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जैन धर्म
__ परमार राज्य में जैनधर्म का पर्याप्त विकास एवं प्रसार हुआ। परमार नरेशों ने जैन आचार्यों एवं विद्वानों को संरक्षण दे कर उनके धार्मिक एवं साहित्यिक कार्यकलापों को प्रोत्साहित किया। जैन आचार्य देवसेन ने 'दर्शनसार' ग्रन्थ धार के पार्श्वनाथ मंदिर में ९२३ ईस्वी में पूरा किया था । नरेश वाक्पति द्वितीय ने जैन आचार्यों अमितगत, महासेन व धनेश्वर को संरक्षण प्रदान किया था । नरेश भोजदेव ने जैन विद्वान प्रभाचन्द्र को संरक्षण दिया। भोज द्वारा प्रोत्साहित करने पर धनपाल ने 'तिलकमञ्जरी' ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें भोजदेव का झुकाव जैन धर्म की ओर होना प्रमाणित होता है। मुनि देवभद्र, आचार्य जिनेश्वर सूरि, आचार्य बुद्धिसागर आदि इसी काल में हुए। १०४३ ई. में कवि नयनंदि ने धार में जिनवर विहार में वास कर के 'सुदर्शन चरित्' की रचना की थी। नरेश जयसिंह प्रथम की राजसभा में जैन कवि प्रभाचन्द्र था। नरेश नरवर्मन की राजसभा में जैन विद्वान समुद्रघोष था। आचार्य जिनवल्लभ से प्रभावित हो उसने ग्राम प्रदान किये, परन्तु आचार्य के सादर मना करने पर नरेश नरवर्मन् ने चित्तौड़ के जिन मंदिरों में मंडपिकायें बनवाई तथा दो चैत्यों के लिये दान दिये। इसी समय भोजपुर में दो जिन प्रतिमाएँ स्थापित करवाई गई (अभिलेख क्र. ३५) । नरेश विन्ध्यवर्मन् जैन आचार्यों का यथायोग्य सन्मान करता था, परन्तु उसका उत्तराधिकारी नरेश सुभटवर्मन् जैनों से धृणा करता था। गुजरात पर आक्रमण के समय उसने वहाँ बहुसंख्यक जिन मंदिरों को क्षतिग्रस्त किया था। उसके विपरीत नरेश अर्जुनवर्मन् ने जैन आचार्यों को भरपूर सम्मान दिया। समकालीन पंडित आशाधर ने लिखा है कि धारा नगरी श्रावकों से परिपूर्ण थी। आशाधर ने चार परमार नरेशों का शासनकाल देखा था। इन नरेशों में विन्ध्यवर्मन् (११७५-११९४ ई.), सुभटवर्मन् (११९४---१२०९ ई.), अर्जुनवर्मन् (१२०९--१२१७ ई.), देवपालदेव (१२१८१२३९ ई.) तथा जयतुगिदेव (१२३९-१२५५ ई.) थे। इस काल में जिनधर्म की आशातीत उन्नति हुई। विभिन्न प्रकार के बहुसंख्यक ग्रन्थों की रचना हुई। इसके साथ ही जनसमाज का भी विभिन्न प्रकार से उत्थान हुआ।
इस युग में परमार साम्राज्य में विभिन्न नगरों में जैन मंदिरों का निर्माण हुआ तथा उनमें तीर्थंकरों की प्रतिमाएं स्थापित हुईं। ११वीं शताब्दी में निर्मित अनेक जैन मंदिर निमाड़ जिले के ऊन नगर में देखने को मिलते हैं । शेरगढ़ में शांतिनाथ, कुन्थुनाथ एवं अरनाथ की तीन विशाल प्रतिमाएँ स्थापित हुई । वहाँ पर प्राप्त एक अभिलेख में इन तीर्थंकरों की स्तुतियाँ विद्यमान हैं। इसके साथ ही ११०५ ईस्वी में चैत्र सुदि ७ को नेमिनाथ का एक विशाल महोत्सव मनाये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है । आसपास के अन्य अनेक स्थलों पर भी जैन मंदिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं। परमारों की आबू, भिनमाल एवं बागड शाखाओं के क्षेत्रों में इस काल में निर्मित बहुसंख्य जैन देवालय विद्यमान हैं। ये सभी क्षेत्र जैन धर्म के विख्यात केन्द्र थे।
हिन्दू धर्म के समान जैन तीर्थों का प्रचलन भी उस समय बहुत था। जैन तीथ प्रायः दो श्रेणियों के थे
१. सिद्ध-क्षेत्र, जहाँ जिन तीर्थंकरों एवं प्रख्यात मुनियों व आचार्यों का निर्वाण हुआ।.. २. अतिशय-क्षेत्र, अर्थात् वही क्षेत्र जो किसी विशिष्ट देव अथवा प्रतिमा स्थापना के
कारण विख्यात हो गया हो।
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