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परमार अभिलेख
क्षीरस्वामी, सायण एवं महीपाल के समान वैयाकरणों ने वैयाकरण के रूप में; भावमिश्र व माधव के समान वैद्यों ने वैद्य के रूप में; दशबल अल्हदनाथ, रघुनन्दन, विज्ञानेश्वर के समान धर्मज्ञों ने इसको धर्मशास्त्र के क्षेत्र में अद्वितीय माना है (औफेक्ट-कैटेलोग्स कैटेलोगोरम, भाग १, पृष्ठ ४१८, भाग २, पृष्ठ ९५) । शृंगारगंजरी कथा (पृष्ठ १) में भोजदेव की तुलना सुबंधु, भास, गुणाढ्य एवं बाण के समान विद्वानों से की गई है। राजनैतिक व वैदिक गुणों में उसकी समता वृहस्पति, उशनस्, उद्धव, चाणक्य और धर्मकीर्ति के समान विशिष्ट व्यक्तियों से की गई है। भोज रचित प्रायः सौ से अधिक ग्रन्थ माने जाते हैं जो कला, साहित्य, शृंगार, ज्योतिष, वैद्यक, धर्म, व्याकरण, गायन आदि सभी प्रकार की विद्याओं से संबंधित हैं। उसके सुभाषित तो बहुत ही विख्यात हैं। यद्यपि यह विश्वास करना सरल नहीं है कि भोज, जो साहित्य से भिन्न गतिविधियों (युद्ध संबंधी व प्रशासनिक गतिविधियों) में अत्यधिक व्यस्त रहता था, विविध विषयों से संबंधित प्रमाणिक ग्रन्थ लिख सका था। परन्तु यह सत्य है कि प्राप्त ग्रन्थों में रचयिता के रूप में उसी का नाम लिखा मिलता है। अतः यह स्वीकार करना होगा कि ये ग्रन्थ यदि उसके द्वारा नहीं तो भी उसके मार्गदर्शन में लिखे गए होंगे। इस प्रकार विविध विषयों में न केवल उसकी स्वयं की रुचि, अपितु विद्वानों, कवियों, वैद्यों, दार्शनिकों, कलाविदों, वैज्ञानिकों आदि को संरक्षण प्रदान करने में उसकी प्रवृत्ति के बारे में भी ज्ञात होता है। बिल्हण कृत विक्रमांकदेव चरित् (अध्याय १८, श्लोक ९६) व कल्हण रचित राजतरंगिणी (भाग १, पुस्तक ४, श्लोक २५९) में भोज द्वारा कवियों को संरक्षण प्रदान करने की प्रशंसा की गई है। काव्यप्रकाश में मम्मट का कथन है कि विद्वानों के घरों में धन भोज द्वारा प्रदान करने के कारण है (अध्याय १०, श्लोक क्र. ११४)।
प्रस्तुत अभिलेख के श्लोक क्र. २० में उल्लेख है कि भोजराज ने केदारेश्वर, रामेश्वर, सोमनाथ, सुंडीर, काल, अनल व रुद्र के मंदिरों का चारों ओर निर्माण कर पवित्र पृथ्वी को यथार्थ नाम वाली बनाया। मेरुतुंग विरचित प्रबंधचिंतामणि के अनुसार भोजराज ने धारा नगरी को देवालयों व श्रेष्ठ अट्टालिकाओं से सुशोभित किया (पृष्ठ ४६) । इसके अतिरिक्त धार में ही उसने एक सरस्वती सदन, जो आज भी भोजराज के नाम से विख्यात है, का निर्माण करवा कर वहां सरस्वती देवी की मूर्ति स्थापित की (अभिलेख क्र. १५)। भोपाल के पास भोजपुर नामक नगर का निर्माण भी करवाया गया (अभिलेख क्र. १७), जहां विशाल भोजताल (झील) बनाई गई थी (इं. ऐं., भाग १७, पृष्ठ ३५१) । राजतरंगिणी के अनुसार उसने काश्मीर राज्य के अन्तर्गत कपटेश्वर में पापसूदन तीर्थ का निर्माण किया था (अध्याय ८, श्लोक क्र. १९०-१९३) । और भी अनेक निर्माण कार्य करवाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस प्रकार भोजराज निर्माण कार्य करवाने में कितनी रुचि लेता था सो उपरोक्त श्लोक में ठीक ही लिखा हुआ है।
श्लोक क्र. २१ में लिखा हुआ है कि इस शिवभक्त (भोजराज) के स्वर्ग चले जाने पर धारा नगरी के समान सारी पृथ्वी शत्रुरूपी अंधकार से व्याप्त हो गई । मेरुतुंग कृत प्रबंधचिन्तामणि (पृष्ठ ५०-५१) व नागपुर अभिलेख (क्र. ३६) से ज्ञात होता है कि भोजराज की मृत्यु के समय गुजरात के चौलुक्यों व डाहल के कल्चुरियों का सामूहिक आक्रमण धारा नगरी पर हुआ। संकट के ऐसे समय में परमार राज्य-सिंहासन की प्राप्ति के हेतु गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया जिसमें जयसिंह प्रथम
और उदयादित्य प्रमुख थे। इनमें जयसिंह प्रथम १०५५ ईस्वी में पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल की सहायता से सिंहासन प्राप्त करने में सफल हो गया। उसने संभवतः १०७० ईस्वी तक अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में शासन किया। इस वर्ष कर्ण कर्णाट आदि नरेशों ने मालवा पर आक्रमण कर दिया, जिसमें जयसिंह प्रथम मारा गया और मालवा एक बार फिर से शत्रुओं के हाथों
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