्जयवर्मणि भूपतौ । व्यापारानपमुद्रादीन्परिपं
थयति स्वयं ।।५६ (५७)।। चाहमानकुले राटोराउत्तः क्रमतोभवत् । चंडदोर्दण्डयोर्यस्य जयश्रीः स्थिरतामगात् ।।५७(५८)। पल्हणदेवस्तस्माद[भ]वद्भुजदण्डमंडलीचंडः । यः स्वामिनि जयश्रियमात्मनि यश एव चाधत्त ।।५८ (५९)।। सलष (ख) णसिं
__ हस्तस्मात्तनयो नयभूरभूत्सुभुजः । अर्जुनदेवस्थाजिषु यशोजने स खलु सह कृत्वा ।।५९ (६०)।। जित्वा सिंहणदेव दु
*र्धरमहासन्यं चमूनायक माध्यात्सागयराणकं स्वयमिहाधःपातयित्वा ह्यात् । तस्मात्पट्टमयानि सप्त समेर
यश्चामराण्यग्रहीत् मूर्धानौ परिधूनयन् रसवसा (शा)त्सिहार्जुनक्ष्माभुजोः ॥६० (६१)। तस्मादनयसिंहो[भ]त्कलावा निव
वारिधेः । यः एकः कल्पवृक्षादिमध्ये गणनयान्वितः ।।६१(६२)। देपालपुरे येन प्रासादे कारिते शिवः । श्रांतः [कुं
डजलव्याजासिद्धसिंधुं दधौ पुरः ।।६२ (६३)। शाकपुरेभ्रंलिहशिष (ख)रं सुरसदनमवि (बि) काधिगतं । यो[ची]करदिव दा[]]-..
विस्रा (शांति खे द्विजस्य संप्र (भ्र) मतः ।।६३ (६४)।। ओंकारप्रासादं समया निरमापयत्तरांतुंगं । जम्बु (बु) केश्वर-नाम्नः स (शं) भोर्यः सदन
मनुपमिति ।।६४ (६५)।
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“परमार अभिलेख
यत्कारिते सरसि मंडपदुर्गमध्ये कुंभोद्भवः प्रतिनिसं (शं) प्रतिविम्व्य (म्ब्य ) मानः । ज्ये (यो) तिर्मयो लवण वा
रिधिवरिपान दुःस्वाद-दुःखमिव माष्टि पिव (ब) नपोंतः ।।६५ (६६)।। प्राकारेण प्रतोल्या षडधिकदस (श)भिमंदिरः स्व
पर्णकुंभरुत्तुंगभूरिकक्षैर्गुरु-सुरसदनेनांवु (बु) कुंडेन युक्तां।' यो दुर्गे मंडपाखे (ख्ये)व्यतरदिह पुरी वा (ब्रा) ह्मणे
भ्यो नृपाज्ञां लब्ध्वा मांधातदुर्गेप्यनुपमरचनं तद्वदेव व्यधत्त ।।६६ (६७)। स एष पूर्वोक्त-राजावलि-विराजमानेन भक्तयादिभिः प्रसादितेन श्रीमज्जयवर्मणा धाराधिपेनानुज्ञातः स (सा)धनिको अनयसिंहदेवो
धर्माध (र्थ)त्सम्व (ब)द्ध-त्रु (ब)- . ८८.
धिविजयी वर्द्धनापुर-प्रतिजागरणके कुम्भडाउदग्रामे तथा तत्रैव वालौक्ग्रामे तथा सप्ताशीति
प्रति८९. जागरणके वधाडिग्रामे तथा नागद्रह-प्रतिजागरणके नाटिया ग्रामे समस्तराजपुरुषान् वा (बा)
(तृतीय तामापत्र--पृष्ठ भाग) ९०. ह्मणोत्तरान् प्रतिनिवासि-पट्टकिल-जनपदादींश्च वो (बो) धयत्यस्तु वः संविदितं यथा
मंडपदुर्गावस्थितै९१. रस्माभिरेक त्रिंशदधिक त्रयोदशशत-संख्यान्विते प्रमाथि-नाम्नि संवत्सरे भाद्रपदे मासि
शुक्लपक्षे ९२. सप्तम्यां तिथौ शुक्रदिने मैत्रे नक्षत्रे स्नात्वा . भगवन्तं पार्वतीपति समभ्यर्च्य संसारस्य
असारतां दृष्टवा । तथा ९३. हि।
वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्य मापातमात्र मधुरो विषयोपभोगः ।
प्राणास्तृणाग्रजलबिन्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ॥६७ (६८)। इति सर्वं विमृशियादृष्टफलमंगीकृत्य च स्वपुत्रः कमलसिंह-धारासिंह-जैत्र९५. सिंह-पद्मसिंह (हा) इत्येते. सहित: नानागोत्रेभ्यो नानानामभ्यो मांधातृ-व्र (ब)ह्मपुरी
वास्तव्येभ्यो वा (ब्रां) ह्मणेभ्य: य९६. था टकारीस्थान-विनिर्गताय गौतमसगोत्राय आंगिरसौवथ्य [गौ]तमेति विप्रवराय
ऋग्वेदशाखाध्या९७. यिने च कमलाधरशर्मणः पौत्राय अवसथि-विद्याधर शर्मणः पुत्राय दी पद्मनाभशर्मणे
वा (ब्राह्मणाय ९८. पदमेकम् १ टकारीस्थान-विनिर्गताय गौतमसगोत्राय आंगिरसौवध्यगौतमेति त्रिप्रवराय
ऋग्वेद९९. शाखाध्यायिने च कमलाधरशर्मणः पौवाय अव विद्याधरशर्मणः पुत्राय च माधवशर्मणे
वा (ब्रा) ह्मणा
९४.
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मान्धाता अभिलेख
१०० . य पदमेकम् १ ‘टकारीस्थान-विनिर्गताय भारद्वाज-सगोत्राय आंगिरस-चा (बा)हस्पत्य
भारद्वाजेति त्रिप्रव१०१. राय' ऋग्वेदशाखा-प्रवर्द्धमानाय मिश्रधर्माधरशर्मणः पौत्राय पंचपीठि(पाठी) मिश्रउद्धरण
शर्मणः पुत्राय पं १०२. श्रीकंठशर्मणे वा (ब्रा) ह्मणाय पदमेकम् १. लष (ख) णपुर-विनिर्गताय काश्यपगोत्राय काश्य
पावत्सार-नैध्रु१०३ . वेति त्रिप्रवराम च भो (भू) पतिशर्मण: पौत्राय पं. विद्यापतिशम॑णः पुत्राय ऋग्वेदशाखा
प्रवर्द्धमानाय द्वि १०४.. गोवर्द्धनशमणे वा (का)ह्मणाय पदमेकम् १ तोलापौहस्थान-विनिर्गताय चंद्रात्रेयसगोत्राय
आत्रेयगावि१०५. ष्टिर-पूर्वातिथेति त्रिप्रवराय दी श्रीवत्सशर्मणः पौवाय दी देवशर्मशर्मणः पुत्राय माध्यंदिन
शा१०६. खाध्यायिने दी वामनशर्मणे वा (आ)ह्मणाय पदमेकम् १ टकारीस्थान-विनिर्गताय वशिष्ठ
सगोत्रा१०७. य वाशिष्ठशाक्य-पारासर्येति त्रिप्रवराय व (ब)लभद्रशर्मणः पौवाय. साधारणशर्मणः
पुत्राय माध्यंदि१०८. न-शाखाध्यायिना-अवस्थी-आनन्दशर्मणे वा (श्रा) ह्मणाय पदमेकम् १ टकारीस्थान-विनिर्गताय
[भ]ार१०९. द्वाजसगोत्राय आंगिरस-वा (बा)हस्पत्य-भारद्वाजेति त्रिप्रवराय शुक्लप्रद्युम्नशमणुः पौत्राय
द्वि सो११०. लूशर्मणः पुत्राय माध्यंदिनशाखाध्यायिने द्वि हरीशशर्मणे वा (ग्रा)ह्मणाय पदमेकम् १ १११.. टेणीस्थान-विनिर्गताय काश्यपसगोत्राय काश्यपावत्सारनैध्रुवेति त्रिप्रवराय उपा . ११२. देवशर्मणः पौत्राय उपा वैजूशर्मणः पुत्राय माध्यंदिन-शाखाध्यायिने द्वि [म]- ..
" (चतुर्थ ताम्रपत्र-अग्रभाग) ११३. हादेवशर्मणे द्रा (ब्रा)ह्मणाय पदमेकम् १ टकारीस्थान-विनिर्गताय कात्यायन-सगोत्राय
विश्वा]११४. [मि]त्र-कात्यकिलेत्ति त्रिप्रवरा[य] पा कल्हणशर्मणः पौत्राय अव आलदेवशर्मणः पुत्राय ११५. माध्यंदिन-शाखाध्यायिने द्वि हरिदेवशम्मणे वा (ब्राह्मणाय पदमेकम् १ टकारीस्थान
विनिर्गताय' भारद्वाज११६. सगोत्राय आंगिरस-वा (बा)हस्पत्य-भारद्वाजेति त्रिप्रवराय द्वि गजाधरशर्मणः पौत्राय अव
वी[क]देव-शर्मणः ११७. पुत्राय माध्यंदिन-शाखाध्यायिने द्वि अनन्तशर्मणः 'ब्रा (ब्रा)ह्मणाय पदमेकम् १ टकारी
स्थान-विनिर्गताय आ-. ११८ . त्रेय-सगोत्राथाय आत्रेयगविष्ठिर-पूर्वातिथेति त्रिप्रवराय. पा. कृष्णशर्मणः पौत्राय पा
अत्रिशर्मणः पुत्रा-. ११९. य माध्यंदिन-शाखाध्यायिने पा योगेश्वरशर्मणे. ब्रा (ना)ह्मणाय पदमेकम् १ टकारीस्थान
विनिर्गताय वशि-.... १२०. ष्ठ-सगोत्राय वशिष्ठाभरद्वस्विन्द्रप्रमदेति त्रिप्रवराय त्रि. समुद्धरणशर्मणः पौत्राय त्रि
दामोदरशर्मणः पु
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परमार अभिलेख १२१. वाय कौथुमशाखाध्यायिने नि नारायणशर्मणे वा(ब्रा)ह्मणाय पदमेकम् १ टकारीस्थान
विनिर्गताय सार१२२. पिण-सगोवाय भार्गवच्यवनवा (ना)प्नधानी (वदौ) व-जामदग्नयेति पंचप्रवराय च वासुदेव
शम्र्मणः पौत्राय च लक्ष्मी१२३. धार]शर्मणः पुत्राय कौथुमशाखाध्यायिने त्रि पुरुषशर्मणे ब्रा (बा) []णाय प(द) मेकम्
१ टेणीस्थानविनिर्गता१२४. य शाण्डिल्यसगोत्राय शाण्डिल्यशि (सि) तदैवलेति त्रिप्रवराय त्रि विश्वेश्वरशर्मणः पौत्राय
त्रि महेश्वरशमणिः] १२५. [पुत्राय कौथुमशाखाध्यापिने त्रि बाऊंशर्मणे वा (ब्रा) ह्मणाय पदमेकम् १ वत्ससगोत्राय
भार्गवच्यवन-आप्न१२६. वानीनजामदग्न्येति पंचप्रवराय चाहमान-कुलेि) प्रवर्द्धमानाय सा पल्हणदेववर्मणः पौत्राय
सा सल (ल्ल) १२७. ष (ख) णसी (सिं)हवर्मणः पुत्राय साधनिक अनसिंहवर्मणे क्षत्रियाय पदद्वयम् २ इति
षोडसवा (शब्राह्मणेभ्यः १२८. कुंभडाउदा (द)-वालौदा (द)-वघाडी-नाटिया इति ग्रामचतुष्टयं समग्रं चतुष्कंकट-विसु (शु)द्धं
. सवृक्षमालाकुलं त१२९. संव(ब)द्ध-गृहगृहस्थानखलखलस्थानं खलु तलभेद्यागो-वाटिकाशाकमुष्टि-तैलपलिका
कुम्भपूरकात्का१३०. शोत्पत्ति-पातालनिधिनिक्षेप-[दे]वायत[नो]द्यान-तडागवापीकूपादि-सहितं सहिरण्यभागभोगं सो१३१. परिकरदंडादि-[स]ोदायसहितं पुण्ययशोभिवृद्धये चंद्राकर्णिवक्षिति-समकालं यावत्परया
भक्तया दे- .. १३२. व-बा(ब्राह्मण-भुक्तिवज शासनेनोदकपूर्व दत्तं तन्मत्वा तन्निवासि-पट्टकिलजनपदैर्यथा
दीयमान-भागभी१३३. गकर-हिरण्यादिकमाज्ञा-विधेयर्भूत्वा सर्वमेतेभ्यो बा(ब्रा) ह्मणेभ्यः समुपनेतव्यम् सामान्य
चैतद्धर्म[फ]लं. वुध(बुद्ध)वा . . १३४. अस्मत्स्वामिवंस (श)-जै विभिर्भोक्तृभिरस्मद्दत्त-धर्मा (म्म) दायोनुमन्तव्यः पालनीयश्च । - उक्तं च । . . . . . . .
व (ब) हुभिर्वसुधा भु१३५.
*क्ता राजभिः सगरादिभि.। . . यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।।६८ (६९)॥.. ... . . . स्वदत्तां परदत्ता वा यो हरेत् वसुन्धरां (राम्)। (चतुर्थ ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग) .
. स विष्ठायां कृमिर्भूत्वा पितृभिः सह मज्जति ।।६९(७०)॥ सर्वानेवं भाविनों भूमिपालान् भूयो भूयो याचते रामभद्रः। सामन्योयं धर्मसेतुर्नृपाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ।।७० (७१)। इति कमलदलाम्बुविन्दुलोलां श्रियम
.. नुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च।। सकलमिद-मुदाहृतञ्च बुद् वा न हि पुरुषः परकीर्तयो विलोप्याः ॥७१ (७२)। इति।
१३७.
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मान्धाता अभिलेख
१३९.
श्री कण्ठेन नियुक्तेन सभायं (यां) जयवर्मणा।
चक्रे कुलक्रमा यातु(त)-विद्यत्वेन शासनम् ॥७२(७३)।। उत्कीर्णां च रु(रू)प१४०. कार कान्हाकोन (केन)।
.. अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग) १. ओं। पुरुषार्थों में चूडामणि धर्म को नमस्कार ।
लक्ष्मी को दानरूप में परिणत कर जिसकी कीर्ति विख्यात हुई, जगत को त्यागने वाला, महान अनुग्रह करने वाला, सबको आनन्दित करता हुआ वह विष्णु यज्ञ करने वालों का प्रिय करने वाला हो ।।१॥
युद्धरूपी यज्ञ में उदय के द्वार रूपी कुठार को लेखनी बनाकर, क्षत्रियों के रक्त से पूरित समुद्र की स्याही बना कर, दिशाओं को पत्र बना कर, अपने अक्षरों से मनोहर शासन करते हुए उदित, जिसने ब्राह्मणों को पृथ्वी का दान किया, उस परशुराम को मैं नमस्कार करता हूं ॥२॥
समुद्र को बांधने एवं लांघने के अभिमान से उत्पन्न हुई समुद्र की दुर्बलता को अविछिन्न बहने वाले आंसुओं से शमन करने के लिए ही मानो जिसने राक्षसों का वध किया उस राम .. को मैं नमस्कार करता हूं ।।३।। .. .. ... ... ... .. . त्रैलोक्य को अपने उदर में निहित करने वाला विष्णु बाण बन कर जिसकी अंगुलियों के मध्य स्थित रहा, उस त्रिपुरारि शिव को नमस्कार है ।।४॥ .. ... . ....
जो भस्म रूपी भूमि को, गंगारूपी जल को, तृतीय नेत्र-ज्वाला रूपी अग्नि को, भुजाओं पर स्थित भुजंगों को, श्वासोच्छवास रूपी वायु को, नरमुंड रूपी माला में छिद्र रूपी आकाश को, दोनों नेत्रों के बहाने से सूर्यचन्द्र को व स्वयं को यजमान रूप से धारण करने वाला अष्टमूर्ति शिव तुम्हारा रक्षण करे ॥५॥
देवत्रय (ब्रह्मा, विष्णु, महेश), वेदत्रय (ऋक् यजु साम), अग्नित्रय भुवनत्रय (स्वर्ग, भू, पाताल) इनका आदि नाम जिसने प्राप्त किया उस ओंकारदेव को मैं नमस्कार करता हूं ।।६।।
नर्मदा गंगा की ईर्ष्या से दुखी हुई, शिवजी के स्नान के बहाने से वह भी उनके मस्तक पर स्थित हो जावेगी, इस हेतु जिस शिवजी के मंदिर के नीचे से सेवा निमित्तं बह रही है, उस शिवजी का गगनचुम्बी ओंकार नामक मंदिर प्रकाशमान हो रहा है ।।७।।
जिस ओंकारेश्वर मंदिर के शिखर के कलश से स्वर्गनगरी के ताडित होने से खलबलाहट करने वाली आकाश गंगा नर्मदा के सानिध्य से मानो क्रोधपूर्वक गंगाधरं शिवजी को उपालम्भ दे रही है ।।८।। - जहां यम के दूत प्रविष्ट नहीं हो सकते, पाप स्पर्श नहीं कर सकते, मोह की प्रचण्ड लहरें भयभीत नहीं कर सकतीं, कलियुग भी प्रवेश करने में असमर्थ है, यही सोचकर ब्रह्मदेव ने नर्मदा व कांवेरी से चारों ओर कुण्डलिनी के समान वेष्ठित इस स्थान पर महान मान्धाता नरेशं को भेजा ॥९॥ ‘श्वास छोड़ने पर दन्तान पर स्थिर पृथ्वी कहीं लुढ़क जावेंगी, न छोड़ने पर त्रिभुवन क्षुब्ध हो जावेगा, ऐसे महान संकल्प-विकल्पों से अनिर्णीत गति वाले भगवान के कण्ठ में कुण्ठित होने वाली वराह रूप धारण करने वाले कैटभारि (विष्णु) की श्वासलहरियां सुम्हारा कल्याण करें ।।१०।।
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परमार अभिलेख
वेद जिस का मुख, वेदांग जिसके अंग, पुराण जिसके व्यक्त होने वाले अवयव, वक्रोक्ति कवित्व जिसके केश, व्याकरण शास्त्र जिसके चरण, न्यायशास्त्र जिसकी आत्मा, मीमांसा शास्त्र जिसका मन है ऐसा नूतन शरीर धारण करने वाला यह ब्रह्मदेव है, इस भ्रांति को ( वह ) दूर करे ।।११।।
विष्णु की नाभि से स्वयं प्रकट हो कर ब्रह्मा ने इस जगत का निर्माण किया। बाद में कुछ तो भी प्रधानता से अन्य निर्माण किये। अपने मन से सात मान्य ऋषियों को उत्पन्न किया। उनमें से वसिष्ठ तप करने हेतु दृढ़ निश्चय हुए ।।१२।।
सौ पुत्रों के वध होने पर भी जिसने क्रोध नहीं किया, तब उसके तप को देखने की विश्वामित्र ने इच्छा की ॥१३॥
बाद में 'शत्रुओं को मारो" ऐसा बोलने वाले उस मुनिवर ने योगबल द्वारा अग्निकुण्ड . से धर्मद्रोहियों का नाश करने के लिए जिसको उत्पन्न किया वह परमार नाम से विख्यात हुआ || १४ ॥
( दूसरा ताम्रपत्र -- अग्रभाग )
उस परमार से अखिल पृथ्वी पर श्रेष्ठ व उन्नत वंश का अलंकार रूप यह क्षत्रिय वंश उत्पन्न हुआ जिसमें कोई भी ऐसा नरेश नहीं था जिसमें विष्णु का अंश न हो, एवं शत्रु नरेशों के मनरूपी मानस सरोवर में जो हंस के समान विराजमान न हो ।। १५ ।। इस वंश में क्रम से कमंडलूधर नामक धाराधीश हुआ जिसकी कीर्ति से भूतल
प्रकाशित होने पर चन्द्र निश्चिन्त हो गया ||१६||
पिता के स्वर्गवासी होने पर अपने प्रतापों से सूर्य के समान कांतिवाला धूम्रराज नरेश हुआ ।।१७।।
जो प्रतिदिन उन्नत विरोधी नरेशों के नगरों की परम्पराओं को भस्म करता था । धुवें से त्रस्त हुए देवताओं ने उसको धूम्रराज नाम से पुकारा ।। १८ ।।
उसके उपरान्त पृथ्वी पर देवसिंहपाल नरेश हुआ जिसके प्रतापसूर्य ने शत्रुनृपति रूपी . अन्धकार को क्षणभर में नष्ट कर दिया ||१९||
अपने पिता धारातीर्थ गति (?) के स्वर्गगत होने पर उस राज्य में क्रम से कनकसिंह नरेश हुआ । “मेरे पिता स्वर्ग में कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हैं" ऐसा सोच कर जिसने प्रसंगों पर दान दे कर कल्पवृक्ष को नीचा कर दिया ||२०||
उसके पश्चात् अत्यन्त पराक्रमशील श्री हर्ष हुआ । दान देने वाले ( ? ) जिसने वैष्णव हो कर भी सब को सुखी क्रिया ।। २१ ।।
स्वर्गाधिपति (इन्द्र) इस (श्री हर्ष) को अपने स्थापित कर भूतल पर विजय प्राप्त करने की धारण किये मालव भूखण्ड में जगद्देव के नाम से उदित हुआ || २२॥
जगद्देव द्वारा याचकों को इच्छा से अधिक दान प्रदान करने से दानवीर कर्ण का नाम कानों की कटु लगने लगा, शिवि व बलि राजा अकल्याणकारी व निस्तेज हो गये, चिन्तामणि चिन्ता हरण में असमर्थ हो गये, तथा कल्पवृक्ष व कामधेनु इच्छापूर्ति के लिए छोटे पड़ गये ||२३|
राज्य (स्वर्ग) में अपने पद के बदले इच्छायुक्त कौतुक से हाथ में खड्ग
बाद में स्थिर निश्चय वाला, युद्धों में स्थिर शरीर वाला नरेश राज्य को प्राप्त कर स्थिरकाय नाम सार्थक किया ||२४||
हुआ, जिसने समृद्ध
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उसके पश्चात् वोरि ( ? ) नामक पराक्रमी धारापति हुआ जिसके द्वारा युद्ध में मारे गये हुए वीरों सें स्वर्ग इतना बाधा युक्त हो गया जितना देवताओं से भी नहीं हुआ || २५ ||
इसके पश्चात् अत्यन्त रसिक व श्रेष्ठ वीर वीरसिह हुआ जिसने पिता के राज्य को प्राप्त कर इस पृथ्वी को जीता ||२६||
विशाल भूतल पर उस राज्य में वाक्पतिराज हुआ जिसकी प्राकृत सूक्तियों से साधारण जन आनन्दित होते थे ||२७||
चारों समुद्रों तक पृथ्वी का स्वामी बुद्धिमान सीया नामक नरेश हुआ जिसके साम्राज्य में लक्ष्मी ने आश्रय लिया ||२८||
उज्ज्वल तेजस्वी कीर्ति से विख्यात उस वंश में मुंज नामक महान पृथ्वीपति हुआ । शत्रु की स्पर्धा से जिसकी खड्ग ने युद्ध में तथा (विद्वत्सभा में) हाथ ने अधिक दान दिये ।। २९ ।।
अत्याधिक आनन्द मिश्रित हर्षाश्रुओं से परिपूर्ण नेत्रपुट वाले चक्षुओं का अंचल भरा होने से पास में स्थित प्रियतम को न देख कर, ( शरीर पर धारण किये ) मन्दार पुष्प गुच्छ के आभूषणों पर मंडराने वाले चंचल भ्रमरों के गुंजन से जिसका नाद वृद्धिगत हो रहा है, ऐसी जिसकी कीर्ति देवांगना गा रही हैं ॥ ३० ॥
बाद में भड़कने वाले युद्ध के संग का रंग जिस पर चढ़ा है तथा अक्षत अंगोंवाले सदा अभ्युदयी जिसका प्रताप सर्वत्र व्याप्त है ऐसे सिंधुराज को आदरपूर्वक राजलक्ष्मी प्राप्त हुई ||३१||
सरस्वती के जलरूपी अमृत के समान व्याकरण शास्त्रामृत को धारण करनेवाले रत्न की खदान जिसकी प्रसिद्धि है, अखंडित पंख वाले पर्वतों के समान, अपने पक्ष के नरेशों को आश्रय देने वाले, प्रसन्नता के स्थान, मर्यादा को धारण करने वाले, अगाध गंभीर विशाल स्थान वाले, भूमंडल को व्याप्त करने वाले, पक्षियों के समान ब्राह्मणों को प्रसन्न करने वाले ऐसे जिसको समुद्र समान सिंधुराज कहते हैं सत्य ही है ।। ३२ ।।
सिधु से जिस प्रकार चन्द्र उदित होकर चन्द्रविकासी कमलों को विकसित करता है, उसी प्रकार सिंधुराज से कलाओं का भंडार पृथ्वी के आनन्द को विकसित करता हुआ भोजराज हुआ ||३३||
के जिसके याचक समूहों के फैले हाथों पर दान दिये गये हुए विपुल उन्मत्त गजसमूह झरने वाले मदजल से उत्पन्न होने वाला विशाल कीचड़ ( जिसके ) द्वार पर प्रमुख द्वारपाल द्वारा क्षणभर के लिये रोके गये हुए नरेशों के श्वासोच्छ्वास रूपी आंधी से सूख रहा है ||३४||
( दूसरा ताम्रपत्र- पृष्ठ भाग )
पूर्व जन्म में विष्णु ने जिस प्रकार कामदेव के बाणों से राधा को वेध कर अपनी अच्युतात्मता सिद्ध की थी, उसी प्रकार यहां (भोज) ने अपने बाण से राधा को बेध कर धारा बना दिया और अपनी स्थिरात्मता सिद्ध कर दी ||३५||
जिसने याचकों को राजा बना कर एवं शत्रु नरेशों को याचक बना कर सर्वस्व त्याग द्वारा परिवर्तनशीलता धारण की ।। ३६ ॥
बाद में प्रताप के भंडार उदयादित्य का उदय हुआ जिसने अपने हाथों से शत्रु नरेश रूपी अंधकार समूह का नाश कर दिया और गूर्जर नरेश रूपी समुद्र में डूबी हुई पृथ्वी को बाहू रूपी दांतों पर वराह के समान उद्धृत किया ||३७||
रत्नाकर के समान उससे राजरत्न नरवर्मन् उत्पन्न हुआ जो अपने तेज से पृथ्वी के नरेशों का दमन करने से भूषण स्वरूप हो गया ।। ३८ ।।
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परमार अभिलेख
शत्रुओं को उखाड़ कर, आत्मसात कर, तत्काल निष्कलंक बनाकर, उनसे कर ग्रहण कर, अपनी प्रभुसत्ता में स्थापित कर, सत्पात्र बना कर, अपने पक्ष में स्थापित कर एवं प्रयत्नपूर्वक अपने स्नेही बना कर जिसने प्रकट रूप में कुम्हार द्वारा भाण्ड निर्माण की कृति ही नहीं की अपितु शत्रु नरेशों के साथ भी वही कृति की ।।३९॥
इसके पश्चात् जिसके प्रचण्ड बाहुदण्डों पर जयश्री विलास कर रही है ऐसा यशोवर्मन् नामक नरेश हुआ। जिसके नाम का पूर्वार्द्ध (यश) त्रैलोक्य में नहीं समा रहा था व उत्तरार्द्ध (वर्मन्) प्रहार-चिन्ह युद्ध में जिसके अंग पर नहीं रहता था।४०।। ___ इससे जयवर्मन नामक नरेश भूतल पर हुआ. जिसका प्रताप सर्य लक्ष्मी को विकसित करने में प्रखर था ॥४१॥
जिस (रण) में अनेक मुण्डमालायें बिखर रही र्थी, गजों के. कटे सिर पड़े थे, शृगाल व्यग्र हो कोलाहल करते थे, अस्थियां बिखरी पड़ी थीं, वस्त पराजित सेना पलायन करती थी, जहां घबराहट फैली थी, बड़े बड़े चर्मखण्ड ध्वस्त हो रहे थे, नेत्र व कान बाहर निकले पड़े थे, उग्रता का संचार हो रहा था, इस प्रकार रणभूमि को जिसके खड्ग ने भैरव की रणभूमि के समान बना दिया ॥४२॥ ... ... उससे समस्त भूतल पर विंध्यवर्मन् नरेश हुआ जो शत्रु नरेशों द्वारा भेंट किये गये हाथियों से विध्यगिरि के समान था ॥४३॥ • युद्ध में क्रूर कर्म करने वाला, शत्रु नरेशों के कवचों को भेदने वाला, सभा में सुख प्राप्त करने वाला, इन्द्र समान धर्म वाला, 'नवयुवतियों द्वारा यश गाये जाने वाला, सुन्दर कवच धारण करने वाला व बाणों से सुख प्राप्त करने वाला सुभटवर्मन् नामक नरेश हुआ।४४।। - उससे अर्जुन के समान अर्जुनदेव नरेश हुआ। (अर्जुन कर्ण को जीतने वाला) यह दान देने में कर्ण को जीतने वाला (अर्जुन महाभारत युद्ध का भूषण) यह भारत देश का भूषण, (अर्जुन कृष्ण में अनुरक्त) यह एकमात्र कृष्ण में भक्ति लगाये था ॥४५।।।
जिसके नाम १ वंश द्वारा (अर्जुन इन्द्रपुत्र है अतः यह भी वैसा है) अच्छे पक्ष के नरेशों को विजित करने के इसके व्यसन को सुनकर मैनाकादि पर्वत समुद्र के भीतर कांपने लग गये। इसी समय श्री सोमेश्वर मंदिर पर शिखर स्थापना के समय इसी कारण समुद्र क्षुब्ध हुआ । प्रलयानिल बहने लगा ।।४६॥ .
उसके पश्चात् देवपाल सुविशाल राज्य का अधिपति हुआ जो विद्वानों की सभा में अनुराग रखता था व कल्पवृक्ष के आदि के मध्य समान था ।। ४७।। - अश्वों के तीक्षण खुरों से उल्लिखित, विशाल प्रतापाग्नि से प्रकाशित व शत्रु स्त्रियों के आश्रुओं से गलित कज्जलों से लिप्त जिसकी दिग्विजय के समय एक चरण से संचरण करने वाला वृषभ-रूपी धर्म इसकी पवित्रता से अब भूमंडल-पर चारों चरणों से क्रीड़ा कर रहा है ॥४८॥ . . . . __ जिसके दौड़ने वाले अश्वों के खुरानों से खुदी हुई पृथ्वी से उड़ने वाली धूली के अंधकार से चारों दिशाएँ व्याप्त हो गई. एवं सूर्य आच्छादित हो गया, ऐसे अजेय व उद्धत म्लेच्छाधिप के भल्लस्वामिपुर के पास युद्ध में जिसने कोध से खड्ग के प्रहार से सहसा दो टुकड़े कर दिये ।।४९।। .
