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________________ बेटमा अभिलेख ५५ ५. के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव कुशलयुक्त हो न्यायप्रद सप्तादशक ६. के अन्तर्गत नालतडाग में आये हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के निवासियों, पटेलों और ग्रामीणों ७. को आज्ञा देते हैं-आपको विदित हो कि हमारे द्वारा स्नान कर चर व अचर के स्वामी ___ भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर संसार की असारता देख कर ___ इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाले हैं, मानव प्राण तिनके के आग्रभाग पर रहने वाली जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।।३।। . घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील एंसी लक्ष्मी को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥ १०. इस जगत का विनश्वर ११. स्वरूप समझकर ऊपर लिखा ग्राम अपनी सीमा तृण गोचर भूमि तक साथ में हिरण्य भाग भोग १२. उपरिकर और सभी प्रकार की आय समेत विशाल ग्राम से आया जिसके पूर्वज स्थानीश्वर से निकलकर आये थे। १३. ये हस्ताक्षर स्वयं भोजदेव के हैं। (दूसरा ताम्रपत्र) १४. कौशिक गोत्री, अघमर्षण विश्वामित्र व कौशिक इन तीन प्रवरों, माध्यंदिन शाखी, भट्ट १५. ठट्ठसिक के पुत्र पंडित देल्ह के लिये कोंकणग्रहण विजय पर्व पर माता पिता व स्वयं के पुण्य १६. व यश की वृद्धि के लिये अदृष्टफल को अंगीकार कर चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक - परमभक्ति के साथ राजाज्ञा द्वारा जल १७. हाथ में लेकर दान दिया है, यह मानकर जैसा दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि हमारी आज्ञा श्रवण करके १८. पालन करते हुए सभी इसको देते रहना चाहिये । और इस पुण्यफल को समान रूप जानकर हमारे वंश में व अन्यों में भी उत्पन्न होने वाले भावी १९. भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये और कहा गया है- सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है ॥५॥ यहां पूर्व के नरेशों द्वारा धर्म व यश हेतु जो दान दिये गये हैं, त्याज्य एवं के के समान जानकर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापस लेगा।।६।। हमारे उदार कुल क्रम को उदाहरण रूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ।।७।। सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समानरूप धर्म का सेतु है अत: अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिये ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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