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परिचय भारतीय इतिहास की संरचना में अभिलेखिक साक्ष्यों के महत्त्व के विषय में सर्वविदित है। विविध क्षेत्रों में, विशेषतः साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्राप्त विशिष्ट उपलब्धियों के कारण परमार राजवंश का पूर्वमध्ययुगीन भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में उसी परमार राजवंश से संबंधित मूल अभिलेखों का संकलन किया गया है। आठवीं-नवीं शताब्दियों में कन्नौज (कान्यकुब्ज) पर आधिपत्य स्थापना हेतु मालवा के प्रतिहारों एवं बंगाल के पालों में दीर्घकालीन संघर्ष हए । इसी बीच प्रतिहारों को दक्खिन के राष्टकटों के निरन्तर दबाव का सामना करना पड़ा। फलस्वरूप वे मालव क्षेत्र छोड़ कर उत्तर की ओर बढ़ गये । इस प्रकार रिक्त मालवा में उपेन्द्र का वर्चस्व स्थापित हो गया जिसने परमार वंश की नींव डाली।
प्रतिहारों के उत्तर की ओर चले जाने पर पालों को भी परिस्थितियों से बाध्य होकर मध्यदेश से पीछे हटना पड़ा। अन्ततः कन्नौज पर प्रतिहारों का अधिकार हो गया। इसके उपरान्त उन्होंने अपने साम्राज्य में बहुत वृद्धि कर ली। परन्तु दसवीं शताब्दी के मध्य तक जब उनका राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा तो उनके खण्डहरों पर अनेक स्वतंत्र राजवंशों का उत्थान हो गया। मालवक्षेत्र में परमारों ने अपनी सत्ता दृढ़ कर ली। बुन्देलखण्ड में चन्देल, जबलपुर क्षेत्र में कल्चुरी, गुजरात में चौलुक्य, मारवाड़ में चाहमान तथा मेवाड़ में गुहिल राजवंशों की सत्ता स्थापित हो गई। म सलमानों द्वारा १३वीं शताब्दी में पराजित होने से पूर्व तक इन राजवंशों की सत्ता प्रायः पूर्णतः बनी रही। इन राजवंशों में परमारों का अपना विशिष्ट स्थान है।
परमार साम्राज्य की भौगोलिक एवं भौतिक स्थिति परमार साम्राज्य की भौगोलिक एवं भौतिक स्थिति उनके अभिलेखों से उजागर होती है। अपने पाँच शताब्दियों के राजनीतिक अस्तित्व में परमार नरेशों ने विस्तृत भूप्रदेश पर राज्य किया था। मालव प्रदेश के अतिरिक्त पूर्व में भोपाल क्षेत्र में विदिशा व उदयपुर तक'; पश्चिम में अहमदाबाद क्षेत्र जिसमें हरसोल, मोडासा, महुडी आदि सम्मिलित थे; दक्षिण में नर्मदा तक होशंगाबाद क्षेत्र; एवं उत्तर में कोटा क्षेत्र तक के भूभाग परमार नरेशों के अधीन थे। उनकी कुछ शाखाएँ तो राजस्थान में अर्बुद मण्डल, मरु मण्डल, जालोर एवं बागड तक में अपनी राजसत्ता स्थापित करने में सफल हो गई थीं।
मालव प्रदेश समुद्रतल से प्रायः ५५० मीटर तक ऊँचा विस्तृत भूभाग है जो लगभग २०० मील लम्बा व १०० मील चौड़ा है। यह प्रदेश अनेक नदियों एवं उनकी सहायक नदीनालों द्वारा सिंचित है । इस भूभाग में वर्षा भी पर्याप्त होती है जो वर्ष में प्रायः ८०-९० सें. मी. है। इस कारण यह भूभाग अत्यन्त उपजार है। यहाँ की प्रमुख नदियों में चम्बल, कालीसिंध, क्षिप्रा, पार्वती, बेतवा, माही एवं नर्मदा हैं। इस क्षेत्र का जलवाय न अधिक गरम है, न अधिक ठंडा है अपितु सुहावना है। यहाँ अनेक छोटी बड़ी पहाड़ियाँ हैं जो सदा हरी भरी रहती हैं एवं वन सम्पदा से भरपूर हैं। नदियों के किनारों पर अनेक अत्यन्त प्राचीन नगर बसे हैं । इनमें भगवान महाकाल की नगरी उज्जयिनी, परमारों की कुल-राजधानी धारा नगरी, भगवान भैल्लस्वामी की नगरी भिलसा, राजा भोज की नगरी भोजपुर, उदयादित्य का देवालयों का नगर उदयपुर, परमारों की आनन्दमयी क्रीड़ा नगरी मांडु, नरेश देवपालदेव की नगरी देपालपुर आदि परमार राज्य की श्रेष्ठता को उजागर करते हुए आज भी विद्यमान हैं।
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