उससे जयतुगिदेव पृथ्वी का नरेश हुआ जिसने पृथ्वी का उद्धार करते हुए लक्ष्मीपति (विष्णु) का अनुसरण किया ।।५।।
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मान्धाता अभिलेख
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उसके बाद बाहु स्फुरित होने वाले जयवर्मन् का लक्ष्मी ने आश्रय लिया, जिसका आश्रय लेने से लक्ष्मी ने चंचलता के दुर्यश को त्याग दिया (अर्थात् स्थिर हो गई)॥५१।।
जिस प्रकार गाड़ी के जूड़े के भार से बैल दुर्बल हो जाता है उसी प्रकार युग के प्रभाव से दुर्बल हुए धर्म को जयसिंह (-जयवर्मन्) ने तृण के समान अपना सर्वस्व समर्पण कर पूष्ट किया ॥५२॥
(तीसरा ताम्रपत्र-अग्रभाग) इस वंश में दान देने वालों में अग्रणी, सुवचन बोलने वालों में चतुर, ज्ञानवानों में जागतिशील, धर्माचरण में एकवत, विद्वान, लक्ष्मी का प्रियपात्र, एक साथ ही दौहित्र एवं पौत्र श्री जयसिंह (-जयवर्मन्) होगा, यही मान कर शिव ने अपने मस्तक पर चन्द्र एवं अग्नि दोनों को धारण किया ।।५३॥
रावण के मस्तकों से निकले हुए रक्त से दुर्गन्धित शिवजी के जटाजूट को जिस राजा ने विपुल कपूर डाल कर सुगंधित बना दिया ॥५४॥ __ विध्य पर्वत को लांघ कर समस्त दिशाओं का दमन करने वाले क्षितिपति जयवर्मन् की सेना के आक्रमण से पराजित जिनका पति प्लायन कर रहा था ऐसी दाक्षिणात्य नरेश की महीषियों ने अगस्त्य मुनि पर क्रूर कटाक्ष डाले ॥५५॥ ___ गगनचुम्बी सुवर्ण कलश शिखर वाले अनेक देव मंदिरों का निर्माण करता हुआ, ब्राह्मणों को अनेक नगर, सुवर्ण व सुन्दर करोड़ों गायें देता हुआ, विशाल तड़ागों से सरस बनाये हुए बगीचों को आरोपित करता हुआ व प्रकाशमान भूमंडल पर शासन करता हुआ जो स्थिरमति नरेश अभी भी नहीं थक रहा है॥५६॥
इस प्रकार पृथ्वी पर वह जयवर्मन् भूपति जब राज्य करता है तो स्वयं अनैतिक मुद्रा वसूली के व्यापारों को रोकता है।५७।।
चाहमान कुल में क्रम से राटो राउत्त हुआ जिसके प्रचण्ड बाहुदण्डों पर जयलक्ष्मी स्थिरता को प्राप्त हुई ।।५।।
उससे पल्हणदेव हुआ जो भुजाओं से दण्ड को मण्डलाकार घुमाने में उग्र था, जिसने अपने स्वामी को जयलक्ष्मी प्रदान करवा कर स्वयं को यशस्वी बनाया ।।५९।।
बाद में उससे नीतिमान, सुष्ठु भुजाओं वाला पुत्र सलखणसिंह हुआ जिसने युद्धों में अर्जुनदेव को सहयोग देकर यश प्राप्ति में सहायता दी॥६०॥ .. प्रचण्ड महासैन्य वाले सिंहणदेव के सेनापति को जीत कर, मध्य में स्थित सागयराणक को स्वयं घोड़े से गिरा कर, सप्तयुद्धों में पगड़ी में लगे चामरों को छीन लिया । पश्चात् प्रीतिवश सिंह (ण) एवं अर्जुन (वर्मन्) नरेश (सलखणसिंह के इस शौर्य प्रदर्शन से प्रभावित हो) अपने अपने मस्तकों को हिलाने लगे॥६१॥ __ उससे अजयसिंह नामक पुत्र समुद्र से चन्द्रमा के समान उत्पन्न हुआ। वह कल्पवृक्ष के समान प्रमुख दानी गिना जाता था ॥६२॥
जिसने देपालपुर में मंदिर का निर्माण किया, जहां पर थके हुए शिवजी ने कुण्ड के जल के बहाने से गंगा को सामने रख दिया ॥६३।। __उसने शाकपुर में गगनचुम्बी शिखर वाले अम्बिका के मंदिर का निर्माण किया, मानों स्नेह से आकाश में विचरण करने वाले पक्षियों के विश्रांति हेतु ही बनवाया हो ।।६४॥
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परमार अभिलेख
US
" उसने अत्यन्त उन्नत ओंकारदेव का मंदिर बनवाया जो जम्बुकेश्वर नामक शिव का अनुपम मंदिर है ।।६५।। ....."
मंडपदुर्ग के मध्य में जिसके द्वारा बनवाये गये हुए सरोवर में प्रत्येक रात्रि प्रतिबिम्बित होने वाले ज्योतिर्मय तारारूप अगस्त्य मुनि मधुर जलपान करता हुआ मानो खारीसमुद्र के जलपान के दुख को निवारण कर रहा हो ।।६६॥
जिसने मंडपदुर्ग में विशाल परकोटा, राजमार्ग सहित सोलह सुवर्णकुम्भ कलश वाले उन्नत विशाल सभाकक्षयुक्त मंदिरों का निर्माण कर, विशाल देवमंदिरों के आगे जलकुण्ड " से युक्त नगरी निर्माण करके राजाज्ञा से ब्राह्मणों को वितरित की तथा वैसी ही अनुपम
रचना से मान्धातृ दुर्ग को भी (सुसज्जित किया) ॥६७।। ८६. वह पूर्वोक्त राजावलि से विराजमान होकर ।' ८७. भक्ति आदि से प्रसादित धारा नरेश श्री जयवर्मन् द्वारा आज्ञापित साधनिक अनयसिंहदेव धर्मबुद्धि में
.... ८८. विजयशील वर्द्धनापुर प्रतिजागरणक में कुम्भदाउद ग्राम में तथा उसी प्रकार वालोद
'ग्राम में तथा संप्ताशीति ८९. प्रतिजागरणक में वधाडिग्राम में तथा नागद्रह प्रतिजागरणक में नाटिया ग्राम में सभी
राजपुरुषों . . . . . . . . . . . (तीसरा ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग) . . ९०. श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आस पास के निवासियों, पटेलों और ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं कि
आपको विदित हो कि मंडपदुर्ग में ठहरे हए ९१. हमारे द्वारा तेरह सौ इकत्तीस प्रमाथि नामक संवत्सर में भाद्रपद मास में शुक्ल पक्ष में ९२. सातवीं तिथि शुक्रवार को मैत्री नक्षत्र में स्नान कर भगवान पार्वतीपति की विधिपूर्वक -अर्चना कर, संसार की असारता देख कर, तथा . . . . ... ___ इस पृथ्वी का आधिपत्य चंचल वायु से नष्ट होने वाले बादलों के समान क्षणभंगुर है, विषयभोग प्रारम्भमात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग
पर ठहरे जलबिन्दु के समान क्षणभंगुर है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा है ।।६।। ९४. इस सब पर विचार कर, अदृष्ट फल को स्वीकार कर और अपने पुत्रों कमलसिंह
धारासिंह जैलसिंह '९५. पद्मसिंह इन सभी सहित, विभिन्न गोत्रों, विभिन्न नामों वाले मांधाता ब्रह्मपुरी में निवास
करने वाले ब्राह्मणों के लिये .. .. .... ९६. जैसे टकारी स्थान से निकलकर आये गौतमगोत्री आंगिरस औवथ्य' गौतम तीन प्रवरी
ऋग्वेद शाखा के ९७. अध्यायी चतुर्वेदी कमलाधर शर्मा के पौत्र अवस्थिन् विद्याधर शर्मा के पुत्र दीक्षित पद्मनाभ
शर्मा ब्राह्मण के लिये १९८. एक १ पद टकारी स्थान से निकलकर आये गौतम गोत्री आंगिरस औवथ्य गौतम
तीन प्रवरी ऋग्वेद ९९. शाखा के अध्यायी चतुर्वेदी कमलाधर शर्मा के पौत्र अवस्थिन् विद्याधर शर्मा के पुत्र
चतुर्वेदी ‘माधव शर्मा ब्राह्मण
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मान्धाता अभिलेख
१००. के लिये एक १ पद टकारी स्थान से निकल कर आये भारद्वाज गोत्री, आंगिरस वार्हस्पत्य
भारद्वाज त्रिप्रवरी १०१. ऋग्वेद शाखा में वृद्धिंगत होने वाले मिश्रधर्मधर शर्मा के पौत्र पंचपाठी मिश्र उद्धरण
___ शर्मा के पुत्र पंडित १०२. श्रीकण्ठ शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ पद लखणपुर से निकल कर आये काश्यपगोत्री
काश्यप अवत्सार नैध्रुव १०३. त्रिप्रवरी चतुर्वेदी भूपति शर्मा के पौत्र पंडित विद्यापति शर्मा के पुत्र ऋग्वेद शाखा में
वृद्धिंगत होने वाले द्विवेद १०४. गोवर्द्धन शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ पद तोलापौह स्थान से निकल कर आये चंद्रात्रेय
___ गोत्री आत्रेय गाविष्टर १०५. पूर्वातिथ त्रिप्रवरी दीक्षित श्रीवत्स शर्मा के पौत्र दीक्षित देवशर्मा के पुत्र माध्यंदिन शाखा १०६. के अध्यायी दीक्षित वामन शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ पद टकारी स्थान से निकल
कर आये वशिष्ठ गोत्री १०७. वशिष्ठ शक्ति पराशर त्रिप्रवरी वलभद्र शर्मा के पौत्र साधारण शर्मा के पुत्र माध्यंदिन १०८. शाखा के अध्यायी अवस्थिन् आनन्द शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ पद टकारी स्थान से
निकल कर आये भारद्वाज १०९. गोत्री आंगिरस वार्हस्पत्य भारद्वाज त्रिप्रवरी शुक्ल प्रद्युम्न शर्मा के पौत्र द्विवेद ११०. सोलुण शर्मा के पुत्र माध्यंदिन शाखा के अध्यायी द्विवेद हरीश शर्मा ब्राह्मण के लिये
एक १ पद १११. टेणी स्थान से निकल कर आये काश्यप गोत्री काश्यप अवत्सार नैध्रुव त्रिप्रवरी ११२. उपा. देवशर्मा के पौत्र उपाध्याय वैजूशर्मा के पुत्र माध्यंदिन शाखा के अध्यायी द्विवेद
(चौथा ताम्रपत्र-अग्रभाग) ११३. महादेव शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ पद टकारी स्थान से निकलकर आये कात्यायन
गोत्री विश्वामित्र ११४. कात्यय किल त्रिप्रवरी पाठिन् कूल्हण शर्मा के पौत्र अवस्थिन् आलदेव शर्मा के पुत्र ११५. माध्यंदिन शाखा के अध्यायी द्विवेद हरिदेव शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ पद टकारी
स्थान से निकलकर आये भारद्वाज ११६. गोत्री आंगिरस वार्हस्पत्य भारद्वाज त्रिप्रवरी द्विवेद गजाधर शर्मा के पौत्र अवस्थिन्
वीकूदेव शर्मा के ११७. पुत्र माध्यंदिन शाखा के अध्यायी द्विवेद अनन्त शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ पद टकारी
स्थान से निकलकर आये ११८. आत्रेय गोत्री आत्रेय गविष्ठिर पूर्वातिथ त्रिप्रवरी पाठक कृष्ण शर्मा के पौत्र पाठक
अत्रि शर्मा के पुत्र ११९. माध्यंदिन शाखा के अध्यायी पाठक योगेश्वर शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ पद टकारी
स्थान से निकल कर आये वशिष्ठ १२०. गोत्री वशिष्ठ आभरद्वस्व इन्द्रप्रमद त्रिप्रवरी समुद्धरण शर्मा के पौत्र त्रिवेद दामोदर शर्मा
के पुत्र १२१. कौथुम शाखा के अध्यायी त्रिवेद नारायण शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ पद टकारी
स्थान से निकल कर आये
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परमार अभिलेख
१२२. सावणि गोत्री भार्गव च्यवन आप्नवान और्व जामदग्नि पंचप्रवरी चतुर्वेद वासुदेव शर्मा के
पौत्र चतुर्वेद १२३. लक्ष्मीधर शर्मा के पुत्र कौथुम शाखा के अध्यायी त्रिवेद पुरुषु शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १
पद टेणी स्थान से निकल कर आये १२४. शांडिल्य गोत्री शांडिल्य असित दैवल त्रिप्रवरी त्रिवेदिन् विश्वेश्वर शर्मा के पौत्र त्रिवेदिन
महेश्वर शर्मा १२५. के पुत्र कौथुम शाखा के अध्यायी त्रिवेदिन् वाऊ शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ पद
वत्सगोत्री भार्गव च्यवन आप्नवान १२६. और्व जामदग्न्य पांच प्रवरी चाहमान कुल में वृद्धिंगत होने वाले साघनिक पल्हणदेव
वर्मा के पौत्र साधनिक १२७. सलखणसिंह वर्मा के पुत्र साधनिक अनयसिंह वर्मा क्षत्रीय के लिये दो २ पद इस प्रकार ... सोलह ब्राह्मणों के लिये १२८. कुंभडाउद वालोद वघाडी नाटिया इन चार ग्रामों की सभी चारों सीमाओं से शुद्ध साथ
की पंक्तियों से व्याप्त १२९.. इससे संबंधित घर गृहस्थान खलहान खलिस्थान खुदी भूमि गोचरस्थान मुट्ठीभर शाक
भाजी मुट्ठीभर धान्य एक पली तेल भरा घड़ा १३०. उगा घास, जमीन में गड़ा धन, मंदिर के उद्यान, तडाग वापी कूप आदि सहित, साथ
में हिरण्य भाग भोग । १३१. उपरिकर जुर्माना आदि सभी आय समेत, पुण्य व यश की वृद्धि हेतु चन्द्र सूर्य आकाश
व पृथ्वी के रहते तक के लिये परमभक्ति के साथ १३२. देव ब्राह्मण द्वारा भोगे जा रहे को छोड़ कर, शासन (प्रस्तुत ताम्रपत्र) द्वारा जल
हाथ में लेकर दान दिया है। इसको मानकर वहां के निवासियों, पटेलों व जनपदों के
द्वारा जिस प्रकार दिया जाने वाला भाग भोग १३३. कर हिरण्य आदि आज्ञा को सुन कर मानते हुए सभी कुछ इन ब्राह्मणों के लिये देते
रहना चाहिये और इसका समान रूप फल जान कर १३४. हमारे स्वामी के वंश में उत्पन्न भावी नरेशों को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को
मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है
सगर आदि अनेक नरेशों ने पृथ्वी का उपभोग किया है व जब जब यह पृथ्वी जिसके -- अधिकार में रही तब तब उसी को उसका फल मिला है ॥६९।।
(चौथा ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग). स्वयं के द्वारा दी गई अथवा दूसरे के द्वारा दी गई भूमि का जो हरण करता है वह पितरों के साथ विष्टा का कीड़ा बन कर रहता है ॥७॥
सभी उन भावी नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है, अतः अपने अपने कालों में आपको इसका पालन करना चाहिये ।।७१॥
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमल दल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥७२।। __ जयवर्मन् के द्वारा राजसभा में नियुक्त किये हुए, त्रिविद्या में निपुण श्रीकण्ठ ने कुल क्रम
के लिये यह प्रशस्ति लिखी ।।७३।। १४०. रुपकार कान्हाक द्वारा उत्कीर्ण की गई।
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उदयपुर अभिलेख
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... (७७) उदयपुर का जर्यासहदेव तृतीय कालीन मंदिर स्तम्भ अभिलेख
(संवत् १३६६=१३१० ई.)
प्रस्तुत अभिवख, विदिशा जिले में उदयपुर के विख्यात शिव मंदिर के पूर्वी बरामदे में जाने के लिए सीढ़ियों के प्रस्तर स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसका उल्लेख इं. ऐं. भाग २०, पृष्ठ ८४ पर किया गया जहां केवल प्रथम चार पंक्तियों का पाठ है।
अभिलेख नौ पंक्तियों का है, परन्तु जर्जर स्थिति में है। इसका आकार ३२४३१ सें. मी. है। उत्कीर्णकर्ता ने अपना काम बहुत लापरवाही से किया है। यहां तक कि अभिलेख खोदने से पूर्व पत्थर की सतह को भी ठीक से घिस कर समतल नहीं किया है। अभिलेख के अक्षरों की बनावट तत्कालीन नागरी लिपि है। अक्षर कुछ टेढ़े खुदे हैं जिनका आकार प्रायः २ सें. मी. है। भाषा संस्कृत है एवं गद्यमय है। वर्णविन्यास की दृष्टि से कोई विशेषता नहीं है। पंक्ति ४ में नरेश के नाम में ह के स्थान पर घ का प्रयोग है। तिथि प्रारम्भ में संवत् १३६६ श्रावण वदि १२ शुक्रवार है, जो शुक्रवार २४ जुलाई, १३१० ई. के बराबर है।
अभिलेख महाराजाधिराज जयसिंहदेव तुतीय के शासन काल से संबद्ध है। इसका प्रमुख ध्येय कुछ दानों का उल्लेख करना है जिनका विवरण भग्न हो गया है । पंक्ति २ से आगे में उदयपुर में नरेश जयसिंहदेव के शासन करने का उल्लेख है जिसके लिए पूर्ण राजकीय उपाधियां "समस्त अधीन राजाओं (से पूजित) महाराजाधिराज' का प्रयोग है। यहां जयसिंहदेव के वंश का उल्लेख नहीं है। परन्त अभिलेख के प्राप्ति स्थान एवं नरेश की राजकीय उपाधि, जो इसी स्थान से प्राप्त अन्य अभिलेखों में भी प्राप्त होती है, के आधार पर अनुमानतः कहा जा सकता है कि वह परमार वंशीय नरेश ही रहा होगा। इतना होने पर भी प्रस्तुत जयसिंहदेव का तादात्म्य जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय से नहीं किया जा सकता जिसके अभिलेख १२५५ ई. एवं १२७४ ई. के मध्य के प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत अभिलेख इस तिथि से ३५ वर्ष बाद का है। हमें अन्य साक्ष्यों से विदित होता है कि जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय की मृत्यु १२७४ ई. के तुरन्त बाद हो गई थी। उसके बाद अर्जुनवर्मन् द्वितीय व भोज द्वितीय उत्तराधिकारी हुए। परमार वंश का अन्तिम नरेश महलकदेव १३०५ ईस्वी में देहली सुल्तान अलाऊद्दीन खिलजी के विरुद्ध युद्ध में मारा गया था (कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया, भाग ३, पृष्ठ ९३)।
प्रस्तुत अभिलेख उपरोक्त घटना से ६ वर्ष पश्चात् निस्सृत किया गया था। इस प्रकार यह संभावना हो सकती है कि महलकदेव की मृत्यु के उपरान्त प्रस्तुत अभिलेख का जयसिंहदेव, जिसको सुविधा की दृष्टि से जयसिंह तृतीय निरूपित किया जा सकता है, उदयपुर क्षेत्र में शासन करने लग गया होगा। वास्तव में उस समय उदयपुर क्षेत्र के आसपास इस नाम के किसी अन्य नरेश के अस्तित्व की कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। अतः भावी साक्ष्य के प्राप्त होने तक इसको परमार वंश से संबद्ध करना युक्तियुक्त है।
___ अभिलेख में उल्लिखित राजकीय उपाधियों के आधार पर जयसिंह तृतीय को उदयपुर क्षेत्र में स्वतंत्र शासक माना जा सकता है, परन्तु अधिक संभावना यह है कि वह मुसलिम सुल्तान की अनुमति से वहां पर उसके अधीन राज्य कर रहा होगा।
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३१६
परमार अभिलेख
__ अभिलेख की जर्जर स्थिति के कारण दानकर्ता, दान प्राप्त कर्ता एवं दिए गए दान का विवरण ठीक से पढ़ने में कठिनाई है। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि दान प्राप्तकर्ता कोई एक विशिष्ट ऋषि था जिसके चरणयुगल को भक्तिपूर्वक धोने के बाद उसको दान दिया गया था।
भौगोलिक स्थानों में उदयपुर अभिलेख का प्राप्ति स्थल ही है। हथिकपावा ग्राम उदयपुर के पास ही कोई ग्राम रहा होगा जिसका वर्तमान में कोई अस्तित्व नहीं है।
(मूलपाठ) १. [संवत्] १३६६ श्रावण वदि १२ [शुक्र २. उदयपुरे समस्त राजावली ३. महाराजाधिराज श्री जय४. सिंघे (ह) देव राज्ये हथिक [पा]५. वा ग्राम अष्टां सं (शं) ६. विद्यादरेणात्रा. . .सूणजे.. ७. कृते पादौ प्रक्षालित्त्वा त्रद... ८. कैः प्रदत्तं..... ९. श्री.......
(अनुवाद) .१.. संवत् १३६६ श्रावण वदि १२ शुक्रवार को २. उदयपुर में सभी नरेशों (के साथ) . ३. महाराजाधिराज श्री जय४. सिंह देव के राज्य में हथिकपा५., वा ग्राम (में) आठ... . ६. विद्यादरेण यहां (?). . . सूणज के लिये (?). . ७. कर के पावों को धोकर. . . ८. ..दिया गया . . . . . ९. श्री. . ... . . . . . .
(७८) ..... मांडू से प्राप्त सरस्वती स्तुतियुक्त प्रस्तर खण्ड अभिलेख
प्रस्तुत सरस्वती स्तुति दो प्रस्तर खण्डों पर उत्कीर्ण है जो किसी बड़े खण्ड के भाग हैं। इसका उल्लेख ए. भं. ओ.रि.ई., भाग ८, १९२६-२७, पृष्ठ १४२-४४ पर है । प्रस्तर खण्ड वर्तमान में अज्ञात है। ... प्रस्तर खण्डों के आकार, अभिलेख की स्थिति, अक्षरों की स्थिति आदि के संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। अक्षरों की बनावट ११वीं-१२वीं सदी की नागरी लिपि है। भाषा संस्कृत है व लेख पद्यमय है। परन्तु भग्नावस्था में होने के कारण कोई भी श्लोक पूर्ण नहीं है।
. अभिलेख सरस्वती स्तुति रूप है। इस छोटे से खण्ड में सरस्वती का उल्लेख छ: बार आया है। पंक्ति १२ में वाल्मीकि, व्यास आदि महान कवियों के उल्लेख हैं।
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मांडू अभिलेख
३१७
११वीं-१२वीं शतियों में धार के साथ मांडू भी विद्या का प्रख्यात केन्द्र था। भोजदेव के समय धार में सरस्वती सदन विद्या का सुविख्यात केन्द्र था। यह भोजशाला के नाम से आज भी विद्यमान है। इसमें सरवस्ती की एक अत्यन्त भव्य प्रतिमा स्थापित थी जो वर्तमान में लन्दन संग्रहालय में है। भोजशाला से मिलता जुलता एक सदन मांडू में विद्यमान है जिसको वर्तमान में भोज-विद्यालय कहते हैं। इस प्रकार मांडू विद्या का केन्द्र प्रमाणित है। प्रस्तुत सरस्वती स्तुति से भी इसी की पुष्टि होती है।
(मूलपाठ) १. [ओ नमः] सरस्वत्यै ।। त्वयिकल्पलता... २. . . . . . भिन्नभावा जयति परं भारती... ३.. [स]कला धर्माः सरस्वत्येकसंश्रयाः ।। अ . . . ४. वामिति ध्वनिमय्यपि ॥ भारती भाति]... ५. द्भवो भवतु चेद्भवति मया निवा . . . ६. रतिर्भवति कस्य न योगिनो... ७. ऋच्छन्दसां भेदा मूर्ति दत्ते सरस्वत्यिाः ] . . . ८. सत्कविः स किमुच्यताम् ।। नि... ९. [अन्योन्यो (? )न स्यान्महाकविः ... १०. तैर्द्धरित्री निभृता भृता... ११.. सोऽनुग्रहः खलु गिरः . . . १२. चतुर्बग्य वाल्मीकिव्या[सादयः]....
.. १३. . .घोटयन्नंदिनी वीरेश[:]... १४. [निवर्त्य चरणे धेनुं मुनेः . . . १५. .. . [ढ़भुद्भूपनिदर्शनम् . . .
- (अनुवाद) १. ओं। सरस्वती को नमस्कार । तुझ में कल्पलता..... २. . . . . . भिन्न भाव वाली भारती सर्वत्र परम विजय प्राप्त करती है ३. हे सरस्वती ! सभी धर्म एक तुझ पर आधारित हैं... ४. तू ध्वनिमयि भी है। भारती शोभायमान हो रही है .... ५. ... उत्पन्न होवे, यदि होती है मेरे द्वारा... ६. किस योगी का अनुराग नहीं होता... ७. · अंक व छन्दों में भेद सरस्वती की मूर्ति प्रदान करती है. . . ८. वह श्रेष्ठ कवि है, क्या कहा जावे... ९. अन्य दूसरा महाकवि नहीं हो सकता. . १०. उनके द्वारा यह धरती निश्चल धारण की गई ... . ११. वह निश्चय ही वाणी का अनुराग है. .. १२. वाल्मीकी व्यास आदि चतुर्वर्ग के लिये... १३. .. .नंदिनी को दबोचा (तब) वीरेश (दिलीप) १४. लौट कर मुनि के चरणों में धेनु को... १५. ...आदर्श नरेश हुआ... .. .
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३१८
परमार अभिलेख
(७९) भिलसा से प्राप्त छित्तप विरचित सूर्य-प्रशस्ति प्रस्तर-खण्ड अभिलेख . ____ प्रस्तुत सूर्य-प्रशस्ति एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है जो प्रायः ४० वर्ष पूर्व भिलसा में खण्डहरों में प्राप्त हुआ था। इसका उल्लेख ए. रि. आ. डि. ग., संवत् १९४२-४६, पृष्ठ २५ एवं पृष्ठ ६९ क्र. २; ग. रा. अभि. द्वि., १९४७; एपि. इं., ३०, १९५३-५४, पृष्ठ २१५ व आगे; एवं आल इंडिया ओरियंटल कांफ्रेंस, पुरातत्व विभाग, वाराणसी अधिवेशन में हरिहर त्रिवेदी द्वारा पढ़े गये लेख में है।
अभिलेख का आकार ९६.५४ २८ सें. मी. है। प्रस्तर खण्ड भग्नावस्था में है। सभी पंक्तियों के प्रारंभिक कुछ अक्षर क्षतिग्रस्त हो गये हैं। इसी प्रकार प्रारम्भिक भाग भी भग्न हो गया है। यह कहना सरल नहीं है कि शुरू का कितना भाग टूट गया है। वर्तमान में प्राप्त भाग को ही क्रमांक देकर पाठ प्रस्तुत किया गया है।।
अभिलेख की लिखावट ११वीं-१२वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षरों की लम्बाई २ से ३ सें. मी. है। ये सावधानीपूर्वक सुन्दर ढंग से खोदे गये हैं। भाषा संस्कृत है। अंतिम पंक्ति में लेखक व लिखवाने वाले व्यक्ति के नाम को छोड़, सारा अभिलेख पद्यमय है। प्रस्तुत खण्ड में अनुष्टुभ छन्द में २३ श्लोक हैं। श्लोकों में क्रम संख्या नहीं है। व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा, म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया गया है। ये सभी प्रादेशिक व काल के प्रभावों के द्योतक हैं।
___अंतिम श्लोक में इसको स्तुति निरूपित किया गया है। सभी श्लोक सूर्यदेव को संबोधित किये गये हैं एवं प्रत्येक श्लोक स्वयं में पूर्ण है। मोटे रूप से श्लोकों को समूहों में विभाजित किया जा सकता है यद्यपि ये समूह पूर्णतः सही नहीं हैं। श्लोक १-१० में सूर्यदेव के तेज का वर्णन है। श्लोक ११-१५ में उसके विभिन्न प्रभावों को प्रदर्शित किया गया है । श्लोक १६-२० में कुछ इसी प्रकार का वर्णन है, जबकि श्लोक २१-२३ में उसको प्रसन्न करने हेतु उल्लेख है।
प्रथम दो श्लोक प्रस्तर खण्ड के क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण पूर्णतः नष्ट हो गये हैं। श्लोक ३ का केवल चतुर्थ पाद व कुछ अन्य अक्षर शेष हैं जिनके आधार पर कुछ निश्चित नहीं किया जा सकता। संभवत: यहां यह भाव रहा होगा कि प्रस्तुत स्तुति निजि ध्येय को ध्यान में रखकर नहीं रची गई। श्लोक ४ का उत्तरार्द्ध शेष है जिसके अनुसार सूर्य किसी अन्य तेजयुक्त व्यक्ति के नाम को भी सहन नहीं करता। श्लोक ५ में अगस्त्य मुनि का उल्लेख है जिसने एक बार में ही सातों समुद्रों का जल पी डाला एवं अन्य शक्तिशाली तारागण सूर्य से तेज प्रदान करने हेतु प्रार्थना करने लगे। यह सर्वविदित है कि सभी तारागण सूर्य से तेज प्राप्त करते हैं। यहां राजव्याजेन का भाव “चमक के भाव से" एवं भर्तुं का भाव “उनके (उदर) भरण हेतु" है। एक याचक अनेक प्रकार से याचना करता है। यहां राग का भाव “अनुराग" है।
श्लोक ६ के अनुसार सूर्य के अनुज विष्णु (आदित्य) के तेज के कारण उस (सूर्य) से ईर्ष्या करने पर राहू का सिर काट डाला', परन्तु वध नहीं किया, जिससे वह शिरोच्छेदन का कष्ट महसूस करता रहे। श्लोक ७ में वर्णन है कि सूर्य की रश्मियों का तेज क्रूर वस्तुओं पर क्रूर व निर्मल वस्तुओं पर निर्मल पड़ता है । इसका उत्तरार्द्ध कुछ भग्न है परन्तु लगता है कि यह भाव आगे भी चालू है। इसके अनुसार चन्द्र व अग्नि पर पड़ी सूर्य की रश्मियां उसी प्रकार मधुर व तीक्ष्ण प्रभाव डालती हैं (सूर्य के तेज के कारण ही अग्नि में चमक है-रघुवंश ४.१) । श्लोक ८ के अनुसार शेषनाग के फण पर स्थित मणियों, समुद्र के मोतियों एवं आकाश के तारागणों में सूर्य की ही चमक है। श्लोक ९ में उल्लेख
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भिलसा अभिलेख
३१९
है कि चन्द्र में चांदनी, क्षितिज में संध्या एवं मेघमण्डल में इन्द्रधनुष के रूप में सूर्य की ज्योति है। (प्राचीन भारत में निश्चित् ज्ञात था कि इन्द्रधनुष वास्तव में मेघमण्डल पर पड़ी सूर्य-किरणों की ज्योति है--मेघदूत, पूर्वमेघ, श्लोक ५) । श्लोक १० के अनुसार सूर्य की कांति पश्चिम दिशा रूपी नारी के विभिन्न अंगों को शोभायुक्त करता है। मस्तक पर तिलक, पांवों पर लाक्षाराग, कपोलों पर लालिमा एवं स्तनतट पर केसर के समान शोभायमान होती है।
श्लोक ११-१५ सूर्यदेव की शृंगार प्रियता को प्रदर्शित करते हैं । श्लोक ११ में सूर्य को संबोधित करते हए कवि कहता है कि राह तेरा नहीं चन्द्र का ग्रास करता है क्योंकि त कमलिनी के भीतर छुप जाता है। प्रेम की कैसी कुटिल गति है। श्लोक.१२ पुनः सूर्य को संबोधित है कि वह चन्द्रविकासिनी कमलिनी में उतना अनुराग नहीं रखता जितना सूर्य-विकासिनी कमलिनी में । निश्चित् ही वह नाम से विकर्तन है पर वास्तव में विकत्थन (आत्मस्तुति करने वाला) है। श्लोक १३ के अनुसार सर्य यद्यपि विभिन्न प्रेमलीलाओं में रत रहता है किन्तु दिनश्री सत्गृहणी के समान उसका नहीं छोड़ती। श्लोक १४ के अनुसार दिनश्री ने स्वयं सूर्य को वर लिया है अतः दिन भर वह उसका अनुसरण करती है। श्लोक १५ के अनुसार दिनश्री एक आज्ञाकारिणी पत्नी के समान भोर में जागती व संध्या के बाद सोती है।
__श्लोक १६-२२ में सूर्य के विभिन्न रूपों की प्रशंसा है । श्लोक १६ में सूर्य को नमस्कार है। श्लोक १७ में सूर्यकांति की प्रशंसा है। श्लोक १८ में कहा गया है कि किरण रूपी सूर्य के हाथ के स्पर्श से ही आकाश रूपी नायिका आनन्दविभोर हो जाती है तो सर्वांग मिलन पर क्या होगा। श्लोक १९ में सूर्य के आगमन के स्वागत का विवरण है। श्लोक २० में पूर्व व पश्चिम दिशाओं एवं आकाश रूपी नायिकाओं के लिये सूर्य समान रूप से प्रिय है। श्लोक २१ में सूर्य की प्रशंसा है। एलोक २२ में सूर्य के गुणों का बखान है। श्लोक २३ में उसके गुणों का समावेश व स्तुति है।
___अन्त में गद्यमय दो पंक्तियों में प्रस्तुत स्तुति के रचयिता का नाम श्री छित्तप दिया हुआ है जिसके लिये महाकवि, चक्रवर्ती एवं पंडित की उपाधियों का प्रयोग किया गया है। छित्तप द्वारा रचित ६ श्लोक भोज के सरस्वती कण्ठाभरण में, १ श्लोक कवीन्द्र वचन समुच्चय में एवं ४९ श्लोक सदुक्ति कर्णामृत में उद्धृत किये गये हैं। इससे ज्ञात होता है कि छित्तप नरेश भोजदेव का समकालीन एवं संभवतः राजकवि था। सदुक्ति कर्णामृत [३, ३६] में एक श्लोक का तीसरा चरण इस प्रकार है- "श्लाध्यः स्यात् तव भोज भूपति भुजस्तम्भ स्तुतायुद्यमः" । इससे प्रमाणित होता है कि छित्तप कवि नरेश भोज का राजकवि था।
अभिलेख के अन्त में दण्डनायक श्री चन्द्र की अनुमति से प्रस्तुत प्रशस्ति के उत्कीर्ण करवाने का उल्लेख है। वह संभवतः भोज के समय में भिलसा क्षेत्र का राज्याधिकारी था।
भिलसा नाम का संबंध सूर्यदेव से जुड़ा है। वहां पर कुछ समय पूर्व तक एक सूर्य मंदिर था जिसमें स्थापित सूर्य की मूर्ति को भल्ल अथका मैल कहा जाता था। · भैल्ल नाम वास्तव में संस्कृत शब्द भा (चमक) एवं प्राकृत प्रत्यय इल्ल (धारण करने वाला) के मेल से बना है। इसका अर्थ चमक या आभा वाला होता है जैसे भास्कर, प्रभाकर। ...
- - - ।
- ॥१॥
-
॥२॥
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३२०
परमार अभिलेख
- (गृह वाति) - - -
- - - म्येते - - - [तृष्णाहीनो लिलेखते] ।। [३]॥ - - - - - - - - - - - - - - - -.
