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हरसोल अभिलेख अ
१०. नगाड़ों की ध्वनि सुन कर अनेक शत्रुसमूह भय से कांपने लग जाते थे व अनेक शंखों
की ध्वनियों से बहरे बनाये गये हुए, पांच वर्षों की पताका-पंक्तियों से सुशोभित ११. विशाल स्थान पर जिसके चन्द्र (-चिह्न) लगे थे, जो अतुल्य दान देने वाला अकेला कल्पवृक्ष
था,
१२. जो महामण्डलिकों का चूडामणि था, ऐसे महाराजाधिराजों के स्वामी श्री सीयक अपने अधीन
मोहडवासक विषय के अन्तर्गत १३. कुम्भारोटक ग्राम के सभी राजपुरुषों, निवासियों व जनपदों को बोधित करते हैं- आपको
यह विदित हो कि योगराज के ऊपर (आक्रमण की) १४. यात्रा कर अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करने के उपरान्त महीनदी के तट पर निवास करते
हुए, चन्द्र व सूर्य के १५. योगपर्व के अवसर पर (अर्थात् अमावस्या) भगवान शिव की विधिपूर्वक अर्चना कर हमारे द्वारा विचार कर
इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले मेघों के समान चंचल है, विषयभोग प्रारम्भ में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान हैं, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है।।५।।
(दूसरा ताम्रपत्र) १७. इस प्रकार यह धारणा कर कि यह सारा जगत अनित्य है, हमने ऊपर लिखा ग्राम अपनी
सीमा सहित, तल व गोचर भूमि तक, उपरिकर समेत १८. सब प्रकार की आय सहित श्रीमान आनन्दपरी नगर के त्रिऋषि गोपालि १९. गोत्र वाले गोवर्द्धन पुत्र लल्लोपाध्याय के लिये, माता पिता व निज पुण्य व यश की वृद्धि
के हेतु, अदृष्ट फल को २०. स्वीकार कर, चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहने तक के लिये, अत्यन्त भक्तिपूर्वक राजाज्ञा
द्वारा जल हाथ में ले कर दान दिया है। २१. इसका विचार कर वहां के निवासियों व जनपदों को जैसा दिया जाने वाला भाग भोग कर
हिरण्य आदि इस आज्ञा को सुन कर पालन करने में तत्पर होते हुए २२. उसके पुत्र पौत्र आदि के लिये भी देते रहना चाहिये। यह जानकर हमारे वंश में उत्पन्न
हुए व अन्यों में होने वाले भावी भोक्ताओं को मेरे द्वारा दिये गये इस धर्म२३. दान को मानना व पालन करना चाहिये । और कहा है
___ सगर आदि अनेक राजाओं ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है, तब तब उसी को उसका फल मिला है ॥६॥ ____ यहां पूर्व नरेशों ने धर्म एवं यश के हेतु जो दान दिये हैं वे निर्माल्य एवं के के
समान जानकर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ॥७॥ २५. संवत् १००५ माघ वदि ३० बुधवार। २६. यहां दापक ठक्कुर श्रीविष्णु हैं। राजाज्ञा से कायस्थ गुणधर ने लिखा है। ये
हस्ताक्षर स्वयं श्री सीयक २७. के हैं।
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