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________________ (२७) शुल्क--यह बाजार की वस्तुओं पर दी जाने वाली चुंगी होती थी, जिसकी दर वस्तु के मान से अलग अलग होती थी। शुल्क दो प्रकार का होता था। प्रथम, मण्डपिका जो सडकों व मार्गों से मण्डी को ले जाई जाने वाली व्यापारिक वस्तुओं पर लिया जाता था। द्वितीय, घट्टादाय जो नावों द्वारा नदियों से ले जाई जाने वाली बिक्री की वस्तुओं पर देय होता था। घट्टादाय का उल्लेख अर्जुनवर्मन् के अभिलेखों (क्र. ६०-६१) में प्राप्त होता है। इस शुल्क को उगाहने वाले अधिकारी को संभवतः घट्टपति कहते थे। __ मार्गादाय--सड़कों एवं मार्गों पर लगाए जाने वाले कर को मार्गादाय कहते थे। परमार अभिलेखों में इस प्रकार के कर लगाए जाने के उल्लेख मिलते हैं। नरेश जयसिंह प्रथम के पाणाहेड़ा अभिलेख (क्र. २०) में उल्लेख है कि वहां के मार्ग से व्यापारिक माल ढोकर ले जाने वाले प्रत्येक बैल पर एक विंशोपक कर लगाया गया था जो स्थानीय देवालय को दान में दे दिया गया था। इसी प्रकार शेरगढ़ अभिलेख (क्र. २९) में उल्लेख है कि मार्गादाय कौप्तिक (अधिकारी) वरंग ने मार्गादाय से प्राप्त होने वाले धन से पांच वृषभ (सिक्के) भगवान सोमनाथ के मंदिर के लिए दान में दिए थे। गृह-कर--प्रतीत होता है कि उस समय आज के समान घरों पर भी कर लगाया जाता था। अर्जुनवर्मन् के सीहोर दानपत्र अभिलेखों (क्र. ६०-६१) में आवासगृहों पर कर लगाए जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस प्रकार प्राप्त धन को स्थानीय देवालय के लाभ हेतु दान में दे दिया गया था। उपरोक्त करों के अतिरिक्त अधीन सामन्तों एवं माण्डलिकों से प्राप्त भेटें भी राज्य की आय के प्रमुख साधनों में सम्मिलित थीं। इसके साथ ही अपराधियों पर लगाया जाने वाला अर्थदण्ड तथा उत्तराधिकारी के अभाव में किसी मृत व्यक्ति का धन राज्य की सम्पत्ति होता था। नरेश अपनी राज्य की सारी भूमि, वन, वनोपज, खानों, भूमि में गड़े व छिपे धन आदि का स्वामी होता था। वह समय समय पर ग्रामवासियों से बेगार करवा सकता था। इस प्रकार नरेश की आय के पर्याप्त साधन थे। इसी कारण परमार राजवंशीय नरेशों ने अपने साम्राज्य एवं उससे बाहर सांस्कृतिक, धार्मिक तथा शिक्षा संबंधी कार्यों में मुक्तहस्त धन व्यय करके चहुं ओर यश अर्जित किया। नागरिक व्यवस्था साम्राज्य में बड़े-छोटे सभी नगरों तथा महत्वपूर्ण ग्रामों की व्यवस्था स्थानीय अधिकारियों तथा निवासियों के हाथों में थी। नगरों में स्थानीय अधिकारियों में महत्तम, बलाधिकृत तथा साधनिक होते थे। इनकी सहायता के लिये पंचकुल एवं अन्य जनप्रतिनिधि होते थे। ये प्रतिनिधि स्थानीय प्रशासन में बारी बारी से विभिन्न समितियों के माध्यम से कार्य करते थे। जनसमितियों में पंचकुल अर्थात् चुने हुए पांच विशिष्ट व्यक्तियों की समिति सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी। परमारों के आबू एवं बागड़ शाखाओं के अभिलेखों में पंचकुल के बार बार उल्लेख प्राप्त होते हैं। पंचकुल का एक अध्यक्ष होता था जो नगर का अत्यन्त विशिष्ट व्यक्ति होता था। यह पंचकुल राजकीय व अन्य भूदानों का पंजीकरण करते थे । ये स्थानीय अनेक झगड़ों का निबटारा भी करते थे । गुजरात से प्राप्त अभिलेखों में पंचकुल को अनेक महत्वपूर्ण राजकीय कार्यों से सम्बद्ध किया गया है। महत्तम अथवा महत्तर नगरों एवं महत्वपूर्ण ग्रामों में यह एक स्थानीय अधिकारी होता था जो नागरिक जीवन में पर्याप्त दखल रखता था। चाहमान अभिलेखों में महत्तम के स्थान पर महाजन शब्द का प्रयोग किया गया मिलता है। यह अधिकारी स्थानीय प्रशासन के लिये पूर्णतः उत्तरादायी होता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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