. नूनं तेजस्विनोन्यस्य न त्व[] नामापि मृष्यसि ।। [४।]... चुलुकाचान्तसप्तन्धि (ब्धि) रगस्त्योन्येपि तादृशाः । [स्वकीय रागव्याजेन भर्तुं भिक्षां न याचते ॥[५।।] राहुस्त्वद्रोचिषे द्रुहयन्न हतस्तेनुजन्मना । शिरो लूत्वापि दुष्टेरौ यातनाकौशलं हि तत् ।।६।।] तेजस्तवार्द्रमा षु क्रूरं क्रूरेषु जं भते। .. भक्ताभिप्रायनिघ्नस्य चंद्र
[वह्नयारिवे] क्षते ।।७।।] फणामणिष शेषस्य मुक्तामणिष तोयधेः । तारामणिष च व्योम्नस्तव रोचिन्धि रोचते ।। [1] तव संक्रान्तमेणांके चक्रवाले पयोमुचि । ज्योतिर्योत्स्नेति संध्येति सुरधन्वेति गीयते ।।।९।।] [भाले विन्दुः पदे] लाक्षा मदरागः कपोलयोः । पयोधरतटे तेच्चिः प्रतीच्याः कुंकुमद्रवः ।।[१०।।]" स्वर्भानुस्त्वां न गृह णाति क्रीडालोल: कलावति । अन्तर्द्धत्से त्वमन्जि (ब्जि) न्याः प्रेम्णो f[ह] कु[टिला] गतिः ।।[११॥] न तथोन्निद्रमजा (ब्जा)स्या
• [मनुगृह णा]सि पद्मिनी (नीम्)। .... नूनं विकत्थनोर्थेन [श]व्दे (ब्दे) न त्वं विकर्तनः ।।१२।। द्यामालिंगाजि (ब्जि)नी चुम्ब (म्ब) श्र(श्रि) यापाची व्रजोतरां (राम्) । . र (वृ)जप्राच्या प्रतीच्याम्बा (च्या वा) दिन श्रीस्त्वान्नं मुंच[ति।।] [१३॥] . प्रातर्हि रहसा यत्वं (त्त्वं.) दिनलक्ष्म्या- .
[स्वयं वृत्तः ?].! .. [रो]चमानं पुनः सा त्वामहामन्तेनुगच्छति ।[१४।।] पूर्वमुत्थीयते प्रातः पश्चात्संविश्यते निशि। ... अहो सुगृहिणीवृत्तमुषसा तेनगृहयते ।।[१५।।] नमस्तस्मै प्रभाताय ग[च्छतेद्यां स्थिराय ते । - - - - - - - - [f]दवं त्वमुपगृहसि ।।[१६॥] कपोलाभितौ? स्वच्छायां स्वच्छाया त्वं विलोकयन । दि[वो] देव्याश्चिन्त]यात्तदोषावेशं विशंकसे ।। [१७।।] करस्पर्शेपि ते नाथ द्यौनिमीलिततारका। यासौ सर्वांग सं[क्रान्ते] न विद्मः किं करिष्यति ।। [१८॥] [प्रतीच्या] चंद्रताटकः प्राच्या सांध्यांशुकं दिवः । ह्रियते [ह नो]डुहारश्च पूर्णपात्रं तवागमे ।।[१९।।] प्राच्यामुद्गच्छतो यातुः प्रतीचीं श्लिष्यतो दिवं (वम्)। स्वदते नाथ व (ब)[ह्रीं]षु प्रतिपत्तिः प्रियासु ते ।।[२०॥]
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भिलसा अभिलेख
३२१
११.
१०. - - - - गृह णासि पुण्यानि च महात्मनां (नाम्) ।
न तथा सित (ते) जांसि वियतोभ्युद्गते त्वयि ।।[२१] तमो भेत्तुं यथा वा (बा)ह यं तथान्तरमपीशिषे । तवोदये यथा रात्रिस्तथा निद्रापि नश्यति ।।[२२॥] न नौति त्वां [द्वा]
[दशात्म]गुणसंपन्नुनूषया । इनोस्यर्कोसि सूर्योसि पर्याप्तेत्येव ते स्तुतिः ।।[२३।।] कृतिरियं महाकवि चक्रवति पंडित श्री छित्तपस्थ [11] लेखक - - - १२. - - - - [मं]गलं [महाश्रीः ।। कारितेयं दंडनायक-श्रीचन्द्रेण ।।छ।।
(अनुवाद) ३. - - - - तृष्णा से रहित लिखा। ४. - - - - तू अन्य तेजस्वी के नाम को भी सहन नहीं करता है । ५. (याचक के रूप में) अगस्त्य मुनि ने चुलुक में सातों समुद्रों के जल को पी लिया, उसी प्रकार
वैसे ही अन्य भी (याचक) हैं। इसी प्रकार तेरी लालिमा (अनुराग) के बहाने से अपना पोषण
करने के हेतु मानो भिक्षा की याचना कर रहे हैं। ६. तेरी कांति से ईर्ष्या रखने वाले राहू का तेरे अनुज (विष्णु) ने शिरच्छेदन किया तो मस्तक
रूपी होकर भी वह राहू अपने दुष्ट शत्रु (सूर्य) के साथ यातना का कौशल दिखाता है। ७. भक्तजनों के विषय में तेरा तेज अत्यन्त स्नेहयुक्त है, (परन्तु) क्रूर व्यक्तियों के साथ तेरा तेज
उग्र है। इस प्रकार भक्त के भाव को ध्यान में रखने वाला तेरा तेज चन्द्र व अग्नि के समान है। ८. शेषनाग के फण पर स्थित मणियों में, समुद्र के मोतियों में तथा आकाश के तारागणों में जो
चमक है सो तेरी ही है। ९. तेरी ज्योति चन्द्रमा में चांदनी के रूप में, क्षितिज में संध्या के रूप में और मेघमण्डल में इन्द्र
धनुष के रूप में गाई जाती है। १०. तेरी क्रांति रूपी केसर का चन्दन पश्चिम दिशा रूपी नायिका के मस्तक पर तिलक के समान,
चरणों में लाक्षाराग, कपोलों पर लालिमा एवं स्तनतट पर केसर चन्दन के समान शोभायमान
हो रही है। ११. राहू तेरे को ग्रास नहीं करता, (परन्तु) चन्द्रमा में क्रीड़ा करने को तत्पर हो जाता है; क्योंकि
तू कमलिनी के भीतर छुप जाता है। प्रेम की तो ऐसी ही कुटिल गति होती है। १२. तू अविकसित चन्द्र-विकासिनी कमलिनी पर उतना अनुग्रह नहीं करता जितना (सूर्य
विकासिनी) कमलिनी पर । निश्चय ही शब्द से तू विकर्तन है परन्तु अर्थ से विकत्थन है। १३. हे सूर्य, (भले ही दक्षिणी) कमलिनी का आलिंगन कर, अपनी कांति से पूर्व दिशा का चुम्बन
कर, उत्तर दिशा को जा अथवा पूर्व-पश्चिम दिशाओं को जा, (फिर भी) दिनश्री तुझ को
नहीं छोड़ती है। १४. हे सूर्य, प्रातःकाल में जो दिनश्री ने तुझे स्वयं वर लिया है, इस प्रकार प्रकाशमान तुझ को दिन
के अन्त में भी अनुसरण कर रही है। १५. वह ऊषा (दिनश्री) रूपी पत्नी प्रातःकाल में पहिले ही जाग जाती है व रात्रि के बाद में सोती __ है। अहो, यह कितना आश्चर्य है कि ऊषा ने भी सत्गृहिणी का व्यवहार किया है।
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३२२
परमार अभिलेख
१६. प्रातःकाल में उदय होने वाले, आकाश में जाकर स्थिर रहने वाले, आकाश का आलिंगन
करने वाले तुझ को नमस्कार है। १७. निर्मल कपोल रूपी भित्ती पर अपने प्रतिबिंब को अवलोकन करने वाला तू आकाश देवी में दोष
की शंका कर रहा है। १८. जो आकाश रूपी नायिका केवल किरण रूपी तेरे हाथ के स्पर्श से तारों के लुप्त होने रूपी
नेत्रों को बन्द कर लेती है, वह तेरे सर्वांग मिलन पर क्या करेगी सो हमें ज्ञात नहीं है। १९. तेरे आगमन पर आकाश (रूपी नायिका के) चन्द्ररूपी कर्णफूल को पश्चिम दिशा, संध्या
कालीन लाल वस्त्रों को पूर्व दिशा, नक्षत्र रूपी हार दिन हरण करता है, तो भी तेरे स्वागत
हेतु (उनसे) भरा पात्र (भेंट में उपस्थित है)। २०. हे स्वामी सूर्य, पूर्व दिशा में उदय होकर पश्चिम की ओर जाने वाले, स्वर्ग रूपी नायिका का
आलिंगन करने वाले तेरे अनुराग का आस्वादन नायिकाओं द्वारा अनेक प्रकार से किया
जा रहा है। २१. - - - - हे सूर्य, तू महात्माओं के पुण्यों को ग्रहण करता है तो भी आकाश से उदित होने
पर शीतल-किरण नहीं हो रहा है। २२. जिस प्रकार तू बाह्य अंधकार को नष्ट करना चाहता है उसी प्रकार आन्तरिक अंधकार को
भी। तेरे उदय होते ही जैसे रात्रि नष्ट हो जाती है वैसे ही निद्रा भी। २३. द्वादश गुण सम्पन्न हे सूर्य, तेरे को बारह गुण प्रणाम नहीं कर रहे हैं । इन, अर्क, सूर्य---इन तीनों
नामों से ही तेरी स्तुति पर्याप्त है। ११. यह कृति महाकवि चक्रवर्ती पंडित श्री छित्तप की है । लेखक - - - - - १२. - - - - महाश्री मंगलकारी हो । दण्डनायक श्री चन्द्र द्वारा यह (उत्कीर्ण) करवाया - गया। छ।
(८०) मान्धाता में अमरेश्वर मंदिर प्रस्तर खण्ड अभिलेख
(हलायुध विरचित शिव स्तुति)
(संवत् ११२०=१०६३ ई.) प्रस्तुत अभिलेख चार चौकोर प्रस्तर खण्डों पर उत्कीर्ण है जो मान्धाता में अमरेश्वर मंदिर के अर्द्धमंडप की दक्षिण भित्ती में लगे हुए हैं। इसका उल्लेख लि. इं. सी. पी. ब. ही., द्वितीय आवृत्ति, पृष्ठ ४८, क्र. १५१; एपि. इं., भाग २५, १९३९-४०, पृष्ठ १७३ व आगे में किया गया।
चारों प्रस्तर खण्ड एक दूसरे के नीचे लगे हुए हैं। प्रथम प्रस्तर खण्ड का आकार ९०४ १७।। सें. मी.; दूसरे का ९४ x ३५ सें. मी.; तीसरे का ९४ ४ ३५ सें. मी. और चौथे का ९४ ४ ४।। सें. मी. है। प्रथम प्रस्तर खण्ड पर १० पंक्तियों, दूसरे पर २१, तीसरे पर २२ व चौथे पर ३ पंक्तियों का अभिलेख उत्कीर्ण है। इस प्रकार यह अभिलेख ५६ पंक्तियों का है।
चारों प्रस्तर खण्ड काफी खुरदरे हैं। अभिलेख उत्कीर्ण करने से पूर्व पत्थर को रगड़ कर ठीक से समतल नहीं किया गया। परन्तु उत्कीर्णकर्ता ने अपना काम पर्याप्त परिश्रम व ध्यान से किया है। अक्षरों की गहराई कुछ कम है जिस कारण अक्षर लंबे समय व ऋतु के प्रभाव से कई स्थानों
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मान्धाता अभिलेख
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पर क्षतिग्रस्त हो गये हैं। प्रस्तर खण्ड २ व ३ -पर-बायें कोनों के पत्थर टूट जाने से भी कुछ अक्षर लुप्त हो गये हैं। इसके अतिरिक्त भित्ति के पुननिर्माण में भी असावधानी के कारण कुछ अक्षर ट्ट गये हैं। परन्तु प्रो. शास्त्री ने सभी अक्षरों को स्तोत्र की हस्तलिखित प्रतिलिपि, जो गवर्नमेन्ट ओरियंटल लायब्ररी, मद्रास में ग्रन्थ क्रमांक ११२७१-११२७८ में सुरक्षित है, के आधार पर पुनः स्थापित कर दिया है। . भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है। प्रारम्भ में ओं नमः शिवाय व अन्त में पंक्ति ५१-५६ के गद्यमय पाठ को छोड़कर सारा अभिलेख पद्य में है। इसमें ७१ श्लोक हैं जिनमें से मुख्य स्तोत्र में ६१ श्लोक मन्दाक्रान्ता छन्द में हैं। यहां कालिदास के मेघदूत की प्रणाली अपनाई गई है। केवल इतना ही नहीं, श्लोक २४-२५ एवं ५८-५९ में तो मेघदूत से कुछ अंश ग्रहण कर लिए गये हैं। सभी श्लोकों में क्रमांक दिये गये हैं।
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा, म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया गया है। ये सभी काल व स्थानीय प्रभाव को प्रदर्शित करते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ शब्द ही त्रुटिपूर्ण लिख दिये गये हैं जैसे पन्कज पंक्ति ६, सन्सार पं. ७, पुन्साम पं. ४२, सन्सक्त पं. ४५, किन्चित पं. ३९, तृदश पं. २२, निःक्रान्ता पं. २६, कृपिण पं. ४०, त्रितिय पं. ४८, निःकाल पं. ५१ आदि। इन त्रुटियों के लिये उत्कीर्णकर्ता व लेखक दोनों ही उत्तरदायी हैं। ... - अभिलेख में किसी शासनकर्ता नरेश के नाम का उल्लेख नहीं है। यह भी ज्ञात नहीं है कि वह किस वंश से संबद्ध था। अभिलेख का महत्व इसके अंतिम भाग में लिखित तिथि में है। यह अंतिम पंक्ति में संवत् ११२० कार्तिक वदि १३ लिखी है। श्री चक्रवर्ती के अनुसार वर्ष १२२० हो सकता है। परन्तु अभिलेख के पाठ को ध्यान से देखने पर अंक ११२० ही प्रतीत होते हैं १२२० नहीं। तिथि में दिन का उल्लेख न होने के कारण इसका प्रमाणीकरण संभव नहीं है। यह तिथि रविवार, २७ अक्तूबर, १०६३ ईस्वी के बराबर निर्धारित होती है।
अभिलेख का प्रारम्भ ओं नमः शिवाय से होता है। इसके उपरान्त गणपति, कार्तिकेय, शिव एवं महाकाल की आराधना में क्रमशः एक-एक श्लोक क्रमांक १-४ हैं। श्लोक क्र. ५-६ में अत्यन्त विनीत भाव से कवि शिव स्तुति करने की इच्छा प्रकट करता है। श्लोक क्र. ७ में कहा गया है कि शिव के अनेकों रूप हैं । श्लोक क्र. ८ में पुनः कवि का विनीत भाव है । श्लोक क्र. ९ में शिव के आठ स्वरूपों का वर्णन है। श्लोक क्र. १० भी सामान्य है। श्लोक क्र. ११ में शिव की तुलना अर्हत् व सुगत से की गई है। श्लोक क्र. १२-१६ में कहा गया है कि शिव ही सूर्य, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास व ऋतुओं को प्रेरणा प्रदान करता है। साथ ही उसके विभिन्न रूपों का वर्णन कर भक्तों के लिए उसकी कृपादृष्टि की याचना है। आगे श्लोक क्र. ३० तक में शिव के तेज का वर्णन है। श्लोक कं. ३१-३८ में उसके विभिन्न स्वरूपों, आयुधों व निवासों का वर्णन है। श्लोक क्र. ३९-५७ में शिव की प्रशंसा है एवं कहा गया है कि वह वाराणसी व श्रीगिरी में निवास करता है। अन्त में श्लोक क्र.५८-६३ में शिव के अनुग्रह की कामना है। आगे श्लोक क्र. ६४ में लिखा है कि यह शिव स्तुति दक्षिण राढ़ीय देश के नवग्राम से आये हलायुध नामक पंडित ने रची। इसके साथ ही स्तोत्र का प्रमुख भाग समाप्त हो जाता है।
इसके उपरान्त लेखक की अपनी रचना प्रारम्भ होती है जो प्रायः दूसरी स्तुति के रूप में है। श्लोक क्र. ६५-६७ में शिव के १२ प्रमुख नामों का उल्लेख है-महादेव, महेश्वर, शंकर, वृषभध्वज, कृत्तिवास, कामांगनाश, देवदेवेश, श्रीकण्ठ, ईश्वरदेव, पार्वतीप्रिय, रुद्र तथा शिव । अगले दो श्लोकों क्र. ६८-६९ में इन नामों का जाप करने वाले व्यक्ति को होने वाले लाभों का विवरण है। इससे अगले श्लोक क्र. ७० में पांच ज्योतिलिंगों के नाम हैं-श्री अविमुक्तेश्वर
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परमार अभिलेख
(रामेश्वर), केदारेश्वर, ओंकारेश्वर, अमरेश्वर तथा महाकालेश्वर। यहाँ यह विचारणीय है कि शिवपुराण में उल्लिखित १२ ज्योतिलिंगों में से इस सूची में केवल ५ का ही उल्लेख किया गया है। अंतिम श्लोक क्र. ७१ में लेखक ने अपने विरुद्ध आचरण व दोषों के लिए क्षमा याचना की है।
आगे का अभिलेख गद्यमय है। इसकी पंक्ति क्र. ५१-५३ में तत्कालीन कुछ विशिष्ट शैव आचार्यों के उल्लेख किये गये हैं। इनमें भोजनगर में स्थित श्री सोमेश्वर देव के महानिवास में निवास करने वाले नन्दियाड़ से देशान्तरगमन करके आने वाले पाशुपत आचार्य भट्टारक श्री भववाल्मीक, जिनके शिष्य भट्टारक श्री भावसमुद्र थे, तथा पंक्ति क्र. ५३ में पंडित भावविरिंचि के उल्लेख हैं । संभवत इन दोनों व्यक्तियों द्वारा अभिलेख की स्थापना की गई थी। अगली तीन पंक्तियों क्र. ५४-५६ से ज्ञात होता है कि चापल गोत्रीय पंडित गंधध्वज द्वारा अभिलेख लिखा गया था। वह विवेकर शि का शिष्य था जो स्वयं परमभट्टारक श्री सुपूजितराशि का शिष्य था। अन्त में उपरोक्त तिथि है।
इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख का महत्त्व तत्कालीन धार्मिक परम्पराओं के अध्ययन में असाधारण रूप से विशिष्ट है। साथ ही साहित्यिक गतिविधियों व संस्कृत साहित्य के अध्ययन में भी अत्याधिक सहायक है। स्तोत्र के रचयिता हलायुध की एकात्मता कुछ आधारों को लेकर इसी नाम के शैव मतावलम्बी नवग्राम निवासी कवि से कर सकते हैं। तैलगु कवि पाल्कुरिकि सोमनाथ ने, जिसकी तिथि ११९० ई. है, उसका उल्लेख द्विपदवसव पुराण में किया है। प्रोफेसर शास्त्री का मत है कि उसकी समता कवि-रहस्य एवं अभिधान-रत्नमाला नामक ग्रन्थों के इसी नाम के लेखक से की जा सकती है। इस आधार पर उसकी तिथि ईसा की दसवीं शती के उत्तरार्द्ध में होना चाहिये (पूर्ण विवरण के लिए देखिये एपि. इं., भाग २५, पृष्ठ १७३)। प्रो. शास्त्री ने विचार प्रकट किया है कि कवि की तिथि ११वीं शती से पूर्व होना चाहिये। उसकी समता विख्यात हलायुध से नहीं की जा सकती जो बंगाल नरेश लक्ष्मणसेन की राजसभा में था एवं जिसने अनेक 'सर्वस्व' लिखे हैं।
अभिलेख में उल्लिखित भौगोलिक नामों के दक्षिण राढ़ के अन्तर्गत नवग्राम की समता (श्लोक ६४) बंगाल राज्य के हुगली जिले में भुरशूत परगने में इसी नाम के ग्राम से की गई है। भोजनगर, जहाँ सोमेश्वर देवमठ नाम का आवासगृह था (पंक्ति ५१), की समता धारा नगरी से की जा सकती है। परन्तु श्री चक्रवर्ती के कथनानुसार भोज एवं उसके उत्तराधिकारियों के समय में धारानगरी का उल्लेख इसी नाम से किया जाता रहा है भोजनगर नाम से नहीं। अतः भोजनगर संभवतः भोपाल के पास स्थित इसी नाम का ग्राम रहा होगा जहाँ आज भी एक प्राचीन शिव मंदिर विद्यमान है। इसमें एक विशाल शिवलिंग स्थापित है। नदियाड़, जो शव आचार्य भवबाल्मीकी (पंक्ति ५१) का मूल स्थान था, का तादात्म्य कुछ कठिन है। परन्तु वर्तमान में गुजरात राज्य में बड़ौदा के पास इससे मिलते-जुलते नाम वाला नडियाद नगर स्थित है।
(मूलपाठ) (छन्दः श्लोक १-६१ मदाक्रान्ता, श्लोक ६४-७१ अनुष्टुभ, श्लोक ६३ शार्दूलविक्रीडित) १. ऊँ नमः शिवाय॥
विघ्नं विघ्नन्द्विरदवदनः प्रीतये वोस्तु नित्यं वामे कूट: प्रकटित वृ (बृ)ह दक्षिणस्थूलदन्तः । य: श्रीकण्ठं पितरमुमया श्लिष्ट वामार्द्धदेहं दृष्ट्वा नूनं स्वयमपि दधावर्धनारीश्वरत्वं (त्वम्) ॥१॥
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मान्धाता अभिलेख
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श्लाध्यः पुत्रः स भवति किल स्वस्थ वत्पुः सकाशाद्धत्ते कै[श्चित् क्वचिदपि गुणैर्य]
": समुत्कर्षलेखाम् । इत्थं वांछन् पितुरधिकतांपंच वक्त्रस्य नूनं षष्ठं वि (बि) भ्रद्वदनमपरं पातु विश्वं विशाखः ।।२।। एकोदेवः स जयति शिवः केवलज्ञान मूर्तिदेवी साच त्रिभुवनमिदं यद्विभूति प्रपंचः । यत्कूटस्थं मिथुनभविना भाव संबंध योगान्मिश्री [भूतं तदखिल जगज्ज]
न्म बीजं नमामि ॥३॥ एकः सृ (स्रष्टा सकल जगतामादिभूतः स्वयंभूस्त्राता तेषां त्रिभुवनगुरुर्वासुदेवः प्रसिद्धः । यस्तौ द्वावग्यतलमहिमा संहरत्यन्त काले कस्तस्यान्यो भवति सदृशः श्रीमहाकालमूर्तेः ।।४।। वक्तुं वाञ्छां हर निरवधि त्वन्महिम्नः [स्वरूपं चेतश्चैत त्क]
तिपय पद ज्ञानमात्रावसन्न (न्नम्)। ज्ञात्वैवेदं विनयन मया त्वद्गुणस्तोत्रभक्त्या स्वात्मन्येव स्वयमपि कृतो धृष्टतापट्ट व (ब)न्धः ।।५।। वागीशस्त्वं युगपदखिल ज्ञान संपत्ति युक्तः का ते तुष्टिः स्तुतिरचनया मादृशस्याल्पशक्तेः। एवं ज्ञात्वा हर विर[मति स्तोत्र हेतो हठा]
न्मे
भक्त्यावेशात्प्रसरति मुखाभारती किं करोमि ॥६॥ यत्ते तत्त्वं निरुपधि परं वाङमनः पारभूतं व्र (ब्रह्मादीनामपि हरगिरस्तंत्रभग्नाः प्रवेष्टुं (ष्टुम्) । अर्वाचीनं यदपरमिदं पार्वतीवल्लभन्ते रूपं भक्तया वरद तदहं वाग्भिरभ्यर्चयामि ।।७।। अन्यैः स्तोत्रं रचितममृतस्यं]
दिभिर्वाग्विलासः फल्गु प्रायः किमिदमियता त्यज्यते मद्वचोभिः । किंवा कैश्चित्कनक कमलरचितं पादपीटं भक्त्या शंभो न पुनरपरः पूजयत्यर्कपुष्पैः ।।८।। पथ्याहारी हर जलमुचां यौ च यो पन्क (क)जानां मित्रामित्रौ वरद हबिषां दाहक ग्राहको]
यो। यो गंधस्य प्रजन वहनौ तानहं तुष्टि हेतोरष्टौ वन्दे त्रिभुवन गुरोर्मूर्तिभेदांस्तवतान् ।।९।।
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परमार अभिलेख
१०.
सन्सा (संसा) रेस्मिन्ध्रुवमसुलभं मानुषं जन्मलब्धा (ब्ध्वा) युष्मानेको भजति सुकृती कश्चिदन्यं च देवं (वम्)। आरूढोपि स्मरहर गिरि रोहणं भाग्ययो [गा देको रत्नं कलय]
ति महत्काचमन्यश्च फल्गु ।।१०।। ये त्वामर्हन्सुगत इति वा भक्ति योगाद्भजन्ते तेभ्यः शम्भो फलमभिमतं त्वं ददासीतियुक्तं (क्तम् ) । अध्वक्लान्तः स्वरुचिरुचिर नाम किन्चि (ञ्चि)द्गृहीत्वा शीत पीतं जलमिह जनैः किं न तृप्ति करोति ।।११।। [आदित्यादि ग्रहप]-.
रिकरो याति चायाति नित्यं कालश्चायं दिवस रजनीपक्षमासर्तुचिह्नः। एतत्सर्वं ननु [न घटते] प्रेरकत्वं विना ते कार्ये चास्मिन्न पुनरपरस्यास्ति सामर्थ्यमेतत् ।।१२।। तस्थागारे गिरिश रमते धेनुवत्कामधेनुः क्रीडावाटे विटपि सिदृशः कल्पते क]
. ल्प वृक्षः। लाक्षारक्षामणिरिव करे तस्य चिन्तामणिः स्याद्यस्मिन् सिद्धः सकृदपि कृपादृष्टिपातप्रसादः ।।१३।। मौलौ लोलत्रिदशतटिनीतोथशीते मृतांशु कण्ठे क्रूरं कवलितविषश्यामले व्यालराजं (जम्)। ज्योत्स्ना गौरे [वपुषि वि]
. .. शदं वि (बि) भ्रतो भस्मरागं ज्ञाता सम्यक्त्रिनयन मया योगभूषा तवैव ।।१४।। धत्ते शोभा घसृण तिलकस्पधि चक्षुर्ललाटे मौलौ लग्ना त्रिदशतटिनी मालतीमालिकेव। क्ष्वेड क्रीडा मृगमदमयी पत्रलेखेव कण्ठे । [श्लाघ्यः शम्भो स्फुरति सहजः को]
..... पि भूषाविधिस्ते ॥१५॥ दग्धं येन त्रिभुवनमिदं देव दुर्वारि धाम्ना दग्धः सोपि त्रिनयन भ[व] दृष्टिपातेन कामः। . युक्तं चैतद्भवति पुरुषो यः परस्योपतापी तस्यावश्यं पतति शिरसि क्रोधदण्ड: प्रभूणां (णाम् ) ।।१६।। कस्य क्षेमो भ[वति बलिना स्पर्धमानस्य साध] यस्त्वत्कोपात्रिनयन भवच्चक्षुषा वञ्चि]तो भूत् । प्रेम्णा दष्टेऽधरकिसलये दृष्टवान् यः स गामी लीलानृत्यच्चतुरवनिताभूलताप्रेक्षणानि ।।१७।।
११.
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१४
१५
ये दारिद्रयोपहतवपुषो ये च दौर्भाग्यदग्धा ये वा शत्रुव्यसनविकला ये च मौर्योपतप्ताः। (ये वा कैश्चित् त्रिनय)
___ न दृढं पीडिता दुःखशोकै स्तेषामेकस्त्वमसि शरणं तषितानामिवाम्भः ।।१८।। श्लाघ्यं जन्म श्रुतिपरिणतिः सत्क्रियायां प्रवृत्तिः प्रौढ़िः शास्त्रे ललितमधुरा संस्कृता भारतीच । स्फीता लक्ष्मीर्वपुरपि दृढं चन्द्रलेखाङ्कमौले युष्मत्सेवा [पदविरहितं सर्वमे]
तत्पलालं (लम् ) ॥१९॥ त्वत्पूजायां कुसुमहरणे धाक्तः पादयुग्मं यत्पाषाणव[ज]परिकरोत्कीर्ण रेखाङ्कमासीत् । यत्तस्यैव त्वदनुचरतो रुद्रलोकंगतस्य व(ब) ह्मादीनां मुकुटकिरणश्रेणयः शोणयन्ति ।।२०।। येषां युष्मत्प्रतिकृतिगृहं लि[म्पतां पाणयो ये त्व]
द्भक्तानां सलिललुलितैर्गोमयैः संप्रलिप्ताः । तेषामीश त्रिदशनगरीनायकत्वं गतानां तेलिप्यन्ते मृगमदरसैः खेचरीणां कुचेषु ।।२१॥ यस्ते कृत्वा स्नपनममृतैः पञ्चभिश्चन्द्रमौले पश्चात्कैश्चित्कुसुमविकरैर्मृध्नि व (ब)ध्नाति[मालाम् । तस्यावश्यं]-.
सकलभुवनैकाधिपत्याभिषिक्ते बध्नन्त्यन्ये शिरसि परमैश्वर्य साम्राज्यपट्टम् ॥२२।। सतच्चित्रं क्वचिदपि मया नैव दृष्टं श्रुतं वा तद्विस्पष्टं कथय किमिदन्नाथ कौतूहलं मे। यत्ते भक्त्या हर चरणयोरप्पितं पुष्पमेकं सद्यः सूते फल [मभिमतं कोटि]
___शः कामरूपं (पम्) ॥२३॥ यस्ते भक्त्या वरद चरणद्वन्द्वमुद्दिश्य दद्या देकं नीलोत्पलदलमपि त्वत्प्रसादेन नूनं (नम्) । तत्प्रत्यंतं (यन्तं) निपतति पुनर्दष्टिरालोलतारदिव्यस्त्रीणां कुवलयदलश्रेणि दीर्घः कटाक्षः ॥२४॥ कृत्वा मालां घनपरिमलोद्गारिधारा कदम्ब]यस्ते कण्ठाभरणपदवी प्रापयेन्नीलकण्ठ। दिव्यस्त्रीणां विपुलपुलकै वा (र्बा) हुभिः कण्ठलग्नस्तस्यापि त्वं वितरसि चिरं निर्भ (र्भ) राश्लेषसौख्यं (ख्यम्) ॥२५॥
१९.
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परमार अभिलेख
२०
२१.
कृत्वा पूजां तवचरणयोरादरादष्टमूर्ते यः साष्टांगं प्रणमति मही पृष्ट (ष्ठ) पीटे (ठे) लुठित्वा । प्रत्यास[न्नं क्षितिपतिपदं]
प्रीति व (ब)द्धानुरागा तस्योत्सङ्ग लुठति धरणी रेणुचक्रच्छलेन ।।२६।। त्वामुद्दिश्य त्रिनयन जनो य: प्रदीपं ददाति ज्योतिर्खालादलिततिमिरं द्योतितान्तनिकेतं (तम्)। तस्मै मायारजनि विलसद्गाढमोहान्धकार च्छेद प्रोढं त्वमपि दि[शसि ज्ञानमात्मप्रका]
सं (शम्) ॥२७॥ चित्राला रचितकुसुमर्दू जंटे पूजयित्वा यः स्तौति त्वां जय जय महादेव देवेति वाचा। सोप्यारोहन्हर तव पुरं मौलिव (ब) द्धाञ्जलीनां शक्रादीनां स्तुति विषयतां त्वत्प्रसादात्प्रयाति ।।२८॥ भस्म स्नानं वहसि शिरसा स्व[धुंनी वारि भारं शा]
न्तां मूर्तिः (ति) कलयसि करे कार्मुकं युक्तमेतत् । अप्यन्येषां कतिपय पुरस्वामिनां चित्रभूता श्रेष्ठा दृष्टा स्त्रिभुवन पतेः किं महेशस्य न स्युः ।।२९।। त्वामाराध्य तृ (त्रि) दशपतयो भुञ्जते राजलक्ष्मी भिक्षा युक्तं तदपिच महादेवशब्दै (ब्दै) कवाच्यः । नैराशिष्यंवरद]
परमैश्वर्य कोटि प्रतिष्ठं तच्चे दस्ति त्वयि किमपरैः फल्गुभिः श्रीविलासैः ।।३०।। अस्थिग्रंथिः पितृवनभवं भस्म भूषाङ्गरागः प्रीतिः प्रेतैस्तव सहचराः भैखाः कोत्र दोषः । यस्यैश्वर्यं परम पदवीं प्राप्य विश्रान्तमुच्च स्तस्य ग्रावा कनक मथ [वा सर्वमेतत् समा]
नं (नम् )॥३१॥ आवासस्ते पितृवनमहिः क्रीडनं यानमुक्षा भिक्षा पात्रं हर नरशिरः खर्परं नैव दोषः । आरातीय स्त्रिनयन भवत्यल्प संस्थो हि लोको निस्वैगुण्ये पथि विचरतां को विधिः को निषेधः ।।३२।। प्रेतावासः शयनमशनं [भैक्ष्य माशाश्ववा]
२३.
