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________________ ९२ परमार अभिलेख प्रस्तर खण्ड का आकार ८०५०.४ सें. मी. है। वर्तमान में वह खण्डित है । उसके दोनों ओर के भाग सुरक्षित हैं, मध्यवर्ती भाग नष्ट हो चुका है। सुरक्षित भाग बहुत अच्छी हालत में है । खण्डित होते हुए भी अभिलेख में वर्णित तथ्यों की रूपरेखा समझने में कठिनाई नहीं है । अभिलेख ३८ पंक्तियों का है। अक्षरों की बनावट ११ वीं शती की नागरी लिपि है । बनावट में अक्षर सुन्दर हैं एवं ध्यान से खोदे गये हैं । अक्षर १ से १.५ सें. मी. लम्बे हैं । भाषा संस्कृत है । पंक्ति १, २६, ३६ एवं ३८ में केवल कुछ अंशों को छोड़कर सारा अभिलेख पद्यमय है । श्लोकों में क्रमांक दिये गये हैं । परन्तु पंक्ति २६ में श्लोक ३५ को भूल से ३४ उत्कीर्ण कर दिया है । पंक्ति ३५ में उत्कीर्णकर्ता को अपनी भूल ज्ञात हो गई, अतएव वहां श्लोक ५४ को ठीक से अंकित कर दिया । पुनः अंतिम पंक्ति ३८ में भूल से श्लोक ६१ को ६० अंकित कर दिया । इस प्रकार अभिलेख में कुल श्लोक संख्या ६१ है । इनमें केवल कुछ श्लोक अर्थात् १, १९, २१, २७, ३५, ३७, ४१, ४३, ४५, ४७, ५०, ५२, ५४, ५५, ५७, ५९ एवं ६१ पूर्ण हैं। शेष सभी अधूरे हैं । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, स के स्थान पर श, श के स्थान परस, म् के स्थान पर अनुस्वार का सामान्य रुप से प्रयोग है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है । अनेक स्थलों पर संधि नहीं की गई है । कुछ शब्द ही गलत उत्कीर्ण हैं । इन सभी को पाठ में कोष्टक में सुधार दिया गया है। ये त्रुटियां स्थानीय व काल के प्रभाव प्रदर्शित करती हैं । कहीं २ पर लेखक व उत्कीर्णकर्ता भी उत्तरदायी हैं । तिथि अंतिम पंक्ति में संवत् विक्रम १११६ लिखी है । इससे आगे कुछ अक्षर भग्न हो गये हैं जिनमें मास, पक्ष, तिथि व दिन आदि रहे होंगे। यह वर्ष १०५९ ईस्वी के बराबर है । प्रमुख ध्येय के अनुसार नरेश जयसिंह प्रथम के सामन्त वागड के परमार शासक श्री मण्डलीक द्वारा पांशुलाखेटक में शिव के मंदिर का निर्माण करवाकर उसके लिये विभिन्न दान देने का उल्लेख करना है । श्लोक ६ वें आबूपर्वत पर यज्ञकुण्डाग्नि से परमार नामक दिव्य पुरुष की उत्पत्ति का उल्लेख है । पूर्ववणित अभिलेख ( क्रमांक १७ ) में प्रथम बार परमारवंश का नामोल्लेख करके उसका सामान्य गुणगान है। उसकी उत्पत्ति का कोई उल्लेख नहीं है । वहां परमारवंश को सीधे धारानगरी से संबद्ध कर दिया। परन्तु वह अभिलेख कोई शासनपत्र न होकर भोजदेव के अधीन सामन्त यशोवर्मन द्वारा निस्सृत किया गया था। इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख में प्रथम बार परमार राजवंश की उत्पत्ति का पौराणिक विवरण मिलता है । श्लोक ७ से २५ तक में राजवंशीय नरेशों का जयसिंह प्रथम तक प्रशंसात्मक विवरण है । श्लोक २६ से अभिलेख का दूसरा भाग शुरु होता है । इसमें परमारों की वागड़ शाखा के शासकों का वर्णन है । श्लोक ३७ के अनुसार मण्डलीक ने युद्ध में कण्ह नामक किसी शत्रु सेनापति को उसके अश्वों व हाथियों समेत बन्दी बना कर नरेश जयसिंह के सामने प्रस्तुत किया था । श्लोक ३८ में जयसिंह की प्रशंसा है । आगे श्लोक ३९ में उल्लेख है कि मण्डलीक ने पांशुलाखेटक में शिवमंदिर का निर्माण करवाया । श्लोक ४०-४४ में मंदिर निर्माण के पुण्य दर्शाये गये हैं । श्लोक ४५ में नरेश जयसिंह द्वारा उपरोक्त मंदिर के लिये उस मार्ग से जाने वाले प्रत्येक बैल पर एक वंशोपक (मुद्रा) प्रदान करने की घोषणा है । श्लोक ४६ के अनुसार पांशुलाखेटक में कुछ अन्य दानों की घोषणा है जिनके विवरण श्लोक ४७-४९ में हैं । मंडलीक ने वहां वन्दनघाट पर दो भाग भूमि, नग्नतडाग एवं वरुणेश्वरी के पीछे दो सुन्दर वाटिका तथा खेत सहित भूमि प्रदान की। श्लोक ५०-५१ में नट्टापाटक, देउलपाटक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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