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परमार अभिलेख
है। यह सोमवार, २२ अप्रेल, १२१३ ई. के बराबर है। उस दिन सूर्यग्रहण लगा था। इस आधार पर महाकाल नगर के दान तिथि यदि इसी वर्ष की है तो वह गुरुवार, २० जून १२१३ है।
अभिलेख का प्रमुख ध्येय नरेश अर्जुनवर्मन् द्वारा भृगुकच्छ में ठहरे सावइरि सोल (ह) से सम्बद्ध उत्तरायण ग्राम, एवं महाकाल नगर में भूदान करने का उल्लेख करना है। इस दूसरे दान की भाषा कुछ त्रुटिपूर्ण प्रतीत होती है जिस कारण उसका अर्थ लगाने में कठिनाई है। इसमें लिखा है कि सोमवती तीर्थ में स्नान कर श्री अर्जुनवर्मदेव द्वारा महाकालपुर के मध्य दण्डाधिपति वास को छोड़ कर गली के भवन की सीमा तक दान में दिया। इसका अर्थ यह हो सकता है कि महाकाल नगर के मध्य में दण्डाधिपति (शिव) के मंदिर के लिए मुख्य गली में स्थित मंदिरों की सीमा तक का भूभाग दान में दिया। डी.सी. गांगुली ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है कि महाकाल नगर के दण्डाधिपति के मंदिर को अपने कुल पुरोहित गोविन्द को प्रभार में सौंपा (प. रा. इ. गां., पृष्ठ १४५) ।
__दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण पूर्ववणित अभिलेख क्र. ५९ का पुरोहित पंडित गोविन्द शर्मा है। आगे का प्रायः सारा विवरण भी उसी के समान है। प्रस्तुत अभिलेख का अत्यधिक महत्व है। पूर्ववणित अभिलेख में गुजरात के कुछ क्षेत्र पर परमार नरेशों के आक्रमणों का वर्णन किया जा चुका है। प्रस्तुत अभिलेख के आधार पर गुजरात के भडोच क्षेत्र में अर्जुनवर्मन् की उपस्थिति एवं वहाँ ग्रामदान करने से यह तथ्य सामने आता है कि वह क्षेत्र परमार नरेशों ने न केवल विजित कर लिया था अपितु उस पर पूर्णतः अधिकार कर वहाँ ग्रामदान देना शुरू कर दिया था।
भौगोलिक स्थानों में सावइरि सोलह संभवतः १६ ग्रामों के समूह का नाम था। गांगूली के अनुसार यह खानदेश में ताप्ती नदी के उत्तर में सव्दग्राम है। भृगुकच्छ वर्तमान भडौच है। महाकालपुर आधुनिक उज्जैन है जो आज भी 'महाकाल की नगरी' के नाम से विख्यात है। उत्तरायणी ग्राम का संभवतः अब कोई अस्तित्व नहीं है, परन्तु वह खानदेश भूभाग में ही स्थित होना चाहिये।
(मूलपाठ) ओं नम: पुरुषार्थचूडामणये धर्माय । प्रतिबिम्बनिभाद् भूमेः कृत्वा साक्षात् प्रतिग्रहम् । जगदाल्हादयन् दिश्याद् द्विजेन्द्रो मङ्गलानि वः ।।१।। जीयात् परशुरामोऽसौ क्षत्रः क्षुणं रणाहतैः । सन्ध्यार्कबिम्वमेवोर्वी दातुर्यस्यति ताम्रताम् ।।२।। येन मन्दोदरी-वाष्पवारिभिः शमितो मृधे। प्राणेश्वरी-वियोगाग्निः स रामः श्रेयसेऽस्तु वः ।।३।। भीमेनाऽपि धृतौ मूनि यत्पादौ स युधिष्ठिरः । वंशाद्ये (शोये )नेन्दुना जीयात् स्वतुल्य इव निर्मितः ।।४।। परमार कुलोत्तंसः कंसजिन्महिमा नृपः । श्रीभोजदेव इत्यासीत् नासीर (सीदासीम) क्रान्त-भूतलः ।।५।। यद्यशश्चन्द्रिकोद्योते (देति) दिगुत्सङ्गतरङ्गिते। द्विषन्नृपयशःपुञ्जपुण्डरीकनिमीलितम् ।।६।। ततोऽभूदुदयादित्यो नित्योत्साहैककौतुकी। असाधारणवीरश्रीरश्रीहेतुर्विरोधिनाम् ।।७।। महाकलहकल्पान्ते यस्योद्दामभिराश्रु (शु) गैः । कति नोन्मूलितास्तुङ्गा भूभृतः कटकोल्बणाः ।।८।। तस्माच्छिन्न द्विषन्म िनरवर्मा नराधिपः । धर्माभ्यद्धरणे धीमानभूत सीमा महीभुजाम् ।।९।। प्रतिप्रभातं विप्रेभ्यो दत्तामपदैः स्वयम् । अनेकपदतां निन्ये धर्मो येनैकपादपि ।।१०।। तस्याऽजनि यशोवर्मा पुत्रः क्षत्रियशेखरः । तस्मादजयवर्माऽभूद् जयश्रीविश्रुतः सुतः ।।११।। तत्सूनुर्वीरमूर्धन्यो धन्योत्पत्तिरजायत । गुर्जरोच्छेदनिर्बन्धी विन्ध्यवर्मा महाभुजः ।।१२।। धारयोद्धृतया साधं दधाति स्म त्रिधारताम् । सांयुगीनस्य यस्याऽसिस्त्रातुं लोकत्रयीमिव ।।१३।। तस्याऽऽमुष्यायणः पुत्रः सुत्रामश्रीरथाऽशिषतः । भूपः सुभटवर्मेति धर्मे तिष्ठन् महीतलम् ।।१४।।
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