खट्वाङ्गं च ध्वजमुपह (हि)तं त्वस्थि नेपथ्यमङ्गे। .. यद्यप्येवं तदपि भगवन्नीश्वरेत्यस्य नाम्नो निः सामान्यस्त्वमसि विषयो नापरः कश्चिदस्ति ।।३३।।
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मान्धाता अभिलेख
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२६.
२७.
२८.
दारूद्याने द्विजवर वधूपप्लवो रेतसाग्नी होमः सन्ध्यानटनमिति ते चेष्टितं नैव दुष्टं (ष्टम्)। . [मिथ्या ज्ञानोप]
हतमनसां मार्गमुल्लङ्ग घ्य दूरं ये निःका (निष्क्रान्ता स्त्रिनयन न तां (तान्) लोकवादा:स्पृशन्ति ।।३४।। देवाः सर्वे दधति वपुषा भषणं हेमरत्नं गुजामात्र कनकमपि ते नास्ति कर्णे करे वा। मार्गातीतं स्फुरति सहजं यस्य सौन्दर्यमङ्गे तस्याहार्येष्वितरजनवन्ना]
दरः स्याद्गुणेषु ।।३५।। त्वं व (ब्रह्मादित्रिदशगुरुभिः पूजितः स्वार्थहेतोरित्याम्नायो न खलु भवता प्रार्थितः कश्चिनन्यः। इच्छामात्रात्स्वयमुपनमन्त्यग्रतो यस्य भावा स्तस्या पेक्षा कथमिह भवेदीश्वरस्येतरेषु ।।३६।। खण्डश्चन्द्रः शिर[सिपरशुः खण्डमे]
. वायुधन्ते भिक्षापात्रं द्रुहिणशिरसः खण्डमेकं कपालं (लम्)। खण्डप्रायस्तव परिकरो यद्यपीत्थं तथापि त्वं सर्वेषां स्मृतिमुपगतः सर्व्वपूर्णत्व हेतुः ॥३७॥ पृथ्वीपीठे कृतपदमदः स्वच्छमाकास (श) लिङ्ग तारापुष्पैः शिरसि रचिताभ्यर्चनं चन्द्रिचूड। इत्थं भावाद]
__ वहितधियो ये भवन्तं भजन्ते ते लीयन्ते त्वयि जलनिधौ निम्नगानामिवौघाः ॥३८॥ वाराणस्यां स्फुरति यदिदं देवदेवा विमुक्तं से (शै)वं ज्योतिः सकलभुवनालोकनादर्शभतं (तम्)। कृत्वा तस्मिन्प्रमहसि पदे क्षेत्रसन्यासयोगं [त्वय्ये]कत्वं व[जति पुरुषस्तेज]
सीव प्रदीपः ।।३९।। यत्प्रत्यक्षं सकल भुवनैश्वर्यभूतं विभाति ज्योतिलिङ्ग कनककपिशं श्रीगिरौ व्योम्नि दिव्यं (व्यम्)। तत्पश्यन्तः शिव सुकृतिनस्त्यक्तसंसार व (ब)न्धा स्त्वत्कारुण्याच्चिरगणपदप्राप्तिभाजो भवन्ति ।।४०॥ वाचाधीशं हुतवहतनुं शक्तिपाणि भवन्तं ये ध्यायन्ति त्रिनयन मनस्तेजसा निर्दहन्तं (न्तम्)। गङ्गास्रोतः सदृश
विलसद्गद्यपद्यप्रवाहैः सद्यस्तेषां प्रसरति [मुखाद्भा]रती नात्र चित्रं (त्रम्)॥४१॥
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३३.
३४.
३५.
भास्वज्ज्योतिः किरणमरुणं दक्षिणेऽक्षिण स्थितं त्वां येवीक्षन्ते पुरुष मुदितं ख्यातमादित्यमूर्ति (तिम्)। ते सर्वत्राप्रतिहतदृशः सूर्यपर्यन्तलोकं पश्यन्त्यग्रे करतललुठत्कं [दुकस्पष्टरूपम्]
॥४२॥ ये ध्यायन्ति स्वहृदि विमलं चित्वमात्मक रूपं विश्वादर्श प्रसरदभितो भूर्भुवः स्व स्त्रिलोकी (कीम् )। इत्थं गत्या गति परिचयात्त तथैव प्रसादा त्सर्वज्ञत्वं हर विकरणी शीलयन्तो लभन्ते ।।४।। ये त्वां शम्भो हृदयभवनांभोरुहाभ्यन्तरस्थं ज्ञानज्योतिस्तदुपधिव]
शा ब्दीहिशूकाग्र सूक्ष्म (क्ष्मम् )। उद्वीक्षन्ते दृढ़तर लयं तेप्युपाधि प्रणाशा त्वय्येकत्वं नभसि कलशाकाशवनिर्विशन्ति ।।४४।। अच्चिविद्युत्प्रभृतिभिरलं मार्ग विश्राम लोके (कै) र्ये गच्छन्ति त्रिनयन पथा देवयानेन केचित् । भक्त्वा भोगाननुपमरसान् स्वेच्छ[या ब्रह्मलोके] ते तस्यान्ते पुनरपि शिव त्वन्मयत्वं भजन्ते ।।४५॥ . यत्रानन्दः स्फुरति परम ज्योतिरालोकजन्मा भुज्यन्ते च स्वयमुपनता यत्र दिव्याश्व भोगाः [1] यत्रावृत्तिन भवति पुनः पञ्चमाध्व प्रसिद्धं । तद्वैराजं पदमपि शिवं प्राप्यते त्वत्प्रसादात् ।।४६।। त्वय्यात्मानं निहितम]
खिलस्त्वद्गुणैः संप्रयुक्तं स्वच्छादर्श मुखमिव चिरं चेतसा निश्चलेन । ये पश्यन्ति विनयन मनोवाञ्छितार्थ प्रसूतिस्तेषामाविर्भवति सुधियामेव धर्मः समाधिः ।।४७।। ज्ञानज्योतिः सकलजगतां स्वप्रकाशस्वरूपं त्वामात्मानं परहितगुणस्पर्शमीशान मीळे] [1] यत्रैकस्मिन्नवहितधियां योगदृष्टि स्थितानां स्वच्छादर्श प्रति फलित वद्विश्वमेतच्चकास्ति ॥४८॥ भूतं भूतस्मरणविषयं भावि नान्यत्र काले सूक्ष्म मध्यं क्षणमिह तयोर्वर्तमानं वदन्ति । तस्मिन्सौख्यं कियदमतयो येनमत्ता मनुष्या य [ष्मत्सेवा भव भ]-..
व भय ध्वन्सि (ध्वंसि)नी नाद्रियन्ते ।।४९।। ज्ञानंनस्यात्क्वचिदपि किल ज्ञेयसम्व (संब)न्धशून्यं ज्ञेयं सत्तामपि न लभते ज्ञान वा (बा) ह्यं कदाचित् । इत्यन्योन्य ग्रथितमुभयोर्व्यापकं यत्स्वरूपं तत्ते प्राहुः प्रकृति पुरुष स्यार्द्धनारीश्वरत्वं (त्वम्) ॥५०॥
३७.
३८
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३९.
४१
यत्प्रत्यक्षं न भवति नृणामि]
न्द्रियाणामशक्यं यत्सम्व (त्संब)न्ध ग्रहण विरहान्नानुमेयं च किन्चि (किंचित् । शब्दा (ब्दा) दीनामपि न विषयं यत्परोक्ष स्वरूपं ज्ञान ज्योतिर्यदिह परमं सत्व (त्त्व)मध्यात्म मूर्तिः ।।५।। त्वामात्मानं वरद परमानंद वो (बो)ध स्वरूपं ये वु (बु) ध्यन्ते विगलित जगद्धेद मायाप्रपञ्चम् । रागत्यागात्]
स्तिमित मनसो देव जीवन्त एवं [भ्रश्य]न्माया निवि (बि)ड निगड ग्रन्थयस्ते विमुक्ताः ।।५२।। श्लाध्यंयत्तत्कृपि (प) णमनसां सप्तलोकाधिपत्यं या मृग्यंते तरलमतिभिः सिद्धयश्चाणिमाद्याः । एतत्सव मदनदहन त्वत्पद प्राप्ति भाजां तत्व (त्त्व) ज्ञानामृतर[सजुषां योगि]
नामन्तरायः ॥५३॥ आशावासः शयनमवनिर्व (बॅ)ह्मचर्यं च दीर्घ . मौनं दण्डग्रहणमशनं भिक्षया भस्म शौचं (चम्)। वैराग्यञ्च त्रिनयन भवत्तत्त्ववो (बो) धाद्विहीनं मूला देवं ध्रुवमलवणं सर्वमेतद्विभाति ।।५४।। स्थित्वा कालं चिरतरमपि व (ब्रह्मशक्रादि [लोके कर्म]
च्छेदात्पुनरपि ततः स्यादवश्यं निपातः । एकं नित्यं पदमुपगतः क्लेश कर्मोम्मिपाकं । शैवं ज्योतिर्यदिह सुलभं ज्ञानयोगेनपुन्सां (पुंसाम्) ।।५५ शक्रादीनां ऋतुफलयु (जु)षां यत्सुखं नाकलोके तत्कीटादेनरक निलयस्यापि तुल्यं विभाति । येनैकान्तं]
न भवति सुखं कस्य चिन्नापि दुःखं द्वन्द्वग्रस्तं त्रिभुवनमिदं त्वं तु तस्माद्विमुक्तः ॥५६।। व (ब)न्धच्छेदादिह तनुभृतां यत्त्वया साकमैक्यं साचेन्मुक्तिः शिव किमनया यातु यद्वान्धकूपं (पम्)। त्वं मे स्वामी भवदनुचरः शर्व यत्सर्वदाहं तद्धि श्लाघ्यं स्वपति [पदवीं काम]- ..
यन्ते न भृत्याः ॥५७।। वातोद्ध त स्फुट पुटकिनी पत्र तोयोपमाने को विश्वासं व्रजति चपले जन्मिनो जीवितेस्मिन् । . कान्तस्त्रीणां प्रिय सहचर निर्भरालिङ्गितं मे चेतः शम्भो स्वपिति न यथा तत्प्रसादं कुरुष्व ।।५८॥
४२.
४३
४४,
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परमार अभिलेख
४७.
त्वन्नेनाग्नि व्यतिकरमिव प्राक्तनं पुष्पचा]
पः। स्मृत्वा नूनं व्यवसित मतिर्वैर निर्यातनाय । यत्सन्स (त्संस)क्तं तव चरणयोर्देव सेवानुरागात्तन्मे चेतः प्रहरति शरैस्त्यक्ष तद्रक्ष यत्नात् ।।५९।। भिक्षापात्रं मृगजमजिनं जीर्ण कौपीनमेकं कथा रथ्या निपतित जरच्चीरलेशैश्च लघ्वी । एतावा[न्मे हर परिक]
रस्त्वत्प्रसादेन नित्यं भूयाद्भूयस्तव चरणयोभूयसी भक्तिरेका ।।६०।। देवस्तावद्भवति भगवन्भर्गसर्गस्य सारस्तस्मात्पूर्व महदितिपदं प्रोक्तमुत्कर्षमाह। माहात्म्यं ते स्मरहर महादेव नाम्नैव लोके दूरारूढं वरद किमहं स्तोत्रमन्यत्करोमि ।।[६१॥ कालेन]
नीतः सोपि पुनरावर्तते जनः महाकालेन नीतस्य नावृत्तिविद्यते पुनः ॥६२।। अव्यक्ताक्षर जल्पितैरपि शिशो: प्रीतिगुरूणां भवेतेनास्मद्वचनं मलीमसमपि स्यात्तुष्टिहेतुस्तव । श्रान्तस्त्वद्गुण कीर्तनात्किमपि यत्पुण्यं मयोपाजितं तेन] __ स्याज्जननान्तरेपि महती त्वय्येव भक्तिर्मम ।।६३॥ द्विजो दक्षिण राढीयो नवग्राम विनिर्गतः हलायुध वु(बु)धश्शम्भोरिमांस्तुतिमरीरचत् ॥६४।। प्रथमं तु महादेवं द्वितीयं च महेश्वरं (रम् ) [1] त्रि (तृ) तीयं शंकरं ज्ञेयं चतुर्थं वृषभध्वजं (जम्) [॥६५।।] पंचमं कृत्तिवासं च ष]
ष्ठं कामाङ्ग नाशनं (नम्) [1] सप्तमं देवदेवेशं श्रीकण्ठं चाष्टमं स्मृतं (तम्) [॥६६।।] नवमं ई (ही) श्वरं देवं दशमं पार्वतीप्रियं (यम्) [1] रुद्रमेकादशं नाम द्वादशं शिवमुच्यते [॥६७।।] द्वादशैतानि नामानि उभयेसंध्य (यो)त् यः (ययो) पठेत् [1] गोघ्नः कृतघ्नश्चैव व (अ) महा गुरुतल्पगः [॥६८॥] स्त्रीवा (बा)ल[घातकश्चैव]
सुरापी वृषलीपतिः [0] मुच्यते सर्वपापेभ्यो रुद्रलोकं स गच्छति [॥६९।।] अविमुक्तश्च केदार ओंकारश्चामरस्तथा [1] पंचमं (मस्)तु महाकाल: पंचलिङ्गाः प्रकीर्तये (त्तिताः)।[७०॥]
४८
५०.
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मान्धाता अभिलेख
अज्ञाना[द्] ज्ञानतो वापि यद्विरुद्धमनुष्ठितं (तम्)।
तत्सर्वं पशुभूतस्य क्षन्तव्यं कारणेश्वर ॥[७१।।] ५१. स्वस्ति [1] श्री भोजनगरे श्री सोमेश्वरदेव मठनिवासि नंदियड-विनिर्गतं (तः) प्रणामगोत्र
यम नियम संज (4) म स्वाध्याय ध्यानानुष्ठानरत परमपाशुपताचार्य भट्टारक श्रीभव वाल्मीक[:] श्री अमरेश्वरदेवो (वस्य) त्रैलोक्याधिपतिः (तेः) ध्यानपुण्य स.....एतत् (च)
सि (शि)ष्य इ[ष्टाधि] क प्रदानरत त्रिः (त्रि) कालसंध्य (ध्या) ५२. समधिकरण गुरु पारंपर्य विधानयुक्त[:] श्री अमरेश्वरदेवपादपंकजभ्रमराध्वनि (?)
पथस्रा (श्रा)न्त तपोधनाभ्यागत लय . . .संतापः ५३. श्री अमरेश्वरदेव वीक्षणमूत्ति सदानिवासी भट्टारक श्री भावसमुद्रः ।। पंडित भाव विरिचि[:]
प्रणमति शिवः (वम्)। ५४. ओं स्वस्ति [I] श्री अमरेश्वरदेवस्यायतने त्रैलोक्य विश्रुत[]स्थाने देव दानव दु[जय]
देवगुरुन (त)पोधात (ध्यान) सु(शुश्रूषारत परमभट्टारक श्री सुपू५५. जितरासि (शिः) [] एतत्सि (शि)ष्य विवेकरासि (शि:) [i] पुनः तस्य सिस्य (शिष्येण)
चपलगोत्र विनिर्गत (तेन) सहजभक्ति शान्तमूर्ति ५६. पण्डित गान्धध्वजेन परमभक्त्या महिम्न हलायुधस्तुतिं आत्मस्यार्थे स्वयं लिखितमिति ।। सम्ब (संव)त् ११२० कार्तिक वदि १३(1) मङ्गलं महाश्रीः ।। ॥ ॥
(अनुवाद) ओं नमः शिवाय । १. वह गजवदन श्री गणेशजी विघ्न को नष्ट करते हुए सदा तुम्हें प्रसन्नता प्रदान करे।
जिस श्री गणेशजी ने अपने पिता श्री नीलकण्ठ के अर्धशरीर में पार्वती सम्मिश्रित अर्धनारी नटेश्वर रूप में देखकर स्वयं ने भी वाम खण्डित एवं दक्षिण सम्पूर्ण दन्त के
रूप में अर्धनारीश्वरत्व धारण कर लिया। २. जो पुत्र अपने जन्मदाता पिता के गुणों से अधिक उत्कर्षशाली गुणों को धारण करता है
वह पूत्र स्तुत्य होता है, तदनसार अपने पिता शिवजी के पांच मखों से अधिकता की
इच्छा रख कर छः मखों को धारण करने वाले षणमख कातिकेय तुम्हारा रक्षण करें। ३. वह केवल ज्ञानस्वरूप एक देव शिव एवं वह देवी पार्वती, इन की जयजयकार हो । ये
तीनों भुवन जिनकी विभूति के प्रपञ्च हैं, जो शिव पार्वती किसी प्रकार भेदरहित संबंध भोग से अर्ध नारी नटेश्वर रूप में मिश्रित होकर जगत को जन्म देने हेतु बीज
रूप हुए, उनको मैं प्रणाम करता हूं। ४. आद्य स्वयंभू ब्रह्मदेव अकेला समस्त जगतों का निर्माण करने वाला प्रसिद्ध है। इन
जगतों का पालन करने वाला वैलोक्य गुरु विष्णु प्रसिद्ध है। परन्तु उन दोनों अतुल महिमाओं का प्रलय काल में संहार करने वाले महाकाल के समान अन्य कौन हो
सकता है। ५. हे भगवन् ! आपके निःसीम स्वरूप को वर्णन करने की इच्छा है। और यह मन किंचित्
पदों के ज्ञानमात्र से स्तब्ध हो गया है। हे त्रिनयन, यह (अपनी स्थिति को) जान आपके गुण वर्णन करने की भक्ति से स्वयं अपनी आत्मा में ही स्तुति करने की धृष्टता की कमर कस ली है।
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परमार अभिलेख
६. हे भगवन्, आप वाणी के अधिपति होकर साथ ही समस्त ज्ञान सम्पति से युक्त हैं।
मुझ जैसे अल्प ज्ञान शक्ति वाले की स्तुति रचना से आपको कैसे संतोष हो सकता है, यह जान कर आपकी स्तुति करने में मेरी वाणी कुण्ठित हो रही है, तथापि भक्ति के
आवेश से स्तोत्र वाणी निकल ही रही है, मैं क्या करूं। . ७." हे भगवन्, जो आपका परम तत्व उपाधि रहित वाणी और मन से भी परे है, जिसका
वर्णन करने के लिये ब्रह्मादिकों की भी वाणी कुण्ठित हो गई है, परन्तु जो आपका - नवीन पार्वती-प्रिय यह स्वरूप है इसका भक्तिपूर्वक वाणियों से पूजन करता हूं। ८. हे शंभु, अन्य भक्तों ने अमृतस्रावि वाणी विलासों से आपका विस्तृत स्तोत्र रचा, (इस
कारण) क्या मैं अपने वचनों से आपकी स्तुति करना त्याग दूं? अन्यों के द्वारा सुवर्ण कमलों से पूजित आपके पादपीठिका का पूजन दूसरा भक्त भक्ति से आंकड़े के पुष्पों
से पूजन नहीं करता क्या ? ९. हे भगवन्, त्रैलोक्य गुरु आपके उन आठमूर्ति भेदों को मैं प्रणाम करता हूं जो जल- रूप, आकाश रूप, कमलों का मित्र सूर्य रूप, कमलों का शत्रु चन्द्ररूप, हविद्रव्य को दहन
करने वाला यजमान रूप, हविद्रव्य को ग्रहण करने वाला अग्नि रूप, गंध को उत्पन्न ... करने वाला पृथ्वी रूप तथा गन्ध को बहाने वाला वायुरूप है। . . . . . १०. इस संसार में निश्चित् उत्पन्न दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त करके कोई पुण्यवान आपका
भजन करता है और कोई अन्य देव का भजन करता है। देवयोग से उन्नत पर्वत पर चढ़ने पर भी एक तो महान रत्न को धारण करता है अन्य बड़े काम को प्राप्त
करता है। ११. हे भगवन् , जो भक्ति से अर्हत् अथवा सुगत रूप से भजन करते हैं, उन्हें तू इच्छित फल
प्रदान करता है, यह योग्य ही है। मार्ग चल कर थका हुआ व्यक्ति कुछ भी नाम लेकर यदि
शीतल जल पीता है तो क्या वह तृप्ति प्राप्त नहीं करता। १२. सूर्यादि ग्रह-परिवार नित्य उदित होकर अस्तंगत होता है। दिवस रात्रि पक्ष मास भदतु
रूप यह काल सब कुछ तेरी प्रेरणा के बगैर नहीं चलता। इस कालचक्र को चलाने में तेरे
बगैर अन्य किसी का सामर्थ्य नहीं है। १३. . हे प्रभु, जिस पर एक बार तेरा दृष्टि प्रसाद हो गया उसके भवन में कामधेनु धेनु के समान
निवास करती है, क्रीडाङ्ग में कल्पवृक्ष वृक्ष के समान स्थित रहता है तथा हाथ में बंधा
हुआ लाख का रक्षामणि (तावीज) चिन्तामणि के समान हो जाता है। १४. हे त्रिनयन, मैंने आपके भूषणों के संयोजन को अच्छी तरह पहचान लिया है। चंचल गंगाजल
मस्तक प्र चन्द्र स्थापित किया। विषप्राशन से नीलकण्ठ में क्रूर भुजंग को स्थापित किया।
चंद्रिका के समान गौर शरीर पर भस्म का अंगराग लगाया। १५. हे शंभ, आपका यह नैसर्गिक भूषाविधि अलौकिक सौंदर्य धारण कर रहा है। ललाट पर
नेत्र सुन्दर तिलक की शोभा धारण कर रहा है। जटाजूट में गंगा मालती पुष्पमाला की शोभा
धारण कर रही है। कण्ठ में नीलचिन्ह कस्तूरीपत्र रचना की शोभा धारण कर रहा है । . १६... जिस कामदेव ने अपने कठोर प्रभाव से त्रैलोक्य को जलाया, हे त्रिनयन, आपने अपने दृष्टि
पात से उसको भी भस्म कर दिया; और यह योग्य ही है कि जो दूसरों को दुःख देने वाला है उस पर प्रभुओं का क्रोध-दण्ड अवश्य ही गिरता है ।
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मांधाता अभिलेख
१७.
बलवान से स्पर्धा करने वाले किसका कल्याण होता है ? हे विनयन, आपके क्रोधयुक्त तृतीय नेत्र से जो वंचित है उसने प्रेमपूर्वक अधरोष्ठ का चुम्बन करके विलासपूर्वक नृत्य करने वाली चतुर नारियों के कटाक्षों के देखा है ।
जो दारिद्र से दुर्बल है, जो दुर्भाग्य से जल रहा है, जो शत्रुओं के संकट से व्याकुल है, जो मूर्खता से अभितप्त है, अथवा जो किन्हीं दुख शोकों से पीड़ित है, हे त्रिनयन, तृषितों को जल के समान इन सबके आप ही एकमात्र शरण हैं ।
१९.
१८.
२०.
२३.
२४.
२१.
हे ईश, आपके जिन भक्तों के हाथ आपके मंदिरों को लीपने में जलयुक्त गोबर से लथपथ हो गये हैं, वे स्वर्ग नगरी के नायकत्व को प्राप्त होकर उनके हाथ स्वर्ग की अप्सराओं के स्तनों पर कस्तूरी लीप रहे हैं (कस्तूरी पत्र रचना करते हैं) ।
२२.
हे चन्द्रशेखर, जो भक्त आपको पञ्चामृत से स्नान करवा कर बाद में मस्तक पर पुष्पों की माला बांधता है, निश्चय ही उसके मस्तक पर समस्त भुवन के एकाधिपत्य का अभिषेक कर परमैश्वर्य साम्राज्य के मुकुट का बंधन करते हैं ।
२६.
२७.
उत्तम कुल में जन्म, उत्तम वृत्तान्त का अध्ययन, सत्कर्मों में प्रवृत्ति, शास्त्रों का प्रौढ़ ज्ञान, लालित्य से मनोहर संस्कार संपन्न वाणी, विपुल लक्ष्मी, सुडौल शरीर, ये सभी विशेषताएं होने पर भी, हे चन्द्रशेखर, यदि आपकी चरण सेवा से विरक्ति है तो सब व्यर्थ ही है ।
२८.
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आपकी पूजा हेतु फूल लाने के लिए दौड़ने से जो चरणयुगल पत्थरों के समूह पर जख्मी गए थे, आप अनुसरण करने वाले रूद्रलोक को पहुंचे हुए उस भक्त के चरणयुगल को ब्रह्मादि दोनों के मुकुटमणि किरण लालिमा प्रदान करती है ।
२५. हे नीलकण्ठ, जो भक्त अत्यन्त सुगंध फैलाने वाले कदम्ब कुसुमों से पुष्पमाला निर्माण कर आपके कण्ठाभूषण स्थान पर समर्पण करेगा, उसे भी आप स्वर्ग में दिव्यांगनाओं के रोमांचित-बहुओं से गाढ़ालिंगन सुख प्रदान करते हैं ।
हे नाथ, वह आश्चर्य मैंने न तो कभी देखा है, न सुना है । इसे स्पष्ट करके कहिये, मुझे महान कौतुहल है। जो आपके चरणों पर भक्ति से चढ़ाया हुआ एक पुष्प ही तत्काल करोड़ों अभिलाषाओं का पूरक हो जाता है।
हे वरद, जो भक्त भक्तिपूर्वक आपके चरणयुगल पर नील कमल की एक पंखुड़ी भी समर्पण करेगा, उस पर आपके अनुग्रह से दिव्यांगणाओं के नीलकमल के समान दीर्घ नेत्र कटाक्ष गिरते रहते हैं ।
अष्टमूर्ते ! जो भक्त आपकी अर्चना करके आदरपूर्वक साष्टांग प्रणाम करता हुआ पृथ्वी पर लौटता है, उसे शीघ्र ही भूपतिपद प्राप्त होकर पृथ्वी स्नेहाकृष्ट होती हुई धूलभरी आंधी के रूप में उसकी गोद में लोटने लगती है ।
हे त्रिनयन, जो भक्त ज्योति की ज्वाला से, जिसने अंधकार नष्ट कर दिया है तथा गृह को प्रकाशित कर दिया है, ऐसा दीपक आपको समर्पित करता है, उसे आपकी मायारूपी रात्रि के गूढ़ अंधकार नष्ट करने में समर्थ आत्मा में प्रकाशित होने वाला ज्ञानदीप प्रदान करते हैं ।
हे हर, जो भक्त चित्रविचित्र पुष्पमाला से तेरा पूजन करके 'जयमहादेव' के घोष से तेरी स्तुति करता है, वह तेरे अनुग्रह से शिवलोक में आरोहण करता हुआ मस्तक पर मौली बांधे हुए इन्द्रादि देवगणों की स्तुति का विषय बन जाता है ।
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हे भगवन् ! आप भस्मस्नान करके मस्तक पर गंगा के जलभार को धारण करके अपनी शांतमूर्ति व्यक्त करते हैं तथा हाथ में धनुष धारण करते हैं, यह योग्य ही है। कुछ नगरस्वामियों की विचित्र चेष्टाएं इसी प्रकार देखने में आती हैं, तो त्रैलोक्याधिपति के ऐसे भाव नहीं होंगे क्या ?
४०.
हे वरद, देवगण आपकी आराधना करके राजलक्ष्मी भोगते हैं, परन्तु आपमें तो महादेव समान एकशब्द से संबोधित परमेश्वर्य कोटि से प्रतिष्टित भिक्षायुक्त जो निरीहता है, तो अन्य लक्ष्मीविलासों का क्या कहना ?
अस्थियों की माला आभूषण एवं चिताभस्म अंगराग, प्रेतों से प्रीति एवं सियार आपके सहचर हैं, इसमें क्या दोष है। जिसका ऐश्वर्य परम अन्य पदवी को प्राप्त होकर विरक्त हो गया है उसके लिए सुवर्ण व पत्थर समान ही है ।
हे शिव, आपका निवास स्मशान, खिलौना भुजंग, वाहन बैल, भिक्षापात्र नरकपाल ( होने पर भी ) कोई दोष नहीं है। हे त्रिनयन, अल्प ज्ञान वाला लोक किस्त्र द्रव्यभार से दूर या समीपवर्ती रहता है । ( सत्वरजतम से परे ) निस्तै पुण्य मार्ग पर चलने वालों की कोई विधि नहीं तथा कोई निषेध नहीं होता है ।
आपका स्मशान में शयन, भिक्षा से भोजन, हड्डियां आभूषण जो भी हैं, तथापि हे भगवन्, ईश्वर ऐसा असामान्य नामधारी आप ही हैं, दूसरा कोई नहीं है ।
aria की झाड़ी में कृत्तिका की पीड़ा, वीर्य से अग्नि में हवन ही सत्योपासना, यह आपका चेष्ठित किसी प्रकार दूषित नहीं है। मिथ्या ज्ञान से जिनका मन दूषित हुआ है ऐसे व्यक्तियों के मार्ग को दूर से ही त्याग कर जो निकले हैं उनको लोकापवाद स्पर्श नहीं करते ।
हे सर्वदेव, शरीर पर सुवर्ण रत्नादि आभूषण धारण करते हैं, परन्तु आपके न कान में, न हाथ में गुज्जा मात्र भी सुवर्ण नहीं है, तथापि सौंदर्य मार्ग से परे सहज सौंदर्य आप में झलक रहा है । साधारण जनों के जबरन लाये हुए गुणों में आदर नहीं होता ।
ब्रह्मादिदेव स्वार्थ सिद्धि के लिये आपका पूजन करते हैं ऐसी प्रसिद्धि है, परन्तु आप किसी अन्य देव का पूजन नहीं करते। जिनकी इच्छामात्र से सारे विषय उपस्थित हो जाते हैं उन्हें अन्य देवों की उपासना की क्या जरूरत है ।
आपके मस्तक पर चन्द्रखण्ड है, खण्डित परशु आपका आयुध, भिक्षापात्र हिरण मस्तक का खण्डित कपाल, इस प्रकार आपकी सारी वस्तुएँ खण्डप्रायः होने पर भी आप सबकी स्मृति सर्व पूर्णत्व प्रदान करने के कारणरूप हैं ।
पृथ्वी पर अपनापद स्थापित किया, निर्मल आकाश ही जिसका स्वरूप है तथा तारारूपी पुष्पों से शिव का पूजन होता है । हे चन्द्रचूड भगवन्, इस विश्वरूपी भाव से जो आपका ध्यान करते हैं, वे आप में लीन हो जाते हैं, जैसे नदियों के प्रवाह समुद्र में मिल कर उसी के समान हो जाते हैं ।
हे देवदेव, वाराणसी में जो आपकी शैवज्योति समस्त भुवनों के दर्शन करने के लिए आदर्श - रूप स्थित है, उस महान ज्योतिलिंग के सम्मुख देह सन्यासयोग वाला पुरुष आप में लीन हो जाता है जैसे दीपक में तेज लीन हो जाता है ।
श्रीपर्वत पर जो आपका ज्योतिर्लिंग सुवर्ण के समान पीतवर्ण समस्त भुवनों में आश्चर्यरूप प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है, पुण्यशाली आपके भक्त आकाश में उसका दर्शन करके समस्त संसार बंधनों को त्याग कर आपके अनुग्रह से आपके गणों की श्रेणी में प्रविष्ट हो जाता है ।
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मान्धाता अभिलेख
४४.
४७.
