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परमार अभिलेख
अगले दो श्लोकों क्र. १३-१५ में उसके पुत्र वाक्पतिराजदेव द्वितीय की कीर्ति का उल्लेख है । उसके अन्य नाम अमोघवर्षदेव ( अभिलेख क्र. ४-७ ), मुंज व उत्पल थे। उसके वंश के उत्कीर्ण अभिलेखों में उसका नाम वाक्पतिराजदेव है, परन्तु नागपुर अभिलेख ( क्र. ३६) में मुंज लिखा हुआ है । उत्तरकालीन परमार राजवंशीय नरेश अर्जुनवर्मन् ने अमरुशतक पर रसिक संजीवनी नामक टीका में लिखा है कि वाक्पतिराज अपरनाम मुंज उसका पूर्वज था ( " अस्मत्पूर्वजनस्य वाक्पतिराज अपर नाम्नो मुंजदेवस्य"-- ' -- अमरुशतक पृष्ठ २३) । काश्मीरी कवि क्षेमेन्द्र ने जिस एक श्लोक के रचयिता का नाम उत्पलराज लिखा है, वल्लभदेव ने उसी श्लोक के रचयिता का नाम वाक्पतिराज लिखा है ( सुभाषितावलि, श्लोक क्र. ३४१३ ) | नवसाहसांकचरित् में एक स्थान पर वाक्पति को सिंधुराज का ज्येष्ठ भ्राता लिखा है जो उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन पर बैठा था ( सर्ग १, श्लोक क्र. ६ - ७) । वाक्पतिराजदेव ने राजकीय उपाधि "परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर" के अतिरिक्त 'पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ नरेन्द्रदेव' भी धारण की थी ( अभिलेख क्र. ४-७ ) । अतः वह पूर्ण रूप से प्रभुसत्ता संपन्न नरेश था ।
वाकपतिराजदेव की विजयों के बारे में वर्तमान श्लोकों में जो उल्लेख है वह केवल सामान्यरूप ही है । तथ्यों से ज्ञात होता है कि वह सुदूर दक्षिण में केरल व चोल राज्यों तक गया ही नहीं था। फिर भी यह संभव है कि वहां के नरेशों ने वाक्पतिराजदेव से अपने शत्रुओं के विरुद्ध सहायता की मांग की हो । कर्णाट व लाट के विरुद्ध युद्धों के बारे में अवश्य ही कुछ तथ्य उपलब्ध हैं । तुंग कृत प्रबंधचिन्तामणी से ज्ञात होता है कि वाक्पति ने कर्णाट नरेश तैलप द्वितीय को सोलह बार युद्ध में हराया, यद्यपि अगली बार वह स्वयं बन्दी बना कर मार डाला गया (बम्बई संस्करण, पृष्ठ ५८ ) । प्रतीत होता है कि इससे पूर्व उसने लाट प्रदेश पर आक्रमण किया था जो मही और ताप्ती नदियों के मध्य स्थित था । तैलप द्वितीय का सेनापति चौलुक्य वंशीय बारप्पा इस समय लाट का शासक था ( प्रबंध चिन्तामणी, पृष्ठ १६ ) । वाक्पतिराजदेव को इस युद्ध में निर्णायक सफलता प्राप्त हुई थी । इससे कुछ पूर्व उसने कल्चुरि नरेश युवराज द्वितीय पर आक्रमण कर असाधारण विजय प्राप्त की थी। उसकी राजधानी त्रिपुरी थी, और उसकी बहिन बोंठादेवी चालुक्य तैलप द्वितीय की माता थी । इस प्रकार वाक्पतिराजदेव द्वितीय के कुछ प्रमुख युद्धों का उल्लेख सही है ।
सामरिक सफलताओं के अतिरिक्त वाक्पतिराजदेव की विद्वत्ता व दानशीलता आदि गुणों का बखान भी उपरोक्त श्लोकों में किया गया है । वह भी सत्यता पर आधारित है। प्रबंधचिन्तामणी, भोजप्रबन्ध व अन्य प्रबन्धों में अनेक श्लोक वाक्पति मुंज द्वारा रचे माने जाते हैं । नवसाहसांकचरित् ( सर्ग ११, पृष्ठ ९३ ) में लिखा है -- “ गते मुंजे यशःपुंजे निरालम्बा सरस्वती" अर्थात् यश की राशि मुंज के स्वर्ग सिधारने पर सरस्वती अनाथ हो गई । उसी में एक अन्य स्थान (नवसाहसांकचरित् सर्ग १, पृष्ठ २ ) पर लिखा है कि "हम वाक्पतिराजदेव की वन्दना करते हैं जो सरस्वती रूपी कल्पलता का अकेला मूल है, जिसकी कृपा से हम अन्य महान कवियों द्वारा प्रयुक्त पथ पर चलते हैं ।"
सरस्वतीकल्पलते ककन्दं वन्दामहे वाक्पतिराजदेवम् ।
यस्य प्रसादाद्वयमप्यनन्य कवीन्द्रचीर्णे पथि सञ्चरामः ||७||
उसकी राजसभा में अनेक प्रख्यात कवियों व विद्वानों की उपस्थिति का भी उल्लेख मिलता है । उसके धरमपुरी अभिलेख (क्र. ४) में अहिछन से देशान्तरगमन करके आए दार्शनिक
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