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________________ ८६ परमार अभिलेख २६. नैवेद्य, चैत्र पवित्रक (संभवतः महावीर जन्म दिवस), भोजन, वस्त्र जो ऋषियों के उपयोग के योग्य हैं। इस विषय के वीसि, २७. देशिलक, ग्रामटक, गोकुलिक, चौरिक, शौल्किक, दण्डपाशिक, प्रातिराज्यिक २८. महत्तम, कुटुम्बिक और अन्य निवासियों, ग्रामवासियों को आज्ञा देते हैं-आप को २९. विदित हो कि मेरे द्वारा दिये गये मेरे वंश व अन्य आने वाले वंशों के नरेशों व भोगपतियों के द्वारा यह हमारा दान। ३०. मानना व पालन करना चाहिये । जो अज्ञानरूपी तिमिरपटल से आवृत्त मति द्वारा इसका उल्लंघन करे अथवा ३१. उल्लंघन करवाये वह पंचमहापातकों व उपपातकों से संयुक्त होगा ३२. इस प्रकार भगवान व्यास द्वारा कहा गया है देवद्रव्य, गरुद्रव्य और जिन भगवान के द्रव्य के दान का जो भक्षण या उल्लंघन करता है उसका तीनों प्रकार से पतन दिखलाई पड़ता है ।।१।। भूमि का दान करने वाला साठ हजार वर्ष तक स्वर्ग में रहता है, (तीसरा ताम्रपत्र-अग्रभाग) इसका हरण करने वाला अथवा करवाने वाला और उसी प्रकार का अन्य नरक का भागी होता है ।।२।। शंख भद्रासन छत्र श्रेष्ठ-अश्व श्रेष्ठ-वाहन व भूमि, हे भारत, ये भूमिदान के चिन्ह दिखाई देते हैं ।।३।। अर्द्ध अंगुल भूमि के हरण करने से सात जन्मों में पूर्वसंचित पुण्यों का नाश हो जाता है ।।४।। भूमि का हरण करने वाला सहस्र अग्निष्टोम यज्ञ करने, सौ वाजपेय यज्ञ करने और करोड़ गायों के दान करने से भी शुद्ध नहीं होता ।।५।। क्या तीव्रताप वाला सूर्य चन्द्रकला को जलाता है ? अग्नि अधिक जल रही हो, भूमि पर धान्य न उगता हो, देश में अल्पवृष्टि होती हो, गायों में दूध कम हो, नदी तालाब सूख गये हों व जीवलोक में वद्धि न होती हो, ये सारे चिन्ह इस स्थान के हैं जहां भमिहर्ता निवास करता है ॥६॥ जिस कूल में भूमिदाता उत्पन्न होता है वह पूत्र स्त्री व धान्य से आनन्दित रहता है और वहां प्रजाजन सुख से निवास करते हैं और राजागण सुख व लक्ष्मी से युक्त होते हैं ।।७।। - सगर आदि अनेक नरेशों ने पृथ्वी भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है, तब २ उसी को उस का फल मिला है ।।८।। ४४. यह ब्राह्मण वंश में उत्पन्न सांधिविग्रहिक श्री जोगेश्वर के ४५. द्वारा लिखा गया। ___ मान्धाता का जसिहदेव का ताम्रपत्र अभिलेख .. (संवत् १११२=१०५६ ईस्वी) प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो १९वीं सदी के अंतिम चरण में मध्यप्रदेश में मान्धाता से प्राप्त हुए थे। परन्तु इन की प्राप्ति का इतिहास ज्ञात नहीं है। इस का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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