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परमार अभिलेख
- व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, स के स्थान पर श, श के स्थान पर स का प्रयोग किया गया है । म् के स्थान पर अनुस्वार लगा दिया है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है । कुछ शब्द ही गलत लिखे हैं । ये सभी स्थान व काल का प्रभाव प्रदर्शित करते हैं । कुछ त्रुटियां लेखक एवं उत्कीर्णकर्ता द्वारा बन गई हैं । ' , तिथि प्रारम्भ में पंक्ति १ में शब्दों में व पंक्ति २ में अंकों में लिखी है । यह संवत् १०६७ ज्येष्ठ सुदि १ रविवार है । वर्ष को कार्तिकादि मानने पर यह रविवार ६ मई, १०११ ईस्वी के बराबर बैठती है ।
प्रमुख ध्येय पंक्ति ६-९ में वर्णित है । इसके अनुसार श्री भोजदेव के राज्य में मोहडवासक अर्धाष्टम मण्डल में भोक्तृ महाराजपुत्र श्री वत्सराज द्वारा शयनपाटक ग्राम में दो हल भूमि, जिसमें कोद्रव तिल मूंग चावल गेहूं आदि उत्पन्न होता था, साथ में ग्राम-मध्य में एक घर, खलिहान व धान्य सभी कुछ शासन द्वारा लिखकर दान में दिये गये।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण का विवरण पंक्ति ७-८ व पुनः पंक्ति ११-१२ में लिखा है । इसके अनुसार वह हर्षपुर से आया उपमन्यु गोत्री, गोपादित्य का पुत्र, वल्लोटकवासी चतुर्जातक शास्त्र के अध्ययन में संपन्न श्रेष्ठ ब्राह्मण देई अथवा देद्दाक था । - अभिलेख की पंक्ति ३-६ में शासनकर्ता नरेश की वंशावली दी हुई है। इसमें सर्वश्री सीयकदेव, वाक्पतिराजदेव, सिंधुराजदेव और भोजदेव के नामोल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं । वंश का नामोल्लेख नहीं है।
पंक्ति क्र. ६-७ में भोजदेव के अधीन मोहडवासक अर्धाष्टम (७३) मंडल में शासनकर्ता वत्सराज का उल्लेख है जिसको भोत्कार महाराजपुत्र कहा गया है। अभिलेख के अन्त में पंक्ति २० में इसको वच्छराज, जो वत्सराज का प्राकृत रूप है, लिखा है। यहां भोत्कार महाराजपूत्र संभवतः भोक्त महराजपुत्र का ही अशुद्ध रूप है। यदि ऐसा है तो डी. सी. सरकार के शब्दों में मानना होगा कि यहां वत्सराज को हो महाराजपुत्र कहा गया है, क्योंकि वह भोजदेव का अभी तक अज्ञात पुत्र है। अन्यथा वाक्यांश 'भोत्कार महाराजपुत्र श्री वत्सराज' का यह अर्थ लगाना होगा कि वत्सराज एक सामन्त का पुत्र था जिसका नाम भोत्कार महाराज था। परन्तु इसकी संभावना न्यून है। भोजदेव की राजसभा के एक कवि नयनन्दि ने बच्छराज (वत्सराज) को भोज का एक माण्डलिक लिखा है (अनेकान्त, नवम्बर १९५६, पृष्ठ ९९)। भोक्त शब्द से यह ध्वनित होता है कि मोहडवासक अर्द्धाष्टम मण्डल वत्सराज को सैनिक सहायता के बदले भोजदेव से मिली एक जागीर थी।
अगली चार पंक्तियों में दान का उपरोक्त विवरण है। परन्तु दानवाले भाग की भाषा अत्यन्त त्रुटिपूर्ण है। इसका यह भी अर्थ निकल सकता है कि दानकर्ता वास्तव में ब्राह्मण देई या देद्दाक था और श्री वत्सराज ने तो केवल इसको पुष्टि की थी। परन्तु इसकी संभावना न्यून है। प्राचीन भारतीय वाङ्गमय में उपानस्य गोत्र का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। संभव है कि यह औपमन्यव का ही भ्रष्ट रूप हो । दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण को वल्लोटकीय व चातुर्जातकीय लिखा है। आगे की पंक्ति १३ में वल्लोटकीय शब्द कुछ अन्य ब्राह्मणों के लिये भी प्रयुक्त किया गया है। ये ब्राह्मण या तो वल्लोटक नामक किसी स्थान के निवासी थे अथवा इस नाम के किसी ब्राह्मण समुदाय से संबंधित थे। चातुर्जातकीय का भाव संभवतः 'चतुर्जातक का सदस्य' है। डी. सी. सरकार के मतानुसार इस प्रकार यह चार व्यक्तियों के एक मंडल के सदस्य के रूप
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