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परमार अभिलेख
श्रेय हेतु की थी ( श्रीमत्पितृ श्रेयोर्थं )। लक्ष्मीवर्मन् के पुत्र महाकुमार हरिचन्द्र के संवत् १२३५ के पिपलियानगर ताम्रपत्र अभिलेख (क्र. ५३) के अनुसार उसने नरेश यशोवर्मन के पूत्र नरेश जयवर्मदेव की कृपा से राज्याधिपत्य प्राप्त किया था (एतस्मात्पृष्ठतमप्रभोः प्रसादादवापविजयाधिपत्यः)। दूसरी ओर लक्ष्मीवर्मन् के पौत्र उदयवर्मन् के संवत् १२५६ के भोपाल ताम्रपत्र अभिलेख (क्र. ५७) में लिखा है कि जयवर्मन् का शासन समाप्त होने पर हरिचन्द्र के पिता लक्ष्मीवन् ने अपने शस्त्र बल से . आधिपत्य प्राप्त किया था (निजकरकृत (धृत ?) करवाल प्रसादावाप्त निजाधिपत्य) । स्पष्टत: इन दो विरोधी साक्ष्यों से विदित होता है कि लक्ष्मीवर्मन् एवं उसके पुत्र हरिचन्द्र ने दो विभिन्न प्रदेशों पर राज्य किया था। इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि भोपाल अभिलेख (क्र. ५७) में हरिचन्द्र के पत्र उदयवर्मन का नाम अपने पितामह लक्ष्मीवर्मन् के उत्तराधिकारी के रूप में आया है। इन दोनों के मध्य हरिचन्द का नाम नहीं है। दूसरे, हरिचन्द्र ने अपने पिपलियानगर ताम्रपत्र अभिलेख (क्र. ५३) में अपने पिता लक्ष्मीवर्मन का नाम अपने पूर्वगामी शासक के रूप में लिखा ही नहीं है। उपरोक्त कोई आकस्मिक भूल या त्रुटि नहीं है अपितु सावधानीपूर्वक दिये गये विवरण हैं। ..
यहां प्रमुख समस्या त्रैलोक्यवर्मन् एवं हरिचन्द्र के संबंध निर्धारित करना है। यह तो निश्चित है कि त्रैलोक्यवर्मन् महाकुमारीय शाखा से संबंधित है। अनुमानत: वह लक्ष्मीवर्मन् का छोटा भाई एवं हरिचन्द्र का चाचा था।' यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि जिस समय लक्ष्मीवर्मन् की मृत्यु हुई तब उसका पुत्र हरिचन्द्र अल्पायु रहा होगा। उस समय उसके चाचा ने उसके बालिग होने तक शासन सूत्र संभाला। इस प्रकार शासन की पूर्ण शक्ति संरक्षक के रूप में त्रैलोक्यवर्मन् के हाथ में आ गई। उसने अन्य शासकों की भांति महाकुमार की उपाधि धारण की। बैलोक्यवर्मन् यदि लक्ष्मीवर्मन् का पुत्र एवं हरिचन्द्र का अग्रज होता तो किसी ताम्रपत्र में उसका उल्लेख अवश्य प्राप्त होता। हरिचन्द्र ने शासन सूत्र संभवत: ११५७ ई. से बहुत पहिले नहीं संभाला था, जो प्रस्तुत अभिलेख की तिथि है। इसीलिये वह त्रैलोक्यवर्मन् को अपना पूर्वगामी घोषित करता है जिससे उसने शासन सूत्र प्राप्त किया था।
अभिलेख के निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में महाद्वादशक मंडल के अंतर्गत भिलसा, उदयपुर व रायसेन (राजशयन--इं.ऐ., भाग १९, पृष्ठ ३५२, पंक्ति क्र. ५) का भूभाग रहा होगा । संवत् १२२९ के उदयपुर प्रस्तर अभिलेख में उसको भलस्वामिन् महाद्वादशक मण्डल निरूपित किया गया है (इं.ऐ., भाग १८, पृष्ट ३९७)। वेत्रावती आधुनिक बेतवा है । इसी नदी के किनारे पर स्थित भैल्लस्वामिन के मंदिर से ही आधनिक भिलसा नगर का नामकरण हआ। दादरपद्र ग्राम भी भोपाल क्षेत्र में था। बाद में इसका अपभ्रंश धरपद्रव पदरिया बन गया। वास्तव में इस क्षेत्र में इस नाम के ११ गांव है। इनमें एक पदरिया-राजाधार है । संभव है अभिलेख का दादरपद्र यही ग्राम हो ।
(मूलपाठ) १. ओं। स्वस्ति । श्रीजयोभ्युदयश्च ।
जति व्योमकेशोसौ यः सर्गाय वि (बि) भत्तिताम् । ऎदवी[ ] सि (शि) र
सा लेखा[ ] जगद्वीजा-कुराकृतिम् ॥१॥ १. अन्य संभावनाओं के लिये देखिये डा. गांगुली, परमार राजवंश का इतिहास, पृ. १३०-१३१ ; . . प्रतिपाल भाटिया, दी परमार्स, पृष्ठ १३० ।
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