________________
(१८)
विवरण एवं अन्य तथ्य प्रायः एक समान ही हैं। उनमें उल्लिखित दान महिमा दर्शाने वाले श्लोक एवं दानभंग करने की स्थिति में शापयुक्त श्लोक प्रायः एक समान ही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ताम्रपत्र दान अभिलेखों के सामान्य प्रारूप तैयार ही रहते थे। उनमें केवल शासनकर्ता नरेश की उपाधियुक्त वंशावली, दान का विवरण, दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण का पूर्ण विवरण प्राप्त कर भर दिया जाता था। ऐसी स्थिति में लेखक के लिए कुछ भी लिखने के लिए शेष नहीं रहता था। केवल राजकीय प्रशस्तियों में ही उसको अपना पांडित्य दर्शाने का अवसर मिलता था। इसी कारण प्रशस्तियों में अतिशयोक्ति होने की संभावना बहुत प्रबल होती थी।
हमारे संकलन में सूर्य, सरस्वती, शिव आदि की कुछ प्रशस्तियाँ सम्मिलित हैं। इनमें धार्मिक के साथ साथ साहित्यिक पुट भी है। ये प्रशस्तियाँ तत्कालीन साहित्यिक चिन्तन का प्रतिनिधित्व करती हैं।
... अभिलेखों में लेखकों को कायस्थ (क्र. १.२.१६) तथा कायस्थ पंडित (क्र.७१) निरूपित किया गया है। उत्कीर्णकर्ता
कतिपय अभिलेखों में उनके उत्कीर्णकर्ता के नाम लिखे मिलते हैं। यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि राजाज्ञाओं के पंजीयन के साथ साथ इनको ताम्रपत्रों अथवा प्रस्तर खण्डों पर उत्कीर्ण करवाने का दायित्व भी उसी राजकीय कार्यालय का रहता था। इस प्रकार राज्य में कतिपय विशिष्ट अधिकारी रहे होंगे जिनकी देखरेख में अभिलेख उत्कीर्ण करने का कार्य सम्पन्न होता था। वस्तुतः अभिलेख उत्कीर्ण करने का कार्य सरल नहीं था। प्राप्त अभिलेखों में अक्षरों की बनावट की भिन्नता एवं उनमें प्राप्त अशुद्धियों से यह निश्चित तथ्य सामने आता है कि इस कार्य में अत्यन्त लगन एवं धैर्य की आवश्यकता थी। कुछ अभिलेखों का उत्कीर्ण कार्य अत्यन्त भद्दा एवं अशुद्ध है। खोदे गये अक्षर गहरे व साफ नहीं हैं। उनके पाठ में त्रुटियों की भरमार है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि ये अभिलेख अकुशल व्यक्तियों के द्वारा उत्कीर्ण किये गये होंगे। वास्तव में अभिलेखों को उत्कीर्ण करने का कार्य एक कला है जिसमें सभी व्यक्ति प्रवीण नहीं हो सकते हैं।
परमार साम्राज्य की राजनीतिक व्यवस्था
केन्द्रीय व्यवस्था-राजतंत्रात्मक स्वरूप
परमार कालीन राजनीतिक व्यवस्था के संबंध में परमारों के अभिलेखों से अनेक महत्वपूर्ण तथ्य उजागर होते हैं। परमार साम्राज्य पूर्णरूप से राजतंत्रात्मक प्रशासन पर आधारित था। प्रारम्भिक परमार नरेश नृप, भूप, महाराज अथवा महाराजाधिराज की उपाधि धारण करते थे। परन्तु वाक्पति द्वितीय के समय से पूर्ण राजतंत्रात्मक उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर प्रयुक्त होने लगीं। तत्कालीन नरेशों ने इनके अतिरिक्त कुछ अन्य उपाधियां भी ग्रहण की। स्वयं वाक्पति द्वितीय ने श्रीवल्लभ पृथ्वीवल्लभ अमोधवर्ष उपाधियां धारण की। वह 'कविबांधव' नाम से विख्यात था। सिंधुराज ने नवसाहसांक की उपाधि ग्रहण की। भोज महान
को सार्वभौम चक्रवर्तिन् कहा गया है। उसकी अनेक सांस्कृतिक उपाधियां हैं, जैसे त्रिभुवननारायण, शिष्ट शिरोमणि, सरस्वती कंठाभरण आदि । नरवर्मन् स्वयं को निर्भय नारायण, निर्वाण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org