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हरसोल का सीयक द्वितीय का ताम्रपत्र 'अ'
(संवत् १००५=९४९ ईस्वी)
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो गुजरात राज्य में अहमदाबाद जिले के अन्तर्गत हरसोल ग्राम में एक विसनगरा नागर ब्राह्मण के पास थे। अभिलेख का प्रथम उल्लेख डी. बी. डिस्कलकर ने ए.रि. वा. म्यू. १९२२-२३ पृष्ठ १३ पर किया। बाद में इसका विवरण प्रो. आ. इं. ओ. कां. मद्रास, पृष्ठ ३०३ व आगे में छपा। पुनः गुजराती जर्नल पुरातत्व, भाग २, पृष्ठ ४४ व आगे में इसका विवरण छपा । के. एन. दीक्षित द्वारा इसका सम्पादन कर एपि. इं., भाग १९, १९२७, पृष्ठ २३६ व आगे में ताम्रपत्रों के फोटो के साथ छापा गया ।
__ ताम्रपत्रों का आकार २१॥ ४१३।। सें. मी. हैं। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। दोनों में एक-एक छेद है जिनमें कड़ियां पड़ी थी। ताम्रपत्रों के किनारे कुछ मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं।
अभिलेख कुल २७ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १६ व दूसरे पर ११ पंक्तियां खुदी हैं। दूसरे ताम्रपत्र में नीचे बायें कोने में उड़ते गरुड़ की आकृति बनी है जिसका शरीर मानव के समान व मुखाकृति पक्षी की है। इसके बायें हाथ में एक नाग है। यह परमार राजवंश का राजचिन्ह है।
अभिलेख के अक्षरों की बनावट १० वीं सदी की नागरी लिपि है। प्रथम ताम्रपत्र के अक्षर बनावट में सुन्दर हैं, परन्तु दूसरे के अक्षर कुछ भद्दे हैं।
अभिलेख की भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है। इसमें कुल ७ श्लोक हैं। शेष सारा अभिलेख गद्य में है।
व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से इसमें कुछ विचारणीय तथ्य हैं । ब के स्थान पर सर्वत्र व का प्रयोग किया गया है। कुछ स्थानों पर श की जगह स का प्रयोग है । जैसे--यस पंक्ति १९, वंस पं. २२ आदि। कुछ शब्द ही गलत लिखे हैं जैसे--सिंघ पं. १, ६; मुक्ति के स्थान पर त्रुक्ति पं. ९; संबद्ध की जगह संबुद्ध पं. १२; तृण के स्थान पर त्रिण पं. १६; सोपरिकरः के स्थान पर सोपरकरः पं. १८ आदि। कुछ अन्य भी त्रुटियाँ हैं जो पाठ में ठीक कर दी गई हैं।
हैं। इनमें काळ तो प्रादेशिक व काल के प्रभाव प्रदशित करती हैं एवं कछ उत्कीर्णकर्ता की गलती से बन गई हैं।
अभिलेख की तिथि पंक्ति २५ में अंकों में दी हुई है जो संवत् १००५ माघ वदि ३० बुधवार है। इसको विक्रम संवत् से संबद्ध करना ही युक्तियुक्त है। यह बुधवार ३१ जनवरी, ९४९ ईस्वी के बराबर बैठती है। वर्ष कार्तिकादि व मास अमान्त था।
अभिलेख का ध्येय पंक्ति १३ व आगे में लिखा है। इसके अनुसार नरेश सीयक ने, योगराज के ऊपर (आक्रमण की) यात्रा कर व अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त कर, मही नदी के
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