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परमार अभिलेख
प्रथम अभिलेख है कि जिसमें भोज की विभिन्न प्रमुख विजयों का निश्चित उल्लेख है। पंक्ति क्र. ६ में उसकी विजयों में कर्णाट, लाट, गुर्जर, चेदि नरेश व कोंकण अधिपति के उल्लेख प्राप्त होते हैं। कर्णाट पर उसकी विजय का उल्लेख बल्लाल द्वारा रचित भोजचरित् में भी प्राप्त होता है। भोज ने अपने (पितृव्य) ताऊ वाक्पतिराजदेव द्वितीय के वध का बदला लेने के लिये वहां के चालुक्य नरेश संभवत: जयसिंह द्वितीय (१०१५-१०४२ ई.) पर आक्रमण किया था। इसमें भोजदेव की सहायतार्थ गांगेयदेव कलचुरि और राजेन्द्रचोल (कुलेनूर अभिलेख, एपि.इं., भाग १५, पृष्ठ ३३१) भी सम्मिलित हुए थे जो चालुक्यों के कट्टर शत्रु थे। युद्ध गौतमगंगा नदी (गोदावरी) के किनारे पर हुआ था। इसके उपरांत भोज ने लाट पर विजय प्राप्त करने की योजना बनाई। इससे पूर्व भोज के पिता सिंधुराज ने लाट के शासक गोग्गीराज को हराया था। भोजदेव ने अब इसके पुत्र कीतिराज पर विजय प्राप्त की (इंडियन ऐंटिक्वेरी, भाग १२, पृष्ठ २०१-३)। कीतिराज १०१८ ईस्वी में लाट पर शासन कर रहा था (सूरत दानपत्र अभिलेख, पाठक कोमेमोरेशन वाल्यूम, पृष्ठ २८७-३०३)। इस विजय के उपरांत लाट देश भोजदेव के प्रभावक्षेत्र में ही रहा। गुर्जर नरेश भीम प्रथम चौलुक्य व भोजदेव के संघर्ष का विशद् वर्णन मेरुतुंग रचित प्रबन्ध चिंतामणि में प्राप्त होता है (पृष्ठ ३२-३३)। जिस समय भीम प्रथम सिंध पर आक्रमणकारी हो रहा था तब भोजदेव ने अपने सेनापति कुलचन्द्र को गुजरात पर आक्रमण करने के लिये भेजा था। उसने चौलुक्य राजधानी अणहिलपट्टण पर विजय प्राप्त कर खूब लूटा और गुर्जर प्रधान मंत्री से बलात् एक जयपत्र लिया। चौलुक्यों की क्षति इतनी अधिक थी कि 'कुलचन्द्र की लूट' एक किंवदन्ति बन गई। चेदि नरेश पर भोजदेव की विजय का उल्लेख महाकवि मदन द्वारा रचित पारिजात-मंजरी नाटक में भी प्राप्त होता है (ऐपि. ई., भाग ८, पृष्ठ १०१, श्लोक क्र. ३)। वास्तव में चेदि नरेश गांगेय विक्रमादित्य एक शक्तिशाली नरेश था (का. इं. ई., भाग ४, प्रस्तावना, पृष्ठ ९०-९१) और प्रारम्भ में इन दोनों में मित्रता थी, पर बाद में वे विरोधी बन गये। संभवतः इसी कारण भोज द्वारा उस पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख प्रधानतापूर्वक किया गया। जहां तक भोज द्वारा कोंकण अधिपति पर विजय प्राप्त करने का प्रश्न है, भोजदेव के पूर्ववणित वांसवाडा (क्र. १०) व बेटमा (क्र. ११) के ताम्रपत्र अभिलेखों में इसका विवरण दिया जा चुका है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत अभिलेख के साक्ष्य से भी इसकी पुष्टि होती है। प्रस्तुत अभिलेख का प्राप्ति स्थान कोंकण के अन्तर्गत था जहां भोजदेव के ही प्रसाद से यशोवर्मा उसके सामन्त के रूप में शासन कर रहा था।
प्रस्तुत अभिलेख के तिथि-रहित होने के कारण यह विवाद का विषय बन गया है । आर. डी. बनर्जी ने विचार प्रकट किया है कि यह अभिलेख भोज की मृत्यु के उपरान्त प्राय: १०५५ ई. में अशांति काल में निस्सृत किया गया था। उन के अनुसार प्रस्तुत अभिलेख के माध्यम से एक सामान्य सामन्त अपने शासनकर्ता नरेश की अनुमति प्राप्त किए बगैर ही भूमिदान करने का साहस करता है। इससे साफ है इस दानपत्र के निस्सृत होते समय परमारों की शक्ति काफी कुछ क्षीण हो गई थी। वे आगे लिखते हैं कि प्रस्तुत अभिलेख परमार नरेशों के सामान्य भूदान अभिलेखों से निम्न बातों में भिन्न है--इसमें गरुड़ व सर्प की मुद्रा अथवा परमारों का राजचिन्ह नहीं है। दूसरे, इसमें तिथि नहीं है व शासनकर्ता नरेश के लिए 'कुशली' शब्द का उल्लेख नहीं है। तीसरे, प्रथानुसार अभिलेख के प्रारम्भ में शिवस्तवन भी नहीं है। इस प्रकार यह प्रायः निश्चित है उक्त अधीनस्थ सामन्त ने अराजकता की स्थिति में ही प्रस्तुत दानपत्र प्रदान किया था जो भोजदेव के प्राणान्त व त्रिपुरी के कर्ण द्वारा मालव राज्य के हस्तगत करने से उत्पन्न हुई थी।
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