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________________ २९२ परमार अभिलेख - अभिलेख १४० पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर २१ पंक्तियां, दूसरे पर २२ व २३, तीसरे पर २३ व २३ एवं चौथे पर २३ व ५ पंक्तियां उत्कीर्ण हैं । अभिलेख के अक्षर सुन्दर हैं एवं सावधानीपूर्वक खोदे गये हैं । सारा अभिलेख ठीक से सुरक्षित है। केवल तीसरे ताम्रपत्र के अग्रभाग पर ६३ सें. मी. लंबी एक दरार पड़ी है । परन्तु इसके अक्षर संदर्भ में जोड़े जा सकते हैं। अभिलेख के अन्त में दोहरी पंक्ति के चौकोर में गरूड़ का रेखाचित्र है। इसका शरीर मानव का एवं मुखाकृति पक्षी की है । इसके चार हाथ हैं । दो हाथ अभिवादन की मुद्रा में जुड़े हैं । तीसरे हाथ में फणदार सर्प है व चौथा उसको मारने हेतु ऊपर उठा है। गरूड़ आभूषण पहने हैं एवं एक मंदिर के भीतर है। यह परभार वंश का राजचिन्ह है। अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी लिपि है । अक्षर प्रायः १.२ सें. मी. लंबे हैं एवं ढंग से गहरे खोदे गये हैं। छूटे हुए अक्षरों को पंक्ति के ऊपर बारीकी से बना दिया गया है। कुछ अक्षरों को मिटाकर अथवा काट कर ठीक करने का प्रयत्न किया गया है। भाषा संस्कृत है एवं गद्यपद्यमय है। इसमें ७३ श्लोक हैं जिनमें क्रमांक दिये हैं । परन्तु उत्कीर्णकर्ता की भल से श्लोक २१ को क्रमांक देना रह गया । इस कारण कूल ७३ न होकर ७२ दी हई है। ये सभी श्लोक विभिन्न छन्दों में सुन्दर भाषायुक्त हैं । शेष अभिलेख गद्य में है, परन्तु यह भाग थोड़ा ही है । श्लोकों में क्रमांक से उस काल की अंकलेखन शैली ज्ञात होती है। व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, स के स्थान पर श, श के स्थान पर ह, ण के स्थान पर न, ख के स्थान पर ष, म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है । अनेक स्थलों पर शब्द त्रुटिपूर्ण लिखे हैं जिनके लिये उत्कीर्णकर्ता उत्तरदायी है। इसमें काल व प्रादेशिक प्रभाव भी उजागर होता है। तिथि पंक्ति ९१-९२ में शब्दों में प्रमाथिन् संवत्सर १३३१ भाद्रपद शुक्ल ७, शुक्रवार मैत्री नक्षत्र है । यह शुक्रवार १० अगस्त, १२७४ ई. के बराबर है । प्रमुख ध्येय पंक्ति ८७ व आगे में वर्णित है । इसके अनुसार धारा नरेश जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय द्वारा आज्ञापित साधनिक अनयसिंहदेव द्वारा चार ग्रामों में स्थित भूमि को ब्रह्मपुरी (मांडव) की ब्राह्मणबस्ती एवं मांधाता में निवसित विभिन्न ब्राह्मणों को दान में देने का उल्लेख करना है। __ अभिलेख का प्रारम्भ ओं से होता है जो एक चिन्ह द्वारा अंकित है। प्रथम ११ श्लोकों में विभिन्न देवताओं की अर्चनायुक्त प्रशंसा है। श्लोक १२-१४ में परमार वंश की उत्पत्ति से संबंधित पौराणिक विवरण है । श्लोक १५ में इसको राजन्य (क्षत्रिय) वंश कहा गया है । श्लोक १६ से ५८ तक में राजवंशीय नरेशों की जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय तक उनके सामान्य प्रशंसायुक्त विवरणों सहित वंशावली दी हुई है । इस सूचि में २४ शासकों के नाम हैं । परन्तु इनमें प्रथम नौ नाम काल्पनिक प्रतीत होते हैं। जैसे कमंडलुधर धाराधीश (श्लोक १६), तत्पुत्र धूम्रराज (श्लोक १७-१८), तत्पुत्र देवसिंहपाल (श्लोक १९), तत्पुत्र कनकसिंह (श्लोक २०), तत्पुत्र श्री हर्ष (श्लोक २० अ), जगद्देव (श्लोक २१-२२), स्थिरकाय (श्लोक २३), बोशरि धाराधिपति (प्रलोक २४), तत्पुत्र वीरसिंह (श्लोक २५)। ये सभी नरेश, जो एक समूह के रूप में प्रतीत होते हैं, परमार राजवंशावली में प्रस्तुत अभिलेख के माध्यम से प्रथम बार जुड़े हैं। वैसे धूम्रराज का नाम संभवतः अर्बुद शाखा से लिया गया है । इस नाम के एक नरेश का ताम्रपत्र अभिलेख आबू से प्राप्त होता है (एपि. इं., भाग ३२, पृष्ठ १३५)। श्लोक २५ में उल्लिखित वीरसिंह, जो काल्पनिक नरेश वोशरि का पुत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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