________________
परमार अभिलेख
मूलपाठ १. ओं' । संवत् १०७४ वैसा (शा) ख सुदि ३ अक्षयतृतीयायां मंडपिकादाया[त्] स्रे (श्रे)ष्ठि
नरसिंह गोवृषथीरा२. दित्यै भट्टारक श्री नग्नकस्य पादाभ्यंगाय दिन प्रति घृतकर्षमे[क] १ प्रदत्तं । आचन्द्रार्क] यावत् । ३.. संवत् १०७५ वैसा (शा)ख सुदि ३ श्रीसोमनाथदेवाय चंदनधूप निमित्तं माग्र्गादाये कौप्तिक४. वरंगेन (ण) माग्दायात् (द्) दत्तं वृषभ' ५ आचंद्राकं यावत् ॥छ। संवत् १०८४ माघ सुदि १३ ५. श्री सोमनाथदेवस्य दीपतैल निमित्तं ठक्कुर देवस्वामिना तैलिकराज थाइयाक घाण (णौ) ६. द्वौ प्रदत्तौ आचंद्रा6 यावत् ।। तथा पन्नसालायां धूप-निमित्तं कपर्दकवोडी (ड्री) १ दिनप्र७. ति दातव्या आचंद्रार्क यावत् । तथा मासवारके (?) संक्रांतौ वराह (हौ) द्वौ प्रदत्तौ आचंद्रार्क ८. यावत् । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलमिति ।। श्री सोमनाथदेवस्य वणि" ९. इंदामहिंदका[भ्यां] सत्का वासनिका प्रदत्ता ।। तैलिक थाइयाकेन सत्का वासनिका' प्र१०. दत्ता । तथा वणि[क्] सोढाकेन सत्का वासनिका प्रदत्ता ।। तथा वणिक (क्) साइयाकेन स११. त्का वासनिका प्रदत्ता ।। तथा वणिक (क) श्री हरजसोमाभ्यां स्वकीया (यौ) वासनिको द्वौ २ प्र१२. दत्तौ ।। तथा वणिक (क्) महल्लकेन सत्का वासनिका प्रदत्ता । तथा सं (शं)खिक लक्ष्मीधरेण १३. सत्का वासनिका प्रदत्ता ।। श्री सोमनाथदेव पल्लिका पूर्वतः देवमर्यादा । पश्चिमतः १४. [3]क्कुरकुडणकास्य] वासनिका मर्यादा । उत्तरतः मार्गमा (म)र्यादा । दक्षिणतः नदी मर्या१५. दा। चतुराघाटसाधिता श्री सोमनाथदेवपल्लिका ॥छ।। मंगलं महाश्रीः ।। . . . ।
(अनुवाद) १. ओं। संवत् १०७४ वैशाख सुदि ३ अक्षय तृतीया को मंडपिका से आये हुए श्रेष्ठि नरसिंह,
धीरादित्य ने २. भट्टारक श्री नग्नक के चरण स्नान (तैलमर्दन) के लिए प्रतिदिन एक-एक कर्ष (मान का)
घी दिया, जब तक सूर्य चन्द्र हैं। ३. संवत् १०७५ वैसाख सुदि ३ श्री सोमनाथदेव के लिये चंदन धूप निमित्त मार्ग-कर में
कौप्तिक वरंग के द्वारा ४. मार्ग कर से ५ वृषभ मुद्रायें सूर्य चन्द्र पर्यन्त प्रदान की गई। संवत् १०८४ माघ सुदि
१३ को ५. श्री सोमनाथदेव के निमित्त दीप तेल के लिये ठक्कुर देवस्वामि ने तैलिकराज थाइयाक से
(ले कर) दो घाणी तेल १. चिन्ह द्वारा अंकित। २. क्ष अक्षर कुछ भग्न है। ३. डी. आर. भण्डारकर के अनुसार 'धीरा' (इं. ऐं., भाग ४०, पृष्ठ १७६) । ४. यह दण्ड अनावश्यक है। ५. पढ़िये--"दत्ता वृषभाः" । ६. पढ़िये--- "पर्णशालायां"। डी. आर. भण्डारकर के अनुसार 'पल्लसालायां" । ७. पढ़िये--वणिग्म्यमिदा . ८. अक्षर 'का' कुछ क्षतिग्रस्त है। ९. दण्डों के मध्य एक चिन्ह है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org