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________________ २९४ परमार अभिलेख १२३६ ई.) के आक्रमण से है। मुसलिम इतिहासकारों के अनुसार हिजरी सन् ६३२ तदनुसार १२३३-३४ ई. में इल्तुतमिश ने मालवा पर आक्रमण कर भिलसा के दुर्ग पर अधिकार कर वहां एक मुसलिम गवर्नर नियुक्त कर दिया था (तारीखे फरिश्ता, ब्रिग्ज का अनुवाद, भाग १, पष्ठ २११: तबकाते नासिरी, रेवटी का अनुवाद, भाग १, पृष्ठ ६२२; इलियट व डाऊसन, हिस्ट्री ऑफ इंडिया, भाग २, पृष्ठ ३२८)। प्रस्तुत श्लोक ४८ में देवपालदेव के कृत्य से ऐसा प्रतीत होता है कि परमार नरेश ने मुसलिम प्रान्तपति को युद्ध में परास्त कर मार डाला एवं भिलसा का प्रदेश मुसलमानों से स्वतंत्र करवा लिया। प्रायः अर्द्धशती पश्चात् दिल्ली सुल्तान अलाऊद्दीन खिल्जी ने इस नगर पर पुनः अधिकार कर लिया (तारीखे फरिश्त पृष्ठ ३०३-४)। श्लोक ४९ में देवपालदेव के बाद जयतगिदेव के शासनाधिकारी होने का उल्लेख है। श्लोक ५०-५६ में दानकर्ता नरेश का विवरण है। परन्त दोनों के आपसी संबंध के बारे में कुछ भी इंगित नहीं किया गया है। यहां यह जानना रोचक है कि श्लोक ५४, ५६ एवं पंक्ति रेश का नाम जयवर्मन लिखा है, परन्तु श्लोक ५१-५२ में उसको जयसिंह कहा गया है। इसके अतिरिक्त श्लोक ५२ में एक अन्य रोचक उल्लेख है कि राजसिंहासन पर आरूढ़ होने के विषय में जयसिंह-जयवर्मन् एक साथ पौत्र (पुत्र का पुत्र) एवं दौहित्र (पुत्री का पुत्र) था। परमारों की एक शाखा से संबद्ध देवपालदेव ने राजवंशीय नरेश अर्जुनवर्मन् का राजसिंहासन प्राप्त किया था। इस कारण इसका भाव यह लगाया जा सकता है कि चूंकि जयसिंह-जयवर्मन् स्वयं को नरेश अर्जुनवर्मन् का एक साथ पौत्र एवं दौहित्र मानता है तो देवपालदेव को जामाता एवं उत्तराधिकारी के रूप में अर्जुनवर्मन् के राजसिंहासन पर आरूढ़ होने वाला स्वीकार करना उचित है। श्लोक ५४ में जयसिंह-जयवर्मन् (द्वितीय) द्वारा विध्य के दक्षिण की ओर किसी दाक्षिणात्य नृपति पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख है। यह दाक्षिणात्य नृपति संभवतः यादव नरेश रामचन्द्र था। इस घटना से दो वर्ष पूर्व ही उसके मालव राज्य पर सफल आक्रमण का उल्लेख उसके शक संवत् ११९४ तदनुसार १२७२ ईस्वी के थाना ताम्रपत्र से प्राप्त होता है (एपि. इं., भाग १३, पृष्ठ २०२-३) । अतः यह संभव है कि यादव नरेश से बदला लेने के अभिप्रायः से जयसिंह-जयवर्मन् (द्वितीय) ने उस पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की है। अगले वर्ष इस परमार नरेश की मृत्यु हो जाने पर अर्जुनवर्मन् (द्वितीय) परमार सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। यादव नरेश ने पुनः परमार राज्य पर आक्रमण कर अर्जुनवर्मन् पर विजय प्राप्त की जैसा उसके शक संवत् ११९८ तदनुसार १२७६ ई. के उदारी प्रस्तर अभिलेख से विदित होता है (ए. रि. आ. स. मैसूर, १९२९, पृष्ठ १४३)। . आगे श्लोक ५७-६६ में परमारों के अधीन चाहमान वंशीय मांडलिकों का वर्णन है। श्लोक ५७ में राटो राउत (रावत, संस्कृत-राजपुत्र), श्लोक ५८ में उसके पुत्र पल्हणदेव के उल्लेख हैं जिन्होंने अपने स्वामी की राजलक्ष्मी को स्थिर किया । श्लोक ५९-६० में उसके पुत्र सलखणसिंह का उल्लेख है जिसने अपने स्वामी अर्जुनदेव को युद्धों में सहायता की थी। अर्जुनदेव प्रथम (१२१०-१२१६ ई.) के अभिलेखों में उसके सांधिविग्रहिक राजा सलखण का उल्लेख मिलता है। वह जैन विद्वान आशाधर का पिता कहा जाता है। . श्लोक ६१-६६ में सलखसिंह के पुत्र अनयसिंह के कार्यों का विवरण हैं। वह प्रस्तुत दान का दानकर्ता था उस ने देपालपुर में एक शिवमंदिर व एक तड़ाग, शाकपुर में अम्बिका का मंदिर, ओंकार (ओंकारेश्वर) मंदिर के पास जम्बुकेश्वर शिव का मंदिर, मंडपदुर्ग के मध्य एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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