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________________ उदयपुर प्रशस्ति में पड़ गया। ऐसे समय में उदयादित्य ने राज्य सिंहासन संभाला और शत्रुओं को मार भगाया । प्रस्तुत अभिलेख में उपरोक्त गृहयुद्ध के बारे में कुछ लिखा नहीं मिलता। यहां केवल यही लिखा हुआ है कि “जब इस (भोज) के पारम्परिक योद्धाजन दुर्लभ हो गए" । संदर्भ में गृहयुद्ध का होना निश्चित है । श्लोक क्र. २१-२२ में उदयादित्य की प्रशंसा है। यहां भोजदेव और उदयादित्य के आपसी संबंध के बारे में अभिलेख पूर्णतः मौन है । उदयादित्य की प्रशंसा में लिखा मिलता है कि सूर्य के समान उदयादित्य देव, उन्नत शत्रुरूपी अंधकार को खङ्गदण्ड की किरणों से नष्ट करके समस्त जनों के मनों को आनन्दित करता हुआ, उदित हुआ और वराह अवतार के समान भूमि उद्धार का कार्य इस परमार ने कितनी सुगमता से किया ।" यह विचारणीय है कि उदयादित्य ने स्वयं को भोजदेव का उत्तराधिकारी प्रतिपादित किया है, जबकि अन्य साक्ष्यों से विदित होता है कि उनके बीच जयसिंह प्रथम ने प्रायः १५ वर्ष तक शासन किया था । वास्तव में उदयादित्य और उसके पुत्र-पौत्रों के अभिलेखों में उल्लिखित वंशावलियों में जयसिंह प्रथम का नाम पूर्णतः छोड़ दिया गया है। यह संभवत: इसलिए हुआ कि उदयादित्य देव को अपने प्रमुख विरोधी जयसिंह प्रथम का पादानुध्यात लिखना सहन नहीं हुआ । इसके अतिरिक्त जयसिंह प्रथम अपने पूर्ण शासन काल में चालुक्यों की सहायता पर निर्भर था, अतः वंश लिये अपमानयुक्त माना गया होगा । इस कारण वंशावलियों में उसका नाम छोड़ दिया गया । विभिन्न साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उदयादित्य देव ने आक्रमणकारियों को शीघ्र ही भागने पर बाध्य कर दिया एवं परमार राजवंश का पुनरुद्धार किया। उदयादित्य ने १०७० ई. से १०९४ ईस्वी तक शासन किया था । प्रस्तुत अभिलेख में किसी भौगोलिक स्थान का नाम नहीं है । (मूल पाठ) ( श्लोक १८ इन्द्रवज्रा २, ३, ९, १०, १२, १९ वसन्ततिलका, ४, ६, १५, १८ अनुष्टुभ ; ५,२१ स्रग्धरा; ७,१६,२० उपजाति; ११ शालिनी; १३ शार्दूलविक्रीडित १४,२२, आर्या; १७ मन्दाक्रान्ता) १. ओं नमः शिवाय । २. ३. ४. १२१ ५. गंगावसंसिक्त भुजंगमाल भाले कलेन्दोरमलांकराभा । यन्मूद्धि नम्रेहितकल्पवल्लया भातीव भूत्यै स तवास्तु शंभुः ।।१।। सानंदनंदिकरसुंदर सांद्रनांदी नादेन तुंबुरुमनोरमगानमानैः । [ नृत्यं ] त्यवस्य (श्य ) मनि [शं] सुरवासवेस्या (श्याः ) यस्याग्रतो भतु वः ससि (शि) वः शिवाय ॥ २ ॥ मूर्द्धस्थिता [सरितोक्ष] मयेव सं ( शं) भोरर्द्धांग मंगघटनाव्हनमाश्रयंती । दृष्ट्वात्मनाथवस (श) तां Jain Education International कंदोच्छित्त्या इवोद्यतः ||४|| * * यहां एक विचित्र चिन्ह बना है । प्रतीत होता है यहां मंगल पूरा हो गया है। इसके साथ ही दो खड़े दण्ड बने हैं। सकलांगतुष्टा पुष्टि नगेंद्रतनया भवतां विदध्यात् ||३|| गणेशो[वः]सु[खाया]स्तु निशातः परशुः करे यस्य नम्रघनावद्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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