'. ४१. हे त्रिनयन, जो भक्त वाणी के अधिपति के रूप में अग्निस्वरूप जाज्वलमान शक्ति आयुध - जिनके हाथ में है, तेज से मन को दहन करने वाले रूप में आपका ध्यान करते हैं, उनके मुख से
गंगा के प्रवाह के समान गद्यपद्यमय वाणी सहसा प्रसृत हो जाती है, इसमें क्या आश्चर्य । ४२. जो उपासक दाहिने नेत्र में दैदीप्यमान ज्योतिकिरण से प्रकाशमान अरुणवर्ण सूर्य स्वरूप
उदित हुए पुरुष के रूप में आपका दर्शन करते हैं, वे जिनकी दृष्टि कहीं भी अवरुद्ध नहीं हुई
है, सूर्य पर्यन्त लोक को हस्तस्थित कन्दुक के समान अवलोकन करने में समर्थ हो जाते हैं। ४३. जो उपासक अपने हृदय में चैतन्यरूप आत्मा को जगत का आदर्श मानकर वह चित्स्वरूप
भूलोक स्वर्गलोक में व्याप्त होता हुआ ध्यान करते हैं, इस गति के द्वारा प्रगति का परिचय होते हुए करणेन्द्रिय ज्ञानरहित सर्वज्ञान को प्राप्त होते हैं।
हे शंभो, जो उपासक आपका हृदयकमल के अन्तस्थित ज्ञानज्योति रूप शालिवृक्ष के अग्र . के समान सूक्ष्म सततदर्शन करते हैं, वे संसार की समस्त उपाधियां नष्ट हो जाने से आप में
विलीन हो जाते हैं जैसे कलश का आकाश वृह दाकाश में लीन हो जाता है। ४५. हे त्रिनयन, जो उपासक तेज विद्युत प्रकाशों से, मार्ग के विश्राम लोकों से भ्रमण करते हुए,
देवयान से जाते हैं, वे स्वेच्छानुसार ब्रह्मलोक में अनुपम रसास्वाद वाले भोगों को भोग कर
अन्त में आप में लीन हो जाते हैं। ४६. ___ वह वैराग्य संज्ञक शिवपद आपके अनुग्रह से प्राप्त होता है, जहां से पंचम मार्ग के प्रसाद से
पुनरावर्तन नहीं होता, जहां परम ज्योति के प्रकाश से उत्पन्न होने वाला आनन्द स्वरूप होते रहते हैं और जहां स्वयं प्राप्त हुए दिव्य भोग भोगे जाते हैं। ___ हे त्रिनयन, जो उपासक आपके अखिल गुणों से प्रेरित आत्मा को निश्चल मन से आप में लीन निर्मल आदर्श में प्रतिबिम्बित मुख के समान देखते हैं, उन सुबुद्धिवालों का समाधिधर्म
ही मन के इच्छितार्थ को प्रदान करने वाला हो जाता है । ४८. समस्त जगतों का प्रकाश स्वरूप, परहित रूपी गुणों का स्पर्श करने वाले, ज्ञान ज्योति रूप
आप-आत्मरूप का मैं ध्यान करता हूं। जिस स्वरूप में जिनकी मति लीन हो गई है, ऐसे योगदृष्टि से अवलोकन करने वालों को यह विश्व निर्मल आदर्श में प्रतिबिम्बित के समान दिखता है।
हे भव, कूछ बद्धिहीन उन्मत्त मनष्य, जो हो गया है वह भतकालिक-स्मरण का विषय है, जो भावी है वह अन्य समय में होने वाला है, जो कुछ सूक्ष्म है, मध्य है, क्षण है वह वर्तमान ही प्रमुख है, उसी में सुख है ऐसा मान कर संसार के भय को नष्ट करने वाली आपकी सेवा का
आदर नहीं करते हैं। ५०. जानने की इच्छा के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता है, ज्ञान के बगैर ज्ञेय की सत्ता कभी भी
प्राप्त नहीं होती, इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय दोनों का व्यापक अन्योन्य ग्रथित जो स्वरूप
है वही प्रकृति स्वरूप का अन्योन्य सम्बन्धित स्वरूप अर्द्धनारीश्वरत्व है। ५१. जो स्वरूप इन्द्रियों की अशक्ति के कारण प्रत्यक्ष नहीं होता है, जिसके संबंध ज्ञान के बिना
अनुमान नहीं लगाया जा सकता, जो शब्दादिकों से वर्णन नहीं किया जा सकता, जो ज्ञान
ज्योति रूप है वह अध्यात्म स्वरूप आप ही है। ५२. हे वरद, जिनका संसार माया प्रपज्य नष्ट हो चुका है, ऐसे परमानन्द ज्ञानस्वरूप परमात्मा
को जो जान लेते हैं, वे (रजोगुणी) रागत्याग से जितमनस्क होकर छाया के दृढ़ पाशवंचन से मुक्त होकर जीवन से मुक्त हो जाते हैं।
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परमार अभिलेख
५३. क्षुद्र विचार वालों का स्तुत्य जो सत्य लोकाधिपत्य एवं जो अणिमा आदि सिद्धियां चंचल
चित्तों द्वारा चाही जाती है, वह सब कुछ, हे मदनदहन, आपके चरणोपासक एवं तत्वज्ञान
का रसास्वादन करने वाले योगियों को विघ्नरूप ही होते हैं। ५४. हे त्रिनयन, (उपासक के लिये) दिगम्बर होना, पृथ्वी पर सोना, ब्रह्मचर्य व्रत धारण
करना, पवित्रता के लिए भस्म धारण करना, मौनव्रत धारण करना, दण्ड ग्रहण करना, भिक्षा मांग कर भोजन करना तथा वैराग्य वृत्ति धारण करना आदि व्रत धारण करने पर भी यदि
तत्वज्ञान नहीं है तो सब व्यर्थ है जैसे बिना नमक के पदार्थ स्वादरहित होता है। ५५. कर्मयोग से ब्रह्मलोक या इन्द्रादि लोकों में चिरकाल तक रहने पर भी पुण्य क्षीण होते ही
वहां से निपतन अवश्यंभावी है, परन्तु मानवों को वह शिवज्योति समस्त कर्म-विपाकों को
नष्ट करने वाला ज्ञानयोग से सुलभ है। ५६. शताश्वमेध यज्ञ के फल भोगने वाले इन्द्रादिकों को जो सुख स्वर्गलोक में प्राप्त होता है वही
सुख नरक में निवास करने वाले कीटादिकों को भी प्राप्त होता है, दोनों सुख समान प्रतीत होते हैं । द्वन्दभाव से ग्रस्त इस त्रैलोक्य में कहीं भी अत्याधिक सुख या दुख
नहीं प्राप्त होते । परन्तु हे भगवन् , आप तो इस द्वन्दबाधा से मुक्त हैं। ५७. मानवों का संसार बंधन नष्ट होते ही जो आपसे तादात्म्य हो जाता है, यदि वही मुक्ति है
तो हे भगवन् उससे क्या प्रयोजन ? तादात्म्य होने के बाद भले ही अन्धकूप में गिरू, आप मेरे स्वामी हैं और मैं सर्वदा आपका सेवक हूं। सेवक कभी स्वामी के पद की कामना नहीं
करता। ५८. वायु से कंपित कमलिनी पत्र पर स्थित रहने वाले जल के समान चंचल इस मानव जीवन
पर कौन विश्वास करे। हे भगवन्, सुन्दर स्त्रियों के प्रिय सहवासों में गाढ़ आलिंगन में मेरा
मन संलग्न न हो ऐसी कृपा कीजिये। ५९. हे त्रिनयनदेव, कामदेव आपके नेताग्नि के पुरातन संबंध को स्मरण करके बैर का बदला
लेने के लिए प्रदानशील होता हुआ सेवा के अनुराग से आप में संलग्न हुए मेरे मन पर बाणों
से प्रहार कर रहा है, प्रयत्नपूर्वक मेरी रक्षा कीजिए। ६०. हे भगवन्, भिक्षापात्र, मृगचर्म, पुरानी लंगोटी और मार्ग में पड़े चिथड़े की छोटी चादर
ये मेरी सामग्री है, मैं चाहता हूं आपके अनुग्रह से आपके चरणों में विपुल भक्ति एकमात्र
बनी रहे। ६१. हे भगवन् समस्त सृष्टि का सार आप ही हैं। इस देवलोक के परम उत्कर्ष द्योतक आप हैं।
हे कामदेव को भस्म करने वाले महादेव, संसार में आपका महात्म्य तो महादेव नाम से
विख्यात है । इस प्रकार चरम उत्कर्ष को पहुंचे हुए आपकी स्तुति मैं क्या करूं? ६२. काल के द्वारा ले जाए गए हुए प्राणी पुन: लौट कर जन्मग्रहण करते हैं और महाकाल
द्वारा ले जाया गया हुआ फिर लौट कर नहीं आता, मुक्त हो जाता है । ६३. शिशुओं की अस्पष्ट अक्षरों की तोतली बोली भी गुरुजनों को प्रिय लगती है, इस कारण
गुणरहित मेरे वचन आपको संतोष कारक होंगे। आपके गुण वर्णन से मैं थका हूं, जो भी
कुछ पुण्य मैंने सम्पादित किये हैं, उनसे अगले जन्म में भी मेरी आप में ही पूर्ण भक्ति होगी। ६४. दक्षिण राढ़ीय देश के नवग्राम से आये हुए हलायध नामक पंडित ने यह शिवस्तुति रची। ६५. प्रथम महादेव, द्वितीय महेश्वर, तृतीय शंकर, चतुर्थ वृषभध्वज
पंचम कत्तिवान, षष्ठ काम-नाशी. सप्तम देव-देवेश, अष्टम श्री कण्ठ
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धरमपुरी अभिलेख
६७... नवम ईश्वर देव, दशम पार्चतीप्रिय, एकादश रुद्र तथा द्वादश शिव ६८.. इन द्वादश नामों का जो पठन करेगा वह गोहत्या करने वाला, उपकार को न मानने वाला
ब्रह्महत्या करने वाला, गुरुपत्नि गमन करने वाला ६९. स्त्री हत्या, बाल हत्या करने वाला, मदिरापान करने वाला, शूद्रीपति, ये सब प्रकार के पापी
सब पापों से मुक्त होकर रुद्रलोक को जाते हैं। ७०. अविमुक्तेश्वर, केदारेश्वर, ओंकारेश्वर, अमरेश्वर तथा महाकालेश्वर ये पांच लिंग
(शिवरूप में) वर्णित किये हैं । ७१. हे भगवन्, अज्ञान या ज्ञान से जो विरुद्ध आचरण हो गया हो, पशुरूप उन सारे दोषों को
क्षमा करें, आप सारे कारणों के स्वामी हैं। ५१. स्वस्ति । श्री भोजनगर में श्री सोमेश्वरदेव मठ में निवास करने वाले, नंदियड ग्राम से आये
हुए प्रणाम गोत्री, नियम-संयमी, स्वाध्याय, ध्यान-अनुष्ठान रत, परम शैव आचार्य भट्टारक श्री भववाल्मीक, श्री अमरेश्वर देव त्रैलोक्याधिपति के ध्यान से पुण्य संचित करने वाले,
इच्छित से अधिक दान देने में रत त्रिकाल संध्या व ५२. समाधि करने में गुरु परम्परा के विधान से युक्त श्री अमरेश्वर देव के चरण कमलों पर भ्रमरों
के रूप में मंडराने के लिए लम्बे मार्ग चल कर आये हुए, थके हुए तपस्वियों के संताप को
(दूर करने वाले) ५३. श्री अमरेश्वर देव के दर्शन हेतु सदा मूर्ति के समीप निवास करने वाला भट्टारक श्री भावसमुद्र।
पांडित्य में ब्रह्मदेव के समान शिव को प्रणाम करता है। ५४. ओं. स्वस्ति । श्री अमरेश्वर देव के मंदिर में बैलोक्य में विख्यात स्थान में देव व दानवों में
दुर्जय देवगुरु की सेवा में संलग्न परमभट्टारक श्री ५५. सुपूजित राशि, उसका शिष्य विवेक राशि। फिर उसका शिष्य चपलगोत्र से आया हुआ,
सहज भक्ति वाला, शांति श्री मूर्ति ५६. पंडित गंधध्वज ने परमभक्ति से यह महिमायुक्त हलायुध स्तुति अपने हेतु स्वयं लिखी
है ।। संवत् ११२० कार्तिक वदि १३ ।। महाश्रीः मंगलकारी हो ।।
धरमपुरी से प्राप्त प्रस्तर खण्ड अभिलेख
(तिथिरहित व खंडित)
प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है जिसका पाठ १९४४ ई. में छपी पुस्तिका परमार इंस्क्रिप्शनस् इन धार स्टेट, पृष्ठ ८८ पर दिया हुआ है । अभिलेख की प्राप्ति का विवरण, स्थिति, आकार, अक्षरों की बनावट आदि के संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है । प्रस्तर खण्ड वर्तमान में अज्ञात है। पाठ १० पंक्तियों का है परन्तु एक भी पंक्ति पूरी नहीं है। यह भी निश्चित नहीं है कि पाठ गद्यमय है अथवा पद्यमय है। . .
अभिलेख की पंक्ति ३ में नरेश आहवमल्लदेव का उल्लेख है, परन्तु उसका संदर्भ अनिश्चित् है। आहवमल्ल पश्चिमी चालुक्य नरेश इलिववेडंग सत्याश्रय का अन्य नाम था। वह तैलप द्वितीय का पुत्र व उत्तराधिकारी था। उसने ९९५ ई. में अपने पिता के साथ परमार वाक्पति द्वितीय के
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३४०
परमार अभिलेख
विरुद्ध अभियान में भाग लिया था। इसी पंक्ति में आगे नवसाह का उल्लेख है जो संभवतः नवसाहसांक का प्रथमार्द्ध है। यह परमार नरेश सिधुल या सिंधुराज का उपनाम था। यहां इस उल्लेख का प्रयोजन अज्ञात है।
पंक्ति ४-६ में विश्वामित्र एवं वसिष्ठ की धेनु का टूटा फूटा विवरण है। पंक्ति ७ में वैरिसिंह नाम पढने में आता है जो परमार राजवंशीय शृंखला में प्रारम्भिक नरेश था। परन्तु यह उल्लेख यहां क्यों है, सो अनिश्चित् है। आगे चेदिनाथ का उल्लेख है। यह चेदि नरेश गांगेय विक्रमादित्य हो सकता है, जिसको भोजदेव ने युद्ध में हराया था। इसका संदर्भ भी अज्ञात है। पंक्ति ८ में श्री हर्षदेव का उल्लेख है। यह परमार नरेश सीयक द्वितीय का उपनाम था। इसका संदर्भ भी अज्ञात है।
आगे का अभिलेख भग्न हो गया है। यह कहना संभव नहीं है कि भग्न भाग कितना रहा होगा। अभिलेख में न तो कोई तिथि है एवं न ही यह ज्ञात करने का साधन है कि इसका प्रयोजन क्या था। इसमें किसी भौगोलिक नाम का उल्लेख प्राप्त नहीं होता।
उपरोक्त विवरण के आधार पर वर्तमान स्थिति में अभिलेख का महत्व उजागर करने में कठिनाई है।
(मूलपाठ) १. शिखाजनितकज्जल- . . . वुद्धा ।। दृष्ट्वा प्रफुल्ल नयनोत्पलं या २. त्यवं पूर्वश्चिरम् ।। मौलींदुःकेतकीनाकुलनलिक तटी लक्ष्मनेत्रं ३. . . . . नलस्तस्याप्याहवमल्लदेव नृपतेंदोर्दण्ड . . . . दूहरः ।। तेन श्री नवसाह ४. . . . स दो विश्वामित्रनृप . . . षा वचस्वतीः ।। अथ ५. सकलमहान्तां वशिष्ठस्य धेनु . . . स्व सुखरकरान्मुक्त पुण्याबकी ६. त्यद्भुतं . . . . परस्तेजस्विना न ग्रहम् ।। तदुपदुज्ञ ७. धरामडल ।। वैरिसिहः . . . . . . . . न्मधि चेदिनाथे ग्लपितगरिमणिक्षा . . ८. ज्वलित भूवलयो बभूव ।। श्रीहर्षदेव इति विश्रुत कीर्तिरूच्चैरु . . . . ९. असौ दण्डनिपातेन उद्यानकलशं तथा . . . . १०. कार ।। सह भवति . . .
(अनुवाद) १. ज्वाला से उत्पन्न काजल . . . . जान कर । विकसित नयन कमल को देखकर . . . २. . . . . . । शंकर केवडा नेवला नाली तट चिन्हनेत्र (?) ३. नल उसका भी आहवमल्लदेव राज के भुजदण्ड . . . . असह्य । उसने श्री नवसाह ४. . . . . भुजा विश्वामित्र नरेश . . . . वाणियुक्त । अब ५. सब में श्रेष्ठ वसिष्ठ की धेनु . . . अपने देवश्रेष्ट के हाथ से मुक्त पुण्यपंक्ति ६. अतिविचित्र . . . . श्रेष्ट तेजस्वी के द्वारा ग्रहण नहीं। उसके समीप ७. धरामण्डल पर। वैरिसिंह . . . . . । . . . . चेदिनाथ जिसकी गरिमा म्लान
हो चुकी है. . . ८. भूमण्डल को जिसने प्रज्वलित कर दिया है ऐसा हुआ। श्री हर्ष देव ऐसा विख्यात कीर्तिवाला
उन्नत ९. यह दण्ड के गिराने से उद्यान के कलश को उस प्रकार . . . . १०. . . . . । साथ होता है. . . .
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इन्दौर अभिलेख
(८२)
इन्दौर संग्रहालय परमार नरेश श्री हर्ष का अभिलेख
(अपूर्ण) प्रस्तुत अभिलेख का उल्लेख एनअल रिपोर्ट, एपिग्राफिया डिका, १९५०-५१, अपेंडिक्स बी, पृष्ठ २१, क्रमांक १२५ पर किया गया है। इसमें संभवतः तिथि का अभाव है। अभिलेख भग्नावस्था में है । इसमें किसी एक श्री हर्ष का उल्लेख है जो संभवत: इस नाम का कोई प्रारम्भिक नरेश रहा होगा। अन्य विवरण प्राप्त नहीं है।
(८३)
इन्दौर संग्रहालय प्रस्तर खण्ड अभिलेख
(अपूर्ण) प्रस्तुत अभिलेख का उल्लेख एन्नुअल रिपोर्ट एपिग्राफिया इंडिका, १९५०-५१, अपेंडिक्स बी, पृष्ठ २१, क्रमांक १२६ पर किया गया है । इसमें संभवतः परमार नरेशों का स्तुतिपरक विवरण है। इसमें वैरिसिंह, सीयक, वाक्पति व सिंधुराज के नाम पढ़े जा सकते हैं । अन्य विवरण प्राप्त नहीं है।
(८४) भावनगर संग्रहालय हरिराज का प्रस्तर खण्ड अभिलेख
(अपूर्ण) प्रस्तुत अभिलेख एक खण्डित शिला पर उत्कीर्ण है जो गांधी स्मृति संग्रहालय, भावनगर में सुरक्षित है। इसका उल्लेख इंडियन आकियालाजी, ए रिव्यू, १९६०-६१, पृष्ट ४४, क्रमांक २१ पर किया गया है। इसमें परमार वंशीय किसी हरिराज नामक शासक का उल्लेख है। उसके मंत्री का नाम 'सुद' था। प्राप्त परमार राजवंशीय वंशावली में इस नाम का कोई नरेश ज्ञात नहीं होता । अतः संभावना यह है कि वह कोई प्रान्तीय शासक रहा होगा।
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३४२
परमार अभिलेख
(८५)
उदयपुर से प्राप्त हरिराजदेव का प्रस्तर खण्ड अभिलेख
(अपूर्ण)
(संवत् १३६० = १३०३ ई.) प्रस्तुत अभिलेख विदिशा जिले के अन्तर्गत उदयपुर में स्थित प्रख्यात उदयेश्वर मंदिर के पूर्वी द्वार के भीतर दीवार में लगे एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है। इसका उल्लेख इंडियन एंटिक्वेरी, भाग २०, १८९१, पृष्ठ ८४, मिले जुले नोट्स, क्रमांक ६ पर किया गया है।
अभिलेख कुल ४ पंक्तियों का है, जिसका क्षेत्र २४ x १४ से. मी. है। अक्षरों की लम्बाई प्रायः २१ सें. मी. है। इसकी भाषा संस्कृत है। प्राप्त विवरण में अभिलेख की केवल प्रथम पंक्ति का पाठ दिया हुआ है जो इस प्रकार है-“[संवत् १३६० [रा?] श्री हरिराज [देव ?]. . ."।
वर्तमान में यह कहना कठिन है कि यह हरिराज कौन था । परन्तु भावनगर अभिलेख में उसको परमारवंशीय निरूपित किया गया है। वैसे ज्ञात परमार राजवंशावली में इस नाम का कोई नरेश नहीं है। अतः संभावना यह है कि वह कोई प्रान्तपति रहा होगा।
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सहायक ग्रन्थ सूची
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सहायक ग्रन्थ सूची मूल ग्रन्थ (संस्कृत, प्राकृत और अपनश)
अग्नि पुराण अमरसिंह अमितगति अर्जुनवर्मन्
अरिसिंह आशाधर उद्योतन सूरि कल्हण क्षेमेन्द्र
जयसिंह सूरि
-सम्पादन एम. एन. दत्त, कलकत्ता, १९०३ -अमरकोष, सम्पादन गुरुप्रसाद शास्त्री, वाराणसी, १९५० -सुभाषित रत्नसंदोह, सम्पादन भवदत्त शास्त्री एवं पणशीकर, बम्बई, १९१९ -रसिक संजीवनी (अमरुशतक पर टीका), सम्पादन दुर्गाप्रसाद एवं परब, बम्बई,
१९१६ -सुकृतसंकीर्तन, सम्पादन मुनिपुण्यविजय, बम्बई, १९६० -धर्मामत, सम्पादन पंडित वंशीधर व मनोहरलाल, बम्बई, १९१९ -कुवलयमाला, सम्पादन ए. एन. उपाध्ये, बम्बई, १९५९ -राजतरंगिणी, सम्पादन एम. ए. स्टीन, लन्दन, १९०० -औचित्यविचारचर्चा, काव्यमाला सीरीज़, बम्बई, १८९३ -कविकण्ठाभरण, काव्यमाला सीरीज़ क्र. ४, बम्बई, १८८७ -सुवृत्ततिलक, सम्पादन दुर्गादास एवं परब, बम्बई, १८८९ -कुमारपाल भूपाल चरित, सम्पादन शांतिविजय गणि, बम्बई, १९२६ -सुकृतकीर्ति कल्लोलिनी, सम्पादन सी. डी. दलाल, गायकवाड ओरियन्टल सीरीज,
बड़ौदा, १९२६ -हम्मीरमदमर्दन, सम्पादन सी. डी. दलाल, गायकवाड ओरियंटल सीरीज़, बड़ौदा,
१९२० -सूक्तिमुक्तावली, सम्पादन कृष्णमाचार्य, बड़ौदा, १९३८ -पृथ्वीराज विजय, सम्पादन गौरीशंकर ओझा एवं गुलेरी, अजमेर, १९४१ -कुमारपाल प्रबंध, सम्पादन चतुर्विजय मुनि, भावनगर, १९१४ -तिलकमंजरी, सम्पादन पंडित भवदत्त शास्त्री एवं के. एन. पांडुरंग परब, बम्बई,
१९०३ -दुर्गासप्तशती, सम्पादन पंडित रामनारायण दत्ताजी शास्त्री, गोरखपुर, १९५६ -पाइयलच्छीनाममाला, सम्पादन जी.वूलर, गोटिजन, १८७९ -दशरूपक, सम्पादन सुदर्शनाचार्य शास्त्री, बम्बई, १९१४ -नवसाहसांक चरित सम्पादन पंडित वामन शास्त्री इसलामपुरकर, बम्बई संस्कृत सिरीज क्रमांक ५३, १८९५; इंडियन ऐन्टीक्वेरी, भाग ३६, पृष्ट १६३ व आगे। -त्रिकाण्डशेष सम्पादन सी. ए. सीलक्खण्ध, बम्बई, १९१६
जल्हण जयानक जिनमंडन
धनपाल
धनञ्जय .
पद्मगुप्त
पुरुषोत्तम
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३४६
प्रभाचन्द्र
"
प्रल्हादन बल्लाल बालचन्द सूरि बिल्हण
मदन माधव मेरुतुंग राजशेखर लक्ष्मीधर वल्लभदेव वस्तुपाल
-प्रभावकचरित् सम्पादन मुनि जिनविजय, अहमदाबाद, १९४० -न्यायकुमुदचन्द्र, सम्पादन पंडित महेन्द्र कुमार शास्त्री, बम्बई, १९४१ -पार्थपराक्रम, सम्पादन सी. डी. दलाल, बड़ौदा, १९१७ -भोजप्रबन्ध, सम्पादन जगदीशलाल शास्त्री, पटना, १९६२ --वसन्तविलास, सम्पादन सी. डी. दलाल, बड़ौदा, १९१७ -विक्रमांकदेव चरित, सम्पादन जी. वूलर, बम्बई, १८७५ -युक्तिकल्पतरु, सम्पादन ईश्वरचन्द्र शास्त्री, कलकत्ता, १९१७ -राजमार्तण्ड, सम्पादन पी. वी. काणे, एन्नलस ऑफ भण्डारकर आरियंटल रिसर्च
इन्स्टीट्यूट, भाग ३६, पूना -शृंगारप्रकाश, सम्पादन जी. आर. जोसेयर, मैसूर, १९५५ -शृंगारमंजरी कथा, सम्पादन डॉ. कुमारी के. मुन्शी, बम्बई, १९५८ -समरांगण सूत्रधार, सम्पादन श्री गणपति शास्त्री, बड़ौदा, १९२४ -सरस्वती कण्ठाभरण, सम्पादन जीवानन्द विद्यासागर, कलकत्ता, १८९४ -पारिजातमंजरी, सम्पादन हुल्त्ज, एपिग्राफिया इंडिका, भाग ८, पृष्ठ ९६ व आगे। -सर्वदर्शन संग्रह, सम्पादन अभयंकर, पूना, १९५१ -प्रबंध चिन्तामणि, सम्पादन मुनि जिनविजय, शांतिनिकेतन, १९३२ - -प्रबंधकोश, सम्पादन मुनि जिनविजय, शांतिनिकेतन, १९३५ -कृत्यकल्पतरु, सम्पादन रंगास्वामी आयंगर, बड़ौदा, १९५३ -सुभाषितावली, सम्पादन पीटरसन एवं दुर्गादास, बम्बई, १८८६ -नरनारायणानन्द, सम्पादन सी. डी. दलाल, बड़ौदा, १९१६ -वृत्तरत्नाकर पर टीका, जर्नल ऑफ दी बाम्बे युनिवर्सिटी, भाग २१-२३,
१९५१-५४ -नीतिवाक्यामृत, सम्पादन पन्नालाल सोनी, बम्बई, १९२२ -यशस्तिलक, सम्पादन पंडित शिवदत्त, बम्बई, १९१६ -कीतिकौमुदी, सम्पादन मुनिजिनविजय, बम्बई, १९६० -मानसोल्लास, सम्पादन शृंगोन्डेकर, बड़ौदा, १९३० -सुरथोत्सव, सम्पादन शिवदत्त एवं परब, बम्बई, १९०२ -मृतसंजीवनी (पिंगल के छन्दशास्त्र पर टीका), सम्पादन केदारनाथ, . बम्बई, १९३८
सुल्हण
सोमेश्वर सूरि
सोमेश्वर
हलायुध
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३४७
(फारसी ग्रन्थ) अब्दुलकादिर बदाऊनी-मुन्तरवलुतवारीख, सम्पादन जी. एस. रैकिंसन, कलकत्ता, १८९८ अबुल फजल-आईने अकबरी, सम्पादन यदुनाथ सरकार, कलकत्ता, १९४८ अमीर खुसरु -खजैनुल फुतुह (तारीखे अलाई), सप्पादन मुहम्मद हबीब, बम्बई, १९३३ अलगर्दीजी-किताब जैनुलअखबार, सम्पादन एम. नजिम, बलिन, १९२८ अलबरुनी-कितावुलहिन्द, सम्पादन सचौ, लंदन, १९१४ मिनहाजुद्दीन बसिराज-तबकाते नासिरी, सम्पादन रेवटी, कलकत्ता, १८९७ हसन निजामी -ताजुलमआसिर, सम्पादन इलियट एवं डाऊसन, भारत का इतिहास
भाग २, पृष्ठ २०४-२४३
राजस्थानी ग्रन्थ
दयालदास सिंढयाच-पंवार वंश दर्पण, सम्पादन दशरथ शर्मा, बीकानेर, १९६० नैणसी-मुहणोत ख्यात, सम्पादन आर. एन. दुग्गड, बनारस, १९२५
गज टीयर, रिपोर्ट स एवं जर्नल
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पृष्ठ १०९ व आगे
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जर्नल ऑफ अमेरिकन ओरियंटल सोसाईटी, यू. एस. ए. जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाईटी ऑफ बंगाल, कलकत्ता जर्नल ऑफ ओरियंटल इंस्टीट्यूट, बड़ौदा जर्नल ऑफ गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टीट्यूट, इलाहाबाद जर्नल ऑफ न्यूमिस्मेटिक सोसाईटी, बनारस जर्नल ऑफ बाम्बे ब्रांच ऑफ रायल एशियाटिक सोसाईटी, बम्बई .. जर्नल ऑफ बाम्बे युनिवर्सिटी, बम्बई नागरी प्रचारिणी पत्रिका, बनारस पूना ओरियंटलिस्ट, पूना प्रोग्रेस रिपोर्ट ऑफ आर्कियालाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, वेस्टर्न इंडिया प्रोविंशल गजेटियर ऑफ सेंट्रल इंडिया, १९०८ प्रोसीडिंग्स् एण्ड ट्रांजेक्शन्स ऑफ आल इंडिया ओरियंटल कांफ्रेंस प्रोसीडिंग्स एण्ड ट्रांजेक्शन्स् ऑफ रायल एशियाटिक सोसाईटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैंड मालकम्स मेमोयर्स ऑफ सेंट्रल इंडिया, लन्दन, १८२३ राजपूताना गजेटियर, भाग १, कलकत्ता, १८७९ राजपुताना गजेटियर, भाग ३ अ, १९०९ राजस्थान भारती, बीकानेर रिपोर्ट ऑन दी प्रोविस ऑफ मालवा एण्ड एडजायनिंग टेरीटरीज़, मेजर मालकम, १९२२ रूपम, कलकत्ता शोध पत्रिका, उदयपुर
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डेरेट जे. डी. एम.
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पुरी बी. एन. प्रतिपाल भाटिया
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हबीब एम. हबीबुल्ला ए. वी. एम. - फाउंडेशन ऑफ मुस्लिम रुल इन इंडिया, लाहौर, १९४५
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नामों की सूची
अनयसिंह साधनिक २९२
अनल १२०, १२३, १२५ अकलेरा १३४
अन्तस्थ १४ अकालवर्ष देव २, ३, ४, ५, ६
अन्हिलपाटन ३९, ४१ अकोला २५४, २५९, २६४
अप्पायी ब्राह्मण १०५, ११०, ११२ अगस्त्य मुनि ३१८, ३२०, ३२१
अफगानिस्तान १५७ अगारवाहला १३, १४
अभिधान रत्नमाला ३२४ अग्निहोतृ भारद्वाज २, ९, २११, २१२ अभिनन्दन शर्मा २४५, २६०, २६५ अचल २४, २८, ३१
अमझेरा २८९ अज १५६, १६१,१६६
अमडा प्रतिजागरणक २१९, २२१, २२२ अजमेर २३१
अमरवाडा परगना २२० अजयगढ़ शिलालेख १७३
· अमरूशतक ११६ अजयदेव राजश्री महाप्रधान २८४, २८७ अमरेश्वर ८८, ८९, ९१, ३२४, ३३३, अजयपाल चौलुक्य २३५ अजयपालदेव २०२, २०३, २०४
अमरेश्वर तीर्थ २४४, २४५, २४६, २८०, २८३, अजयवर्मन् १९३, २४४, २४६, २५३, २५८, २८६
२६२, २८०, २८१, २८५, २९३, ३०१, अमरेश्वर पट्टशाला ८७, ८८, ८९, ९१ ३०२, ३०६, ३१०, ३११, ३१४
अमात्त शर्मा २४, २९, ३२ अजयसिंह २९४, ३०३, ३११
अमितगति ३४ अजयी चतुर्वेद २५६, २६१, २६६
अमेरा १४७, १५९ अणहिलवाड़ पत्तन ४, ८०, ११८
अमोघवर्ष तृतीय २ अणहिल्ल चाहमान ७३
अमोघवर्षदेव प्रथम २, ३, ५, ६, १३, १४, २५, अत्रि शर्मा २९६, ३०५, ३१३ अत्रु १३५, २७२, २७३
अम्बाला जिला १५८ अदवर्दी १५८
अम्मदेव आचार्य ७९,८३,८५ अद्रियलविदावरी २०५, २०६, २०७
अम्मराणक ७९,८३,८५ अद्रेलविद्धावरि १९३, १९४, १९६
अयक २४, २६, २८, ३१ अधिद्राणाचार्य वंश २०२, २०३, २०४
अयोगवाह १४० अनन्त नरेश ७३
अयोध्या १८० अनन्त शर्मा २५५, २६०, २६५, २९६, ३०५, अरनाथ तीर्थंकर १९७, १९८
अरिकेसरी शिलाहार ५३ अनन्तादित्य शर्मा २४
अरिबलमथन १०४, १०९, १११ अनयसिंह चाहमान २९४, २९५, २९६, ३०४, अरिसिंहदेव राजश्री २७५ ३१२
अर्जुन कायस्थ पंडित २७५, २७६, २७७ अनयसिंह वर्मा २९६, ३०६, ३१४
अर्जुनवर्मन द्वितीय ३१५
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________________
३५१
अर्जुनवर्मन् प्रथम ११६, १८७, २३२, २३४, आदिलाबाद जिला १८१, १८५
२३५, २३६, २३८, २३९, २४०, २४२, आदिवलाविदा १५१, १५२, १५३, १५४ २४३, २४४, २४५, २४६, २४७, २४८, आनन्दपुरी नगरी २, ६, ७, ८, ९ २४९, २५३, २७४, २७६, २७७, २८०, आनन्द शर्मा २९६, ३०५, ३१३ २८२, २८५, २९३, २९४, ३०१, ३०३, आनोह २४, २८, ३१ ३१०, ३११
आबु पर्वत ९२, ११३, ११४, १२२, १२३ अ\णा ४८, ९३
आबु (परमार) शाखा ११४ अर्द्धठिक्करिका ग्राम १९९, २००, २०१ आमदेव पंडित २८०, २८४, २८७ अर्बुद १४०, १६०, १६६, १८३, १८४
आयंगर पी. टी. श्रीनिवास १४५ अर्बुद (परमार) शाखा २९२
आलदेव शर्मा २९६,३०५, ३१३ अलाऊद्दीन खिल्जी २८८, २९४, ३१५
आवरक भोग २३, २६, ११७ अल्तेकर ए. एस ६४, ८१, १३५
आवल्लदेवी २३ ११७ अल्लण देवी १५७
आशादित्य २४ २९ ३२ अल्लि शर्मा २५६, २६१, २६६
आशाधर जैन आचार्य २३२ २३४, २३५, २३६, अवन्ति ११४, १२२, १२४, २०३, २७४
२५४, २५८, २७१, २९४ अवन्तितिलक ११७
आशाधर त्रिवेद २५४, २५९, २६४ अवन्तिपति २३६
आशाधर द्विवेद १७३, १७४, १७६ अवन्ति मण्डल ३३, ३४, ३६
आशुरेश मण्डल २४, २८, ३१ अवन्तीश्वर ११७
आश्रम २५४, २५९, २६३ अवार ग्राम २६
आष्टा तहसील ४३ अविमुक्तेश्वर ३२३, ३२४, ३३३, ३३९ आसराज उत्कीर्णकर्ता ९८, १०२ अविवा २४, २६, २८, ३१
आसाम २५ अश्वत्थामा कवि १८५, १९०, १९२
आसिनी सामन्तपत्नी १८, २०, २१ अष्टाध्यायी १४१
आहवमल्ल सत्याश्रय ३९, ३३९ असिपुत्रिका १४०, १४२, १४४
आंध्र प्रदेश ६१, १८५, १८६ अहड़ बटुक २०९, २१२, २१४
आंध्र सातवाहन १७२ अहमदाबाद १, ४, ८, ३७, ३९, ४१ अहिछत्र १३, १४, १५, ११६ अंग-कलिंग सेना १५७
इब्राहिम सुल्तान १५८ इन्दौर ५३, ६०, १५१
इन्दौर क्षेत्र ११७ आईने अकबरी ३,१०८
इन्दौर जिला ५१, ६१ आकर प्रदेश २८७
इन्दौर संग्रहालय २७५ आक्सस नदी १५७
इन्द्रपाल नरेश २५ आगर २६
इन्द्ररथ चेदि ७२, ११८, ११९, १२३, १२५ आगरा क्षेत्र १५८
इलियट व डाऊसन २९४ आतुक २४, २८, ३१
इलिववेडंग सत्याश्रय चालुक्य ३३९ आदि नगर ११९
इल्तुतमिश २६९,२८८, २९३
आ
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________________
३५२
इसलामपुरकर वामन शास्त्री ४० इहलुक श्रेष्ठिन् १९७, १९८ इंग्नोद १५२ इंगुणीपद्र सार्द्धसप्तशत भोग १५१, १५३
ईश्वर ब्राह्मण २४, २९, ३२
.
