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________________ उदयपुर प्रशस्ति ११५ कर स्वयं को इन उपाधियों के योग्य बना लिया था। इसकी पुष्टि प्रस्तुत अभिलेख से भी होती है। इसी श्लोक में आगे लिखा हुआ है कि वह अपने हाथ की तलवार की चमक से स्वयं प्रकाशमान था, वह इन्द्र के समान था, उसके अश्व गंगा व समुद्र के जलों का पान करते थे'। संभवत: उसने महेन्द्रपाल प्रथम प्रतिहार के सामन्त के रूप में उसके मगध व वंग विजयों में भाग लिया हो एवं बंगाल की खाड़ी तक गया हो। चारणों के अनुसार उसने कामरूप में विजय प्राप्त की थी। उसकी प्रिय रानी का नाम कमलादेवी था (लुअर्ड व लेले-उपरोक्त)। नवसाहसांकचरित् में इस नरेश का केवल अलंकारिक विवरण ही प्राप्त होता है (सर्ग ११, श्लोक ८०-८२) । श्लोक क्र. ११ में उसके पुत्र वैरिसिंह द्वितीय का उल्लेख है जो वज्रटस्वामि नाम से भी प्रसिद्ध था। उसने अपनी खङ्ग से शत्रुसमूह का नाश किया जिससे धारा नगरी ख्यातियुक्त हो गई। वैरिसिंह द्वितीय का उल्लेख हरसोल अभिलेखों (क्र. १-२) और वाक्पति द्वितीय के सभी अभिलेखों (क्र. ४-७) में प्राप्त होता है, जहां सभी में उसको उसके पिता के समान पूर्ण राजकीय उपाधियों से विभूषित किया गया है । हमें अन्य विवरणों से ज्ञात होता है कि वह प्रतिहार वंशीय नरेश महीपाल व महेन्द्रपाल द्वितीय का समकालीन था। उसके समय में राजनीतिक क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए जिससे लाभ उठाकर उसने अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि कर ली। बाद में महीपाल प्रतिहार ने मालवा पर अधिकार कर लिया। यह उस के पुत्र महेन्द्रपाल द्वितीय के ९४६ ईस्वी के प्रतापगढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है (एपि.ई., भाग १४, पृष्ठ १७६-१८८)। इसके अनुसार प्रतिहार नरेश के अधीन श्री माधव उज्जैन का राज्यपाल था व सेनापति श्रीशर्मन् मण्डपिका (मांडव) में शासन संचालन कर रहा था। वैरिसिंह द्वितीय का शासनकाल प्रायः ९१९-९४५ ईस्वी के मध्य निश्चित किया जा सकता है। श्लोक क्र. १२ के अनुसार उसका पुत्र श्री हर्षदेव शासनाधिकारी हुआ। इस नरेश का अन्य नाम सीयकदेव द्वितीय था जो इसके स्वयं के अभिलेखों (क्र. १-३), इसके पुत्र वाक्पतिराजदेव द्वितीय व पौत्र भोजदेव के अभिलेखों में लिखा मिलता है। मेरुतुंगकृत प्रबंधचिन्तामणि में इसका नाम सिंहदत्तभट्ट लिखा है (पृष्ठ २१) । इस नरेश ने पूर्ण राजकीय उपाधि 'परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' के अतिरिक्त महाराजाधिराजपति और महामाण्डलिक चूडामणि की उपाधियां भी धारण की थी (अभिलेख क्र. १-२) । अतः कहा जा सकता है कि उस समय तक उसने अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि कर ली थी। वास्तव में अभी तक के परमार राजवंशीय नरेशों में वह सर्वप्रथम महत्वपूर्ण नरेश था व उसको वंश की राजनीतिक प्रभुता का संस्थापक कहा जा सकता है । इसी के समय में भारत के राजनीतिक क्षितिज में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए । प्रतिहार राजवंश पतन की ओर अग्रसर था। चन्देल, चाहमान, चेदि, गुहिल आदि वंशों का उत्थान हो रहा था। हमें सीयक के अनेक युद्धों के विवरण प्राप्त होते हैं। परन्तु उसकी सर्वविख्यात विजय राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिगदेव पर थी जो नर्मदा नदी के किनारे स्थित खलघाट पर युद्ध में प्राप्त की गई थी। ९७२ ईस्वी में उसने राष्ट्रकूट राजधानी मान्यखेट को लूटा (बूलर द्वारा सम्पादित पाइयलच्छी, भूमिका पृष्ठ ६, श्लोक क्र. २७६-२७८) । नवसाहसांकचरित् के अनुसार सीयक द्वितीय की साम्राज्ञी का नाम वडजा था (सर्ग ११, श्लोक ८६)। इनके दो पुत्र थे--वाक्पति द्वितीय मुंज और सिंधुराज। सीयक द्वितीय का शासन काल प्रायः ९४५ ई. से ९७३ ई. तक माना जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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