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________________ (१६) के सती होने का उल्लेख है । जयस्कंधावार सैनिक शिविर में भी ताम्रपत्र लिखवा कर निस्सृत करवाने के उल्लेख मिलते हैं। यह विजय प्राप्ति के उपलक्ष्य में किया गया था। कतिपय स्थान-विशेष अपने सांस्कृतिक व धार्मिक महत्व के कारण नरेश से विभिन्न दान प्राप्त कर शासनं' ताम्रपत्र प्राप्त करते थे । इस प्रकार राज्य की सीमा, राजधानी, जयस्कंधावार, तीर्थस्थल, सांस्कृतिक केन्द्रों आदि से भी अभिलेख निस्सृत करवाये जाते थे। कतिपय अभिलेख प्रशस्तियाँ मात्र हैं। उनमें नरेशों की प्रशंसा के अतिरिक्त प्रायः अन्य कुछ नहीं होता। ऐसी प्रशस्तियाँ विद्वान ब्राह्मणों द्वारा अपने आश्रयदाता नरेश को प्रसन्न करने के उद्देश्य से लिखी जाती थीं। इस कारण इनमें अतिशयोक्ति की पुट रहती है। प्रत्येक दानपत्र में मंगलमय, दान प्रशंसा तथा दानभंग करने की स्थिति में शापयुक्त श्लोक रहते थे, जिससे प्रभावित होकर अन्य शासक दान करने हेतु अग्रसर हों तथा दिये गये दान का अपहरण न करें। अनुमानतः दानभंग पर्याप्त मात्रा में होता होगा। इसी कारण प्रत्येक दानपत्र में दान महिमा दर्शाने वाले एवं दानभंग करने की स्थिति में शापयुक्त श्लोक अनिवार्य रूप से मिलते हैं । नरेशों का वंशवृक्ष परमार राजवंशीय अभिलेखों में दानकर्ता नरेश के तीन अथवा चार पूर्वजों के उल्लेख मिलते हैं। इनके आधार पर राजवंश एवं उपवंशों की शृंखलाएँ तैयार करने में अत्यधिक सहायता मिलती है। अभिलेखों की सहायता से जो वंशवृक्ष तैयार किया गया है वह पूर्ण है। इसकी पुष्टि साहित्यिक आधार पर की जा सकती है। ___ हमें भोजदेव प्रथम के उत्तराधिकारी जयसिंह प्रथम के अभिलेख प्राप्त होते हैं। जयसिंह प्रथम की मृत्यु के उपरान्त उदयादित्य राज्याधिकारी बना। भोजदेव की मृत्यु के समय वह राज्य प्राप्ति हेतु जयसिंह प्रथम का प्रतिद्वंदी था। अतः वह स्वयं को जयसिंह प्रथम का उत्तराधिकारी घोषित करना पसंद नहीं करता। इसके विपरीत वह स्वयं को भोजदेव का भाई एवं उत्तराधिकारी घोषित करता है। इस प्रकार जो नवीन वंशावली बनाई गई, वही उसके उत्तराधिकारियों ने भी चाल रखी। वंशावली से जयसिंह प्रथम का नाम लुप्त कर दिया गया। इसी प्रकार बाद में परमारों की एक महाकुमारीय शाखा अस्तित्व में आ गई । उसका शासन भोपाल-होशंगाबाद-निमाड़ क्षेत्र में स्थापित हो गया । बाद में नरेश देवपालदेव के शासन काल में कुछ ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो गईं जिनके कारण मुख्य राजवंश एवं महाकुमारीय शाखा दोनों मिल कर एक हो गईं। ये सभी तथ्य अभिलेखों में इतने स्पष्ट रूप से सामने आते हैं कि वंशावली के निर्धारण में प्रायः किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। नरेशों का शासनकाल निर्धारण परमार राजवंशीय अभिलेखों में तिथियों का प्रायः पूर्ण विवरण सहित उल्लेख किया जाता था। कुछ अभिलेखों में तो भूदान देने एवं शासनपत्र लिखवाकर प्रदान करने की अलग अलग तिथियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं । इस प्रकार की स्थिति कतिपय विशिष्ट परिस्थितिवश ही बनती थी । भूदान देने के तुरन्त बाद दानकर्ता नरेश किसी शत्रु से निबटने अथवा राजनीतिक कारण से तुरन्त ताम्रपत्र लिखवाने में असमर्थ हो गया हो। इन तिथियों के आधार पर नरेशों के शासनकाल प्रायः ठीक ठीक निर्धारित किये जा सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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