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________________ उज्जैन अभिलेख ग्रामदान का अवसर महत्वपूर्ण है । यह "उदगयन पणिकल्पित हलानां लेख्ये' अर्थात् सूर्य के उत्तरायण के प्रारम्भ होने पर संकल्पित हलों के लिखे जाने के अवसर पर है। कीर्तने महोदय के अनुसार बैलों की एक जोड़ी द्वारा जोती जाने योग्य भूमि को एक हल भूमि कहा जा सकता है । रेऊ का अनुमान है कि भोजदेव के समय में माघ मास में खेत जोतने वाले कृषकों से लगान आदि की शर्ते तय की जाती होंगी। अतः संभावना यही है कि सूर्य का उत्तरायण प्रारम्भ होते ही उस काल में खेत जोतने वालों के साथ लिखापढ़ी होती होगी। यहां ग्रामदान देने व ताम्रपत्र लिखवा कर प्रदान करने में ३ मास का अन्तर है। निश्चित ही नरेश किसी अन्य आवश्यक कार्य में व्यस्त रहा होगा । परन्तु वह कार्य क्या था इसका वर्तमान में ठीक से निर्धारण करना सरल नहीं है। भौगोलिक स्थानों में नागद्रह का तादात्म्य नागझरी से किया जा सकता है जो उज्जैन के पास एक छोटी नदी है । यह वहां की पंचक्रोशी यात्रा के अन्तर्गत है। यह समीकरण इस कारण भी सही है कि प्रस्तुत दानपत्र इसी नदी के पास खेत से मिले थे। नागद्रह पश्चिम पथक नागझरी नदी के पश्चिम का भूभाग है । वीराणक की समता वरवान से की जा सकती है जो उज्जैन के उत्तर पश्चिम में नागदा के पास पश्चिमी रेलवे का एक रेलवे स्टेशन है। मूलपाठ (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं। जयति व्योमकेशोसौ य: सम्य वि (बि) भति तां (ताम् ) एन्दवी शिरसा लेखां जगढी (द्वी)जांकुराकृतिम् ।।[१।।] तन्वन्तु वः स्मराराते कल्याणमनिशं जटाः । कल्पान्तसमयोद्दाम तडिद्वलय पिङ्गलाः ।।२।। परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसीयकदेव-पादा४. नुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीवाक्पतिराजदेव५. पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसिन्धुराजदेव पादानुध्यात - ६ . परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीभोजदेवः कुशली । नागद्रह-पश्चिमपथ७. कांतःपति वीराणके समुपगत्तान्समस्त राजपुरुषान्त्रा (ब्रा) ह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि-पट्टकि८. ल-जनपदादींश्च समादिशत्यस्तु वः संविदितं । यथा अतोताष्टसप्तत्यधिक-साहस्रिक९. सम्वत्सरे माघासित-तृतीयाम् । रवावुदगयनपव्वणि कल्पित-ह१०. लाना लेख्ये । श्रीमद्धारायामवस्थित रस्माभिः स्नात्वा चराचर गुरूं भगव११. न्त (तं) भवानीपति समभ्यर्च्य संसारस्यासारतां दृष्ट्वा । १२. . . वाताभ्रविभ्रममिदम्वसुधाधिपत्यमापातमात्र मधुरो विषयोपभोगः । प्राणास्तृणाग्रजलवि (बि)न्दु समा नराणां धर्मस्स परमहो परलोकयाने ।।३।।] भ्रमत्सन (सं) सार-चक्राग्र-धाराधारामिमां श्रियं (यम्)। प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चात्ताप: परं फलं (लम्) ।।४।। इति जगतो विनश्वरं स्वरूपमाकलय्योपरि--.. १५. लिखितग्रामः स्वसीमा-तृणगोचरयूति पर्यन्तस्स-हिरण्यभागभो१६. 'स्वहस्तोय (यं) श्रीभोजदेवस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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