________________
मान्धाता अभिलेख
८७
संपादन कीलहान ने एपि. इं., भाग ३, पृष्ठ ४६-५० पर किया। इसके बाद भी इस का समय समय पर उल्लेख होता रहा।
ताम्रपत्रों का आकार ३४४ २५.५ सें. मी. है। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। इनमें दो-दो छेद बने हैं जिनमें कड़ियां पड़ी हैं। दोनों ताम्रपत्रों के किनारे कुछ मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं।
अभिलेख कुल ३० पंक्तियों का है। प्रत्येक ताम्रपत्र पर १५-१५ पंक्तियां हैं। सारा अभिलेख ठीक से सुरक्षित है। दूसरे ताम्रपत्र.पर एक चतुष्कोण में उड़ते हुए गरूड़ की आकृति है। उसके बायें हाथ में एक सर्प है जिसको वह देख रहा है। अभिलेख के अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी लिपि है। लिखावट सुन्दर है। अक्षर सफाई से गहरे खुदे हैं। अक्षरों की सामान्य लम्बाई ७/१६ इंच है। भाषा संस्कृत है एवं गद्यपद्यमय है। इस में कुल ९ श्लोक हैं। शेष सारा अभिलेख गद्य में है।
व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श एवं म् के स्थान पर अनुस्वार सामान्य रूप से प्रयोग किये गये हैं। र के बाद का व्यंजन दोहरा कर दिया गया है। पंक्ति २० में अवग्रह का प्रयोग त्रुटिपूर्ण है। कुछ शब्द ही गलत हैं जिनको पाठ में ठीक कर दिया है। ये त्रुटियां स्थान व काल के प्रभावों को प्रदर्शित करती हैं। कुछ गलतियां उत्कीर्णकर्ता की लापरवाही से बन गई है।
तिथि पंक्ति क्र. २९ में अंकों में संवत् १११२ आषाढ़ वदि १३ लिखी हुई है। इसमें दिन का उल्लेख न होने से इस का सत्यापन नहीं हो सकता। यह तिथि १३ जून, १०५६ ईस्वी के बराबर है।
प्रमुख ध्येय के अनुसार नरेश जयसिंहदेव द्वारा धारा नगरी में ठहरे पूर्णपथक मंडल में मक्तुला ग्राम ४२ के अन्तर्गत भीमग्राम दान देने का उल्लेख करना है ।
दान प्राप्तकर्ता का विवरण पंक्ति क्र. १४-१६ में है । इस के अनुसार उपरोक्त ग्राम अमरेश्वर (तीर्थ में स्थिति) पट्टशाला में (निवसित) ब्राह्मणों के लिये भोजन आदि के लिये दिया गया था।
__पंक्ति ३-६ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है। इसमें सवश्री वाक्पतिराजदेव, सिंधुराजदेव, भोजदेव व जयसिंहदेव के उल्लेख हैं। सभी के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां लगी हैं। वंश का नाम नहीं है।
परमार राजवंश के इतिहास में प्रस्तुत अभिलेख का अपना ही महत्व है। वंशावली में प्रथम तीन नरेशों के आपस में एक-दूसरे से संबंध पूर्णरूप से ज्ञात हैं। उसी प्रकार जयसिंह ने अपने को भोजदेव का पादानुध्यात लिखा है। तिस पर भी इन दोनों नरेशों का आपस में क्या संबंध था सो निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। यह स्वीकार करने में कठिनाई है कि जयसिंहदेव भोजदेव का पुत्र था।
___ अभिलेख से ज्ञात होता है कि संवत् १११२ तदनुसार १०५५-५६ ईस्वी में धारा नगरी में जयसिंहदेव राज्य कर रहा था। अन्यथा इस नरेश का परमार राजवंशावली, जो उदयपुर प्रशस्ति (क्र. २२) व नागपुर प्रशस्ति (क्र. ३६) आदि से प्राप्त होती है, में कोई उल्लेख नहीं है। दूसरे चूंकि जयसिंहदेव भोजदेव का उत्तराधिकारी था, इस कारण भोजदेव का शासनकाल इस तिथि से आगे बढ़ाया ही नहीं जा सकता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org