________________
३१४
परमार अभिलेख
१२२. सावणि गोत्री भार्गव च्यवन आप्नवान और्व जामदग्नि पंचप्रवरी चतुर्वेद वासुदेव शर्मा के
पौत्र चतुर्वेद १२३. लक्ष्मीधर शर्मा के पुत्र कौथुम शाखा के अध्यायी त्रिवेद पुरुषु शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १
पद टेणी स्थान से निकल कर आये १२४. शांडिल्य गोत्री शांडिल्य असित दैवल त्रिप्रवरी त्रिवेदिन् विश्वेश्वर शर्मा के पौत्र त्रिवेदिन
महेश्वर शर्मा १२५. के पुत्र कौथुम शाखा के अध्यायी त्रिवेदिन् वाऊ शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ पद
वत्सगोत्री भार्गव च्यवन आप्नवान १२६. और्व जामदग्न्य पांच प्रवरी चाहमान कुल में वृद्धिंगत होने वाले साघनिक पल्हणदेव
वर्मा के पौत्र साधनिक १२७. सलखणसिंह वर्मा के पुत्र साधनिक अनयसिंह वर्मा क्षत्रीय के लिये दो २ पद इस प्रकार ... सोलह ब्राह्मणों के लिये १२८. कुंभडाउद वालोद वघाडी नाटिया इन चार ग्रामों की सभी चारों सीमाओं से शुद्ध साथ
की पंक्तियों से व्याप्त १२९.. इससे संबंधित घर गृहस्थान खलहान खलिस्थान खुदी भूमि गोचरस्थान मुट्ठीभर शाक
भाजी मुट्ठीभर धान्य एक पली तेल भरा घड़ा १३०. उगा घास, जमीन में गड़ा धन, मंदिर के उद्यान, तडाग वापी कूप आदि सहित, साथ
में हिरण्य भाग भोग । १३१. उपरिकर जुर्माना आदि सभी आय समेत, पुण्य व यश की वृद्धि हेतु चन्द्र सूर्य आकाश
व पृथ्वी के रहते तक के लिये परमभक्ति के साथ १३२. देव ब्राह्मण द्वारा भोगे जा रहे को छोड़ कर, शासन (प्रस्तुत ताम्रपत्र) द्वारा जल
हाथ में लेकर दान दिया है। इसको मानकर वहां के निवासियों, पटेलों व जनपदों के
द्वारा जिस प्रकार दिया जाने वाला भाग भोग १३३. कर हिरण्य आदि आज्ञा को सुन कर मानते हुए सभी कुछ इन ब्राह्मणों के लिये देते
रहना चाहिये और इसका समान रूप फल जान कर १३४. हमारे स्वामी के वंश में उत्पन्न भावी नरेशों को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को
मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है
सगर आदि अनेक नरेशों ने पृथ्वी का उपभोग किया है व जब जब यह पृथ्वी जिसके -- अधिकार में रही तब तब उसी को उसका फल मिला है ॥६९।।
(चौथा ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग). स्वयं के द्वारा दी गई अथवा दूसरे के द्वारा दी गई भूमि का जो हरण करता है वह पितरों के साथ विष्टा का कीड़ा बन कर रहता है ॥७॥
सभी उन भावी नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है, अतः अपने अपने कालों में आपको इसका पालन करना चाहिये ।।७१॥
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमल दल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥७२।। __ जयवर्मन् के द्वारा राजसभा में नियुक्त किये हुए, त्रिविद्या में निपुण श्रीकण्ठ ने कुल क्रम
के लिये यह प्रशस्ति लिखी ।।७३।। १४०. रुपकार कान्हाक द्वारा उत्कीर्ण की गई।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org