उकावद १९४ उज्जयिनी १३, १४ उज्जयिनी नगरी ५३ उज्जयिनी दक्षिण धाम १३ उज्जयिनी पश्चिम पथक ६०,६१, ६३ उज्जयिनी विषय ३३, ३४, ३६ उज्जन १७, २२, २६, ५६, ५७, १३१, १३२,
१३३, १३९, १४०, १४१, १४४, १४६, १४७, १५८, १७४, १७९, १९२, १९९,
२०४, २३१, २४० उज्जैन जिला २६, २५२, २९५ उज्जैन ताम्रपत्र ५२ उत्तरकुल २४, २८, ३१ उत्तरकुल देश २६ उत्तर पट्टक २१६ उत्तर प्रदेश २६, २५७ उत्तराणक ग्राम २४१, २४२ उत्तरायण ५७ उत्तरी भारत १७१ उत्पल (वाक्पति मुंज) ३९, ११६ उथवणक ग्राम १९३, १९४, १९५, १९६ . उदगयन पर्व ३३, ३५, ३६, ५७, ५९, १७३ उदयपुर १०३, ११३, १२५, १२६, १२९, १३०,
१३४, १४७, २१०, २६७, २६९, २७१,
२९०, ३१५, ३१६, ३४२ उदयपुर क्षेत्र १०४ उदयपुर जिला १७७, १७८ उदयपुर नगर १२९
उदयपुर प्रशस्ति ११, १३, २६, ७१, ७२, ८७,
८८, १०५, १०६, १०८, १०९, १२६, १२७,
१३४, १४०, १५६ उदयवर्मन् १९३, २१०, २२४, २२५, २२६.
२२७, २२९, २३१, २४९, २९३ उदयसिंह ४३ उदयाचल ११९ उदयादित्य ४, ११, २६, ६५, ७२, ७९, ८८,
१०४, १०५, १०६, १०७, १०८, १०९, ११०, १११, ११२, ११४, १२०, १२१, १२३, १२५, १२६, १२७, १२८, १२९, १३०, १३१, १३२, १३३, १३४, १३५, १३६, १३७, १३८ १३९, १४०, १४१, १४२, १४४, १४५, १४८, १५०, १५४,
१५६, १५७, १५८, १५९, १६३, १६८, - १७१, १७२, १७७, १८१, १८२, १८३,
१८४, १८६, १८८, १९०, १९१, १९४, १९५, २२०, २२१, २२२, २२५, २३५, २३६, २३८, २४०, २४२, २४४, २४६, २५७, २६२, २६३, २८१, २८४, २९०,
२९३, ३०१, ३०९ उदयादित्य (ज्ञातपुत्र) १०३ उदयादित्यदेव १५, १५१, १५२, १५३, १५४,
१७३, १७५, १७६, १९३, २०५, २०६ उदयेश्वर २७० उदेशर्मा २५५, २६०, २६५ उद्धरण द्विवेद २०९, २११, २१३ उद्धरण शमा २९६, ३०५,३१३ उद्धव १२० उधर शर्मा २५६, २६१, २६६ उन्दपुर २४९, २५०, २५१ उन्दवा ग्राम २४९ उपरिहाडा मण्डल २७३ उपानस्य गोत्र (औपमन्यव) ३८ उपेन्द्र १०९, ११४, १२२, १२४ उपेन्द्रपुर मण्डल १७३, १७४, १७६ उम्बराचर २४, २८, ३१ उलजमुन ग्राम २२५ उशनस १२०
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________________
३५३
ऊन नगर १४१, १४६ । ऊष्म १४०
ऋषि त्रिवेद २५६, २६१, २६६
ओझा गौरीशंकर ४७, ६०, ६१, ९१, ११४ ओहिन्द नगर ७२ ओंकारेश्वर २५२, ३२४, ३३३, ३३९
औ
औगसि ताम्रपत्र १७३ औद्रहादि विषय ७९, ८३, ८५ औफेक्ट १२०
कन्हड पंडित २५५,२६०,२६५. कन्हाक रूपकार ३०६, ३१४ कपड ग्राम ५३ कपडवंज अभिलेख ४ कपिला नदी २४४, २४५, २४६, २८०, २८३,
२८६ कपिष्ट ३९, ४२ कमलसिंह चाहमान २९५, ३०४, ३१२ कमलादेवी (महिषी) ११५ कमलाधर चतुर्वेद २९६, ३०४, ३१२ कंबलसिंह २७५, २७७, २७८ कमंडलुधर धाराधीश २९२, २९९, ३०८ करिवर्ष (उपाधि) ७३ कर्च ग्राम ३४ कसिका ग्राम १३६, १३७,१३८ करनाल जिला ५३,७३ करहाड ताम्रपत्र २ कर्ण कल्चुरी २६, १५७, १५८ कर्ण चेदि ११७ कर्ण नरेश १०६, १५६, १६२, १६८, १८६,
१८८, १९१ कर्णाट ५६, ५८, ५९, ७२, ७९, ८०, ८३, ८५,
१०५, १०६, ११६, १२०, १२२, १२३,
१२४, १२५, १५६, १६२, १६८ कर्णाट (दक्षिण) ब्राह्मण १९३ कर्णावद २५२ कर्णोराज १८७ कलकलेश्वर तीर्थ ७९, ८१, ८३, ८५ कल्चुरि ८८, ११४, १२०, २२० कल्याणी ८८ कल्हण १२०, १९३ कविरहस्य ग्रन्थ ३२४ कवीन्द्रवचन समुच्चय ३१९ कंकदेव ९३ काठियावाड ४ कान्तिसागर मुनि ७७, १५४ कान्यकुब्ज ४,७१, ७२, ७३, ७४, ७६ कान्हड़ पंचकल्पी २५६, २६१, २६६ कान्हड़ शिल्पी २८४, २८७
कक्कपैराज ७९, ८३, ८५ कच्छपघात अभिलेख १५२ कटारे संतलाल २०२ कटुक अग्निहोतृ २५६, २६१, २६६ कडच ग्राम ३४ कडहिच्छक ग्राम ३३, ३४,३६ कडोद ग्राम २९५ कणोपाग्राम ३३, ३४, ३५,३६ कण्ठा दुर्ग ११९ कण्ह (सेनापति) ९२, ९७, १०१ कण्हपैक १२, १५, १७ कदम्बपद्रक १७२, १७४, १७६ कनकसिंह २९२, २९३, २९९, ३०४ कनिष्क ७२ कनिंघम ए. ४, ७३, ११३, १२६, २०७, २७१,
२८९ कनौज २६
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________________
३५४
काबुल ७२
कुमार पाल २३५ कामरूप ११५
कुमारपाल प्रबन्ध १८७ कामरोड ५
कुम्भाडाउड ग्राम २९५, ३०४, ३१२ कामलीखेड़ा १७४
कुम्भारोटक ग्राम २, ५ कामेद १३१, १५९
कुरवाई केथोरा परगना १८९ कामेद स्तम्भलेख १५९
कुरुक्षेत्र ७३ कार्तवीर्य ९८, १०२
कुलचन्द (सेनापति) ८० काल १२०, १२३, १२५
कुलधर ठकुर २०९, २१२, २१४ काल्वन ७८,८१
कुलधर शर्मा २५५, २५६, २६०, २६१, २६५, काल्वन ताम्रपत्र ५३, ११३, ११८, ११९, १५२ २६६ कावड २४, २८, ३१
कुलाञ्चा २४, २५, २८, ३१ कावेरी नदी २९५
कुलुतुंग चोल १८६ काव्य निर्णय ११७
कुलूत नरेश ७२ काव्यप्रकाश १२०
कुलेनूर अभिलेख ८०, ११८ काश्मीर ७२,७३, १९३
कुविलारा नदी १५२, १५३, १५४, २४४, २४५, काश्मीरी लोग १५८
२४६ कांकडा खाई ७९, ८३,८५
कुसुमपाल शर्मा २५६, २६१ कांगडा जनपद १५८
कुल्हण शर्मा २९६, ३०५, ३१३ किरिकैक ग्राम ६०, ६१, ६३
कृष्ण तृतीय, २, ३ कीर जाति १५८
कृष्ण द्वितीय २ कीर स्थान १५८
कृष्णन के. जी. २०७ कीर्तने नीलकण्ठ जनार्दन १२,५६, ५७
कृष्ण याज्ञिक २५५, २६०,२६५ कीर्तिराज ८०, ११८
कृष्ण यादव २७२, २८० कीर्तिवर्मन चन्देल १७३
कृष्णराजदेव १३, १४, १६, १९, २१, २५, ३४. कीलहान १७, ८६, १०८, १५५, १९२, १९३, ३६, ११४
१९९, २०४, २१९, २२५, २३४, २४८, कृष्ण शर्मा २९६, ३०५, ३१३ २५२, २७१
कृष्णा नदी १८६ कील्ला श्रेष्ठिन् ३९, ४२
केकू दीक्षित २८०, २८३, २८६ कुञ्ज ठक्कुर २०९, २१२, २१४
केदारेश्वर १२, १२३, १२५, ३२४, ३३३, ३३९ कुटुम्बिक ७९, ८३, ८६
केन्या (केन्वा) ग्राम २४, ३४ कुडणक ठक्कुर ६५, ६६, ६७
केरल ११६, १२२, १२४ कुदलकर जे. एस. ७१, ७२
केलादित्य ३९, ४२ कुन्तल देश १८३
केल्हण दीक्षित २५४, २५९, २६४ कुन्तल नरेश १०७, १८२, १८४, १८५ केशव २४९, २५०, २५१, २५२ कुन्तलपति १८२
केशव ठकुर १७५, १७७ कुन्थुनाथ १९७, १९८
केशव दीक्षित २५५, २६०, २६५ कुप्तका २८८, २८९
केशवादित्य ठकुर ३९, ४२ कुमर पंचकल्पि २५६, २६१, २६६
कैम्बे ताम्रपत्र १०८ कुमार नारायण ११७
कर स्थान ५३
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३५५
कैलाश ११९, १२२, १२४ कोट कांगड़ा १५८ कोटा १३४, १७१ कोटा जिला ६४, १३५, २७२ कोणापा २४, २५, २७, ३० कोलार नदी २४४ कोषवर्द्धन १९७ कोषवर्द्धन दुर्ग १३५, १३६, १३७, १३८ कोसलराज ११७ कोंकण अधिपति ७९, ८०, ८३, ८५ कोंकण क्षेत्र ५३ कोंकण विजयग्रहणपर्व ५२, ५३ कोंकण विजय पर्व ५२, ५४, ५५ कौटिल्य ४८ कौस्तुभ स्मृति १३६ क्षीरस्वामिन् द्विवेद २०९, २११, २१३ क्षीरस्वामी १२० क्षेमराज मण्डलीक २२९,२३१ क्षेमेन्द्र ११६ क्वीन्स म्यूजियम ६८
गजनी १५७ गजाधर शर्मा २९६, ३०५, ३१३ गदाधर शर्मा २५५, २६०, २६५ गधिया मुद्रायें ६५ गनौरा ग्राम २२६ गयकर्ण १५७ गयाकर्ण कल्चुरि २२० गर्तेश्वर त्रिपाठी २०९, २११, २१३ गर्दभ नदी १३, १४, १७ गर्दभपानीय भोग १३, १४, १६ गर्दी, जी. ११९ गर्दे, एम. वी. १९, ३३, १२६, १२८, २१७ गर्भेश्वर शर्मा २५५, २६०,२६५ । गविश पंडित २८०,२८४, २८७ गंगदेव प्रतिहार २७९, २८०, २८३, २८६ गंगा २६ गंगाधर दीक्षित २५४, २५५, २५९, २६०, २६४,
२६५ गंगाधर द्विवेद २०९,२१२, २१४ गंगाधर शर्मा २५४, २५९,२६३ गंधध्वज पंडित ३२४, ३३३, ३३९, गाऊनरी २२, २३ गाऊनरी ताम्रपत्र ३, ११७ गांगली डी. सी. २, १९, २२, ४०, ६८, ७२,
१०४, १०८, १०९, १५८, १८२, १८५,
१८७, २४०, २४४ गांगेयदेव कल्चुरि ८०, ११८, ११९ गांगेय चेदि ११९ गांगेय विक्रमादित्य चेदि ३४० गांधी सागर १७५ गुजरात १, २, ३, ४, १०, ११, १४, १९, २६,
७१, ७३, ११९, १२०, १८२, १८३, २३५, - २३६, २४०, २७४ गुजरात क्षेत्र ४४, ५२ गुजरात के चौलुक्य ५३, ८८, १७३ . .. गुजरात राज्य ३७, ३२४ गुर्जर ७९, ८०, ८३, ८५
खडुपालिका २४, २६, २८, ३१ खण्डेलवाल कुल १९७, १९८ खर्जुरिका २४, २६, २९, ३२ खलघाट (खलिघट्ट) ९३, ९७, १०१, ११५ खातेगांव परगना २२६ खानदेश ८१, २४० खेटक मण्डल २ ४, ५, ६,८,९ खेडा २६ खेडा जिला ४ खेडा नगर १० खेडापालिका २४, २६, २८,३१ . खेडावाल २६ खेडावाल ब्राह्मण २६ खेडोलिया ३६ खोहिग राष्ट्रकुट ४, ११, ९३, ९७, १०१. ११५
१२२, १२४, १८२
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________________
३५६
गुर्जर नगर २४४, २४६, २५८, २६३, २८२,२८५ गोसल शर्मा २५४, २५९, २६४ गुर्जर नरेश ७२, ११८, १२३, १२५, २३५, गोसेक २८०, २८४, २८७
२३६, २३८, २४०, २४२, २४४, २४६, गोसे शर्मा महाराज पंडित २५४, २५९, २६४ २५८, २६२, २८१, २८५, २९३
गोंडल १०४,१०९, १११ गुर्जर पत्तन २३५, २३६, २३८, २४०, २४२ . गौड देश ४३, ४५, ४६ गुढ़यति श्रेष्ठिन् ३९, ४२
गौडपति १५७, १६३, १६९ गुणधर कायस्थ २, ६, ७, १०
गौड वंश २९०,२९१ गुणपाल ठकुर १९७, १९८
गौतम गंगा ८०,११८ गुणपुर १८, २२
ग्रामटक ७९,८३, ८६ गुणपुर दुर्ग २१९, २२१, २२२ गुणराज (सामन्त) १९०, १९१ गुणाकर २४, २९, ३२
घघ्घर नदी १५८ गुणाढ्य १९०
घटाउपरि २८०, २८३, २८६ गुणावद १८, १९
घटिका ग्राम १३२ गुणौर ग्राम २२६, २२७, २२९, २३०
घटोला ग्राम १३४ गुवाडिया ग्राम २२६
घड़ोद ग्राम २७५ गुवासा ग्राम २७५, २७६, २७७
घण्टोली ७३ गुहिल ११५
घण्टपल्ली ग्राम ७१,७३, ७४, ७६ गोकर्ण भट्ट ४३, ४५, ४६
घण्टेश्वर देव ७१, ७३, ७४, ७६ गोकुलिक ७९, ८३, ८६
घाघ्रदोर योग ४७,४८,४९, ५० गोग्गक ३९, ४२ गोग्गीराज १०,८० गोडरपुर २२० गोदावरी १०७, ११९, १८२, १८६
चक्रदुर्ग नरेश १८६, १८८, १९१ गोपादित्य ३८,४१,४२
चक्रवर्ती एन. पी. १७३, १८६, १८७, २०८, गोपालदेव अभिलेख १७८
२१५, ३२३ गोपालदेव महाराजपुत्र २०३
चचोनी १३४ गोल्हे द्विवेद २०९, २१२, २१४
चच्च नरेश ९३, ९६, १०१ गोवर्द्धन २, ६, ७, ३९, ४२
चच्चाई राज्ञी ७८,८३, ८५ गोवर्द्धन शर्मा २९६, ३०५, ३१३
चच्छरोणी १३४ गोविन्द चतुर्थ १०८
चञ्चुरीणी मण्डल १३६, १३७, १३८ गोविन्द द्विवेद २५५, २६०, २६५
चडैलीवट ७९, ८३, ८५ गोविन्द भट्ट ५६, ५७, ५९
चतुआ दरवाजा मुहल्ला १२५ गोविन्दराज राजपुत्र २७५, २७६, २७७
चतुर्जातक शास्त्र ३५, ४१, ४२ गोविन्द शर्मा २३५, २३७, २३९, २४०, २४१, चंडप ९३ २४३, २४५, २४७
चन्देल १९३, १९४, २२०, २७२ गोविन्द स्वामिन् २४, २८, ३१, २३९, २४० चन्देल राज्य १७३ गोवृष ६५, ६६, ६७
चन्देल वंश ११५ गोसरण २४, २८, ३१
चन्देरी २८०
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________________
चन्द्रकण्ठ शर्मा २५४, २५९, २६४
चन्द्रपुरी २०५, २०६ चन्द्रादित्य २४, २८, ३१
चन्द्रिका ठकुर ३९, ४२
चरमटिका ग्राम १५२ १५३ १५४
चचिका देवी १७८ १७९
चर्मणावती ६१
चंबल नदी १८, १९, ६१, ६३, १५२, २७३
चाचुणी ग्राम १३६
चाचुर्णी १३६
arsatषा कृपिका १३४, १३५
चाणक्य १२०
चादुरि महाप्रधान २७५, २७६, २७७, २७९
चान्दपुर २०५
चान्दा जिला २८१
चापोत्कट ४
चामुण्डराज ७३
चामुण्डस्वामि २०७, २०८
चालुक्य १५६
चालुक्य कल्याणी के ११८, १५७, १८६ चालुक्य वंश ४,७८, ८३, ८५
चाहमान ७३, ११५
चाहमान कुल २९४, २९६, ३०३, ३०६, ३११,
३१४
चाहिल पटेल १३३, १३५
चिक्केरूर अभिलेख ३९
चिखिल्या १४
चिखिल्लिका १३, १४ चित्रमान संवत्सर २५०, २५१
चिन्तामणि साणिका ४०
चिरिहल्लतल १३४, १३५
चिरेलिया १३४
चिल्लण १५५
३५७
चेदि ११५
चेदि अभिलेख ११७
चेदि नरेश ७९, ८०, ८३, ८५, ११८, ११९,
१२३, १२५, १५७, ३४०
चोल ११७, १२२, १२४, १५७, १६४, १७०
चोल राज्य ११६
चौथिया ३९ चौरम् २४, २८, ३१
चौरिक ७९, ८३, ८६
चौलुक्य १०५, १२०, १२१, २३५
चौलुक्य गुजरात के ३९ चौलुक्य नरेश २३६
छन्द शास्त्र ११४
छम्ब ७२
छम्ब ताम्रपत्र ७३
छिच्छा स्थान ४७, ४९, ५०
छित्तप ३१८, ३१९, ३२१, ३२२
छिन्दवाड़ा जिला २२०
छीतू अग्निहोतृ २५५, २५६, २६०, २६१,
२६५, २६६
छीछ ग्राम ४८
छ
२९९, ३०८
जगद्धवल १८३
जगपुडा ९३ जजपेल्ल नरेश २८८
जगदेव १०६, १०७, १८१, १८२, १८३, १८४, १८५, १८६, १८७, १८८, १९०, २९२, २९३,
ज
जन श्रेष्ठिन् १९७, १९८ जनार्दन चतुर्वेद २५६, २६१, २६६ जनार्दन त्रिवेद २५५, २६०, २६५
जनार्दन ब्राह्मण २५४, २५९, २६४ जनार्दन शर्मा २८२, २८३, २८६ जनक पटेल १३३, १३५
जम्बुद्वीप १०५, १०९, ११०, १११, ११२ जयतुगिदेव २३२, २७१, २७२, २८०, २८२, २८५, २९४, ३०२, ३१०
जयपाल १०९
जयपुर क्षेत्र १९७
जयवर्मन् १९३, १९४, २०४, २०५, २०६, २१०, २२०, २२१, २२२, २२६, २२७, २२९,
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________________
३५८
२७६, २७७, २८०, २८२, २८४, २८५, जैनुल अखबार ११९
२८७, २९४, ३०२, ३०४, ३११, ३१२ जोगेश्वर (लेखक) ७९, ८२ जयवर्मन द्वितीय १९, २३६, २७४, २७९ . जोधपुर २५७ जयवर्मन प्रथम २९३, ३०२, ३११ जयसिंह २४४, २४६ जयसिंह कल्चुरि २२०
झपैतघाट २७३ जयसिंह गुजरात नरेश २३६
झम्पयघट्ट २७३ जयसिंह चौलुक्य २३५, २३६, २३८, २५८, २६३
झम्बाक पटेल ३९,४२ जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय १६९, २७१, २७२, झाबआ४
२९१, २९२, २९४, ३०२, ३११, ३१५ . झालरापाटन १३३, १३४, २०२, २७३ जयसिंहदेव तृतीय ३१५ जयसिंह द्वितीय ११८, २७१, २७२, २७३, २८७,
२८८, २८९, २९०, २९१ जयसिंह द्वितीय चालुक्य ८० . .
