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विविधतीर्थकल्प नामक ग्रन्थ में अचलेश्वर, अर्बुदचलतीर्थ, कुण्डगेश्वर, अभिनन्दनदेव तीर्थ एवं उज्जयिनी तीर्थ के उल्लेख प्राप्त होते हैं। ये सभी तीर्थ परमार साम्राज्य के अन्तर्गत थे। । उपरोक्त धार्मिक विवरण से ज्ञात होता है कि परमार साम्राज्य के अन्तर्गत विभिन्न धर्मों में तात्विक मतभेद होते हुए भी वाह्य रूप से सांस्कृतिक एकता विद्यमान थी। सर्वत्र जाति पाति प्रथा समान रूप से चालू थी। दान दक्षिणा का महत्व चहुं ओर बगैर धार्मिक भेदभाव के चालू था । साम्राज्य में धार्मिक रीति रिवाजों में एकरूपता स्थापित थी। वस्तुतः सभी धर्मावलम्बियों में सह-अस्तित्व की भावना पूर्णतः विद्यमान थी। परमार नरेश इस दृष्टिकोण का पूर्णरूप से सम्मान करते थे। केवल इतना ही नहीं वे इस धार्मिक एकता में वृद्धि करने हेतु सदा तत्पर रहते थे ।
सामाजिक स्थिति
परमार राजवंशीय अभिलेखों से तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था पर कुछ विशिष्ट प्रकाश नहीं पड़ता। अतएव सामाजिक स्थिति के ज्ञान हेतु समकालीन साहित्य की सहायता लेना आवश्यक है । इसमें शृंगारमञ्जरी एवं तिलकमञ्जरी नामक ग्रन्थ अत्यधिक सहायक हैं । वस्तुतः परमारकालीन समाज गुप्तयुग से चली आ रही समाज से बहुत अधिक भिन्न नहीं कही जा सकती। अभी भी वर्ण एवं जाति व्यवस्था उसी प्रकार से चाल थी। जाति व्यवस्था अब विकसित हो कर बहुत कुछ कामधन्धों पर आधारित हो चली थी। ब्राह्मण
___ समाज में प्रचलित चतुर्वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत सर्वप्रथम ब्राह्मणों का स्थान आता है । प्राप्त अभिलेखों से उनकी श्रेष्ठता, समाज में सम्मानित स्थिति एवं राज्य में विशेष अधिकार प्रमाणित होते हैं। धार्मिक उत्सवों तथा विशिष्ट अवसरों पर उनको अधिकाधिक धन-धान्य, गायें तथा भूमि आदि दान में दी जाती थीं। उनके अध्ययन-अध्यापन तथा विद्वत्तापूर्ण प्रयासों को प्रोत्साहित किया जाता था। परिणामस्वरूप देश के विभिन्न राज्यों से विद्वान ब्राह्मण बहुत बड़ी संख्या में अपने जन्मस्थान त्याग कर मालव राज्य में आये ।
परमार अभिलेखों में वर्णित दानप्राप्तकर्ता विद्वान ब्राह्मणों के नामों के साथ उनके गोत्र, शाखा, प्रवर एवं मूल स्थान जहाँ से देशान्तरगमन करके वे मालव राज्य में आये, के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त उनके नामों के साथ उपाधियों के उल्लेख मिलते हैं, जैसे-पंडित, महापंडित, उपाध्याय, टक्कुर, श्रोत्रिय, पाठक, भट्ट आदि । परन्तु ये उपाधियाँ अभी वंशानुगत नहीं हुई थीं । अभिलेखों में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जहाँ दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण तथा उसके पिता, पितामह की उपाधियाँ एकसमान न होकर भिन्न हैं। उदाहरणार्थ महाकुमार हरिश्चन्द्र के भोपाल ताम्रपत्र (क्रमांक ५१) के अनुसार अवसथिक श्रीधर का पिता अग्निहोत्रिक भारद्वाज, पंडित मधुसूदन का पिता अवसथिक देल्ह, पंडित सोमदेव का पिता अवसथिक देल्ह, ठक्कुर विष्णु का पिता पंडित सोंडल था । इसी प्रकार जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय के मांधाता ताम्रपत्र (क्रमांक ७६) में दीक्षित पद्मनाभशर्मन् का पिता अवसथिक विद्याधरशर्मन् एवं पितामह चतुर्वेदिन् कमलाधरशर्मन्; पंडित श्रीकांतशर्मन् का पिता पंचपाठिन् मिश्र उद्धरणशर्मन्; द्विवेदिन् गोवर्द्धनशर्मन का पिता पंडित विद्यापतिशर्मन् तथा पितामह चतुर्वेदिन् भूपतिशर्मन् था आदि आदि ।
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