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________________ तिलकवाड़ा अभिलेख .७१ (१६) तिलकवाड़ा का भोजदेव कालीन ताम्रपत्र अभिलेख (संवत् ११०३= १०४६ ईस्वी) प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो १९१७ ई. में गुजरात में तिलकवाडा के पास नर्मदा नदी के तल में एक व्यक्ति को स्नान करते हुए प्राप्त हुए थे। जे. एस. कुदलकर ने आल इंडिया ओरियंटल कान्फ्रेंस, पूना, १९१९ में एक लेख में इसका विवरण दिया। डिस्कलकर महोदय ने एपि. इं., भाग २१, पृष्ठ १५७-१५९ में इसका विवरण छापा। ताम्रपत्र सेंट्रल लायब्रेरी, बड़ोदा में सुरक्षित हैं। ताम्रपत्रों का आकार २२४ १४ एवं २३४ १३ सें. मी. है। प्रथम ताम्रपत्र पर लेख दोनों ओर व दूसरे पर अग्रभाग में खुदा है। दोनों में एक-एक छेद है जिसमें कड़ी पड़ी थी। इनका वजन ०.९१० किलोग्राम है। ये काफी पतले हैं। लेख २९ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र के अग्रभाग पर १३, पृष्ठ भाग पर १० एवं दूसरे पर ७ पंक्तियां खुदी हैं। संभवतः प्रारम्भ में एक ताम्रपत्र और था जो प्राप्त नहीं हुआ है। यह राजकीय अभिलेख नहीं है, यद्यपि श्लोक २०-२१ में इसको 'शासन' लिखा है। ___अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी लिपि है । उत्कीर्ण कार्य भद्दा है। उत्कीर्ण करने में छेनी के कुछ निशान बन गये हैं जिससे पढ़ने में गड़बड़ होती है। अक्षरों की लम्बाई प्राय: ५ सें. मी. है । भाषा संस्कृत है । सारा अभिलेख पद्य में है । इस में २१ श्लोक हैं । इनमें क्रमांक नहीं है। अतएव यह ज्ञात करना सरल नहीं कि अप्राप्य ताम्रपत्र में कितने श्लोक थे। वर्णविन्यास की दष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श म् के स्थान पर अनुस्वार बने हैं। संधि का प्रयोग त्रुटिपूर्ण है। कुछ शब्द ही गलत हैं। इनको पाठ में सुधार दिया गया है । ये सभी प्रदेश व काल के प्रभाव को प्रदर्शित करते हैं एवं कुछ उत्कीर्णकर्ता द्वारा बन गए हैं। तिथि श्लोक ८-९ में शब्दों में विक्रमादित्य संवत् ११०३ मार्गशीर्ष, सोमपर्व, सोमवार लिखी है। यहां संवत् के साथ विक्रमादित्य नाम संभवतः छन्द के कारण है। यह सोमवार १६ नवम्बर १०४६ ईस्वी के बराबर है। अभिलेख के प्रमख ध्येय के अनसार श्री भोजदेव के अधीन संगमखेट में मंडलेश्वर जसोराज (यशःराज) द्वारा सारा विलुहजग्राम व घण्टपल्ली ग्राम में से सौ(अंश) भूमि के दान का उल्लेख करना है। भदान घण्टेश्वरदेव के (मंदिर) के लिये था । दानग्रहण करने वाला व्यक्ति महाव्रती मुनि दिनकर था जो साक्षात् नरमुंड धारण करने वाला शंकर कहा गया है। अभिलेख का प्रारम्भ श्लोक के अंतिम चरण से होता है। अतएव इससे पूर्व एक ताम्रपत्र और रहा होगा जो अप्राप्य है। इसमें भोजदेव के पिता (सिंधुराज) की प्रशंसा है। श्लोक २ में भोजदेव का गुणगान है। श्लोक ३-५ में उसके अधीन सुरादित्य नामक प्रान्तपति का उल्लेख है जो श्रवणभद्र वंश का था। वह कान्यकुब्ज का निवासी था। उसने युद्धों में नरेश की सहायता की व अनेक शत्रुओं का नाश किया, जिनमें साहवाहन का नाम दिया गया है। श्लोक ६ में सुरादित्य के पुत्र जसोराज द्वारा संगमखेटक मंडल पर शासन करने का उल्लेख है। श्लोक ७ में भूदान हेतु अमात्यपुत्रों व निवासियों से अनुमति प्राप्त करने का उल्लेख है। फिर तिथि, दान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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