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________________ कालवन अभिलेख २. व साध लिया है शत्रुपक्ष को जिसने ऐसा, जिसकी विस्तृत कीर्ति से चारों दिशाएं ध्वलित ( शुभ्र ) हो गई हैं ऐसा श्री सीयकदेव का पादानुध्यायी जो सरस्वती ३. के मस्तक का तिलक रूप बन गया, जिसने काव्य के द्वारा कवियों के सिरों को व बाणों के द्वारा • शत्रुपक्ष के सिरों को झुका दिया, ४. श्री वाक्पतिराजदेव के पादानुध्यायी अनेक महायुद्धों में शत्रु पर विजय प्राप्त कर जो जनता में विख्यात हो गया, ५. जिसने पर्वतों व समुद्रों तक विस्तृत सारी पृथ्वी को अपने यश से निर्मल कर दिया, श्री सिंधुराज देव के पादानुध्यायी महाबली व प्रचण्ड ६. शत्रुपक्ष को नष्ट करने वाला, कर्णाट लाट गुर्जर चेदि-नरेश कोंकण - अधिपति आदि शत्रुपक्ष को नष्ट कर भय उत्पन्न करने वाला, जिसके यश से तीनों लोक शुभ्र हो गए हैं ऐसे श्री भोजराजदेव के प्रसाद से प्राप्त आधा सेल्लुक नगर ८. साथ में डेढ़ हजार ग्रामों का भोक्ता श्री यशोवर्मा उस विषय मुक्तापली में चौरासी ७ ८-५ ९. मान्य कपट्ट (कर - मुक्त ) औद्रहादि विषय में सामन्त गंग कुल के तिलक के समान श्री अम्मराणक १०. के द्वारा श्वेताम्बर आचार्य श्री अम्मदेव के मुख से विख्यात धर्म व अधर्म के आगम वाक्य से प्रबोधित ११. चिन्ह से अन्य धर्म की अपेक्षा मुख्य जिनधर्म परलोक शुभफल देने वाला है ऐसा सोचकर ( दूसरा ताम्रपत्र -- अग्रभाग ) १२. मन में निश्चय करके महिषबुद्धिका क्षेत्र में श्री कलकलेश्वर पुण्यतीर्थ में १३. इस चैत्रमास की अमावस्या पर सूर्यग्रहण के अवसर पर सागर की लहरों के समान चंचल, जीवलोक की छाया १४. के समान लक्ष्मी व फेन के समान जीवन को समझ कर, माता पिता व स्वयं के पुण्य यश १५. व लक्ष्मी की वृद्धि के लिए पुण्य व उत्तम तीर्थ में यज्ञोपवीत सहित हाथ में जल ग्रहण कर के पवित्र १६. कमंडलु से चालुक्य वंश में उत्पन्न धर्मपत्नी श्री चच्चाई राज्ञी के द्वारा निक्षिप्त जल से १७. दोनों चरण धोकर यह भूमि ( मेरे द्वारा) दान में दी गई जो मुक्तापली के उत्तर से माहुडला ग्राम की उत्तर १८. दिशा में चालीस निवर्तन भूमि, इसकी सीमा पूर्व में नदी, दक्षिण में हथावाड ग्राम सीमा १९. व पश्चिम में कांकडा खाई, उत्तर में पर्वत, इस प्रकार चारों ओर से घिरी यह विशुद्ध भूमि तथा २०. डोंगरिका कुमारीस्तन के दोनों तटों पर श्री कक्कपैराज द्वारा दी गई पच्चीस निवर्तन भूमि २१. तथा वकाइगल आदि नागरिक के द्वारा संगाम नगर की सीमा के पास २२. चडैलीवट में पैंतीस निवर्तन, पुष्पवाटिका की दो निवर्तन भूमि ( दूसरा ताम्रपत्र- पृष्ठ भाग ) २३. दो तेल घाणी, चौदह व्यापारिक दुकानें, चौदह द्रम्म (सिक्के) एवं चौदह छत्र दिये गये । दुकानों में २४. गलियों में प्रतिपत्र पचास, सभी लुप्त ( टूटे हुओं) का जीर्णोद्धार किया गया, चन्द्र २५. व सूर्य जब तक स्थित हैं, श्वेतपद के जिनमंदिर में श्री मुनि सुव्रतदेव के लिये दिये गये, अभिषेक पूजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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