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________________ (१५) हैं जो व्यक्ति विशेष द्वारा प्रायः नरेश की अनुमति से निस्सृत करवाये गये थे । याज्ञवल्क्य स्मृति में उल्लेख है कि दान देकर नरेश को स्थायी रूप से अभिलेख लिखवा देना चाहिये: दत्वा भूमि निबंधं या कृत्वा लेख्यां तु कारयेत् । पट्टे वा ताम्रपट्टे वा स्वमुद्रोपरि चिन्हितम् ॥ इसी कारण नरेश इस तथ्य को ध्यान में रखकर प्रस्तर खण्ड अथवा ताम्रपत्र पर अभिलेख खुदवाते थे । प्राप्त परमार अभिलेखों का निम्नरूप से वर्गीकरण किया जा सकता है ( १ ) ताम्रपत्र क्रमांक १ से १३, १६.१८. १९३४ ३८. ४४. ४६. ४९. ५१. ५३.५७. ५९. ६०. ६१. ६५. ७२. ७६. ( २ ) प्रस्तरखण्ड - - १४. २० से २४. २७ से ३३. ३६ ३७ ३९.४१ से ४३. ४७. ५२. ५५. ५६. ५८. ६२, ६३. ६८ ६९ ७१.७३. ७५. ७८ से ८५. (३) प्रतिमा लेख --- १५. १७. २५. ३५. ४५. ( ४ ) स्तम्भ लेख - २६. ४०. ४८. ५०. ५४. ६४. ६६.६७. ७० ७४. তর ( ५ ) (६) स्तुतियां - ७८.७९.८०. नागबंध लेख -- ३०. ३१. ३२. अभिलेख लिखने का आधार गुप्तवंशीय 'युग में विद्वान ब्राह्मणों एवं देवालयों के लिए भूदान देने की प्रथा चालू हो गईं थी जो उत्तरकालीन युग में उसी प्रकार चालू रही। भूदान प्रदान कर उसका विवरण ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करवा कर दानप्राप्तकर्ता को प्रदान करने को 'शासनं' कहते थे । ताम्रपत्र अभिलेखों में प्रायः दानकर्ता नरेश के आराध्यदेव का मंगलाचरण, राजकीय उपाधियों समेत नरेश की वंशावली, संक्षिप्त प्रशंसा, विजयें आदि, दान का अवसर, तिथि, दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण की वंशावली, विद्वता, गोत, प्रवर, शाखा, मूल निवास स्थान, अग्रहार भूमि, ग्राम का नाम, सीमा, क्षेत्र, प्राप्त करों की सूचि, राज्य के स्थानीय कर्मचारी जिनको दानभूमि की सूचना दी जाती थी, दापक तथा नरेश के हस्ताक्षर आदि लिखे मिलते हैं । विद्वान ब्राह्मणों को अग्रहार देने के अतिरिक्त धार्मिक संस्थाओं को भी भूदान प्रदान करने की परिपाटी प्रारम्भ हो गई । कुछ अभिलेखों में देवालयों के निर्माण तथा पुनरुद्धार के विवरण भी मिलते हैं । एक अभिलेख में विधवा रानी द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार करवा कर पुण्य प्राप्ति का विवरण है। वास्तव में १०वीं शताब्दी के पश्चात् तो देवालयों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार अत्यन्त महत्वपूर्ण पुण्यकार्य माना जाने लगा । विधर्मियों द्वारा देवालयों के क्षतिग्रस्त किये जाने के कारण लोगों का ध्यान देवालय संस्कार की ओर अधिक आकृष्ट हुआ । अपनी विजय यात्राओं में सफल होने पर शासकवर्ग भूदान प्रदान कर 'शासनं' निस्सृत करते थे। इनके माध्यम से नरेशों की विजयों का विवरण उनके उत्तराधिकारियों तथा भावी पीढ़ियों को ज्ञात होता था। ऐसे अवसरों पर नरेश की कीर्ति को चिरस्थाई करने की भावना अधिक बलवती होती थी । इसी कारण अभिलेखों में अत्युक्ति की पुट देखने में आती है । Jain Education International कुछ सामाजिक अवसरों पर ताम्रपत्र उत्कीर्ण करवाकर प्रदान करने की परिपाटी भी चालू हो गई थी । विभिन्न सामाजिक त्यौहारों, धार्मिक अवसरों, संक्रांति, अक्षय तृतीया, राम नवमी, एकादशी, अधिक मास, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, मातापिता के श्राद्धपर्व आदि के अवसरों पर परमार राजवंशीय नरेशों ने भूदान प्रदान कर ताम्रपत्र निस्सृत करवाये। एक अभिलेख में स्त्री For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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