SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ परमार अभिलेख दी गई भूमि एवं दान प्राप्तकर्ता के विवरण हैं। श्लोक २० में लेखक का उल्लेख है। आगे लेख में संभावित त्रुटियों के लिये क्षमायाचना है। मंगल के साथ अभिलेख का अन्त होता है। यहां प्रथम समस्या नरेश भोजदेव का तादात्म्य निर्धारित करना है, क्योंकि उसके वंश अथवा पिता के नाम नहीं हैं। न ही राजकीय उपाधियां हैं। एक सुझाव है कि यह नरेश कान्यकुब्ज का प्रतिहार वंशीय भोज द्वितीय था। परन्तु उसका शासनकाल ९०८ से ९१० ईस्वी तक केवल ३ वर्ष का था । दूसरे, वह प्रस्तुत अभिलेख की तिथि से १३४ वर्ष पूर्व हो गया था। तीसरे, यह भी संभव नहीं है कि भोजदेव के सामन्त सुरादित्य व उसके पुत्र जसोराज जो कान्यकुब्ज के श्रवणभद्र वंश के थे, के मध्य १३४ वर्ष का अन्तर हो। अतएव प्रस्तुत अभिलेख के भोजदेव का तादात्म्य मालवा के परमार राजवंशीय नरेश भोजदेव से करना ही युक्तियुक्त है। अभिलेख की तिथि, प्राप्तिस्थान एवं लिपि आदि सभी इसी नरेश की ओर इंगित करती हैं। __ दूसरी समस्या यह है कि प्रस्तुत अभिलेख में उल्लिखित साहवाहन नामक कौन नरेश था जिसको भोजदेव के लिये उसके सामन्त सुरादित्य ने अन्य शत्रु-नरेशों के साथ हराया था। उत्तरकालीन परमार नरेश उदयादित्य के तिथिरहित उदयपुर प्रस्तर-खण्ड अभिलेख (क्र. २२) के श्लोक क्र. १९ में भोजदेव की विभिन्न विजयों में कर्णाट, लाटपति, गुर्जरनरेश व तुरुष्कों, जिनमें मुख्य चेदि नरेश इन्दरथ, तोग्गल तथा भीम के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इनकी गणना प्रस्तुत अभिलेख के श्लोक क्र. ४ में उललिखित 'अन्येषां भुभुजां' के अन्तर्गत की जा सकती हैं, परन्तु प्रमुख रूप से नाम लेकर उल्लिखित साहवाहन के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं होता। यह संभावना तो अत्यन्त न्यून है कि साहवाहन सातवाहन का अपभ्रंश है, क्योंकि सातवाहन (आंध्रसातवाहन) वंश का अन्त २१८ ईस्वी में ३०वें व अंतिम नरेश पूलोमावी चतुर्थ के साथ ही हो गया था (आर. जी. भण्डारकर--अर्ली हिस्ट्री ऑफ डेक्कन, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ २६) । कुदलकर महोदय पूना ओरियंटल कांफ्रेंस की प्रोसीडिंग्स १९१९ में लिखते हैं कि यह साहवाहन क्या तुर्कीसाही अथवा शाहीय नरेशों में से कोई है ? ये नरेश कुशाण नरेश कनिष्क के वंशज थे जो काबुल में ८७० ईस्वी तक शासन करते रहे, जब अरब सेनापति याकुबेलायस ने इस नगर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया और बाद में राजधानी बदल कर सिंधुनदी पर ओहिन्द नगर में ले आया। अन्य संभावना यह है कि साहवाहन कोई ऐसा नरेश रहा हो जो तुर्की शाहीय वंश का अन्त कर अपने वंश की नींव डालने वाले ब्राह्मण लल्लिय का वंशज हो। यह घटना काश्मीर नरेश शंकरवर्मन (८८३-९०२ ईस्वी) के शासनकाल में घटी थी। ब्राह्मण लल्लिय द्वारा संस्थापित वंश का नाम हिन्दु शाहीय विख्यात हुआ। यह वंश कम से कम १०२१ ईस्वी तक चालू रहा, जब महमूद गजनवी के सेनापतियों द्वारा इस वंश का अन्त कर दिया गया। इस संबंध में डी. सी. गांगुली (प. रा. इ., १९७०, पृष्ठ ८०) लिखते हैं कि साहवाहन नामक किसी नरेश का अब तक पता नहीं चला है जो भोज का समकालीन रहा हो। परन्तु ग्यारहवीं शती में छम्ब (पंजाब) में एक वंश का शासन था जिसका सर्वाधिक शक्तिशाली नरेश सालवाहन देव था। इसने अन्य उपाधियों के अतिरिक्त परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर की राजकीय उपाधियां भी धारण की थीं। उसके वीर सैनिकों ने दुर्गद के अधीश्वर व तुरुष्कों को पराजित किया था। त्रिगर्त नरेश ने उससे मैत्री की याचना की और कुलूत नरेश से उसने राजनिष्ठा प्राप्त की थी (इंडियन ऐंटिक्वेरी, भाग १७, पृष्ठ ८-९)। राजतरंगिणी (स्टीन कृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy