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शेरगढ़ अभिलेख
प्रथम दान का उल्लेख प्रथम दो पंक्तियों में किया गया है। यह दान संवत् १०७४ वैशाख सुदि ३ अक्षय तृतीया को दिया गया था। यहां दिन का उल्लेख न होने से इस का सत्यापन संभव नहीं है। यह तिथि २ अप्रेल, १०१७ ईस्वी के बराबर निर्धारित होती है। दान तीन विभिन्न श्रेष्ठियों-नरसिंह, गोवृष व धीरादित्य द्वारा भट्टारक श्री नग्नक के चरणस्नान के लिये प्रतिदिन एक कर्ष धी के रूप में दिया गया था। एक कर्ष नौ माशा के बराबर होता है। यह दान मंडपिका अर्थात मंडी से प्राप्त कर से दिया गया था । लगता है तीनों व्यापारी किसी एक मंडी समिति के सदस्य थे जिसका कार्य मंडी-कर उगाहना था। भट्टारक श्री नग्नक किसी देव-मत्ति को इंगित करता है।
दूसरे दान का उल्लेख अगली दो पंक्ति क्रमांक ३-४ में किया गया है। यह दान संवत् १०७५ वैसाख सुदि ३ को दिया गया था। यह तिथि २१ अप्रेल १०१८ ईस्वी के बराबर है। दानकर्ता वरंग ‘मार्गादाय-कौप्तिक' कहा गया है। वह संभवतः मार्ग-कर वसूल करने वाला अधिकारी था। दान श्री सोमनाथ देव के लिये चंदनधूप-निमित्त मार्गकर से ५ वृषभ मुद्राएं थीं। अभिलेख की पंक्ति क्र. ७ में वराह-मुद्राओं के उल्लेख से यह मानना होगा कि ये कोई ऐसी मुद्रायें रही होंगी जिन पर वृषभ का चित्र अंकित रहा होगा। हमें ज्ञात नहीं कि परमार नरेशों ने अपने साम्राज्य में कोई विशिष्ट मुद्रायें चलाई थीं। केवल उदयादित्य के कुछ सिक्के प्राप्त हुए हैं जिनके एक ओर बैठी देवी व दूसरी ओर नरेश का नाम है (जर्नल ऑफ दी एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, भाग १६, पुष्ठ ८४) । इस युग में मध्यदेश व राजपुताना में एक प्रकार की मुद्रायें चालू थीं जिनको 'गधिआ मुद्रायें कहा गया है। परन्तु इनको 'वृषभ' कहना ठीक नहीं है। ग्यारहवीं शती में ओहिन्द के हिन्दू नरेश व देहली के तोमर नरेश चांदी व टिन के सिक्कों का प्रयोग करते थे। जिनके अग्रभाग पर अश्वारोही व पृष्ठभाग पर वृषभ के चित्र अंकित थे। यह कहना कठिन है कि इसी प्रकार के सिक्के परमार साम्राज्य में प्रयुक्त होते थे एवं इनको 'वृषभ' नाम से पुकारा जाता था या कि नहीं। प्रस्तुत दान-घोषणा में यह नहीं लिखा है कि उपरोक्त मुद्रायें मासिक अथवा वार्षिक रूप से मंदिर को प्राप्त होती थीं।
उपरोक्त दान के नौ वर्ष उपरान्त संवत १०८४ माघ सदि १३ को, जो १२ जनवरी १०२८ ईस्वी के बराबर होती है, ठक्कर देवस्वामिन ने मंदिर के लिए तीन दान दिये। इनमें दीप-तेल के लिये तैलिकराज भाडयाक से लेकर दो घाणी तेलः पर्णशाला में धप (अगरबत
घाणी तेल; पर्णशाला में धूप (अगरबत्ती) के लिए प्रतिदिन एक कौड़ी: तथा मासवारक के लिये (?) प्रत्येक संक्रांति को दो-वराह मुद्रायें सम्मिलित हैं। यहां मासवारक शब्द ठीक से समझ में नहीं आता । संभवतः यह मंदिर के सामान्य कोष में दिया जाने वाला मासिक धन रहा होगा।
इसके उपरांत पंक्ति क्रमांक ८-१३ में मंदिर के लिये विभिन्न व्यक्तियों द्वारा निवास भवनों के दान देने के उल्लेख हैं। इनमें ९ व्यक्तियों द्वारा आठ भवनों के दिये जाने के विवरण हैं। इन व्यक्तियों में ६ व्यापारी, एक महल्लक अथवा जमींदार, एक तेली एवं एक शंखिक अथवा शंखों का कारीगर है।
___ आंगे पंक्ति १३-१५ में सोमनाथ मंदिर की कुल भूमि (निवास भवनों सहित) की सीमा दी हुई है। इसके अनुसार पूर्व में मंदिर, पश्चिम में ठाकुर कुडणक का निवास स्थान, उत्तर में प्रमुख मार्ग एवं दक्षिण की ओर नदी थी।
___अभिलेख में किसी भौगोलिक स्थल का उल्लेख नहीं है। उसकी आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि सभी दान स्थानीय रूप में दिये गये थे।
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