टकारी स्थान २५४, २५५, २६०, २६५, २८०, जयसिंह परमार २७३
__ २८३, २८६, २९६, ३०४, ३१२ .. . जयसिंह प्रथम ५, ८६, ८७, ८८, ८९, ९०, ९१, टाऊनी ८८, १८२
९२, ९६, १००, १०२, १०५, १२०, १२१, टाड १७१, १९२ १२८, १५६, १५७, १८७, २९३
टुमनी (टुमणी) १९५ जयसिंह राणक राष्ट्रकूट २०३
टुल्या २९५ जयसिंह सिद्धराज चौलुक्य १८६, १८७, १८८,
१९१, १९३, १९४, २०५ जयसिंह सूरि २७४
ठट्ठसिक भट्ट ५३, ५५, ५७ जसदेव अग्निहोतृ २५६, २६१, २६६
ठीकरी ग्राम १९९, २००, २०१ जसहर १२८ जसोधर त्रिवेद २५४, २५९, २६४ जसोराज ८१ जसोराज मण्डलेश्वर ७१, ७३, ७४, ७६
डफ २८९ जाउडी श्रेष्ठिन् ३९, ४२
डभोक १७७ जातक ३९
डाल्टेश्वर ५ जामट ब्राह्मण २४, २८, ३१
डाल्लण ठकुर २५४, २५९, २६४ जासट (दापक) ४४, ४५, ४७
डाल्लण त्रिवेद २५४, २५९, २६४ जिनविजय मुनि १०, २४९
डाहल १२० जेतसी (जैतसी)२७३
डाहल मण्डल ४ जैत्रसिंह चाहमान २७३, २९५, ३०४ । डाहलाधीश १२५ जैत्रसिंह (जयसिंह) चौलुक्य २८२, २८५
डिनडिनडोरी तालुका ८१ जैत्रसिंह पंडित २३५, २३७, २३९, २४१, डिस्कलकर डी. वी. १, २, ३, १०, ५१, ५२, २४३, २४५, २४७
७३, ८१ जैनड़ १८१, १८५
डिंडवानक २५५, २६०,२६५ जैनड़ अभिलेख १०६, १०७, १०९
डुंगरपुर जिला ४८
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________________
डेरेट जे. डी. एम. १८६ डोडराज २७५, २७७, २७९ डोंगरगांव १८१, १८३, १८४, १८५ डोंगरगांव अभिलेख १०६, १०७, १०८ १०९ डोंगरिका कुमारीस्तन ७९ ८३, ८५
ढ
ढल (व्यापारी) २४९, २५०, १५१ ढोढर १५२
ण
णीजा ठक्कुर १७८, १७९
तबकाते नासिरी २९४ तर्दपाटि ४
ताट ब्राह्मण ३९, ४२
ताप्ती नदी ८८, ११६, २४०
ताम्पालीक ३९, ४२,
ताम्रपर्णी १५७, १६४, १७०
तारनोद २९५
तारीखे फरिश्ता २९४
त
तिणिपद्र द्वादशक १८, १९, २१
तितरोद १९
तिलक मंजरी ६८, ११७
तिलकवाड़ा ७१, ७३
तिलवाड़ा अभिलेख २६, ८१
तिलावर २९५
तुरुष्क ७२, ११८, ११९, १२३, १२५, १५७,
१६५, १७०
तुर्की साही ७२
तेजोवर्मदेव २०२, २०३, २०४
तेवर २५७
तैलप द्वितीय ११६, ३३९
तैलप द्वितीय चालुक्य ३४, ३९, ४०, १८२ तैलिकराज भाइयाक ६५, ६६, ६७
३५९
तैलिक वंश १३३, १३५
तोग्गल ७२, ११८, ११९, १२३, १२५
तोलापोह स्थान २९६, ३०५, ३१३ - तोलिया खेडी २९५
तौलकपुर २९५
त्रिऋषि गोपालीगोत्री २, ६, ७, ८, ९
त्रिपुरी ११६, १२२,१२४, १५७, १६३, १६९,
२२०, २५४, २५९, २६४
त्रिपुरी कर्ण ८०
त्रिलोचन दीक्षित २५४, २५९, २६४
त्रिलोचनपाल ११८
त्रैलोक्यवर्मन् १९३, २०७, २०८, २०९, २१०, २११, २१३, २१५, २१७, २१९
थानेसर ५३
दक्खिन २, २३, १५६
दक्षिण ११६
दक्षिण राढ़ २४, २५, २८, ३१, ३२३, ३२४दक्षिणापथ १५१, १५२
austfee (अधिकारी) ७९, ८३, ८६ दण्डाधिपतिवास २४१, २४२
दद्र ग्राम २५
दन्तिवमन् ३९, ४२
दपुर २४, २६, २९, ३२ दमनक पर्व १३६, १३७, १३८
दर्दुरिका २४, २८, ३१
दर्भ (मुद्रा) १७१, १७२ दशबल कवि ४०
दशरथ ब्राह्मण २१९, २२१, २२२
दशरथ शर्मा (लेखक) ५२, ७३, १८६, २७३
दशरूपक ११७ दशरूपकावलोक ११७
दशवल अल्हदनाथ १२० दाक्षिणात्य नरेश २९४, ३०२, ३११
दादरपद्र ग्राम २०८, २१०, २११, २१३ दादि सूत्रधार १९७, १९८ दामोदर उपाध्याय २५६, २६१, २६६
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________________
३६०
दामोदर (राजकुमार) २०३
देवस्वामिन् २४, २८, ३१ दामोदर शर्मा २९६, ३०५, ३१३
देवस्वामिन् ठक्कुर ६५, ६६, ६७ दामोदर श्रोत्रिय २५४, २५९, २६३
देवादित्य २४, २८, २९, ३१, ३२ दिदवान २५७
देवास १५१ दिनकर मुनि ७१, ७३, ७४, ७६
देवास जिला २२६ दिनाजपुर २५
देवास ताम्रपत्र १५९ दिल्ली २९३
देवेक २४, २८, ३१ दिवाकर दीक्षित २८०, २८३, २८६
देवेश्वर ११९ दिवेकर एच. आर. ६९
देवोली ताम्रपत्र २ दीक्षित के. एन. १, २, ३, ४, २२, ३३,६७, ६९।
देशलिक ७९,८३,८६ दुर्गाई ग्राम ४३, ४४, ४६, ७२
दोदेपंडित २९०, २९१ दुर्लभ तृतीय चाहमान ८८
दोनाक २४, २५, २८, ३१ देउल ग्राम २००
दोरसमुद्र १८६ देउल पाटक ९२, ९३, ९८, १०२
दोरसमुद्र नरेश मलहर १८६, १८८, १९१ देपालपुर ६०, ६१, २९४, २९५, ३०३, ३११ दोसि (व्यापारी) २४९, २५०, २५१ देपालपुर परगना ५१
दोहद जिला २०३ देई (देद्दाक) ३८, ४१, ४२
द्रम्म (सिक्का) ८२, ८३, ८५, ९३ देलण २३५, २३७, २३९
द्वारिका १८० देलवाड़ा ९३
द्वोमल २८८,२८९ देलू पंडित २१९, २२१, २२२ देल्ह अवसथिक' २०९, २११, २१४, २३५, २३७,
२३९, २४१, २४३, २४५ २४६ देल्ह पंडित ५२, ५३, ५५
धनञ्जय ३, ११७ देवगिरि के यादव २९५
धनपति भट्ट ५६, ५७, ५९ देवधर २५५, २६०, २६५
धनपाल ११, २३ देवधर चतुर्वेद २५५, २६०, २६५
धनपाल अवस्थिक १९३, १९४, १९६ देवधर महाप्रधान राजपुत्र १९९, २००, २०१ धनपाल कवि ६८ देवपाल १०९, १९७, १९८, २५८, २६३ धनपाल ब्राह्मण १५१, १५३, १५४ देवपालदेव ४१, २३२, २३५, २३६, २४८, २४९, धनिक १३ १५, ९३ ९६, १००, ११७
२५०, २५१, २५२, २५३, २६२, २६७, धरटौड ग्राम २७७, २७८ २६८, २६९, २७०, २७४, २८१, २८२, धरणीधर २५४, २५९, २६४
२८५, २८८, २९०, २९३, २९४ धरणीधर अग्निहोत २५५ २६० २६५ देवलपाटक ग्राम १९९, २००, २०१
धरणीधर चतुर्वेद २५५, २६०, २६५ देवशर्मन् कवि २४८
धरपद्र २१० देवशर्मा २९६, ३०५, ३१३
धरमपुरी १२, १८, २००, २३९, २४४, २४७ देवशर्मा दीक्षित १७३, १७४, १७६
धरमपुरी अभिलेख १२,३४, ११६ देवशर्मा (लेखक) २५१, २५२
धर्मकीर्ति १२० देवसमपूरी (देवधर्मपुरी) २६९
धर्मपाल नरेश १५८ देवसिंह पाल २९२, २९९, ३००
धर्माधिकरण प्रभाकर पंडित १५१,१५२, १५३
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________________
धर्मामृत २३५, २३६
नरवर २४०, २४४ धवली ग्राम १३१, १३२, १३३
नरवर्मन् १०७,१०९,१३१,१३२,१३३, १४०, धाडीमण्डल राष्ट्रकूट १८२
१४१,१४२,१४४,१४५,१४६,१४७,१४८, धामदेव (अधिकारी) २६७
१५०, १५१,१५२,१५३,१५४, १५५, १५६, धामदेव पंडित २०९, २१२, २१४
१५७,१५८,१५९, १७१,१७२,१७३, १७४, धामदेव शर्मा २८०, २८३, २८६
१७५, १७६ १७७, १७८,१७९,१८०, १८१, धार १२, १४, १८, १९, १२७, १२८, १४१, १८२, १८७, १९३, १९४, १९५, १९६, २००,
१४४, १४७, १९३, १९४, २०३, २०५, २०२, २०५, २०६, २०९,२१०,२११, २१३, २२०, २२१, २७३, २८०, ३१७
२२०, २२१, २२२, २३५, २३६, २३८,२४०, धार नरेश २७१
२४२,२४४,२४६, २५३, २५७,२६२,२८०, धार जिला २४४,२८९, २९५
२८१,२८४, २९३, ३०१, ३०९ धारवार जिला ३९
नरसिंह त्रिवेद २५५, २६०, २६५ धाराधिनाथ २३६
नरसिंह शर्मा २५६, २६१, २६६ धाराधीश भोजदेव १०५
नरसिंह श्रेष्ठिन् ६५, ६६, ६७ धारा नगरी ४८, ६१, ६३, ६८, ७८, ८२, ८४, नर्मदापुर प्रतिजागरणक २२६, २२७, २२९
८७, ८९, ९०, ९२, १०५, १२०, १२२, नल (नरेश) ९८, १०२, १५६, १६१, १६७ १२३, १२४, १२५, १३२, १३४, १७४, नवगांव २८०, २८१, ३२४ १७६, १९३, १९६, २०५, २०९, २३५, नवसाहसांकचरित् ४, १३, ३४, ३९, ४०, ११४, २३६, २३८, २४४, २४६, २४९, २५०, ११५, ११६, ११७
२५१, २५८, २६३, २८०, २९५, ३२४ नागझरी ५६, ५७ धारासिंह चाहमान २९५,३०४,३१२
नागदा ५७, २९५ । धीरादित्य ६५, ६६,६७
नागदेव याज्ञिक २५५, २६०,२६५ धुंधुभार ९८, १०२
नागद्रह ५७ धूम्रराज २९२,२९९, ३०८
नागद्रह पश्चिम पथक ५६ नागद्रह प्रतिजागरणक २९५, ३०४, ३१२ नागपुर १५५, १५९
नागपुर अभिलेख ८७, ८८, १०५, १०६, १०८, नग्न भट्टारक ६५, ६६, ६७
१०९, ११४, ११६, १२०, १३२, १४१ नग्न तडाग ९२, ९८,१०२
नागपुर क्षेत्र १८२ नट्टापाटक ९२, ९३, ९८, १०२
नागबंध ६९, १४४, १४५ नडियाद ३२४
नागवंशीय नरेश १८६ नन्दन संवत्सर १८१, १८४, १८५
नागू एस. एन. १५१ नन्दिनी धेनु १३, १४, २६, ७१, ७३, ८८, ११५, नागेल १९, ७३
११७, १५२, १५७, १६३, १६९, २००, नागेला तड़ाग ९३ २२०, २४४, २४५, २४६, २५३, २५७, नाचिराज १८७ २७९,२८०
नाट ब्राह्मण ३९, ४२ नन्दिपुर ३२४, ३३३, ३३९
नाटापाग ९३ नयनन्दि ३८
नाटावाड ग्राम ९३ नरवल २२, ३४
नाटिया ग्राम २९५,३०४, ३१२
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________________
३६२
नाथुराम प्रेमी ८२, १५१, २३२ नान्दोद २६ नार स्थान ५३ नारायण उपाध्याय २५६, २६१, २६६ नारायण त्रिपाठी २०९, २११, २१३ नारायण द्विवेद १७३, १७४, १७६, २५६,
२७१, २७७ नारायण महाकवि २७२ नारायण शर्मा २५४, २५९, २६४, २९६,
३०५, ३१३ नालछा २३१ नाल ग्राम ५२, ५३, ५५ नाल तडाग ५३, ५४, ५५ नाल स्थान ५३ नासिक ८१ नासिक जिला ७८ नासिक भूभाग ५३ नासिरुद्दीन सुल्तान २८० निखिलपद्र द्वादशक २०८, २१०, २११, २१३ निमाड जिला २०७ निमाड (पश्चिमी)जिला २०० निर्वाण नारायण १७८, १७९, १८०,१८१ निवर्तन १९९, २००, २०१ निबादित्य मंदिर १८६ नीना दीक्षित ८,९ नीलगढ़ २२० नीलगिरि मण्डल २१९, २२१, २२२ नेनैयक २४, २८, ३१ नेमक वंश १२५ नेमिचन्द्र सूरि ७७, १५५ नेमावर २२६ नन्दिवर्द्धन २७५, २७७ नन्दिपुर २४, २९, ३२ न्यायपद्र सप्तादशक ५२, ५३, ५५
पटना २५ पटना संभाग ३४ पठारी २८९, २९० पदरिया २१० पद्मगुप्त परिमल १३, २६, ३९, ११४, ११७,१८२ पद्मनाथ द्विवेद २५६, २६१, २६६ पद्मनाभ शर्मा २९६,३०४,३१२ पद्मपुराण ११३ पद्मसिंह चाहमान २९५, ३०४, ३१२ पद्मस्वामि दीक्षित २५४, २५९, २६४ पद्मावती १९०, १९२ परमदेव ११९ परमार २३, १२१, १२६, १५८, १८१, १८६,
२३६, २९९, ३०८ परमार कुल १८१, १८४ परमार दिव्यपुरुष ९२, ९४, ९९ परमार देव ११९ परमार नरेश २७५, २७७ परमार (पोवार) जाति १०८, १०९, १११. परमार महीभृत ११७ परमार राजवंश १३१, २३१, २३५, २३६,
२३८, २४०, २४२, २४९, २८८ परमार राजवंशावली २९२, २९३ परमार राज्य ११८, १८० परमार वंश ७८, ७९, ८२, ८४, ८७, १०४,
११३, ११४, १४०, १५६, १५९, १६१, १६६, २०९, २५३, २५८, २६३, २७४,
२७९, २८०, २८२, २८५, २९२, ३१५ परमार वीर १५६,१६१,१६६ परमार शत्रुसंहारक ११३, १२२, १२४ । परमार साम्राज्य २००, २७३, २९० परमार्दिन् चन्देल २२० परवान नदी ६४ पर्वगिरि २३६ पर्व (नाप) १६३, १७४, १७६ पलसवाड़ा ग्राम २१९, २२१, २२२ पल्हणदेव मांडलिक २९४, ३०३,३११ पल्हणदेव वर्मा २९६, ३०६, ३१४ पवित्र चतुर्वेद २५५, २६०, २६५
पगर ग्राम २४४ पगार प्रतिजागरणक २५७ पगारा प्रतिजागरणक २४४, २४६
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३६३
पश्चिमी चालुक्य २२०, ३३९ पश्चिमी निमाड़ जिला २९५ पश्चिमी पथक ३४ पंचक्रोशी यात्रा ५७ पंचमहाल ४ पंचमुख पत्तन २७० पंचवीवी थाना २५ पंजाब १५८, १९७ पंवीठ प्रतिपत्ति २७२ पाइयलच्छी ११, २३, ४०, ११५, ११७ पाडल्य ग्राम २०० पाणाहेडा ९१, ९२, ९३ पाणाहेडा अभिलेख ११३ पाणिनी १४०, १४५ पानाध्य ९३, ९८, १०२ पानासी ९३ पारिजातमंजरी ६८,८०, ११९ पालिया २३६ पार्श्वनाथ तीर्थंकर १५४ पाल्हक द्विवेद २०९, २११, २१४ पाल्कुरिकि सोमनाथ (तेलगु कवि) ३२४ पाहीय ब्राह्मण ३९, ४२ पांड्य नरेश १५७, १६४, १७० पांशुला खेटक ९२, ९३, ९७, १०२ पिडिविडि ग्राम २३५,२३६,२३७,२३८ पिपरिया ३०३ पिपलिया नगर २१९, २३४, २३६ पिप्परी १४ पिप्परिका तडार १३,१४,१६, ११७ पिप्परिया १४ पिशाचदेव तीर्थ १३, १४, १६ पिंगल छन्दशास्त्र ११७ पिंगल सूत्रवृत्ति ११४ पिंगलाचार्य ११४ पीतवास २४, २८, ३१ पुजारीपाली १७८ पुण्याभ्र नदी ३३, ३४, ३५, ३६ पुमानि प्रदेश २८८, २८९ पुरुष शर्मा २९६, ३०६, ३१४
पुरुषोत्तम २४, २८, ३१ पुरुषोत्तम ठक्कुर १९९, २००, २०१ पुरुषोत्तम दीक्षित २५६, २६१.२६६ पुरुषोत्तम शर्मा २५५ २६० २६५ पुलोमावी चतुर्थ ७२ पूनि श्रेष्ठिन् १९७, १९८ पूर्ण नदी ८८ पूर्ण पथक ३३, ३४, ३५, ३६ पूर्वी निमाड़ जिला २०७, २४८ पेन्टा ग्राम २७३ पौंडिक ग्राम २४, २६, २८, ३१ प्रचण्ड श्री ४ प्रतापगढ़ अभिलेख ११५ प्रतिहार ४, ११४ प्रतिहार वंश ११५ प्रतिपाल भाटिया ११७ प्रत्ययमाला १४५ पृथ्वीधर २५४, २५९, २६४ पृथ्वीराजविजय ८८ पृथु १५६, १६१, १६६ पथुराज ११९, १२२, १२४ प्रद्युम्न शर्मा २९६, ३०५, ३१३ प्रबंध चिन्तामणी १९, ३९, ४०, ८०, ८८, ११४,
११५, ११६, ११८, १२०, १८२, १८६ प्रभाचन्द्र कवि २४९ प्रभावक चरित ६८, २४९ प्रभावती गुप्त ३ प्रमाथिन् संवत्सर २९२ प्रातिराज्यिक ७९, ८३, ८६ प्रान्तीज तालुका ५, ८
फलीट जे. एफ ४, २२५
बंगाल २५, २६ बंगाल खाड़ी ११५ बंगाल राज्य ३२४
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________________
बघाडी ग्राम २९५, ३०४,३१२ बघेला नरेश २७२ बड़नगर प्रशस्ति ८८ बड़ौद ग्राम १९३, १९४, १९५, १९६, २६९,
२८२, २८३, २८५, २८६ बडोदा ७३,३२४ बदनावर २९५ बनर्जी राखलदास ७८,८०, ८१, १७२, १७५ बरवान ५७ बराग्राम १९४ बरार १०७ बरार क्षेत्र १८१ बलबन २७२, २८०, २८८ बलराज चाहमान १९ बलि राजा ९८, १०२ बल्लाल ४०, ८०, ११९, २०३ बस्तर जिला १७८, १८६ बागड ९२, ९३, ११७ बागड़ शाखा ११३ बागीडोरा ४८ बाघेला रानी १८२ बाण १२० बान्दा ताम्रपत्र १९३ बालगंगाधर शास्त्री १५९ बालभद्र शर्मा २९६, ३०५, ३१३ बाल वंश १४७, १४८, १५० बालसिंह २७५, २७६, २७८ बाल्वन अभिलेख २७३ बाल्हुक द्विवेद २०९, २१२, २१४ बासौदा २०७ बासौदा परगना १२६ बांसवाड़ा ४७ बांसवाड़ा अभिलेख ५२, ८० बांसवाड़ा जिला ४८, ९१ बांसवाड़ा क्षेत्र ४८ बिल्हण ८८, १८६, २३१, २३२, २३३, २३४ बिल्हण पंडित २६२, २६७ बिहार २९४ बीसलदेव वाघेला २८०
बुरुड ग्राम २८० बूलर जे २३, ४०, १०४, ११३, ११५ बूंदी राज्य १७१ वृहस्पति १२० बेटमा ग्राम ५१,५३,५५ बेटमा ताम्रपत्र ८० बेतवा नदी १७३, १७४, २१०,२१६,२८७ बेसनगर २८७ बैजू शर्मा २९६, ३०५, ३१३ बोगरा २५ बोडसिरस्तक ४८, २२६, २२७, २२९ बोशरि धाराधिपति २९२, ३००, ३०९ बोंठा देवी (रानी) ११६ ब्रह्म क्षेत्र ११४ ब्रह्म चतुर्वेद २५५, २६०, २६५ ब्रह्म पंडित २४, २७, ३० ब्रह्मपुरी (मांडु) २९२, २९५ ब्रह्मवाक् वंश ४ ब्रह्म श्रोत्रिय २५४, २५९, २६३ ब्रह्म संहिता १५८ ब्रिग्ज २९४ ब्रिटिश म्यूजियम ६८ ब्रूवासक १३४, १३५
भगवत्पुर १८, १९, २०, २१, १५२ भगवत्पुर प्रतिजागरणक १५१, १५३ भगोर १८, १९, १५२ भगोरा ९३ भट्टबाबू शास्त्री ६९ भट्ट सोमेश्वर ६१, ७३ भट्टेश्वर शर्मा २५४, २५९, २६४ भडोच २४० भडोच क्षेत्र २४० भण्डारकर डी. आर. ४७, ४८, ७२ ९३, १२६,
१३३, १७३, १७४, १७६, २३४, २३५, २७५, २९३ भनैराग्राम २७३
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भभ ३९, ४२ भरत ९८,१०२ भरतपाल २५४, २५९, २६४ भरत के वंशज १५६, १६१, १६७ भवदत्त शास्त्री एवं परब ३४ भववाल्मीक आचार्य ३२४, ३३३, ३३९ भवानीपति १३ भाइक २४. २७, ३२ भागलपुर अभिलेख १०९ भाटिया प्रतिपाल १८७ भानपुरा तहसील २७४ भारत १५८ भारती भवन ६८ भारद्वाज २, ९, २११, २१२ भावनगर ३४१ भावमिश्र १२० भावविरिचि पंडित ३२४, ३३३ भावसमुद्र भट्टारक ३२४, ३३३, ३३९ भास १२० भिलसा ११३, १७८, १८०, २१०, २८७,
३१८,३१९ भिलसा दुर्ग २९४ भिलसा नगर २१० भिल्लम पंचम यादव २२४ भिल्लस्वामी १७३, १७४ भीकनगांव परगना २०० भीम ग्राम ८७,८८,८९ भीम द्वितीय चौलुक्य २३६, २७४ भीम नरेश ७२, ११८,.१२३, १२५ भीम प्रथम चौलुक्य ८०, ११८, ११९ भुरशूत परगना ३२४ भूतरप्रन पर्व १७३, १७५, १७६ भूपति शर्मा २९६, ३०५, ३१३ भूमिग्रह पश्चिम द्विपंचाशतक ४३, ४४, ४६ भृगुकच्छ २३९, २४१, २४३ भृगु शर्मा २५४, २५९, २६४ भुगोरी २६९ भेराघाट अभिलेख १५७ भैल्लस्वामिन् २८७, २८८
भैल्लस्वामिन् महाद्वादशक मण्डल २१० भैल्लस्वामीदेव २०८, २१०, २११, २१३ भैल्लस्वामीपुर २६९, २९३, २९५, ३०२, ३१० भैलस्वामी (भिलसा) १९३ भोग्यपुर ९२, ९३, ९८, १०२ भोज १२०, १४८, १७१, १७२, ३२४ भोज चरित् ११८ भोजदेव २६, ३७, ३८, ३९, ४०, ४१, ४२, ४३,
४४, ४६, ४७, ४८, ४९, ५०, ५१, ५२, ५४, ५६, ५७, ५९, ६०, ६१, ६३, ६४, ६७, ६८, ६९, ७०, ७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७७, ७८, ७९, ८०, ८१, ८२, ८३, ८५, ८७, ८८, ८९, ९०, ९२, ९३, १०६, १०७, १०८, १०९, ११५,११८,१२१,१२८,१३६, १३७, १३८, १५१,१५२, १५३, १५५, १७३ १७४, १७६ १७७,१८१, १८२, १८३,१८४, १८६, १८८, १९०,२३५,२३६,२३८,२४०,२४२,२४४, २४५, २५३, २५७, २६२,२८०, २८१, २८४,
३१७, ३१९, ३४० भोज द्वितीय परमार ३१५ भोज द्वितीय प्रतिहार ७२ भोज नगर ३२४,३३३, ३३९ भोजपूर ७७, १५४,१५५ भोज प्रबंध ४०, ११६ भोजराज १२२, १२४, १५६, १६२, १६८, २९३,
३००, ३०९ भोजराज (ग्रन्थ) १४५ भोजराज प्रथम ११९ भोज विद्यालय ३१७ भोजशाला ६८, ६९, १४४, १४५, ३१७ भोज सेमिनार ६७ भोपाल २ भोपाल क्षेत्र ४४, १९३, २०५, २१०, २५३,२६७
मकराणा पत्थर ६८ मक्तुला ग्राम ८७, ८८, ८९ मखमलवड ८१
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मगध ३३, ३५, ३६, ११५ मजुमदार ए. के. ४१ मझोली २६
मणिनागेश्वर मंदिर ७३
मणेश्वर ७३, ७५, ७६
मण्डप दुर्ग २३५, २३६, २३७, २३८, २६३, २८०, २८३, २८४, २८६, २८७, २९४, ३०४, ३११,
मण्डपका ६५, ६६, ६७, ११५
मण्डलद्रह ९३, ९८, १०२
मण्डलीक ९१, ९२, ९३, ९७, १०१, १०२
मण्डलेश्वर ९३, ९८, १०२
मथुरा १७८, २५४, २५५, २५६, २५९, २६०,
२६१, २६४, २६५, २६६ मथुरा जिला २५७
मदन कवि ११९
मदन पंडित २५५, २६०, २६५ मदन महाकवि ६८, ८०, २८० मदनरत्न १३७
मदन राजगुरु २३५, २३७, २३९, २४१, २४३,
२४५, २४७, २६२, २६७
मदनवर्मन् चन्देल १९३ मदनवर्मन् नरेश १७३ मक भुक्ति ३३, ३४, ३६ मधु दीक्षित २५४, २५९, २६४ मधुकण्ठ शुक्ल २५४, २५९, २६४ मधुकरगढ़ १७१
मधुपालिका २४, २६, २८, ३१
मधु ब्राह्मण २४, २८, ३१ मधुमथन २४, २८, ३१ मधुसूदन पंडित २०९, २११, २१४ मधुसूदन शर्मा २५६, २६१, २६६
मधुसूदन सुत्रधार १२९, १३० मध्य एशिया १५७
मध्यदेश २४, २६, २८, ३१, ६५, १०९, १११,
१७३, १७५, १७६, २५५, २५६, २६०, २६१, २६५, २६६
मध्यप्रदेश ११३ मध्यप्रान्त १८३
३६६
मनथल ( शिल्पकार ) ६७, ६९, ७०
मनावर १४
मनावर परगना २४४
मन्दरगढ़ १७१
मन्दसौर १९
मन्दसौर जिला २६, २७४
मन्दसौर स्तम्भलेख २६
मम्मट १२०
मर्थ श्रेष्ठिन् १९७, १९८ मलपरोलरोड ( विरुद) १८६
मलय ११९, १२२, १२४ मलयगिरि १८० मलय ( मलह ) जाति १८६ मलिकार्जुन ऋषि २७४
महण वटुक २०९, २१२, २१४ महणसिंह पंडित २९०, २९१ महत्तम ७९.८३, ८६
महमूद गजनवी ७२, ११९, १५९ महलकदेव ३१५
महसरूला ग्राम ८१
महाइक (अधिकारी) २०, २१
महाकाल नगर २३९, २४० महाकालपुर २४१, २४२ महाकाल मंदिर १८, १४४ महाकालेश्वर ३२४, ३३३, ३३९ महाकालेश्वर मंदिर १३९, १७९ महादित्य अवसथिक २५४, २५९, २६४
महादेव शर्मा २९६, ३०५, ३१३ महादेव सामन्त १७१, १७२ महादेवी (रानी) १७३, १७५, १७६
महाद्वादशक मण्डल १९३, १९४, १९५, २०८,
२१०, २११, २१३
महाप्रतिहार पीड़ १९३ महाभारत ६१, ११३ महाभाण्डागार १९३ महाराष्ट्र १८१
महावन स्थान २५४,२५५, २५९, २६०, २६३,
२६५
महाविजय स्कंधावार १८, २०, २२
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३६७
महाश्वपाल १९३
मालव्य देवी १८७ महासंधिविग्रहिक १९३
मालव १७३, १९७, २८० महासाधनिक १८, १९, २१
मालव क्षितीश २३६ महासाधहभाग (अधिकारी) १९३
मालव क्षेत्र ५२, ११४, २३६ महिरस्वामी ब्राह्मण १५१, १५३, १५४, १९३, मालव परमार १५७
मालव प्रदेश २८८ महिषवुद्धि क्षेत्र ७९, ८१, ८३, ८५
मालव भूमि १७१, २५८, २६३, २७६, २७७ महीधर पंडित २५४ २५९ २६४
मालव राज्य २६, ४३, ६१, ८८, १०४, १०५, महीनदी १,४,५,७,८,९,११६, १७७, १७८ १०६, १०७, १०९, १११, ११७, २०५, २२४, महीपाल पंडित १२६, १२७, १२९, १३०
२३५, २३६, २७२ महीपाल प्रतिहार ११५
मालव राजसिंहासन १७६ महीपाल वैयाकरणी १२०
मालवा ३, ४, २३, २५, ३४, ११५, ११८, १२०,
१५२, १५७, १५८, १८२, १८३, १८४, महुअड पथक १७९, २८२, २८५
१९३, २०३, २६९, २९२, २९३, २९४ महुअड प्रतिजागरणक २५३, २५८, २६३ मालवाधिपति २३ महु क्षेत्र ३४
मालवैकभृगाक ११७ महुडी ग्राम ४३
मालाधर २८०, २८४, २८७ महुडी ताम्रपत्र ४८
मालापुर १५२ महेन्द्रपाल द्वितीय प्रतिहार ११५
मालापुरक ग्राम १५१, १५२, १५४ महेन्द्रपाल प्रथम प्रतिहार ११५
मालूण शर्मा २१९, २२१, २२२ महेन्द्र सामन्त १९०, १९१
मालू शर्मा पुरोहित २२६, २२८, २३० महेश्वर शर्मा २९६, ३०६, ३१४
मावो खेडा २०५ महेश्वरीदेवी उज्जयिनी भट्टारिका १८, २०, २१ माहिल श्रेष्ठिन् १९७, १९८ माघम नदी ३७
माहिष्मती २५३, २५८, २६३ माण्डलिक ३८
माहुडला ग्राम ७९, ८१, ८३, ८५ माथुरवंशीय ब्राह्मण १७८, १७९
माहुल २४, २९, ३२ मादलग ९३
माहेश्वर २५३ माधव १२०
माहेश्वर सूत्र १४० माधव ठकुर १७८,१७९
मांडु २३१, २३६, ३१६, ३१७ माधव त्रिवेद २५६, २६१, २६६
मांधाता ८६, ८८, ९८, १०२. २४४, २५२, माधव शर्मा २८०,२८३, २८६, २९६, ३०४,३१२ । २५३, २७९, २९१, २९२, २९५, ३०४, मान्यखेट ११, २३, ६१, ६३, ११५, १८२
३१३, ३२२ माप्यकीय ब्राह्मण (अधिकारी) १९९.२००,२०१ मांधाता अभिलेख १९, ९३ मायमोडक ग्राम २०५, २०६
मांधाता ताम्रपत्र ४० मार्कण्ड त्रिवेद २५६, २६१, २६६
मांधातृ दुर्ग २९५, ३०४, ३१२ मार्कण्ड शर्मा ४३, ४५, ४६
मितिलपाटक २४, २८, ३१ मार्कण्डेय पुराण १५२
मित्र राजेन्द्रलाल १७ मार्कण्डेय शर्मा २५६, २६१, २६६
मित्रानन्द ब्राह्मण २४, २८, ३१ मालखेद २, ६१, १५२
मिराशी वी.वी १०४, १०८,१७४, १८१, २७२
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३६८
मिश्रधर शर्मा २९६,३०५, ३१०
म्हैसडाग्राम २७२ मिहिरकुल नरेश २६ मुख्यादेश दूतक २०९ मुत्गी अभिलेख २२४
यज्ञधर अग्निहोतृ २२६, २२८, २३० मुक्तापली ७९, ८१, ८३, ८५
यदु नरेश २७४, २७६, २७७ मुलवथु स्थान २५४, २५५, २५९, २६०, २६४. यम १४० २६५
यवतमाल जिला १८१ मुक्तावसु स्थान २३५, २३६, २३७, २३९,२४१, यशःकर्ण १५७, १८७ २४३, २४५, २४६, २५७
यशोधर्मन् २६ मुन्दर १७४
यशोधर्मन् चन्देल १५८ मुरल ११७, १२२
यशोधवल द्विवेद २०९, २११, २१३ मुहम्मद गौरी २३१
यशोवर्मन् ५३, ७८, ७९, ८०, ८२, ८३, ८५, मुंज ३४, ११६, २९३, ३००, ३०९
१४४, १८७, १९२, १९३, १९४, १९५, १९६, मुंजदेव ९३
१९९,२००, २०१, २०२, २०५, २०६,२०७, मुंजराज १५६, १६२, १६७
२०९,२१०,२११, २१३, २२०, २२१, २२२, मुंजाल २४, २९, ३२
२२६, २२७, २२९,२३५, २३६ २३८,२४०, मूलराज चौलुक्य १९
२४२, २४४, २४६, २५३, २५७, २६२, २८०, मूलराज द्वितीय चौलुक्य २३५
२८१, २८५, २९३, ३०१, ३१० मूलराज प्रथम चौलुक्य ४१
यशोवर्मन् (सामन्त) ९२ मूलस्थान २४, २७, ३०
याकूबेलायस ७२ मेघदूत ३१९, ३२३
याजदानी जी १८६ मेरुतुंग (जैन आचार्य) १९, ३९, ४०, ८०, ८८, याज्ञवल्क्य स्मृति १९१
११०, ११५, ११६, ११८, १२०, १८२। यादव ११४ मेरु महापर्वत ७९, ८३ ८४,
यादव नरेश २८० मेवाड १९
युवराज १२२, १२४ मैसूर १८६
युवराज द्वितीय कल्चुरि ११६ मोखलपाटक ग्राम १७, १५६, १५९, १६५ योगराज १,४,५,७,८,९ मोडासा (मोहडासा) ५, ८, ३७, ४१
योगेश्वर शर्मा २९६, ३०५, ३१३ मोडासा अभिलेख ८१, ११८ मोडासा महाविद्यालय ३७ मोडीग्राम २७४
रघुनंदन १२० मोडी मण्डल २७७, २७८
रघुवंश ३१८ मोमलदेवी (रानी) १९९, २००, २०१ रडुपाटि ४ मोहडवासक ४१
रणधवल १८२ मोहडवासक अर्द्धद्धाष्टक मण्डल ३८, ४१, ४२ रणथम्भोर २७३ मोहडवासक विषय २, ४, ५, ६, ८, ९
रणपाल पंडित २०९, २११, २१४ मोहदी ग्राम ८१
रणशैल (राजकुमार) २०३ मोहोड ग्राम २५७
रणसिंह पंडित २९०, २९१ म्लेच्छाधिप २९३,३०२, ३१०
रतनसिंह ४३
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________________
रतलाम १५२ रत्नदेव तृतीय २६
रसिक संजीवनी ११६, १८७
रसूल ग्राम १५८
रंतिदेव चन्द्रवंशी ६१
राऊता ग्राम २७५, २७७, २७९ राटोराऊत मांडलिक २९४, ३०३, ३११ राजकीय ग्राम २४, २६, २९, ३२ राजतरंगिणी ७२ ७३, १२०, १९३ राजपाल पंडित १४८, १५०
राजपुताना ६५
राजब्रह्मपुरी २०५, २०६, २०७
राजशयन २७, १९४, १९५
राजशयन भोग १९३, १९४, १९५
राजस्थान ४८, ६४, ९१, १३३, १३५, १७१,
१७७, १७८, १९७, २७३
राजाभोज (ग्रन्थ) ५१, ५६, ६० राजेन्द्र चोल ८०, ११८, ११९ राजे शर्मा २५६,२६१, २६६ राज्यदेव महामांडलिक १७३, १७४, १७६ राज्यवर्द्धन १५६, १६१, १६६
राढ़घटिका ग्राम १३१, १३२, १३३
राणक ठकुर ३९, ४२
रानोद १७४
रामचन्द यादव २९४
रामटेक १५९
राम ( दाशरथी) १५६, १६१, १६७ राम दीक्षित २५४, २५९, २६४ रामपुर २७५
राम श्रेष्ठिन् १५५
रामेश्वर तीर्थ १२०, १२३, १२५ रामेश्वर त्रिवेदी २५४, २५९, २६४ रामेश्वर शर्मा २५४, २५९, २६४
रायसेन १९४, २१०
रायसेन जिला ७७, १५४ रालिंसन १८२
रावतपुर २७५
राष्ट्रकूट ११४, १८२ राममाला १८२, १८३
३६९
रासल ठकुर २०९, २१२, २१४ राहतगढ़ २७१, २७२
रुद्र (देवता) १२०, १२३, १२५ रुद्रादित्य कायस्थ १७८ रुद्रादित्य ( दापक) २९, ३२ रुद्रादित्य मंत्री १७१, १७२
रुद्रादित्य सामन्त १२५
रेवटी (लेखक) २९४ एच. सी. १०८
रे
ल
लक्ष्मणराज १५८ लक्ष्मणसेन नरेश २२४
लक्ष्मदेव १०७, १०९, १३१, १३२, १३३, १५६, १५७, १५८, १८२
लक्ष्मीदेवी (रानी) ११४
लक्ष्मीधर द्विवेद २०९, २१२, २१४ लक्ष्मीधर शर्मा २९६, ३०६, ३१४ लक्ष्मीवर्मन् १९२, १९३, १९४, २०५, २१०, २२०, २२१, २२२, २२३, २२६, २२७, २२९, २९३
लक्ष्मीवर्मदेव महाकुमार १९५, २०२ लखनगांव २९५
लखनपुर २९६, ३०५, ३१३
लघुवैगणपद्र ग्राम १९९, २००, २०१
लल्लिय ब्राह्मण ७२
लल्लोपाध्याय २, ६, ७, ८, ९
लंका १८०
लाखेरी ग्राम २७३
लाट ७९, ८०, ८३, ८५, ११६, ११७, १२२, १२४
लाट देश २४, २६, २९, ३२
लाटपति ७२, ११८, १२३, १२५ लार वर्ग १२८
लषु द्विवेद २८०, २८३, २८६ लासेन (लेखक) १५५ लिम्बराज ९३
