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________________ २ परमार अभिलेख तट पर वास करते हुए, चन्द्र व सूर्य के योगपर्व के अवसर पर भगवान शिव की विधिपूर्वक अर्चना कर खेटक मंडल ( खेड़ा ) के अधिपति की प्रार्थना पर ( पं. ९) अपने अधीन मोहडवासक विषय के अन्तर्गत कुम्भारोटक ग्राम ( पंक्ति १२ - १३ ) दान में दिया । दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण का नाम पंक्ति १८ - १९ में दिया हुआ है । वह आनन्दपुरी नगरी का वासी, त्रिऋषि गोपाली गोत्री गोवर्द्धन का पुत्र लल्लोपाध्याय नामक ब्राह्मण था । पंक्ति क्र. २-५ में नरेश अमोघवर्ष देव व उसके पुत्र अकालवर्ष देव पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ के उल्लेख हैं। इनके नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियाँ परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं। ये दोनों मालखेड के राष्ट्रकूट वंशीय नरेश हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इसके बाद गलती से कुछ भाग उत्कीर्ण करने में रह गया है । नरेन्द्रपादानां बाक्यांश के तुरन्त बाद एक श्लोक है जिसका भाव है -- " उस कुल में प्रसिद्ध नरेश वप्पैपराज उत्पन्न हुआ जिसका उत्तराधिकारी वैरिसिंह था" । यहाँ शुरू के शब्द तस्मिनकुले से निश्चित होता है कि इससे पूर्व वंश का नाम था । परन्तु उसका उल्लेख नहीं है । आगे श्लोक क्र. २-४ में क्रमश: बप्पैपराज, वैरिसिंह वसीयक के उल्लेख हैं जो पिता-पुत्र शृंखला के अनुसार हैं। ये सभी परमार राजवंशीय प्रारम्भिक नरेश हैं। यहां इनकी उपाधि केवल नृप है । परन्तु आगे पंक्ति क्र. ११-१२ में सीयक पूर्ण राजकीय उपाधियों " महामाण्डलिक चूडामणि - महाराजाधिराजपति" से विभूषित है । पंक्ति क्रमांक २६ में दापक ठक्कुर श्री विष्णु का नाम है । यह एक ऐसा अधिकारी था जिसके माध्यम से दान की घोषणा एवं दानपत्र लिखवा कर निस्सृत किया जाता था। आगे कायस्थ गुणधर का नाम है, जो ताम्रपत्र का लेखक था । अन्त में नरेश के हस्ताक्षर हैं, जो मूल प्रति पर होते थे व दानपत्र पर उसका उल्लेखमात्र कर दिया जाता था । प्रस्तुत अभिलेख का अत्यधिक महत्त्व है । यह परमार राजवंश के प्राप्त अभिलेखों में सर्वप्रथम है । इस कारण यह परमारों की प्रारम्भिक स्थिति के जानने में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है । साथ ही गुजरात के तत्कालीन इतिहास का दिग्दर्शन भी करवाता है । पंक्ति क्र. ३-५ में उल्लिखित राष्ट्रकूट नरेशों के तादात्म्य के संबंध में सर्वश्री दीक्षित व डिस्कलकर लिखते हैं कि ये दोनों नरेश संभवत: अमोघवर्ष प्रथम व कृष्ण द्वितीय हैं, जिनका राज्यकाल ८१४ से ९११ ईस्वी तक प्रायः सौ वर्ष तक रहा । अथवा ये अमोघवर्ष तृतीय व कृष्ण तृतीय हैं जिन्होंने ९३४ से ९६१ ईस्वी तक राज्य किया। शक संवत् ८८० तदनुसार ९५८ ई० के कृष्ण तृतीय के करहाड ताम्रपत्र अभिलेख में प्रस्तुत अभिलेख के समान उपाधियुक्त पाठ है । इसी प्रकार शक संवत् ८६२ तदनुसार ९४० ईस्वी के देवोली ताम्रपत्र में उपरोक्त उपाधियुक्त लेख में परममाहेश्वर उपाधि भी सम्मिलित है । अतः प्रस्तुत अभिलेख की तिथि उपरोक्त दोनों अभिलेखों के ठीक मध्य में है । अतः यह संभव है कि उस समय राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय सीयक द्वितीय परमार का अधिपति था । इसीलिये सीयक द्वितीय को प्रस्तुत अभिलेख में सम्मानित स्थान प्राप्त है । वास्तव में सोयक की उपाधि " महामांडलिक चूडामणि" भी इसी की पुष्टि करती है । उपरोक्त को आधार बना कर डी. सी. गांगुली ने मत प्रकट किया कि परमार राष्ट्रकूट जाति के अंग थे ( प. रा. इ., पृष्ठ ६ ) । अपने मत के पक्ष में वे आगे लिखते हैं कि परमारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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