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सेना के अंग कहे जा सकते हैं। इसके विपरीत भृत्य भाड़े के सैनिक होते थे जो किसी एक अभियान में भाग लेने हेतु विशेष रूप से भरती किए जाते थे । उदयपुर अभिलेख ( क्र. २२) में उल्लेख है कि किस प्रकार नरेश भोजदेव के भृत्यों ने युद्ध में शत्रुसैन्य को भगा दिया था । परन्तु भृत्य सैनिकों पर बहुत विश्वास नहीं किया जा सकता था । ऐसे सैनिक शत्रुपक्ष द्वारा अधिक धन का लालच दिए जाने पर विपक्ष की ओर से लड़ने को उद्यत हो जाते थे ।
शत्रु का आक्रमण होने अथवा विजय अभियान करने के अवसरों पर अधीन माण्डलिकों एवं सामन्तों की सेनाएं नरेश की सहायता हेतु आती थीं। इसके अतिरिक्त मित्र बल भी सम्मिलित हो जाता था, विशेषतः जब मित्र नरेशों का शत्रु समान हो । परमार अभिलेखों में इस प्रकार fa नरेशों द्वारा संघ निर्माण के अनेक उदाहरण मिलते हैं ।
परमार सेना में प्रधानतः तीन विभाग होते थे-भट या पैदल सेना, अश्व सेना एवं हस्ति सेना (अर्जुनवर्मन् के अभिलेख क्र. ५९-६१ ) । नरेश भोजदेव कृत युक्तिकल्पतरु ग्रन्थ में पदाति सेना का महत्व दर्शाया गया है। इसी प्रकार अश्वों की श्रेष्ठ एवं निकृष्ट श्रेणियों का विवरण है। इसमें कहा गया है कि कज़ाकिस्तान एवं तुषार देशों के अश्व श्रेष्ठ होते हैं, परन्तु सिंध के निकृष्ट होते हैं । इसी प्रकार अनेक स्थलों पर हस्ती सेना की प्रशंसा भी मिलती है । कल्याणी के चालुक्यों के विरुद्ध युद्ध में वाक्पति मुंज ने १४७६ हाथी गंवाए थे ( प्रभावक चरित्, पृष्ठ २३) । त्रिपुरी पर सफल अभियान के पश्चात्, लक्ष्मदेव की सेना ने नर्मदा नदी के किनारे पड़ाव डाला था जहां उसके हाथियों ने नदी में स्नान कर युद्ध की थकान दूर की थी ( अभिलेख क्र. ३६, श्लोक ४०-४२ ) । नरेश अर्जुनवर्मन् ने अपने राजकीय हाथी पर सवार होकर चौलुक्य नरेश जयसिंह पर विजय प्राप् त की थी (विजयश्री नाटिका, एपि. इं., ऋष्ठ १०२ ) । एक होयसल अभिलेख में मालव नरेश को 'गजपति' कहा गया है एपि. क., भाग ६, क्र. १५६) ।
समुद्र से दूर मालव प्रदेश में स्थित परमार नरेशों ने नौसेना के गठन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया । परन्तु साम्राज्य के भीतर विद्यमान बहुसंख्यक नदी नालों को पार करने हेतु निश्चित ही उन्होंने विभिन्न प्रकार की नावों का प्रबन्ध अवश्य कर रखा होगा |
परमार नरेशों ने अपने साम्राज्य में स्थित दुर्गों का समुचित प्रबंध किया हुआ था । नगरों एवं विशिष्ट ग्रामों के चारों ओर परकोटे बने थे । तत्कालीन प्रमुख दुर्गों में मंडप दुर्ग, कोषवर्द्धन दुर्ग (शेरगढ़), धार, जालोर, राहतगढ़, भिलसा, उज्जैन, गुणपुर आदि थे। इनमें सैनिक एवं युद्ध के शस्त्रास्त्र पर्याप्त मात्रा में रखे जाते थे। इसी कारण शत्रुसैन्यों को अनेक बार उपरोक्त दुर्गों को भेदने कठिनाइयों का सामना होने के विवरण मिलते हैं। गुजरात नरेश जयसिंह सिद्धराज को परमार नरेश नरवर्मन् एवं यशोवर्मन् के विरुद्ध बारह वर्ष तक युद्ध चालू रखना पड़ा । अन्ततः एक भेदी की सहायता से ही वह धारा नगरी के मुख्य द्वार को भेद सका था ( कुमारपाल भूपाल प्रबंध, अध्याय १) |
परमार नरेशों की युद्धकला परम्परागत सिद्धान्तों पर आधारित थी । वे प्रायः धर्मयुद्ध में विश्वास करते थे । संभवत: इसी कारण जब भी किसी पड़ौसी शक्ति से उनका सामना हुआ तो वे प्रायः सफल रहे । परन्तु जैसे ही द्रुतगामी तुर्की अश्वारोहियों से उनका मुकाबला हुआ, वे बुरी तरह असफल हुए ।
सैनिक अधिकारियों में दण्डनायक का पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। अन्य अधिकारियों में बलाधिकृत, महासाधनिकः (अभि. क्र. ५) एवं महामात्र के उल्लेख भी किए जा सकते हैं। इनमें से बलाधिकृत कनिष्ट सेनापति होता था । कभी कभी वह नगरों का अधिकारी भी बनाया जाता था ।
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