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________________ (१७) परमार अभिलेखों में उल्लिखित तिथियाँ सामान्यत: विक्रम संवत से संबद्ध हैं। मालव प्रदेश में विक्रम संवत का प्रारम्भ कार्तिक मास में दीपावली के उपरान्त चन्द्रदर्शन से होता है। यह विक्रम संवत् वही है जो ५७ ईसापूर्व में कृत, मालव एवं बाद में विक्रम संवत् के नाम से चाल हुआ था। परन्तु देश के कतिपय प्रदेशों में विक्रम संवत् को चैत्र मास से प्रारम्भ करने की परिपाटी है। नर्मदा नदी के दक्षिण से प्राप्त अभिलेखों में अंकित तिथियाँ शक संवत् से संबद्ध हैं। परन्तु परमार राजवंशीय अभिलेखों में इनकी संख्या नगण्य ही है। __ परमार राजवंशीय अभिलेखों में कुछ स्थलों पर तिथि के साथ विक्रमादित्य का नाम जोड़ दिया गया है। परन्तु सामान्यतः कोई नामोल्लेख न हो कर केवल 'संवत्' ही लिखा मिलता है। दापक, लेखक एवं लिखने की विधि परमार राजवंशीय ताम्रपत्र अभिलेखों में दापक, लेखक, उत्कीर्णकर्ता एवं राज्य अधिकारी, जिसकी अनुमति से अभिलेख लिखा गया था, के उल्लेख प्राप्त होते हैं। अभिलेख के अन्त में दानकर्ता नरेश के हस्ताक्षर हैं। नरेश भोजदेव के अभिलेखों में तो अभिलेख के प्रत्येक ताम्रपत्र के अन्त में नरेश के हस्ताक्षर हैं। ये हस्ताक्षर अभिलेख की मूल प्रति में होते थे एवं ताम्रपत्र पर उसका उल्लेखमात्र कर दिया जाता था। प्रतीत होता है कि परमार प्रशासन में एक राजकीय कार्यालय होता था जहाँ राजाज्ञाओं का पंजीयन किया जाता था। यह विभाग किसी विशिष्ट अधिकारी के अधीन होता था जो प्रायः महासंधिविग्रहिक के समान उच्च अधिकारी होता था। इस अधिकारी को अभिलेखों में दापक अथवा दूतक कहा गया है। उसी के माध्यम से भदान की घोषणा राज्य के स्थानीय अधिकारियों एवं जनसामान्य तक पहुँचाई जाती थी। परन्तु नरेश भोजदेव के अभिलेखों में ऐसे किसी अधिकारी का उल्लेख न हो कर केवल 'स्वयमाज्ञा' लिखा मिलता है। इससे विदित होता है कि नरेश भोजदेव ने अपनी आज्ञाएँ स्वयं ही निस्सृत करवाई थीं, किसी दापक या दूतक के माध्यम से यह कार्य नहीं करवाया था। अभिलेखों में निम्नलिखित दापकों के उल्लेख प्राप्त होते हैं:--ठक्कुर श्री विष्णु (अभि. क्र. १.२), श्री कण्हपैक (क्र. ३. ४), श्री रूद्रादित्य (क्र. ५. ६), श्री जासट (क्र.९), ठक्कुर श्री केशव (क्र.३८), पुरोहित ठक्कुर श्री वामनस्वामी (क्र.४६), टक्कुर श्री पुरुषोत्तम (क्र. ४६), महाप्रधान राजपुत्र श्री देवधर (क्र. ४६), मुख्यादेश (क्र. ५१), श्री मण्डलीक क्षेमराज (क्र. ५७), श्री मु ३ (क्र. ६१. ६५), महाप्रधान राजश्री अजयदेव (क्र. ७२) आदि । - प्रतीत होता है कि कतिपय श्रीमन्तों एवं विशिष्ट व्यक्तियों को भी दान दे कर अभिलेख निस्सृत करवाने की विशेष अनुमति प्रदान की जाती थी। ऐसे मामलों में दानकर्ताओं द्वारा दान की सूचना राजकीय कार्यालय में दी जाती होगी। इस प्रकार के निजी दानपत्र निस्सृत करते समय शासनकर्ता नरेश का नाम देना होता था। परन्तु अशांति के समय, जब शासनकर्ता नरेश के संबंध में निश्चित सूचना प्राप्त नहीं हो सकती थी, कभी कभी नरेश का नाम सर्वथा छोड़ दिया गया। ऐसे कुछ उदाहरण प्राप्त हैं। परमार राजवंशीय कतिपय अभिलेखों में लेखक के नाम लिखे मिलते हैं। परन्तु यह नितान्त शंकास्पद है कि भूदान दर्शाने वाले ताम्रपत्र अभिलेखों में लेखक को कुछ विशेष लिखने को होता था। वस्तुत: गुप्तकाल से लेकर परमारयुग के ताम्रपत्र अभिलेखों की भाषा, सामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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