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________________ कालवन अभिलेख ८१ बनर्जी के विचार से सहमत होने में अनेक कठिनाइयां हैं। भोजकालीन प्राप्त प्रथम मोडासा अभिलेख (क्र. ८) उसके अधीन भोक्तृ वत्सराज द्वारा प्रदान किया गया था। इसके अतिरिक्त तिलकवाडा अभिलेख (क्र. १६) भोजदेव के अधीन उसके मांडलिक जसोराज द्वारा प्रदान किया गया था। इन दोनों ही ताम्रपत्रों में कहीं कोई ऐसा उल्लेख नहीं है कि उनके दानकर्ताओं ने भूमिदान करते समय अपने अधिपति नरेश से कोई अनुमति प्राप्त की थी। इसके अतिरिक्त इन दोनों में ही प्रस्तुत अभिलेख के समान परमारों का राजचिन्ह, शासनकर्ता नरेश के लिए 'कुशली' शब्द अथवा प्रारम्भ में शिवस्तवन नहीं हैं। तो बनर्जी के सिद्धान्त के अनुसार यह मानना चाहिए कि सन् १०११ व १०४७ ईस्वी में परमार शक्ति क्षीण हो गई थी। परन्तु प्राप्त तथ्यों के आधार पर ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं होता। इसके विपरीत विदित होता है कि उक्त वर्षों में परमार शक्ति पर्याप्त विकसित थी। ___डी. वी. डिस्कलकर ने भी आर. डी. बनर्जी के मत का जोरदार शब्दों में खण्डन किया है। वे लिखते हैं कि यद्यपि प्रस्तुत अभिलेख में परमार दानपत्रों की कुछ सामान्य विशिष्टतायें नहीं हैं, किन्तु इससे यह मान लेने में कोई रुकावट नहीं पड़ती कि यह अभिलेख भोजदेव के शासन काल में ही प्रकाशित किया गया था। दानकर्ता ने अभिलेख के प्रारंभ में विशेष सावधानी पूर्वक भोजराज देव व उसके पूर्वजों का ससम्मान उल्लेख किया है। यह इस बात का प्रबल साक्ष्य है कि प्रस्तुत अभिलेख भोज के शासनकाल का ही है। इसके अतिरिक्त दानकर्ता राजपरिवार का कोई विशिष्ट व्यक्ति न होकर केवल एक शासकीय व्यक्ति ही था। वास्तव में यह एक जैन अभिलेख है व जैनों के श्वेताम्बर सम्प्रदाय से संबंधित है। इस कारण यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि अन्यथा इस युग के जैन अभिलेख कम संख्या में प्राप्त हुए हैं। यह सर्व विदित है कि परमार वंश के सर्वदिश विकास में जैन सामन्तों, अमात्यों, चिन्तकों, लेखकों व सनाढयों आदि का योगदान कुछ कम नहीं रहा था। ____ भौगोलिक स्थानों के समीकरण में कलकलेश्वर तीर्थ का तादात्म्य उस स्थान से किया जा सकता है जो इस समय कालवन से प्रायः १० मील पश्चिम में है और जहां पर वर्तमान में भी कलकलेश्वर का शिव मंदिर विद्यमान है। श्वेतपद खानदेश का ही प्राचीन नाम है। सेलुक का समीकरण सतने से किया जा सकता है जो कालवन के पास ही स्थित है। मुक्तापली का नाम इस समय बदल कर मखमलवड हो गया प्रतीत होता है। महडला ग्राम मखमलवड के उत्तर में डिनडिनडोरी तालका में वर्तमान मोहदी ग्राम है। महिषबद्धिका इस समय नासिक के समीप महसरुला प्रतीत होता है। हथावाड का समीकरण हलसागढ़ से किया जा सकता है। संगामनगर संभवतः नासिक व सूरत के बीच वर्तमान सनगने ग्राम हैं। अभिलेख की पंक्ति क्र. २७-२८ में निम्नलिखित अधिकारियों के उल्लेख हैं:देशलिक-संभवतः यह आधुनिक जिलाधीश के समान ही कोई अधिकारी था। प्रामटक--यह ग्राम का मुखिया होता था। इसको ग्रामकूट भी कहते थे। वह ग्राम में सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति होता था। सामान्यत: उसका पद वंशानुक्रम से होता था। वह ग्राम सेना का भी मुखिया होता था। ग्रामरक्षा इसका प्रधान कर्तव्य था। (ए. एस. अलतेकर--स्टेट एण्ड गवर्नमेंट इन ऐंशेन्ट इंडिया, पृष्ठ २२६) गोकुलिक--यह पशुओं को चराने की भूमि अर्थात् चरागाहों का रक्षक अधिकारी प्रतीत होता है। चौरिक--इसका मुख्य कर्त्तव्य चोरों को पकड़ना था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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