SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२६) महासाधनिक अश्वसेना का मुखिया होता था। वह महत्वपूर्ण दुर्गों में भी नियुक्त होता था । महामात्र हस्ति सेना का मुखिया होता था। न्याय व्यवस्था परमार कालीन न्याय व्यवस्था के संबंध में हमारी जानकारी बहुत अधिक नहीं है। समकालीन साहित्यिक ग्रन्थों के आधार पर मोटे रूप से कहा जा सकता है कि परमार नरेश साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था तथा उसके निर्णय अंतिम होते थे। नरेश की सहायता के लिए धर्मशास्त्रों में पारंगत विद्वान ब्राह्मण होते थे। न्याय विभाग के कतिपय अधिकारी इस बात का ध्यान रखने के लिए नियुक्त होते थे कि किसी के साथ ज्यादती अथवा अन्याय न हो। ऐसे अधिकारी को धर्मस्थेय' कहा जाता था। वैसे अनेक विवाद स्थानीय पंचायतों द्वारा ही निबटा दिए जाते थे । नगरवासियों में उठने वाले आपसी विवाद वहां के पंचकुल के सामने लाए जाते थे। अपराध प्रमाणित हो जाने पर काणिक नामक अधिकारी नरेश के सम्मुख रिपोर्ट प्रस्तुत करता था। इस रिपोर्ट को तैयार करवाने में नगरज्येष्टों का योगदान भी कुछ कम महत्व का न था। साम्राज्य में दण्डव्यवस्था प्रायः कठोर थी जिसके भय के कारण अपराधों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी। पुलिस व्यवस्था साम्राज्य की पूलिस व्यवस्था में केन्द्रीय प्रशासन का दखल प्रायः नाममात्र का था। यह कार्य मुख्यरूप से सामन्तों, माण्डलिकों तथा ग्राम पंचायतों का था । सर्वत्र स्थानीय अधिकारी अपने अपने क्षेत्रों में आन्तरिक सुरक्षा तथा शांति स्थापना के लिए उत्तरदायी होते थे। साम्राज्य के बड़े छोटे सभी नगरों में तलार एवं दण्डपाशिक नामक अधिकारी नियुक्त होते थे जिनका मुख्य कार्य जनसुरक्षा होता था। ये अधिकारी नगरों में दुराचारियों एवं नवागन्तुकों पर कड़ी नजर रखते थे। वे अपराधी को खोजते थे, अपराध प्रमाणित करवाते थे तथा अपराधी को दण्डित करवाने हेतु न्यायालय में प्रस्तुत करते थे। राजस्व एवं कर विभाग परमार नरेशों को प्रशासनिक व्यवस्था में भारी मात्रा में धन की आवश्यकता होती थी। इस कारण उन्होंने अपने साम्राज्य में राजस्व एवं कर विभाग को सदा सुव्यवस्थित रखा। प्रायः सभी परमार दानपत्र अभिलेखों में भूदान का उल्लेख करते समय उसके साथ “हिरण्य-भागभोग-उपरिकर-सर्वादाय समेत" अथवा "भाग-भोग-कर" अथवा "कर-हिरण्य-भाग-भोग" आदि का भी अनिवार्य रूप से उल्लेख मिलता है। इससे प्रमाणित होता है कि भाग भोग हिरण्य एवं उपरिकर उस समय अत्यन्त महत्वपूर्ण कर थे। भाग--यह उपज का परम्परागत राज्य का भाग होता था। यह सामान्यतः उपज का छठा भाग होता था, परन्तु आवश्यकता पड़ने पर इसमें परिवर्तन भी हो सकता था। भोग--यह फल, फूल, दूध, दही अथवा ईंधन आदि के रूप में दिया जाने वाला कर था जो समय समय पर नरेश अथवा उसके प्रतिनिधि को दिया जाता था। उपरिकर--यह अलग से दिया जाने वाला कर था जो कारीगरों एवं व्यापारियों आदि के द्वारा वस्तु के रूप में दिया जाता था। हिरण्य--हिरण्य का सामान्य अर्थ सुवर्ण या बहुमूल्य वस्तु होता है। परन्तु यहां यह उपज की ऐसी वस्तुओं से संबंधित है जो अधिक समय तक रखी नहीं जा सकती थी। ऐसी वस्तुओं पर लगा कर धन के रूप में देय होता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy