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मान्धाता अभिलेख
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उसके पश्चात् वोरि ( ? ) नामक पराक्रमी धारापति हुआ जिसके द्वारा युद्ध में मारे गये हुए वीरों सें स्वर्ग इतना बाधा युक्त हो गया जितना देवताओं से भी नहीं हुआ || २५ ||
इसके पश्चात् अत्यन्त रसिक व श्रेष्ठ वीर वीरसिह हुआ जिसने पिता के राज्य को प्राप्त कर इस पृथ्वी को जीता ||२६||
विशाल भूतल पर उस राज्य में वाक्पतिराज हुआ जिसकी प्राकृत सूक्तियों से साधारण जन आनन्दित होते थे ||२७||
चारों समुद्रों तक पृथ्वी का स्वामी बुद्धिमान सीया नामक नरेश हुआ जिसके साम्राज्य में लक्ष्मी ने आश्रय लिया ||२८||
उज्ज्वल तेजस्वी कीर्ति से विख्यात उस वंश में मुंज नामक महान पृथ्वीपति हुआ । शत्रु की स्पर्धा से जिसकी खड्ग ने युद्ध में तथा (विद्वत्सभा में) हाथ ने अधिक दान दिये ।। २९ ।।
अत्याधिक आनन्द मिश्रित हर्षाश्रुओं से परिपूर्ण नेत्रपुट वाले चक्षुओं का अंचल भरा होने से पास में स्थित प्रियतम को न देख कर, ( शरीर पर धारण किये ) मन्दार पुष्प गुच्छ के आभूषणों पर मंडराने वाले चंचल भ्रमरों के गुंजन से जिसका नाद वृद्धिगत हो रहा है, ऐसी जिसकी कीर्ति देवांगना गा रही हैं ॥ ३० ॥
बाद में भड़कने वाले युद्ध के संग का रंग जिस पर चढ़ा है तथा अक्षत अंगोंवाले सदा अभ्युदयी जिसका प्रताप सर्वत्र व्याप्त है ऐसे सिंधुराज को आदरपूर्वक राजलक्ष्मी प्राप्त हुई ||३१||
सरस्वती के जलरूपी अमृत के समान व्याकरण शास्त्रामृत को धारण करनेवाले रत्न की खदान जिसकी प्रसिद्धि है, अखंडित पंख वाले पर्वतों के समान, अपने पक्ष के नरेशों को आश्रय देने वाले, प्रसन्नता के स्थान, मर्यादा को धारण करने वाले, अगाध गंभीर विशाल स्थान वाले, भूमंडल को व्याप्त करने वाले, पक्षियों के समान ब्राह्मणों को प्रसन्न करने वाले ऐसे जिसको समुद्र समान सिंधुराज कहते हैं सत्य ही है ।। ३२ ।।
सिधु से जिस प्रकार चन्द्र उदित होकर चन्द्रविकासी कमलों को विकसित करता है, उसी प्रकार सिंधुराज से कलाओं का भंडार पृथ्वी के आनन्द को विकसित करता हुआ भोजराज हुआ ||३३||
के जिसके याचक समूहों के फैले हाथों पर दान दिये गये हुए विपुल उन्मत्त गजसमूह झरने वाले मदजल से उत्पन्न होने वाला विशाल कीचड़ ( जिसके ) द्वार पर प्रमुख द्वारपाल द्वारा क्षणभर के लिये रोके गये हुए नरेशों के श्वासोच्छ्वास रूपी आंधी से सूख रहा है ||३४||
( दूसरा ताम्रपत्र- पृष्ठ भाग )
पूर्व जन्म में विष्णु ने जिस प्रकार कामदेव के बाणों से राधा को वेध कर अपनी अच्युतात्मता सिद्ध की थी, उसी प्रकार यहां (भोज) ने अपने बाण से राधा को बेध कर धारा बना दिया और अपनी स्थिरात्मता सिद्ध कर दी ||३५||
जिसने याचकों को राजा बना कर एवं शत्रु नरेशों को याचक बना कर सर्वस्व त्याग द्वारा परिवर्तनशीलता धारण की ।। ३६ ॥
बाद में प्रताप के भंडार उदयादित्य का उदय हुआ जिसने अपने हाथों से शत्रु नरेश रूपी अंधकार समूह का नाश कर दिया और गूर्जर नरेश रूपी समुद्र में डूबी हुई पृथ्वी को बाहू रूपी दांतों पर वराह के समान उद्धृत किया ||३७||
रत्नाकर के समान उससे राजरत्न नरवर्मन् उत्पन्न हुआ जो अपने तेज से पृथ्वी के नरेशों का दमन करने से भूषण स्वरूप हो गया ।। ३८ ।।
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