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________________ ११४ परमार अभिलेख परिमल पद्मगुप्त रचित नवसाहसांकचरित् विशेष रूप से उल्लेखनीय है (सर्ग ११, श्लोक ६४७६)। इसमें परमारों की आबू पर्वत पर अग्निकुण्ड में से उत्पत्ति का विषद् विवरण है। इसी प्रकार के विवरण उत्तरकालीन नागपुर प्रशस्ति (अभिलेख ३६) एवं परमारों की आबू शाखा के अनेक अभिलेखों में प्राप्त होते हैं। यह भी विचारणीय है कि राष्ट्रकूटों, यादवों, होयसलों, कल्चुरियों, प्रतिहारों आदि ने भी अपने लिए इसी प्रकार की उच्च एवं पौराणिक उत्पत्तियों के उल्लेख किए हैं। नरेश वाक्पति मुंज के राजकवि हलायुध ने पिंगलसूत्रवृत्ति में अपने आश्रयदाता नरेश के लिए 'ब्रह्मक्षत्र' शब्द का प्रयोग किया है। __ ब्रह्मक्षत्रकुलीन: समस्त सामन्त चक्रनुत चरणः । सकलसूक्ततैकपूञ्जः श्रीमान मजश्चिरं जयति ।। (पिंगलाचार्य कृत छन्दशास्त्र, अध्याय ४, पृष्ठ ४९, ४/१९, उद्धृत, गौरीशंकर ओझा, राजपुताने का इतिहास, भाग १, पृष्ठ ७५, पादटिप्पणी २)। आगे परमार राजवंशीय नरेशों की प्रारम्भ से लेकर उदयादित्य तक तालिका एवं उनके कार्यों का विवरण है। पूर्ववणित किसी भी अभिलेख में इस प्रकार की तालिका प्राप्त नहीं होती। इसी कारण प्रस्तुत अभिलेख का अत्याधिक महत्व है। श्लोक क्र.७ में परमार वंश के प्रथम नरेश उपेन्द्रराज का उल्लेख है जिसने अपने पराक्रम से उच्च राजत्व को प्राप्त किया। वह अपने द्वारा किए गए यज्ञों के कारण अति विख्यात हुआ। नवसाहसांकचरित् में इस नरेश की प्रशंसा में लिखा मिलता है कि उसने अपनी प्रजा पर करों के बोझ को कम किया और विद्वानों को आश्रय प्रदान किया (सर्ग ११, श्लोक क्र. ७६-७८) । उसकी राजसभा में सीता नामक एक कवियित्री थी जिसने उसको अपने गीत का विषय बनाया था । मेरुतुंग कृत प्रबंधचिन्तामणि से भी इसकी पुष्टि होती है (बम्बई संस्करण, पृष्ठ १०८ व आगे)। चारणों के अनुसार उसकी प्रिय साम्राज्ञी लक्ष्मीदेवी थी (लुअर्ड व लेले--दी परमार्स ऑफ धार एण्ड मालवा--धार स्टेट गजेटीयर, १९०९, अपेंडिक्स सी, पृष्ठ १२१ व आगे) । श्लोक क्र. ८ में उसके पुत्र वैरिसिंह प्रथम का उल्लेख है। यहां उसके पराक्रम व पृथ्वी पर प्रशस्ति युक्त जयस्तम्भ स्थापित करने का विवरण है। श्लोक क्र. ९ में उसके पुत्र सीयकं प्रथम की विजयों का सामान्य वर्णन है। इन दोनों नरेशों के बारे में अन्यत्र कहीं पर भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता। नवसाहसांकचरित् में उल्लेख है कि उपेन्द्र व वाक्पति प्रथम के बीच अन्य नरेश हुए (सर्ग ११, श्लोक क्र. ८०)। इसलिए यह कथन प्रस्तुत अभिलेख के आधार पर ठीक माना जा सकता है। श्लोक क्र. १० में उसके पुत्र वाक्पति प्रथम का उल्लेख है जिसको अवन्ति की युवतियों के नयन कमलों के लिए सूर्य समान कहा गया है। अत: मालव क्षेत्र पूर्णरूप से उसके अधीन हो गया था। वास्तव में वह परमारवंश का प्रथम महत्वपूर्ण शासक था। नवसाहसांकचरित् में उपेन्द्र के बाद इसी का नाम है। हरसोल अभिलेखों (क्र. १-२) में राजवंशावली वप्पंपराज से प्रारम्भ होती है, जबकि वाक्पति द्वितीय मुंज के अभिलेखों (क्र. ४-७) में कृष्णराजदेव से शुरू होती है। अतः कृष्णराजदेव व वप्पैपराज वास्तव में एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं। वप्पैपराज तो वाक्पतिराज का ही प्राकृत रूप है। अतः कृष्णराजदेव उसका मूल नाम रहा होगा व वाक्पतिराज उसकी विद्वता के अनुरूप रहा होगा। उपर्युक्त सभी अभिलेखों में इस नरेश के लिए पूर्ण राजकीय उपाधियों 'परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' का प्रयोग किया गया है। अतः उसने पर्याप्त शक्ति अजित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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