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________________ परमार अभिलेख शत्रुओं को उखाड़ कर, आत्मसात कर, तत्काल निष्कलंक बनाकर, उनसे कर ग्रहण कर, अपनी प्रभुसत्ता में स्थापित कर, सत्पात्र बना कर, अपने पक्ष में स्थापित कर एवं प्रयत्नपूर्वक अपने स्नेही बना कर जिसने प्रकट रूप में कुम्हार द्वारा भाण्ड निर्माण की कृति ही नहीं की अपितु शत्रु नरेशों के साथ भी वही कृति की ।।३९॥ इसके पश्चात् जिसके प्रचण्ड बाहुदण्डों पर जयश्री विलास कर रही है ऐसा यशोवर्मन् नामक नरेश हुआ। जिसके नाम का पूर्वार्द्ध (यश) त्रैलोक्य में नहीं समा रहा था व उत्तरार्द्ध (वर्मन्) प्रहार-चिन्ह युद्ध में जिसके अंग पर नहीं रहता था।४०।। ___ इससे जयवर्मन नामक नरेश भूतल पर हुआ. जिसका प्रताप सर्य लक्ष्मी को विकसित करने में प्रखर था ॥४१॥ जिस (रण) में अनेक मुण्डमालायें बिखर रही र्थी, गजों के. कटे सिर पड़े थे, शृगाल व्यग्र हो कोलाहल करते थे, अस्थियां बिखरी पड़ी थीं, वस्त पराजित सेना पलायन करती थी, जहां घबराहट फैली थी, बड़े बड़े चर्मखण्ड ध्वस्त हो रहे थे, नेत्र व कान बाहर निकले पड़े थे, उग्रता का संचार हो रहा था, इस प्रकार रणभूमि को जिसके खड्ग ने भैरव की रणभूमि के समान बना दिया ॥४२॥ ... ... उससे समस्त भूतल पर विंध्यवर्मन् नरेश हुआ जो शत्रु नरेशों द्वारा भेंट किये गये हाथियों से विध्यगिरि के समान था ॥४३॥ • युद्ध में क्रूर कर्म करने वाला, शत्रु नरेशों के कवचों को भेदने वाला, सभा में सुख प्राप्त करने वाला, इन्द्र समान धर्म वाला, 'नवयुवतियों द्वारा यश गाये जाने वाला, सुन्दर कवच धारण करने वाला व बाणों से सुख प्राप्त करने वाला सुभटवर्मन् नामक नरेश हुआ।४४।। - उससे अर्जुन के समान अर्जुनदेव नरेश हुआ। (अर्जुन कर्ण को जीतने वाला) यह दान देने में कर्ण को जीतने वाला (अर्जुन महाभारत युद्ध का भूषण) यह भारत देश का भूषण, (अर्जुन कृष्ण में अनुरक्त) यह एकमात्र कृष्ण में भक्ति लगाये था ॥४५।।। जिसके नाम १ वंश द्वारा (अर्जुन इन्द्रपुत्र है अतः यह भी वैसा है) अच्छे पक्ष के नरेशों को विजित करने के इसके व्यसन को सुनकर मैनाकादि पर्वत समुद्र के भीतर कांपने लग गये। इसी समय श्री सोमेश्वर मंदिर पर शिखर स्थापना के समय इसी कारण समुद्र क्षुब्ध हुआ । प्रलयानिल बहने लगा ।।४६॥ . उसके पश्चात् देवपाल सुविशाल राज्य का अधिपति हुआ जो विद्वानों की सभा में अनुराग रखता था व कल्पवृक्ष के आदि के मध्य समान था ।। ४७।। - अश्वों के तीक्षण खुरों से उल्लिखित, विशाल प्रतापाग्नि से प्रकाशित व शत्रु स्त्रियों के आश्रुओं से गलित कज्जलों से लिप्त जिसकी दिग्विजय के समय एक चरण से संचरण करने वाला वृषभ-रूपी धर्म इसकी पवित्रता से अब भूमंडल-पर चारों चरणों से क्रीड़ा कर रहा है ॥४८॥ . . . . __ जिसके दौड़ने वाले अश्वों के खुरानों से खुदी हुई पृथ्वी से उड़ने वाली धूली के अंधकार से चारों दिशाएँ व्याप्त हो गई. एवं सूर्य आच्छादित हो गया, ऐसे अजेय व उद्धत म्लेच्छाधिप के भल्लस्वामिपुर के पास युद्ध में जिसने कोध से खड्ग के प्रहार से सहसा दो टुकड़े कर दिये ।।४९।। . उससे जयतुगिदेव पृथ्वी का नरेश हुआ जिसने पृथ्वी का उद्धार करते हुए लक्ष्मीपति (विष्णु) का अनुसरण किया ।।५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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