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अथवा दो मील के बराबर होता था। नाप के परिमाण लकड़ी के दण्ड अथवा धातु के गज़ होते थे। तौल के लिए प्रायः नर्मदा नदी के पत्थर प्रयोग में लाये जाते थे। ये पत्थर कठोर होते हैं तथा कम घिसते हैं।
सिक्के
सिक्कों से संबंधित निम्नलिखित नाम अभिलेखों में प्राप्त होते हैं-कौड़ी (क्र. १४), टंक (क्र. ३३), दर्भ (क्र. ३७), द्रम्भ (क्र. १८, ७१), वराह (क्र. १४), विंशोपक (क्र. ५२), वंशोपक (क्र. २०), वृषभ (क्र. १४), सुवर्ण (क्र. ५३, ५७) । इनमें कौड़ी कोई सिक्का नहीं था। यह समद्र से प्राप्त घोंघे का घर होता था जो सामान्य रूप से सबसे छोटे सिक्के के समान प्रयोग में लाया जाता था। टंक चांदी तथा सोने का सिक्का होता था। इसका वजन एक तोला होता था। इसी प्रकार दर्भ व द्रम्म के संबंध में था। ये ५ रूपक अथवा २० विंशोपक के बराबर होता था। इसका वज़न ६५ ग्रेन के बराबर होता था। ये चांदी के सिक्के थे। वराह ६० ग्रेन वज़न का चांदी अथवा तांबे का सिक्का होता था जिस पर वराह का चित्र अंकित रहता था। विंशोपक या वंशोपक द्रम्म के २०वें भाग के बराबर होता था । यह चांदी का सिक्का था। वृषभ भी चांदी का सिक्का था जिस का वज़न एक तोले का तिहाई अर्थात् चार माशा था। उस पर वृषभ का चित्र अंकित रहता था। सुवर्ण शुद्ध सोने का सिक्का होता था।
हमें अभी तक परमार नरेशों के कोई सिक्के प्राप्त नहीं हुए हैं। कुछ समय पूर्व एक सोने के सिक्के का विवरण दिया गया था जिसके एक ओर बैठी देवी का चित्र अंकित है, तथा दूसरी ओर श्रीमद् उदयादित्य देव लिखा बतलाया जाता है (जे. ए. सो. वं., भाग १६, १९२०, पृष्ठ ८४)। आर. डी. बनर्जी ने वह सिक्का परमार नरेश उदयादित्य का निरूपित किया था। किन्तु इसके पुनराध्ययन पर वह सिक्का चेदि नरेश गांगेयदेव द्वारा प्रचलित सिद्ध हो गया है (का. ई. ई., भाग ४, प्रस्तावना, पृष्ठ १८२)। इस प्रकार यह निश्चित हो गया है कि परमार राजवंशीय नरेशों ने अपने नाम से कोई सिक्के प्रचलित नहीं किये थे। वर्तमान में के. पी. रोडे ने परमार वंशीय राजकुमार जगदेव के एक सिक्के के संबंध में सूचित किया है (ज. न्य. सो. इं., भाग ९, पृष्ट ७५)। परन्तु वहाँ इस सिक्के का विवरण नहीं दिया गया है । सितम्बर १९७८ में जबलपुर विश्वविद्यालय में आयोजित सेमिनार में डा. के. डी. वाजपेयी ने विचार प्रकट किया कि परमार राज्य में संभवत: सेसानियन सिक्के प्रयुक्त होते थे । इसी कारण परमार नरेशों ने अपने सिक्के प्रचलित नहीं किये थे। लेखक उनसे सहमत है। ... उपरोक्त कुछ विवरणों के आधार पर परमारों की आर्थिक व्यवस्था का ज्ञान होता है। उस समय राज्य की आय का मुख्य आधार खेतीबाड़ी था। अभिलेखों में वर्णित भदान एवं ग्रामदान उस काल में इनके महत्त्व को उजागर करते हैं। इसके उपरान्त ही उद्योग-धन्धे एवं वाणिज्य-व्यवसाय का स्थान था। अभिलेखों में कुछ शिल्पियों के नाम प्राप्त होते हैं। वाणिज्यव्यवसाय हेतु सिक्कों का महत्त्व भी उजागर होता है । इसी कारण अभिलेखों में अनेक प्रकार के प्रचलित सोने, चांदी एवं तांबे के सिक्कों के उल्लेख हैं । अतएव कहा जा सकता है कि जनता का आर्थिक जीवन संतोषप्रद ।
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