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मान्धाता अभिलेख
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कहा गया है, शायद वैरिसिंह का रूपान्तर हो । वह वाक्पति प्रथम का पिता था जिसका उल्लेख आगे श्लोक २६ में है । श्लोक २१-२२ में जगद्देव का परमार वंशावली उल्लेख अवश्य है परन्तु वह बहुत बाद में हुआ। वह उदयादित्य का पुत्र था एवं उसके दो अभिलेख क्र. ४२-४३ प्राप्त होते हैं । चारणों के विवरण से ज्ञात होता है कि संवत् ११५४ तदनुसार १०९७ ई. में उसने देवी काली को अपना मस्तक अर्पण कर दिया था ( डी. आर. भण्डारकर, सूचि क्र. ३९७) । श्लोक २० अ में श्री हर्ष, जो कनकसिंह का पुत्र व उत्तराधिकारी था, का भी ज्ञात परमार वंशावली में कोई उल्लेख नहीं मिलता । नरेश सीयक उपनाम श्रीहर्ष अपने पिता वैरिसिंह उपनाम वज्रट के बाद राज्याधिकारी बना था, परन्तु उसका उल्लेख प्रस्तुत अभिलेख के श्लोक २७ में है । इस प्रकार यहां वर्णित वंशावली में कल्पना एवं भ्रम दोनों का ही समावेश किया गया है ।
आगे श्लोक २६ से ५६ तक में परमार वंश के १५ नरेशों का उल्लेख है । परन्तु इसमें कुछ ज्ञात नरेशों के नाम छोड़ दिये गये हैं । श्लोक २६ में वाक्पति प्रथम का उल्लेख है जो प्राकृत की सूक्तियों के लिए विख्यात कहा गया है। प्रतीत होता है कि उसके प्रपौत मुंज उपनाम वाक्पति द्वितीय, जिसका उल्लेख श्लोक २८-२९ में है, की प्रशंसा प्रस्तुत श्लोक में कर दी गई है । श्लोक २७ में वाक्पति प्रथम के पौत सीया अर्थात् सीयक द्वितीय उपनाम श्री हर्ष का उल्लेख है, परन्तु उसके पुत्र वैरिसिंह द्वितीय उपनाम वज्रटस्वामी को छोड़ दिया है । श्लोक २८-२९ में मुंज अपरनाम वाक्पति द्वितीय का उल्लेख है । परन्तु उसके पिता सीयक द्वितीय से उसका संबंध नहीं दर्षाया गया है। श्लोक ३०-३१ में सिंधुराज का उल्लेख है परन्तु यहां भी उसके अग्रज व पूर्वाधिकारी से उसका संबंध उजागर नहीं किया गया है। श्लोक ३२-३५ में भोजराज के राज्याधिकारी होने व उसकी उपलब्धियों का सामान्य विवरण है, परन्तु सिंधुराज से उसके संबंध स्पष्ट नहीं किए गये हैं। उसके उत्तराधिकारी जयसिंह प्रथम (१०५५-१०७० ई.) को पूर्णतः छोड़ दिया है ।
श्लोक ३६ में भोज के बाद उदयादित्य ( १०७०-१०९४ ई.) के राज्याधिकारी होने का उल्लेख है परन्तु दोनों के संबंध स्पष्ट नहीं किए गये हैं। यहां उसके गुर्जर नरेश से राज्य की पुनर्प्राप्ति का उल्लेख है। श्लोक ३७-३८ में उसके पुत्र नरवर्मन् का उल्लेख है । श्लोक ३९ में यशोवर्मन् का उल्लेख है परन्तु पूर्व नरेश से उसके संबंध उजागर नहीं किए गए हैं। श्लोक ४०-४१ में उसके बाद जयवर्मन् प्रथम का विवरण है। श्लोक ४२ में उसके पुत्र विंध्यवर्मन् एवं श्लोक ४३ में उसके पुत्र सुभटवर्मन् के उल्लेख हैं । परन्तु इनके संबंधों को दर्षाया नहीं गया है। श्लोक ४४-४५ में अर्जुनवर्मन् एवं श्लोक ४६-४८ में देवपालदेव के उल्लेख हैं परन्तु यहां भी इनके संबंधों को उजागर नहीं किया है। हमें अन्य अभिलेखों के साक्ष्य से ज्ञात है कि देवपालदेल परमारों की महाकुमारीय शाखा से संबंधित था । वह महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् ( ११४४ ई.) का पौत्र था जो स्वयं नरेश अजयवर्मन् का अनुज था । यह शाखा भोपाल- होशंगाबाद - नीमाड़ - खानदेश भूभाग पर शासन करती थी । लक्ष्मीवर्मन् के बाद उसका पुत्र महाकुमार हरिश्चन्द्र ( ११७९-८१ ई.), फिर उसका पुत्र महाकुमार उदयवर्मन् (१२०० ई.) उक्त प्रदेश के राज्याधिकारी बने । उसके बाद उसका छोटा भाई देवपालदेव सिंहासनारूढ़ हुआ । उधर मुख्य राजवंश में नरेश अर्जुनवर्मन् के पुत्र न होने से देवपालदेव राजवंशीय सिंहासन का भी अधिकारी बना। इस प्रकार परमारों के दोनों घराने पुनः एक हो गये । श्लोक ४८ में महत्वपूर्ण उल्लेख
। इसमें देवपालदेव द्वारा भैल्लस्वामिन् नगर के पास एक म्लेच्छाधिप के युद्ध में मारे जाने का विवरण है। इस घटना का संबंध दिल्ली के गुलाम वंशीय सुल्तान इल्तुतमिश ( १२११
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