SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सीहोर अभिलेख २३९ २०. इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषयभोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है। यह सभी विचार कर, अदृष्ट फल को स्वीकार कर, मुक्तावसु स्थान से आये वाजसनेय शाखा के अध्यायी, काश्यप गोत्री, काश्यप वत्सार नैध्रुव त्रिप्रवरी अवसाविक (अवसाथिक) देलण के प्रपौत्र, पंडित सोमदेव के पौत्र, पंडित जैनसिंह के पुत्र पुरोहित गोविन्द शर्मा ब्राह्मण के लिए सारा ही ग्राम चारों निर्धारित सीमा सहित, साथ में वृक्षमाला से व्याप्त, साथ में हिरण्य भाग भोग उपरिकर, सभी आय समेत, साथ में गड़ा धन, माता-पिता व स्वयं के पुण्य व यश की अभिवृद्धि के लिए चन्द्र सूर्य समुद्र पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ शासन द्वारा जल हाथ में ले कर (दान) दिया गया है। उसको मान कर वहां के निवासियों पटेलों व ग्रामीणों द्वारा जो भी दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि देव और ब्राह्मण द्वारा भोगे जाने वाले को छोड़ कर आज्ञा सुन कर सभी इसके लिए देते रहना चाहिये और इसका समान रूप फल मान कर हमारे वंश में व अन्यों में उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्म-दान को मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है-- २१. सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है। २२. जो अपने द्वारा दी गई अथवा दूसरे के द्वारा दी गई भूमि का हरण करेगा वह अपने पितरों के साथ विष्टा का कीड़ा बनता है। २३. इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमल दल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये। संवत् १२६७ फाल्गुण सुदि १० गुरुवार । यह महापंडित श्री विल्हण की सम्मति से राजगुरु मदन द्वारा रचा गया। सीहोर का अर्जुनवर्मन् का तापत्र अभिलेख (सं. १२७० = १२१३ई.) प्रस्तुत अभिलेख, प्राप्त विवरण के अनुसार, तीन ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो एफ. ई. हाल ने १८५९ ई. में सीहोर के बेगम स्कूल में देखे थे। इसका विवरण ज. अमे. ओ. सो., भाग ७, १८६०, पृष्ठ २४ व आगे में दिया गया। कीलहान की उत्तरी अभिलेखों की सूची क्र. १९७; भण्डारकर की उत्तरी अभिलेखों की सूची क्र. ४६० पर इसका उल्लेख है। ताम्रपत्र वर्तमान में अज्ञात है। ताम्रपत्रों के आकार, वज़न, पंक्तियाँ, गरूड़ चिन्ह, अक्षरों की बनावट व लेख की स्थिति आदि के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है। इसमें २४ श्लोक हैं, शेष गद्यमय है। इसके २३ श्लोक पूर्ववर्णित अभिलेख क्र. ५९ के समान हैं। इसमें दो विभिन्न अवसरों पर दो भूदानों के लिए दो अलग अलग तिथियों का उल्लेख है। प्रथम दान महाकाल नगर में दिया गया जिसकी तिथि आषाढ वदि १५ सोमवार है। इसमें वर्ष का उल्लेख नहीं है। दूसरा दान भगकच्छ में ठहरे हए दिया गया जिसकी तिथि शब्दों में संवत् १२७० बैसाख वदि अमावस्या सूर्यग्रहण पर्व हैं। यही तिथि अन्त में अंकों में लिखी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy