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परमार अभिलेख
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझकर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ||९|| २६. यह संवत् १०७६ भाद्रपद सुदि १५ । हमारी
२७. आज्ञा । मंगलमहाश्री । यह स्वयं श्री भोजदेव के हस्ताक्षर हैं ।
(१२) उज्जैन का भोजदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
- ( संवत् १०७८ = १०२१ ईस्वी)
प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है । ये १८७० ई. में उज्जैन के पास नागझरी में खेत से मिले थे । इसका प्रथम उल्लेख नीलकंठ जनार्दन कीर्तने ने इं. ऐं., भाग ६, १८७ पृष्ठ ४९ व आगे में किया । फिर विश्वेश्वरनाथ रेऊ ने अपने ग्रन्थ 'राजा भोज' में १९३२ में इसका विवरण दिया । ताम्रपत्र संभवत: इंडिया आफिस लायब्रेरी, लंदन में रखे हैं ।
ताम्रपत्रों का आकार ३०.४x२०.३२ सें. मी. है । इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है । दो-दो छेद बने हैं जिनमें कड़ियां पड़ी थीं । किनारे कुछ मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं। अभिलेख ३१ पंक्तियों का है । प्रथम ताम्रपत्र पर १६ व दूसरे पर १५ पंक्तियां हैं । लेख सुन्दर है । दूसरे ताम्रपत्र पर दोहरी लकीरों के चौकोर में उड़ते गरूड़ का राजचिन्ह है । इसके बायें हाथ में नाग है व दाहिना हाथ मारने के लिये उठा है ।
अक्षरों की बनावट ११ वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर गहरे एवं ढंग से खुदे हैं । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है । इसमें नौ श्लोक हैं, शेष गद्य में है । व्याकरण के वर्णविन्यास . की दृष्टि से ब के स्थान पर व, स के स्थान पर श, श के स्थान पर स म् के स्थान पर अनुस्वार हैं । र के बाद का व्यंजन दोहरा हैं। कुछ शब्द ही गलत है। इन सभी को पाठ में ठीक कर दिया है । ये स्थान व काल का प्रभाव प्रदर्शित करती हैं। कुछ त्रुटियां उत्कीर्णकर्ता द्वारा भी बन गई है ।
इसमें दो तिथियां हैं । प्रथम तिथि पंक्ति ८-९ में शब्दों में ग्रामदान प्रदान करने की संवत्सर १०७८ माघ वदि तृतीय रविवार है । उस दिन सूर्य का उत्तरायण प्रारम्भ हुआ था । यह रविवार २४ दिसम्बर, १०२१ ईस्वी के बराबर है । दूसरी तिथि पंक्ति २०-२१ में अंकों में ताम्रपत्र लिखवा कर प्रदान करने की संवत् १०७८ चैत्र सुदि १४ है । यह सोमवार ३० मार्च १०२२ ई. के बराबर है ।
प्रमुख ध्येय के अनुसार श्री भोजदेव ने नागद्रह पश्चिम पथक के अन्तर्गत विराणक ग्राम दान में दिया था । दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण भट्टगोविन्द का पुत्र धनपति भट्ट था । वह ऋग्वेद की वह वृचाश्वलायन शाखा का अध्यायी, अगस्ति गोत्री, तीन प्रवरों वाला था । उसके पूर्वज वेल्लबल्ल से संबद्ध श्रीवादा से देशान्तरगमन करके आये राधासुरसंग के कर्णाट थे । किंदवन्ती के अनुसार राजा भोजदेव
विद्याध्ययन हेतु राजधानी में आये विद्यार्थियों के लिए एक विद्याकेन्द्र बनवाकर गोविन्द भट्ट को उसका अध्यक्ष नियुक्त किया था। संभव है कि प्रस्तुत अभिलेख के धनपति भट्ट का पिता गोविन्द भट्ट "ही वह व्यक्ति हो ।
दानकर्ता नरेश की वंशावली के अनुसार सर्वश्री सीयकदेव, वाक्पतिराजदेव, सिंधुराजदेव व भोजदेव के उल्लेख हैं । इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हैं। वंश का नाम नहीं है ।
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