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उदयपुर प्रशस्ति
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को मुसलमानों से लड़ने के लिए अपने राज्य के बाहर किसी स्थान पर भेजा हो। हमें अन्य साक्ष्यों से ज्ञात है कि महमूद गजनवी ने १०२४-२६ ईस्वी में सोमनाथ पर जैसलमेर-मारवाड़-गुजरात के मार्ग से आक्रमण किया था। गुजरात के चौलुक्य नरेश भीम प्रथम का मुस्लिम आक्रमण का सामना करने का साहस न हुआ, इसलिए उसने कण्ठा के दुर्ग में शरण ली। महमूद ने सोमनाथ को लूटा, परन्तु उपरोक्त मार्ग से लौटने का साहस न कर सका, क्योंकि वहां शक्तिशाली भारतीय नरेश परमदेव की सेनाएं उसका सामना करने हेतु प्रतीक्षारत थीं। इस संबंध में समकालीन लेखक गर्दीजी ने अपने जैनुलअखबार नामक ग्रन्थ (पृष्ठ ८५) में लिखा है कि महमूद ने अपनी विजय को हार में बदल जाने के भय से वापसी के लिए मरुप्रदेश का कठिन मार्ग अपनाया, और सैनिकों व पशुओं की अत्याधिक हानि उठाकर अन्ततः मुल्तान पहुंचा। यह बहत संभव है कि उपरोक्त परमदेव वास्तव में परमारदेव अर्थात् भोजराज प्रथम रहा हो। यदि ऐसा ही है तो कहना होगा कि महमूद गजनवी का भोजराज प्रथम की सेनाओं का सामना करने से कतराना ही वास्तव में प्रस्तुत अभिलेख में तुरुष्कों की हार लिख दिया गया हो।
चेदि नरेश पर भोजराज द्वारा विजय प्राप्त करने का उल्लेख कालवन अभिलेख (क्र. १८) और मदन रचित परिजातमंजरी (एपि. ई., भाग ८, पृष्ठ १०१, श्लोक ३) में प्राप्त होता है । उपरोक्त से ज्ञात होता है कि चेदि नरेश का नाम गांगेय था। गांगेय देव विक्रमादित्य एक शक्तिशाली नरेश था । उसने गौड़ नरेश को हराया था व हिमालय तक अपनी विजय पताका फहराई थी (का. इं. इं., भाग ४, प्रस्तावना पृष्ठ ९०-९१)। हम ऊपर देख चुके हैं कि चालुक्य नरेश पर आक्रमण करने हेतु भोजराज ने गांगेयदेव व राजेन्द्र चोल के साथ मिलकर संभवतः एक मैत्रीसंघ का निर्माण किया था। यह मैत्री कुछ समय तक चालू रही परन्तु बाद में भंग हो गई। संभवतः इसी कारण भोजराज द्वारा इस चेदि नरेश पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख प्रमुख रूप से किया गया है।
इन्द्ररथ नामक नरेश संभवतः सोमवंशी राजा था जो गोदावरी पर सम्बलपुर क्षेत्र में राज्य करता था। उसकी राजधानी आदिनगर थी (प्रो. इं. हि. कां., १९४०, पृष्ठ ६६-६७) । संभव है कि यह विजय भोजराज ने अपने मित्र राजेन्द्र चोल के साथ प्राप्त की थी (सा. इं. इं., भाग ३, पार्ट ३, पृष्ठ ४२४)।
तोग्गल, जिस पर भोजराज द्वारा विजय प्राप्त करने का उल्लेख है, की पहचान करना कठिन है। संभव है कि वह गजनवी का सेनापति रहा हो। भीम पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इस प्रकार श्लोक क्र. १७ में उल्लेख है कि भोजराज ने कैलाश से मलय तक तथा उदयाचल से अस्ताचल तक संपूर्ण पृथ्वी का पृथुराज के समान उपभोग किया और अपने धनुष की डोरी से सहज में ही दिक्पालों को उखाड़ कर दिशाओं में फेंक दिया, बहुत कुछ तथ्यों पर आधारित है। भोज वास्तव में एक महान सैनिक नेता था। उसकी शक्ति का लोहा उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक सभी दिशाओं में माना जाता था । उसने अपने समय के प्रमुख शक्तिशाली नरेशों से टक्कर ली थी। इस प्रकार उसने सार्वभौम नरेश की ख्याति प्राप्त कर ली थी।
भोजराज केवल सैनिक सफलताओं के कारण ही नहीं अपितु संस्कृति के संरक्षक के रूप में भी सर्वाधिक विख्यात हुआ। श्लोक क्र. १६ में लिखा हुआ है कि उसने उत्तम व्यक्तियों को भी कंपा दिया। वह एक अद्वितीय रत्न था। जबकि श्लोक क्र. १८ में उसकी प्रशंसा में लिखा हुआ है कि उसने जो प्राप्त किया, जो आदेश दिया, जो दान दिया एवं जो ज्ञात किया, वह कोई न कर सका। आगे लिखा है कि कविराज श्री भोज की इससे अधिक प्रशंसा क्या हो सकती है। हमें ज्ञात होता है कि समकालीन लेखकों--जैसे छित्तप, देवेश्वर, विनायक एवं शंकर ने भोज को कवि के रूप में;
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