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________________ ८८ परमार अभिलेख मेरुतुंग रचित प्रबंधचितामणि से विदित होता है कि भोजदेव की मृत्यु के समय मालव राज्य पर पश्चिम की ओर से गुजरात के चौलुक्यों ने तथा पूर्व की ओर से कल्चुरियों ने सामूहिक रूप से आक्रमण कर लूटपाट की जिससे मालव तहस-नहस हो गया ( टाऊनी का अनुवाद, पृष्ठ ५०-५१ ) । उदयपुर प्रशस्ति व नागपुर प्रशस्ति से भी इसकी पुष्टि होती है । प्रतीत होता है कि भोजदेव के कोई पुत्र नहीं था अथवा कम से कम ऐसा पुत्र तो कतई नहीं था जो उस अत्यन्त कष्टमय समय में परमार राज्य की रक्षा कर सकता। नागपुर प्रशस्ति के अनुसार भोजदेव की मृत्यु पर साम्राज्य 'कुल्याकुले' बन गया अर्थात् परमारवंशीय राजकुमारों के आपसी झगड़ों के कारण साम्राज्य संकटग्रस्त हो गया। इस प्रकार विदित होता है कि भोजदेव की मृत्यु हो जाने पर राजसिंहासन के लिए संघर्ष शुरु हो गये। इनमें जयसिंह व उदयादित्य प्रमुख थे । कल्याणी के चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल की सहायता से जयसिंह परमार राजसिंहासन प्राप्त करने में सफल हो गया (विक्रमांकदेव चरित्, पर्व ३, श्लोक ६७ ) । अब स्वयं को भोजदेव का सही उत्तराधिकारी प्रदर्शित करने हेतु जयसिंह ने प्रस्तुत अभिलेख में स्वयं को भोजदेव का पादानुध्यात घोषित कर दिया । इसके विपरीत उदयादित्य एवं उसके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों में जयसिंहदेव प्रथम का कोई उल्लेख नहीं है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि जयसिंह की सफलता से उदयादित्य की महत्वाकांक्षा को आघात पहुंचा था। जब तक जयसिंह जीवित रहा उदयादित्य मालव सिंहासन प्राप्त न कर सका । १०७० ईस्वी में जयसिंह युद्धक्षेत्र में सोमेश्वर द्वितीय चालुक्य के हाथों मारा गया एवं चाहमान दुर्लभ तृतीय की सहायता से उदयादित्य मालव राजसिंहासन पर आरूढ़ हो गया ( पृथ्वीराज विजय, अध्याय ३, श्लोक ७७ ) । अत: उदयादित्य ने अपने अभिलेखों में जयसिंह प्रथम का उल्लेख ही नहीं किया । यही परम्परा उसके बाद के अभिलेखों में चालू रही । उपरोक्त आन्तरिक मतभेदों के कारण निश्चित ही परमार राज्य को काफी अशक्त कर दिया था क्योंकि शीघ्र ही धारा नगरी पर शत्रुओं ने अधिकार कर लूटा ( वडनगर प्रशस्ति, एपि. इं., भाग १, पृष्ठ २९७ श्लोक ९; मेरुतुंग कृत प्रबंधचित्तामणी, पृष्ठ ५१-५२) । नरेश जयसिंह वहां से भाग कर पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर आहवमल्ल प्रथम के पास सहायता हेतु गया । सोमेश्वर प्रथम ने अपने पुत्र विक्रमादित्य षष्ठ को सेना सहित भेजा । जयसिंह ने उसकी सहायता से मालव सिंहासन पुनः प्राप्त कर लिया। उसने अपनी पुत्री का विवाह विक्रमादित्य से कर दिया । विल्हणकृत विक्रमांकदेव चरित्, भाग ३, श्लोक ६७ में लिखा है- स मालवेन्दुं शरणं प्रविष्टमकण्टके स्थापयति स्म राज्ये । कन्याप्रदानच्छलतः क्षितीशाः सर्वस्वदानं बहवोऽस्य चक्रुः ।। ६७ ।। अर्थात् उस (विक्रमादित्य) ने शरण में प्रविष्ट हुए मालव नरेश को निष्कंटक राज्य में स्थापित किया, बहुत से नरेशों ने कन्यादान के बहाने से अपना सर्वस्य दान उसके लिए किया । उक्त सभी घटनायें १०५५-५६ ईस्वी में घट गई, क्योंकि प्रस्तुत अभिलेख जो इसके तुरन्त बाद का है जयसिंह ( प्रथम ) को मालव राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित प्रदर्शित करता है । भौगोलिक स्थलों में अमरेश्वर नर्मदा नदी पर मान्धाता के पास है । पूर्वपथक मंडल ताप्ती नदी की सहायक पूर्ण नदी से घिरा भूभाग है । शेष स्थानों के समीकरण में कठिनाई है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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