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________________ मान्धाता अभिलेख ९१ १४. भाग भोग उपरिकर और समस्त आय समेत श्री अमरेश्वर में पट्टशाला के ब्राह्मणों के लिये १५. ये स्वयं श्री जयसिंह देव के हस्ताक्षर हैं। (द्वितीय ताम्रपत्र) १६. भोजन आदि के लिए, माता-पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिये, अदृष्ट फल को स्वीकार १७. कर चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक के लिए परमभक्ति पूर्वक राजाज्ञा द्वारा जल हाथ में ले कर दान दिया है। १८. इसका विचार कर वहां के निवासियों, पटेलों, ग्रामीणों को सदा से दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य १९. आदि, देव ब्राह्मण द्वारा भोगे जाने वाले को छोड़ कर, आज्ञा को सुना हुआ मान कर, सभी कुछ इनके लिये देते रहना चाहिये। २०. और इस का समानरूप फल जान कर हमारे व अन्य वंशों में उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को भी हमारे द्वारा दिये गये इस धर्म२१. दान को मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है-- ___ सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब-जब यह भूमि जिसके अधिकार में रही है तब-तब उसी को उसका फल मिला है ।।५।। यहां के नरेशों ने धर्म व यश हेतु जो दान दिये हैं वे त्याज्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति इसको वापिस लेगा॥६॥ हमारे उदार कुलक्रम को उदाहरण रूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ।।७।। __सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार-बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समानरूप धर्म का सेतु है। अतः अपने-अपने कालों में आपको इस का पालन करना चाहिये ।।८।। ___ इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीति नष्ट नहीं करना चाहिये ।।९।। २९. यह संवत् १११२ आषाढ़ वदि १३ । हमारी आज्ञा । मंगल व श्रीवृद्धि हो । ये हस्ताक्षर ३०. स्वयं श्री जयसिंह देव के हैं। (२०) पाणाहेडा का जयसिंहदेव प्रथम कालीन मण्डलीक का प्रस्तरखण्ड अभिलेख (विक्रम संवत् १११६=१०५९ ई०) प्रस्तुत अभिलेख राजस्थान में बांसवाड़ा जिले में पाणाहेडा नामक स्थान पर मंडलेश्वर महादेव के मंदिर की दीवार में लगे प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है । इस का प्रथम उल्लेख गौरीशंकर ओझा ने ए. रि. राज. म्यू., १९१६-१७, पृष्ठ २ किया। फिर आर. आर. हलदर ने एपि. इं., भाग २१, पष्ठ ४१-५० पर इसका विवरण छापा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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