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मालव प्रदेश सदा ही धन-धान्य से भरपूर रहा है। हमारे काल में इस प्रदेश में कभी भी अकाल पड़ने अथवा अभाव होने का उल्लेख नहीं मिलता । मालव प्रदेश सदा ही दक्खिन व पश्चिमी समुद्रतट से उत्तरी भारत को जोड़नेवाली कड़ी के रूप में स्थित रहा है । यहीं से होकर सुविधाजनक श्रेष्ठ मार्ग जाते थे । शांतिकाल में व्यापार वाणिज्य एवं युद्धकाल में सैनिक अभियानों हेतु मालवदेश से हो कर जाने वाले मार्ग अत्याधिक विख्यात थे। पश्चिमी समुद्र तट पर खम्भात की खाड़ी से भड़ौच -सूरत होते हुए उज्जयिनी - विदिशा से हो कर जाने वाला आगरादेहली - कनौज एवं बंगाल तक सीधा व निश्चित मार्ग अत्यन्त महत्वपूर्ण था । इसी प्रकार उज्जयिनी से दक्खिन की ओर जाने के लिए भी सरल व सुविधाजनक मार्ग था। भारतीय समय-निर्धारण हेतु उज्जयिनी की गणना मानक- केन्द्र के रूप में होती थी। यही कारण है कि अपनी भौतिक समृद्धि तथा सुगम मार्गों के कारण मालवदेश विभिन्न राजवंशों में सदा ही संघर्ष का कारण बना रहा।
परमारों की उत्पत्ति
परमारों की उत्पत्ति का प्रश्न अत्यन्त जटिल है। वास्तव में परमार राजवंश के प्रारम्भिक अभिलेख इस विषय में कतई मौन हैं। केवल उत्तरकालीन अभिलेख ही इस संबंध में कुछ सहायक हैं, परन्तु उनसे प्राप्त विवरण विवादयुक्त है।
अग्निकुल उत्पत्ति
भोपाल के पास उदयपुर से प्राप्त उदयादित्य कालीन तिथिरहित उदयपुर प्रशस्ति ( अभि. क्र. २२) के श्लोक ५-६ में लिखा है कि पश्चिम दिशा में हिमगिरिपुत्र अर्बुद नामक एक बड़ा पर्वत है जो सिद्ध दम्पत्तियों का सिद्धस्थल है एवं ज्ञानियों को वांछित फल प्रदान करता है । वहाँ विश्वामित्र ने वसिष्ठ की धेनु का बलात् हरण किया। तब वसिष्ठ के प्रभाव से अग्निकुण्ड में से एक वीर उत्पन्न हुआ जिसने अकेले ही शत्रु सैन्य का नाश किया, एवं धेनु को वापस ले आया । तब मुनि ने ( आशीर्वाद रूप में) कहा – तुम परमार ( शत्रुहंता ) नाम से राजा होगे । वसिष्ठ द्वारा अर्बुद पर्वत पर तपस्या करने का उल्लेख महाभारत, वनपर्व, अध्याय ८२, तथा पद्मपुराण, अध्याय २ में भी प्राप्त होते हैं। परन्तु वहाँ किसी वीर की उत्पत्ति का उल्लेख नहीं है !
उपरोक्त से मिलता जुलता विवरण समकालीन साहित्य में भी मिलता है । वाक्पति द्वितीय व सिंधुराज के राजकवि परिमल पद्मगुप्त कृत नवसाहसांक चरित् सर्ग ११, श्लोक ६४-७६ में प्राप्त होता है। इसी प्रकार के विवरण कुछ अभिलेखों, जैसे - पाणाहेडा अभिलेख ( क्र. २०), नागपुर प्रशस्ति (क्र. ३६), डोंगरगांव अभिलेख ( क्र. ४२ ), जैनड अभिलेख (क्र. ४३), मांधाता अभिलेख ( क्र. ७६) आदि में भी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार परमार राजवंशीय अभिलेखों में उनकी अग्निकुल उत्पत्ति से संबंधित उल्लेख मिलते हैं । इसी प्रकार के उल्लेख राजस्थान की असंख्य चारण कथाओं में प्राप्त होते हैं । इनके विवरण टाड महोदय ने अपने विख्यात ग्रन्थ " एन्नल्स एण्ड एंटीक्वीटीज़ ऑफ राजस्थान' में दिये हैं। इतना ही नहीं, पृथ्वीराज रासो के समान ग्रन्थ तो एक कदम और आगे बढ़ गये हैं । इन समकालीन ग्रन्थों में केवल परमारों के लिए ही नहीं अपितु प्रतिहारों, चौलुक्यों एवं चाहमानों के लिए भी अग्निकुण्ड उत्पत्ति का उल्लेख हैं। बाद में आईने अकबरी में अबुलफजल ने भी इसका उल्लेख किया है ।
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