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________________ परमार अभिलेख १८. तः सोपर (रि) करः सादाय-समुपेतः श्रीमत् आनन्दपुरीय-नागराय श्यारेयाय गोपालि-स१९. गोत्राय गोवर्द्धनसूनवे लल्लोपाध्याय[य]मातापितरोरात्मनश्च पुण्य-यसो (शो)भिवृद्धये अदृष्टफ२०. लमङ्गीकृत्य आचन्द्रार्कीर्णव-क्षितिसमकालं परया भक्त्या शासनेन उदकपूर्वकं प्रतिपादित इ२१. ति तंनि (नि)वासि-जनपदैर्यथा दीयमान-भाग-भोग-कर-हिरण्यादि सर्वमाज्ञा-श्रवण-विधेयैर्भूत्वा २२. तत्-पुत्रपौत्रादिभ्यः समुपनेतव्यं इति वु(बु)द्ध्वा अस्मद्वंस (श) जैरन्यैरपि भावि भोक्तृभिः मत्प्रदत्त-ध२३. र्म दायोयम (म्) नुमन्तव्यः पालनीयश्च । उक्तं च।। व (ब) हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिः । यस्य _ यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं (लम्)।[६।।] यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रनानि धर्थियशस्कराणि । नि भल्य-वान्तप्रतिभानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत ।। [७॥] संवत् १००५ माघ वदि ३० वुधे दाप२६. कोत्र ठक्कुरः श्री विष्णुः राजाज्ञया लिखितं कायस्थ गुणधरेण । स्वहस्तोयं श्री सीयक२७. स्य ।। अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं। रक्तवर्ण नेत्रों से निकलने वाली अग्निज्वाला को धारण करने वाले, तीक्ष्ण नखों से शत्रु के वक्षस्थल को विदारित करने वाले, विद्युत् समूह के समान चमकती हुई बालों की जटाओं से मेघमण्डल को छिन्न-भिन्न करने वाले, अधिक गर्जना करने वाले कण्ठ से निकली हुई गर्जनाओं से दिग्गजों का मानमर्दन करने वाले सिंह रूपी विष्णु का क्रोध तुम्हें सुख प्रदान करे ।।१।। ३. परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमान अमोघवर्षदेव के चरणों ४. का ध्यान करने वाले परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमान् अकालवर्षदेव पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ नरेन्द्र के चरणों के ___ उस कुल में पापों का नाश करने में दक्ष प्रसिद्ध नरेश बप्पैपराज नामक उत्पन्न हुआ, जो अपने प्रताप की अग्नि में शत्रुओं की आहुति करता था। उसके वैरिसिंह नामक पुत्र हुआ जो उसका उत्तराधिकारी हुआ ।।२।। जिसकी कीर्ति यद्यपि शिव की हंसी के समान शुभ्र थी, परन्तु वह अभिमानी शत्रुओं की स्त्रियों के मुखचन्द्रों पर से कलंक धोने में समर्थ न हो सकी ।।३।। उसके श्री सीयक नामक नरेश उत्पन्न हुआ जो अपने वंश में कल्पवृक्ष के समान था, जो शत्रु नरेशों के साथ युद्धक्षेत्र रूपी रंगमंच पर अकेला ही नायक था॥४॥ ८. वह इस प्रकार सभी प्रणाम करने वाले सामन्तों ९. के सिरों की मणियों की किरणों से जिसके चरणयुगल शोभायमान थे, जिसके श्री खेटकमण्डल के अधिपति की शरणागति से बंधनमुक्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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