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________________ मोडासा अभिलेख २०. के लिए परमभक्ति के साथ राजाज्ञा द्वारा जल हाथ में लेकर दिया है। यह जान कर यहां आए ग्रामवासियों के द्वारा जैसा उत्पन्न होने वाला २१. भाग भोग आदि आज्ञा को सुनकर पालन करते हुए सदा सभी कुछ उसके लिए देते रहना चाहिए। और इसका समान रूप फल जानकर २२. हमारे वंश में उत्पन्न हुए व अन्यों में होने वाले भावी नरेशों को मेरे द्वारा दिए गए इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिए । सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब २ उसी को उसका फल मिला है॥५॥ __ यहां पूर्व नरेशों ने धर्म व यश हेतु जो दान दिए हैं वे निर्माल्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ।।६।। सभी भावी नरेशों से रामभद्र बार बार प्रार्थना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिए सामान्य धर्म का सेतु है। अतः अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिए ।।७।। हमारे वंश के उदार नियमों को मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये, क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक हल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ॥८॥ ___ इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमल दल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्य को परकीति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥९॥ २९. संवत् १०४३ माघ वदि १३ । मंगलंमहाश्री। (८) मोडासा का भोजदेव कालीन ताम्रपत्र (संवत् १०६७=१०११ ई०) प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है । ये ताम्रपत्र सन् १९४४ में आर. पी. सोनी ने गुजरात राज्य के साबरकांठा जिले में मोडासा नामक स्थान से प्राप्त किये थे । यह स्थान अहमदाबाद से प्राय: ५२ मील उत्तर-पूर्व को माघम नदी के किनारे पर स्थित है । इस का प्रथम उल्लेख हरप्रसाद शास्त्री ने भारतीय विद्या भाग ५ , १९४५, सप्लीमेंट, पृष्ठ ३४-४० पर किया था। फिर इसका उल्लेख एन्नुअल रिपोर्ट ऑफ एपिग्राफी, १९५७-५८, क्र. ए-२३ पर किया गया । डी. सी. सरकार ने एपि. इं. भाग ३३, १९५९-६०, पृष्ठ १९२-१९८ पर इसका सम्पादन किया । वर्तमान में ताम्रपत्र मोडासा महाविद्यालय में सुरक्षित हैं । . ताम्रपत्रों का आकार १९x१३.५ सें. मी. है। ये काफी पतले हैं । इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है । इनमें केवल एक-एक छेद है । इनका वजन १.८ किलोग्राम है । अभिलेख २१ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १५ व दूसरे पर ६ पंक्तियां हैं । अक्षरों की बनावट सामान्य है । यह ११ वीं सदी की नागरी लिपि है। भाषा संस्कृत है, परन्तु कुछ प्राकृत मिश्रित प्रतीत होती है । संभवतः इसी कारण अत्यन्त त्रुटिपूर्ण है । सारा अभिलेख गद्य में है । यह एक निजि लेख है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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