लीमदेव द्विवेद २८०, २८३, २८६ लीलादित्य २४, २९, ३२ लीलावती (ग्रन्थ) ४८
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________________
३७०
लीहा ब्राह्मण २४, २८, ३१ लुअर्ड सी. ई. १९ लूणपसाक ग्राम २६१ लेबड १९ लेले काशीनाथ कृष्ण १२७, १३१, २४७ लेले सी. बी. ६७, ६९ लोकानन्द दीक्षित २४, २७, ३०, ३३, ३५, ३६ लोलार्क अमात्य १८६ लोलिगस्वामी देव १३३, १३४ लोहट शर्मा २४, २८, ३१, २५५, २६०, २६५ लोहड़ शर्मा २५६, २६१, २६६ लोहप अग्निहोतृ २४, २८, ३१ लोहिण शर्मा २४, २८, ३१
वल्लभदेव ११६ वल्लभराज मेहर ३९, ४२ वल्लाल होयसल १८६ वल्लोटक ३८,४१, ४२ वंगदेश ११५ वसन्ताचार्य १३, १५, ११७ वसल १०५, ११०, ११२ वसिष्ठ मुनि ११३, १२२, १२३, १४०, १५६, १६०, १६६, १८३, १८४, १८८, १९०,
२९८, ३०८, ३४० वंक्षु नदी १५७, १६५, १७० वंज स्थान १७१, १७२ वंशोपक मुद्रा ९२ वाऊ शर्मा २९६, ३०६ वाकणकर एल. एस. ६९ वाकणकर वी. एस ४३, ६७, ६९, ७० वाक्पति १४८, १५०, ३४१ वाक्पति द्वितीय १७, १८, १९, २०, २२, २३,
२६, ५२, ५३, ५४, ११५, ११६, ११७,
११८, १२२, १२४, १७२, ३३९ वाक्पति प्रथम ११४, १२२, १२४, २९३, ३००,
वकाइगल नागरिक ७९, ८३, ८५ वच्छल ६१, ६२, ६३ वटखेटक ग्राम ३०५, ३०६ वटपद्रक ग्राम ४७, ४८, ४९, ५० वड़जा (रानी) ११५ वडोव्यपत्तन २९०, २९१ वणिका ग्राम २३, २५, २६, ११७ वज्रट स्वामी ११५, १२२, १२४ वत्स द्विवेद २०९, २११, २१३ वत्सराज भोक्तृ महाराजपुत्र ३८, ४१, ४२, ८१ वत्सराज सेनापति १७३ वदनावर २०५ वन्दनघाट ९२, ९८, १०२ वप्पंपराज २, ३, ५, ६, १३, ११४ वरखेडा (वरखेडी) २०५ वरंग (अधिकारी) ६५, ६६, ६७ वरादिया ग्राम ४८ वरुणेश्वरी (स्थान) ९२, ९८, १०२ वरुवासक १३४ वर्णनाग कृपाणिका १४०, १४२, १४४ । वर्णमाला १४० वर्द्धनापुर २९५, ३०४, ३१२ वर्द्धमानपुर २०५, २०६ वलीपुर २८९
वाक्पतिराजदेव १२, १३, १४, १५, १७, १९,
२१, २५, २९, ३२, ३३, ३४, ३६, ३८, ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४६, ४८, ४९, ५०, ५३, ५७, ५९, ६१, ६३, ७८, ७९,८०, ८३, ८५, ८७, ८९, ९०, १३६, १३७, १३८, २७४,
२७६, २७७ वाक्पति मुज ३, ११, ३९, ४०, ११४, १८०,१८२ वागड भूभाग ४८ वाग्देवी कुलसदन ६८ वाग्देवी मूर्ति ६७ वाच्छुक ठकुर २०९, २१२, २१४ वाद्दिग राष्ट्रकूट २०३, २०४ वाप्यदेव उत्कीर्णकर्ता २४५, २४७ वामनपुत्र भाइल ४७, ४९, ५० वामन ब्राह्मण २७७, २७९ वामन शर्मा २९६, ३०५, ३१३ वामनस्वामिन् २४, २८, ३१
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________________
वामनस्वामिन् पुरोहित ठकुर १९९, २००, २०१ विद्याधरी ६९, ७० वायिग्राम २५
विद्यापति शर्मा २९६, ३०५, ३१३ वायुदेव शर्मा २५६, २६१, २६६
विद्यालंकार पी. एन ८२ वारप्पा चौलुक्य ११६
विद्वत् रत्नमाला २३२ वाराणसी ३२३, ३२९, ३३६
विनायक कवि ११९ वाराह गोत्र २४, २८, ३१
विम्बसिंह (सामन्त) २२४ वालिया ग्राम ४८
विराणक ग्राम ५६,५७,५८ वालेंकर (लेखक) २३६
विलपद्रक ग्राम १३६,१३७, १३८ वालोदा २९५
विलुहज ग्राम ७१, ७२, ७३, ७४ वालौदा ग्राम २९५, ३०४, ३१२
विल्किसन एल. २१९,२३४ वाल्मीकि ३१६, ३१७
विल्वगवास २४, २५, २८, ३१ वासधर द्विवेद २५५, २६०, २६५
विल्हण महापंडित १२०, २३५, २३७, २३९, वासुदेव पणशीकर ४०
२४१, २४३ वासुदेव ब्राह्मण २४, २८, ३१
विल्हण (व्यापारी) २४९, २५०, २५१ वासुदेव शर्मा २९६, ३०६, ३१४
विवेकराशि आचार्य ३२४, ३३३, ३३९ वासुदेव सूत्रधार २१६, २१७, २१९
विशाल ग्राम ५२, ५३, ५५ वासौदा परगना ११३
विशाल धर्मभृत १५६, १६१, १६६ विक्रम ब्राह्मण १४७
विश्वरूप ब्राह्मण १५१, १५३, १५४ विक्रम संवत २०८
विश्वस्वामिन् १८१, १८४, १८५ विक्रमांकदेव चरित ८८, १२०, १८६
विश्वामित्र ११३, १२२, १२३, १४०, १५६, विक्रमादित्य षष्ठ चालुक्य ८८, १०७, १८२, १६०, १६६, १८३, १८४, १८८, १९०,२९८, १८३, १८६
३०८,३४० विक्रमादित्य' संवत् ७१
विश्वेश्वर त्रिवेद २५४, २५९, २६४ विजपाल ठकुर २०९, २१२, २१४
विश्वेशर शर्मा २९६, ३०६, ३१४ विजयश्री (राजकुमारी) २३६
विष्णु ५, ६, २५४, २५९, २६४ विजयसिंह कल्चुरि २२० ।
विष्णु चतुर्वेद २५६, २६१, २६६ विजयसिंह देव २०३, २०४
विष्णु ठक्कुर २, ६, ७, १०, २०९, २१२, २१४ विजयसिंह रामपुत्र २०३, २०४
विष्णु ब्राह्मण २४, २८, ३१ विजयसिंह (सामन्त) २२४
विष्णुवर्द्धन होयसल १८६ विजयी चतुर्वेद २५६, २६१, २६६
विसनगरा नागर १ विजा मंदिर १७८
विहार २५ विज्जण २२०
विंध्य २२०, २९४, ३०२, ३११ विज्ञानेश्वर १२०
विंध्य पर्वत १५७, १६४, १६९, १७१ विदर्भ १८२
विध्य मण्डल २२६ विदिशा १७८,२१५, २८७
विंध्यवर्मन् २२४, २३१, २३२, २३३, २३४, विदिशा जिला १०३, १२६, १३४, १४७, २०७, २३५, २३६, २३८, २४०. २४२, २४४, २४६, २८९, ३१५, ३४२
२५३, २५८,२६२, २८०, २८१, २८५, २९३, विदिशा-भोपाल क्षेत्र १९४, २०३
३०१, ३१० विद्याधर अवस्थिन् २९६, ३०४, ३१२ विंशोपक २१६, २१७, २१९
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________________
३७२
वीकूदेव शर्मा २९६, ३०५, ३१३
शंकरवर्मन नरेश ७२ वीर परमार १८१, १८३, १८४
शंकर विद्वान ११९ वीरवर्मन चन्देल १७३
शाकपुर २९४, ३०३, ३११ वीरसिंह २९२, ३००, ३०९
शाकम्भरी ७३, १८७ वीर्यराम चौहान ७३
शाजापुर जिला २१९, २३४, २३६ वील्ह ठकुर २०९, २१२, २१४
शांतिनाथ तीर्थंकर १५५, १९७, १९८ वीसि (अधिकारी) ७८, ८२, ८३, ८६
शावर ब्राह्मण २४, २८, ३१ वूलर ४
शास्त्री के. एन. १३९, १४६ वृत्तरत्नाकर २३६
शास्त्री दुर्गाशंकर केवलराम ४० वेइवशु ३९, ४२
शास्त्री प्रोफेसर ३२३, ३२४ वेगन्दा (वेगन्दी) ग्राम २००
शास्त्री बालगंगाधर १५५ वेणु ९८. १०२
शास्त्री बी. एन. १३३ वेत्रावती नदी २१०, २११, २१३, २१६, २१७ शास्त्री हरप्रसाद ३७ २१८
शाहबाद २५ वेद द्विवेद २८०,२८३, २८६
शाहबाद तहसील २७३ वेन्का ग्राम २६
शाहबाद जिला ३४ वेगी १८६
शांति ठकुर १९७, १९८ वेमक वंश १५५
शांति जिन ७७ वेलपुर ग्राम ७३
शिवतड़ाग १३ वेलूट अभिलेख १८६
शिवदेव उत्कीर्णकर्ता ६७, ६९, ७० वेलुट तालुका १८६
शिवनाथ मंदिर ५ वेल्लवल्लस्थान ५६, ५७, ५९
शिव पुराण १४० वग्राम २५
शिवपुरी १७४ वैजनाथअभिलेख १५८
शिवराम मूर्ति ६९ वैरिसिंह २, ३, ५, ६, १३, १४, १६, १९, २१, शिवालिक १५८
२५, ३४, ३६, १३२, २७४, २७५, २७७, शिलाश्री सूत्रधार १९७, १९८ २९३, ३४०, ३४१
शिवि ९८, १०२ वैरिसिंह प्रथम ११४, १२२, १२४
शुजालपुर २३६, २९५ वैरिसिह द्वितीय (वज्रट स्वामी) ३, ११५, १२२, शुद्रक १२५ १२४, १५६, १६१, १६७, २९३
शुंगा (सामन्त पत्नी) १९०, १९१ व्यापुरमण्डल १५६, १५९,१६५, १७०
शूरवीर १०४, १०९, १११ व्यास महाकवि ३१६, ३१७
शृंगपुर १७३, १७४, १७६ शृंगवास पंडित १२६, १२७, १२९
शृंगार मंजरीकथा ८२, १२०, १२९ शकपुर प्रतिजागरणक २३५, २३६, २३७, २३८ शेरगढ़ ६४, १३४, १३५, १३६, १९७, २७३ शक्तिकुमार गुहिल १९
शेरगढ अभिलेख १०६, १३१,१३४ शयनपाटक ग्राम ३८, ३९, ४१, ४२
शेरशाह सूरी १३५, १३६ . शंकर ब्राह्मण २४, २८, ३१
शोभन ११७ शंकर भगवान ७१, ७३, ७४, ७६
शौकिक ७९, ८३.८६
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________________
३७३
श्यामलदेवी १५७ श्रवणवेलगोला अभिलेख १८७ श्रवणभद्र वंश ७१,७२, ७३, ७४, ७६ श्रवणभद्र स्थान २४, २६, २८, २९, ३१, ३२,
श्रावस्ति २५ श्रीकण्ठ (लेखक) ३०६, ३१४ श्रीकण्ठ शर्मा २९६,३०५, ३१३ श्रीकण्ठ शास्त्री४ श्रीकृष्ण १४८, १५० श्रीगिरि ३२३ श्रीचन्द्र (दण्डनायक) ३१९, ३२१, ३२२ श्रीधर आवसथिक २०९, २११, २१३ श्रीधर कायस्थ ९८, १०२ श्रीधर द्विवेद २०९, २१२, २१४ श्रीधर ब्राह्मण २४, २९, ३२ श्रीनिधि ब्राह्मण १८१, १८४, १८५ श्रीनिवास ब्राह्मण २४, २८, ३१, १८१, १८४,
१८५ श्रीपति भट्ट ४३, ४५, ४६ श्रीपाल श्रेष्ठिन् १९७, १९८ श्रीमाधव (राज्यपाल) ११५ श्रीवत्स शर्मा २९६, ३०५, ३१३ श्रीवादा (स्थान) ५६, ५७, ५९ श्रीविक्रम १४८, १५० श्रीविश्वरूप ब्राह्मण १९३, १९४, १९५ श्रीशर्मन् (सेनापति) ११५ श्रीस्तम्भ ब्राह्मण १४८, १५० श्रीहर (सामान्त) १७१, १७२ श्रीहर्ष २९२, २९३, २९९, ३०८ श्रीहर्षदेव (सीयक द्वितीय) ११५, १२२, १२४ श्वेतपद ७८, ८१, ८३, ८५
सतजन ग्राम २५३ सतजुणा ग्राम २५३, २५८, २६३ सतने ग्राम ८१ सतीस्तम्भ अभिलेख २०३ सत्यकेतु १५६, १६१, १६६ सत्यराज ९३, ९६, १०१ सदुक्तिकर्णामृत ३१९ सनक ऋषि १४१ सनखेड़ा महाल ७३ सनगने ग्राम ८१ सनन्दन ऋषि १४१ सन्ततदेव (सूत्रधार) १०५, ११०, ११२ सप्तशती ग्रन्थ १७८ सप्ताशीति प्रतिजागरणक २९५, ३०४, ३१२ सब्द ग्राम २४० समुद्धरण शर्मा २९६, ३०५, ३१३ समुद्धर ब्राह्मण २५५, २६०, २६५ सम्बलपुर क्षेत्र ११९ सम्मति ग्राम २१९, २२१, २२२ सरकार डी. सी. १९, २६, ३७, ३८, ४०, ४३,
४८,७७, ८२, १४५, १५४, १९७ सरखो ताम्रपत्र २६ सरनाल स्थान ५ सरयु नदी १८० सरस्वती ६८ सरस्वती कंठाभरण ३१९ सरस्वती कण्ठाभरण प्रासाद ६८ सरस्वती नदी १५८ सरस्वती स्थान २५६,२६१, २६६ सर्वदेव आवसथिक २४, २८, ३१ सर्वानन्द ब्राह्मण २४, २५, २७, ३०, ३३, ३५,
1८
संकशक (स्थान) ३९, ४२ संगम (व्यक्ति) ३९, ४२ संगमखेट ७१, ७३, ७४, ७६ संगम नगर ८१ संगम वर्मा १०४
सलखण (राजा) २४५, २४७ सलखणसिंह (मांडलिक) २९४, ३०३, ३११ सलखणसिंह वर्मा २९६, ३०६, ३१४ सल्कनपुर ग्राम २३६ सल्लक्षण वर्मा १७३ सवर्ण प्रासादिका (स्थान) १९३ सवाग ग्राम २१९, २२१, २२२
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________________
३७४
सहिक ग्राम ८, ९
सिंधुल ३४ सागयराणक (सेनापति) ३०३, ३११ । सिंधुलराज १७१, १७२ सागर क्षेत्र २७२
सिनबाद (सेनवाद) ग्राम ४१ सागर जिला २७१
सिरमौर पहाड़ी १५८ सागरनन्दि श्रेष्ठिन् ७७
सिवासनी ग्राम १९४ सागार धर्मामृत ग्रन्थ २७१
सिंह पंडित २१९, २२१, २२२ साढ़ (सेनापति) ७३
सिंहकण्ठ दीक्षित २५४, २५९, २६४ सातवाहन १७२
सिंहदत्तभट्ट (सीयक द्वितीय) ११५ साधारण चतुर्वेद २५६, २६१, २६६
सिंहणदेव (सामन्त) ३०३, ३११ साधारण शर्मा २९६, ३०५, ३१३३
सीका ग्राम ८ सानुमति देवी (रानी) २८८, २८९
सीता कवियित्री ११४ साबरकांठा ३९, ४१
सीतामऊ १८ साबरकांठा जिला ३७
सीतावल्दी अभिलेख १८२ साबरमती नदी ४१
सीयकदेव १, ५, ७, ८, ९, १०, १२, १३, १४, सामलवर्मन् १८७
१६, १९, २०, २५, ३४, ३६, ३८, ४१, ४२, सायण १२०
४३, ४४, ४६, ४८, ४९, ५०, ५२, ५३, ५४, सालवाहन देव ७२, ७३
५६, ५७,५९,६१, ६३, ७८,७९, ८३, ८५, सालूण शर्मा २९६, ३०५, ३१३
९३, २७४, २७६ २७७ २९३ ३४१ साल्मन कवि १५८
सीयक द्वितीय २ ३ ४ ५ ६ ११ २३ २६, सावइरि सोलह २४१, २४२
११७,११८, १५६, १६१,१६७,१८२, ३४० सावथिका २४, २८,३१
सीयक प्रथम ११४, १२२, १२४ साहनीय १९
सीया (सीयकदेव या श्रीहर्ष) २९३, ३००, ३०९ साहवाहन नरेश ७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६ सीले द्विवेद २०९, २११, २१२, २१४ . . साहिर सूत्रधार ६७, ६९, ७०
सीहोर २३९, २४३ सांडेसरा बी. जे. ८२
सुकवि बंधु १४०, १४२, १४४ . सिहर ब्राह्मण २४, २८, ३१
सुंडीर १२०, १२३, १२५ । .. सिहोर जिला ४३
सूद मंत्री ३४१ सिंघण यादव २७४
सुपट ठकुर १७८, १७९ सित सूत्रधार १०५, ११०,११२
सुपूजित राशि आचार्य ३२४,३३३, ३३९ सिंधु २७५, २७७
सुबंधु १२० सिंधु नदी ७२
सुभटवर्मन् २३१, २३२, २३३, २३४, २३५, सिंध प्रदेश ८०
२३६, २३८, २४०, २४२, २४४, २४६, सिंधुराजदेव ११, २६, २९, ३८, ४०, ४१, ४२,
२५३, २५८, २६३, २८२, २८५, २९३,
३०१, ३१० ४३, ४४, ४६, ४८, ४९, ५०, ५२, ५३, ५५,
सुभाषितावली ११६ ५६, ५७, ५९, ६१, ६३, ७८, ७९, ८०, ८३,
सुभाषितरत्नसंदोह ३४ ८५, ८६, ८९, ९०, ९३, १०८, ११५, ११६, ११७, ११८, १२०, १२४, १३६, १३७,
सुरभि गाय १४० १३८, १५१, १५२, १५३, १५६, १६२, सुराचार्य चरितम् ६८ १६८, १७३, १७४, १७६, २७४, २७६, सुरादित्य ब्राह्मण २४, २६, ७१, ७२, ७३, २७७, २९३, ३००, ३०९, ३४१
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________________
३७५
सुरासणी १९३
स्थानेश्वर शर्मा २५५, २६०, २६५ सुल्हण राजकवि २३६
स्वयंतप ब्राह्मण २४, २८, ३१ . सुवर्ण प्रासादिका १९४, १९५
स्थिरकाय २९२, २९९, ३०८ सुवासणी १९४, १९५
स्थिरदेव (सूत्रधार) १२९, १३० सुव्रतदेव मुनि ७८, ८३, ८५ सूरत ८१ सूरत अभिलेख ११८
हत्नावर ग्राम २४४ । सूरत दानपत्र ८०
हथावाड ग्राम ७९, ८१, ८३, ८ सूर शर्मा त्रिवेदी २५४, २५९, २६४ हथिकपावा ग्राम ३१६ सूर्याश्रम नगर १९७, १९८
हथिणावर २४४, २४५, २४६, २५७ सेतुबंध १५७, १६४, १७०
हम्मीर चाहमान २७३ सेमलिया १९
हम्मीर मर्दन २७४ सेम्बलपुर ग्राम १८, १९, २१
हरदत्त शर्मा २०८ सेल्लक नगर ७९, ८१, ८३, ८५
हरदेव ठक्कुर २७५, २७७, २७८ सेंधवदेव पर्व १३४, १३५
हरयाणा राज्य ५३, ७३ सोण्डल पंडित २०९, २१२, २१४
हरसिद्धि देवी १८ सोणभद्र २६
हरसूद ४१, २०७, २४८ सोता द्विवेद २०९, २१२, २१४
हरसोल १, ११, १२, १३ सोनी आर. पी. ३७
हरसोल अभिलेख ४१, ११४, ११५ सोपुर २४, २६, २८, ३१
५६, २६१, २६६ सोमदेव पंडित २०९, २११, २१४, २३५, २३७, हरि दीक्षित २४, २८, ३१ २३९, २४१, २४३, २४५, २४७
हरि दर्शन पाठक २८०, २८३, २८६ सोमनाथ देव ११९, १२०, १२३, १२५, १३७, हरिदेव शर्मा २९६, ३०५, ३१३ १३८
हरिधर पंडित २५४, २५९, २६४ सोमनाथ मंदिर ६४, १३६
हरि पंडित २४, २९, ३२ सोमवती तीर्थ २४१, २४२
हरिराज ३४१, ३४२ सोमवंशी ११९
हरिश्चन्द्रदेव ९८, १०२, १९३, २०७, २०८, सोमेश्वर चतुर्थ २२०
२०९, २१०, २११, २१३, २१६, २१९, सोमेश्वर त्रिवेद २५६, २६१, २६६
२२०, २२१, २२२, २२३, २२६, २२७, सोमेश्वर द्वितीय चालुक्य ८८
२२९, २४९, २५८, २६३, २८०, २८२, सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल ८८, १२०
२८५, २९३ सोमेश्वरदेव मठ ३३३, ३३९
हरिहर त्रिवेदी ३१८ सोलंकी रानी १८२
हरिहर द्विवेदी १२९ सोहागपुर २२०
हरिहर निवास द्विवेदी २१९, २३५, २५० सौमती (लेखक) १४८, १५०
हरीश शर्मा २९६, ३०५, ३१३ स्टीन (लेखक) ७२, १९३
हरौती १७१ स्थली ग्राम ४८
हर्ष ११ स्थली मण्डल ४७, ४८, ४९, ५०
हर्षदेव ३४० स्थानेश्वर ५२, ५३, ५५
हर्ष परमार ३४१
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________________
हर्षदेव पंडित २८०, २८४, २८९
हिन्दु स्टुअर्ट ६८ हर्षपुर ४, ३८, ४१, ४२, २०७, २०८, २४९, हिमालय ११९, १८०, १८१ २५०, २५१
हीरालाल रायबहादुर २०३ हर्षवर्द्धन १०५
हुगली जिला ३२४ हर्ष क पंडित १३४, १३५
हुल्त्ज ४८ हलदर आर. आर. ९१
हूण मण्डल २३, २६ हलधर पाठक २२३
हूण राज ११७, ११८, १२२, १२४ हलसागढ़ ८९
हेमसिंह (राजकुमार) २०३ हलायुध ११४, ११७
हेमाद्रि १३६ हलायुध पंडित ३२२, ३२३, ३३३, ३३९ हैद्राबाद रियासत १८२ हलेविद ग्राम १८६
होयसल ११७ हस्तिनुपुर २५६, २६१, २६६
होयसल वंश १८६ हाल एफ. ई. १२, ११३, २०४, २२५, २३९, होशंगाबाद २२३ २४३, २४८
होशंगाबाद जिला ४१, ११७, २२०, २४४ हिन्दुशाही वंश ७२
होशंगाबाद-भोपाल क्षेत्र २२५
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________________
३७७
शुद्धि पत्र
पृष्ठ
पंक्ति
अशुद्ध
१३
१००
१०१ १०१
२९
१०४ १०५ १०५ १०६ १०६
१५-१६ अंतिम
१०७
१०८
११७
११८ १२५
mar
१४४
पंक्त
पंक्ति अभिलख
अभिलेख प्रवह
प्रवाह आश्रुओं
अश्रुओं कीतिरुपि
कीर्तिरूपी महाबलि
महाबली विकृतरुप
विकृतरूप निरुपित
निरूपित अत्याधिक
अत्यधिक शत्रुरुपी
शत्रुरूपी धूली
धूलि पादानुद्यात
पादानुध्यात उदयादिता
उदयादित्य दशरुपावलोक दशरूपकावलोक किंवदन्ति
किंवदन्ती शुद्रक
शूद्रक नरर्मन
नरवर्मन् उपधमावीय
उपध्मानीय वाक्चातूर्य
वाक्चातुर्य यक्तमधर
युक्त मधुर जोड़ें:-उसके मणिजडित पादपीठ के आस पास की भूमि,
इसके सामने प्रणत नरेशों के मस्तकों के मुकुटों से टूटे सुन्दर माणिक्यों से, दलित हो गई थी। धूली
धूलि विद्विन्न
विच्छिन्न सिद्धानांगनायें सिद्धाङ्गनाएँ वडवाग्नि
वाडवाग्नि पश्चिम की
पश्चिम के थकान की
थकान को बोछार
बौछार धूली
धूलि बाहूबल
बाहुबल विजमंदिर
विजामंदिर अपनी
अपने
२७
१४६ १५८ १६५
१५
अंतिम श्लोक १६
१६७
१६७ १६७ १६८ १६९ १६९
ต * * * * * *
१७२ १७२ १७८ १८०
*
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________________
३७८
पृष्ठ
पंक्ति
अशुद्ध
शुद्ध
१८०
सरयू मलयगिरि
१८० १८०
सरयू
१८५ १९०
१९१
१९७ २१६
२१६
सरयु मलयगिरी सरयु अलंकारिता अधिपत्य अत्याधिक निरुपित वेत्रावती वेत्रावती चतुवर्ग अत्याधिक अलंकारिक सांधिविग्रहक शुरु जामदग्नी अत्याधिक
२३३ २३४ २३५ २३५ २३५ २५४ २६९ २७२
अलंकारता आधिपत्य अत्यधिक निरूपित वेत्रवती वेत्रवती चतुर्वर्ग अत्यधिक आलंकारिक संधिविग्रहक शुरू जामदग्नि अत्यधिक
३७ अंतिम
३०
का
कया
क्या
३०
धूली
धूलि
२७७ २८० २८६ २९४ २९६
अलंकारिक जमदाग्नि सांधिविग्रहिक औवथ्य औवश्य आश्रुओं वाल्मीकी राहू राह
आलंकारिक जामदग्नि संधिविग्रहक औतथ्य (?) औतथ्य (?) अश्रुओं वाल्मीकि
२९६
३१०
राहु
३२१ ३२१
राहु
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________________
मधुकरगह
नदी
चन्द्रावती.
झालरा पाटन
नदी
मन्दसौर
नदी
कालो सिध
alek nngaba
पार्वती
गुज स
उदयपुर)
महुडो • मोडासा
धसान नदी
दांसवाडा
चामला नदी
ग्यारसपुर
-
कदम्बपद्रक
भोपाल | भिलसा
सावरमती
चम्बल नदी गम्भीर नदी
नर्मदा नदी .
• अहमदाबाद
महा
कणावदा
.
इन्दौर कल
पर
अमझेरा.
होशंगाबाद
21
तवा नदी
व
मांधाता,
ताप्ती
नागपर
पयोधि
कालवन
पश्चिमी
।
अ परान्त
पेनगंगा नदी
डोंगरगांव
गोदावरी नदी
-
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________________
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________________
उस
गुगुर गुदा
वल
मरु
मल
रिठ्ठ शुद्धि
का
নেপাाেन
लन॥ सामा समलदल दारा प
Add
1
अभिलेख क्र. १३
भोजदेव का देपालपुर ताम्रपत्र, संवत् १०७९ (गरुड चिन्ह )
अभिलेख क्र. ४
← वाक्पतिराज द्वितीय का धरमपुरी ताम्रपत्र, संवत् १०३१ (गरुड चिन्ह )
नानिको नाम माउ: एट्रीना कुल राममुदार गुदाहारामा नाम दानुगार नायालाल लाया नया परयमः वारपाल अन्यायाविना भाविनः पातिरिकाले ग्याल (या यागाराग्रोस उपाय कालोनी निकम लाला लालयितामनुजीवित वास कलाम अर नदि पुरुष पर कानीयातला उनिसमासाद या गुगलमहरु प्राय कজव
अभिलेख क्र. १० ← भोजदेव की बांसवाड़ा ताम्रपत्र संवत् १०७६ (गरुड चिन्ह )
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________________
नाममाताकोनाना पायाशी धरना व पातमा
माया नमामिलामा RAपालमनरकममाटारमानादयाम HTTARBार नामानितगामनिहाय
नोटमापन मानवमानत कामगावात
दिकात रहातानहासिब किरनपाडानाशमानतागोतलोकहिती Pार देखाsed Hशक्षणविहीवारी महारीमती (सामादितथालनहारमहसाडनावशालता हालसमता शायाराममायापालनाटापासवासाल मुसकाराडलिकनगर EिREसायमाग्रजासतमाहलायानायकरानमारबाहाना । नवनाशश Ealaतमा नितानकामालसाजरावधाता महालकमदानमराताशदानमनस्यातमनायालयासम। aaहवालायादानालाशपातमालासहानतानावनालाहाल दानयाधानामतमासामाहाटयवाससकालकालवाल। Maratतिमलरलायवलालाशयमा तामाङ
वासनममदाह बहानामावश्यक वाटयावालागावता।। GENRE१११२ सराबाठवाइसोटोमारामस्लमहाशामुहमारे ।
शाहयामि देवा
अभिलेख क्र. १९ जयसिंह प्रथम का मांधाता ताम्रपत्र,
संवत् १११२ (उत्तरार्द्ध)
अभिलेख क्र. ५१ महाकुमार हरिचंद्रदेव का भोपाल ताम्रपत्र, संवत् १२१४ (गरुड़ चिन्ह)
भारतताना यासर
का निवासी दासत रायिनि । दवा नसतानातावाद । पवनपालीकाला।
राजावानीमातहतमा । | नातावादारावद।। गवा कमलदलावदिदाता
असम पदासाहातावदानमयाचदरमा
त्यपानिप्रतिभातिनातिलानाममा तिदावादातागोला तानामत लपोलती चित तजिस परम । सात दितीत पाय पल तिमा।| गलासरसानामा पाए उतने लीजियमनबिरामतुपाडीवितता। परकीनीयवितियातना सहाना। Pीमडली कादराया।
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________________
सातारादयानिकि समायोतिसावधानी बसाल
Bावलियन डवः सागंजाति कलापमान डिनारस वात्समाटाहामात इशिकायकमहल मदाबा आदपाय समीरशीसी यकार तारानुमतपत्रमा हारकका हाराजाविराइयपामारीता निगार काममा परमार तारतमहाराजादिराजपामगर शामिदुरा रामशल्यात अपरहार हायकवादी शादिरा बगरम जवाहाकार इजरामा लामखायोलारकागात टाकसमयमा काममा यादा जादूरामत निवासमा नयानयादा समय यापारमारिवाहिश्यपक्षमा दारास सदर बाजारात समका समस्या मारना शासनाइ दिसमस्यवसामानमा यातमा माहिरटायसारा MILAIअपहरमाया गतिमासपा
मामापरलोक यालारमामार कायरामनामनाजधापागायत र दासंघीय गोवाधारयरलागतमा मायमा कल शामला
भोजराजदेव का बांसवाड़ा ताम्रपत्र, संवत् १०७६ (क्र. १०)-गरुड़ राजचिन्ह
dasibut
नयाँ सामmdaiसकता दादमाम समागमा सो पार करेसचीवरम मनम नयदामन रातत्यानुसामा वायदा किसान दिन जाएगायक पवन
क ई पर मामini जायलासा डाटाबहारलास ATM दहति समकालंबारामा इन्द्राक्षाशा ने नारकपूई विमान निन्दासिनरादिर्यायीचा नमाराहामा कर दिरसमरिक मा
डावतो भी काम है । सो समापनेलमिनियमाला लिन पाएल
लाखो मा विहार निरसा परिमाणमामालनीमार राव समजावाद मानाय रामाय र नयाग यानी हर साल पुरानराना
दिनसमरालाला मटि निमा जाति का नाम: एनसरीन यातील कामदारमुरीद इसका नाम रमालागरमाया सानिरिमाललइनलंगारानगरपयशासायात
मोतिरामा नेता मानिन नालंदा यामागास सावरकर इस R सामागयोस यानीका मालिपाखापाल मददी PALANAGEपर हावीचालणे हा नाममा रामायण
नायरामा । जसलामी सूर, सायली सोनार
11
भोजराजदेव का देपालपुर ताम्रपत्र, संवत् १०७९ (क्र. १३), -गरुड़ राजचिन्ह
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Jain Education Therional
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बिर्तमाना साती पंचगी स्तन) अवतन। परोक्षा.श्वस्तन्वा आयी। भविष्यतीक्रियासिल
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ताहे सोय ।
तत्वहे। सीबहि स्थावहे | स्यावहि|१०
। महे । तास्महे | सीमहि स्यामहे स्यामहि १०
ताव मीध्वम् | स्यध्वं । स्यध्वम् १०
ति । यात् | तु त् त् अट(अ)/ ता । यात् । सम् याताम् । ताम् । साम् । ताम् । अतुः । तारो |यास्ताम् | स्पतम् /स्पताम् न्ति । युम् | अन्तु । अन् । अन् | उस् सारस् यामुस | स्पन्ति । स्यन् १० सि. यास् । हि सि(म्) | सि (स्)[ थ । तासि | यास् | स्यसि | स्यस् ।
तास्थम् / यास्तम् | स्यबस् | स्यतम् | १० ३. यात | त । त त अ लास्थ यास्त । स्पथ।
तास्मि यासम् | स्यामि | स्यम् १० वस् | याव | आव
व व म | म तास्मस् । यास्म | स्यामस्स्याम१० ३० ९१
ए | ता | सीष्ट स्थत स्वत १० और याताम् | आताम् | आताम् साम् | आते | सारी सीयास्तामु स्येते | स्येताम् १० ईरन् अन्तामा अन्त । अन्त है ।
| तारस् । सीरन् । स्यन्ते । स्वन्त १०) से ईयास स्व | थास् थाम् । से | तासे सीष्ठास् | स्यसे | स्यथास् १० २. बा | ईयाथाम् । आधिाम् | बाथाम् | आधिाम् | आथे तासाथै सीयास्थाम् स्येथे | स्याम् वे ईध्वम् । ध्वम् | ध्वम |
(धातु प्रत्ययमाला) सर्पबंध क्रमाङ्क-2
अमर
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aanजतनुतासार या मानानाशापता लारा तानाजबादकतारमणानिधारमा
पालापारासतज्ञारतानमा समय भारत्या पदयात्तानपानमा नाम निकासन्जमाता
मारवाशनाला गाना लामाका मागास पाणी,
सामागमसमानताता जाकर सुपातमा तालिपातलाटावातावानवासातदिनानाशामाता मामला पनवासावा सतततावतायतमाशातार लाख जानना चाहासात सात दिन तक लागलामा सगरम भातावानाताना HALE सातामसी पासपणा आधादिवाना चादन समितिका सातायातमा नाम सापामगाराजालात इसमान वागना शताब एमाला पालात का पता लगाया पायदानर वामदातामा THIS माला नसानसपतालमा मनमजामाटाताकालवालालसालाना
रामदारमा कागात बालसालात मसान्तालापानतावदान मांग । साहराया लागतासापायालयालगतादमामताज लातिनलाल पाना समानात सायानातला चापायाला
नात मानाचा निकाला
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वारा
दगडास जिवा मामनिकः सतनाली क
मनीतकीतिः सद मलयाले तितिः जातंकालक श्रावृतमनतिन की पताका विदावनीयनंदिमादिम शिली कलका
पुनः प्रीतिवास
अध्यापन
रानिपाताम
गानि तानाज ताली गाय जाकाहि
समता पाताल उत्तीर उपमालिनि
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उदयपुर का ज्ञातपुत्र उदयास्य का नीलकंठेश्वर मंदिर प्रस्तर अभिलेख (क्रमांक २१)
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नारी ननदार
पहलमा विद्र
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राजा राम जी
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पाशEबाद
तकनपशुपक्षमा पार
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HTTARTELWEE Salheti Eि HITS MERARMA
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FATRAPATRINA
हवादतर
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जखममा
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नामिक जत्रा पारितलिदिने कराठात जनपिनमा
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