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________________ उदयपुर प्रशस्ति ११३ (२२) उदयपुर का उदयादित्यदेव कालीन नीलकंठेश्वर मंदिर प्रस्तरखण्ड अभिलेख अथवा उदयपुर प्रशस्ति (तिथि रहित) _प्रस्तुत अभिलेख एक खण्डित प्रस्तर-शिला पर उत्कीर्ण है जो मध्यप्रदेश के मिलसा (विदिशा) जिले के बासौदा परगने के अन्तर्गत उदयपुर नामक कस्बे में नीलकंठेश्वर (उदयेश्वर) के विशाल मंदिर के प्रांगण में पड़े अवशेषों में प्राप्त हुआ था। इसका प्रथम उल्लेख एफ. ई. हाल द्वारा ज. ए. सो. बं., भाग ३०, पृष्ठ १४४, पादटिप्पणी ४ में किया गया है। फिर ए. कनिंघम द्वारा आ. स. इं. रिपोर्ट स, भाग ७, पृष्ठ ८२-८३ एवं भाग १०, वर्ष १८७४-७५ एवं १८७६-७७, पृष्ठ ६५ पर उल्लेख किया गया। जे. बूलर ने एपि. इं,. भाग १, १८८८, पृष्ठ २२२-२३८ पर इसका सम्पादन किया। वर्तमान में यह पुरातत्व संग्रहालय, ग्वालियर में सुरक्षित है। अभिलेख का आकार ७२४ ६९.५ सें. मी. है। इसमें अक्षर अच्छे गहरे व सुन्दर ढंग से खुदे हैं। सारा अभिलेख ठीक से सुरक्षित है। परन्तु इसकी अंतिम पंक्ति क्र. २४, जिसमें श्लोक क्र. २३ प्रारम्भ हो गया है, अधुरी है। इस प्रकार प्रस्तुत प्रस्तरखण्ड भग्नावस्था में हैं। वास्तव में यह सम्पूर्ण अभिलेख का केवल पूर्वार्द्ध ही है। इसके अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी लिपि है। इसकी भाषा संस्कृत है। पंक्ति क्र. १ में शुरू के तीन शब्दों को छोड़ कर सारा अभिलेख पद्यमय है। इसमें २२ श्लोक सुरक्षित हैं। ___ व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग सामान्य रूप से कर दिया गया है । र के बाद का व्यंजन दोहरा कर दिया गया है । म् के स्थान पर अनुस्वार लगा दिया गया है। कुछ शब्द ही गलत हैं जो पाठ में ठीक कर दिए गए हैं। ये स्थानीय व काल के प्रभावों को प्रदर्शित करते हैं। कुछ अशुद्धियां उत्कीर्णकर्ता की असवाधानी से बन गई हैं । अभिलेख में तिथि का अभाव है जो इसके महत्व को देखते हुए खटकता है । इसका प्रमुख ध्येय उदयादित्य के अधीन किसी एक सामन्त द्वारा मंदिर-निर्माण का उल्लेख करना है। श्लोक ५-६ में परमार वंश की उत्पत्ति का विवरण है। इसके अनुसार आबू पर्वत पर विश्वामित्र द्वारा वसिष्ठ की धेनू के अपहरण करने पर, वसिष्ठ ने यज्ञाग्नि प्रज्वलित की। इसमें से एक वीर उत्पन्न हुआ। वह अकेले ही शत्रुसैन्यों को मार कर धेनू को वापिस ले आया। तब मुनि ने उसको आशीर्वाद दिया “तुम परमार (शत्रुसंहारक) राजा होगे"। इस प्रकार उस वीर के नाम पर उसके वंश का नाम परमार पड़ गया। वसिष्ठ द्वारा आबू पर्वत पर तपस्या करने का उल्लेख महाभारत (वन पर्व, अध्याय ८२) और पद्मपुराण (अध्याय २) में प्राप्त होते हैं। पूर्ववर्णित अभिलेखों में कालवन अभिलेख (क्रमांक १८) में सर्व प्रथम परमार वंश के नाम का उल्लेख मिलता है। परन्तु उसमें उत्पत्ति का विवरण नहीं है, सामान्य गुणगान ही है। पाणाहेडा अभिलेख (क्रमांक २०) में ऊपर जैसा विवरण है। परन्तु वह अभिलेख परमार राजवंशीय न होकर, परमारों की वागड शाखा के सामन्त द्वारा निस्सृत किया गया था। इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख में ही सर्वप्रथम परमार राजवंश के लिए पौराणिक व्युत्पत्ति प्रदान की गई है। समकालीन साहित्यिक साक्ष्य के रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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